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महादेवस्तोत्रम् अहम्=मैं, वन्दे वन्दना करता हूं - मैं उस महेश्वर देवको प्रणाम करता हूँ ॥२॥
भावार्थ-जिस देवने सर्वकर्मक्षय तथा केवल-दर्शन, ज्ञान,. चारित्र आदि असाधारण एवं अलौकिक गुणरूपी महिमासे तथा सहज आदि अतिशयरूपी ऐश्वर्यसे महेश्वरपन प्राप्त किये हैं— महेश्वर कहे गये हैं। मैं वीतराग ऐसे उस महेश्वर देवको प्रणाम करता हूँ। (जिन परतीर्थिकों के महेश्वरकी महिमा अलौकिक एवं असाधारण नहीं, किन्तु जगतका पालन संहार आदि लौकिकहीं कही गयी है, तथा सहज आदि अतिशय नहीं कहे गये हैं, एवं स्त्री आदि परिग्रहशत्रुनिग्रह-भक्तानुग्रह आदिके कारण जो वीतराग नहीं हैं। वे शब्दसे ही महेश्वर हैं, अर्थसे नहीं। इसलिये वे मुमुक्षुओंके प्रणम्य नहीं - ऐसा अभिप्राय है ) ॥२॥
महाज्ञानं भवेद्यस्य लोकालोकप्रकाशकम् । महादया-दम-ध्यान महादेवः स उच्यते ॥ ३ ॥
पदार्थ-यस्य=जिस देवका, महाज्ञानम्-महान्-अन्य ज्ञानों की अपेक्षासे उत्तम, विशुद्ध, नित्य एवं अनन्त, ज्ञान - केवलज्ञान, लोकालोकप्रकाशकम् लोक - संसार तथा संसारमें रहनेवाले भूत भविष्य तथा वर्तमान सभी द्रव्य तथा उसके पर्याय, अलोक-संसारसे बाहरका आकाश-उन दोनोंका, प्रकाशक ग्रहण करनेवाला जानने वाला है, अथवा लोकालोकप्रकाशक होनेके कारण जिनका ज्ञान महाज्ञान है, तथा, महादया-दम-ध्यानम् महान् - सर्वजीवों के प्रति