Book Title: Sramana 1999 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण ŚRAMANA पर्युषण अंक जुलाई - सितम्बर १९९९ ई० पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी PĀRŚVANATHA VIDYĀPĪTHA, VARANASI Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमण पार्श्वनाथ विद्यापीठ की त्रैमासिक शोध-पत्रिका वर्ष 50, अंक 7-9 जुलाई-सितम्बर 1999 प्रधान सम्पादक परामर्शदाता प्रोफेसर भामचन्द्र जैन प्रोफेसर सागरमल जैब सम्पादक डॉ. शिवप्रसाद प्रकाशनार्थ लेख-सामग्री, समाचार, विज्ञापन एवं सदस्यता आदि के लिए सम्पर्क करें सम्पादक श्रमण पार्श्वनाथ विद्यापीठ आई.टी.आई. मार्ग, करौंदी पो.आ.-बी.एच.यू. वाराणसी-221005 (उ.प्र.) दूरभाष : 316521,318046 फैक्स : 0542-318046 ISSN - 0972-1002 वार्षिक सदस्यता शुल्क संस्थाओं के लिए : रु. 150.00 व्यक्तियों के लिए : रु. 100.00 इस अंक का मूल्य : रु. 25.00 आजीवन सदस्यता शुल्क संस्थाओं के लिए : रु. 1000.00 व्यक्तियों के लिए : रु. 500.00 नोट : सदस्यता शुल्क का चेक या ड्राफ्ट केवल पार्श्वनाथ विद्यापीठ के नाम से ही भेजें। - Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान सम्पादकीय श्रमण पिछले पचास वर्षों से सतत् प्रकाशित हो रहा है। इस बीच उसने जैन संस्कृति से सम्बद्ध प्रायः सभी पक्षों पर प्रामाणिक शोध आलेख प्रस्तुत किये हैं जिन्हें विद्वानों ने भरपूर सराहा है। विद्वज्जगत् में ऐसे आलेखों पर खूब मन्थन भी हुआ है जिससे शोध के नये आयाम भी खुले हैं। मैंने पार्श्वनाथ विद्यापीठ के प्रोफेसर एवं निदेशक के रूप में अभी-अभी कार्यभार सम्भाला है। पर्युषण पर्व नजदीक था इसलिए उसकी उपयोगिता को ध्यान में रखकर हमने श्रमण का यह अङ्क 'पर्युषण विशेषांक' के रूप में प्रकाशित किया है। इसमें पर्युषण पर एक समग्र पुस्तक हम पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, पाठक इसे स्वीकार करेंगे। भविष्य में भी इसी प्रकार श्रमण को अधिक सशक्त और उपयोगी बनाने की दृष्टि से हम किसी विषय विशेष पर समग्रता की पृष्ठभूमि में सामग्री प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे। इस अङ्क से हम गुजराती भाषा के भी आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं। इस तरह अब श्रमण तीन भाषाओं में पाठक के सामने आया करेगा। इसमें सभी का सहयोग अपेक्षित एवं प्रार्थित है। भागचन्द्र भास्कर प्रधान सम्पादक Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची ॐ 39 १०. हिन्दी खण्ड इस अंक के हिन्दी खण्ड के सभी लेख प्रो० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' द्वारा लिखे गये हैं। १. पर्युषण : सही दृष्टि देने वाला महापर्व १.९ तीर्थङ्कर ऋषभदेव और उनकी सांस्कृतिक परम्परा १०-२६ महावीर और उनकी परम्परा २७-६३ क्रोध का अभाव ही क्षमा है ६४-७० जीवन की सरलता ही मृदुता है ७१-७६ जीवन की निष्कपटता ही ऋजुता है ७७-८९ जीवन की निर्मलता ही शुचिता है ८२-८७ सत्य : साधना की ओर बढ़ता पदचाप ८८-९३ मन पर नकेल लगाना ही संयम है ९४-९९ स्वस्थ होना ही उत्तम तप है १००-१११ ११. राग-द्वेष भाव का विसर्जन ही त्याग है ११२-११७ १२. निर्ममत्व की ओर बढ़ना ही आकिञ्चन्य है ११८-१२२ १३. आत्मा में रमण करना ही ब्रह्मचर्य है १२३-१२९ गुजराती खण्ड १. भाषाना विकासमां प्राकृत-पालिभाषानो फालो १३०-१४० __ - पं0 बेचरदास दोशी २. जैन परंपरानुं अपभ्रंश साहित्यमा प्रदान १४१-१५० - प्रा० हरिवल्लभ चु० भयाणी अंग्रेजी खण्ड 1. Jaina Festivals Padmanabh S. Jaini 151-159 2. Fear of Food? Jaina Attitudes on Eating 160-174 Padmanabh S. Jaini पार्श्वनाथ विद्यापीठ के नये निदेशक १७५-१७६ विद्यापीठ के प्रांगण में १७६-१७८ जैन-जगत् १७९-१८५ साहित्य-सत्कार १८६-१९४ Composed at: Sarita Computers, Aurangabad, Varanasi, Ph.No. 359521 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ पर्युषण : सही दृष्टि देने वाला महापर्व व्यक्ति साधारण तौर पर भौतिक चकाचौंध में इतना अधिक अन्धा हो जाता है कि उसे पञ्चेन्द्रिय वासनाओं के दुष्फलों की ओर सोचने का भी बोध जाग्रत नहीं होता । वह काम, क्रोधादि विकारों में आपाद मग्न रहता है और धर्म की वास्तविकता को पहचानने से इन्कार कर देता है। इस इन्कार करने की तसवीर को बदलने के लिए आध्यात्मिक पर्व निश्चित ही अमोघ साधन का काम करते हैं। पर्युषण पर्व का अर्थ पर्व के अनेक अर्थ होते हैं। यथा बांस या पौधों या अंगुलियों की पोरियों ' का सूचक होता है- पर्व। वह महीनों का विभाग करता है और पुस्तक के अध्याय- परिवर्तन को भी सूचित करता है। मत्स्यपुराण (१४८.२८.३२) के अनुसार पर्व धार्मिक कार्यों के लिए अच्छे अवसर प्रदान करता है । इस दृष्टि से अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा और संक्रान्ति ये सभी पर्व ही हैं। जब पूर्णिमा अथवा अमावस्या का अन्त होता है और प्रतिपदा का प्रारम्भ होता है उस काल को भी पर्व कहा जाता है। श्रावक प्र० टीका (३२१) के अनुसार जैन परम्परा में भी ऐसे ही समय को पर्व का अभिधान दिया गया है। ऐसे पर्वों में पर्युषण (पज्जुसणा) पर्व अथवा दशलक्षण पर्व का विशेष महत्त्व है। जैन संस्कृति में यह पर्व साधारणतः वर्षावास प्रारम्भ होने के ५० दिन बाद प्रारम्भ होता है । वर्षायोग का प्रारम्भ आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी की रात्रि के प्रथम प्रहर से हो जाता है और कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि के पिछले प्रहर में उसकी समाप्ति होती है । किसी विशेष प्रसङ्ग में साधु चातुर्मास के बाद भी पन्द्रह दिन तक और रुक सकता है। चातुर्मास के पीछे जीवों का संरक्षण और आध्यात्मिक वातावरण का निर्माण मुख्य ध्येय रहा है । इस दृष्टि से चातुर्मास के लगभग मध्य भाग में इस महापर्व का प्रारम्भ हुआ है। भाद्रपद मास वैसे ही कल्याणकारी माना गया है। इस महापर्व का प्रारम्भ दिगम्बर परम्परा में भाद्रपद शुक्ल पंचमी से होता है और श्वेताम्बर परम्परा में यह पर्व इसके आठ दिन पूर्व शुरू हो जाता है और भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी का दिन संवत्सरी के रूप Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में मनाया जाता है। पर दिगम्बर परम्परा इसे दस दिन तक मनाती है। वहाँ यह पर्व पञ्चमी से प्रारम्भ होता है और चतुर्दशी तक चलता है। श्वेताम्बर परम्परा में इसे पर्युषण पर्व कहा जाता है और दिगम्बर परम्परा इसे दशलक्षण पर्व के नाम से पुकारती है। यहाँ भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी एक ऐसा दिन है, जिसे दोनों परम्परायें स्वीकार करती हैं। एक दिन का ही पर्युषण मानने वाली अन्यतम श्वेताम्बर परम्परा इसे संवत्सरी अथवा खमतखामणा के रूप में मनाकर पारस्परिक मनोमालिन्य को दूर करती है, जबकि दिगम्बर परम्परानुयायी पूर्णिमा के बाद प्रतिपदा को क्षमावाणी पर्व मनाती है; क्योंकि पूर्णिमा तक रत्नत्रय व्रत चलते हैं। इस तरह यह पर्व लगातार बीस दिन तक चलता रहता है। पर्युषण की परम्परा ___परम्परानुसार प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के काल को छोड़कर शेष बाईस तीर्थङ्करों के समय में वर्षावास का निश्चित विधान नहीं था। दोष की कोई सम्भावना न होने पर साधु कितने ही समय तक एक स्थान पर रह सकता है। यदि दोष की सम्भावना हो तो एक माह भी उसे वहाँ नहीं रहना चाहिए (बृहत्कल्पभाष्य, ६४३५)। परन्तु प्रथम तीर्थङ्कर आदिनाथ और अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर के समय वर्षावास का एक निश्चित विधान रहा है। तदनुसार आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी तक वर्षावास कर लेना चाहिए। निशीथचूर्णि (३१५३) के अनुसार किन्हीं विशेष परिस्थितियों में यह वर्षावास काल एक माह बीस दिन तक और आगे बढ़ाया जा सकता है। इसके बाद साधु को हर कीमत पर भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी को वर्षावास कर ही लेना चाहिए। इसके समर्थन में समवायांग (७०वां स्थान, आयारदशा ८, कप्पदसा) का वह स्थल प्रस्तुत किया जा सकता है जिसमें कहा गया है कि.तीर्थङ्कर महावीर ने भी वर्षावास के पचासवें दिन पर्युषण किया था। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि दिगम्बर परम्परा इसी दिन से पर्युषण पर्व प्रारम्भ करती है और श्वेताम्बर परम्परा उसे संवत्सरी अथवा क्षमावाणी पर्व के रूप में मनाती है। जो भी हो, यह दिन दोनों परम्पराओं में समान रूप से क्षमा पर्व के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व आध्यात्मिक संस्कृति का एक अलौकिक पर्व है। इसमें समाज का हर व्यक्ति जप, तप, स्वाध्याय और अनुष्ठान में लगा रहता है। श्वेताम्बर आगमों में पर्युषण के लिए दो शब्द मिलते हैं - पज्जुसणा और पज्जोसमणा। कल्पसूत्र आदि की टीकाओं में 'पज्जुसणा' के अनेक पर्यायार्थक शब्द मिलते हैं जिनका अर्थ इस प्रकार है - १. पज्जोसमणा (पर्योपशमना) - इस समय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सम्बन्धी ऋतुबद्ध पर्यायों का परिहार किया जाता है और तपश्चरण, केशलुंचन, Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण आदि क्रियायें- साधनार्थ की जाती हैं। इन साधनाओं से क्रोधादि कषायों का उपशमन हो जाता है। २. पज्जुसणा (पर्युषणा) – इस समय देव-शास्त्र-गुरु की उपासना की जाती है। यह वर्षावासीय अवस्थिति का सूचक है। ३. परियायउवणा - साधु की दीक्षा-पर्याय की गणना पर्युषण काल से होती थी। ४. पागइया - प्राकृतिक रूप से यह पर्व साधु एवं गृहस्थ वर्ग के लिए समाराधनीय है। ५. पढमसमोसरण - वर्षावास के प्रथम माह का प्रथम दिन है। आषाढ़ी पूर्णिमा को संवत्सर समाप्त होने के बाद श्रावणी प्रतिपदा से प्रारम्भ होने वाले नये वर्ष का प्रथम दिन है। दिगम्बर परम्परानुसार महावीर की प्रथम देशना श्रावणी प्रतिपदा को ही हुई थी। इसलिए इसे पढमसमोसरण कहा जाता है। ये सभी शब्द व्यक्ति की आध्यात्मिक साधना के आस-पास घूमते दिखाई देते हैं। पर्युषण शब्द का अर्थ ही है- परि समन्तात् उषणा वासः पर्युषणा अथवा परि समन्तात् ओषति दहति समूलं कर्मजालं यत् तत् पर्युषणम् अर्थात् सम्पूर्ण रूप से आत्मा के समीप बैठकर कर्मजाल को भस्म करना पर्युषण है। सम्यक् तप, सामायिक, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि के माध्यम से जीवन की सही पहचान कर आत्मसिद्धि प्राप्त करना ही इसका उद्देश्य है। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि जीवन के कृष्ण पक्ष से प्रारम्भ कर आत्मा की कलुषता को दूर कर त्याग, तपस्या आदि के माध्यम से शुक्लपक्ष अर्थात् निर्मल क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। जीवन को सम्हालने और सम्हारने की दृष्टि से हमारे आराध्य तीर्थङ्करों और आचार्यों के उदाहरण हमें प्रेरक सूत्र के रूप में उपस्थित रहें, इस दृष्टि से श्वेताम्बर समाज में अन्तकृद्दशासूत्र, दशवैकालिकसूत्र और कल्पसूत्र की वाचना की जाती है। इन सूत्रों को आठ दिनों में विभाजित कर लिया जाता है। अन्तकृद्दशासूत्र में तो वर्ग भी आठ ही हैं। इसी तरह कल्पसूत्र के तीन भाग हैं - तीर्थङ्करों का जीवन चरित्र, स्थविरावली और सामाचारी। स्थानकवासी परम्परा में अन्तकृद्दशा और दशवैकालिकसूत्र का वाचन होता है, तो मूर्तिपूजक परम्परा में कल्पसूत्र का। तेरापंथी परम्परा में किसी ग्रन्थ विशेष का वाचन नहीं होता, यहाँ आहार आदि विभिन्न संयमों पर आचार्य या मुनि व्याख्यान देते हैं। इन व्याख्यानों में तीर्थङ्करों का अनुकरण कर जिन आचार्यों ने जिस प्रकार की आत्मसाधना की उसका समुचित वर्णन व पठन-पाठन इस पर्व में हो जाता है। दिगम्बर परम्परा में इन दिनों क्षमादि दस धर्मों का विवेचन किया जाता है, जो जीवन को पवित्र बनाने में साधक होते हैं। ये दोनों परम्परायें एक-दूसरे की परिपूरक हैं। इसलिए इस Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणकल्परूप को आठ या दस दिन का न होकर अठारह या बीस दिन का होना चाहिए। दशलक्षण धर्म की परम्परा समवायांगसूत्र, पंचशतकप्रकरण, भगवती आराधना, मूलाचार आदि ग्रन्थों में वर्षावास का सन्दर्भ पर्युषणकल्प के नाम से आया है और इस समय को अध्यात्म-साधना की दृष्टि से अधिक उपयुक्त बताया गया है। इसलिए दशलक्षणमूलक धर्म की आराधना के लिए आचार्यों ने इस महापर्व की स्थापना की है। तीर्थङ्कर महावीर भी वर्षावास करते रहे हैं। इसका उल्लेख जैन-बौद्ध आगमों में स्पष्ट रूप से मिलता है। दशलक्षण पर्व की स्थापना आगमों के आधार पर उत्तरकाल की देन है। कुन्दकुन्द की द्वादशानुप्रेक्षा के बाद कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कदाचित् सर्वप्रथम इसका व्यवस्थित उल्लेख आता है। १ स्वामी कार्तिकेय ने आचार्य कुन्दकुन्द का अनुसरण किया है। कुन्दकुन्द ने अनुप्रेक्षाधिकार में उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों का स्पष्ट उल्लेख किया है। स्थानाङ्ग (१०.१६) में भी धर्म के दश भेद किये गये हैं, पर वहाँ दूसरे क्रम पर मुक्ति और पांचवें क्रम पर लाघव का उल्लेख है; जबकि कुन्दकुन्द की परम्परा में इनके स्थान पर शौच और आकिञ्चन्य धर्मों को नियोजित किया गया है। इन दोनों परम्पराओं में क्रम-व्यत्यय भी देखा गया है। तत्त्वार्थसूत्र में 'सत्य' के स्थान पर शौच और शौच के स्थान पर 'सत्य' का प्रयोग हुआ है। इन सभी का आधार कदाचित् आचाराङ्ग (६.५) का वह सूत्र है, जिसमें कहा गया है- सभी को इन आठ धर्मों का उपदेश ग्रहण करना चाहिए - संति (क्षान्ति), विरतिं (विरति), उवसयं (उपशम), णिव्वाणं (निवृत्ति), सोयं (शौच), अज्जवियं (आर्जव), मद्दवियं (मार्दव) और लाघवियं (लाघव)। इसी परम्परा को उत्तरकाल में दश धर्मों के रूप में विकसित किया गया है। यही कारण है कि आचार्य कन्दकन्द और उमास्वामी के समान ही समवायांग और अन्तकृद्दशांगसूत्र में दश धर्मों का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। प्रवचनसारोद्धार (५५४) में 'मुक्ति के स्थान पर त्याग और आवश्यकचूर्णि (२.११६) में मुक्ति का उल्लेख है, पर वहाँ तप के स्थान पर 'त्याग' को समाहित किया गया है। इन उल्लेखों से लगता है मुक्ति, लाघव, त्याग और तप के आकलन में अन्तर अवश्य हुआ है। पर यह कोई विशेष अन्तर नहीं है। वे सब वस्तुतः एक-दूसरे से अत्यन्त सम्बद्ध हैं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इन श्रमण धर्मों के क्रम में भी कुछ अन्तर रहा है। उदाहरण के तौर पर मूलाचार (७५२) में क्षमा, मार्दव, आर्जव, लाघव, तप, संयम, आकिंचन, ब्रह्मचर्य, सत्य और त्याग ये दश धर्म गिनाये गये हैं। यहां शौच के स्थान पर लाघव को रखा गया है। इसका तात्पर्य है श्वेताम्बर परम्परा और मूलाचार परम्परा जुड़ी हुई रही है। मूलाचार को कुन्दकुन्द का ग्रन्थ यदि हम मान लें For Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो यह निष्पत्ति हो सकती है कि उनके समय तक दोनों परम्परायें चल रही थीं। उत्तरकाल में कुन्दकुन्दाचार्य ने द्वादशानुप्रेक्षा (७० गाथा) में लाघव वाली परम्परा को छोड़कर क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन और ब्रह्मचर्य ये दश धर्म स्वीकार कर लिये। वर्तमान में दिगम्बर परम्परा इन्हीं दश धर्मों को इसी क्रम में स्वीकार करती है। इन धर्मों के साथ श्वेताम्बर परम्परा में “साधु” अथवा “उत्तम' ये दो विशेषण प्रयुक्त हुए हैं। उदाहरण के लिए ठाणांग (५.४१) में 'साधु' और उत्तराध्ययन (९.५८) में 'उत्तम' विशेषण का प्रयोग हुआ है। पर दिगम्बर परम्परा में 'उत्तम' विशेषण का ही प्रयोग अधिक प्रचलित रहा है।३ वैसे दोनों शब्द लगभग समानार्थक हैं। यद्यपि ये धर्म मुख्यत: साधु वर्ग के लिए हैं (द्वादशानुप्रेक्षा, ६८)। पर यथाशक्ति श्रावकों द्वारा भी उनका पालन किया जाना चाहिए (पञ्चविंशति, ६.५९)। 'साधु' और 'उत्तम' विशेषणों के पीछे आचार्यों का यही उद्देश्य रहा है कि साधक धर्माराधना में ख्याति, पूजा, सत्कार आदि का भाव न रखे, बल्कि निवृत्तिमार्ग में अपनी चेतना को अधिष्ठित किये रहे। (रा०वा०, ९.६.२६; उत्तरा०, ९.५८)। उपर्युक्त धर्मों की व्याख्या आचार्यों ने श्रावकों और साधुओं के लिए की है। इसी को अणुव्रत और महाव्रत कहा जाता है। यह तो परम्परा रही ही है कि साधु श्रावक को पहले यतिधर्म का उपदेश दे और यदि वह उसकी शक्ति के बाहर दिखे तो फिर श्रावक धर्म की व्याख्या करे। अमृतचन्द्राचार्य ने इसी का पालन किया है। पर हरिभद्रसूरि ने धर्मबिन्दुप्रकरण का प्रारम्भ ही श्रावक धर्म से किया है। अत: यह कहा जा सकता है कि जैन परम्परा में ये दोनों पद्धतियाँ प्रचलित रही हैं। पर्युषणकल्प का अर्थ पर्युषण का अर्थ हम देख ही चुके हैं। पर्युषणकल्पसूत्र के अनुसार 'कल्प' शब्द का अर्थ है-आचार, मर्यादा अथवा सामाचारी। आचार्य उमास्वाति ने प्रशमरतिप्रकरण (पद्य, १४३) में इस शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि जिस कार्य या आचरण से ज्ञान, शील, तप आदि की वृद्धि हो और उनके विघातक दोषों का नाश हो वह कल्प कहलाता है - सज्ज्ञानशीलतपसामुपग्रहं च दोषाणाम्। कल्पयति निश्चये यत् तत्कल्पमवसेयम्।। बृहत्कल्पसूत्र में दस कल्पों का वर्णन मिलता है - (१) आचेलक्य - अचेलकता, नग्नता अथवा अल्पवस्त्रता। इन्हें क्रमश: जिनकल्पी और स्थविरकल्पी श्रमण कहा जाता है। इन्हें अचेलक और सचेलक भी Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा जाता है। (२) औद्देशिक – किसी श्रमण को लक्ष्य कर जो आहारादि बनाया जाय तो वह उस श्रमण को तो नहीं ग्रहण करना चाहिए, पर अन्य श्रमणों के लिए वह ग्रहणीय है। (३) शय्यातरपिण्ड - शय्या का तात्पर्य है उपाश्रय, स्थानक आदि। इन्हें बनानेवाला संसार-समुद्र से पार हो जाता है। ऐसे उपाश्रय आदि बनाने वाले गृहस्थ के भोजन को शय्यातरपिण्ड कहा जाता है। ऐसा भोजन श्रमण के लिए निषिद्ध है। (४) राजपिण्ड - राजा का भोजन भी निषिद्ध है। (५) कृतिकर्म -- ज्येष्ठ श्रमणों का सम्मान करना, विनय करना। (६) व्रत - बारह व्रतों का पालन करना। (७) ज्येष्ठकल्प - अपने से ज्येष्ठ श्रमणों का समादर करना। यहाँ ज्येष्ठता का निर्णय छेदोपस्थापनीय चारित्र को ग्रहण करने न करने के आधार पर किया जाता है। यहाँ चिरदीक्षिता साध्वी के लिए भी नवदीक्षित साधु वन्दनीय माना गया है। (८) प्रतिक्रमण – आत्मालोचन कर अपने मूल स्वभाव में वापस आना। (९) मासकल्प – वर्षाकाल के अतिरिक्त कहीं भी एक माह से अधिक नहीं ठहरना। (१०) पर्युषणकल्प - पर्युषण पर्व को मनाना । इन कल्पों में आचेलक्य, औद्देशिक, प्रतिक्रमण, राजपिण्ड, मासकल्प और पर्युषणाकल्प प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्करों के समय ही विहित हैं तथा शेष चार कल्प चौबीसों तीर्थङ्करों के समय मान्य हैं (आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति, पत्र १२१)। __इस पर्युषणाकल्प में साधु वर्ग के लिए पांच विशेष कर्तव्यों का उल्लेख मिलता है ---- सांवत्सरिक प्रतिक्रमण, केशलोंच, यथाशक्ति तपस्या, आलोचना और क्षमापना। यहाँ हम इन पर पृथक् रूप से विचार नहीं कर रहे हैं। पर इतना अवश्य कहना चाहेंगे कि इन कर्तव्यों का पालन करने से साधु में संसार की अनित्यता और आत्मा के स्वभाव पर चिन्तन गहरा होता जाता है। इसलिए इस पर्व को जागरण पर्व कहा जाना चाहिए। धर्म के सही रूप को समझने और उसे आत्मसात करने का यह सर्वोत्तम मार्ग है। पर्युषण पर्व का उद्देश्य हमारे कर्म और भाव हमारे मन पर अव्यक्त रूप में संस्कार की रेखायें निर्मित कर देते हैं और वही संस्कार पुनर्जन्म के कारण बनते हैं। तथागत बुद्ध ने तो उदान Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में पांच सौ जन्मों तक संस्कारों के प्रभाव की बात स्वीकार की है। इन भावों का एक आभामण्डल बन जाता है और उसी के अनुसार हमारे भावी जन्मग्रहण की प्रक्रिया शुरु होती है। महावीर की रूपान्तरण प्रक्रिया नयसार या सिंह पर्याय से प्रारम्भ होती है और महावीर तक आते-आते समाप्त हो जाती है। पर्युषण पर्व पर तीर्थङ्कर महावीर के जीवनचरित और उनके पूर्व भवों पर विशेष चर्चा की जाती है। इसके पीछे दो दृष्टिकोण मुख्यत: रहे हैं। पहला यह कि आत्मा के अस्तित्व के साथ ही कर्म के अस्तित्व की अवधारणा को स्वीकारना और दूसरा कि महावीर के चरित को सुनकर स्वयं की आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत करने का संकल्प करना। जीवन उत्थान-पतन की कहानी है, सुख-दुःख का संगम है। कोई भी व्यक्ति दुःखों के बीच नहीं रहना चाहता। सुख-दुःख में कार्य-कारणभाव का सम्बन्ध है। बिना कारण के उनकी अवस्थिति नहीं मानी जा सकती है। सुख-दुःख की अवस्थिति का कारण ज्ञात होने पर व्यक्ति के जीवन में रूपान्तरण आ सकता है और वह संसार की "नश्वरता का चिन्तन करता हुआ अपना आचरण विशुद्ध बना सकता है। जीवन को विशुद्धता और सरलता-सहजता की ओर ले जाना ही पर्युषण का मुख्य ध्येय है। जीवन को धार्मिकता की ओर उन्मुख कर सांसारिक कष्टों से मुक्त कराना ही उसका लक्ष्य है। धर्म का स्वरूप भारतीय संस्कृति में धर्म के अनेक अर्थ मिलते हैं। उन अर्थों में कर्तव्य और स्वभाव अर्थ अधिक लोकप्रिय रहा है। धर्म की सारी परिभाषायें इन दोनों अर्थों के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। यहीं निश्चय और व्यवहार का दार्शनिक क्षेत्र भी समाहित हो जाता है। जैनाचार्यों ने धर्म की व्याख्या निवृत्तिवादी दृष्टि से अधिक की है। स्वयं निवृत्ति के पुजारी होने के कारण धर्म का सम्बन्ध उन्होंने संसरण से मुक्त करानेवाले साधन से स्थापित किया है तथा अहिंसा और दया को धर्म की प्रकृति मानकर उसे आत्मा का स्वभाव बताया है। आत्मा का स्वभाव ज्ञान और दर्शन क्रोधादिक विकार भावों के कारण आवृत्त हो गया है। वस्तु का स्वभाव उसकी क्षणभंगुरता है और वही उसका धर्म है। इस धर्म को हृदयस्थ करने से क्षमादि भाव स्वत: स्फुरित हो जाते हैं। इससे व्यक्ति की चेतनता में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय पनप जाते हैं और श्रावकधर्म से मनिधर्म की ओर जाने के लिए शुभोपयोग से शुद्धोपयोग की ओर उसके कदम आगे बढ़ जाते हैं। इसीलिए धर्म गुरु भी है और मित्र भी है। धर्म की इन सारी परिभाषाओं में समय-समय पर विकास हुआ है। उनमें दो तत्त्व स्पष्ट रूप से सामने आते हैं, पहला यह कि धर्म का अर्थ स्वभाव है और जीव Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का स्वभाव आनन्द है, ऐन्द्रिय सुख नहीं। अत: अतीन्द्रिय आनन्द ही जीव का धर्म है। जिस अनुष्ठान से इस आनन्द की प्राप्ति होती है वह धर्म है। इसकी प्राप्ति में साधन और साध्य दोनों परम विशुद्ध और अहिंसक होना चाहिए।५ दूसरा तत्त्व है – राग, द्वेष, मोह के कारण जन्म-जन्मान्तरों में भटकना और सांसारिक दुःखों में जीना। इसलिए धर्माचार्यों ने सांसारिक दुःखों का खूब वर्णन किया है। नरकों के दुःखों और स्वर्ग के सुखों के वर्णन के पीछे यही दृष्टि रही है कि व्यक्ति हिंसादि क्रियाओं से दूर रहकर पारस्परिक सहयोग और मैत्रीभाव से अपना समययापन करे। इस दृष्टि से धर्माचार्य चिकित्सक के रूप में हमारे सामने आये हैं और उन्होंने प्रस्थापित किया है कि जीवों का रक्षण करना ही धर्म है।६ ब्राह्मण संस्कृति विस्तारवादी रही है, जहाँ से भक्तिशास्त्र का उद्भव हुआ है। अवतारवाद और समर्पणवाद भी वहीं पनपा है। इसके विपरीत श्रमण संस्कृति संकोचवादी और संघर्षवादी रहा है। वहाँ अवतारवाद को कोई स्थान नहीं है। वहाँ तो उत्तारवादी दृष्टिकोण रहा है। विषय-वासनाओं की सहज-सरलधारा के विपरीत चलना उसकी संघर्षवादी दृष्टि है। संसार उसका घर नहीं है। उसका घर तो है मोक्ष, जहाँ वह धर्म की आराधना कर वापिस पहुँच जाता है। तीर्थङ्करों के प्रति श्रद्धा और भक्ति उसका साधन अवश्य है, वह व्यवहारत: उनकी शरण में जाने की बात भी करता है, पर मूलत: अशरण और एकत्व की भावना पाकर वह परम धर्म का पालन करता है इसलिए उसके लिए वे कल्याणमित्र हैं। जैन संस्कृति ने संसार को सत्य माना है, माया नहीं माना। संसार की वास्तविकता को समझने से ही धर्म को समझा जा सकता है इसलिए जैनधर्म की भाषा ध्यान की भाषा है, पूजा की नहीं। ध्यान के माध्यम से वह पर-पदार्थों से मोह को तोड़ता है जहाँ मात्र शुद्ध चैतन्य बच जाता है। यही परम सत्य है जो जीवन के मन्थन से प्राप्त हो पाता है। धर्म का सम्बन्ध जैनधर्म में जन्म से नहीं कर्म से है। उसका सम्बन्ध अन्तश्चेतना से है, इसलिए धार्मिक होना सरल नहीं होता। वह एक दुरूह साधना का फल है। वह दृढ़संकल्प और परिश्रम से मिल पाता है। अहं और मम के त्याग से ही वह उपलब्ध हो पाता है। शरीर और आत्मा तथा मैं और पर के बीच भेदविज्ञान हो जाना ही सही धार्मिक होना कहा जा सकता है। स्वानुभूति के बिना यह धार्मिकता नहीं आती। ___ इस स्वानुभूति और धार्मिकता का सम्बन्ध किसी अवस्था विशेष से नहीं है। उसे हम बुढ़ापे की दवा भी नहीं कह सकते। वह तो वस्तुत: प्रारम्भ से ही सुसंस्कारित होने का साधन है। इन्द्रियाँ जब शक्तिशाली होती हैं, शरीर तरुण होता है; तब उनसे संघर्ष कर सही धार्मिकता को प्राप्त किया जा सकता है। यदि हमारी आंखें सही हैं, Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि में भेदविज्ञान है, तो स्वानुभूति के लिए विषय सर्वत्र हैं। बस, साधक को सत्य का खोजी होना चाहिए। सत्य की खोज के लिए साधक दान, पूजा, व्रत, त्याग आदि के माध्यम से बाह्य अनुष्ठान करता अवश्य है, पर उसका आन्तरिक अनुष्ठान वीतरागता और समता की साधना करना है। बाह्य अनुष्ठान व्यवहारधर्म की परिधि में रहता है और आन्तरिक अनुष्ठान को निश्चय धर्म कहा जाता है। बाह्य अनुष्ठान निश्चय धर्म तक पहुँचने के लिए एक सशक्त माध्यम है। इसी निश्चय-सापेक्ष व्यवहार धर्म में क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दश धर्म प्रकट होते हैं। दशलक्षण पर्व के दश दिनों में इन्हीं धर्म की व्याख्या की जाती है। इन्हीं पर चिन्तन, मनन और निदिध्यासन होता है। इन्हीं को पालन करने का प्रयत्न किया जाता है। ये सभी धर्म यद्यपि एक-दूसरे से सम्बद्ध रहते हैं, पर उन पर पृथक्-पृथक् चिन्तन कर साधक अपना चित्त धर्म की ओर मोड़ सकता है और जीवन के सही अर्थ को समझ सकता है इसीलिए इसे महापर्व कहा जाता है। __ इस महापर्व का सम्बन्ध तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेव तथा उनकी परम्परा को संपोषित करने वाले तीर्थंकर महावीर से रहा है। इसलिए आगे के पृष्ठों में हम उनके तथा उनके द्वारा प्रवेदित दश धर्मों के विषय में कुछ जानकारी प्रस्तुत करेंगे। सन्दर्भ १. धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो।। -- कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ४७८. २. उत्तमखममद्दवज्जवसच्चसउच्चं च संजमं चेव। तवतागमकिंचण्हं बम्हा इति दसविहं होदि।। वही, गाथा ७० (त०सू०, ९.६; भ०आ०वि० ४६.१५४.१०) ३. दृष्टप्रयोजनपरिवर्जनार्थमुत्तमविशेषणम् - स०सि०, ९.६.४१३५; रा०वा०, ९.६.२६; उत्तरा०, ९.५८; उत्तमग्रहणं ख्यातिपूजादिनिवृत्त्यर्थम् - चा०सा०, पृ० ५८. ४. धर्मो गुरुश्च मित्रं च धर्म: स्वामी च बान्धवः । अनाथवत्सलः सोऽयं संत्राता कारणं बिना।। - ज्ञानार्णव, २.१०. अयं जिनोपदिष्टो धर्मोऽहिंसालक्षण: सत्याधिष्ठितो विनयमूल:। क्षमाबलो ब्रह्मचर्यगुप्त: उपशमप्रधानो नियतिलक्षणो निष्परिग्रहतावलम्बनः। स०सि०, ९.७. ६. जीवाणं रक्खणं धम्मो। का०अ० मू०, ४७८. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर ऋषभदेव और उनकी सांस्कृतिक परम्परा जैन संस्कृति का मूल उद्देश्य व्यक्ति की आध्यात्मिक चेतना को जागृत करना और उसको साधना के माध्यम से विकसित करना रहा है। जैन श्रमण-साधना के धनी होते हैं, आचार-विचार के पक्के होते हैं, उनकी समूची चर्या में वीतरागता भरी रहती है। स्व-पर कल्याण के भाव सने रहते हैं, जो मन को अमन कर देते हैं और संकल्प को दृढ़ बनाते हैं। तीर्थङ्कर ऋषभदेव ऐसे ही महाश्रमण हुए हैं, जिनसे जैन परम्परा का आदि स्रोत जुड़ा हुआ है। तीर्थङ्कर ऋषभदेव जैन सांस्कृतिक परम्परा के ही आद्य महादेव नहीं थे बल्कि समूची भारतीय संस्कृति के भी प्रणेता थे। वैदिक साहित्य में उनके समानान्तर उल्लेख इस तथ्य की ओर स्पष्ट संकेत करते दिखाई देते हैं कि वे वस्तुतः सर्वमान्य महापुरुष थे, जिन्होंने परम वीतरागता की साधना करने के साथ ही समाज को कर्मठता का सन्देश दिया। एक समय था जब ऋषभदेव की प्राचीनता पर और उनके ऐतिहासिक व्यक्तित्व पर प्रश्नचिह्न खड़ा किया जाता था, पर जबसे प्राचीनतम ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठित ऋग्वेद तथा अन्य वैदिक साहित्य के उल्लेखों का उद्घाटन हुआ है तबसे वह विवाद लगभग समाप्त होता जा रहा है और एक स्वर में उन्हें आदिपुरुष के रूप में प्रतिष्ठ मिलती जा रही है। ____ आदिपुरुष से सम्बद्ध प्राचीन उद्धरणों से हम आपको बोझिल नहीं करना चाहेंगे पर इतना अवश्य कहना चाहेंगे कि ऋग्वेद (२.३३.१०, १०.२२३, १०.११.१३६) अथर्ववेद (१५.१.१.१, १५.२.३.१.२) आदि वैदिक ग्रन्थों में दशों उल्लेख ऐसे आये हैं जिनसे उन्हें अर्हत्, मुनि और व्रात्य मण्डल के शीर्षस्थ नेता के रूप में स्मरण किया गया है। ऋग्वेद में वातरशना मुनि और हिरण्यगर्भ के रूप में उनकी ही स्तुति की गयी है। व्रात्य मण्डल में निर्दिष्ट व्रात्य परम्परा केशी-ऋषभ की परम्परा के भली-भाँति समाहित किये हुए है। जिनसेन ने अपने सहस्रनाम में इन्हीं शब्दों के आदिनाथ के साथ भली-भाँति प्रयुक्त किया है। पुराणकाल तक आते-आते तीर्थङ्कर ऋषभदेव निर्ग्रन्थ परम्परा के आदिदेव वे रूप में ही प्रतिष्ठित नहीं हुए, बल्कि उनके अवदान का मूल्यांकन करते हुए श्रीमद्भागवत Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुराण के रचयिता महर्षि वेदव्यास ने पञ्चम स्कन्ध में भगवान् विष्णु के आठवें अवतार के रूप में उन्हें प्रतिष्ठित कर दिया। वहाँ उनका समूचा चरित्रांकन करते हुए दिगम्बर जैन परम्परा के प्रवर्तक, योगीश्वर परमहंस, वातरशना श्रमणों के मूर्धन्य महापुरुष कहकर उनकी मनोरम स्तुति की है। इतना ही नहीं, उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम पर ही 'भारत' देश के अभिधान को आख्यायित किया गया है (५.४.९)। वैदिक और जैन साहित्य के उल्लेखों के आधार पर आज यह मान्यता बलवती-सी होती जा रही है कि ऋषभदेव और शिव अभित्र व्यक्तित्व रहे होंगे, दोनों के व्यक्तित्व की समानताएं इस तथ्य का समर्थन करती नजर आती हैं। यदि इसे हम सत्य मान लें तो यह कह सकते हैं कि ऋषभदेव के द्वारा प्रतिष्ठित जीवन-सूत्रों का आधार लेकर ही निवृत्ति और प्रवृत्ति परम्परा का सूत्रपात हुआ। व्यक्ति के विविध स्वभावों और पक्षों की भूमिका पर ही निर्ग्रन्थ श्रमण परम्परा और वैदिक परम्परा का निर्माण हुआ। भक्ति परम्परा का उद्भव भी इसी स्त्रोत से हुआ। कदाचित् यही कारण है कि ऋषभ के पौत्र व भरत के पुत्र मारीचि को पुराणों में वैदिक धर्म का प्रवर्तक कहा गया है, यह मारीचि वही व्यक्तित्व हो सकता है, जिसने आगे चलकर महावीर के रूप में 'जन्म ग्रहण किया और जैन परम्परा के चौबीसवें तीर्थङ्कर के रूप में प्रतिष्ठा पायी। इस सन्दर्भ में हम पुराण साहित्य पर विशेष ध्यान दें, तो ऋषभदेव की प्राचीन परम्परा पर संयुक्तिक प्रकाश पड़ता है। 'पुराण' शब्द चूँकि अपने आप में एक प्राचीन ऐतिहासिक तथ्य तथा परम्परा का आकलन करता है, इसलिए उसे हम बिल्कुल प्रामाणिक भले ही न कहें पर उसकी उपेक्षा भी नहीं की जा सकती है। वैदिक पुराण साहित्य में अवतारवाद का विकास हुआ है, यह हम सभी जानते हैं। तीर्थङ्कर ऋषभदेव को विष्णु का अवतार मानने वालों में श्रीमद्भागवतपुराण को छोड़कर अन्यत्र किसी भी पुराण में इसका वर्णन नहीं मिलता। गरुडपुराण (२६.३०.१३) में इतना अवश्य कहा गया है कि अग्नीघ्र के ९ पुत्रों में नाभि एक पुत्र था, जिसे मरुदेवी से ऋषभ पुत्र हुआ। ऋषभ का पुत्र भरत था जो शालिप्रभ का उपासक और व्रतधारी था। यहाँ भरत के पुत्र तेजस को परमेष्ठी और योगाभ्यासी कहा गया है। इससे इतना तो सिद्ध होता ही है कि पुराणकाल तक आते-आते ऋषभदेव जैन परम्परा के आदिपुरुष है, की मान्यता स्थापित हो चुकी थी। पुराणकाल में ऋषभदेव और शिव की एकाकारता भी दिखाई देती है। लिङ्गपराण में शिव की तीन प्रकार की मूर्तियों का वर्णन मिलता है। अलिङ्गी, लिङ्गी और लिङ्गालिङ्गी इसी सन्दर्भ में शिव की आराधना में उन्हें नग्न, दिग्वास और ऋषभ कहा गया हैभस्म पासु दिग्वासो नग्नो विकृत लक्षणः (२२-२८; नमो दिग्वाससे नित्यम्, २२.१; ग्राम्याणाम् वृषभश्चासि २२.७। यहीं शिव को वृषभध्वज भी कहा गया है Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ और उन्हें दिगम्बरत्व और नग्नत्व का पोषक माना गया है। इसी सन्दर्भ में विष्णुपुराण का वह उद्धरण भी उल्लेखनीय है, जहाँ दिगम्बर, मुण्ड, बर्हिपिच्छधर, दिग्वास, वीतराग, अनेकान्तवाद, अर्हत् जैसे जैनधर्म के विशिष्ट शब्दों का उल्लेख हुआ है (१८.१.३०)। तीर्थङ्कर ऋषभदेव की प्राचीनता के सन्दर्भ में वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत का विशेष अवदान दिखाई देता है। ऋग्वेद में उल्लिखित वातरशना का उल्लेख श्रमण ऋषियों के लिए इस पुराण में भी आया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि ऋग्वेद के ऋषभदेव और वातरशना ऋषि समुदाय जैन परम्परा से ही सम्बद्ध थे। वहाँ उन्हें श्रमण धर्म प्रवर्तक, दिगम्बर संन्यासी तथा उर्ध्वचेता कहा गया है। जीवन घटनाएँ तीर्थङ्कर ऋषभदेव अन्तिम कुलकर नाभिराज के पुत्र थे। उनकी माता मरुदेवी थीं। ईक्ष्वाकुवंशी नाभिराज अयोध्या के एक लोकप्रिय राजा थे। तरुण होने पर नाभिराज ने ऋषभदेव का विवाह सुनन्दा और सुमंगला से कर दिया। सुनन्दा ने तेजस्वी पुत्र बाहुबली और पुत्री सुन्दरी को जन्म दिया और सुमंगला ने भरत सहित ९९ पुत्रों और ब्राह्मी पुत्री को जन्म दिया। समय आने पर ऋषभदेव ने भरत को अयोध्या का, बाहुबली को तक्षशिला का और शेष युवराजों को उनकी योग्यतानुसार राज्य सौंपकर संसार त्याग दिया और दीक्षा लेकर साधना में लीन हो गये। साधनाकाल में पाणिपात्री ऋषभदेव एक वर्ष तक निराहार रहे। बाद में बाहुबली के पौत्र श्रेयांस कुमार ने इक्षुरस देकर उनकी इस निराहारवृत्ति को तोड़ा। लगातार एक हजार वर्ष तक तपस्या करनेवाले मुनि ऋषभदेव ने अन्त में केवलज्ञान प्राप्त किया और धर्मदेशना प्रारम्भ की। प्रथम धर्मदेशना भरत के पुत्र मारीचि को दी, जो बाद में चौबीसवें तीर्थङ्कर महावीर बने। इसी तरह ब्राह्मी और सुन्दरी ने भी तीर्थङ्कर ऋषभदेव से दीक्षा ले ली। भरत के अन्य ९८ भाइयों ने भी जिन दीक्षा लेकर अपना आत्मकल्याण किया। इधर भरत चक्रवर्ती में सम्राट बनने की प्रबल आकाक्षा जागी। उन्होंने आत्मसमर्पित होने के लिए सभी नरेशों के पास दूत भेजे। महाबली बाहुबली को छोड़कर सभी नरेशों ने भरत का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। व्यर्थ में प्राणीहिंसा न हो इस दृष्टि से दोनों भाइयों के बीच जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध और मल्लयुद्ध हुआ। उनमें बाहुबली विजयी हुए। भरत ने अपनी पराजय से क्रुद्ध होकर बाहुबली के ऊपर चक्र चलाया, पर वह बाहुबली का घात किये बिना ही वापिस आ गया। सगोत्रज और चरम शरीरी का वह वध नहीं करता। यह देखकर भरत लज्जित हुए तथा बाहुबली को साम्राज्य-लिप्सा से ग्लानि हुई, फलत: उन्होंने राज्य त्यागकर जिन दीक्षा ले ली और Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कठोर तप किया। बाद में केवलज्ञान प्राप्त कर निर्वाण भी प्राप्त किया। ___ भरत-बाहुबली युद्ध की ये सारी घटनायें पोदनपुर में हुई थीं जिसकी अवस्थिति आज भी विवादास्पद बनी हुई है। अधिक सम्भावना यही है कि यह पोदनपुर दक्षिण में होना चाहिए। जहाँ तक आदिनाथ ऋषभदेव के सांस्कृतिक अवदान का प्रश्न है, वे एक संस्कृति विशेष के पुरोधा तो थे ही, साथ ही उन्होंने मानव को सामाजिकता का पाठ भी पढ़ाया। भोगभूमि से कर्मभूमि की ओर आने का समय एक संक्रान्ति काल था और संक्रान्ति काल के वातावरण को अपने अनुरूप बनाना सरल नहीं था। ऋषभदेव ने इस दुरूह कार्य को सरल बना दिया।असि, मसि, कृषि, वाणिज्य-विद्या और शिल्प की शिक्षा के साथ ही चौसठ या बहत्तर कलाओंका अध्ययन भी उनके योगदान के साथ जुड़ा हुआ है। समाज ने इन सारी कलाओं को समरसतापूर्वक आत्मसात किया और परस्परोपग्रहो जीवानाम् के आधार पर अहिंसा और अपरिग्रह की चेतना को नया स्वर दिया। अस्तित्व के प्रश्न को जितनी सुदृढ़ता के साथ यहाँ समाधानित किया गया है वह अपने आप में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सह-अस्तित्व और सहभागिता पर आधारित जैनधर्म को प्रस्थापित करने का श्रेय तीर्थङ्कर ऋषभदेव को ही जाता है। उनके द्वारा प्रवेदित सूत्र ही उत्तरकालीन जैनधर्म की आधारशिला रहे हैं। दण्ड-व्यवस्था, राज-व्यवस्था, विवाह-प्रथा, व्यवसाय, खाद्य समस्या का हल, शिक्षा, कला और शिल्प आदि क्षेत्रों में उन्होंने नयी व्यवस्था को जन्म दिया। तीर्थङ्कर अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्म, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतलनाथ, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमलनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनि सुव्रतनाथ, नमिनाथ, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और महावीर तीर्थङ्कर भी इसी परम्परा में हुए है, इनमें से हम यहाँ अन्तिम तीन तीर्थङ्करों द्वारा दिये गये अवदान पर विचार करेंगे। तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि तीर्थङ्कर ऋषभदेव की परम्परा में बाईसवें तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि हुए, जो बड़े प्रभावशाली महापुरुष थे। अनेक जन्मों को पार करने के बाद वे यमुना तट पर अवस्थित शौर्यपुर के राजा समुद्रविजय और रानी शिवादेवी के पुत्र रूप में जन्मे। यादववंशी समुद्रविजय के अनुज का नाम था वसुदेव, जिनकी दो रानियाँ थीं, रोहिणी और देवकी। रोहिणी के पुत्र का नाम बलराम या बलभद्र था और देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण। श्रीकृष्ण और अरिष्टनेमि की अनेक बाल लीलाएं प्रसिद्ध हैं, शक्ति प्रदर्शन भी अनेक बार हुआ है, जिनमें अरिष्टनेमि सदैव जीतते रहे हैं। यह शायद उनके ब्रह्मचर्य Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ का प्रताप रहा है। अरिष्टनेमि के विवाह का आयोजन भोजवंशी उग्रसेन की पुत्री राजमती के साथ हुआ, पर विवाह के लिए वध्य पशुओं को देखकर उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और वे जिन दीक्षा लेकर तपस्या करने निकल पड़े। राजमती ने भी बाद में दीक्षा ले ली। अरिष्टनेमि ने कठोर तपस्या करते हुए केवल ज्ञान प्राप्त किया और फिर सिद्ध हो गये। उनकी यह भविष्यवाणी अक्षरश: सिद्ध हुई कि यादवों की उद्दण्डता के कारण द्वैपायन मुनि के क्रोध से द्वारिका नगरी बारहवें वर्ष में जल जाएगी। तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ तेईसवें तीर्थङ्कर के रूप में इतिहास में विश्रुत हैं। उनके दस पूर्वजन्मों का वर्णन मिलता है। उनका जन्म इक्ष्वाकुवंशीय उग्रवंश में हुआ था। उनके पिता अश्वसेन और माता ब्राह्मी या वामा थीं। अश्वसेन काशी के राजा थे। वे कदाचित् अविवाहित ही रहे। उन्होंने संसार छोड़कर जिनदीक्षा ले ली और अनेक उपसर्ग सहन करते हुए निर्वाण प्राप्त किया। उनकी शासन देवी पद्मावती रही हैं। पालिपिटक में पार्श्वनाथ के चातुर्याम का उल्लेख अनेक बार हुआ है। नाग, द्रविड आदि जातियों में उनकी मान्यता असन्दिग्ध है। उनका निर्वाण सम्मेदशिखर पर हुआ था। अत: वे निर्विवाद रूप से ऐतिहासिक व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किये जाते हैं। तीर्थङ्कर महावीर ___ पार्श्वनाथ के २५० वर्ष बाद तीर्थङ्कर महावीर हुए। जीव की जन्म परम्परा तो अनादि रही है, पर जिस जन्म में जीव की जीवन-दृष्टि में साधारण-सा परिवर्तन आया, उसी जन्म से इस श्रृंखला का प्रारम्भ करते हैं। महावीर का पूर्व जन्म इस दृष्टि से पुरुरवा से प्रारम्भ होता है जो मारीचि, जटिल, विश्वभूति, नयसार, महाशुकदेव, त्रिपृष्ठ, सिंह आदि जन्मों में घूमता हुआ वैशाली के राजकुमार महावीर के रूप में जन्म स्थिर हुआ। वर्धमान महावीर और जैनधर्म तीर्थङ्कर महावीर भारतीय संस्कृति के अनन्य उपासक और ऐतिहासिक महापुरुष हुए है। वे जैन परम्परा के चौबीसवें तीर्थङ्कर माने जाते हैं। उन्होंने हिंसा, पुरुषार्थ और समता का पाठ देकर जो जन-कल्याण किया है वह अपने आपमें अनूठा है। उनकी वैचारिक संस्कृति को श्रमण संस्कृति कहा जाता है जिसमें समता और श्रमवादी विचारधारा समन्वित है। भारत सरकार से सम्बद्ध एनसीआरटी के पाठ्यक्रम में तीर्थङ्कर महावीर के सन्दर्भ में जो पाठ दिया गया है वह इतिहास-परम्परा से अनभिज्ञता को सूचित करता है। उसी Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के आलोक में हम यहाँ सप्रमाण उसका खण्डन करते हुए तथ्यों को प्रस्तुत कर रहे हैं। तीर्थङ्कर परम्परा जैसा पहले कहा जा चुका है, जैन परम्परा के अनुसार महावीर के पहले तेईस तीर्थङ्कर और हो चुके हैं जिन्होंने मानवता का सन्देश दिया। उनमें प्रथम तीर्थङ्कर हैं ऋषभदेव जिनके पिता का नाम नाभि कुलकर और माता का नाम मरुदेवी था। वे हमारी संस्कृति के उन्नायक और आद्य प्रवर्तक थे। असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या और शिल्प के जन्मदाता वही माने जाते हैं। ऋग्वेद आदि प्राचीनतम ग्रन्थों में उनका उल्लेख हुआ है। उनके पुत्र चक्रवर्ती भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा है। २ ___ भगवान् शिव, राम और कृष्ण के समान प्रथम बाईस तीर्थङ्करों की यह परम्परा भी अर्ध-ऐतिहासिक है; क्योंकि साहित्यिक उल्लेखों के अतिरिक्त पुरातात्त्विक सामग्री उनके विषय में उपलब्ध नहीं होती। बाईसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ भगवान् कृष्ण के चचेरे भाई थे और तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर महावीर से लगभग २५० वर्ष पहले हुए। पार्श्वनाथ और महावीर, दोनों ऐतिहासिक महापुरुष हैं। इसलिए ऐतिहासिक दृष्टि से महावीर जैनधर्म के न तो संस्थापक हैं और न प्रवर्तक। वे तो वस्तुत: तीर्थङ्कर ऋषभदेव से चली आ रही परम्परा के प्रचारक और प्रसारक हैं।३ जैनधर्म के इन सभी तीर्थङ्करों की जन्मभूमि और कर्मभूमि होने का गौरव मध्यदेश को मिला है, विशेष रूप से मध्य-गंगा मैदान और बिहार को। यहाँ के जनपदों का इतिहास भले ही छठी शताब्दी ई०पू० से प्रारम्भ होता है पर पुरातात्त्विक प्रमाणों से यहां मानव का अस्तित्व लगभग छह हजार ई०पू० मिलता है। इसलिए पौराणिक परम्परा को एकदम झुठलाया नहीं जा सकता। महावीर : पूर्वभव की परम्परा का परिणाम __जैन संस्कृति कर्मप्रधान संस्कृति है, उसमें, आत्मा को स्वभावत: अनादि, अविनश्वर और विशुद्ध मानकर उसे मिथ्यात्व और मोह के कारण संसारबद्ध बताया गया है। आत्मा अनन्त शक्ति का स्रोत है। संसारावस्था में यह शक्ति अविकसित और अप्रकट रहती है। शनैः शनैः भेदविज्ञान होने पर वह अपनी मूल अवस्था में आ जाती है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए उसे अगणित जन्म-जन्मान्तर भी ग्रहण करने पड़ते हैं। महावीर के इन जन्म-जन्मान्तरों अथवा पूर्वभवों का वर्णन उत्तर पुराण, समवायाज, आवश्यक नियुक्ति, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, महावीरचरित, कल्पसूत्र आदि ग्रन्थों में मिलता है। इन ग्रन्थों में महावीर के जीव के पूर्वभव सम्बन्ध का प्रारम्भ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभदेव के पुत्र भरत और भरत की महिषी अनन्तमति के पुत्र मरीचि से किया गया है। महावीर के ऐसे तैतीस अथवा सत्ताईस प्रमुख भवों का वर्णन मिलता है-(१) पुरुरवा अथवा नयसार ग्राम चिन्तक, (२) सौधर्मदेव, (३) मरीचि, (४) ब्रह्मस्वर्ग का देव, (५) जटिल अथवा कौशिक ब्राह्मण, (६) सौधर्म स्वर्ग का देव, (७) पुष्पमित्र ब्राह्मण, (८) अग्निद्योत अथवा अग्निसह ब्राह्मण, (९) सौधर्म स्वर्ग अथवा द्वितीयकल्प का देव, (१०) अग्निमित्र अथवा अग्निभूत ब्राह्मण, (११) महेन्द्रसागर का देव, (१२) भारद्वाज ब्राह्मण, (१३) माहेन्द्र स्वर्ग का देव, (१४) स्थावर ब्राह्मण, (१५) स्थावर ब्राह्मण, (१६)विश्वनन्दि अथवा विश्वभूति, (१७) महाशुक्र स्वर्ग का देव, (१८) त्रिपुष्ठ नारायण, (१९) सातवें नरक का नारकी, (२०) सिंह, (२१) प्रथम या चतुर्थ नरक का नारकी, (२२) प्रियमित्र चक्रवर्ती, (२३) महाशुक्र कल्प का देव, (२४) नन्दन या नन्दराज, (२५) लानत या प्राणत स्वर्ग का देव, (२६) देवानन्दा के गर्भ में, (२७) त्रिशला की कुक्षि से भगवान् महावीर। इस बीच हरिषेण, कनकोज्वल राजा, सहस्रार स्वर्ग आदि में भी महावीर की जीव ने जन्म ग्रहण किया था। - इन भावों पर दृष्टिपात करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह जीव कभी धर्म धारण करने पर सौधर्म स्वर्ग के सुखों को भोगता है तो कभी कुमार्गगामी होकर सप्तम नरक के भी दारुण दुःखों को भोगता है। महावीर का जीव संसरण करता हुआ अपनी सिंह पर्याय में अजितंजय नामक चारण ऋद्धिधारी मुनि से सम्बोधन पाता है और नयसार के भव में मुनि को आहारदान और उनके पवित्र उपदेश से उसके जीवन में परिवर्तन आता है। उसके अन्तःकरण से क्रूरता का विषाक्त भाव सदा के लिए नष्ट हो जाता है और वह रौद्ररस के स्थान पर शान्तरस को ग्रहण कर लेता है। पुन: वह साधना से भटक भी जाता है किन्तु अन्त में पुन: प्रबुद्ध होकर अपना चरम विकास कर लेता है। पूर्व भव की परम्परा पर आज की प्रगतिशील पीढ़ी को भले ही विश्वास न हो पर यह तथ्य प्रच्छन्न नहीं कि हमारी जन्म परम्परा हमारी कार्य परम्परा पर आधारित है। विश्व के लगभग सभी धर्म पुनर्जन्म पर विश्वास करते हैं। पाइथागोरस, सुकरात, प्लेटो आदि पाश्चात्य विचारक भी उस पर आस्था करते दिखाई देते हैं। ‘रीइंकारनेशन' जैसी अनेक पुस्तकें भी सामने आयी है। अनेक वैज्ञानिक संस्थाएं इस तत्त्व पर शोध कर रही हैं। इसका सर्वप्रथम श्रेय रायबहादुर श्यामसुन्दरलाल को दिया जा सकता है जिन्होंने सन् १९२२-२३ में इस प्रकार की घटनाओं का वैज्ञानिक अध्ययन प्रारम्भ किया। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ हमारे कर्म और भाव हमारे मन पर अव्यक्त रूप में संस्कार की रेखाएं निर्मित कर देते हैं और वही संस्कार पुनर्जन्म के कारण बनते हैं। तथागत बुद्ध ने तो उदान में पांच सौ जन्मों तक संस्कारों के प्रभाव की बात स्वीकार की है। इन भावों का एक आभामण्डल बन जाता है और उसी के अनुसार हमारे भावी जन्म ग्रहण की प्रक्रिया शुरू होती है। महावीर की रूपान्तरण प्रक्रिया नयसार या सिंह पर्याय से प्रारम्भ होती है और महावीर तक आते-आते समाप्त हो जाती है। पर्युषण पर्व पर तीर्थङ्कर महावीर के जीवनचरित और उनके पर्व भवों पर विशेष चर्चा की जाती है। इसके पीछे दो दृष्टिकोण मुख्यत: रहे हैं। पहला यह कि आत्मा के अस्तित्व के साथ ही कर्म के अस्तित्व की अवधारणा को स्वीकारना और दूसरा यह कि महावीर के चरित को सुनकर स्वयं की आध्यात्मिक चेतना को जागृत करने का संकल्प करना। जीवन उत्थान-पतन की कहानी है। वह सुख-दुःख का समन्वित रूप है। सुख-दुःख के बीच नहीं रह पाता। सुख-दुःख में कार्य-कारण भाव का सम्बन्ध है। बिना कारण उनकी अवस्थिति नहीं मानी जा सकती है। सुख-दुःख की अवस्थिति का कारण ज्ञात होने पर व्यक्ति के जीवन में रूपान्तरण आ सकता है और वह संसार की नश्वरता का चिन्तन करता हुआ अपना आचरण विशुद्ध बना सकता है। जीवन की विशुद्धता और सरलता सहजता की ओर ले जाना ही पर्युषण का मुख्य ध्येय है। तीर्थङ्कर महावीर का अवतरण इसी बिहार के वैशाली (वसाढ) नगर के समीपवर्ती कुण्डग्राम में महावीर का जन्म आज से ५९९ ई०पू० चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन हुआ था। यह वैशाली वज्जी गणतन्त्र की राजधानी थी। उनके पिता ज्ञातृकुलीय लिच्छवी क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ थे, जो इक्ष्वाकुवंशीय काश्यप गोत्री थे। उनकी माता का नाम त्रिशला था जो विदेह राजा चेटक की पुत्री थी। मिथिला और विदेह का यह राजनीतिक सम्बन्ध कालान्तर में आध्यात्मिक सम्बन्ध से जुड़ गया। महावीर के जन्म होते ही राज्य में समृद्धि का युग आ गया इसलिए उनका नाम “वर्धमान' रखा गया।५ तेजस्वी बालक वर्धमान बचपन से ही प्रतिभा के धनी थे। इसलिए उन्हें किसी आचार्य की आवश्यकता नहीं पड़ी। वे बाल्यावस्था से ही बड़े शक्तिशाली और साहसी राजकुमार थे। लगभग आठ वर्ष की अवस्था में उन्होंने एक दिन खेलते-खेलते ही एक भयानक भीमकाय सर्प की पूंछ पकड़कर उसे बहुत दूर फेंक दिया। तब से उन्हें "महावीर" कहा जाने लगा। इसी तरह उनके जीवन के विविध प्रसंगों के कारण ही Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्हें वीर, सन्मति और अतिवीर भी कहा जाता है। राजकुमार वर्धमान गृहस्थावस्था में रहते हुए भी भोग और वासनाओं में निरासक्त थे। संसार की गहनता और असारता का अनुभव उन्हें हो चुका था। आध्यात्मिक चिन्तनशीलता रात-दिन बढ़ती चली जा रही थी। फलस्वरूप लगभग तीस वर्ष की भरी युवावस्था में उन्होंने घर-बार छोड़ दिया और परम वीतरागी सन्त के रूप में कठोर तपस्या करने लगे। इस महाभिनिष्क्रमण से लेकर केवलज्ञान की प्राप्ति तक उन्होंने लगभग बारह वर्ष तक भीषण उपसर्ग सहे, यातनायें भोगी और समभाव से समीपवर्ती प्रदेशों में पैदल भ्रमणकर आत्मसाधना की। ८ अन्त में राजगृह के पास ऋजुकुला नदी के तटवर्ती शालवृक्ष के नीचे तपस्या करते हुए गोधूलि वेला में महावीर ने केवलज्ञान की प्राप्ति की। अब वे अर्हन्त, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो गये। केवलज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर ने स्वानुभूति से प्राप्त जीवन-दर्शन को बिना किसी भेदभाव के सभी जाति और सम्प्रदाय के लोगों तक पहुंचाने का संकल्प किया। वे राजगृह की ओर बढ़े जहां विपुलाचल पर्वत पर तैयार किये गये विशाल समवशरण (पाण्डाल) में बैठकर सभी प्राणियों को समान भाव से जीवन सन्देश दिया। इसी समवशरण में इन्द्रभूति गौतम, सुधर्मा आदि ग्यारह प्रसिद्ध ब्राह्मण विद्वान भी अपनी शिष्य मण्डली सहित वहाँ पहुँचे। उन्होंने महावीर से कुछ दार्शनिक प्रश्न पूछे और सन्तुष्ट हो जाने पर वे उनके अनुयायी हो गये। महावीर ने उन्हें फिर अपने-अपने संघ का नेता बना दिया और “गणधर" की संज्ञा दे दी। महावीर के उपदेशों को अभिव्यक्ति देने का कार्य इन्हीं गणधरों ने किया था।१० ___ गणधरों के शिष्य बन जाने पर महावीर की लोकप्रियता और भी अधिक बढ़ गयी। साथ ही उनके अनुयायियों की संख्या भी बढ़ने लगी। यह देखकर महावीर ने गणों की स्थापना की और इन विद्वान् गणधरों की देखरेख में चार प्रकार के संघ की नींव डाली जिनमें श्रावक, श्राविका, श्रमण (मुनि) और श्रमणी (आर्यिका) सम्मिलित थे।११ तीर्थङ्कर महावीर ने अपने तीस वर्षीय धर्म के प्रचार काल में जैनधर्म को भारतवर्ष के कोने-कोने में फैला दिया। उनका भ्रमण विशेषत: उत्तर, पूर्व, पश्चिम और मध्य भारत में अधिक हुआ। श्रावस्ती नरेश प्रसेनजित, मगधनरेश श्रेणिक बिम्बसार, चम्पानरेश दधिवाहन, कौशाम्बीनरेश शतानीक, कलिंगनरेश जितशत्रु आदि जैसे प्रतापी राजा महाराजा भगवान् के कट्टर भक्त और उपासक थे। १२ लगभग बहत्तर वर्ष की अवस्था तक महावीर ने सारे देश में पैदल भ्रमण कर अपने धर्म का प्रचार-प्रसार किया। अन्त में उनका परिनिर्वाण मल्लों की राजधानी अपापापुरी (पावापुरी) में कार्तिक कृष्ण अमावस्या के प्रात:काल ई०पू० ५२७ में हुआ। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पवित्र दिन की स्मृति स्वरूप उनके अनुयायी जैन लोग “दीपावली'' मनाकर आत्मसाधना और ज्ञानाराधना का स्मरण करते हैं। १३ पालि साहित्य में महावीर को "निगण्ठनातपुत्त' के नाम से उल्लेखित किया गया है। वे तथागत बुद्ध के ज्येष्ठ समकालीन चिन्तक थे।१४ उत्तरकाल में महावीर का धर्म दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया -- दिगम्बर और श्वेताम्बर। दिगम्बर सम्प्रदाय पूर्ण निर्वस्त्र अवस्था में मुक्ति मानता है जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय सवस्त्र अवस्था को भी उनका अधिकारी बनाता है। जैनधर्म और सिद्धान्त तीर्थङ्करों में चूँकि महाश्रमण महावीर की ही वाणी हमारे पास श्रुति परम्परा से सुरक्षित है इसलिए जैनधर्म उन्हीं के नाम से विशेष रूप से जाना जाता है। इस सन्दर्भ में कहा जाता है, प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव ने अहिंसा, सत्य और अचौर्य इन तीन यामों में अपने समूचे दर्शन को प्रस्तुत किया था। तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ ने उनमें अपरिग्रह को जोड़कर चार याम बना दिये१५ और महावीर ने उनमें ब्रह्मचर्य को पृथक् कर पांच याम व्रतों का उपदेश दिया। अपनी युगीन परिस्थितियों के अनुसार व्रतों में यह परिवर्धन होता रहा है। यद्यपि अहिंसा और सत्य में इन सभी व्रतों का अन्तर्भाव हो जाता है पर आचारिक शिथिलता को दूर करने के उद्देश्य से उन्हें पृथक् व्रतों का स्वरूप दिया गया है। महावीर ने अपने धर्म को अहिंसा, संयम और तप से विशेष रूप से जोड़ा और उनके साथ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रयपूर्वक आचरण को प्रतिष्ठित किया।१६ आत्मा को अस्तित्व के केन्द्र में रखकर उन्होंने कर्मवाद को प्रस्थापित किया। उनकी दृष्टि में व्यक्ति का कर्म ही उसके सुख-दुःख और पुनर्जन्म का कारण है। १७ सृष्टि के उत्पन्न होने और उसे संरक्षित रखने में किसी ईश्वर विशेष का हाथ नहीं होता। वह तो अनेक कारणों से उत्पन्न होता है, नष्ट होता है, पर्यायों में परिवर्तित होता रहता है और मूल तत्त्व स्थायी रूप में निरन्तर बना रहता है। १८ तीर्थङ्कर महावीर ने यह भी कहा कि प्रत्येक प्राणी में तीर्थङ्कर होने की क्षमता है। इस क्षमता का विकास पूर्वोक्त रत्नत्रयपूर्वक बारह व्रतों के परिपालन से किया जा सकता है। १९ गृहस्थ स्थूल रूप से जब उनका पालन करता है तो वे अणुव्रती कहलाते हैं और सूक्ष्मता से उनका पालन करने वाले मुनि महाव्रती कहलाते हैं।२० ___अर्हन्त महावीर को इन्द्रिय विजयी होने के कारण “जिन' कहा जाता था और उनके अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म को आहत् या जिनधर्म। बाद में लगभग आठवीं सदी में उनके अनुयायियों को “जैन" कहा जाने लगा और उनके धर्म को “जैनधर्म" की संज्ञा दे दी गई। उनके इस धर्म को निर्वाणवादी धर्म भी कहा जाता था जिसमें आत्मा कर्मबन्धन से मुक्त होकर परमात्मा बन जाता है। २१ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० महावीर का धर्म, जाति, सम्प्रदाय और वर्ग विहीन धर्म था। उसमें व्यक्ति की पहचान उसके सम्यक् चारित्र से की जाती थी। २३ जैनधर्म के महामन्त्र “णमोकार मन्त्र" में भी किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं बल्कि चरित्रनिष्ठ व्यक्तित्व को प्रणाम किया गया है। यह उसकी सार्वभौमिकता है। २४ जैन दर्शन की दृष्टि से सभी विचारों में सत्यांश रहता है इसलिए उसे नकारात्मक नहीं कहा जाना चाहिए बल्कि समुचित आदर देते हुए सापेक्ष दृष्टि से प्रस्तुत किया जाना चाहिए। दूसरों की विचारधारा को गुणवत्ता की दृष्टि से सम्मान देने और संघर्ष टालने का यह एक अच्छा मार्ग है। शान्ति स्थापित करने का यह सही उपाय है। इसी को स्याद्वाद और अनेकान्तवाद कहा जाता है। २५ __महावीर के धर्म की एक अन्यतम विशेषता है -- आध्यात्मिक साम्यवाद। महावीर ने धर्म का अर्थ ही समता किया है। २६ उनके अनुसार संसार के सभी जीव समान हैं। सभी को अपनी चेतना को विकसित करने का समान अधिकार है। वे पूर्ण विशुद्ध चित्त होकर निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं। अत: इन्द्रिय संयमी होकर अहिंसा का परिपालन करना चाहिए। महावीर की अहिंसा में हिंसक कर्मकाण्ड को पूरी तरह से नकारा गया है और अहिंसक भक्ति परम्परा को स्वीकारा गया है। २७ जैनधर्म ने इसी तरह सामाजिक समता को जन्म देकर पारम्परिक वर्णव्यवस्था का खण्डन किया।२८ उसने जातिवाद को अस्वीकार कर उसके स्थान पर स्वयंकृत कर्म की व्यवस्था दी। इसी आधार पर महावीर के संघ में सभी जाति के लोगों ने दीक्षा ली। चाण्डाल भी दीक्षित हुए।२९ सभी समुदायों के बीच समता और एकात्मकता को स्थापित करने का यह एक ऐतिहासिक कदम था। बाद में भगवान् बुद्ध भी इसी कदम पर चले। समता के ही आधार पर नारी वर्ग को भी उन्होंने तत्कालीन दासता से मुक्त किया और पुरुष के समकक्ष खड़े होने और विकास करने का अवसर दिया।३० समता की इसी भूमिका के साथ महावीर ने अपरिग्रह धर्म में आर्थिक समानता को जन्म दिया और सर्वोदयवाद की प्रतिष्ठा की।३१ जैनधर्म का प्रचार-प्रसार जैनधर्म का आविर्भाव यद्यपि मध्यदेश, विशेषतः बिहार और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में हुआ है पर उसका प्रचार-प्रसार समूचे भारतवर्ष में रहा है। शिशुनाग, नन्द, मौर्य, शुंग, सातवाहन, कुषाण, गुप्त, राष्ट्रकूट, चोल, गंग, चालुक्य, परमार, चन्देल, कल्चुरी आदि सभी वंशों के राजाओं ने जैनधर्म को प्रश्रय दिया और उसकी अहिंसक वृत्ति की प्रशंसा की।३२ महावीरकाल में ही जैनधर्म की लोकप्रियता काफी बढ़ गई थी। उनके ही संघ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ में व्रतियों की संख्या लगभग छह लाख थी।३३ इस संख्या में ऐसे लोगों की गिनती नहीं है जो महावीर की विचारधारा के प्रशंसक और संवाहक रहे हैं। जैनधर्म उत्तरापथ से दक्षिणापथ में महावीर से भी पहले चला गया था। आन्ध्र, उत्कल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक में महावीर के बाद उसमें अधिक लोकप्रियता आई। चन्द्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में चतुर्थ शती ई०पू० में एक विशाल संघ का वहाँ पहुँचना इस तथ्य को संकेतित करता है कि महावीर से भी पहले वहां जैनधर्म की अच्छी स्थिति थी।३४ बौद्ध परम्परा के “महावंस' नामक ऐतिहासिक प्राचीन पालि काव्य से यह पता चलता है कि दक्षिण की जैन संस्कृति श्रीलंका में ई०प० आठवीं शती में पहुंच चुकी थी। उस समय वहां निर्ग्रन्थों के ५०० परिवार रहते थे।३५ कहा जाता है, ऋषभदेव ने सुवर्ण भूमि, ईरान (पाण्डव), आदि देशों का भ्रमण किया था। पार्श्वनाथ नेपाल गये ही थे। अफगानिस्तान में जैनधर्म के अस्तित्व का प्रमाण मिलता ही है। स्याम, काम्बुज, इथियोपिया, चम्पा, बलगेरिया आदि देशों में भी जैनधर्म का अस्तित्व मिलता है। ३६ इन स्थानों पर गम्भीरतापूर्वक पुरातात्त्विक ढंग से खोज होनी चाहिए। जैनधर्म को राज्याश्रय भले ही न मिला हो पर उसे जनाश्रय अवश्य मिला है। यह भी सही है कि उसे अनेक भीषण घात-प्रतिघातों को सहना पड़ा है फिर भी अपनी आचारनिष्ठता के कारण उसके अस्तित्व को समाप्त नहीं किया जा सका। उसने जहाँ वैदिक और बौद्ध संस्कृति को प्रभावित किया है वहीं उनसे प्रभावित भी हआ है। ३७ जैनधर्म का योगदान चारित्रिक दृढ़ता, पूर्ण शाकाहारी वृत्ति और विशुद्ध अहिंसक जीवन पद्धति ने जैनधर्म को यद्यपि बृहत्तर भारत से बाहर जाने को रोका है पर अपनी जन्मभूमि में ही रहकर उसने जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के विकास में योगदान दिया है वह अविस्मरणीय है। कदाचित् ऐसा कोई क्षेत्र शेष नहीं रहा जिसमें जैनाचार्यों ने विशिष्ट योगदान न दिया हो। तीर्थङ्कर महावीर ने सम-सामयिक परिस्थितियों का सूक्ष्म चिन्तन कर उस समय की बोली जाने वाली जनभाषा प्राकृत में अपना उपदेश देकर एक ऐसी मिसाल कायम की जो बिल्कुल अनूठी थी। इसी प्राकृत से आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ। उत्तरकालीन जैनाचार्यों ने लगभग हर विधा में विपुल परिमाण में अपना साहित्य रचा और प्राकृत संस्कृत-अपभ्रंश के साथ ही हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी, तमिल, कनड़ आदि भाषाओं को भी अपने विचारों की अभिव्यक्ति का साधन बनाया। इस साहित्य को सुरक्षित रखने के लिए जैनधर्म के अनुयायी शास्त्र भण्डारों की स्थापना करते रहे Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ हैं। इनके माध्यम से जैनों ने पाण्डुलिपियों को सुरक्षित रखने का अथक प्रयत्न किया है। ___शास्त्र भण्डारों के समान जैनों ने मूर्तिकला, स्थापत्यकला, काष्ठकला और चित्रकला को भी बहुत समृद्ध किया है। समूचे भारतवर्ष में जैन मन्दिरों और मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में भी प्राचीन जैन मूर्तियाँ मिली हुई हैं। ३८ इसी तरह जैनधर्म ने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में चेतनता स्थापित कर उनको सुरक्षित रखने का आन्दोलन किया तथा किसी भी पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े की हिंसा न करने का विधान देकर प्राकृतिक पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाया है। पानी को गरमकर और छानकर पीना, रात्रि में भोजन न करना, मांसाहार से दूर रहना, मद्य, मधु, परस्त्री/पुरुष सेवन, शिकारखेलना, जुआ खेलना आदि व्यसनों से व्यक्ति को दूर रखने के लिए उन्हें व्रतों में सम्मिलित किया गया है। व्यक्ति को नियमों में बांधकर जैनाचार्यों ने शाकाहार और पर्यावरण को सुरक्षित तो किया ही है, साथ ही स्वस्थ रहकर अपराधमुक्त जीवन को बिताने का मार्ग भी प्रशस्त किया है।३९ ।। ... न्यायपूर्वक धन कमाना, मिलावट न करना, पशुओं पर अधिक बोझ न लादना, झूठ न बोलना, दान देना, अतिथि सेवा करना, पुरुषार्थ करना आदि जैसे व्रतों ने सामाजिक समता को प्रस्थापित किया।४० अनावश्यक हिंसा से बचने का संकल्प देकर जैनधर्म ने संवेदनशीलता को बढ़ावा दिया, श्रमशीलता को जाग्रत किया, इच्छा परिमाण कराकर समाजवाद और सर्वोदयवाद को जन्म दिया, सम्यक् आजीविका का सूत्र देकर विशुद्ध मानसिकता को आधार बनाया, आहार शुद्धि और व्यसन मुक्ति का आह्वान् कर जीवन में संस्कारों की नींव डाली। जैनधर्म की अहिंसा कायरों की अहिंसा नहीं बल्कि वीरों का आभूषण रही है।४१ उसने जिस तरह जीवन जीने की कला दी है उसी तरह मरने की भी कला सिखायी है। मृत्यु को समीप देखकर पूर्ण निरासक्त हो जाओ और निराहारी होकर मृत्यु का स्वयं वरण कर लो यह अपूर्व शिक्षा जैनधर्म ने ही दी है। इसे “सल्लेखना' कहा जाता है।४२ कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि जैनधर्म ने व्यक्ति, समाज और राष्ट के चतुर्मुखी विकास में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। जैनधर्म अलग से दिखाई दे या न दे; किन्तु जैनधर्म के चिन्तन ने युगचेतना को इतना अधिक प्रभावित किया है कि जैनधर्म और दर्शन तथा युगचिन्तन एकमेक हो गया है। उसकी वैज्ञानिक दृष्टि को आज कोई भी विवेकशील व्यक्ति नकार नहीं सकता। आचार्य महाप्रज्ञ ने भी तीर्थङ्कर परम्परा पर अपना चिन्तन प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार पार्श्व और महावीर के पूर्व का जैनधर्म प्रागैतिहासिक काल में चला जाता है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २३ प्रथम बाईस तीर्थङ्कर प्रागैतिहासिक काल के हैं। उस समय का धर्म प्राकृतिक धर्म था, प्रवर्तित नहीं था। महावीर ने उसका प्रवर्तन किया प्राचीन परम्परा के आधार पर। उनका धर्म अनुभूत धर्म है। आचार्य और उपदेष्टा हजारों हुए पर प्रवर्तक केवल चौबीस हुए। तीर्थङ्कर परम्परा का प्रवर्तक होता है और आचार्य परम्परा का संचालक होता है, तीर्थङ्कर का प्रतिनिधि होता है। तीर्थङ्कर किसी परम्परा का प्रतिपादक ही नहीं होता, वह स्वयंबद्ध भी होता है और अपने अनुभव के आधार पर धर्म का निरूपण करता है। इसलिए प्रत्येक तीर्थङ्कर को आदिकर और प्रवर्तक माना जाता है। वे धर्मचक्र का प्रवर्तन करते हैं। ऐसे चौबीस तीर्थङ्कर हुए हैं जो प्रवर्तक कहे जा सकते हैं। उनका आधार रहा है शान्ति स्थापन। जे य बुद्धा अईक्कंता, जे य बुद्धा अणागया। संती तेसि पहाणं, भूयाणं जगई जहा।। धर्म का लक्षण है सत्य। महावीर की परम्परा निर्वाणवादी परम्परा थी, स्वर्गवादी परम्परा के विपरीत। यह पदार्थातीत चेतना के विकास का सिद्धान्त है। जैनधर्म कैवलिक है, आत्मा का अनुभव जिसे हो गया उसके द्वारा कथित धर्म है। वह दुःखमुक्ति का मार्ग बताता है। महावीर के पहले वह निम्रन्थ प्रवचन और उसके पहले अहिंसा धर्म कहा गया। पार्श्व तक अर्हत् कहा गया और फिर महावीर को श्रमण कहा गया, निम्रन्थ कहा गया। यह परिवर्तन इतिहास में होता रहता है, पर सभी तीर्थङ्कर निर्वाणवादी रहे हैं। इसी निर्वाणवादी परम्परा को हम आज जैनधर्म के नाम से जानते हैं। पालि साहित्य में महावीर को 'निगण्ठो नातपुत्तो' कहा गया है और उनके अनुयायियों की आलोचना की गई है। महावीर की तो प्रशंसा ही वहां मिलती है। इसके विपरीत जैनागमों में बुद्ध की कहीं भी आलोचना नहीं की गई है। इससे भी स्पष्ट है कि जैनधर्म बौद्धधर्म परम्परा से प्राचीन है। चौबीस तीर्थङ्करों की यह जैन परम्परा नन्दीसूत्र (२०-२१), आवश्यक (द्वितीय), भगवतीसूत्र (२०..८), समवायांग (२४८) और कल्पसूत्र आदि ग्रन्थों में भलीभाँति मिलती है। ये ग्रन्थ भले ही लगभग पाँचवीं शताब्दी के माने जाते हैं पर उनकी परम्परा प्राचीन सूत्र से जुड़ी हुई है। ___पुरातात्त्विक उपलब्धियों में मोहनजोदड़ों में प्राप्त ऋषभदेव योगी की नग्न मर्ति को छोड़ भी दिया जाये तो प्राचीनतम निर्विवाद जैन मूर्ति लोहानीपुर (पटना) से प्राप्त हुई ही है। वहीं से एक और मूर्ति मिली है जो लगभग प्रथम सदी ई०पू० की है। हाथीगुम्फा शिलालेख 'कलिंग जिन' का उल्लेख करता ही है। प्रिन्स ऑफ वेल्स Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्यूजियम, मुम्बई में रखी एक जैन मूर्ति भी लगभग इसी समय की है। इससे इतना तो सिद्ध है ही कि जैन मूर्ति परम्परा लगभग चतुर्थ शती ई०पू० से तो है ही। इतना ही नहीं, जैन मन्दिरों का निर्माण भी तीसरी-दूसरी सदी ई०पू० से होने लगा था। मथुरा इस निर्मिति का प्रमुख केन्द्र था। यहां ऋषभ, सम्भव, शान्तिनाथ, मुनिसुव्रत, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर की मूर्तियां विशेष लोकप्रिय रही हैं। कुषाणकाल के बाद गुप्तकाल में यहां ऋषभ, शान्तिनाथ, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर को 'पंचेन्द्र' की संज्ञा दी गई है। वैभारगिरि, सोणभद्र गुफा, चौसा, उदयगिरि (विदिशा), सिर पहाड़ी आदि स्थानों पर पृथक-पृथक् रूप से भी जैन मूर्तियां मिली हैं। इनके निर्माण में भी एक विकास रेखा खींची जा सकती है। पर लगता है, ऋषभ, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर की मूर्तियां विशेष प्रचलित रही हैं। फिर भी यह कहना तथ्यसंगत ही है कि कुषाणकाल में चौबीस तीर्थङ्करों की परम्परा कला क्षेत्र में प्रस्थापित हो चुकी थी, भले ही उनके लाञ्छनों में स्थैर्य आगमोत्तरकाल में आया हो। इस परम्परा की तुलना वैदिक और बौद्ध परम्परा के साथ भी कर लेनी चाहिए जिससे उसकी तथ्यात्मकता को आंका जा सके। इन दोनों परम्पराओं में अवतारों और बुद्धों की परम्परा प्रसिद्ध ही है। सम्भव है, जैन परम्परा से ये परम्परायें प्रभावित रही हैं। सन्दर्भ १. समवायांग, २४,१४७; कल्पसूत्र, तीर्थङ्कर वर्णन; आवश्यकनियुक्ति, ३६९; आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, आवश्यकचूर्णि, भाग १-२; महापुराण; पद्मपुराण ५.१४ आदि। महापुराण, १४.१६०-१६५; जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, २.३०; त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, १.२.६४७-६५३; आवश्यकनियुक्ति, ११९-१२०; श्रीमद्भागवत, ५.४.२; और भी देखिये, डॉ० स्टीवेन्सन (कल्पसूत्र की भूमिका); डॉ० राधाकृष्णन् (भारतीय दर्शन का इतिहास, जिल्द १, पृ० २८७) आदि विचारकों ने भी ऋषभदेव की ऐतिहासिकता को स्वीकार किया है। ऋषभदेव और उनके अनुयायी समुदायों के सन्दर्भ देखें -- व्रात्य- अथर्ववेद का व्रात्यकाण्ड; देवासुर संग्राम - ऋ० १०.२२-२३; ६.२५.२; १०.१००.३२); दास-दस्यु(ऋ० १.१३०.८; ९.४१.१; ऋ० ४.३०.२०; २.११.४); केशी-ऋषभ (ऋ० १०.१३१.१); ऋषभ और हिरण्यगर्भ (ऋ० १०.१२१; २.८; १०.१.४.५); अर्हन् (ऋ० १.६.३०; ५.४.५२; २.१:३.३); वातरशना और केशी मुनी (ऋ० १०.११.१३६) आदि; बौद्ध साहित्य के उल्लेखों को देखिए लेखक की पुस्तक Jainism in Buddhist Literature (प्रथम अध्याय)। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ ३. पउमचरियं, १.१-७. यहाँ तीर्थङ्करों की आयु, ऊँचाई आदि की प्रतीक पद्धति को समझना होगा। देखिए, मध्यदेश- धीरेन्द्र वर्मा, पटना, १९६७; An Encyclopaedia of Indian Archaeology, 2 Volumes, edited by A. Ghosh, Delhi, 1989; Indian Archaeology 1962-63 - A Review, edited by A. Ghosh, Delhi, 1965; Ayodhya - Archaeology after Demolition by D. Mandal, Orient Longman, Hyderabad, 1993. ५. वर्द्धमानचरित्र, १७.५८; सूत्रकृतांग २.३; कल्पसूत्र ११. ६. आचारांगचूर्णि, भाग १, पत्र २४६; वर्धमानचरित्र, ७.९५. ७. जयधवला, भाग १, पृ० ७८; तिलोयपण्णत्ति, ४.६६७; उत्तरपुराण, ७४.३०३-४. ८. आवश्यकचूर्णि, पृ० २७५-९२; आचारांग, ९.१.९-२०; ९.३-४-५; त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, १०.३.२९-३३; कल्पसूत्र, ११६; आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृ० ३२०-२२. ९. जयधवला, भाग १, पृ० ८०; तिलोयपण्णत्ति, ४.१७०-१; कल्पसूत्र, १४७; लेखक का ग्रन्थ देखिए - Jainism in Buddhist Literature,नागपुर, १९७२, प्रथम अध्याय. १०. षट्खण्डागम, भाग ९, पृ० १२९; विशेषावश्यकभाष्य, १५४०-१९४७. ११. उत्तरपुराण, ७४.३७३-७४. १२. आवश्यकचूर्णि, उत्तर भाग, पृ० १६९; उवासगदसाओ, पृ० २५; त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, १०.६.४०८-३९. १३. उत्तरपुराण,कल्पसूत्र १२६, १४७; दीघनिकाय. १४. दीघनिकाय, सामञफलसुत्त, भाग १, पृ० ५७. १५. उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन २३, नेमिचन्द्रटीका, पत्र २९७.१; मज्झिमनिकाय (रोमन), भाग १, पृ० २३८; भाग २, पृ० ७७. १६. दशवैकालिकसूत्र, १.१. १७. पंचास्तिकाय, ९२८-९३०; सूत्रकृतांग, २.५.१६. १८. आप्तमीमांसा, ५९; उपासकाध्ययन, २४६-४९. १९. तत्त्वार्थसूत्र, ९.९; तत्त्वार्थवार्तिक, ९.९-५१; सूत्रकृतांग, १.१२.११. २०. उवासगदसाओ, १-४७; रत्नकरण्डश्रावकाचार, ३.६; चारित्रप्राभृत, १३. २१. समयसार, आत्मख्याति; मोक्खपाहुड, ५.६; परमात्मप्रकाश, १.१३-१७. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ २२. उत्तराध्ययन, २५,२९-३१; १२.३७; कषायप्राभृत, १.८; प्रवचनसार, १.७. २३. उत्तराध्ययन, २५.१९-२७. २४. देखिए, लेखक की पुस्तक “मूकमाटी : चेतना के स्वर", नागपुर, १९९६. २५. सन्मतिप्रकरण, १.१२; तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, १.६.४; प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ० ६७६; आप्तमीमांसा, २०८; तत्त्वार्थवार्तिक, १.६.४. २६. प्रवचनसार, १.७. २७. उवासगदसाओ, १.४३; आदिपुराण, ३९.१४७; उपासकाध्ययन, ३२०. २८. उत्तराध्ययन, २५.२९-३१. उत्तराध्ययन, बारहवाँ अध्याय. ३०. उत्तराध्ययन, २२.२३. ३१. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ६२; दशवैकालिक, ४.१५. ३२. देखिये, लेखक की पुस्तक - जैन दर्शन और संस्कृति का इतिहास, पृ० ३२३-४१. ३३. कल्पसूत्र, १३३.१४४; उत्तरपुराण, ७४.३७३-७८; तिलोयपण्णत्ति, ४.११६६-७६; हरिवंशपुराण, ६०.४३२-४०. ३४. Studies in South Indian Jainism, p. 110-11. ३५. महावंस, ३३.७९. ३६. बृहत्कल्पभाष्य, भाग १, पृ० ७३-७५; आवश्यकनियुक्ति, गाथा, ३३६-३७; Journal of the Royal Asiatic Society of Bangal, Jan. 1885. ३७. देखिए लेखक का आलेख - उपनिषदों पर जैनधर्म का प्रभाव, ऋषभदेव फाउण्डेशन, दिल्ली. ३८. देखिए, लेखक का ग्रन्थ- 'जैन दर्शन और संस्कृति का इतिहास', जैन पुरातत्त्व, पृ० ३४२-८१ और तीर्थकर महावीर और उनका चिन्तन, धूलिया १९७७. ३९. आचारांग, शस्त्रपरीक्षा. ४०. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ५७; तत्त्वार्थसूत्र, ७.१५; सागारधर्मामृत, ५१; रत्नकरण्डश्रावकाचार ६७; चारित्रप्राभृत, २२. ४१. यः शस्त्रवृत्ति समरे रिपुः स्याद्यः कण्टको वा निजमण्डलस्य। तमैव अस्त्राणि नृपाः क्षिपन्ति, न दीनकानीन कदाशयेषु।। यशस्तिलकचम्पू. ४२. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ५.१; सर्वार्थसिद्धि, ७.२२; भगवतीआराधना, १९२२. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर और उनकी परम्परा पर्युषण पर्व आष्टाह्निक पर्व के रूप में भी मनाया जाता है। इसे अठाई महोत्सव के नाम से भी जाना जाता है- अट्ठाहिता रूवाओ महामहिमाओ करेमाणा (जीवाभिगमसूत्र, नन्दीश्वर द्वीप वर्णन)। इन्हीं दिनों कल्पसूत्र का सामूहिक वाचन किया जाता है। इसके स्थान पर कहीं-कहीं अन्तगडसूत्र का उपयोग किया जाता है। कल्पसूत्र छेदसूत्रों में दशाश्रुतस्कन्ध का आठवाँ उद्देश है। इसे पर्युषण कल्प कहा जाता है। पर्युषणपर्व में इसी का सामूहिक वाचन होता है। कहीं-कहीं इसके स्थान पर अन्तगड सूत्र का भी उपयोग किया जाता है। कल्पसूत्र की रचना परम्परानुसार आचार्य भद्रबाहु द्वारा की गई है। पहले इसका वाचन सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के बाद श्रमण संघ में ही होता था पर उत्तरकाल में इसे चतुर्विध संघ के बीच पढ़ा जाने लगा। इसका प्रारम्भ आचार्य कालक ने राजा ध्रुवसेन के कल्याणार्थ किया था। कल्पसूत्र प्राकृत भाषा में लिखित गद्यात्मक ग्रन्थ है जिसमें १२१५ अनुष्टुप प्रमाण सूत्रों में तीर्थङ्कर महावीर तथा उनकी पूर्व और उत्तरवर्ती परम्परा का आलेखन हुआ है। इसके मूल २९१ सूत्रों का वाचन संवत्सरी के दिन होता है और इसके पहले पर्युषण के दिनों में उसकी विस्तृत व्याख्या की जाती है। इसमें तीन अधिकार हैं- तीर्थङ्कर चरित्र, स्थविरावली और साधु समाचारी। तीर्थङ्कर चरित्र के कुल २३२ सूत्रों में से १५२ सूत्रों में भगवान् महावीर का चरित, ८० सूत्रों में शेष २३ तीर्थङ्करों के चरित्र का वर्णन किया गया है और बाद में स्थविरावली तथा समाचारी को प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि पीछे हम एक विशेष उद्देश्य से तीर्थंकर महावीर के सन्दर्भ में संक्षिप्त विवरण लिख चुके हैं पर यहाँ कुछ विस्तार से उसे कल्पसूत्र के आधार पर दे रहे हैं। साथ ही आचाराङ्ग, महावीरचरित, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र आदि ग्रन्थों का भी यथास्थान उपयोग करते हुए उपलब्ध सामग्री को तुलनात्मक रीति से पुष्ट करने का प्रयत्न कर रहे हैं। इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि कल्पसूत्र में विलोम पद्धति का उपयोग कर सर्वप्रथम महावीर का और अन्त में ऋषभदेव का व्याख्यान किया गया है चमत्कारात्मक ढंग से। इस पद्धति का उपयोग कदाचित् इसलिए हुआ है कि चौबीसों तीर्थङ्करों में निकटतम तीर्थङ्कर महावीर रहे हैं। इसलिए प्रथमत: उन्हीं का स्मरण किया गया है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ महावीर : पूर्वभव की अक्षुण्ण परम्परा का परिणाम जैन संस्कृति कर्मप्रधान संस्कृति है। उसमें आत्मा को स्वभावत: अनादि, अविनश्वर और विशुद्ध मानकर उसे मिथ्यात्व और मोह के कारण संसारबद्ध बताया गया है। आत्मा अनन्त शक्ति का स्रोत है। संसारावस्था में यह शक्ति अविकसित और अप्रकट रहती है। शनै:-शनैः भेद-विज्ञान होने पर वह अपनी मूल अवस्था में आ जाता है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए उसे अगणित जन्म-जन्मान्तर भी ग्रहण करने पड़ते हैं। महावीर के इन जन्म-जन्मान्तरों अथवा पूर्वभवों का वर्णन कल्पसूत्र, उत्तरपुराण,समवायांग, आवश्यकनियुक्ति, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, महावीरचरित्र आदि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में मिलता है। इन ग्रन्थों में महावीर के जीव के पूर्वभव-सम्बन्ध का प्रारम्भ ऋषभदेव के पुत्र भरत और भरत की महिषी अनन्तमति के पुत्र मरीचि से किया गया है। दिगम्बर परम्परा में महावीर के ऐसे तैतीस प्रमुख पूर्वभवों का वर्णन है पर श्वेताम्बर परम्परा उनकी संख्या सत्ताईस निर्धारित करती है। ये दोनों परम्पराएँ इस प्रकार हैंदिगम्बर परम्परा श्वेताम्बर परम्परा १. पुरूरवा भील १. नयसार ग्रामचिन्तक २. सौधर्मदेव २. सौधर्मदेव ३. मरीचि ३. मरीचि ४. ब्रह्मस्वर्ग का देव ४. ब्रह्मस्वर्ग का देव ५. जटिल ब्राह्मण ५. कौशिक ब्राह्मण ६. सौधर्म स्वर्ग का देव ६. पुष्यमित्र ब्राह्मण ७. पुष्यमित्र ब्राह्मण ७. सौधर्मदेव ८. सौधर्म स्वर्ग का देव ८. अग्निद्योत ९. अग्निसह ब्राह्मण ९. द्वितीय कल्प का देव १०. सनत्कुमार स्वर्ग का देव १०. अग्निभूति ब्राह्मण ११. अग्निमित्र ब्राह्मण ११. सनत्कुमार देव १२. माहेन्द्र स्वर्ग का देव १२. भारद्वाज १३. भारद्वाज ब्राह्मण १३. माहेन्द्र कल्प का देव Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *१४. माहेन्द्र स्वर्ग का देव स-स्थावर योनियों में असंख्य वर्षों तक परिभ्रमण १५. स्थावर ब्राह्मण १६. माहेन्द्र स्वर्ग का देव १७. विश्वनन्दि १८. महाशुक्र स्वर्ग का देव १९. त्रिपुष्ठनारायण २०. सातवें नरक का नारकी २१. सिंह २२. प्रथम नरक का नारकी ५३. सिंह २४. प्रथम स्वर्ग का देव २५. कनकोज्ज्वल राजा २६. लांतक स्वर्ग का देव २७. हरिषेण राजा १४. स्थावर ब्राह्मण १५. ब्रह्मकल्प का देव १६. विश्वभूति १७. महाशुक्र का देव १८. त्रिपृष्ठनारायण १९. सातवां नरक २०. सिंह २९ २१. चतुर्थ नरक २२. प्रियमित्र चक्रवर्ती २३. महाशुक्र कल्प का देव २४. नन्दन २५. प्राणत देवलोक में देव २६. देवानंदा के गर्भ में २७. त्रिशला की कुक्षि से भगवान् महावीर २८. महाशुक्र स्वर्ग का देव २९. प्रियमित्र चक्रवर्ती ३०. सहस्रार स्वर्ग का देव ३१. नंदराजा ३२. अच्युत स्वर्ग का देव और ३३. भगवान् महावीर दोनों परम्पराओं ने चूंकि महावीर के प्रमुख भवों का ही उल्लेख किया है अतः यह कोई मतभेद का विषय नहीं है । इन भवों पर दृष्टिपात करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह जीव कभी धर्म धारण करने पर सौधर्म स्वर्ग के सुखों को भोगता है तो कभी कुमार्गगामी होकर सप्तम नरक के भी दारुण दुःखों को भोगता है । दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से महावीर का जीव संसरण करता हुआ अपनी सिंह पर्याय में अजितंजय Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० नामक चारण ऋद्धिधारी मुनि से सम्बोधन पाता है और सम्बोधन पाने के बाद उसके अन्तःकरण से क्रूरता का विषाक्त-भाव सदा के लिए नष्ट हो जाता है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार नयसार के भव में मुनि को आहारदान और उनके पवित्र उपदेश से उसके जीवन में परिवर्तन आता है। कहा जाता है कि महावीर के जीवन में यहीं से प्रबल परिवर्तन प्रारम्भ होता है और यहीं वह रौद्ररस के स्थान पर शान्तरस को ग्रहण कर लेता है। पुनः वह साधना से भटक भी जाता है। किन्तु अन्त में पुन: प्रबुद्ध होकर अपना चरम विकास कर लेता है। पूर्वभव की परम्परा पर आज की प्रगतिशील पीढ़ी को भले ही विश्वास न हो पर यह तथ्य प्रच्छन्न नहीं कि हमारी जन्म-परम्परा हमारी कर्म-परम्परा पर आधारित है। महावीर की पूर्वभव-परम्परा भी उनके भावों और कर्मों के अनुसार निश्चित हुई है। इस निश्चितीकरण में जैनधर्म सर्वज्ञ तीर्थङ्कर के सर्वतोमुखी ज्ञान को आधार स्वरूप मानता है। महावीर ने तीर्थङ्करत्व की प्राप्ति तक अनन्त भव धारण किये होंगे पर उन भवों में से प्रमुख भवों का ही उल्लेख दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में किया गया है। माता-पिता - छठी शताब्दी ई०पू० में वैशाली वज्जी गणतन्त्र की राजधानी थी। उसके शासक ज्ञातृकुलीय लिच्छवि क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ थे। राजा सिद्धार्थ के अपर नाम श्रेयांस और यशस्वी भी मिलते हैं। वे इक्ष्वाकुवंशी और काश्यपगोत्री थे। पञापनासुत्त और ठाणांगसुत्त के अनुसार यह इक्ष्वाकुवंशी आर्यों के छ: कुलों के अन्तर्गत निर्दिष्ट हैउग्र, भोग, राजन्य, इक्ष्वाकु, ज्ञातृ (लिच्छवि और वैशालिक) एवं कौरव। ज्ञातृकुल के आधार पर ही पालि-प्राकृत साहित्य में महावीर को 'निगण्ठ नातपुत्त' कहा गया है। राजा सिद्धार्थ का पाणिग्रहण वैशाली के लिच्छवि प्रधान राजा चेटक की पुत्री (दिगम्बर परम्परानुसार) अथवा बहिन (श्वेताम्बर परम्परानुसार) वासिष्ठगोत्रीया त्रिशला प्रियकारिणी के साथ हुआ था। त्रिशला को विदेहदिन्ना अथवा विदेहदत्ता भी कहा गया है। दोनों का दाम्पत्य जीवन अन्यन्त सुखद एवं आध्यात्मिक था। लक्ष्मी और सौन्दर्य के साथ सरस्वती का सुन्दर समागम था। गर्भापहरण वैशाली के ब्राह्मण कुण्डग्राम में ऋषभदत्त नामक ब्राह्मण की पत्नी देवानन्दा रहती थी। उसने स्वप्न में देखा कि उसके गर्भ में कोई महान् व्यक्तित्व-तीर्थङ्कर आया हुआ है। इन्द्र ने यह बात अवधिज्ञान से जान ली और चूंकि तीर्थङ्कर का जन्म क्षत्रियकुल में ही होता है इसलिए उसने हरिणेगमेषी नामक देव को उस गर्भ का अपहरण करके उसे क्षत्रियाणी त्रिशला के गर्भ में नियोजित करने की आज्ञा दे दी। प्रथम ८२ दिन Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक महावीर देवानन्दा के गर्भ में रहे बाद में त्रिशला के गर्भ में पहँच गये। महावीर ने मरीचि भव में नीच गोत्र कर्म का बन्ध किया था। इसीलिए उन्हें ब्राह्मणी के गर्भ में कुछ समय तक रहना पड़ा। इस घटना का उल्लेख ठाणांग (सूत्र ७७०), समवायांग (सूत्र ८३), आचारांग (२.१५), भगवतीसूत्र (शतक ५, उद्देश ४), आदि श्वेताम्बरीय आगम साहित्य में उपलब्ध होता है। मथुरा में प्राप्त एक प्लेट क्रमांक १८ पर भी डॉ० बुहलर ने भगवानेमेसो पढ़ा है जो भगवान महावीर के गर्भ परिवर्तन का सूचक है। २ यह चित्रण आगम परम्पराश्रित रहा है। परन्तु दिगम्बर परम्परा इस प्रकार के गर्भापहरण की बात स्वीकार नहीं करती। पं० सुखलाल जी, पं० बेचरदास जी दोसी और पं० दलसुख मालवणिया आदि श्वेताम्बर विद्वान् भी प्रस्तुत घटना पर विश्वास नहीं करते। ३ पावन धरा पर : ई०पू० ५९९ चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के समय नन्द्यावर्त राजप्रासाद में रात्रि के अन्तिम प्रहर में त्रिशला ने पुत्र को जन्म दिया। पुत्र-जन्म के पूर्व त्रिशलादेवी को चौदह (श्वेताम्बर परम्परानुसार) स्वप्न, सोलह (दिगम्बर परम्परानुसार) दिखाई दिये थे जिनका जैन साहित्य में विविध प्रकार से विश्लेषण किया गया है। ये स्वप्न पुत्र के प्रभावक व्यक्तित्व के दिग्दर्शन माने जाते हैं। माता-पिता और परिजनों ने बालक का नाम वर्द्धमान रखा। इस नामकरण के पुनीत अवसर पर राज्य-स्तर पर विभिन्न उत्सव हुए। वैशाली का प्रत्येक घर दीपक की चमकती हुई ज्योति से जगमगा उठा, मानो अज्ञानान्धकार को दूर हटाने के लिए तेजस्वी सूर्य का उदय हुआ हो। जैनशास्त्रों में इन शुभ अवसरों का नामकरण गर्भ कल्याणक एवं जन्म कल्याणक के रूप में हुआ है। बाल्यावस्था : बालक वर्द्धमान का लालन-पालन राजशाही ठाठ-बाट से हुआ। पञ्चधात्रियों की देखरेख में उसका शारीरिक और मानसिक विकास अहर्निश वृद्धिगत होने लगा। उसकी बालक्रीड़ायें भी हृदयहारी और सौम्य थीं। वह निर्भय और साहसी था। एक बार बालक वर्धमान अपने समवयस्क मित्रों के साथ संकुली (आमली) खेल-खेल रहा था। मित्रों में काकधर, चलधर और पक्षधर नामक राजकुमारों का उल्लेख आता है। इस खेल में जो बालक सर्वप्रथम वृक्ष पर चढ़ जाता है और नीचे उतर आता, वह पराजित बालकों के कन्धों पर बैठकर उस स्थान तक जाता है जहाँ से दौड़ प्रारम्भ होती है। उस समय बालक वर्द्धमान खेल खेल रहा था कि अचानक एक विकराल भीमकाय सर्प वृक्ष पर आ गया। सभी बालक तो भयभीत होकर भाग खड़े हुए पर वर्धमान ने उसकी पूँछ पकड़कर उसे बहुत दूर फेंक दिया। इसे 'आमलय खेडं' कहा गया है। यह घटना राजा के कानों तक पहुंची। बालक की निर्भयता और वीरता का यह एक विशिष्ट प्रमाण था इसलिये राजा ने वर्धमान का अपर नाम 'महावीर' रख दिया। महावीर के अतिरिक्त वर्द्धमान के सन्मति, वीर और अतिवीर नाम भी मिलते हैं। इन नामों के पीछे Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ भी इसी प्रकार की कुछ घटनायें सम्बद्ध हैं। बालक के इन नामों में वर्द्धमान और महावीर नाम अधिक प्रचलित हुए। उक्त घटना के पीछे संगमदेव की भूमिका बतायी जाती है। उसने महावीर वर्द्धमान को साधनाकाल में भी अनेक प्रकार के कठोर कष्ट दिये । आमली क्रीड़ा का वर्णन मथुरा शिल्प में उपलब्ध हुआ है। महावीर की बाल लीलाओं का और कोई महत्त्वपूर्ण प्राचीन उल्लेख हमारी दृष्टि में नहीं आया । शिक्षा-दीक्षा महावीर ने अपनी मेधावी प्रतिभा के बल पर बहुत शीघ्र ही ज्ञानार्जन कर लिया। जैन परम्परा के अनुसार वे जन्म से ही मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान के धारी थे। अतः किसी आचार्य के पास उनकी शिक्षा-दीक्षा मात्र व्यावहारिक थी। आचार्य जिनसेन के अनुसार संजयन्त और विजयन्त नामक मुनियों ने तो उनके दर्शन करके ही अपनी शंकायें दूर कर लीं। जो भी हो, यह निश्चित था कि महावीर किशोरावस्था में ही अपूर्व प्रतिभा के धनी, विद्वान् और चिन्तक हो गये थे। यह आश्चर्य का विषय है कि उनकी शिक्षा-दीक्षा के सन्दर्भ में विद्याशाला में गमन तथा इन्द्र के साथ प्रश्नचर्या को छोड़कर कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलते। गार्हस्थिक जीवन राजकुमार वर्द्धमान गृहस्थावस्था में रहते हुए भी भोग- वासनाओं से अलिप्त थे। संसार की गहनता और असारता का अनुभव उन्हें हो चुका था । आध्यात्मिक चिन्तनशीलता अहर्निश बढ़ती चली जा रही थी। इसी अवस्था में उनके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा गया। स्वभावतः वे इसे कैसे स्वीकारते? माता-पिता का स्नेह - आग्रह और भेद - विज्ञान की प्रकर्षता इन दोनों स्थितियों में सामञ्जस्य कैसे स्थापित किया जाय - यह विकट समस्या महावीर के सामने थी । इस सन्दर्भ में दो परम्परायें उपलब्ध होती हैं। दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर अन्त में अविवाहित रहने का निर्णय लिया। पर श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार इस परिस्थिति में उन्होंने विवाह करने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। फलतः वसन्तपुर के महासामन्त समरवीर की प्रिय पुत्री यशोदा के साथ शुभ मुहूर्त में उनका पाणिग्रहण संस्कार हो गया। कालान्तर में वे एक पुत्री के पिता भी हुए जिसका विवाह सम्बन्ध मालि के साथ हुआ था। यह जामालि साधना-काल में कुछ समय तक महावीर का शिष्य भी रहा । ४ वस्तुतः महावीर जैसे वीतरागी और निःस्पृही व्यक्तित्व के लिए विवाह करना अथवा नहीं करना कोई विशेष महत्त्व की बात नहीं है। विवाह किया भी होगा तो वे Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन से अविवाहित रहे होंगे। भौतिक साधनों के रहते हए भी निर्भोगी बन जाने में कहीं अधिक वैशिष्टय है। हम यों भी कह सकते हैं कि महावीर भोगों में रहते हए भी निर्भोगी रहे, विवाहित रहते हए भी अविवाहित रहे और घर में रहते हुए भी बेघर रहे। वीतरागता का सही परिचय ऐसी अवस्थाओं में ही मिल पाता है। महाभिनिष्क्रमण : अन्तर्ज्ञान की खोज में लगभग तीस वर्ष की अवस्था तक भगवान् महावीर गृहस्थावस्था में ही रहकर आत्मचिन्तन करते रहे। महावीर जब २८ वर्ष के थे तभी माता-पिता के स्वर्गवास ने उन्हें और भी आत्मोन्मुखी बना दिया। भेदविज्ञान जागरित होते ही उन्हें संसार की ऐश्वर्यमयी सम्पदा तृणवत् प्रतीत होने लगी। पदार्थ की विनश्वरशीलता का दर्शन उन्हें स्पष्टतर होता गया। वैराग्य की भावना और दृढ़तर हो गई। फलत: उन्होंने मार्गशीर्षकृष्णा दशमी तिथि को चतुर्थ प्रहर में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के योग में आर्हती दीक्षा ग्रहण कर ली।५ इस अवसर पर सभी गण्यमान्य व्यक्ति उपस्थित थे। सभी के समक्ष महावीर ने पंचमुष्टि केशलुञ्चन किया जो संसार की समस्त वासनाओं से विमुक्त हो जाने के पक्रम का प्रतीक है। इस सन्दर्भ में दो परम्परायें उपलब्ध हैं। दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर ने प्रारम्भ से ही दिगम्बर वेष धारण किया पर श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दीक्षा ग्रहण करते ही शक्रेन्द्र ने उन्हें देवदूष्य वस्त्र प्रदान किया। वह वस्त्र उनके स्कन्ध पर रहा। कुछ ग्रन्थकार दरिद्र ब्राह्मण की याचना पर उसका आधा भाग प्रदान करने का उल्लेख करते हैं और कुछ ग्रन्थकार नहीं। और वह वस्त्र तेरह माह तक उनके पास रहा फिर वह नीचे गिर गया। जैनेतर साहित्य में महावीर के इस महाभिनिष्क्रमण को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया गया। पर कुछ समय बाद साधना में जिस प्रकार की सघनता और निर्मलता आती गई, वह विश्रुततर और समाज के आकर्षण का केन्द्र बनती गई। पालि साहित्य में उनकी इसी अवस्था का वर्णन मिलता है। वहाँ उन्हें 'निगण्ठनातपुत्तो' कहकर अनेक बार स्मरण किया गया है। यहाँ 'निगण्ठ' शब्द अचेलक और निष्परिग्रही होने का प्रतीक है। छास्थ साधना और विशिष्ट घटनायें १. साधनाकाल में महावीर अपना परिचय 'भिक्ख' के रूप में देते रहे।६ उनके लिए 'मुणि' शब्द का भी प्रयोग हुआ है। ये दोनों शब्द महावीर की साधना के दिग्दर्शक हैं। गृह त्याग करने के उपरान्त साधक महावीर केवलज्ञान की प्राप्ति के निमित्त लगभग बारह वर्ष तक सतत साधना करते रहे। इसी काल को छद्मस्थ कहा गया है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ छद्यस्थकाल तथा वर्षावास ठाणाङ्गसूत्र में महापद्मचरित्र के प्रसंग में महावीर के विषय में लिखा है कि उन्होंने तीस वर्ष गृहस्थावस्था में, बारह वर्ष तेरह पक्ष केवलज्ञान प्राप्ति में और तेरह पक्ष कम तीस वर्ष धर्म प्रचार में बिताये।८ तदनुसार महावीर ने महाभिनिष्क्रमण से लेकर केवलज्ञान प्राप्ति तक छद्मस्थावस्था में जिन स्थलों में बिहार और वर्षावास किया, उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है१. कुण्डग्राम, कर्मारग्राम (कम्मन-छपरा), कोल्लाग सन्निवेश, मोराक सनिवेश, ज्ञातखण्डवन, दुइज्जंतग, अस्थिक ग्राम (वर्षावास)। मोराक सन्निवेश, दक्षिण-उत्तर वाचाला, सुरभिपुर, श्वेताम्बी, राजगृह, नालन्दा (वर्षावास)। ३. कोल्लाग, सुवर्णखिल, ब्राह्मणग्राम, चम्पा (वर्षावास)। ४. कालाप, पन्त, कुमाराक, चोराक, पृष्ठ चम्पा (वर्षावास) ५. कयंगला, हल्लिदय, आवर्त, कलंकबका, पूर्णकलश, श्रावस्ती, नंगला, लाढ़ (लाट) देश, मलय, भद्दिल (वर्षावास) (वैशाली के पास)। ६. कदली, तंबाय, कूबिय, वैशाली, जम्बूसंड, कुपिय, ग्रामाक, भदिया (वर्षावास)। ७. मगध, अलभिया (वर्षावास)। कुण्डाक, बहुसालग, लोहार्गला, गोभूमि, मर्दन, शालवन, पुरिमताल, उन्नाग, राजगृह (वर्षावास)। लाढ़-वज्रभूमि, सुब्रम्हभूमि (वर्षावास यहाँ के वृक्षों और खण्डहरों में हुआ।)। १०. कूर्मारग्राम, सिद्धार्थपुर, वैशाली, वाणिज्यग्राम, श्रावस्ती (वर्षावास)। ११. सानुलट्ठिय, दृढभूमि, मोसलि, सिद्धार्थपुर, वज्रगांव, आलंभिया, श्वेताम्बिका, वाराणसी, मिथिला, मलय, कौशाम्बी, राजगृह, वैशाली (वर्षावास)। १२. सुन्सुमारपुर, नन्दिग्राम, कौशाम्बी, मेढ़ियाग्राम, सुमंगल, सुछेत्ता, पालक, चम्पा (वर्षावास)। १३. जम्भिय, मेढिय, छम्माणि, मध्यमपावा, जंभियग्राम। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ विशिष्ट घटनाएँ गोपालक का उपसर्ग १. महाभिनिष्क्रमण कर साधक महावीर कर्माग्राम पहँचे और उसके बाहर जंगल में एक वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ होकर आत्मसाधना करने लगे। साधना में इतने लीन हो गये कि दृष्टिपथ में आयी वस्तु का भी संस्कार उनके चित्र को प्रभावित नहीं कर सका। उसी समय एक घटना हुई। गाँव के किसी ग्वाले (गोपालक) ने अपने बैल चरने के लिए वहीं छोड़ दिये और स्वयं कहीं निकल गया। वापिस आने पर उसे बैल वहाँ नहीं दिखाई दिये। बैल तो चरते-चरते कुछ दूर निकल गये थे। ग्वाले ने ध्यानस्थ महावीर से पूछा- "हमारे बैल कहाँ हैं?" उत्तर न पाकर वह स्वयं उन्हें खोजने चल पड़ा। दैवयोग से वे बैल प्रात:काल वापिस आकर महावीर के पास ही बैठ गये। इतने में ग्वाला आया और वहाँ अपने बैल पाकर महावीर के प्रति क्रुद्ध हो गया। उन्हें चोर समझकर वह मारने दौड़ा। अकस्मात् कोई भद्र पुरुष सामने से आ रहा था। उसने उस ग्वाले को रोका और कहा- "इस निष्परिग्रही व्यक्ति को तुम्हारे बैलों से क्या प्रयोजन? यह तो आत्मकल्याण के साथ जगत् का कल्याण करने के लिए साधना में लीन है।' इस भद्र पुरुष का उल्लेख साहित्य में शक्रेन्द्र के रूप में किया गया है। उसने महावीर से कहा यदि आप चाहें तो मैं आपको अपनी सेवायें देने के लिए सहर्ष तैयार हूँ। महावीर ने उत्तर दिया- व्यक्ति दूसरों के बल पर केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं कर सकता। उसे अपने ही बल पर उसे प्राप्त करना पड़ता है नापेक्षं चक्रिरेऽर्हन्तः परसाहायिकं क्वचित् । केवल केवलज्ञानं प्राप्नुवन्ति स्ववीर्यतः।। स्ववीर्येणैव गच्छन्ति जिनेन्द्राः परमं पदम् । यह उत्तर सुनकर वह मनुष्यरूपी इन्द्र बड़ा प्रभावित हुआ। महावीर के न चाहते हुए भी त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र के अनुसार उसने अपने सिद्धार्थ नामक एक सहायक को उनके संरक्षण के लिए नियुक्त कर दिया। इस सिद्धार्थ को वहाँ एक व्यन्तर देव कहा है।१० आचाराङ्ग और कल्पसूत्र में इसके बाद की गई उनकी तपस्या का विस्तृत वर्णन मिलता है। महावीर अचेलक अवस्था में थे इसलिए उन्हें शीत, उष्ण, दंशमशक आदि की बाधायें होना स्वाभाविक थीं। भोगवासना से पीड़ित महिलाओं का भी उनकी ओर आकर्षित होना सहज ही था। निर्मोही महावीर इन सभी प्रकार की बाधाओं को निद्वेष Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव से सहते हुए विचरण करते रहे। कतिपय प्रतिज्ञायें : कठोर तपस्या का अभिरूप मोराक सनिवेशवर्ती 'दुईज्जन्तक' नामक पाषण्डस्थ आश्रम का कुलपति राजा सिद्धार्थ का मित्र था। कुलपति की अभ्यर्थना पर महावीर ने अपना वर्षावास वहीं करने का निश्चय किया। महावीर की कठोर निःस्पृही साधना देखकर आश्रमवासी दाँतों तले अँगुली दबाने लगे। संयोगवश उस वर्ष पर्याप्त वर्षा न होने के कारण वनस्पति, घास आदि पर्याप्त मात्रा में उत्पन्न नहीं हुई। फलत: गायें आकर पर्णकुटी की घास खाने लगीं। आश्रमवासी उन्हें हटाकर अपनी पर्णकुटियों की रक्षा करने लगे। पर निष्परिग्रही महावीर ने कभी ऐसा नहीं किया। वे तो अपने ध्यान में दत्तचित्त रहे। आश्रमवासियों ने इसकी शिकायत कुलपति से की। कुलपति ने महावीर से कहा कि कम से कम आपको अपनी पर्णकटी की रक्षा तो करनी चाहिए। महावीर कलपति के आग्रह से सहमत नहीं हो सके और उन्होंने यह निश्चय इसलिए किया कि वे किसी को कष्ट नहीं पहुँचाना चाहते थे। वे तो पूर्ण समभावी थे। प्रस्थान करने के पूर्व साधक महावीर ने निम्नलिखित पाँच प्रतिज्ञायें की।११ १. अप्रीतिकारक स्थान में वास नहीं करूँगा। २. सदैव ध्यानस्थ रहूँगा। ३. मौनव्रती रहूँगा। ४. पाणितल में भोजन ग्रहण करूँगा और ५. गृहस्थों का विनय नहीं करूंगा। मोराकसन्निवेश से विहार कर महावीर अस्थियाम पहुँचे और वहीं वे अनुमति लेकर शूलपाणि यक्ष के आयतन में ठहर गये। कहा गया है, एक बलशाली बैल, जिसकी सेवा-सुश्रूषा की ओर ग्रामवासियों ने उपेक्षा दिखाई, मर कर यक्ष हो गया था और वही उन सब को सताता था। उसी के सम्मान में ग्रामवासियों ने यह मन्दिर बनवाया था। विकट स्थिति देखकर लोगों ने महावीर को वहाँ ठहरने के लिए मना किया, फिर भी वे उसी मन्दिर में ध्यानस्थ हो गये। नियमानुसार रात्रि में यक्ष आया और उसने महावीर को विविध प्रकार के तीव्र कष्ट दिये। परन्तु वे साधना-पथ से विचलित नहीं हुए। इस घटना से यक्ष को बड़ा आश्चर्य हुआ। अन्त में उसने भगवान् से क्षमा मांगी और पश्चात्ताप करने लगा। फलत: महावीर ने उसे प्रतिबोध दिया— “तू आत्मा को पहचान। आत्मवत् मानकर किसी को कष्ट न दे। इन पापों का फल बड़ा दुःखदायी होता है।" यक्ष ने भगवान् की आज्ञा सहर्ष स्वीकार की और नतमस्तक होकर वहाँ से चला गया। १२ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ दश स्वप्न : भविष्यबोध उस समय लगभग एक मुहूर्त रात्रि शेष थी। महावीर ध्यानस्थ खड़े थे। फिर भी क्षणभर के लिए उन्हें निद्रा आ गई। इस बीच उन्होंने निम्नलिखित दश स्वप्न देखे १. ताल-पिशाच को स्वयं अपने हाथ से गिराना। २. श्वेत पुंस्कोकिल की सेवा में उपस्थित होना। ३. विचित्र वर्णवाला पुंस्कोकिल सामने दिखाई देना। ४. सुगन्धित दो पुष्पमालायें दिखाई देना। ५. श्वेत गो-समुदाय का दिखाई देना। ६. विकसित पद्म सरोवर का दर्शन। ७. स्वयं को महासमुद्र पार करते देखना। ८. दिनकर किरणों को फैलते हुए देखना। ९. अपनी आँतों से मानुषोत्तर पर्वत को वेष्ठित करते हुए देखना, और १०. स्वयं को मेरु पर्वत पर चढ़ते हुए देखना। अस्थिग्राम में ही एक उत्पल नामक निमित्तज्ञानी था जो पार्श्वनाथ की परम्परा का अनुयायी था। यक्षायतन में महावीर के ठहरने का समाचार सुनकर वह अपने आशंकाओं की सम्भावना से चिन्तित हो उठा। प्रात:काल होते ही वह इन्द्रशर्मा नामक पुजारी के साथ भगवान् महावीर के दर्शन करने आया। साथ ही बड़ा भारी जनसमुदाय भी था। महावीर को सकुशल पाकर सभी को आश्चर्य और प्रसन्नता हुई। निमित्तज्ञ उत्पल ने महावीर के स्वप्नों का फल क्रमशः इस प्रकार बताया १. आप मोहनीय कर्म का विनाश करेंगे। २. आपको शुक्लध्यान की प्राप्ति होगी। ३. आप विविध ज्ञानरूप द्वादशांग श्रुत की प्ररूपणा करेंगे। ४. चतुर्थ स्वप्न का फल उत्पल नहीं समझ सका। ५. चतुर्विध संघ की आप स्थापना करेंगे। ६. चारों प्रकार के देव आपकी सेवा में उपस्थित रहेंगे। ७. आप संसार सागर को पार करेंगे। ८. आप केवलज्ञान प्राप्त करेंगे। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ९. आपकी कीर्ति त्रिलोक में व्याप्त होगी, और १०. सिंहासनारूढ़ होकर आप लोग में धर्मोपदेश करेंगे। जिस चतुर्थ स्वप्न का उत्तर निमित्तज्ञ उत्पल नहीं जान सका। उसका फल महावीर ने स्वयं बताया है कि मैं दो प्रकार के धर्म का कथन करूँगा- श्रावकधर्म और मुनिधर्म। इससे यह ज्ञात होता है कि जैनधर्म को सुव्यवस्थित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य महावीर की दृष्टि में था। निमित्तज्ञान : प्रभावात्मकता २. साधक महावीर अस्थिग्राम में प्रथम वर्षावास समाप्त कर मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा को मोराक सनिवेश पहुँचे। वहाँ के नगर के बाहर के उद्यान में ठहरे। नगर में एक अच्छन्दक नामक पाखण्डी ज्योतिषी रहता था। उसकी आजीविका का साधन ज्योतिष ही था। उस समय निमित्तज्ञानी का बहुत आदर-सम्मान होता था। अच्छन्दक को जो प्रतिष्ठा मिली उसकी आड़ में उसने अनेक दुष्पाप करना प्रारम्भ कर दिये। महावीर के आध्यात्मिक तेज से सारी जनता इतनी अधिक प्रभावित हो गई कि अच्छन्दक के पाप भी शनैः-शनैः प्रगट हो गये। अब अच्छन्दक की आजीविका का साधन तिरोहित होने लगा। तब असहाय होकर वह महावीर के पास आया और कहने लगा-- “यहाँ आपके उपस्थित रहने से मेरी आजीविका समाप्त-प्राय हो रही है। आप तो निःस्पृही हैं। यदि आप यहाँ से चले जावें तो मेरा कल्याण हो जावेगा।१३ अत: दयालु महावीर ने वहाँ से प्रस्थान कर दिया और अन्यत्र ध्यानस्थ हो गये। चण्डशिक सर्प : एक दिशाबोध मोराक सनिवेश से महावीर सुवर्णकूला और रूप्यकूला नदी के किनारे बसी वाचाला के उत्तरभाग की ओर चल पड़े। बीच में कनकखल आश्रम मिला। वहाँ ग्वालों ने महावीर को आगे बढ़ने से रोका और कहा कि आगे वन में चण्डकौशिक नाम दृष्टिविष भयंकर सर्प रहता है। वह किसी को भी देखते ही विष-वमन करने लगता है। उसके विष वमन करने के कारण वन-वृक्ष भी सखने लग गये हैं। महावीर ने ग्वालों की बातों पर विशेष ध्यान नहीं दिया और वे आगे बढ़ते गये। उन्होंने सोचा कि इस चण्डकौशिक की अशुभ वृत्तियों को शुभ वृत्तियों की ओर मोड़ा जाना चाहिए। कहा जाता है, चण्डकौशिक अपने पूर्वजन्म में कठोर तपस्वी था। उसके पैर के नीचे एक बार एक मेंढकी दबकर मर गई जिसकी उसने प्रतिक्रमण करते समय आलोचना नहीं की। शिष्य द्वारा स्मरण कराये जाने पर वह क्रोधित होकर उसे मारने दौड़ा। पर बीच में ही एक स्तम्भ से शिर टकरा जाने पर वह तत्काल चल बसा और कनकखल आश्रम के कुलपति की पत्नी की कुक्षि से उसने जन्म लिया। बालक का Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ नाम कौशिक रखा गया । पर अत्यधिक चण्ड प्रकृति होने के कारण उसका नाम चण्डकौशिक पड़ गया। चण्डकौशिक अपने आश्रम की रक्षा का ध्यान अधिक रखता था। एक बार समीपवर्ती सेयंबिया नगरी के राजकुमारों ने आश्रम वन को उजाड़ दिया। चण्डकौशिक उन्हें मारने के लिए परशु लेकर दौड़ा। पर बीच में ही वह गड्ढे में गिरकर मर गया और दृष्टिविष नामक विकराल सर्प हुआ। महामना महावीर को ध्यानस्थ देखकर चण्डकौशिक सर्प को बड़ा विस्मय हुआ । वह क्रुद्ध होकर फूत्कार करने लगा। फिर भी महावीर को अविचल देखकर उनके पैर में तीव्र दृष्ट्राघात कर दिया। फलस्वरूप उनके पैर से रक्त के स्थान पर दुग्धधारा प्रवाहित होने लगी । चण्डकौशिक यह देखकर स्तब्ध रह गया। इस बीच महावीर का ध्यान समाप्त हो गया और उन्होंने चण्डकौशिक को उद्बोधन दिया-- "उपसम भो चण्डकोसिया ! हे चण्डकौशिक! शान्त हो जाओ। तुम अपने ही पापों के कारण संसार में भटक रहे हो । अब विकार भावों को छोड़ो और अपना भविष्य सम्भालो । " साधक महावीर की मर्मस्पर्शिनी वाणी को सुनकर चण्डकौशिक को जातिस्मरण हो आया। उनके निश्छल, शान्त और सौम्य भाव को उसने परखा और प्रतिज्ञा की कि मरण पर्यन्त वह न तो अब किसी को सतायेगा और न ही भोजन ग्रहण करेगा। चण्डकौशिक को शान्त और निश्चल तथा महावीर को सकुशल देखकर ग्रामवासियों ने आश्चर्य व्यक्त किया। वे महावीर के प्रशंसक बन गये। इधर चण्डकौशिक 'को निश्चल और शान्त समझकर लोगों ने उसे पत्थर मारे और असह्य पीड़ा दी। पर चण्डकौशिक उस पीड़ा को समभाव से सहन करता रहा और शुभ भावों पूर्वक उसने अपना देह त्याग दिया। १४ मक्खल गोशालक से भेंट : एक नया अध्याय साधक महावीर एक बार तन्तुवायशाला में ठहरे हुए थे। मंखलिपुत्र गोशालक भी वहीं रुका हुआ था। एक बार गोशालक के पूछने पर महावीर ने बता दिया कि तुम्हें आज भिक्षा में कोदों का वासा चावल (भात), खट्टी छाछ और खोटा रुपया मिलेगा। अनेक प्रयत्न करने पर भी गोशालक को भिक्षा में यही सब कुछ मिला। इस घटना से वह नियतिवादी बन गया। १५ इधर महावीर पारणा लेकर नालन्दा से कोल्लाग सन्निवेश पहुँचे। वहाँ बहुल नामक ब्राह्मण के घर आहार लिया। गोशालक भी महावीर को खोजते खोजते कोल्लाग पहुँच गया और वहाँ उसने उनका शिष्यत्व स्वीकार किया । १६ इसके पश्चात् छह वर्ष तक गोशालक अविरल रूप से महावीर के साथ रहा। इस बीच अनेक ऐसी घटनायें हुई जिनसे गोशालक का विश्वास नियतिवाद पर दृढ़तर Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० होता गया और अन्तत: वह घोर नियतिवादी हो गया। ३. कोल्लाग सनिवेश से विहार कर महावीर सुवर्णखल पहुँचे। मार्ग में कुछ ग्वाले खीर पका रहे थे। गोशालक ने कहा- 'रुकिये, हम लोग खीर खाकर चलेंगे।' महावीर ने कहा- 'यह खीर पक नहीं पायेगी। उसके पकने के पूर्व ही हांडी फूट जायेगी।' महावीर की यह सूक्ष्मान्वेक्षण शक्ति का प्रदर्शन था। अनुमान सही निकला। गोशालक का विश्वास नियतिवाद पर और बढ़ा गया। ४. महावीर के साथ रहते हुए भी गोशालक की वृत्तियाँ शान्त नहीं हुई थीं। वह क्रोधी और रागी प्रकृति का था। इसलिए उसे अनेक स्थानों पर अपमान सहन करना पड़ा। कभी वह महिलाओं से छेड़-छाड़ करता तो कभी परमतावलम्बी तथा पार्श्व परम्परानुयायी साधुओं और श्रावकों से झगड़ पड़ता। इसलिए जनसमुदाय के रोष का वह शिकार हो जाता। पार्श्वस्थ साधुओं से भेंट : पुरातन परम्परा का एकीकरण कूर्मारक सन्निवेश में पार्श्वनाथ परम्परा के सन्तानीय साधुओं से गोशालक की भेंट हुई। महावीर तो उद्यान में ही ध्यानस्थ रहे पर गोशालक गाँव में भिक्षार्थ गया। वहाँ विचित्र वस्त्र पहने पार्श्वनाथ की परम्परा के साधुओं से गोशालक की भेंट हुई और उनसे विवाद होने पर गोशालक ने उपाश्रय जल जाने का अभिशाप भी दिया।१७ महावीर से भी उनकी भेंट हुई और वे बड़े प्रसन्न हुए। सन्तानीय साधुओं के प्रधान आचार्य मुनिचन्द्र ने तो उसी समय अपने मुख्य शिष्य को कार्यभार सौंपकर स्वयं जिनकल्प दीक्षा धारण कर ली। साधनाकाल में ही एक आरक्षक पुत्र ने उन्हें तस्कर समझकर उनका अन्त कर दिया। शुभ वृत्तियों के कारण उन्होंने उसी जन्म में निर्वाण प्राप्त कर लिया। १८ अग्नि-उपसर्ग : कठोर साधना ५. हल्लिदुय में साधक महावीर एक हल्लिदृग नामक वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग में स्थिर हो गये। उसी वृक्ष के नीचे कुछ और भी व्यक्ति ठहरे हुए थे। वे रात्रि में आग जलाकर शीत से बचते रहे और प्रात:काल उसे बिना बुझाये ही वहाँ से चल पड़े। संयोग से वह आग फैल गई और उसकी लपटों में महावीर के पैर झुलस गये। फिर भी वे विचलित नहीं हुए।१९ अनार्य देशों में भ्रमण : समभावशीलता इसके बाद साधक महावीर के मन में यह विचार आया कि बिहार भूमि तो उनसे परिचित है। ऐसे स्थान पर क्यों न जाया जाय जहाँ कि उनका कोई परिचित ही न Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ हो। ऐसे अपरिचित स्थानों पर ही साधना-ज्योति में चमक आ सकती है और कर्मों की निर्जरा हो सकती है। यह सोचकर महावीर ने लाढ देश में जाने का निश्चय किया। यह देश उस समय असंस्कृत और असभ्य था। इसलिए साधारणत: वहाँ मुनियों का विहार नहीं होता था। इस दृष्टि से महावीर का यहाँ विहार विशेष महत्त्वपूर्ण था। महावीर लाढ देश पहुँचे परन्तु वहाँ उन्हें अनुकूल भोजन और आवास भी नहीं मिल सका। वहाँ के लोग उन पर कुत्ते छोड़ देते, लाठियाँ मारते और उन्हें घसीटते। इन सभी उपसर्गों को महावीर का समभावशील व्यक्तित्व सहर्ष सहन करता रहा। उन्हें न आहार का लोभ था, न शरीर से मोह और न किसी प्रकार की विषय-वासना की इच्छा। इसलिए वीतरागी होकर सभी प्रकार के उपसर्ग सहन करने में उन्हें विशेष कठिनाई नहीं हुई। २० गोशालक से पार्थक्य : आवश्यकता की अनुभूति अनार्य देशों से लौटकर भ्रमण करते हुए साधक महावीर ने वैशाली की ओर विहार किया। मार्ग में ही गोशालक ने उनसे कहा- "मुझे आपके कारण बहुत दुःख भोगने पड़ते हैं। अत: अधिक अच्छा यही है कि मैं आपसे पृथक् बना रहूँ।" महावीर ने उसके प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। पार्थक्य हो जाने पर महावीर वैशाली की ओर चल पड़े और गोशालक राजगृह जा पहुँचा। कठपूतना का उपसर्ग : क्षमाशीलता ६. वैशाली से महावीर ग्रामक सनिवेश पहुँचे। उस समय माघी शीत अपने प्रखर रूप में थी। लोग घर से बाहर नहीं निकल पाते थे। पर महावीर के तेजस्वी शरीर पर उसका कोई असर नहीं हुआ। वे तो निर्वस्त्रावस्था में ही उन्मुक्त आकाश के नीचे ही ध्यानस्थ हो गये। इस बीच में कटपूतना नामक एक व्यन्तरी ने उन पर घनघोर उपसर्ग किये। उसके द्वारा छोड़े गये शीतल जल और हिला देने वाली आँधी की कठोर यातना को महावीर ने क्षमाभावपूर्वक सहन किया। उनके मन में तनिक भी विकारभाव नहीं आया। फलस्वरूप उन्हें परमावधिज्ञान प्राप्त हो गया। कटपूतना भी थककर शरणागत हो गई। ७. इसी प्रकार बहुशालादि गाँवों में शालार्य ने भी साधक महावीर पर तीव्र कष्टकारी उपसर्ग किये किन्तु महावीर उन सभी को अहिंसक साधना के बल पर सहन करते रहे। लोहार्गला उपसर्ग ८. लोहार्गला में परिचय प्राप्त किये बिना प्रवेश नहीं दिया जाता था। महावीर से पूछे जाने पर कोई उत्तर नहीं मिला। फलत: उन्हें राजा जितशत्रु के पास ले जाया Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ गया। वहाँ उत्पल नामक निमित्तज्ञानी ने जितशत्रु को महावीर का परिचय दिया। परिचय प्राप्त कर जितशत्रु ने क्षमायाचना की। अनार्य देशाटन : सहनशीलता का परिचय ९. साधक महावीर ने एक बार पुन: साधना की परीक्षा के निमित्त अनार्य देशों में भ्रमण करना चाहा। अत: राजगृह से बिहार कर लाढ देश की ओर गये। वहाँ अनुकूल आहार-विहार और आवास पाना सरल नहीं था। इसके पूर्व भी उन्होंने एक बार और अनार्य देशों का भ्रमण किया था। इसलिए कष्टों का उन्हें अनुभव था। अनार्यों द्वारा उन्हें मारा-पीटा जाना, दाँतों से काटना, कुत्तों का छोड़ना, पत्थर मारना, अपशब्द कहना, धूल फेंकना, शरीर का मांस निकाल लेना आदि प्रकार से विविध उपसर्ग किये गये। पर साधक महावीर उन्हें उसी प्रकार सहन करते हुए साधना-पथ पर बढ़ते रहे जिस प्रकार कवचादि से संवृत शूरवीर पुरुष योद्धा संग्राम के कठोर प्रहरों को सहता हुआ भी आगे बढ़ता चला जाता है। २१ गोशालक का पुनर्मिलन और पार्थक्य - १०. अनार्य देशों से वापिस आकर महावीर ने कूर्मग्राम की ओर प्रयाण किया। गोशालक यहाँ पुनः उनके साथ हो गया। मार्ग में एक वैश्यायन नामक तापस अपने जटाजूटों से गिरते हुए यूकाओं को रख रहा था। गोशालक को कौतुहल हुआ। उसने जाकर तापस से प्रश्न-प्रतिप्रश्न किये जो उसके क्रोध का कारण सिद्ध हुए। फलत: उसने गोशालक पर तेजोलेश्या छोड़ दी। गोशालक दौड़ता-दौड़ता महावीर के पास आया। उन्होंने शीतलेश्या छोड़कर तेजोलेश्या शान्त कर दी और उसे बचा लिया। यह देखकर तापस को आश्चर्य हुआ और वह महावीर की शक्ति का प्रशंसक बन गया। गोशालक ने तेजोलेश्या की शक्ति देखकर महावीर से उसकी सिद्धि प्राप्त करने की रीति को समझा। इसके बाद वे दोनों सिद्धार्थपुर की ओर गये। मार्ग में वही तिल का पौधा मिला जिसे गोशालक ने महावीर की वाणी को असत्य सिद्ध करने के लिए फेंक दिया था। गोशालक ने पौधे की फल्ली में सात बीज ही पाये। महावीर की वाणी सत्य सिद्ध हुई। यह देखकर गोशालक का विश्वास नियतिवाद पर और अधिक दृढ़ हो गया और उसने महावीर से पृथक् होकर अपने स्वतन्त्र सम्प्रदाय की स्थापना कर ली। तप्त धूलि उपसर्ग वैशाली में उन्होंने उपद्रवी बालकों के उपसर्ग सहे। वहाँ से वे वणियगाम की ओर गये। मार्ग में गण्डकी नदी को नाव से उन्हें पार करना पड़ा। पर किराये का पैसा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ न देने के कारण उन्हें अत्यन्त तप्त धूलि में खड़ा कर दिया गया। संयोगवश शंख राजा का भानेज उसी समय आ गया। उसने पहचानकर उन्हें मुक्त करा दिया। संगम के प्राकृतिक-अप्राकृतिक उपसर्ग साधक महावीर दृढ़भूमि के बाह्य उद्यानवर्ती पोलास नामक चैत्य में निश्चल होकर ध्यानस्थ हो गये। लगातार ध्यान करते रहने से विविध प्रकार के प्राकृतिक और अप्राकृतिक दुःसह उपसर्ग हुए। उनका समूचा शरीर धूल-धूसरित हो गया। उसे वज्रमुखी चीटियों, डांस-मच्छरों, दीमकों, नेवलों और सर्पो ने काटा। जब कभी हाथी और बाघों के भी उपसर्ग हुए। आसपास जलती हुई अग्नि को भी सहन किया। पक्षियों ने अपनी चंचुओं से उनके शरीर को विदीर्ण किया। तेज आंधी और तूफान आये। कामुक महिलाओं ने अपने हाव-भाव दिखाये। परन्तु महावीर अपने साधना-पथ से विचलित नहीं हुए। इन उपसर्गों को शास्त्रों में संगमदेवकृत माना गया है। कठोर अभिग्रह : चन्दना को नयी दिशा १२. कौशाम्बी में महावीर ने पौषकृष्णा प्रतिपदा के दिन एक कठोर अभिग्रह किया--- "मैं ऐसी राजकुमारी से ही भिक्षा ग्रहण करूँगा जिसका शिर मुड़ा हो, हाथ में हथकड़ी और पैर में बेड़ी हो, आँखों में आँसू हों, तीन दिन की उपवासी हो, जिसके उड़द के बाकले सूप के कोने में पड़े हों, भिक्षा-समय व्यतीत हो चुकने पर जो देहली के बीच खड़ी हो और दासीपने को प्राप्त हुई हो।" __ साधक महावीर की यह भीषण प्रतिज्ञा बहुत समय तक पूरी नहीं हो सकी। उपासकों और भक्तों के बीच उनका यह अनाहार आश्चर्य, चिन्ता और चर्चा का विषय बन गया। प्रतिज्ञा के विषय में किसी को भी जानकारी नहीं थी। अभिग्रह को धारण किये हुए पाँच माह पच्चीस दिन व्यतीत हो चुके थे। संयोगवश महावीर भिक्षा के लिए धनावह सेठ के घर पहुंचे। वहाँ राजकुमारी चन्दना तीन दिन की उपवासी, हथकड़ी और बेड़ी पहने हुए, सूप में उबाला कुल्माष लिए हुए किसी अतिथि की प्रतीक्षा में थी कि उसे तेजस्वी तपस्वी महावीर आते हुए दिखे। महावीर का अभिग्रह अभी पूरा नहीं हुआ था। इसलिए जैसे ही वे वापिस जाने लगे कि चन्दना की आँखों में आँसू आ गये। साधक महावीर की प्रतिज्ञा अब पूरी हो चुकी थी। उन्होंने चन्दना के हाथ से पारणा कर ली। चन्दना भक्त व्यक्तियों के कण्ठ का हार बन गई। यही चन्दना कालान्तर में भगवान् महावीर की प्रथम साध्वी हुई। गोपालक उपसर्ग १३. एक बार छम्माणि के बाह्य उद्यान में महावीर ध्यानस्थ थे। वहाँ सन्ध्याकाल में एक ग्वाला अपने बैल छोड़कर गाँव चला गया। लौटने पर उसे वहाँ बैल Fort Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिखाई नहीं दिये। महावीर से पूछने पर कोई उत्तर नहीं मिला। क्रुद्ध होकर उसने उनके दोनों कानों में काँस नामक घास की शलाकायें डाल दी और उन्हें पत्थर से ऐसा ठोंक दिया कि वे परस्पर में भीतर मिल गई। बाहर के शेष भाग को उसने तोड़ दिया ताकि कोई उन्हें देख न सके। महावीर ने इस असह्य वेदना को भी शान्तिपूर्वक सह लिया। २२ कर्णशलाका निष्कासन उपसर्ग छम्माणि से महावीर मध्यम पावा पहुँचे। वहाँ भिक्षा के लिए वे सिद्धार्थ नामक वणिक के घर गये। सिद्धार्थ उस समय अपने मित्र ‘खरक' नामक वैद्य से बात कर रहा था। उन दोनों ने महावीर को देखते ही उनकी वेदना का आभास कर लिया। इधर महावीर उद्यान में आकर ध्यानस्थ हो गये। सिद्धार्थ और खरक औषधियों के साथ महावीर को खोजते हुए उद्यान में पहुँचे। उन्होंने उनकी तेल मालिश की और फिर संडासी से दोनों कानों की शलाकायें बाहर निकाल दी। रुधिरयुक्त शलाकाओं के निकलाने की तीव्र वेदना से महावीर के मुँह से एक तीखी चीख निकली। वैद्य खरक ने घाव पर संदोहण औषधि लगा दी और वन्दना करके चला गया। आश्चर्य है कि महावीर की तपस्या का प्रारम्भ भी ग्वाले के उपसर्ग से हुआ और अन्त भी ग्वाले के उपसर्ग से हुआ। आगमों के अनुसार महावीर ने साधनाकाल में दारुण उपसर्ग सहे उनमें जघन्य उपसर्ग कटपूतना राक्षसी का, मध्यम उपसर्ग संगम का और उत्कृष्ट उपसर्ग कानों में कीलों के ठोकने और निकाले जाने का था। २३ दुर्धर तप इस प्रकार साधक महावीर छद्मस्थ काल में लगातार लगभग साढ़े बारह वर्ष तक कठोर साधना में लगे रहे। इस बीच उन्हीं कहीं चोर समझा गया तो कहीं गुप्तचर, कहीं योगी तो कहीं भोगी, कहीं ज्ञानी तो कहीं अज्ञानी। फलत: उन्हें सभी प्रकार के उपद्रवों को झेलना पड़ा। साधक महावीर वीतरागी और महाव्रती थे। उन्हें किसी प्रकार का राग, द्वेष, मोह नहीं था। वे तो उद्यान, गुफा, पर्वत, वृक्ष का अधोभाग, चैत्य, खण्डहर आदि एकाकी स्थानों पर अपनी साधना में मग्न हो जाते थे और मौनव्रती बनकर सभी प्रकार की प्राकृतिक और अप्राकृतिक बाधाओं को सहन करते रहे। २४ साधनाकाल में महावीर को उचित आहार भी अप्राप्य रहा। प्राय: उन्हें नीरस आहार मिलता जिसे वे निस्पृही होकर मात्र शरीर के सञ्चालनार्थ ग्रहण कर लेते। समूचे साधनाकाल में उन्होंने कुल ३४९ दिन आहार ग्रहण किया और शेष दिन निर्जल तपस्या में लगाये। कल्पसूत्र (सूत्र ११६) में उनकी छद्मस्थकालीन तपस्या का वर्णन इस प्रकार Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिया हुआ है १. छ: मासी तप एक २. पाँच दिन कम छ: मासी तप एक ३. चातुर्मासिक तप नौ ४. त्रैमासिक तप दो ५. सार्ध द्वैमासिक तप दो ६. द्वैमासिक तप छः ७. सार्धमासिक तप दो ८. मासिक तप बारह ९. पाक्षिक तप बहत्तर १०. भद्रप्रतिमा एक दिन की ११. महाभद्रप्रतिमा चार दिन की १२. सर्वतोभद्र प्रतिमा दस दिन की १३. छट्ठभक्त दो सौ उन्नीस १४. अष्टमभक्त बारह १५. पारणा तीन सौ उनचास दिन और १६. दीक्षा का एक दिन। केवलज्ञान की प्राप्ति लगभग साढ़े बारह वर्ष तक तपस्या करते-करते महावीर की आत्मा अनुत्तर दर्शन-ज्ञान-चारित्र से विमल होती गयी। तेरहवें वर्षायोग में वे मध्यम पावा से विहार करते हए जंभियग्राम पहँचे और वहाँ के बाह्य उद्यान में ध्यानस्थ हो गये। साधना की यह चरमावस्था थी और उसका चरमकाल भी। महावीर की आत्मा अब पूर्णत: निर्मल हो चुकी थी। उनका राग, द्वेष, मोह समूल नष्ट हो चुका था। फलत: वैसाख शुक्ल दशमी को दिन में चतुर्थ प्रहर में ऋजुकूला नदी के तटवर्ती शालवृक्ष के नीचे गोदोहिका आसनकाल में महावीर को कैवल्य की प्राप्ति हो गई। उनके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मों का क्षय हो गया। अब महावीर अर्हन्त, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो गये। वे समस्त लोक की समस्त पर्यायों को एक साथ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्तामलकवत् जानने-देखने लगे। २५ यह उनके आत्मा की अनन्त शक्ति का प्रस्फटन था। बौद्ध साहित्य में भी उनकी सर्वज्ञता के सन्दर्भ एकाधिक बार आये हैं। २६ वहाँ भी उन्हें गणी, गणाचार्य और तीर्थङ्कर कहकर स्मरण किया गया है। कालान्तर में उनको भगवान् कहकर भी सम्बोधित किया जाने लगा। इन सभी शब्दों के पीछे भगवान् महावीर के व्यक्तित्व की विशेषतायें छिपी हुई हैं जिन्हें हम अस्वीकार नहीं कर सकते। तीर्थङ्कर प्रकृति का यह परिणाम था। विद्वानों की खोज में केवलज्ञानी हो जाने पर सर्वज्ञ महावीर अर्हन्त बन गये। उन्होंने स्वयं के अनुभूतिमय जीवन-दर्शन को संसरण से संतृप्त जन-साधारण तक पहुँचाने का लक्ष्य बनाया ताकि वह भी यथाशक्ति आध्यात्मिक साधना कर संसार के इस जन्म-मरण के दुश्चक्कर से दूर हो सके। इस दृष्टि से उन्होंने अपना धर्म-प्रचार (धम्मचक्कपवत्तन) करना प्रारम्भ कर दिया। प्रथम देशनाकाल में जनसमूह उनके सर्वविरति व्रत ग्रहण रूप गम्भीर उपदेश को ग्रहण नहीं कर सका। इसीलिए शायद उसे 'अभाविता परिषद्' कहा गया है। इसलिए भगवान् महावीर ने सर्वप्रथम अपनी बात कतिपय विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत करने का निर्णय किया। बुद्ध ने भी अपना प्रथम धर्मोपदेश पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को दिया था। आचार्य जिनसेन के अनुसार पैंसठ दिनों तक महावीर की दिव्यवाणी प्रकट नहीं हुई। किसी ने सर्वविरति महाव्रत ग्रहण नहीं किया। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थों के अनुसार उन्होंने द्वितीय दिन पावा में धर्मोपदेश दिया और तीर्थ की स्थापना की। विद्वान् शिष्यों की खोज में महावीर जृम्भिका ग्राम से मध्यमपावा पहुँचे। वहाँ आर्य सोमिल ने विराट यज्ञ का समायोजन किया था जिसमें अनेक स्थानों से प्रकाण्ड पण्डित उपस्थित हुए थे। इस समय महावीर भी बहुजन परिचित हो चुके थे। पावा पहुँचते ही उनके भक्तों ने एक सुन्दर और सुव्यवस्थित विशाल मण्डप बनाया जिसे शास्त्रीय परिभाषा में देवरचित समवशरण कहा गया है। वहाँ बिना किसी भेद-भाव के सभी को समान रूप से बैठने का अवसर दिया गया। तात्कालिक सामाजिक विषम परिस्थिति में यह एक विशेष आकर्षक घटना थी। महावीर भगवान् ने वहाँ बैठकर अपना दिव्य उपदेश दिया। दिगम्बर परम्परा इस घटना को राजगृह (पञ्चशैलपुर) के विपुलाचल पर्वत पर घटित मानती है। प्राकृत : अभिव्यक्ति का माध्यम भगवान महावीर के उपदेश की भाषा जन-साधारण की थी जिसे अर्धमागधी अथवा प्राकृत कहा गया है। संस्कृत तो अभिजात्य वर्ग की भाषा थी जो विशेष शिक्षित अथवा उच्च वर्गों और उच्च वर्गों तक सीमित थी। यह वर्ग संख्या में अल्पतर था। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ इसलिए लोकभाषा संस्कृत न होकर प्राकृत थी। प्राकृत ही सर्वसाधारण व्यक्ति की अभिव्यक्ति का साधन था। यही कारण था कि सभी श्रोतागण उनके उपदेश को भली-भाँति समझ लिया करते थे। यह प्रथम अवसर था जबकि किसी ने लोकभाषा को इतना महत्त्व दिया। इस लोकभाषा का क्षेत्र उत्तर में वैशाली से लेकर दक्षिण में राजगृह और मगध के दक्षिणी किनारे तक तथा पूर्व में राढ़भूमि से लेकर पश्चिम में मगध की सीमा तक फैला था। गणधर भगवान् महावीर का व्यक्तित्व बहुत अधिक लोकप्रिय हो चुका था। वे विद्वानों और मनीषियों में अप्रतिम थे। उनके उपदेश सर्वसाधारण के भी अन्त:स्तल तक पहुँचने लगे थे। इसलिए वे जनसमुदाय के आकर्षण के केन्द्रबिन्दु बन गये थे। इस स्थिति में यह आवश्यक था कि भगवान् महावीर अपने धर्म-प्रचार के लिए कतिपय विशिष्ट विद्वानों को शिष्य बनायें जो उनके सिद्धान्तों को समुचित रूप से समझकर जनसाधारण के समक्ष प्रस्तुत कर सकें। इन्हीं शिष्यों को शास्त्रीय परिभाषा में गणधर कहा गया है। . महावीर स्वामी के इस प्रकार के ग्यारह गणधर बताये गये हैं- इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा, मण्डित, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास। ये सभी विद्वान् महावीर के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके पास आए और अपने प्रश्नों का समाधान पाकर उनके परम शिष्य बन गये। १. इन्द्रभूति गौतम मगधवर्ती गौर्वर ग्राम में वसुभूति नामक एक ब्राह्मण विद्वान् रहता था। उसके तीन पुत्र थे- इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति। ये तीनों पुत्र भी वैदिक साहित्य और क्रियाकाण्ड के कुशल और प्रतिभाशाली पर अहंमन्य पण्डित थे। वे अपने समक्ष और किसी दूसरे की विद्वत्ता को स्वीकार नहीं करते थे। उस समय यज्ञ क्रियाकर्म अधिक लोकप्रिय था। मध्यमपावा में इन्द्रभूति अपने शिष्यों सहित आर्य सोमिल के विराट यज्ञ का आयोजन करा रहे थे। भगवान् महावीर भी जृम्भिकाग्राम से वहाँ पहुँचे और बाह्य उद्यान में ध्यानस्थ हो गए। आश्चर्य की बात थी कि जन समुदाय याज्ञिक उत्सव की अपेक्षा महावीर के दर्शन करने में अधिक उत्साह दिखा रहा था। इससे स्पष्ट है कि उस समय तक क्रियाकाण्ड की जड़ें हिल चुकी थीं। समाज सही मार्गदर्शन पाने के लिए आतुर था। इन्द्रभूति के लिए भगवान् महावीर की लोकप्रियता ईर्ष्या का कारण बन गई। दिगम्बर परम्परा२७ के अनुसार इतने में ही एक वृद्ध विद्वान् व्यक्ति उससे निम्नलिखित श्लोक का अर्थ पूछने आया Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ पंचेव अत्थिकाया छज्जीवणिकाया महव्वया पंच। अट्ठ य पवयणमादा सहेउओ बंध मोक्खो य।। इन्द्रभति के लिए अत्थिकाय, छज्जीवणिकाय, महव्वय, अट्ठपवयणमादा आदि पारिभाषिक शब्द बिलकुल नए थे। इसलिए विवश होकर उन्हें उससे यह कहना पड़ा कि मैं इस गाथा का अर्थ तुम्हारे गुरु के समक्ष ही बताऊँगा। यहाँ वृद्ध शिष्य षट्खण्डागम के अनुसार तो इन्द्र था पर अपने आपको तीर्थङ्कर या विद्वान् मानने वालों की परीक्षा करने वाला कोई विशिष्ट व्यक्ति रहा होगा अथवा यह भी सम्भव है कि महावीर की देशना कहाँ तक तथ्यसंगत है यह ज्ञात करने के लिए वह पण्डित-मान्य इन्द्रभूति के पास पहुँचा हो। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार इन्द्रभूति आदि पावा में विशिष्ट यज्ञ के आयोजन में आये हुए थे। उन्होंने भगवान महावीर के विशिष्ट तेजस्वी व्यक्तित्व को देखकर उन्हें पराजित करना चाहा और वे क्रमश: भगवान् महावीर से शास्त्रार्थ करने पहुंचे। महावीर के पास पहुँचते ही इन्द्रभूति गौतम स्वत: हतप्रभ होने लगे। समवशरणवर्ती मानस्तम्भ अज्ञानान्धकार को विगलित करने वाला प्रकाशस्तम्भ बन गया। महावीर ने स्वयं उसके हृदयांकित प्रश्नों को उसके समक्ष रखा। इन्द्रभूति को आत्मा के अस्तित्व के सन्दर्भ में विशेष शंका थी। उसका पक्ष था कि आत्मा घटादि पदार्थों के समान प्रत्यक्ष नहीं है। वह अनुमानगम्य भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि अनुमान भी प्रत्यक्षपूर्वक होता है। आत्मा आगमगम्य भी नहीं है क्योंकि अनुमान के बिना आगम की सिद्धि नहीं होती। अदृष्टार्थ विषयक नरक, स्वर्ग आदि की सिद्धि का भी अनुमान ही मूल कारण है तथा तीर्थङ्करों के सभी आगम परस्पर विरोधी हैं अतएव आत्मा के अस्तित्व के विषय में संशय ही उत्पन्न होता है। भगवान् महावीर ने इन्द्रभूति गौतम के उक्त सन्देह को दूर करते हुए कहा कि आत्मा प्रत्यक्ष है क्योंकि स्वसंवेदन-सिद्ध जो संशयादि विज्ञान तुम्हारे हृदय में प्रस्फुटित हो रहा है वह विज्ञान ही आत्मा है। और जो प्रत्यक्ष है वह प्रमाणान्तर द्वारा साध्य नहीं अथवा अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं। जैसे स्वशरीर में ही सुख-दुःखादिक आत्मसंवेदन सिद्ध है तथा जानता हूँ, बोलता हूँ, करता हूँ, इत्यादि प्रकार से जो यह कालिक कार्य व्यपदेश है उसमें रहने वाले अहं प्रत्यय से भी आत्मसिद्धि होती है। जिसे आत्मनिश्चय का संशय होगा, वह कर्मबन्ध मोक्षादिक के विषय में भी संशयालु रहेगा। स्मृति, जिज्ञासा, चिकीर्षा आदि गुणों का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होने से घट जैसे आत्मा गुणी भी प्रत्यक्ष सिद्ध होता है। यदि गुणों से गुणी को अनर्थान्तर भूत माना जाय तो उसके ग्रहण होने पर आत्मा का ग्रहण हो ही जायगा। यदि गुणों से गुणी को अर्थान्तरभूत माना जाय तो घटादिक गुणी भी प्रत्यक्ष नहीं होंगे। अतः द्रव्य से विरहित Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ 'कोई गुण नहीं होता है। २८ इन्द्रभूति गौतम महावीर भगवान् से अपने प्रश्न का समुचित समाधान पाकर प्रसन्न हुआ और तत्काल उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। उसकी प्रतिभा का उन्मेष हुआ और श्रद्धा व्यक्त हुई तथा परिणाम निर्मल हुए। जैन साहित्य में इन्द्रभूति को प्रथम गणधर कहा गया है। भगवान् महावीर के उपदेशों का विश्लेषण, प्रचारण और प्रसारण का समूचा उत्तरदायित्व और श्रेय इन्द्रभूति गौतम को ही है। २. अग्निभूति इन्द्रभूति के बाद शेष दश प्रमुख विद्वान् भी क्रमश: महावीर के शिष्य बन गये। द्वितीय विद्वान् अग्निभूति का सन्देह था कि कर्म है या नहीं। महावीर ने कहा कि कर्म का अस्तित्व निश्चित रूप से है। वह प्रत्यक्षत: नहीं पर अनुमानत: अवश्य दिखाई देता है। सुख-दुःखादिक की अनुभूति का कारण कर्म ही है। तुल्य साधन होने पर सुख-दुःखादि के अनुभवन में जो तारतम्य देखा जाता है उसका मूल कारण कर्म है। बाल शरीर का पूर्ववर्ती जो शरीरान्तर है वह कर्म है। वही कर्म कार्माण शरीर है। २९ अपने प्रश्न का उचित उत्तर पाकर अग्निभूति भी महावीर का शिष्य बन गया। ३. वायुभूति वायुभूति का मन्तव्य था कि चैतन्य भूतों का धर्म है तथा शरीर और आत्मा अभिन्न है। महावीर ने कहा कि भूत की प्रत्येक अवस्था में चेतना का अभाव होने पर सामुदायिक रूप में चेतना की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? रेणु समुदाय में भी तेल कैसे उत्पन्न हो सकता है? भूतों के प्रत्येक अंग में चेतन की न्यूनमात्रता मानी जाय और उसके सामुदायिक रूप से चेतना की उत्पत्ति मानी जाय तो भी ठीक नहीं। क्योंकि जिस प्रकार मद्यांगों में न्यूनाधिक मात्रा में मद शक्ति रहती है उसी प्रकार प्रत्येक भूत में चैतन्य शक्ति दिखाई नहीं देती। मद्य के प्रत्येक अङ्ग में मदशक्ति मानना आवश्यक कहा नहीं जा सकता अन्यथा कोई भी वस्तु मद का कारण हो जायगी। अत: चैतन्य भूतों का धर्म नहीं माना जा सकता और न शरीर व आत्मा अभिन्न कहे जा सकते हैं।३० वायुभूति भी अपने प्रश्न का समाधान पाकर महावीर का शिष्य हो गया। ४. व्यक्त _ विद्वान् व्यक्त अथवा शुचिदत्त का सन्देह था कि भूतों का कोई अस्तित्व नहीं। वे मात्र स्वप्नोपम हैं। महावीर ने कहा यदि संसार में भूतों का अस्तित्व ही न हो तो उनके विषय में आकाशकुसुम के समान सन्देह ही उत्पन्न नहीं होगा। विद्यमान वस्तु में ही सन्देह उत्पन्न होता है। व्यक्त का समाधान हुआ और उसने शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। आगे चलकर यही सिद्धान्त शून्यवाद के रूप में साहित्य और दर्शन में Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्फुटित हुआ। विशेषावश्यक भाष्य में तो इसे शून्यवाद दर्शन ही कहा गया है।३१५. सुधर्मा सुधर्मा 'इह भव के समान ही परभव में भी गति मिली है' यह मानते थे। महावीर ने कहा यह सोचना भ्रममूलक है। कार्य कारण के समान होता है, यह नियम एकान्तिक नहीं। भ्रङ्ग से शर नामक वनस्पति होती है। उसमें सर्षप लगा देने पर भूतण उत्पन्न होता है। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न कर्मों का फल भिन्न-भिन्न होता है। उनके अनुसार ही परलोक में जन्म मिलता है।३२ ६. मण्डित “जीव का कर्म के साथ संयोग और मोक्ष होता है। इसमें मण्डित को सन्देह था। भगवान् महावीर ने कहा- बीजांकुर के समान देह और कर्म अनादि हैं हेतुहेतुमद्भाव होने से। घट का कर्ता कुम्भकार है। उसी के समान जीव कर्म का कर्ता है और उसी प्रकार कारण होने से कर्म देह का कारण है। अनादि होने पर भी जीव और कर्म का संयोग तप द्वारा नष्ट हो सकता है। इस प्रकार बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था स्पष्ट हो. जाती है।३३ ७. मौर्य पुत्र मौर्यपुत्र को स्वर्गों (देवों) के अस्तित्व में सन्देह था। महावीर ने कहा देवों का अस्तित्व है। यह जातिस्मरण आदि से सिद्ध है। देवों के न होने पर स्वर्गीय फल निष्फल हो जाएगा और वेद-वाक्य निरर्थक हो जावेंगे।३४ मौर्य का सम्बन्ध पिप्पलीवन के मोरियों से था जो व्रात्य क्षत्रिय थे। यहाँ एक पूरा ग्राम मयूर पोषकों कका था। चन्द्रगुप्त (प्रथम) इसी मौर्य वंश का था। ८. अकम्पित अकम्पित का मत था कि प्रत्यक्ष और अनुमान से उपलब्ध न होने के कारण नारकियों का अस्तित्व नहीं है। महावीर ने कहा- नारकियों का अस्तित्व है क्योंकि उसे सर्वज्ञ ने देखा है। इन्द्रिय-प्रत्यक्ष तो उपचारत: रहता है। इन्द्रियाँ अमर्त होने से उपलब्धि करने में असमर्थ हैं, समर्थ तो प्रत्यक्ष ज्ञान है। पाँच खिड़कियों से देखने वाले एक व्यक्ति के समान जीव इन्द्रियों से भिन्न है। इन्द्रिय-रूप आच्छादन रहित जीव अधिक वस्तुओं को जानता है। अत: नरक सिद्धि में प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों कारण सिद्ध हो जाते हैं। प्रकृष्ट पुण्यभागी देव हैं तो प्रकृष्ट पाप भागी नारकी भी हैं ही।३५ ९. अचलभ्राता अचल भ्राता के मन में पुण्य-पाप के सम्बन्ध में पाँच विकल्प थे- (१) केवल Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ पुण्य है, (२) केवल पाप है, (३) दोनों अपृथक् हैं, (४) दोनों पृथक् हैं तथा (५) स्वभाव ही सब कुछ है। महावीर ने उत्तर दिया कि पथ्याहारी के समान पुण्य की उत्कर्षता और अपकर्षता देखी जाती है। इसी प्रकार अपथ्याहार से दुःख देखा जाता है। अत: पुण्य-पाप दोनों हैं और वे संयुक्त हैं। परस्पर उत्कर्ष-अपकर्ष में उन्हें तदनुसार नाम दे देते हैं। दोनों पृथक् हैं और सुख, दुःख से उनका अस्तित्व माना जाता है। स्वभाव ही सब कुछ नहीं है।३६ १०. मेतार्य मेतार्य को सन्देह था कि परलोक अथवा पुनर्जन्म है या नहीं। महावीर ने इसका समाधान किया और कहा कि जातिस्मरण आदि के कारण यह सिद्ध है कि भूतों के व्यतिरिक्त आत्मा है। वह अमर है और एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है, यही पुनर्जन्म है। ११. प्रभास प्रभास का मत था दीप के नाश की तरह जीव का निर्वाण जीव का नाश है। अथवा अनादि होने से आकाश की तरह जीव-कर्म का सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होगा। नारकादि पर्यायों के नष्ट हो जाने पर जीव का नाश हो जाता है। फिर मोक्ष कहाँ? महावीर ने इसका उत्तर दिया कि नारकादि पर्यायों के नष्ट हो जाने पर जीव का नाश नहीं होता। जीवत्व कर्मकृत नहीं। कर्मनाश होने पर संसार का नाश अवश्य होता है। स्वभाव से विकार धर्म वाला न होने से जीव विनाशी सिद्ध नहीं होता। मुक्त हो जाने पर जीव और कर्म का सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाता है। यहाँ भगवान् महावीर ने पदार्थ के स्वरूप का भी विश्लेषण किया कि वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है। निश्चयनय धौव्यात्मक तत्त्व का प्रतीक है और व्यवहारनय उत्पाद-व्यय तत्त्वों का।। ___ इस प्रकार इन्द्रभूति गौतम और उसके दशों प्रधान विद्वान् साथी महावीर स्वामी की प्रकाण्ड विद्वत्ता और सर्वज्ञता के समक्ष सविनय नतमस्तक हुए और अपने चौदह हजार शिष्य परिवार सहित उनके शिष्यत्व को स्वीकार कर लिया। महावीर स्वामी के ये ग्यारह प्रधान शिष्य हुए जिन्हें जैन शास्त्रों में गणधर कहा गया है। इन ग्यारह गणधरों में प्रधान थे- इन्द्रभूति गौतम। दिगम्बर और श्वेताम्बर, दोनों परम्पराओं में गणधरों की संख्या में तो कोई मतभेद नहीं पर उनके नामों में मतभेद अवश्य है। इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, सुधर्मा, मौर्यपुत्र, अकम्पित और प्रभास तो दोनों परम्पराओं को मान्य हैं पर व्यक्त, मण्डित, अचलभ्राता और मेतार्य को दिगम्बर परम्परा स्वीकार नहीं करती। उनके स्थान पर वह मौन्द्रय, पुत्र, मैत्रेय और अन्धवेल का नाम प्रस्तावित करती है। यहाँ यह भी दृष्टव्य Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ है कि श्वेताम्बराम्नाय मौर्यपुत्र को एक ही गणधर मानती है पर दिगम्बराम्नाय उसे मौर्य । और पुत्र नाम के पृथक-पृथक दो गणधर बताती है।३७ चतुर्विध संघ की स्थापना ग्यारह गणधरों के शिष्य बन जाने पर महावीर भगवान् की लोकप्रियता और विश्रुति और भी अधिक बढ़ गई। साथ ही उनके अनुयायियों की संख्या में भी वृद्धि होना प्रारम्भ हो गया। यह देखकर भगवान् ने नव गणों की स्थापना की और उनका उत्तरदायित्व पूर्वोक्त गणधरों को सौंप दिया। इसके उपरान्त उन्होंने अपने अनुयायियों को भी चार श्रेणियों में विभाजित कर दिया- श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका। आर्यिकाओं के नेतृत्व श्रमणी चन्दनबाला को सौंपा गया। इस प्रकार भगवान् महावीर ने वैशाख शुक्ल एकादशी के दिन चतुर्विध संघ की स्थापना की। बौद्ध साहित्य में संघी, गणी, गणाचरिय, तित्थकर, सव्वञ्ज आदि सम्माननीय शब्दों से उनका अनेक बार स्मरण किया गया है। धर्मप्रचार और वर्षावास चतुर्विध संघ की स्थापना के उपरान्त भगवान महावीर ने सर्वजनहिताय और सर्वजनसुखाय धर्मप्रचार करना प्रारम्भ किया ताकि सांसारिक प्राणी भौतिकता से दर हटकर आत्म-कल्याण कर सकें। जनकल्याणकारिता के कारण ही उन्हें अर्हन्त जिन कहा गया है और पंच परमेष्ठियों में प्रथम परमेष्ठी के अन्तर्गत उनका नाम रखा गया है। केवलज्ञान प्राप्ति के बाद की भी जीवन-घटनाओं का विवरण दिगम्बर साहित्य में समुचित और सुसम्बद्ध नहीं मिलता जबकि श्वेताम्बर साहित्य में उसे किसी सीमा तक क्रमबद्ध कर दिया गया है। दोनों परम्पराओं के आधार पर भगवान् महावीर के धर्मप्रचार और वर्षावास के प्रमुख स्थल निम्न प्रकार से निश्चित किये जा सकते हैं १. मध्यमपावा, राजगृह (वर्षावास)। २. ब्राह्मणकुण्ड, क्षत्रियकुण्ड, वैशाली (वर्षावास)। ३. कौशाम्बी, श्रावस्ती, वाणिज्यग्राम (वर्षावास)। ४. राजगृह (वर्षावास)। ५. चम्पा, वीतभय, वाणिज्यग्राम (वर्षावास)। ६. वाराणसी, आलंभिया, राजगृह (वर्षावास)। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. राजगृह (वर्षावास)। ८. कौशाम्बी, आलंभिया, वैशाली (वर्षावास)। ९. मिथिला, काकन्दी, पोलासपुर, वाणिज्यग्राम, वैशाली (वर्षावास)। १०. राजगृह (वर्षावास)। ११. कवंगला, श्रावस्ती, वाणिज्यग्राम (वर्षावास)। १२. ब्राह्मणकुण्ड, कौशाम्बी, राजगृह (वर्षावास)। १३. चम्पा (वर्षावास)। १४. काकन्दी, मिथिला (वर्षावास)। १५. श्रावस्ती, मिथिला (वर्षावास)। १६. हस्तिनापुर, मोकानगरी, वाणिज्यग्राम (वर्षावास)। १७. राजगृह (वर्षावास)। १८. चम्पा, दशार्णपुर, वाणिज्यग्राम (वर्षावास)। १९. काम्पिल्यपुर, वैशाली (वर्षावास)। २०. वैशाली (वर्षावास)। २१. राजगृह, चम्पा, राजगृह (वर्षावास)। २२. राजगृह, नालन्दा (वर्षावास)। २३. वाणिज्यग्राम, वैशाली (वर्षावास)। २४. साकेत, वैशाली (वर्षावास)। २५. राजगृह (वर्षावास)। २६. नालन्दा (वर्षावास)। २७. मिथिला (वर्षावास)। २८. मिथिला (वर्षावास)। २९. राजगृह (वर्षावास)। ३०. अपापापुरी (वर्षावास) -- परिनिर्वाण स्थल। भगवान् महावीर ने अपने तीस वर्षीय धर्मप्रचारकाल में जैनधर्म को भारतवर्ष के कोने-कोने में फैला दिया। उनका भ्रमण विशेषत: उत्तर, पूर्व, पश्चिम और मध्यभारत Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ में अधिक हुआ। बड़े-बड़े राजे-महाराजे भी उनके अनुयायी भक्त थे। श्रावस्ती का नरेश प्रसेनजित, मगध का नरेश श्रेणिक, चम्पा का नरेश दधिवाहन, कौशाम्बी का नरेश शतानीक, कलिंग का नरेश जितशत्रु आदि जैसे प्रतापी महाराजा भगवान् के भक्त और उपासक थे। दक्षिणापथ में भी भगवान् का विहार हुआ। उस समय यह भाग हेमांगद के नाम से विश्रुत था। महाराजा सत्यन्धर के सुपुत्र जीवंधर उस समय वहाँ के राजा थे। राजपुर उसकी राजधानी थी। जैनधर्म का प्रचार यद्यपि उस प्रदेश में पहले से ही था पर महावीर के भ्रमण से उसमें एक नया उत्साह और नयी प्रेरणा जागरित हुई। आज भी दक्षिण में जैनधर्म, साहित्य और कला के प्रमाण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। श्रीलंका आदि दक्षिणवर्ती देशों में उस समय जैनधर्म पहुँच गया था । पालि साहित्य, विशेषतः महावंश इसका विश्वसनीय प्रमाण है । संघ प्रमाण भगवान् तीर्थङ्कर महावीर का व्रती संघ ३८ १. गणधर २. गण ३. केदा ४. मन:पर्ययज्ञानी ५. अवधिज्ञानो ६. चौदह पूर्वधारी ७. वादी ८. वैक्रियकलब्धिधारी ९. अनुत्तरोपपातिकमुनि १०. साधु ११. साध्वियाँ (आर्यिकायें) १२. श्रावक १३. श्राविकायें इस प्रकार था - ११ ७ अथवा ९ ७०० ५०० १३०० ३०० ४०० ७०० ८०० १४००० ३६००० १५९००० ३१८००० ५३१७१८ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ इसमें साधारण श्रावक-श्राविकाओं की गणना सम्मिलित नहीं है। मात्र व्रतधारियों की ही यहाँ गणना की गई है। सम्भव है यहाँ व्रती संघ के अन्तर्गत उन्हीं को रखा गया हो, जो प्रव्रजित साधुओं की ही होगी। उद्दिष्टत्यागी को भी श्रावक कहा गया है। साधारण श्रावक-श्राविकाओं की गणना नहीं होगी। परिनिर्वाण राजगृह में उनतीसवाँ वर्षावास कर तीर्थङ्कर महावीर धर्म-प्रचार करते हुए मल्लों की राजधानी अपापापुरी (पावापुरी) पहुँचे। वहाँ के राजा हस्तिपाल ने उनका भावभीना स्वागत किया। धर्मोपदेश देते हुए अपापापुरी में वर्षाकाल के तीन माह व्यतीत हो चुके। चौथे माह की कार्तिक कृष्णा अमावस्या का प्रात:काल भगवान् महावीर का अन्तिम समय था। वे अनवरत धर्मदेशना दे रहे थे। उनकी सभा में काशी, कोशल के लिच्छवी, नौ मल्ल और अठारह गणराजा भी उपस्थित थे। अन्त में उन्होंने अधातिया कर्मों का भी क्षय कर परम निर्वाण पद प्राप्त किया।३९ पालि साहित्य में भी इस घटना का वर्णन मिलता है। भगवान् महावीर ने तीस वर्ष की आयु में महाभिनिष्क्रमण किया एवं छद्मस्थ काल के बारह और केवलीचर्या के तीस, कुल बयालीस चातुर्मास किये। इस प्रकार कुल मिलाकर महावीर की आयु बहत्तर वर्ष की मानी गई है तदनुसार उनका परिनिर्वाण ५२७ ई०पू० में हुआ। इस निर्वाण प्राप्ति के उपलक्ष्य में लिच्छवि, मल्ल राजा महाराजाओं ने दीप जलाकर निर्वाण महोत्सव मनाया। आज भी दीपावली के रूप में उसे धूमधाम से मनाया जाता है। पूर्ववर्ती तीर्थङ्करों का आकलन कल्पसत्र के प्रथम भाग में भगवान महावीर के बाद तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ का जीवन चरित दिया गया है। वे महावीर से लगभग २५०वर्ष पूर्व हुए थे। उनका जन्म वाराणसी में पौष वदि दशमी को विशाखा नक्षत्र में वामा देवी के कोख से हुआ था। लगभग बीस वर्ष की आयु में पार्श्वनाथ का विवाह राजा प्रसेनजित की पुत्री प्रभावती के साथ हुआ। उसी समय कमठ नाम का एक तपस्वी हठयोग कर रहा था। पार्श्वनाथ ने उसे सही तपस्या का रूप समझाया। वहीं एक लकड़ी जल रही थी। पार्श्व ने कहा- इस लकड़ी के अन्दर एक सर्प युगल झुलस रहा है। इसे निकालिए। निकालने पर उनकी बात सही निकली। पार्श्व ने अधमरे उस सर्पयुगल को णमोकार मन्त्र का पाठ सुनाया जिसके प्रभाव से मरकर वे धरणेन्द्र और पद्मावती हुए। कमठ का जीव भी मेघमाली Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव हुआ। इधर पार्श्वनाथ का मन वैराग्य की ओर बढ़ा और उन्होंने श्रमण दीक्षा ले ली। एकान्त में उन्हें ध्यान करते हुए देखकर बदला लेने की दृष्टि से मेघमाली ने उन पर घनघोर उपसर्ग किये। वहीं धरणेन्द्र-पद्मावती ने उसी तरह भगवान् की सुरक्षा की। भगवान् भी उन उपसर्गों से तनिक भी विचलित नहीं हुए। फलत: उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। उसके बाद उन्होंने लाखों लोगों को धर्मोपदेश दिया और लगभग सौ वर्ष की अवस्था में निर्वाण प्राप्त किया। ___भगवान् पार्श्वनाथ के व्यक्तित्व और सिद्धान्तों का दर्शन जैन, बौद्ध साहित्य में प्रचुर मात्रा में मिलता है। वे 'चाउज्जमधम्म' के प्रवर्तक थे। तथागत बुद्ध ने उनकी परम्परा में दीक्षित होकर कुछ समय तक आध्यात्मिक साधना की थी। बुद्ध के शिष्य सारिपुत्र मौद्गलायन भी बौद्धधर्म में दीक्षित होने के पूर्व पार्श्व-परम्परा के अनुयायी थे। कालान्तर में जैनधर्म की उत्कृष्ट साधना की आराधना करने में असमर्थ होने से भगवान् बुद्ध ने मध्यम मार्ग अपना लिया। कल्पसूत्र ने विलोम शैली को अपनाकर महावीर के चरित्र को सर्वप्रथम हमारे सामने अलंकारिक शैली में प्रस्तुत किया। इसके बाद क्रमशः तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ, नेमिनाथ आदि तीर्थङ्करों का वर्णन करते हुए अन्त में ऋषभदेव का जीवन चरित्र लिखा। यद्यपि तीर्थंक ऋषभदेव के विषय में हम पीछे लिख चुके हैं पर यहाँ कल्पसूत्र का प्रसंग आने के कारण पुन: उसे संक्षेप में दुहरा रहे हैं। तीर्थङ्कर ऋषभदेव अवसर्पिणीकाल के तीसरे आरे के पिछले तीसरे भाग में काल के प्रभाव से भोगभूमि का रूप समाप्त होने लगा तब कुलकर व्यवस्था प्रारम्भ हुई। जैन परम्परा के अन्तिम कुलकर नाभिराय हुए। उनकी पत्नी मरुदेवी की कुक्षि में वज्रनाभ का जीव सर्वार्थसिद्धि से च्युत होकर उत्तराषाढ नक्षत्र में प्रविष्ट हुआ। रात्रि के पिछले भाग में मरुदेवी ने चौदह स्वप्न देखे (दिगम्बर परम्परा में यह संख्या १६ है)। उस समय का वातावरण बड़ा शान्त और मनोरम था। चारों दिशाओं में खुशहाली थी मानों कोई नया सूर्य उदित हो रहा हो। बालक का जन्म होने पर उसका नाम ऋषभदेव रखा गया। उसका वंश इक्ष्वाकु कहलाया। युवक होने पर सुनन्दा और सुमंगला से उसका विवाह हुआ। कालान्तर में सुमंगला से भरत और ब्राह्मी तथा सुनन्दा से बाहुबली और सुन्दरी का जन्म हुआ युगल रूप में। बाद युगल रूप में जन्मे उनके १०० पुत्र और दो पुत्रियाँ हुईं। इनमें भरत की पटरानी अनन्तमति के पुत्र मरीचि के ही जीव ने बाद में महावीर के रूप में जन्म लिया। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभदेव ने शासन-व्यवस्था का विकास किया। उन्होंने कला-विज्ञान और सामाजिक-व्यवस्था का भी सूत्रपात किया। एक लम्बी अवधि तक राज्य करने के बाद उन्होंने अपने सभी पुत्रों को यथा रूप राज्य सौंपकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। पुत्रों ने भी अपने-अपने राज्य को समृद्ध और सम्पन्न किया। भरत ने छहो खण्ड जीत लिये पर बाहुबली का राज्य अविजित रहा। फलतः दोनों भाइयों के बीच जो मल्लयुद्ध, जलयुद्ध और दृष्टियुद्ध हुए। उन सबसे हमारा परिचय है ही। इन सभी युद्धों में बाहुबली की जीत हुई। इस जीत से बाहबली ने निरासक्त होकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली, पर उनके मन में अहंकार की पतली-सी परत बनी रही जिससे केवलज्ञान होने में बाधा खड़ी हो गई। भरत को जैसे ही इस तथ्य का पता चला, वे बाहबली के पास पहँचे और भलीभांति उन्हें समझाया। फलत: बाहुबली को केवलज्ञान हो गया। भरत ने भी यह सब विचार कर जिनदीक्षा ले ली। तीनों ने यथासमय मोक्ष प्राप्त किया। ऋषभदेव का व्यक्तित्व बड़ा चुम्बकीय था, तलस्पर्शी था। इसलिए समूचा वैदिक और बौद्ध साहित्य उनको अपने-अपने आगम में स्मरण कर रहा है। भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भी भारतवर्ष पड़ गया। कल्पसूत्र के द्वितीय खण्ड में स्थविरावली दी गई है। ये स्थविर ऐसे हैं जिन्होंने जैनधर्म की गौरवमयी परम्परा को आगे बढ़ाया है। उनमें अग्रगण्य हैं महावीर के ग्यारह गणधर। उनके नाम हैं- इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा, मण्डित, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलभ्राता, मेतार्य और प्रभास। इनमें गौतम और सुधर्मा को छोड़कर शेष गणधरों का निर्वाण महावीर के सामने ही हो गया था। इसके बाद गौतम गणधर बारह वर्ष तक जीवित रहे और सुधर्मा भी बारह अथवा बीस वर्ष के बाद परिनिर्वत हो गये। एक परम्परा गौतम गणधर को प्रथम आचार्य मानती है तो दूसरी परम्परा के अनुसार सुधर्मा ही प्रथम आचार्य थे। कल्पसूत्र की स्थविरावली सुधर्मा से ही प्रारम्भ होती है। सम्भव है, संघ की व्यवस्था का उत्तरदायित्व सुधर्मा से प्रारम्भ हआ हो। केवली के रूप में सुधर्मा ने ४४ वर्ष तक शासन को सम्हाला और महावीर के चौंसठ वर्ष बाद उनका परिनिर्वाण हो गया। इसके बाद ५ श्रुतकेवली हुए जिनमें प्रभव का ११ वर्ष, शय्यंभव का २३ वर्ष, यशोभद्र का ५० वर्ष, सम्भूतिविजय का ८ वर्ष और भद्रबाहु का १४ वर्ष का शासन रहा। तदनन्तर कल्पसूत्र की स्थविरावली के अनुसार १२ दशपूर्वधर हुए जिनका कुल कार्यकाल ४१४ वर्ष रहा। स्थूलभद्र ४५ वर्ष, महागिरि ३० वर्ष, सुहस्ति ४६ वर्ष, गुणसुन्दर ४४ वर्ष, कालकाचार्य (श्यामाचार्य) ४१ वर्ष, शाण्डिल्य ३८ वर्ष, रेवतीमित्र ३६ वर्ष, आर्य मंगु २० वर्ष, आर्यधर्म २४ वर्ष, भद्रगुप्त ३९ वर्ष, श्रीगुप्त १५ वर्ष Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ और वज्र ३६ वर्ष । इस तरह दश पूर्वो का ज्ञान महावीर के परिनिर्वाण के ५८४ वर्ष बाद तक चलता रहा। दिगम्बर परम्परा में यह समय ३४५ वर्ष ही माना जाता है। श्रुतिलोप का क्रम बढ़ता ही गया । दश पूर्वों के विच्छेद हो जाने के बाद विशेषपाठियों का भी विच्छेद हो गया। दिगम्बर परम्परा इस घटना को महावीर निर्वाण के ६८३ वर्ष बाद हुआ मानती है। पर श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार आर्यवज्र के बाद २३ वर्ष तक आर्यरक्षित युगप्रधान आचार्य रहे। वे साढ़े नौ पूर्वों के ज्ञाता थे। उन्होंने विशेष पाठियों का क्रमशः ह्रास देखकर उसे चार अनुयोगों में विभक्त कर दिया। फिर भी पूर्वों के लोप को नहीं बचाया जा सका। यह स्थिति महावीर निर्वाण के एक हजार वर्ष बाद हुई। यहाँ यह स्पष्ट है कि अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु पाटलिपुत्र वाचना में उपस्थित नहीं हो सके। फिर भी अन्य साधुओं के माध्यम से ग्यारह अंगों का संकलन किया गया। वे अंग आज भी प्रचलित हैं। आचार्य देवर्धिगणि क्षमाश्रमण अन्तिम दशपूर्वधारी वज्र मुनि की परम्परा में हुए। उन्हीं के नेतृत्वमें यह आगम साहित्य लिपिबद्ध हुआ महावीर निर्वाण के लगभग १००० वर्ष बाद। कल्पसूत्र का तीसरा भाग समाचारी है जिसमें 'णाणस्स सारं आयारो' के आधार पर आचार का वर्णन किया गया है। समाचारी का अर्थ है सम्यक् आचार का वर्णन करने वाला । इस भाग में साधु वर्ग के निर्दोष आचार की व्याख्या है। इसे ही 'पज्जोसणा कप्प' कहा जाता है जो आयारदसा ( दशाश्रुतस्कन्ध) का ८वाँ अध्ययन है। 1 आचरण ज्ञान के ऊपर है तीर्थङ्कर महावीर ने कोरे ज्ञान को कतई महत्त्व नहीं दिया। उन्होंने आचरण को विशेष महत्त्व दिया। इसलिए वे ज्ञानवादी नहीं, आचरणवादी कहलाये । जैन आगमों का प्रारम्भ ही आचारांग से होता है जहाँ कहा गया है 'णाणस्स सारो आयारो' । उत्तरकालीन सारे आचार्यों ने इस कथन का पूरी तरह से अनुकरण किया है। कल्पसूत्र के अन्तिम भाग समाचारी में यही तथ्य मुख्य रूप से वर्णित है । ज्ञान वस्तुत: किताबी ज्ञान है यदि वह अनुभव में न उतरे। स्वानुभूति बिना ज्ञान के पंगु है, अधूरा है। आस्था और श्रद्धा भी उसी का अनुकरण करती है। इसमें वही अन्तर है जो अन्तर एक भाषण और प्रवचन में होता है। भाषण उधार लिये हुए ज्ञान की अभिव्यक्ति मात्र है पर प्रवचन एक विशिष्ट वचनों का प्रगटीकरण है जो अनुभूति के माध्यम से उतरता है । इसलिए दर्शन, ज्ञान और चारित्र के साथ 'सम्यक्' विशेषण लगा दिया गया है ताकि थोथे ज्ञान और मिथ्या तप की उपेक्षा की जा सके। 'रत्नत्रय' सिद्धान्त के पीछे यही धारणा रही है और तीनों के समन्वित मार्ग को ही सच्ची सफलता का सत्र माना है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ चेतनता. जानना और देखना, ज्ञान और दर्शन आत्मा का मल स्वभाव है। पूर्ण विशुद्धता उसका लक्षण है। वह स्वतन्त्रता, निश्चल, कर्ता और भोक्ता है। परन्तु कर्मों के प्रभाव से उसका मूल स्वभाव ढक जाता है, उस पर धूलि का आवरण चढ़ जाता है। यही आवरण संसार में जन्म-मरण लेने की प्रक्रिया को बढ़ा देता है। दुःखों का सागर इसी से गहराता चला जाता है। आचरण का प्रमुखतम साधन है अपरिग्रहवृत्ति। सारी बुराइयों की जड़ है आसक्ति। आसक्ति लोभ का ही दूसरा नाम है। वह विवेक के चेहरे पर अपना चेहरा ऐसा चिपका देता है कि वह मुखौटा मूल चेहरे से भी कभी-कभी बेहतर दिखाई देता है। सारी हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदि जैसे पापों के पीछे यही मुखौटा, परिग्रह का भाव काम करता है और सन्मार्ग में कांटे बिछाता है। लगता है, परिग्रह ही पाप का मूल कारण रहा होगा तीर्थङ्कर महावीर की दृष्टि में। अपरिग्रह वृत्ति के बाद हम खान-पान की ओर दृष्टि दें। जैनधर्म एक जीवन पद्धति है, जिन्दगी का रास्ता है जहाँ व्यक्ति निर्भय और निर्द्वन्द्व होकर चल सकता है। आज का विज्ञान क्षेत्र इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि खान-पान का असर हमारे मन पर और हमारी वृत्तियों पर पड़ता है। जैन जीवन पद्धति शुद्ध शाकाहार को तरजीह देती है। शाकाहार मानवता की पुकार है। आश्चर्य है थोड़े से तथाकथित स्वाद के लिए व्यक्ति अपनी मानवता को चट कर जाता है और पशुवृत्ति का प्रतीक मांसाहार करने में जुट जाता है। मांसाहार कोई अनिवार्य तत्त्व नहीं है, अनिवार्य तत्त्व है अनाज और खाद्य वनस्पतियाँ। इसका कोई विकल्प भी नहीं है। क्रूरता, आवेश आदि तामसिक वृत्तियाँ, मांसाहार से अधिक बढ़ती हैं। हृदय रोग, कैंसर, मिर्गी, संधिवात, मोटापा, त्वचा रोग आदि अनेक भीषण रोग मांसाहार से अधिक होते हैं। मांसाहारी पशु और शाकाहारी पशुओं की शरीर-रचना भी बिलकुल भिन्न होती है। शाकाहार में प्रोटीन कम होते हैं यह धारणा भी बिल्कुल गलत साबित हो गई है। अत: जैनधर्म विशुद्ध शाकाहार पर बल देता है। ___ अहिंसादि व्रतों का परिपालन एक साधारण व्यक्ति के वश की बात नहीं होती। अत: वह 'अणुव्रत' कहा जाता है। अणुव्रती होना सच्चे श्रावक का लक्षण है। उसका जीवन निर्व्यसनी होना चाहिए। मद्य, मांसादि के सेवन से विरत होना चाहिए। धनार्जन भी न्यायपूर्वक हो। उसमें शोषण न हो। अहंकारादि भावों से दूर रहकर समता भाव उसकी आधारशिला हो। अर्जन के साथ विसर्जन भी उतना ही आवश्यक है। आचरण का चतुर्थ आयाम है चिन्तन और अभिव्यक्ति में समता भाव। समन्वय चेतना और समतामयी विचारधारा अशान्त वातावरण को प्रशान्त बना Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देती है। कोई भी सांसारिक व्यक्ति पदार्थ के सभी गुणों का वर्णन एक साथ नहीं कर सकता और फिर हर एक के विचारों में सत्यांश रहता ही है। उस सत्यांश का आदर करना, स्वीकार करना हमारा धर्म है। इसी को स्याद्वाद और अनेकान्तवाद कहा जाता है। जहाँ नय की विवक्षा से 'कथंचित' या 'स्यात्' का प्रयोग कर अपना विचार रखा जाता है। अनेकान्तवाद सभी प्रकार की विषमताओं से आपादमग्न समाज को एक नयी दिशा-दान देता है। उसकी कटी पतंग को किसी तरह सम्हालकर उसमें अनुशासन तथा सुव्यवस्था की सुस्थिर, मजबूत और वैचारिक चेतना से सनी डोर लगा देता है, आस्था और ज्ञान की व्यवस्था में नया प्राण फूंक देता है। तब संघर्ष के स्वर बदल जाते हैं, समन्वय की मनोवृत्ति, समता की प्रतिध्वनि, सत्यान्वेषण की चेतना गतिशील हो जाती है, अपने शास्त्रीय व्यामोह से मुक्त होने के लिए, अपने वैयक्तिक एक पक्षीय विचारों की आहुति देने के लिए और निष्पक्षता, निर्वैरता-निर्भयता की चेतना के स्तर पर मानवता को धूल धूसरित होने से बचाने के लिए। सदाचरण की फलश्रुति है सहयोग, सद्भाव, समन्वय और समताभाव। इन भावों पर आधारित हमारी जीवनशैली निश्चित ही सुसंस्कृत, संघर्षविहीन और निष्कंटक होगी। दूसरे के अस्तित्व को स्वीकारना और निरहंकारी, सरल, अहिंसक और निरासक्त जीवन यापन करना आचरण की परिभाषा है। पर्युषणपर्व ऐसे ही सदाचरण की वकालत करता है और जीवन को नयी रोशनी से भर देता है। अन्तगड सूत्र कल्पसूत्र के वाचन में उत्तरकाल में कुछ शिथिलता आने लगी, पौरोहित्य बढ़ गया और आडम्बर ने अपना स्थान मजबूत कर लिया। सामाजिक और आध्यात्मिक नेताओं ने आत्मसिद्धि के साथ इस प्रवञ्चना को दूर करने की ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया। फलत: उनकी दृष्टि अन्तकृतदशांग पर जमी। __ अन्तकृद्दशांग में उन साधकों की चर्चा की गई है जिन्होंने संसार-सागर को पार करने के लिए अथक प्रयत्न किया और अन्त में निर्वाण प्राप्त किया। इस अंग में आठ वर्ग हैं और जिनमें ९० महान् साधकों का तपोमय जीवन वर्णित हुआ है। प्रथम वर्ग से पांचवें वर्ग तक में तीर्थङ्कर नेमिनाथ के युगीन साधकों का वर्णन है जैसे गौतम कुमार, गजसुकुमाल, जालि-मयाली, दृढ़नेमि, पद्मावती-सत्यभामा, रुक्मिणी, जांबवन्ती आदि और छठे अध्ययन से आठवें अध्ययन तक महावीरकालीन ३९ उग्र तपस्वियों के साधनामय जीवन को चित्रित किया गया है। उन तपस्वियों के कतिपय नाम हैं- गौतम, समुद्र, सगर, गम्भीर, स्तमित, अचल, कंपिल, अक्षोभ, प्रसेनजित, विष्णु, अक्षोभ, सागर, समुद्र, हिमवान्, अचल, धरण, पूरण, अभिचन्द्र, अणीसेन, अनन्तसेन, Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ अजितसेन, अनहितरिपु, देवसेन, शत्रुसेन, गजसुकुमार, सुमुख, दुर्मुख, कूपदारुक, दारुक, अनाधृष्टिकुमार, जालिकुमार, मयालि, उवयालि, पुरुषसेन, वारिसेन, प्रद्युम्न, शाम्ब, अनिरुद्ध, सत्यनेमि, दृष्टनेमि, पद्मावती, रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवन्ती, अर्जुनमाली, सुदर्शन, क्षेमक, धृतिधर, अत्तिमुक्तक, अलक्ष, नन्दा, नन्दवती, भद्रा, काली, महाकाली आदि। इन सभी साधक-साधिकाओं के धार्मिक जीवन के उदाहरण हमारे जीवन को पवित्र और मंगलमय बना देते हैं। अन्तगडसूत्र में इन सभी महापुरुषों की साधना का वर्णन मिलता है। गौतमकुमार और गजसुकुमार की जीवनसाधना को हम उदाहरण के रूप में उल्लिखित कर रहे हैं। गौतम कुमार की द्वारिका नगरी के राजा अंधकवृष्णि के पुत्र थे। प्रासादमयी सुख भोगते हए एक दिन अरिष्टनेमि का प्रवचन सुना कि 'मा पडिबंध करेह' धर्म कार्य में विलम्ब मत करो, पड़े-पड़े समय व्यर्थ मत करो। बस, चिन्तन गहराया और माता-पिता की अनुमति लेकर जिनदीक्षा ग्रहण की। कठोर साधना की और भिक्षुप्रतिमा तथा संवत्सर तप करते हुए मोक्ष प्राप्त किया। यह सम्यक् तप की महिमा थी कि गौतम कुमार ने अष्टकर्मों का नाश कर अक्षय पद प्राप्त किया। २. गजसुकुमार श्रीकृष्ण की माता देवकी का प्रिय पुत्र था। देवकी के पुत्रों को हरिणैगमेषी देव सुलसा के पास छोड़ आता था और सुलसा के मृत पुत्रों को देवकी के पास रख देता था। सात पुत्रों का यही हाल रहा। तब श्रीकृष्ण द्वारा सन्तान प्रदाता हरिणैगमेषी की आराधना करने पर गजसुकुमार को पुत्रवत् पालने का अवसर देवकी को मिला। पर वह भी समय आने पर जिनदीक्षा की ओर मुड़ गया। देहासक्ति से दूर परम वीतरागी गजसुकुमार श्मशान आदि जैसे स्थानों पर ध्यानमग्न होने लगा। एक दिन सोमिल ब्राह्मण ने बदला लेने के लिए श्मशान में ध्यानस्थ गजसुकुमार के शिर पर दहकते अंगार रख दिये जिसकी तीव्र वेदना को प्रशान्त भाव से सहते हुए मुनिराज ने निर्वाण प्राप्त किया। अन्य साधकों की साधनामयी जीवनचर्या को समझने के लिए पाठक मूल ग्रन्थ को देखें। सन्दर्भ १. आचारांग, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, पन्द्रहवाँ अध्याय; कल्पसूत्र, १७ सुबोधिका टीका। २. The Jain Stupa and other Antiquities of Mathura, p. 25. ३. श्रमण भगवान् महावीर, श्रमण, सितम्बर, १९७२, पृ० ६; और भी देखिए चार तीर्थङ्कर-पं० सुखलाल जी, भगवान् महावीर – दलसुख मालवणिया, Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ > योगशास्त्र, द्वितीय श्लोक की वृत्ति। कल्पसूत्र, १०९; महावीर चरियं, पृ० १३२; त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र १०२, १५१। जयधवला, भाग १, पृष्ठ ७८; तिलोयपण्णत्ति, ५, ६६७; उत्तर पुराण ७४, ३०३-४॥ आचारांग, ९, २, १२। वही, ९, १, ९.२०। ८. ठाणांगसूत्र, ९.३.२९६, वृत्ति पृष्ठ ५६१/१; कल्पसूत्र, प्रथम अध्याय, धवला में महावीर का केवलिकाल २९ वर्ष ५ माह और २० दिन लिखा है। ९. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, १०, ३, २९-३१। १०. वही, १०, ३, ३३।। ११. नाप्रीतिमद्गृहे वास: स्थेयं प्रतिमया सह। न गेहिविनयं कार्यों मौनं पाणो च भोजनम् ।। - कल्पसूत्र, सुबोधिका टीका, पृष्ठ २८८ १२. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, १०.३, १३१-१३२। १३. आवश्यकचूर्णि, प्रथम भाग, पृष्ठ २७५ । १४. वही, पृ० २७८-७९। १५. वही, पृ० २८३। १६. भगवती, शतक १५, १, ५४२। १७. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, १०, ३, ४५२। १८. आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृ० २८६। १९. वही, पृ० २८८। २०. आचारांग, ९, ३, ४-५। २१. सूरो संगामसीसे वा संबुडे तत्थ से महावीरे। पडिसेवमाणे फरसाइं अचले भगवं दीयित्सा।। -- आचारांग, ९, ३, १३। २२. आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृ० ३.२०-१। २३. कल्पसूत्र, ११६; आवश्यकचूर्णि, भाग १, पृ० ३२२। २४. नागो संगामसीसे वा पारए तत्थ से महावीरे। - आचारांग, ९-३-८। २५. जयधवला, भाग १, पृ० ८०; तिलोयपण्णत्ति, ४.१७०१। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ २६. विस्तार से देखिये, लेखक का ग्रन्थ- Jainism in Buddhist Literature, नागपुर, १९७२। २७. षटखण्डागम, भाग ९, पृष्ठ १२९ । २८. विशेषावश्यकभाष्य, १५४०-६०। २९. वही, १६१०-१४। ३०. वही, १६५०-१६५४। ३१. वही, १६९०-१७६८। ३२. वही, १७७०-१८०९। ३३. वही, १८०३-१८६०। ३४. वही, १८६७-१८८३। ३५. वही, १८८८-१८९०। ३६. वही, १९०८-१९४७। ३७. उत्तरपुराण, ७४, ३७३-३७४। ३८. कल्पसूत्र, १३३-१४४; उत्तरपुराण ७४, ३७३-३७९, तिलोयपणत्ति ४.११६६-११७६; हरिवंशपुराण, ६०,५३२-४४०, यहाँ कहीं-कही श्रावकों की संख्या एक लाख और श्राविकाओं की संख्या तीन लाख भी बतायी गई है। ३९. कल्पसूत्र, १२६; उत्तरपुराण। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रोध का अभाव ही क्षमा है स्वानुभूति और धर्म साधारण तौर पर यह देखा जाता है कि व्यक्ति जैसे ही मृत्यु की चिन्ता करता है, वह धर्माराधना की ओर अपना कदम बढ़ाने लगता है। मृत्यु से बचने के लिए हमने सुखाभासों में जीकर अनेक बफर बना लिये हैं और इस मिथ्या भ्रम से ग्रस्त हैं कि धन, सम्पत्ति और परिवार हमारा है। हमें उनसे कोई अलग नहीं कर सकता, पर यह सही नहीं है। ये सभी पर पदार्थ हैं और इन्हें छोड़कर एक दिन हमें इस लोक से जाना ही होगा। यह चिन्तन जितना गहरा होगा, धर्म की ओर हमारे कदम उतने ही पुख्ता होंगे। व्यक्ति के धार्मिक होने में एक और भी कारण है - स्वानुभूति। स्व-पर का भेदविज्ञान स्वानुभूति का कारण होता है। साधक की इन्द्रियाँ, मन और चित्त या बुद्धि की स्थिति को परखकर उसकी अनुभूति की गहराई को समझा जा सकता है और अनुभूति की गहराई में ही धर्म उतरता है - मत्तश्च्युत्वेन्द्रियद्वारैः पतितो विषयेष्वहम्। तान् प्रपद्याऽहमिति मां पुरा वेद न तत्त्वतः।। समाधितन्त्र, १६. मनुष्य अनेक चित्त वाला है -- "अनेक चित्तवान् खलु अयं पुरुषो।' एक ही व्यक्ति सुबह दयालु दिखाई देता है, दोपहर में परिग्रही बन जाता है और शाम को वह हिंसक बन जाता है। उसका यह स्वभाव गिरगिट के स्वभाव से भी दस कदम आगे प्रतीत होता है। इससे वह मूर्छावश संक्लेश परिणामों से ग्रस्त हो जाता है और जागरण रुक जाता है। स्वानुभूति तत्त्व इस जागरण और भेदविज्ञान को स्थिर कर देता है और व्यक्ति को सही धार्मिक बना देता है। धर्म का उद्देश्य होता है - वर्तमान जीवन में सुधार लाना। इस उद्देश्य से धार्मिक धर्म के मर्म को समझता है और गुरु के पास जाकर दुःख-मुक्ति का उपाय पूछता है। गुरु कहता है - उपाय वह तभी बतायेगा जब शिष्य ऐसे व्यक्ति का अंगरखा ले आये जो सबसे अधिक सुखी हो। शिष्य जाता है, खोजता है, पर उसे पूर्ण सुखी Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति कहीं नहीं मिलता। तब गुरु कहता है- दुःख से मुक्त होने का उपाय यह है कि दूसरे की ओर न झांका जाये और स्व-पर का चिन्तन किया जाये, यही स्वानुभूति की प्रतीति है। यह बात सही है कि पर पदार्थ के साथ व्यवहार स्थापित किये बिना लोक-व्यवहार नहीं चलता। पर लोक-व्यवहार अहिंसा पर आधारित होना चाहिए। हम दूसरे के प्रति सहानुभूति व्यक्त करते समय उसके स्वतन्त्र अस्तित्व को अस्वीकार करने लगते हैं। हमारा चिन्तन वस्तुनिष्ठ बन जाता है, चेतननिष्ठ नहीं। यही कारण है कि ईमानदार गरीब लड़के की उपेक्षा की जाती है और किसी भी गलत या सही साधनों के माध्यम से कमाने वाले लड़के को महत्त्व दे दिया जाता है। जीवन में इन विशृङ्खलताओं के कारण परिवार और समाज के बीच मनोमालिन्य बढ़ जाता है, क्रोध, ईर्ष्या आदि विकार भावों से मन उत्तेजित हो उठता है। इन भावों का मूल स्थान है डक्टलेस ग्लेण्ड्स। क्रोधादि आवेग सीधे रक्त में चले जाते हैं और उनसे बिटा तरंगें प्रभावित होती हैं जिससे अवसाद का जन्म होता है, परन्तु अल्फा तरंगों से व्यक्ति आनन्द से भर जाता है और ये अल्फा तरंगें सद्भावों से पनपती हैं। आचार्य स्थूलभद्र ‘कोशा' नामक गणिका के घर चातुर्मास कर बेदाग वापिस लौटे इन्हीं अल्फा तरंगों के प्रभाव से। राकफेलर ने भी मूर्छा त्यागकर नया जीवन पाया। धर्म सद्भावों के माध्यम से अल्फा तरंगों को पैदाकर ऐसा ही नया जीवन प्रदान करता है। क्षमा : अर्थ और प्रतिपत्ति क्षमाधर्म ऐसे ही विधायक भावों के बीच पनपता है। क्रोध का कारण उपस्थित रहने पर जो थोड़ा भी क्रोध नहीं करता उसको यह क्षमा धर्म होता है। पूज्यपाद ने क्षमा के स्थान पर 'क्षान्ति' शब्द का प्रयोग किया है और उसे क्रोधादि से निवृत्ति रूप माना है (स०सि०६.१२)। सिद्धसेनगणि और अभयदेव ने भी क्षान्ति की यही व्याख्या की है। आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वामी (उमास्वाति), कार्तिकेय जैसे आचार्यों ने 'क्षमा' शब्द का प्रयोग किया है और उसे 'क्षान्ति' का समानार्थक माना है। पर सिद्धसेनगणि ने क्षमा और क्षान्ति में कुछ अन्तर किया है। उन्होंने क्रोध निवृत्ति को 'क्षान्ति' कहा है और सहन करने को 'क्षमा' कहा है। आवश्यकचूर्णि में क्षमा, तितिक्षा और क्रोधनिरोध को समानार्थक माना गया है। तद्नुसार आक्रोश, ताडन आदि को सहन करना, क्रोधोदय का निग्रह करना और उदय में आये हुए क्रोध को विफल करना क्षमा है। क्षमा के इन सब लक्षणों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। उन सबमें क्षमा की व्याख्या ही देखी जा सकती है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ क्षमा की उपमा पृथ्वी से दी जाती है। पृथ्वी को आप खोदिये, रौंदिये, वह उफ तक नहीं करती। इतने पर भी वह कुछ न कुछ देती ही रहती है। इसलिए उसे 'सर्वरसा' भी कहा जाता है। क्रोध : कारण और प्रतिफल क्षमा आत्मा का स्वभाव है। क्रोध उसका विभाव है। क्रोध अविचारपूर्वक स्व और पर को दुःख देने वाली एक प्रवृत्ति है। मोहनीय-कर्म के उदय से यह द्वेषरूप क्रूरता भरा परिणाम उत्पन्न होता है। चूंकि क्रोधादि विभाव आत्मा का विघात करते हैं इसलिए उन्हें 'कषाय' की संज्ञा दी जाती है। इस क्रोध को अग्नि के समान कहा गया है, जिसमें सब कुछ भस्म हो जाता है। पित्त-प्रधान व्यक्ति में क्रोध की मात्रा सर्वाधिक देखी गई है। क्रोध से ही वैर, आक्रमण, प्रत्याक्रमण होते हैं। इसका स्थायित्व अधिक होता है। आचार्यों ने स्थायित्व की दृष्टि से क्रोध की चार श्रेणियाँ मानी हैं -- पत्थर की रेखा के समान, भूमि पर खींची रेखा के समान, बालू पर खींची रेखा के समान और जल पर खींची रेखा के समान। ये रेखायें जिस प्रकार क्रमश: कमजोर होती चली जाती है, उसी प्रकार क्रोध की श्रेणियाँ भी स्थायित्व की दृष्टि से क्रमश: हीन होती जाती हैं। इनकी परिणति क्रमश: नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति में होती है। इसके अनुसार नारकियों में क्रोध सर्वाधिक होता है। व्यक्ति में क्षमा सम्यग्दर्शन के पालन करने से आती है और वैभाविक क्रोध का जन्म मिथ्या दर्शन से होता है। मिथ्या-दर्शन के कारण ही व्यक्ति कर्तृत्वबुद्धि से पर पदार्थों में राग करता है, आसक्ति करता है फलत: उनके संरक्षण करने में क्रोध की स्वभावत: उत्पत्ति हो जाती है। वही क्रोध जन्म-जन्मान्तरों तक दुःख का कारण बन जाता है। ___उत्तम क्षमावान् होने की स्थिति तक पहुँचना बहुत बड़ी कठिन साधना का काम है। चित्त की विशुद्ध अवस्था उसके लिए अत्यावश्यक है। पञ्चम गुणस्थानवर्ती अणुव्रती से लेकर नौवें-दशवें गुणस्थानवर्ती महाव्रती को उत्तम क्षमा होती है। पर नौवें ग्रैवेयक तक पहुँचने वाले मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिङ्गी को उत्तम क्षमा नहीं होती। उत्तम क्षमावान् होने के लिए क्रोध पर विजय प्राप्त करना नितान्त आवश्यक है। इसलिए क्रोध की उत्पत्ति के कारण, उसका निदान और उसके उदाहरणों की ओर दृष्टिपात करना जरूरी हो जाता है। क्रोध की उत्पत्ति अहङ्कार और तृष्णा से होती है। इन दोनों के होने पर दूसरे का अपमान किया जाता है और दूसरे का अपमान करने के लिए व्यक्ति को पहले स्वयं Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ नीचे गिरना पड़ता है। उसे कोई होश ही नहीं रहता कि वह क्रोध क्यों करता है? क्रोध और क्रोधी दोनों अलग-अलग हैं। क्रोधी पहले स्वयं को दुःखी करता है और बाद में दूसरे को। असन्तोष, असफलता, अभाव, प्रतिकूलता, कल्पित व्यवहार आदि और भी अनेक कारण हैं जिनसे क्रोध उत्पन्न हो जाता है। क्रोध के भयङ्कर रूप को समझा जा सकता है उन कथाओं के माध्यम से जहाँ कहा गया है कि सोमिल ब्राह्मण ने गज सुकुमाल मुनि के सिर पर अंगार रखा था और चण्डकौशिक सर्प के जीव ने महावीर को काटा था। क्रोध हमको कुछ देता नहीं, बल्कि हमसे कुछ छीन लेता है। जितने भी विकार भाव हैं। वे हमें थकाने वाले होते हैं। उनके आने पर हम थकान का अनुभव करते हैं, पर करुणादि भाव से व्यक्ति थकता नहीं, बल्कि प्रसन्नता का अनुभव करता है। कहा जाता है- क्रोध में होश होना चाहिए। पर साधारणत: क्रोध में होश चला जाता है। होना यह चाहिए कि जब क्रोध चरम स्थिति पर हो, तब रुक जाना चाहिए। खलीफा अली युद्ध के मैदान पर लड़ रहा था। शत्रु को उसने नीचे गिरा दिया और उस पर जैसे ही भाला चलाने वाला था कि शत्रु ने उस पर थूक दिया। उसने थूक को पोंछा और कहा कि अब उठो, कल लड़ेंगे। शत्रु ने कहा - क्यों ? अली का उत्तर था - मुहम्मद की आज्ञा है - अगर हिंसा भी करो तो क्रोध में नहीं करना। तुमने थूककर मुझमें क्रोध की अग्नि भभका दी। ऐसी स्थिति में मैं हिंसा नहीं कर सकता। क्रोध टिकाऊ न हो। ऐसा न हो कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहे। एक मुकदमा शुरु करे और वह चार पीढ़ी तक भी समाप्त न हो। क्रोध हो भी तो उसकी केतली का ढक्कन खुला रहे, बन्द न हो ताकि उबाल न आ सके। अनन्तानुबन्धी क्रोध दुःख के महासागर में गिरने का कारण बनता है। क्रोध को दर करने के उपाय क्रोध बेहोशी में ही होता है। होश रहते क्रोध हो ही नहीं सकता। क्रोधरूपी महाशत्रु से मुक्त होने के लिए विद्वानों द्वारा कुछ मार्ग इस प्रकार सुझाये गये हैं - . (१) आत्मपरीक्षण, उपवास, कायोत्सर्ग, प्रतिसंलीनता और त्रिगुप्ति परिपालन से व्यक्ति सम्भल जाता है, आत्मचिन्तन होने से क्रोध की प्रकृति समझ में आ जाती है और आत्मपरीक्षण हो जाता है। (२) दूसरे की भूलों का स्मरण मत करो। ईसामसीह ने कहा था - पड़ोसी से मनमुटाव हो जाये और उसका स्मरण हो जाये, तो देव मन्दिर से भी वापिस आकर उससे क्षमा माँगो। बृहत्कल्पसूत्र में श्रमण से क्षमा याचना के बाद ही आहारचर्या करने का निर्देश दिया गया है, जिससे दूसरों की भूलों का विस्मरण Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ कर क्रोध से मुक्त हुआ जा सके। (३) चित्त-निरोध - अतीत और भविष्य से हटकर वर्तमान में रहना और मन को एकाग्र कर उसे प्रशान्त करना। ज़ेन फ़कीर को किसी ने लाठी मार दी तो उसने कहा ---- समस्या मारने वाले की है उसकी नहीं है। यह कथन उसी तरह से है जिस तरह बुद्ध ने कहा कि वे गाली को स्वीकार नहीं करेंगे, क्योकि गाली से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है। (४) अलेक्जेण्डर ने कहा - क्रोध आने पर टेबुल के नीचे हाथ बांधकर उन्हें पांच बार खोलो। इसी तरह गुर्जियेफ के पिता ने अपने पुत्र से कहा कि जब क्रोध आये तो उसे रोककर चौबीस घण्टे बाद करने का मन बनाओ। सम्भव है, इस बीच क्रोध स्वतः शान्त हो जाये। (५) दर्पण में क्रोध की मुद्रायें देखकर उन पर विचार करो। रोना भी क्रोध न आने देने का एक उपाय है। कहा जाता है महिलाओं को दिल का दौड़ा कम आता है; क्योंकि वे रोकर अपना क्रोध और दुःख अभिव्यक्त कर देती हैं। (६) क्रोध को कल पर टाल दो। अब्राहम लिंकन ने कहा है कि क्रोध भरे पत्र का उत्तर सात दिन बाद देना चाहिए। तब तक क्रोध शान्त हो सकता है और पत्र की भाषा भी नरम हो सकती है। (७) समता भाव धारण कर निन्दा और प्रशंसा में तटस्थ रहना चाहिए। बुद्ध ने ठीक ही कहा है - जागकर क्रोध करो, जाग कर देखो कि क्रोध उठता कैसे है? (८) क्रोध आते ही मुंह में मिश्री का पानी भर लो। (९) क्रोध आने पर कागज पर बार-बार लिखो - क्रोध आ रहा है। दीर्घ श्वास लेने से भी क्रोध की मात्रा कम हो जाती है। (१०) संसार की क्षणभंगुरता पर विचार करना आदि। क्षमा के उदाहरण कतिपय ऐसे साधन भी हैं, जिनसे क्रोध की मात्रा कम की जा सकती है और उनके आने पर उनसे मुक्त भी हुआ जा सकता है। क्रोध से मुक्त होने पर क्षमा भाव का आ जाना स्वाभाविक है। क्षमा राग-द्वेष से मुक्त अवस्था का नाम है इसी को 'स्थितप्रज्ञ' भी कहते हैं। ऐसे ही स्थितप्रज्ञ महापुरुष उत्तम क्षमावान् होते हैं। ऐसे उत्तम क्षमावानों के कुछ उदाहरण इस प्रकार प्रस्तुत किये जा सकते हैं। (१) समर्थ व्यक्ति ही क्षमादान कर सकता है। लक्ष्मण ने सुग्रीव से कठोर वचन कहने पर क्षमा मांगी। उदायन ने चण्डप्रद्योत से क्षमा मांगी, जबकि उदायन विजेता Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था और चण्डप्रद्योत पराजित सम्राट्। इसीलिए 'क्षमावीरस्य भूषणम्' कहा गया है। (२) पुरुषोत्तम राम ने बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करने पर भी रावण को नहीं मारा, यह राम की उत्तम क्षमा थी। (३) पृथ्वीराज ने मुहम्मद गोरी को उसके आक्रमण करने पर सत्रह बार हराया और क्षमा किया। (४) द्रोणाचार्य का पाठ युधिष्ठिर ने अपने मन में व्यावहारिक रूप से सही ढंग से उतारा। (५) पं० गोपालदास वरैया पर उनकी पत्नी का बरसता हुआ क्रोध प्रसिद्ध है। (६) महाकवि बनारसीदास ने रास्ते में पेशाब की। इस पर पहरेदार ने उन्हें दण्डित किया। राजा के सामने पहरेदार के पहुंचने पर बनारसीदास ने उसे पुरस्कार दिलाया और उसके कर्तव्य की भरपूर प्रशंसा की। (७) राजा उदायन ने अवन्तीपति चण्डप्रद्योत को क्षमाकर ससम्मान उसका राज्य वापस किया। (८) केवली नागदत्त ने क्रोध के कारण ही अपने श्रमण पर्याय की विराधना कर नागयोनि में जन्म लिया और क्रोध के शान्त होने पर मनुष्य भव प्राप्त कर, क्षमा की आराधना से मुक्ति प्राप्त की। ये सभी उदाहरण यह व्यक्त करते हैं कि क्रोध-निग्रह से क्षमा या क्षान्ति का आविर्भाव होता है। तत्वार्थराजवार्तिक, उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थों में क्षान्ति की यही व्याख्या की गई है। उत्तम क्षमा का यही रूप है जिसकी हम इस महापर्व में आराधना करते हैं। क्रोधादि विकार भाव असत् हैं, झूठे हैं, क्षमा आदि भाव सत् हैं, सत्य हैं। उनको भलीभाँति हमें धारण करना चाहिए। क्षमा भाव के विस्तार से साधक करुणाशील हो जाता है। उसका मन क्रोधी के प्रति दयाद्र हो जाता है। सोचता है क्रोधी के अविवेक पर, प्रमाद पर। उसकी गालियों पर वह कोई ध्यान नहीं देता, प्रतिक्रिया नहीं करता बल्कि हंस देता है। साधक द्वारा कोई प्रतिक्रिया न करना क्रोधी सहन नहीं कर पाता; क्योंकि क्रोधी परतन्त्र है, उसका क्रोध निमित्त पर, पर पर आधारित है, परन्तु उत्तम क्षमाशील साधक स्वतन्त्र है, उसका पर समाप्त हो गया है। उसके साथ प्रसन्नता है, आनन्द है जिसके लिए दूसरे की आवश्यकता नहीं रहती, करुणा है जो सदैव ज्योति के समान निरपेक्ष होकर बहती रहती है। कषाय से भी वह मुक्त हो गया है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० सन्दर्भ कोहुप्पत्तिस्स पुणो बहिरंग जदि हवेदि सक्खादे। ण कुणादि किंचिवि कोहं तस्स खमा होदि धम्मो त्ति।। - बा० अनु० ७१. भा०पा० १०७; का० अनु० ३९४; चा० सा०, पृ० ५९. शरीरस्थितिहेतुमार्गणार्थं परकुलान्युपगच्छतो भिक्षोर्दुष्टजनाक्रोशप्रहसनावज्ञाताडनशरीरव्यापादनादीनां संनिधाने कालुष्यानुत्पत्ति क्षमा । स०सि० ९.६, पृ० ४५२; रा०वा० ९.६.२, पृ० ५९५; चा० सा०, पृ० ५९. मित्ती मे सव्वभूयेसु वेरं मझं न केणइ नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे न तर्कवादे न च तत्त्ववादे। स्वपक्षसेवाश्रयणे न मुक्तिः कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव।। क्षमा क्रोधनिग्रहः - आ० हरि०वृ० ४, पृ० ६६०. क्षमागुणांश्चानायासादीननुस्मृत्य क्षमितव्यमेवेति क्षमाधर्म: - त०भा० ९.६. पृ० १९१. क्रोधोत्पत्तिनिमित्तविषह्याक्रोशादिसंभवे कालुष्योपरमः क्षमा- तत्त्वार्थवार्तिक, ९.६.२. तत्थ खमा आकुट्ठस्स वा तालियस्स वा अहियासेंतस्स कम्मक्खओ भवइ, अणहियासिंतस्स कम्मबंधो भवइ, तम्हा कोहस्स निग्गहो कायव्वो, उदयपत्तस्स व विफलीकरणं, एस खमन्ति वा तितिक्खत्ति वा कोहनिग्गर्हत्ति वा एगट्ठादशवैकालिकचूर्णि, पृ० १८. क्रोधस्यानुत्पाद उत्पन्नस्य वा विफलीकरणं- योगशास्त्र स्वो०विव० ३.१६. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की सरलता ही मृदुता है उत्तम क्षमाधर्म यदि जीवन में आ जाये तो उत्तम मार्दव-धर्म स्वत: आ जाता है। क्रोध की उत्पत्ति अहङ्कार पर चोट लगने से होती है। अहङ्कार यदि समाप्त हो जाये तो मृदुता, सरलता और विनय अपने आप आ जाती हैं। इसलिए मार्दव का प्रतिपक्षी मान है और उसके विगलित हो जाने पर विनय गुण का आविर्भाव होता है। __मूल्याङ्कन का पैमाना हर एक का अलग-अलग होता है। यह पैमाना उसके संस्कारों और भावों पर निर्भर करता है। उनसे ही उसकी पसन्दगी का पता चल जाता है। धर्म की ओर कदम बढ़ाने के लिए और उस पर स्थिर रहने के लिए भी वैसे ही संस्कारों की अपेक्षा होती है। साधना में रचा-पचा व्यक्ति ऐसे संस्कार देने में सक्षम होता है। वह साधना नये आयाम खोलती है और रूपान्तरण की प्रक्रिया को जन्म देती है। वह अहं से अहँ बना देती है और अन्तर से स्फुटित होकर जीवन का कायाकल्प कर देती है। विजातीय तत्त्व के अलग होने पर ही प्रस्तर प्रतिमा का रूप लेता है। ज्ञेय, हेय और उपादेय को जान लेने पर ही 'कोऽहं' का उत्तर मिल पाता है। तभी मान लेप की भांति झरने लगता है। संकल्प और जागरण किसी भी काम को पूरा करने में चार चरणों को पार करना पड़ता है - इच्छा, आकांक्षा, संकल्प और भावना। भरत ने बाहुबली से युद्ध करने का निश्चय इसी क्रम से किया और अन्त में इच्छा को विजयी बनाया। मान जैसे राक्षस से मुक्त होने के लिए भी इसी क्रम को अपनाना पड़ेगा और इस महापथ पर चलते-चलते भयानक मानसिक संघर्षों से भी लोहा लेना पड़ेगा। अन्धकार से भरे जीवन में जागरण एक अमूल्य औषधि के रूप में आता है और मान का दुष्परिणाम एक नया अनुभव दे जाता है, जिससे आस्था का निर्माण होता है। संकल्प का जागरण भी तभी हो पाता है। वैद्यराजों द्वारा अनेक प्रयत्न करने के बावजूद सिरदर्द दूर न होने पर, क्रोधित होकर राजा भोज ने आयुर्वेद के ग्रन्थों की आहति दे दी। लेकिन जीवक ने उसके सिर में से मछली निकालकर जब दर्द दूर कर दिया तो उसके मन में आयुर्वेद के प्रति पुन: आस्था जाग गई। अत: किसी कार्य की Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपत्ति होने के लिए आस्था का निर्माण अत्यावश्यक हो जाता है। मृदता लाने के लिए साधक में इसी आस्था, पुरुषार्थ और आत्मनिरीक्षण की जरूरत होती है। मार्दव का अर्थ मार्दव-धर्म का विरोधी भाव मान है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, श्रुत और शील में से किसी पर भी अभिमान नहीं करना मार्दव धर्म है - कुल-रूव-जादि-बुद्धिस्क, तव-सुद-सीलेसु गारवं किंचि। जो ण वि कुक्खदि समणो महवधम्मो हवे तस्स।। (बा०अ०७२) आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार (१.२५) में ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और वपु इन आठ मदों से विरहित को मार्दव माना है। उमास्वामी ने कुल, रूप, जाति और श्रुत के बाद ऐश्वर्य, विज्ञान, लाभ और वीर्य को गिनाकर दूसरों की निन्दा और अपनी प्रशंसा को निग्रह करने को मार्दव धर्म माना है। चारित्रसार (पृ० २८) में भी लगभग यही बात कही गयी है। अकलंक ने इसमें यह और जोड़ दिया कि दूसरे के द्वारा परिभव के निमित्त उपस्थित किये जाने पर भी अभिमान का अभाव होना मार्दव-धर्म है (त०वा०, ९.६)। आवश्यकचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि (पृ० १८), कार्तिकेयानुप्रेक्षा (३९५) आदि ग्रन्थों में भी मार्दव धर्म का वर्णन लगभग इसी प्रकार मिलता है। स्थानाङ्ग में आये लाघव धर्म (१०.१६) को किसी सीमा तक मार्दव में सम्मिलित किया जा सकता है। यद्यपि लाघव का अर्थ उपकरण की अल्पता है पर वहाँ ऋद्धि, रस और सात (सुख) इन तीन गौरवों का जो त्याग बताया गया है (प्रवचनसारोद्धार, वृत्ति पत्र १३५) वह त्याग मार्दव की सीमा में आ जाता है। गौरव का अर्थ यहाँ अभिमान है। आत्मा का स्वभाव मार्दव-धर्म आत्मा का स्वभाव है और उसका विरोधी भाव मान उसका विभाव है। मान-सम्मान की आकांक्षा के पीछे अहङ्कार का भाव रहता है। वह न मिलने पर अहङ्कारी दुःख और अपमान का अनुभव करता है और दूसरे का अपमान कर उसका बदला लेता है। उसके अहङ्कार की तृप्ति समाज में पहुंचकर होती है। वह समाज नैतिक होगा या धार्मिक होगा; पर उसकी नैतिकता और धार्मिकता के पीछे अहङ्कारी का अहङ्कार तृप्त हुए बिना नहीं रहेगा। समाज धार्मिक कम होता है, नैतिक अधिक होता है। नीति का लबादा ओढ़े वह कर्तव्य की बात करता है। व्यक्ति माता-पिता की सेवा तो नहीं करना चाहता पर Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ समाज अंगुलि न उठाये इसलिए कर्तव्य मानकर वह सेवा करता है। ऐसी सेवावृत्ति में उसे आनन्द नहीं आता; क्योंकि वह सेवा भीतर से नहीं होती, उसे वह धर्म नहीं मानता। अत: धर्म और नीति दोनों अलग-अलग तत्त्व हैं। विवेक इन सभी के ऊपर है। सारी बीमारियां और बुराइयां विवेकहीनता में होती हैं। विवेक उस बेहोशी को और अहङ्कार को दूर कर देता है। यही विवेक सम्यग्ज्ञान कहलाता है। सम्यग्ज्ञान में शुष्क बुद्धि काम नहीं करती, जागरण काम करता है जिसे आत्मा का स्वभाव कहा जा सकता है। अहङ्कार : प्रकृति और परिणाम अहङ्कार शक्ति की खोज में रहता है, धर्म की खोज में नहीं। शक्ति की खोज में सतत् घूमने वाले नेपोलियन, हिटलर जैसे लोग भी अन्त में हाथ खोलकर चल बसे। उनकी यात्रा शक्ति की यात्रा थी, पर धर्म की यात्रा अन्तर की यात्रा है। शक्ति की यात्रा में अहङ्कार फूलता-फलता रहता है, वहाँ न सत्य की खोज हो पाती है और न तपस्या ही पूरी हो पाती है। वह तो दूसरे में दोष देखता है और स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने का प्रयत्न करता है, निन्दा में रस लेता है और प्रशंसा में पीड़ा का अनुभव करता है। पर्वत पर खड़े व्यक्ति को नीचे खड़ा व्यक्ति छोटा ही दिखता है। अहङ्कार जैसा भ्रम और अज्ञान दूसरा नहीं होता। बीज के चारों तरफ अहङ्कार की खोल लगी है जिससे बीज पनप नहीं पाता। स्वाभिमान की सीमा में अहङ्कार ठीक कहा जा सकता है पर उससे आगे बढ़कर अभिमान को प्रशस्त नहीं कहा जा सकता। मृत्यु के पूर्व वह निश्चित रूप से टूटना चाहिए। मात्र जिज्ञासु रहना अहङ्कारिता को बढ़ावा देना है। उसमें जब तक मुमुक्षुवृत्ति जाग्रत नहीं होगी रूपान्तरित होने की स्थिति में वह नहीं आ सकता। साधक के लिए जिज्ञासु के साथ-साथ मुमुक्षु भी होना चाहिए। जिज्ञासा एक दर्शन है, मुमुक्षा एक धर्म है। जिज्ञासा से अहङ्कार मजबूत होता है और मुमुक्षा से वह अहङ्कार पिघलता है। मुमुक्षु आत्म-ज्ञान से पदार्थों को जानता है, दर्शन से श्रद्धान् करता है और आचरण से कर्मों के आवरण को दूर करता है। अहङ्कारी लोकेषणा के पीछे दौड़ता रहता है, मान का पोषण करता है और दसरे को काटने में आनन्द लेता है। शेषनाग में मान नहीं होता पर बिच्छू स्वल्प जहर होने पर भी अहंकारवश डंक ऊपर उठाये घूमता रहता है। वह घनघोर हिंसक भी होता है। उसमें प्रतिक्रिया और प्रतिशोध की आग सुलगती रहती है। उसकी मानसिकता कठोरता में जीती रहती है। उसकी यह कठोरता कभी शैल के समान रहती है, कभी अस्थि जैसी रहती है, कभी काष्ठ के समान होती है तो कभी लता जैसी भी दिखती है। यह उसकी कठोरता का क्रम है। इस कठोरता को अहङ्कारी जीवित रखना चाहता Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ है। क्रोधी क्रोध निमित्तक पदार्थ को नष्ट करना चाहता है, पर मानी उसे सम्भाल कर रखना चाहता है। अहङ्कार से मुक्त होने के उपाय इस आत्मघाती अहङ्कार को समाप्त करने के लिए धर्म ही एक सच्चा शरण है। क्षान्ति, मृदुता, ऋजुता और आत्मालोचन उसके द्वार हैं। देहादि में एकत्व बुद्धि छोड़कर, तोड़कर समता भरा आचरण उसका एक सुनियोजित महापथ है, जिस पर चलकर व्यक्ति अहङ्कार से मुक्त हो सकता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और उपचार (पञ्च परमेष्ठी वंदन) रूप विनय का आचरण उसे रूपान्तरित कर सकता है। अहङ्कार से ग्रस्त व्यक्ति किसी को गुरु मानने के लिए तैयार नहीं होता, जिससे न वह कुछ विशेष सीख पाता है और न उसमें विनय ही जाग्रत हो पाता है। शिष्य भाव के बिना सीखना सम्भव नहीं होता। गुरजियेफ ने अपने शिष्य आस्पस्र्की को एक कोरा कागज लिखने के लिए दिया परीक्षा करने की दृष्टि से, पर उसने उसे कोरा ही वापिस कर दिया। अहङ्कार का विसर्जन और ज्ञानार्जन की आकांक्षा कागज को वापिस. करने के पीछे एक दृष्टि थी। मार्दव-धर्म का परिपालन करने के लिए कषायों पर विजय प्राप्त करना जरुरी हो जाता है। शान्तिनाथ नाम हो और वह व्यक्ति घनघोर अशान्त और क्रोधी प्रकृति का हो तो नाम के साथ सामञ्जस्य कैसे हो सकता हैं? अतः कषायों के परिणाम पर चिन्तन करते हुए मृदुता लानी चाहिए। बिना भेदभाव के आदर देना विनय कहलाता है। जीसस ने जुदास को सम्मान दिया, जबकि वह शत्रुओं से मिला हुआ था। महावीर ने गोशालक को सम्मान दिया, जबकि गोशालक महावीर का घोर विरोधी था। विरोधियों के साथ भी मित्रवत् व्यवहार करना आर्जव-धर्म है। मान उबलता दूध जैसा है जिसे ठण्डा होने पर ही पिया जा सकता है। उसे या तो चूल्हे से उतार कर नीचे रख दीजिए या ईंधन को बुझा दीजिए। इसी तरह मान के कारणों को दूर कर आत्मचिन्तन किया जाना चाहिए। मान को जीतने का एक यह भी उपाय है कि साधक माध्यस्थ वृत्ति धारण कर विपरीत परिस्थितियों में मौन हो जाये। द्वीपायन ऋषि एक अच्छे साधक थे। वे जहां तपस्या कर रहे थे, वहाँ यादव लोग शराब पीकर मस्ती कर रहे थे। उन्होंने द्वीपायन को भला-बुरा कहा। साधक के कान में ये शब्द पहुँचे, जिसे वे सहन नहीं कर पाये और अपनी उग्र तपस्या के बल पर द्वीपायन ने द्वारिका जला कर राख कर दी। यदि उन्होंने अपशब्दों की उपेक्षा की होती तो इतना बड़ा हादसा नहीं होता। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ मृदुता के उदाहरण मार्दव-धर्म के सन्दर्भ में अनेक उदाहरण और भी दिये जा सकते हैं, जिनमें कतिपय उद्धृत कर रहा हूँ ताकि उसकी प्रकृति को समझा जा सके और अहङ्कार के दुष्परिणामों से बचा जा सके। (१) सुदर्शन ने अर्जुनमाली को विनम्रता से जीता। (२) वर्णीजी ने आत्मकथा में एक घटना का उल्लेख किया है कि किसी सेठ ने स्वयं मन्दिर बनवाया पर उसका कलश समाज से चढ़वाया ताकि मन्दिर बनवाने का अभिमान उसे या उसके परिवार को न आ जाये। (३) अहङ्कार एक प्रतिक्रिया से भरा जीवन होता है। असमर्थ व्यक्ति घर बनाता है और समर्थ बलशाली व्यक्ति उस घर को तोड़ देता है - असमर्थो गृहारम्भे समर्थो गृहभंजने। बन्दर बटेर का घोंसला उखाड़कर यही करता है। (४) भरत-बाहुबली का युद्ध मान कषाय का जीता जागता उदाहरण है। कहा जाता है कि भरत पट्टशिला पर लिखे हुए किसी नाम को मिटाकर ही अपना नाम लिख सके। अहङ्कारी यही करता है। वह दूसरे के अस्तित्व को मटियामेट कर अपने अस्तित्व पर मुहर लगाना चाहता है। (५) अहङ्कारी जब शक्तिहीन हो जाता है तो उसे कोई नहीं पूछता। नेपोलियन जैसे सम्राट् को आखिर घसियारन के लिए रास्ता देना ही पड़ा। (६) ज्ञानी और बौद्धिक में अन्तर है। प्राचीन काल में ज्ञानी को पण्डित भी कहा जाता था, जो स्वानुभूति और सम्यक् आचरण में पला था। पर आज बौद्धिक व्यक्ति ही पण्डित कहा जाता है। वह इतनी अन्तर्दृष्टि सम्पन्न होता है कि विनम्रतापूर्वक अपने अज्ञान को स्वीकार लेता है, ध्यानी होता है, जागरूक होता है। भगवान् महावीर परमज्ञानी थे। उन्होंने इन्द्रभूति के अहं को बड़े ही सहज ढंग से निरस्त किया और उसे अपना अनन्य शिष्य बना लिया। विद्वान् ज्ञानी को परास्त नहीं कर सकता, बल्कि उससे सीख सकता है। उपाध्याय यशोविजय जी द्वारा आनन्दघन को प्रणाम करना यही अभिव्यक्त करता है। (७) देवी ने सुकरात को सबसे बड़ा ज्ञानी माना पर सुकरात ने इसे स्वीकार नहीं किया, बल्कि यह कहा कि उसे मालूम है वह कितना अज्ञानी है। ज्ञानी को अज्ञानता का आभास हो जाना चाहिए। यही उसकी निरहङ्कारवृत्ति और मार्दवता है। (८) बोलने में इतना माधुर्य हो कि श्रोता को कटुता का आभास न हो। 'अक्षणा काणः' कहकर व्यंग बाण नहीं चलाना चाहिए। "शुष्को वक्षः तिष्ठत्यने"उदाहरण के सन्दर्भ में लोग जानते ही हैं। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ इस प्रकार मार्दव, धर्म आत्मा की वह सरलता और मृदुता है, जिसमें किसी भी प्रकार का अहङ्कार न हो। आत्मसाधना ही उसका जीवन हो और आलोचना और प्रायश्चित्त से उसका मन-मार्जन हो रहा हो। साम्यभाव, परमार्थ का पुरुषार्थ, मोह-राग-द्वेष से विमुक्ति आदि गुण विनम्रता को जन्म देते हैं, यही मार्दव है। सन्दर्भ कुलरूवजादिबुद्धिसु तवसुदसीलेसु गारवं किंचि। जो णवि कुव्वदि समणो मद्दवधम्म हवे तस्स।। बा० अणु० ७२; स०सि० ९.६, पृ० ४१२; रा०वा० ९-६.३, पृ० ५९५; चा०सा०, पृ० ६१. उत्तमणाणपहाणो उत्तमतवयरणकरणसीलो वि। अप्पाणं जो हीलदि मद्दवरयणं भवे तस्स।। - का० अनु०, ३९५; भ०आ०, १४२७-१४३०. जात्यादिमदावेशादभिमानाभावो मार्दवम्। स०सि०, ९.६. मार्दवं मानोदयनिरोधः । औप०अभय०वृ० १६, पृ० ३३. मद्दवं नाम जाइकुलादीहीणस्स अपरिभयसीलत्तणं ............. माणस्स उदिनस्स निरोहो उदयपत्तस्स विफलीकरणं । दशवै०चू०, पृ० १८. नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको मार्दवलक्षणम्। मृदुभावो मुदुकर्म वा मार्दवम्, माननिग्रहो मानविघातश्चेत्यर्थः। तत्र मानस्येमान्यष्टौ स्थानानि भवन्ति। तद्यथा- जाति: कुलं रूपं, ऐश्वर्य, विज्ञानं श्रुतं लाभ: वीर्यम् इति- तत्त्वार्थभाष्य, ९.६. मृदुः अस्तब्धस्तस्य भावः कर्म वा मार्दवम, नीचैर्वृत्यनुत्सेकश्च - योगशास्त्र स्वो० विव० ४.९३, धर्मसं०मान० ३.४५. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की निष्कपटता ही ऋजुता है अर्थ और स्वरूप ___ उत्तम आर्जव का तात्पर्य है आत्मा के ज्ञायक स्वरूप में कपट का भाव उत्पन्न न होने देना। उसमें पूरी सरलता, ऋजुता आ जाना। मृदुता आ जाने के बाद यह ऋजुता आती है। आचार्य कुन्दकुन्द ने द्वादशानुप्रेक्षा में कुटिल भाव को छोड़कर निर्मल हृदय से आचरण करने को आर्जव कहा है। उमास्वामी, पूज्यपाद, अकलंक, अभयदेवसूरि, सिद्धसेनसूरि आदि आचार्यों ने इसी परिभाषा को स्वीकार किया है। इन सभी परिभाषाओं के समग्र चिन्तन से यह तथ्य निकलता है कि मन, वचन, काय में किसी भी प्रकार की वक्रता न होना और आचरण शुद्ध होना ही ऋजुता है। इसी को तत्त्वार्थवार्तिक में "योगस्यावक्रता आर्जवम्" कहा है। आर्जव का सम्बन्ध विशुद्ध धर्म से है। धर्म प्रतिस्रोत का मार्ग है, एकान्त साधना का मार्ग है। भीड़ में उसका पालन नहीं किया जा सकता। आत्मनिरीक्षण के साथ ही मन में ऋजुता आ जाती है। "सोइ उज्जुयभूयस्स" अर्थात् शुद्धि उसी की होती है, जो ऋजु-सरल होता है। शुद्ध धर्म का पालन व्यक्ति को इतना सरल बना देता है, जितना छोटा बच्चा होता है। इस सरलता के मानदण्ड अपने-अपने हो सकते हैं पर उसे सभी चिन्तक वक्रता के अभाव में देखते हैं। माया और प्रतिक्रिया पदार्थ के प्रति आसक्ति ही कपट की जननी है। इसलिए उस आसक्ति को कम करने के लिए आचार्यों ने धर्मोपदेश दिया है। संसारी व्यक्ति को आसक्ति से ही भय उत्पन्न होता है। एक आसक्ति से दूसरी आसक्ति उठ खड़ी होती है और कोई भी आसक्ति सन्तुष्ट नहीं हो पाती। राजस्थानी कहावत है - चोर ने तूंबे चुराये। नाले में उनको डुबोना चाहा पर वह एक डुबोता तो दूसरा ऊपर आ जाता, यही स्थिति आसक्ति की होती है। आसक्ति के सन्तुष्ट न होने पर व्यक्ति मायावी हो जाता है और उसकी कथनी-करनी में अन्तर आ जाता है। कपट भाव से मानसिक तनाव बढ़ता है और प्रतिक्रिया जन्म लेती है। प्रतिक्रिया से ही झूठ, चोरी, हिंसा, कपट आदि दुर्गुण आ जाते हैं और संघर्ष शुरू हो जाता Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ है। संवेदन जितना तीव्र होगा प्रतिक्रिया उतनी ही गहरी होगी। यह गहराई तब तक कम नहीं होगी जब तक भीतरी जागरण नहीं होगा। भीतरी जागरण से ही संन्यासी को स्वर्ण से वितृष्णा होती है और वह झोपड़ी में रहता है, जबकि राजा या गृहस्थ उससे राग करता है और प्रासाद में रहता है। __ हमारी चेतना चार स्तरों से गुजरती है -- इन्द्रिय, मन, बुद्धि और अनुभव। अनुभव की सघनता ऋजुता को पैदा करती है, जिससे व्यक्ति अपनी भूल स्वीकार करने को तैयार हो जाता है। इसके लिए उसकी तीक्ष्ण प्रज्ञा, पैनी अन्तर्दृष्टि और सबल मनोबल अधिक काम करता है। कपट भाव की बुराइयों को समझकर व्यक्ति मायावी स्वभाव से मुक्त होने का मन कर लेता है भले ही वह वंशानुगत क्यों न हो। ___मायावी स्वभाववाला तिर्यञ्चों में पैदा होता है और वह स्वभाव वंशानुगत होता है। वहां विवेकहीनता रहती है। मानव में वह वंशानुगत नहीं होता। उसमें तो विवेक-शक्ति का उपयोग न कर पाने के कारण वह छल-कपट किया करता है। इस छल-कपट या वक्रता को अधिकता के क्रम से चार श्रेणियों में विभक्त किया जाता है --- बांस की जड़, मेढे के सींग, गोमूत्र और खुरपी। इसी तरह ऋजुता को चौभंगी द्वारा समझाया जा सकता है - सरल, सरलवक्र, वक्रसरल और वक्रवक्र। प्रकृति और प्रभाव स्वच्छ जल में जिस तरह कंकड़ डालने या फेंकने से जो चञ्चलता निर्मित होती है, उसमें अपनी प्रतिकृति नहीं देखी जा सकती, उसी तरह मायावी स्वभाव वाला व्यक्ति स्वयं को नहीं देख पाता। उसमें मायाचारी, धोखाधड़ी, आशंका, भय, अविश्वास, पैशून्य, झूठ बोलना आदि की असत् प्रवृत्तियाँ स्वयमेव आ जाती हैं। उसकी ये प्रवृत्तियाँ अनार के दाने की तरह अन्दर भरी रहती हैं। किसी संस्कृत कवि ने बड़ा अच्छा कहा है - "सन्धत्ते सरला सूची, वक्रा द्देदाय कर्तरी"। इसका तात्पर्य है कि सुई सरल और सीधी होती है। इसलिए वह टुकड़ों को जोड़ती है, एक करती है, परन्तु कैंची वक्र अर्थात् टेढ़ी होती है, इसलिए वह काटने का काम, अलग करने का काम करती है। इसी तरह सरल स्वभावी दो मनों को जोड़ता है, परस्पर प्रेम भाव स्थापित करता है, पर कुटिल स्वभावी व्यक्ति दो मनों को अलग-अलग कर देता है। कपटी मनुष्य का मन निर्मल नहीं होता। उसके अन्दर प्रकाशपुञ्ज हो ही नहीं सकता। हमारे स्वभाव में सरलता होने से हमें काय की ऋजुता, वाणी की ऋजुता, तथा कथनी और करनी में समानता प्राप्त होती है। मायाचारी कुटिल स्वभावी को कभी मानसिक शान्ति नहीं मिल सकती। उसे संसार में कुछ भी स्पष्ट नहीं हो पायेगा, क्योंकि Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ अविश्वास के कारण छल-कपट से उसकी आत्मा भटकती रहती है और भटकती रहेगी। उसका स्वभाव कुत्ते की पूंछ जैसा वक्र रहता है, जो बारह वर्ष के बाद अंगूठी से टेढ़ी ही निकलेगी। वह अपना स्वभाव छोड़ ही नहीं पाता और उसी स्वभाव से पतित हो जाता है। हमारे निर्मल और वक्र भावों का बेतार के तार जैसा सम्बन्ध होता है। उसे सामने खड़ा व्यक्ति समझ लेता है। चन्दन की लकड़ी का व्यापारी अपने मित्र राजा की मृत्यु की प्रतीक्षा करता रहा, ताकि उसकी चन्दन की लकड़ी बिक सके। राजा को उसकी भावनाओं पर सन्देह हो गया। फलत: वह पकड़ा गया। उसी तरह वह उदाहरण भी प्रचलित ही है जिसमें एक पथिक किसी वृद्धा की पोटली पहले तो अपने सिर पर नहीं लेता है पर बाद में वह लेने की आकांक्षा व्यक्त करता है इसलिए कि उसमें रखे हुए माल-धन को वह हड़पना चाहता था। वृद्धा ने उसके भावों को परख लिया और उसे पोटली देने से मना कर दिया। अज्ञानी व्यक्ति को टेढ़े चलने में बड़ा आनन्द आता है। बच्चे टेढ़े चलने में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। मायावी व्यक्ति भी ऐसा ही टेढ़ा चलता है और खुश होता है। पर उसे टेढ़े चलने में शक्ति भी काफी लगानी पड़ती है। हमारी कार जितनी टेढ़ी मोड़ पर चलेगी उतना ही पेट्रोल उसमें अधिक लगेगा। मायावी का स्वभाव बगुला जैसा होता है। देखने में तो वह सफेद और शुद्धाचरण वाला दिखाई देता है, पर व्यवहार में वह बड़ा कपटी और हिंसक रहता है। दूज का चन्द्रमा भी इसी तरह वक्रचन्द्र कहा जाता है। जैसे-जैसे उस चन्द्रमा की वक्रता कम होती जाती है वह पूर्णता को प्राप्त हो जाता है और पूर्ण चन्द्रमा कहलाने लगता है। कपटी शल्यों के संसार में जीता है। वह शल्य तीन प्रकार की होती है ---- माया, मिथ्या और निदान। वक्रता इन तीनों की आधारभूमि है। कृष्ण, नील और कापोत लेश्या से भरा उसका सारा जीवन रहता है, जिसमें दूसरे को हानि पहुंचाना ही मुख्य ध्येय होता है। कपटी का मन भी शेखचिल्ली जैसा कल्पनाओं में दौड़ता रहता है। सिर पर दूध की मटकी रखे ग्वाला कल्पना जगत् में घूमता हुआ मटकी से हाथ धो बैठता है। इसी तरह मायावी व्यक्ति कल्पनाओं के माध्यम से संसार की भोग वासनाओं को आमन्त्रित करता है और फिर दुःखों के सागर में कूद पड़ता है। आज राजनीति आहत हो रही है। वहाँ जबर्दस्त कुटिलता और भ्रष्टाचार पनप रहे हैं। राजनीति आज एक शुद्ध व्यवसाय हो गया है। समाज उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। अत: आध्यात्मिक वातावरण का निर्माण किया जाना चाहिए। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्जव-धर्म की साधना साधक को धर्म के यथार्थ रूप तक पहुंचा देती है। बनारसीदास और एकनाथ ने, कहा जाता है, चोरों के आने पर अपना धन स्वयं दे दिया। उनकी वह साधना आर्जव-धर्म की साधना थी, जहाँ अनासक्त और निस्संग भाव पनप चुका था। यही जीवन की निष्कपटता है। श्रेयार्थी की ऋजुता जिसमें ऋजुता रहेगी वह श्रेयार्थी होगा और जिसमें कपट होगा वहां प्रेयार्थी होगा। प्रेयार्थी सदैव इन्द्रियों का दास रहता है, इन्द्रियों को जो प्रीतिकर होता है उसकी खोज में वह दौड़ता रहता है, इसलिए दुःख पाता है, सदा नये-नये सुख की आकांक्षा करता रहता है, परन्तु श्रेयार्थी ऐसा नहीं होता। वह इन्द्रियों की चाह को पूरा नहीं करता, जिससे प्रथमत: दुःख मिलता है; पर परिणामतः सुख और आनन्द की प्राप्ति होती है। वह शाश्वत सुख की खोज में रहता है। श्रेयार्थी की ऋजुता में धोखा देने का स्वभाव नहीं रहता। वहाँ सरलता होती है, विनय होता है। सरल व्यक्ति का ज्ञान अनुभव से भरा होगा। उसमें गुरुता होगी, रूपान्तरित करने की शक्ति होगी। वह शिक्षक नहीं होगा, गुरु होगा, बौद्धिकता से परे होगा। शिक्षक पाश्चात्य संस्कृति से आया शब्द है जो मात्र व्यवसायिक है, ज्ञान का व्यापार करता है, पर 'गुरु' शब्द हमारी भारतीय संस्कृति का है, जहां ज्ञान का व्यापार नहीं होता। उसे द्विज भी कहा जाता है। वह इसलिए कि माता-पिता तो जन्म दे देते हैं, पर दूसरा जन्म गुरु के पास होता है जो जीवन को जीने का तरीका सिखाता है, अध्यात्म का पाठ पढ़ाता है इसलिए वह पूज्य होता है, श्रद्धेय होता है। गुरु और शिष्य के बीच का सम्बन्ध भारतीय परम्परा में अनूठा है। शिष्य गुरु की आज्ञा का पालन परे समर्पण भाव से करता है। उसका अहं गिर जाता है और सदैव गुरु के पास रहता है, निर्व्याज रूप से। यह उसकी ऋजुता है। भाषा का आरोपण धोखा को जन्म देता है। शरीर और उसकी भावभंगिमा धोखा नहीं दे पाती। बच्चा मां की भावभंगिमा समझ लेता है। उसे धोखा नहीं दिया जा सकता, पर जैसे ही भाषा का सम्बन्ध आता है, धोखा और कपट भाव प्रारम्भ हो जाता है। शायद इसी आधार पर हमारा समूचा मुद्राशास्त्र खड़ा हुआ है। ध्यान की सारी मुद्रायें ऐसी हैं जिनको स्वीकार करने के बाद क्रोध, कपट आदि विकार भाव स्वत: तिरोहित होने लगते हैं। पद्मासन आदि मुद्रायें ऐसी ही हैं। ऋजुता आने पर हमारा आक्रामक भाव चला जाता है, नम्रता आ जाती है, गम्भीरता पनपने लगती है, किसी को तिरस्कृत करने का भाव नहीं रहता, सभी के साथ सद्भावपूर्वक व्यवहार होता है, निन्दक नहीं होता। आंख की शर्म उसमें दिखाई देती है। उसकी चमड़ी मोटी नहीं होती। गलत काम करने का मन नहीं होता। यदि Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ गलती हो भी गई तो उसे सादर स्वीकार कर लेता है और उसका यथोचित प्रायश्चित ले लेता है। इसलिए ऋजुता जीवन का अमिट सूत्र है, मानवता का लक्षण है, अहङ्कार का विगलन है। उत्तम आर्जव का यही तात्पर्य है कि व्यक्ति धोखेबाज न हो और वह सही जीवन तथा धर्म का मर्म समझे। सन्दर्भ .. मोत्तूण कुडिलभावं णिम्मलहिदयेण चरदि जो समणो। अज्जवधम्मो तइयो तस्स दु संभवदि णियमेण।। - बा० अणु०, ७३. योगस्यावक्रता आर्जवम् । स०सि०, ९.६, पृ० ४१२. जो चिंतेइ ण वंकं ण कुणदि वंकं ण जंपदे बंकं। ण य गोवदि णिय दोसं अज्जवधम्मो हवे तस्स।। का०अनु०, ३९६; त० सा० ६.१५; अन०ध० ६.१७-२३. अज्जवं नाम उज्जुगत्तणं ति वा अकुडिलत्तणं ति वा। एवं च कुव्वमाणस्स कम्मणिज्जरा भवई, अकुव्वमाणस्स य कम्मोवचयो भवई। दश०वै० चूर्णि०, पृ० १८. परस्मिन्निकृतिपरेऽपि मायापरित्याग: आर्जवम् । दशवै०नि०हरि०वृ०, १०.३४९ आर्जवं मायोदयनिग्रहः। औप०अभय०वृ० १६.३३. मनोवचनकायकर्मणामकौटिल्यमार्जवम् । त०वृत्ति० श्रुत० ९.६. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की निर्मलता ही शुचिता है अर्थ और प्रतिपत्ति शोच और शुचि ये दोनों शब्द समानार्थक हैं। इनका अर्थ है- निर्मलता, पवित्रता। यह पवित्रता बाह्य और आभ्यन्तर दो प्रकार की होती है। बाह्य पवित्रता मिट्टी, जल, अग्नि और मन्त्र से की जाती है तथा आभ्यन्तर पवित्रता ब्रह्म, सत्य, तप, इन्द्रिय-निग्रह और सर्वभूतदया से प्राप्त हो सकती है। बारह व्रतों का परिपालन कर आत्मा की विशुद्ध अवस्था को प्राप्त कराना शुचि धर्म का कार्य है। पातञ्जलयोगप्रदीप में कहा गया है - ईर्ष्या, अभिमान, घृणा, असूया आदि मलों को मैत्री आदि से दूर करना, बुरे विचारों को शुद्ध विचारों से हटाना, दुर्व्यवहार को सद्व्यवहार से दूर करना मानसिक शौच है। सांसारिक वासना की अन्धी दौड़ में मन की चञ्चलता बढ़ जाती है। वह प्रेय विषयों की ओर दौड़ पड़ता है। प्रेय मन का विषय है और श्रेय चैतन्य का विषय है। मन वस्तुत: शेखचिल्ली है, वह स्वप्नों का शृङ्गार अधिक रचता है। कल्पना के लोक में भटकना उसका स्वभाव है। गृहस्थ अभाव में जीता है। जिस ओर भी उसकी दृष्टि घूमती है, हथियाने का प्रयत्न करता है। राग उसका बन्धन है। जो भी मिलता है, उससे वह अपने को बांध लेता है। भीतर से वह खाली रहता है। उसे वह पर-पदार्थों के लोभ से भरने का प्रयत्न करता है। इस लोभ के कारण उसकी वृत्तियां पवित्र नहीं रह पातीं। शुचिता का विरोधी भाव ही लोभवृत्ति है। स्वरूप कुन्दकुन्दाचार्य ने आकांक्षा भाव को दूर कर वैराग्य भावना से युक्त रहने को शौच कहा है (बारस अणु० ७४)। इसी को अधिक स्पष्ट करते हुए पूज्यपाद ने लोभ से निवृत्ति को शौच कहा है। अकलंक ने इसी स्वर में अपना स्वर मिलाते हुए लोभ के चार प्रकार बताये हैं - जीवन लोभ, आरोग्य लोभ, इन्द्रिय लोभ और उपभोग लोभ। सिद्धसेनगणि ने इस परिभाषा को कुछ और व्यापक बनाया और कहा कि सचित्त, अचित्त और मिश्र वस्तुओं में आसक्ति होना लोभ है। लोभ से ही क्रोधादि कषायों की Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ उत्पत्ति होती है। उनके न होने से आत्मा में स्व-पर हितकारी प्रवृत्ति जन्म लेती है। उसी को शौच कहा जाता है। अभयदेव सूरि ने शौच का सीधा सम्बन्ध पर-द्रव्य अपहरण की वृत्ति को दूर करने से जोड़ा है। इन सभी परिभाषाओं से अच्छी परिभाषा की है कुमारस्वामी ने। उन्होंने कहा है - जो समभाव और सन्तोषरूपी जल से तृष्णा और लोभरूपी मल के समूह को धोता है तथा भोजन की गृद्धि नहीं करता, उसके निर्मल शौच धर्म होता है। अन्य आचार्यों द्वारा दी गई परिभाषाओं में शौच धर्म की ये सारी परिभाषायें लगभग एक जैसी हैं। इनका आधार है आचाराङ्ग, जहाँ कहा गया है कि भगवान् महावीर “सोयप्पहाणा' थे, शौच में प्रधान थे (६.१०२)। शुचिता का विस्तार शुचिता का गहरा सम्बन्ध है आध्यात्मिकता और नैतिकता से। आध्यात्मिक शुचिता व्यक्तिगत होती है और नैतिक शुचिता का सम्बन्ध समाज से रहता है। इन दोनों शचिताओं में उत्तम शौच धर्म के साथ आध्यात्मिक शुचिता का सम्बन्ध अधिक रहता है। इस शुचिता को पाने में कतिपय लोग कभी परिस्थिति का बहाना कर स्वयं को पीछे हटा लेते हैं और कभी स्वभाव की आड़ लेकर उस ओर जाने से कतरा जाते हैं। पर अब तो स्वभाव भी बदला जा सकता है। आधुनिक विज्ञान में कुछ ऐसे प्रयोग हुए हैं जहाँ इलेक्ट्राड लगाकर वासना और भूख को शान्त कर दिया जाता है। बिजली के झटके लगने से बिल्ली और बन्दर की भूख मिट गई और चूहा-बिल्ली एक साथ खेलने लगे। इस तरह का प्रभाव हमारे महापुरुषों के प्रभाव से भी होता आया है। वीतरागी व्यक्ति की विद्युत में से ऐसी रश्मियाँ निकलती हैं, जिनसे अशुभ वातावरण शुभ में बदल जाता है और दुर्भिक्ष की जगह सुभिक्ष हो जाता है। चन्दन के व्यापारी मित्र को देखकर उसके मन में भरे दुर्भाव के कारण राजा को घृणा हो जाती है और फिर प्रसन्नता का भाव आ जाता है। जीवन में इस प्रकार के अनेक प्रसङ्ग आते रहते हैं पर हम न उनका मूल्याङ्कन कर पाते हैं और न कर्तव्य-बोध जाग्रत हो पाता है। अर्जन के साथ विसर्जन वाला सिद्धान्त भी भूल जाते हैं। कहानी वैसी ही दुहराई जाती है जैसे तालाब को दूध से भरने का आदेश दिया गया और वह भरा मिला पानी से। सच तो यह है कि जीवन एक महाग्रन्थ है, महासागर है, शान्त भी है, अशान्त भी है। उसे समझना बड़ा कठिन है। शुचिता आये बिना उसे समझा नहीं जा सकता। विरोधी भाव लोभ शुचिता न आने का कारण है --- मूर्छा, लोभ, परिग्रह, आसक्ति। तरतमता के आधार पर उसके चार भेद किये गये हैं - कृमिराग, कज्जल, कीचड़ और हलदी। आकांक्षायें इनकी पृष्ठभूमि में रहती हैं। आशायें इनके साथ चलती हैं। शुचिता का Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ विरोधी भाव लोभ है जो देवगति में सर्वाधिक होता है। रूपादि का लोभ भी यहीं अभिव्यक्त होता है। हम जानते हैं, बारहवें गुणस्थान तक लोभ रहता है। यह लोभ जीवन में न जाने कितने संघर्ष का कारण होता है। लोभ का कारण मन में निर्धनता का घर बन जाना होता है। मानसिक निर्धनता आर्थिक निर्धनता से कहीं अधिक खतरनाक होती है। आलस्य के कारण वह और भी पनपती चली जाती है। जापानियों ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण से कहा था कि भारत तो समृद्ध देश होना चाहिए, क्योंकि यहां लोग आराम से बैठे-बैठे चिलम पीते रहते हैं। उन्हें नहीं मालूम था कि यह समृद्धि का नहीं, बल्कि अकर्मण्यता और निर्धनता का कारण है। लोभी का यह स्वभाव है कि वह हर चीज को अकेले ही उपभोग में लाना चाहता है। प्रसेनजित ने श्रेणिक को एक लम्बी परीक्षा के बाद अपना उत्तराधिकारी बनाया। उन्होंने अपने पुत्रों को भोजन करने बैठाया और इधर कुत्तों को छोड़ दिया। श्रेणिक को छोड़कर सभी पुत्र तो उठकर भाग गये पर श्रेणिक ने कुत्तों को टुकड़े डाल-डाल कर भोजन कर लिया। सच यही है कि दूसरों को खिलाकर ही खाया जा सकता है। लोभी बाह्य परिस्थितियों के सामने घुटने नहीं टेकता और घुटने टेके बिना ही निर्णय ले लेता है। चेतना में दोनों तत्त्व होते हैं-- कुरूपता और स्वरूपता। उनकी पहचान हमारी मानसिकता के आधार पर होती है। तदनुसार कुरूपवान् स्वरूपवान हो सकता है और सुरूपवान् कुरूपवान् हो सकता है। वस्तुत: ज्ञान पदार्थनिष्ठ न होकर स्वनिष्ठ होना चाहिए। लोभ के साथ हिंसा का जन्म होता ही है। अपने इष्ट पदार्थ के संरक्षण के लिए हिंसा एक अनिवार्य तथ्य है। लोभी व्यक्ति का मानस पदार्थ की अस्वीकृति की ओर नहीं जाता। पदार्थ अनावश्यक भी होगा तो भी उसे वह जोड़ता रहेगा। इस मानसिकता की स्थिति को उस स्थिति से तुलना कीजिए जब कोई भोजनभट्ट किसी सुस्वादु भोजन को पेट की हालत को सोचे बिना ही खाता चला जाता है। मिलावट की प्रवृत्ति के पीछे भी लोभ ही कारण रहता है। दवा में मिलावट करने वाला, उसी मिलावट भरी दवा के उपयोग से यदि अपने परिवार के सदस्य को खो डाले, तो उसकी विकृतियां उसे समझ में आ सकती हैं। पर लोभी की चेतना पर परदा पड़ा रहता है। वह उसके फल की ओर से वेसुध रहता है। यह अनैतिकता धनिक वर्ग में होती है। निर्धन के पास तो ऐसे साधन ही नहीं होते। इस क्रूरता का प्रकोप भी संग्रहवृत्ति के कारण धनिकों में ही अधिक देखी जाती है। लोभ के कारण उनका हृदय निष्ठुर हो जाता है। प्रेमपूर्ण भावना से पौधे भी प्रसन्न हो जाते हैं, पर धनिकों Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ की निष्ठुरता नहीं पिघलती। इस निष्ठुरता से वे कभी-कभी ठगे भी जाते हैं। सुनार लिसान को ठगता है और किसान कंकड़ वाला घी देकर सुनार को ठग लेता है। यदि मनोबल को बढ़ाकर अपने अस्तित्व का बोध हो जाये तो लोभी की लोभ प्रवृत्ति कम होगी, कषाय भाव घटेगा और चारित्रिक विशुद्धि बढ़ेगी। उसे पाप का बाप "लोभ' समझ में आ जायेगा। उसे यह भी ध्यान में आ जायेगा कि सिकन्दर जैसे व्यक्ति ने अपने हाथ अर्थी के बाहर क्यों निकलवाये थे? लोभी की ईर्ष्या प्रवृत्ति भी स्वभावत: कम हो जायेगी। वह फिर देव से ऐसा वरदान नहीं माँगेगा कि वह सब कुछ सोना हो जाय जिसे भी वह छुए। देह की अपवित्रता, क्षणभंगुरता और आत्मा की पवित्रता और शाश्वतता पर चिन्तन करने से शौच-धर्म की अनुभूति गहरी होती है, जोंक जैसी प्रवृत्ति कम होती है तथा समता और सन्तोष जैसे विधायक भाव प्रवाहित होने लगते हैं। सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का चिन्तन साधक को धार्मिक चेतना की ओर ले जाता है। है ऋजुता भाव के गहराने पर मनुष्य जन्म की दुर्लभता भी स्पष्ट हो जाती है। दुनियाँ में मनुष्य के बराबर विकसित प्राणी कोई भी दूसरा नहीं है। जो विवेक उसे मिला है, वह किसी अन्य प्राणी के पास नहीं है। तीर्थङ्कर महावीर ने इसीलिए यह कहा है कि संसार में चार वस्तुएं बड़ी दुर्लभ हैं -- मनुष्यत्व, शुचिता, श्रद्धा और संयम के लिए पुरुषार्थ - चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जन्तुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं।। यहाँ सुई शब्द का अर्थ शुचि और श्रुति दोनों हो सकते हैं। मन का पवित्र होना ही शुचिता है, जो लगातार धर्मश्रवण और धर्माराधना से मिल पाती है। शुचिता के लिए यह आवश्यक है कि साधक दूसरे प्राणी को भी अपने जैसा समझे। उसके मन में दूसरे के प्रति दयाभाव रहे। यह दयाभाव जितना पर के लिए है उतना ही स्व के लिए भी है। चींटा, पशु-पक्षी हम भी हुए होंगे पूर्व जन्मों में। हम भी इसी तरह अपने प्राणों को बचाने के लिए भागते रहे होंगे। अब चूँकि हमारे पास विवेक अधिक है, हमें इस तथ्य को समझना चाहिए कि इन सभी प्राणियों में हमारी जैसी ही चेतना है. पर उस चेतना का वह विकसित रूप नहीं है जो हमारे पास है। अत: हमें उन पर दयाभाव रखना चाहिए। मनुष्य हुए और मनुष्यता न रही तो हमारा जन्म ही निरर्थक हो जायेगा। यह मनुष्यता ही शुचिता है। इसी से व्यक्ति का मन धर्मश्रवण की ओर पलटता है। यहाँ धर्मश्रवण सभी से नहीं है। यहाँ तो धर्मश्रवण उससे हो जो स्वयं वीतरागी बन गया हो। वीतरागी व्यक्ति से धर्म की व्याख्या सुनना इसलिए अधिक सार्थक होता Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि हमें उसकी अनुभूति से भरे शब्दों को सुनने का अवसर मिलता है। हम सही श्रावक बन जाते हैं। श्रावक का तात्पर्य ही यह है जो वीतरागी साधक की बात सुनने के लिए तैयार हो जाता है, जिसका मन निर्मल होकर अध्यात्म की ओर बढ़ जाता है, निर्ममत्व होकर आत्मचिन्तन करना स्वीकार कर लेता है। आत्मचिन्तन करने वाला साधक ऋजुता की ओर बढ़ता है, जागरूक प्रज्ञा उसके साथ रहती है, सांसारिक चिन्तन से उसकी प्रज्ञा और भी गहरी होती जाती है। मृत्यु-चिन्तन से उसकी सत्य साधना में निखार आता है। वह गंगा स्नानादि जैसे मिथ्यात्व भरे विचारों को तो पहले ही दफना देता है। साथ ही जीवनलोभ, इन्द्रियलोभ, आरोग्यलोभ और उपयोगलोभ से भी निवृत्त हो जाता है (चा०सा० ६३.२)। ___ यहां शौच और त्याग में अन्तर समझ लेना चाहिए। शौचधर्म में परिग्रह के न रहने पर भी कर्मोदय से होने वाली तृष्णा की निवृत्ति की जाती है पर, त्याग में विद्यमान परिग्रह छोड़ा जाता है, संयत के योग्य ज्ञानादि का दान दिया जाता है। इसी तरह शौचधर्म और आकिंचन्य अर्थ में भी अन्तर है। शौचधर्म लोभ की निवृत्ति के लिए है, जबकि आकिंचन्य धर्म स्वशरीर में निर्ममत्व बढ़ाने के लिए है। निर्मोही व्यक्ति ही पूर्ण अहिंसक होता है। अहिंसा का तात्पर्य है दूसरे की स्वतन्त्रता में बाधा नहीं डालना। प्रत्येक पदार्थ स्वतन्त्र है। उसकी स्वतन्त्रता में खलल डालना हिंसा है। अचेतन पदार्थ तो परतन्त्र है ही पर चेतन पदार्थ की स्वतन्त्रता का हनन करना हिंसा है और हिंसा को शुचिता नहीं कहा जा सकता है। चींटी की स्वतन्त्रता को जब हम अपने हाथ में ले लेते हैं, तो हिंसा हो जाती है। अन्तर शुद्ध हो जाने पर ही सही साधुता प्रकट होती है। वह भोगी को भी अपमानित नहीं करता और न ही अपनी साधता को अहङ्कार का कारण बनने देता है। वह उपदेश देता है पर आदेश कभी नहीं देता। साधु में अपने साधुत्व का अहङ्कार आ गया तो उसकी साधता समाप्त हो जाती है। इतना ही नहीं, यह सम्भावना अधिक है कि साधु जो दोष दूसरे में देख रहा है वह दोष उसके अन्तर में भरा हो। सच तो यह है कि सही साधुता ही शुचिता है। सन्दर्भ कंखाभावणिवित्तं किच्चा वेरग्गभावणाजुत्तो। जो वदृदि परममुणी तस्स दु धम्मो हवे सोच्चं।। - बा०अणु० ७५. लोभप्रकाराणामुपरम: शौचम् - स०सि०, ६.१२. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ समसंतोष जलेणं जो धोवदि तिब्बलोहमलपुंज। भोयणगिद्धविहीणो तस्स सउच्चं हवे विमलं।। - का०अणु०, ३९७. शौचं द्रव्यतो निलेपता भावतोऽनवद्य समाचारः - औपपा० अभयवृ० १६, पृ० ३३. चतुर्विधस्य लोभस्य निवृत्तिः शौचमुच्यते। ज्ञान-चारित्र-शिक्षादौ स धर्मः सुनिगद्यते।। - त० सा०, ६.१७. द्रव्येषु ममेदं भावमूलो व्यसनोपनिपात: सकल इति तत: परित्यागो लाघवम् - भ०आ०वि०, ४६, पृ० १५४. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य : साधना की ओर बढ़ता पदचाप अर्थ और प्रतिपत्ति क्रोध, मान, माया और लोभ पर सात्त्विक चिन्तन करने से क्रमश: उत्तम शमन, मार्दव, आर्जव और शौच भाव चेतना में जाग्रत हो जाते हैं तथा चित्त सत्य-साधना की ओर बढ़ जाता है। साधक सत्य की साधना में यथार्थ को यथार्थ रूप में देखने का प्रयत्न करता है। उसे जीवन और परमात्मा की सत्यता पर विश्वास होने लगता है। सत्य की परिभाषायें लगभग समान हैं। कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है – दूसरों को सन्ताप पहुँचाने वाले वचनों को त्यागकर जो अपना और दूसरे का हित करने वाला वचन बोलता है, उसे सत्य धर्म होता है (बा० अणु०, ७४)। उमास्वामी, पूज्यपाद और अकलंक इसी परिभाषा को शब्दान्तर से दुहराते हैं। अभयदेवसूरि ने अनलीक, अविसंवादन, योग, काया की अकुटिलता, मन की अकुटिलता और वाणी की अकुटिलता को सत्य धर्म माना है। कार्तिकेय ने जिनवचन को सत्यवचन मानने की बात कही है। उत्तराध्ययन में भावसत्य, करणसत्य और योगसत्य का यहाँ समावेश किया गया है। साधन और स्वभाव सत्य को समझने के लिए जिज्ञासा होना आवश्यक है। ज्ञान की खोज में रहे बिना अज्ञान को स्वीकार कर लेना कठिन होता है। सत्य की प्राप्ति अज्ञान की स्वीकृति से जुड़ी हुई है। तभी सत्य-साधक को शास्त्रों और सिद्धान्तों में जीवन दिखाई देता है। अन्यथा झूठ का इतना अधिक प्रचार हो जाता है कि झूठ ही एक दिन सच लगने लगता है। सत्य को परखने वाला स्वतन्त्रता और परतन्त्रता का अर्थ भी जानने लगता है। संसार में असक्त व्यक्ति परतन्त्र है। ऊंट को खूटी से छोड़ देने पर भी वह अपने आपको बंधा समझता है और स्वत: नहीं उठता। परतन्त्रता वस्तुत: कल्पित होती है। रस्सी पर दाना डालकर लोग तोते को पकड़ लेते हैं, क्योंकि तोता रस्सी को छोड़ नहीं पाता। उससे वह अपने आपको बंधा समझने लगता है। onal Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य सीधा होता है। उसे याद रखने की जरूरत नहीं होती। पर असत्य टेढ़ा होता है, शृङ्खलाबद्ध होता है। एक झूठ को छिपाने के लिए दस झूठ बोलना पड़ता है। इसलिए उन्हें याद रखना भी कभी-कभी कठिन हो जाता है। यह तथ्य तब समझ में आता है जब हमारा चित्त जागरूक हो जाता है। राजा को फकीर ने दर्पण भेंट किया ताकि वह जागरुक होकर स्वयं को देख सके। बुद्ध ने जागरूक होकर ही शव को और जराग्रस्त व्यक्ति को देखा। संवेग और वैराग्य बिना जागरूक हुए आ ही नहीं सकता। सम्राट् जब अकेले में कमरे में नग्न होकर स्वयं को परखता है तो उसे जीवन की सत्यता समझ में आती है। हर व्यक्ति बदलना चाहता है, पर वह जिज्ञासा और जागरूकता से दूर रहता है। बदलने का एकमात्र तरीका है – देखना। आत्मा के द्वारा आत्मा को देखना। आत्मा ही ध्याता और ध्येय है। अखण्ड आत्मा को उसकी पर्यायों के साथ देखना और सोचना कि वे पर्यायें क्षणभंगुर हैं, पर इनमें व्यावहारिक सत्यता है। द्रव्य, कषाय, योग, उपयोग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य की दृष्टि से आत्मा का विश्लेषण किया जाता है और फिर बाहरी चित्त से शुद्ध चैतन्य तक पहुँचा जाता है। चित्त को साधन बनाकर शरीर से चिन्तन करना प्रारम्भ करें। फिर क्रमश: चित्त की चञ्चलता, योग, कषाय, वीर्य पर विचार करें। इससे जाग्रत अवस्था का जन्म होगा, संकल्प बनेगा और रूपान्तरण प्रारम्भ हो जायेगा। इस रूपान्तरण में संकल्प का होना आवश्यक है। मनोबल नहीं होगा तो सत्य अज्ञेय ही बना रहेगा। स्वास्थ्य को ठीक करना हो तो दर्द भरी जगह को विजातीय तत्त्वों से मुक्त कर दीजिए। यही सबसे बड़ी दवा है। इसी तरह संसरण से मुक्त होने के लिए भी आन्तरिक जागरण एक अचूक दवा है। सत्य के सामने सबसे बड़ी बीमारी है- सत्य को झुठलाने की प्रवृत्ति, सापेक्षता से दूर रहने की प्रवृत्ति। सारा संसार सापेक्षता से चलता है। माता, पिता किसी के लड़का, लड़की भी रहे हैं। अस्तित्व के साथ अनस्तित्व भी जुड़ा हुआ है, द्रव्य के साथ पर्यायें भी रहती हैं। इसी को अनेकान्तवाद कहते हैं। अनेकान्तवाद और स्याद्वाद के आधार पर वस्तुतत्त्व का विश्लेषण करने से व्यक्ति सत्य के यथार्थ स्वरूप को समझ सकता है। चिन्तन की सार्थकता सत्य की यथार्थता को समझने के लिए बारह भावनाओं का भी चिन्तन सहयोगी होता है। इनमें तीन भावनाओं, अनुप्रेक्षाओं पर विशेष चिन्तन करना चाहिए- अनित्य, अन्यत्व और एकत्व। सभी पदार्थ क्षणभंगुर हैं, अनित्य हैं, देह और आत्मा भिन्न-भिन्न है तथा सुख-दुःख कोई बाँटनेवाला नहीं है। इन तीन भावनाओं के आने से शेष भावनायें साथ चलने लगती हैं। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० व्यक्ति को प्रमुखता न देकर समाज को प्रमुखता देने से मानसिक तनाव बढ़ता है। संयोग को सब कुछ मान लिया तो वियोग होने पर असहनीय दुःख होता है। सापेक्ष सत्य यह है कि व्यक्ति और समुदाय दोनों तत्त्व सत्य हैं। दोनों का सापेक्षिक अस्तित्व है। इस प्रकार विचार करने पर मानसिक तनाव कम होगा। सम्पत्ति आदि संयोग को मात्र संयोग माना जाये, तो उसका वियोग अधिक दुःखद नहीं होगा। मल-मूत्र का नियमित विसर्जन आवश्यक होता ही है, अन्यथा व्यक्ति अस्वस्थ हो जायेगा। इस दृष्टि से जैनधर्म क्रान्तिवादी है। वह अहं और मन को विसर्जितकर आत्मसाधना और धर्मसाधना की बात करता है। सम्यग्दृष्टि से मिथ्यात्व को दूर कर, संसार की असारता को समझकर आत्मा और परमात्मा को पहचानने की बात करता है। वह स्पष्ट कहता है कि बगैर जाने किसी को भी न मानो। स्वानुभूति के बिना, आत्मज्ञान के बिना सम्यग्ज्ञान हो नहीं सकता। सम्यग्ज्ञान के बिना सच्ची श्रद्धा भी नहीं हो सकती और इन दोनों के बिना सम्यक-चारित्र का आचरण नहीं हो सकता। रत्नत्रय की साधना के लिए सत्य की साधना आवश्यक है। यह चिन्तन सतत बना रहना चाहिए। पूरा सत्य अनिर्वचनीय भले ही हो पर अनुभवनीय अवश्य होता है। सत्य में सत् है, सत्ता है। सत्यदर्शन निष्पक्ष चित्त की स्थिति है। सत्य विराट होता है इसलिए विरोधाभास दिखाई देता है। पूर्वाग्रह से मुक्त होकर निरपेक्षभाव से सत्य का दर्शन करना चाहिए। वचन पुद्गल का पर्याय है और सत्य आत्मा का धर्म है। सत् स्वरूप आत्मज्ञान में असत्य हो ही नहीं सकता। उस सत्य ज्ञान की साधना के लिए सत्याणुव्रत, सत्य महाव्रत, भाषासमिति, वचनगुप्ति आदि का पालन करना चाहिए। जिसमें वायु की प्रधानता होती है वह बातूनी होता है और जो बातूनी होता है वह असत्यभाषी होता है। "अजैर्यष्टव्यम्" का गलत अर्थ करने वाले का पक्ष लेने के कारण, कहा जाता है, वसु राजा नरक में गये। विभीषण ने भगवान् राम का पक्ष सत्य के कारण ही लिया था। सत्यदर्शी संसार को नाटक मानकर चलता है, इसलिए वह समतादर्शी है, हर्ष-विषाद में सुख-दुःख का अनुभव नहीं करता। जीवन दो प्रकार का होता है -- स्वयं के लिए और शरीर के लिए। संसार को क्षणिक मानकर ही स्वयं का जीवन प्रारम्भ होता है और जब वह विरागी हो जाता है, तो बालक जैसा प्रसन्न हो जाता है। चारित्र ही उसका धर्म बन जाता है। सोना और मिट्टी दोनों ही उसके लिए समान हो जाता है। सत्य-साधक ऐसे ही समतावादी होते हैं। सत्य के प्रकार सत्य और अहिंसा एक ही धर्म के दो पहलू हैं। इस धर्म से डिगने पर पश्चाताप सत्य से ही होता है। यह सत्य दस प्रकार का कहा गया है। आगमों में - नाम, रूप, Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१ स्थापना, प्रतीत्य, संवृति, संयोजना, जनपद, देश, भाव और समय। इनका विस्तृत वर्णन और व्याख्या वहाँ देखी जा सकती है। इसी तरह असत्य के भी भेद किये गये हैं । वे चार प्रकार के हैं (१) सत् वस्तु का निषेध, (२) असत् की स्वीकृति, (३) वस्तु का विपरीत स्वरूप, और (४) गर्हित वचन बोलना । क्रोध, लोभ, भय, पैशून्य, चपलता आदि के कारण व्यक्ति असत्य बोलने को मजबूर हो जाता है। यदि सत्य बोलने से किसी का बध होता हो और हिंसा होने की सम्भावना हो तो सत्याणुव्रती श्रावक असत्य बोल सकता 1 क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष, हास्य, भय, आख्यायिका और उपद्यात कारण लोग झूठ बोलते हैं। इन कारणों से मुक्त होकर सत्य की साधना करनी चाहिए। wwwww. उत्तम सत्य को समझने के लिए दस सत्यों को समझ लेना चाहिए। तत्त्वार्थवार्तिक में उनका स्वरूप इस प्रकार मिलता है— नाम सत्य - गुणविहीन होने पर भी व्यवहारतः उसे संज्ञा देना। रूप सत्य - वस्तु की अनुपस्थिति में रूपमात्र से उसका उल्लेख करना । स्थापना सत्य- में वस्तु का आरोपण किया जाता है । प्रतीति सत्य- औपशमिक आदि "भावों की दृष्टि से कहा जाता है। संवृति सत्य- लोकव्यवहार के अनुसार संज्ञा देना । संयोजना सत्य- द्रव्यों में आकारादि को संयोजित करना। जनपद सत्य और देश सत्व में आध्यात्मिक वचन, जनपदों और देशों से सम्बद्ध रहते हैं तथा भाव सत्य में श्रावकों का उपदेश सम्मिलित है। सांसारिक सत्य सत्य धर्म बहु-आयामी है। असत्य वादन या चिन्तन भी बहु-आयामी है । इसका सम्बन्ध मात्र झूठ बोलने- न बोलने से ही नहीं है, बल्कि सांसारिक सत्य को भी समझने से है। उदाहरण के तौर पर पदार्थ या व्यक्ति की मृत्यु होती है यह निश्चित है, भले ही कब होगी, यह अनिश्चित है। इस सत्य को यदि स्वीकार कर लिया जाये तो धर्म की ओर उन्मुख हुए बिना नहीं रहा जा सकता । कीर्केगार्ड का यह कथन गलत नहीं है कि धर्म का जन्म मृत्यु की चिन्ता से होता है । मृत्यु होती है, इस सत्य को हम सभी जाते है, पर किसी न किसी कारण से इस सत्य को हम अपने से दूर रखते हैं। मिथ्यात्व, लोभ आदि के कारण हम उस पर विचार नहीं करते, उसे टालते रहते हैं। जन्म के साथ मरण जुड़ा हुआ है और जीवन का प्रतिपल जरा के रूप में क्षरण हो रहा है। बाल्यावस्था से युवावस्था और युवावस्था से वृद्धावस्था की ओर व्यक्ति सतत् बढ़ता जाता है। अपने कन्धों पर दूसरों की अर्थियाँ रखकर उन्हें श्मशानघाट पहुँचाता रहता है, पर स्वयं को इस तथ्य से अलग रखे रहता है। जिस दिन "वत्थु सहावो धम्मो" का सही साक्षात्कार हो गया, उसी दिन संसार से पार होने का मार्ग मिल गया। 1 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर महावीर ने इस तथ्य को बड़े सुन्दर शब्दों में समझाने का प्रयत्न किया है। उन्होंने कहा है कि जिस प्रकार मूर्ख गाड़ीवान् जान-बूझकर सीधे-सादे राजमार्ग को छोड़कर ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर अपनी गाड़ी ले जाता है और गाड़ी की धुरी टूट जाने पर असहाय-सा होकर शोक करने लगता है, उसी प्रकार मूर्ख मनुष्य भी जान-बूझकर धर्म को छोड़कर अधर्म पकड़ लेता है, सत्य का अपलाप करता है और अन्त में मृत्यु के मुख में पहुँचने पर, जीवन की धुरी टूट जाने पर शोक करता है - जहा सागडिओ जाणं, समं हिच्चा महावहं । विसमं मग्ग-मोइण्णो, अक्खे भग्गम्मि सोयई।। एवं धम्म विडक्कम्म, अहम्मं पडिवज्जिया। बाले मुच्चुमुहं पत्ते, अक्खभग्गे व सोयई।। इस सांसारिक सत्य को समझने के लिए, आत्मसात करने के लिए अवस्था का कोई बन्धन नहीं रहता। इस सत्य पर फूल खिलने के लिए वृद्धावस्था की बाट जोहना आवश्यक नहीं है। इसलिए जैनधर्म कहता है कि धर्म का सही पालन वृद्धावस्था नहींहोता। उस समय तो इन्द्रियाँ स्वत: शिथिल हो जाती हैं। धर्म का सही पालन तो तब होता है जब इन्द्रियाँ युवा होती हैं, शक्ति से भरी रहती हैं। इसलिए संन्यास वृद्धावस्था का फल नहीं है। वह तो युवावस्था में आना चाहिए। युवावस्था में इन्द्रियों की उद्दाम शक्ति को कुण्ठित करने के लिए सारे तप आदि का व्याख्यान हुआ है। ऊर्जा को इस युवावस्था में यदि रूपान्तरित कर दिया जाये, तो जीवन में सही क्रान्ति आयेगी। महावीर इसी क्रान्ति के जनक थे, इसी सत्य मार्ग के प्रज्ञापक थे। अनन्त सम्भावनाओं भरा सत्य सत्य का सम्बन्ध हमारे सम्यक् श्रवण से है। हम अपने पूर्वाग्रह के कारण सत्य को सनना ही नहीं चाहते, निष्पक्ष होकर उस पर विचार ही नहीं करना चाहते। निष्पक्ष होकर जब विचार किया जाता है, तभी सत्य की अनुभूति होती है। हर पहल में अनन्त सम्भावनायें बनी रहती हैं। व्यक्ति साधारणत: कुछ-एक पहलुओं को ही जानता है। असाधारण स्थिति में यदि वह पदार्थ को सम्पूर्ण रूप से, यथार्थ रूप से जान भी जाता है तो उसे उसी रूप में एक साथ व्यक्त नहीं कर सकता। सत्य जाना जा सकता है समग्र रूप में, पर उसकी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। इसी कठिनाई का अनुभव किये जाने पर महावीर ने स्याद्वाद सिद्धान्त दिया और कहा कि एक प्रश्न का उत्तर सात प्रकार से दिया जा सकता है। इसके लिए उत्तर देने के पूर्व 'स्यात्' लगाइये जिसका अर्थ होता है 'कथञ्चित् । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३ इस तथ्य को विज्ञान के क्षेत्र में आइन्सटीन ने सापेक्षवाद के रूप में प्रस्तुत किया और दार्शनिक क्षेत्र में यही सापेक्षवाद 'स्याद्वाद' के नाम से जाना जाता है। चिन्तन के क्षेत्र में इसी को अनेकान्तवाद कहा जाता है। यह स्याद्वाद शायदवाद नहीं, संशयवाद नहीं, अनिश्चितता नहीं। यह तो सापेक्षता या रियलिटी को द्योतित करता है। इससे व्यक्ति के दृष्टिकोण का सम्मान किया जाता है। पारस्परिक संघर्ष को दूर करने का इससे सरल और कोई दूसरा सत्य - मार्ग नहीं है। हंसी-मजाक में, उपहास में, क्रोध में, लोभ में हम असत्य बोल देते हैं। महावीर ने कहा, इस प्रकार भी असत्य नहीं बोला जाना चाहिए। किसी का उपहास करने में हम कभी-कभी प्रतीक का सहारा लेते हैं। किसी के केले के छिलके से फिसलने पर हम उसका मजाक करने लगते हैं। सत्य के क्षेत्र में इस प्रकार के मजाक भी नहीं किये जाने चाहिए। इससे दूसरे का अपमान होता है। काने, बहरे, लूले लंगड़े को काना, बहरा, लूला-लंगड़ा कहकर पुकारना किसी भी स्थिति में व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता। सत्यवादक इन शब्दों का प्रयोग कर उसका अपमान नहीं करेगा। इस प्रकार सत्य, उत्तम सत्य जीवन के विविध पहलुओं को समझने का एक सही मार्ग है, संघर्ष और कलह से बचने का सर्वोत्तम रास्ता है, आत्मशान्ति और आनन्द का यथार्थ पक्ष है। यह आदेशात्मक नहीं, उपदेशात्मक है, सार्वभौमिक है। सन्दर्भ परसंतावयकारणवयणं मोत्तूण स-पर र-हिदवयणं । बा० अणु०, ७४. जो वददि भिक्खु तुरियो तस्स दु धम्मो हवे सच्चं । । सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधु वचनं सत्यमित्युच्यते । स० स० ९.६. सच्चं नामं सम्मं चिंतेऊण असावज्जं ततो भासियव्वे सच्चं च । दशवै ० चू०, पृ० १८. जिणवयणमेव भासदि तं पालेदुं असक्कमाणो वि। ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सो | | - का० अणु०, ३९८. परायेतापादिवर्जितं कर्मादानकारणान्निवृत्तं साधुवचनं सत्यम् । मूला०वृ० ११.५. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन पर नकेल लगाना ही संयम है संयम की डोर सत्य से साक्षात्कार करने पर संयम की डोर हाथ में थम जाती है। संयम का तात्पर्य है- स्वयं की शक्ति से परिचित हो जाना और मन की गति को बांध लेना। मन बेलगाम है, बेतहासा भागता रहता है और अतृप्त वासनाओं की ओर अन्तहीन दौड़ लगाता रहता है। उस दौड़ पर काबू पाने के लिए स्वाध्याय और संयम की आवश्यकता होती है, ताकि परम शान्ति को प्राप्त करने के लिए साधक अपनी शक्ति को पहचान कर उस दिशा में कदम बढ़ा सके। साधना में संयम की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी लता को एक सहारे की। लता बिना सहारा बंधे पनप नहीं पाती, उसी तरह आत्मसाधना भी बिना संयम के सुगन्धित नहीं हो पाती। संयम जीवनरूपी साइकिल के लिए ब्रेक का काम करता है, सड़क पर चलने के नियमों की याद दिलाता है और सन्तुलन बनाये रखने के लिए ध्यान कराता है। वह एक ऐसा बल्ब है जो बिजली के संगृहीत प्रवाह को संभाल लेता है। मन पर नकेल स्वानुभूतिपूर्वक मन की बेजोड़ शक्ति पर नकेल लगाने की जरूरत महसूस होनी चाहिए। वह कहीं अति पर न दौड़ जाये। उसकी गति पर सतत जागरूकता बनाये रखने की आवश्यकता है। मन की रेखायें जानने के लिए डॉ० ग्रीन ने 'फीड बैक' नामक यन्त्र बनाया है, जिससे भावों की दौड़ का अन्दाजा लगाया जा सकता है। चित्त जहाँ पापमय होने लगे, मन को वहाँ से तुरन्त हटाने का प्रयत्न करना चाहिए। मन की एकाग्रता उसकी पवित्रता में है। पवित्रता लाने के लिए उसका मार्जन करना ही पड़ेगा। उसे मारने की जरूरत नहीं, छानने की जरूरत है। सत्कार्यों में रस पैदा हो जाये तो मन की दौड़ स्वत: कम हो जाती है। वाचस्पति मिश्र 'टीका' करने में इतने तन्मय हो गये कि वे विवाहित होने पर भी ब्रह्मचारी रहे और बिना नमक का भोजन वर्षों तक करते रहे। 'टीका' समाप्त होने पर ही उन्हें नमक का ध्यान आया और स्मरण आया कि उनकी पत्नी भी है, जिसने इतना सहयोग किया है। वीणा के तार से संगीत तभी पैदा होता है, जब वे जुड़ जाते हैं। सम्यक् ज्ञानी की यही पहचान है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ ज्ञानी होने के दो ही रास्ते हैं - किताबी ज्ञान हासिल करना और अनुभूति के माध्यम से अन्तर्ज्ञान प्राप्त करना। किताबी ज्ञान हौज जैसा होता है, जो बंधा रहता है, सीमित रहता है और अभिमान से भरा रहता है। मैला होने और सड़ने की भी सम्भावना उसमें बनी रहती है। पर अन्तर्ज्ञान कुआँ जैसा होता है जो निरभिमानी रहता है, सड़ता नहीं, निर्बन्ध रहता है, गहरा रहता है। अन्तर्ज्ञानी निर्विचारी बन जाता है। शिष्य और संन्यासी के झोलों में सोने की ईटें हैं। शिष्य उन्हें कुएं में फेंककर निर्भय बन जाता है, पर संन्यासी गुरु उनका भार ढोते-ढोते भय के भूत से परेशान बना रहता है। स्वानुभूति न होने का यह फल है। किताबी ज्ञान एक उधार पत्थर के अलावा और क्या हो सकता है, यदि उसमें स्वानुभूति का गीलापन न हो। वह तो मात्र इन्द्रियज्ञान है जो खण्ड-खण्ड का ज्ञान कराता है। तीन चेतनायें मानी जाती हैं - इन्द्रिय चेतना, मनश्चेतना और बौद्धिक चेतना। इन तीनों चेतनाओं से निकलकर ज्ञान जब अनुभव चेतना तक पहुँचता है, तभी आत्मरमण हो पाता है और उसे ही संयम कहा जाता है। संयम से ही समाधि मिलती है और ध्यान, ध्याता और ध्येय इकट्ठे हो जाते हैं। इन्द्रिय विषय-वासना से हटकर 'संयम से ही भीतर जागरण हो जाता है। सारा संसार इन्द्रिय विषयी राग-द्वेष में जल रहा है और जलते हुए भी प्रसन्न हो रहा है। उसे जलने की तनिक भी चिन्ता नहीं है। वह तो खुजली को खजाने में ही आनन्द का अनुभव कर रहा है, भले ही खून की धारा बहने लगे। यदि वह सामायिक-समता का चिन्तन करने लगे तो वैराग्य होने में, एकाग्र होने में देर नहीं लगेगी और चित्त भी प्रसन्न हो जायेगा। चित्त और विचारों पर नियन्त्रण रखने के लिए संयम एक सशक्त साधन है। अन्यथा वही बात होगी कि शराबी रातभर नौका चलाता रहा, पर नौका वहीं की वहीं बंधी रही, क्योंकि उसे निर्बन्ध नहीं किया था, खूटे से बन्धनमुक्त नहीं किया था। आंख आक्रामक होती है, इसलिए आंख लग जाती है। कान ग्राहक होता है, वह बहु-आयामी होता है। इसीलिए श्रवण पर बहुत जोर दिया गया है। सही श्रावक भी वही कहलाता है जो सम्यक् श्रवण करे। सम्यक् इसलिए कि शब्द और रूप सर्वाधिक प्रभावित करते हैं। ध्यानस्थ मुनि ने सुना कि श्रेणिक ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। मुनि ध्यानस्थ होने पर भी विचलित हो गये। इसलिए संयम पालन के लिए स्वाध्याय की बहुत जरूरत होती है। वह उफनते दूध में पानी का काम करता है। स्वाध्याय से ही स्वानुभूति का जागरण होता है। संयम और अनुशासन संयम एक प्रकार का अनुशासन है, जो क्रूरता, विषमता और स्वभाव जटिलता Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ के स्थान पर क्रमश: करुणा, समता और सहिष्णुता पैदा कर देता है। इच्छाओं, आकांक्षाओं और आशाओं से बन्धा व्यक्ति अपनी रंग-बिरंगी पतंग को आकाश में उड़ा तो देता है, पर वह बिना डोरी के जल्दी ही धरती पर गिरकर धराशायी हो जाती है। इसलिए सर्वप्रथम इच्छाओं को संयमित करना चाहिए। अन्यथा जिस प्रकार शिवाजी गरमागरम खिचड़ी को बीच से खाना शुरु करने पर जल गये थे, उसी तरह इच्छा पर अनुशासन किये बिना संयम की कल्पना ही नहीं की जा सकती। वह जल जाना मात्र होगा। इच्छा प्राणी का लक्षण है अपथ्य पर उसका परिष्कार किया जाना आवश्यक है। आदत भी इच्छा का ही रूप है। वह भी संयम से दूर हो सकती है। इसलिए आदत को अपरिवर्तनीय नहीं मानना चाहिए। ध्यान और चिन्तन प्रक्रिया द्वारा उनसे मुक्ति पायी जा सकती है। आदत का और आहार का सम्बन्ध मस्तिष्क से रहता है और ये दोनों वातावरण के माध्यम से संस्कार का रूप ले लेते हैं। आहार के स्वरूप से मस्तिष्क सम्बन्धित रहता है। "जैसा खाओ अन्न, वैसा होवे मन" आहार यदि हित, मित और सात्विक है तो भावनायें निश्चित ही तद्रूप हो जायेंगी। अन्यथा इच्छाओं पर अनुशासन करना कठिन हो जायेगा। भिखारी राजा को भी जब परमात्मा के सामने मांगते देखता-सुनता है, तब वह राजा को भी भिखारी मानने लगता है और उसको भी अपनी श्रेणी में गिनने लगता है। साधना काल में नीरस भोजन पर बल दिया जाता है; क्योंकि भोजन और अध्यात्म का गहरा सम्बन्ध है। भोजन इन्द्रियों को पोषित करता है, उनकी क्षमता बढ़ाता है। इसलिए साधक का भोजन सात्विक होना चाहिए। तामसिक भोजन इन्द्रियविकारी होता है। साधक जिन्दा रहने के लिए भोजन करता है, भोजन के लिए जिन्दा नहीं रहता। इसलिए संयमी व्यक्ति को सात्विक एवं शाकाहारी होना चाहिए। शरीर चिन्तन संयमी का गहन साधन है। शरीर की अपवित्रता, अविनश्वरता और जड़ता का चिन्तन शरीर से मोहासक्ति कम कर देता है। इसके लिए कतिपय आसनें भी हैं जिनसे एकाग्रता बढ़ती है। कायोत्सर्ग, प्राणायाम और रीढ़ की हड्डी को सीधा रखना शारीरिक अनुशासन है। __ वाचिक अनुशासन में भाषासमिति का पालन किया जाता है। भाषा वही बोलो जो हित, मित और प्रिय हो, अन्यथा मौन रहना ही श्रेयस्कर है। सत्यवादन संयमी की सही साधना है। ___ संयम में मानसिक अनुशासन भी जरूरी है। इसके बिना संयम अधूरा रह जाता है। मन स्वरूपतः पवित्र होता है, कोरा कागज जैसा रहता है, पर हमारी भावना, संस्कार और वृत्तियाँ उस पर चित्र बनाती रहती हैं। मन ही आश्रय का कारण है और मन ही Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ निर्जरा को आश्रय देता है। अत: सामायिक और ध्यान संयम के अपरिहार्य तत्त्व हैं। साध्य प्राप्ति का क्षण भले ही छोटा हो पर उसकी प्रक्रिया बहुत बड़ी होती है। दही से मक्खन निकालना एक श्रमसाध्य कार्य है। वह बिना लगातार मन्थन के निकलता नहीं है। इसी तरह कहं चरे? कहं सिढे? के उत्तर में “जयं चरे जयं तिढे' की उपासना हो, कर्म और अकर्म में सन्तुलन हो, शरीर और मन का सन्तुलन हो। आदमी केवल सुनता ही नहीं है, वह धारणायें भी बना लेता है जो उसके जीवन को यथावत् घुमाती रहती हैं। इसलिए मन को संयमित करना संयम की सही साधना है। यह संयम एक तो सावध योगों सम्पूर्ण निवृत्ति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और दूसरा अंश निवृत्ति के अर्थ में। इन दोनों को क्रमश: सकल चारित्र और देश चारित्र कहा जाता है। साधारण श्रावक देश चारित्र का पालन करता है। चारित्र में प्रवृत्ति ही संयम है। संयम का सारा विधान इसी के अन्तर्गत हो जाता है। संयम : निषेध से विधेय की ओर संयम का सम्बन्ध हिंसा से है। हमारा सारा जीवन हिंसा से भरा हआ है। चौबीस घण्टे मन सोते-जागते हिंसा में लीन है। वह हिंसा छोटी हो या बड़ी हो, हिंसा बिना जीवन आगे नहीं बढ़ता। जीवेषणा जीवन का आधार है। इसी जीवेषणा मूलक जीवन को बचाने के लिए ही हिंसा का जन्म होता है। हिंसा के कृत्य में 'मैं' ही मुख्य रहता है और 'मैं' की पूर्ति में ही सारे कर्म उत्पन्न होते हैं। दूसरे को पराजित करने में ही रस आता है। रस आये बिना किसी को जीतने में भी आनन्द नहीं आता। ऐसा आनन्द टिकाऊ नहीं होता। संयम का साधारणत: अर्थ निरोध या दमन लिया जाता है, जो सही नहीं है। दमन में मन को मारा जाता है, दबाया जाता है जबरदस्ती। यह उसका मात्र निषेधात्मक रूप है, जो ऊपरी है, भीतरी नहीं है। हम संयम के ऊपरी रूप को ही पकड़ते हैं, भीतर जाने का प्रयत्न नहीं करते। संयम वस्तुत: निषेध से विधेय की ओर जाने का नाम है। मन पर नकेल लगाना मात्र निषेध से सम्भव नहीं, विधेयात्मकता उसमें जुड़ी संयम का सम्बन्ध वृत्तियों को सम्भालना है, वृत्तियों की शक्ति से परिचित होकर आत्मशक्ति का परिचय देना है। संयम को 'कण्ट्रोल' कह देना उचित नहीं होगा। हां, उसका अनुवाद 'ट्रेन्क्किलिटी' शब्द देकर किया जा सकता है। निष्कम्पता और स्थितिप्रज्ञता अर्थ बिना सही संयम नहीं हो सकता। सही संयम में मन धुरी पर रहता है, निषेध की अति पर नहीं रहता। वहां मन समाप्त हो जाता है, निर्मन हो जाता है। निर्मन हुए आदमी की कोई जिन्दगी नहीं होती। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन के साथ जिन्दगी दौड़ा करती है। दौड़ती जिन्दगी में घटनायें होती हैं, बुराइयाँ होती हैं इसलिये बराइयों के बिना कोई कथा या चलचित्र नहीं रहता। कथा या चलचित्र द्वन्द्व में घूमता है। द्वन्द्व बिना कथा में कोई जान नहीं रहती। रावण के बिना राम के जीवन का भी कोई अस्तित्व नहीं रह जाता। संयम का निषेधात्मक पक्ष ही हमारी दृष्टि में अधिक आता है, इसलिए हम संयम को उसी से जोड़ता हुआ पाते हैं। संवर और निर्जरा, दोनों का रूप संयम है। संवर का काम है-- रोकना और निर्जरा का काम है- उस रोकने से विधेयात्मकता को पैदा करना। संवर में मन को रोका जाता है अपथ्य पर तनावपूर्वक नहीं। यदि तनाव रहेगा तो टूटन होगी, अपने से लड़ना होगा। जहाँ टूटन और लड़ना होगा वहाँ संयम नहीं हो सकता। जीभ को काट देने से आहार के रस से निवृत्ति नहीं होगी, बल्कि निवृत्ति होगी तब जब हमारी वृत्ति अन्तर की ओर मुड़ जायेगी। बहिरात्मा से अन्तरात्मा की ओर जाना ही संयम है। बाह्य इन्द्रियाँ स्थूल पदार्थ से जुड़ती हैं और अन्तर इन्द्रियां आत्मा से जुड़ती हैं, जिसे हम अतीन्द्रिय शक्ति कहते हैं। अतीन्द्रिय शक्ति को जाग्रत करना ही संयम की विधायक दृष्टि है। ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ इसी अतीन्द्रिय शक्ति देन हैं। इस अतीन्द्रिय शक्ति को पाने के लिए मन को अनुशासित करना नितान्त आवश्यक है और मन को अनुशासित करने के लिए इच्छा, आहार, इन्द्रिय, शरीर, वचन आदि को अनुशासित किया जाता है। इन सभी वृत्तियों का पारस्परिक सम्बन्ध है, एक-दूसरे से वे जुड़ी हुई हैं। इच्छा प्राणी का लक्षण है। मन की चञ्चलता हमारी इच्छा पर ही निर्भर करती है। इच्छा से ही प्रमाद और कषाय का जन्म होता है। सारी इच्छायें हमारी नाभि के आसपास जाग्रत होती हैं। यही अविरति का केन्द्र है, चतुर्थ गुणस्थान है। यह चेतना जब नाभि से नासाग्र तक भ्रमण करती है, तब उसे प्राणपुरुष कहा जाता है और जब वह भृकुटि से ऊपर विचरण करती है तो उसे प्रज्ञापुरुष मान लिया जाता है। निम्न केन्द्र पर चेतना की सक्रियता निम्न वृत्तियों को जन्म देंगी और जैसे-जैसे वे ऊपर के केन्द्रों में जायेंगी, हमारी वृत्तियाँ शुभ से शुभतर की ओर बढ़ती जायेंगी, इसी को हम अन्तर्मुखी वृत्ति कह सकते हैं। केन्द्रों को नियन्त्रित करना इसी अन्तर्मुखी वृत्ति से सम्भव होता है। शरीर क्षणभंगुर और अनित्य है, अपवित्र है पर हमारी बाह्य इन्द्रियों की कार्यशीलता उसी पर निर्भर करती है। उनकी अपनी सीमा है, इच्छा है, व्यवस्था है जिसे वे पार नहीं कर सकतीं। जब तक उनकी सक्रियता रहेगी, अन्तर इन्द्रियों की आवाज सुनाई नहीं देगी। अन्तर की इस आवाज को सुनने के लिए कायोत्सर्ग, आसन, Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ बन्ध, व्यायाम और प्राणायाम करना पड़ता है। निरासक्त होकर साधक इन साधनों का उपयोग कर शरीर की अशुचिता और अनित्यता पर चिन्तन करता है। सामाजिकता के लिए वचन शक्ति एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है, जीवन शक्ति का एक अन्यतम साधन है । वचन का सम्बन्ध मन से होता है और फिर शरीर से उसकी अभिव्यक्ति होती है। भावों की दुनियाँ से शरीर अपने आपको बचा नहीं सकता। क्रोधादि भाव शरीर में कहीं न कहीं प्रकट हो जाते हैं । भावों के अनुसार ही हम उच्चारण करते हैं, जप करते हैं और ओमादि बीजाक्षरों की पुनरुक्ति से ऊर्जा का अधिग्रहण करते हैं। इसलिए शरीर की शुद्धि के साथ ही वचन की भी शुद्धि होनी चाहिए। वाक्शुद्धि संयम का ही अंग है। मन हमारी वृत्ति और प्रवृत्ति के अनुसार दौड़ता है, कभी-कभी न चाहते हुए भी मानसिक वृत्ति के कारण शरीर और वचन की प्रवृत्ति हो जाती है। भावना, संस्कार और वृत्ति से मन पर अनेक तरह के चित्र बनते रहते हैं। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कृषाय और योग से आस्रव के झरने फूटते रहते हैं । संकल्प की दृढ़ता और एकाग्रता इन झरनों को सुखाया जाना अत्यावश्यक है। पुराने संस्कार और आदतों की प्रक्रिया ध्यान से बदली जा सकती है। आदत स्वभाव नहीं है, जिसे हम बदल नहीं सकते । आदतों को संयम के माध्यम से बदला जा सकता है, आध्यात्मिक चिन्तन और आत्मानुभूति के प्रयोग से आदतों से छुटकारा पाया जा सकता है, यही संयम की शक्ति है। सन्दर्भ वयसमिदिकसायाणं दंडाणं इंदियाण पंचन्हं । धारण- पालण- णिग्गह- चाय-जओ संजमो भणिओ ।। - वदसमिदिपालणाए दंडच्चोएण इंदियजयेण । परिणममाणस्स पुणो संजमधम्मो हवे णियमा । | प्राणीन्द्रियेष्वशुभप्रवृत्तेविरतिः संयमः । स०सि० संजमो नाम उवरमो रागद्दोसविरहियस्स एगिभावे भवइति । दशवै ० चू०, पृ० १५. संयमस्तु प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणः । ध्या० श०वृ० ६८. धर्मोपबृंहणार्थं समितिषु वर्तमानस्य प्राणेन्द्रियपरिहारस्संयमः । स०सि०, ९.६. पंचसंगहो ( प्रा० ) १.१२७. ----- बा० अणु० ७६. ६.१२. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वस्थ होना ही उत्तम तप है तप और आध्यात्मिक स्वास्थ्य संयम जितना गहरा होगा तप उतना ही स्वच्छ होगा। अभी तक सिद्धान्त की बात चलती रही, अब तप से व्यवहार की बात प्रारम्भ होती है। शरीर को मात्र कष्ट देते रहना तप नहीं है। तप तो वह है जहाँ साधक स्वस्थ होकर, मन का मार्जन करने चल पड़ता है। तप का काम है संचित कर्मों की निर्जरा करना और वर्तमान में कर्मों को संचित न होने देना। जिस प्रकार माली पलाश के पत्तों में आम रखकर, पाल लगाकर आम को समय से पहले पका देता है उसी प्रकार तप से कर्मों के फल को समयको पूर्व ही निर्जीर्ण कर दिया जाता है। ज्ञान का सार आचार है, धर्म का सार शान्ति है और जीवन का सार स्वास्थ्य है। श्वास पर ही यह स्वास्थ्य निर्भर करता है। भाव, मन, और शरीर के माध्यम से स्वास्थ्य की सही स्थिति का पता चल जाता है। इनको हम क्रमश: आध्यात्मिक, मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य कह सकते हैं। मन के तनाव और शरीर की व्याधियाँ तो दिखाई देती हैं, पर भावों का दर्शन नहीं होता, वे सूक्ष्मतम हुआ करते हैं। हम शारीरिक स्वास्थ्य पर ध्यान देते हैं, उसे ठीक करने के लिए तरह-तरह की दवायें लेते हैं, पर भाव-स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं देते। होना चाहिए कि हम आध्यात्मिक स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दें। आध्यात्मिक स्वास्थ्य के बाधक तत्त्व हैं- आहार, भय, मैथुन और परिग्रह। ये तत्त्व अनन्त बाधाओं और विपत्तियों को आमन्त्रित करते हैं, जिन्हें तपस्वी शान्त मन से और आत्मबल से सहन करते हैं। उसे यदि कोई कोड़े भी लगाये तो वह प्रसन्न मन से सह लेता है। आचाराङ्ग आदि आगम ग्रन्थों में कहा गया है कि काम के जाग्रत होने पर छ: आलम्बनों का उपयोग करना चाहिए- अनशन, रसपरित्याग, ऊनोदर, ग्रामानुगमन और संकल्प-परिवर्तन। ध्यान के साथ इन आलम्बनों का उपयोग करने पर इस प्रकार की बाधायें स्वत: शान्त हो जाती हैं। तप के साथ आहार संयम गहराई के साथ जुड़ा है। यहाँ संयमित आहार का प्रयोग एक विशेष अभ्यास के साथ किया जाता है। जिह्वा के साथ चीनी, नमक और Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ 'चिकनाई का स्वाद और उनके बने व्यञ्जनों का प्रयोग एक साधारण गृहस्थ कैसे भूल सकता है? पर तपस्वी उनसे दूर रहता है। स्वाद की आसक्ति से मुक्त तपस्वी ही सही साधना कर पाता है। अनेक तरह के आयंबल, उपवास और आतापनायें तपस्वी किया करता है। वह स्त्री, भक्त (आहार), देश और राज विकथाओं से भी मुक्त रहता है, क्योंकि इन विकथाओं में सांसारिक वासनायें भरी रहती हैं। राग, द्वेष, क्रोध, अहंकार और काम आदि भावों से ओतप्रोत ये कथायें आध्यात्मिक साधना में बाधक बन सकती हैं, तपस्वी के मनको आकर्षित कर सकती हैं। अत: तपस्वी उनसे दूर रहता है। आज सारा संसार भौतिकता की चकाचौंध में आकण्ठ डूब रहा है। उसे स्वयं के बाहर की चिन्ता तो है, पर अन्तर की चिन्ता उसमें दिखाई नहीं देती। हर क्षेत्र चाहे वह राजनीतिक हो या व्यापारिक, सामाजिक हो या शैक्षणिक,भ्रष्टाचार से आकण्ठ डूबा हुआ है। उसे आध्यात्मिकता की ओर झांकने की भी इच्छा नहीं होती। यदि कुछ करता भी है, तो मात्र पाखण्ड या बाहरी दिखावा रहता है। ___हाँ, यदि हम आध्यात्मिक का अर्थ अन्तर या भीतर करें, तो जो भी प्रतिक्रियायें ती हैं, चाहे वे अहंकार हो या कषाय, सब कुछ आध्यात्मिक कहलायेंगी, क्योंकि उनका अस्तित्व भीतर रहता है। संतोष, असंतोष, तृष्णा आदि सभी तत्त्व अन्तर्जगत के तत्त्व हैं। ये तत्त्व प्रतिक्रियायें हैं। इनका झुकाव वृत्तियों अथवा क्रियाओं की ओर रहता है। जो भी झुकाव होता है, वह प्रतिक्रिया का फल है। वृत्ति का अर्थ क्रिया है। क्रिया ध्यान के द्वारा जानी जाती है। आचरण, व्यवहार आदि प्रतिक्रियायें हैं। ध्यान के माध्यम से ही साधक अपने आपको चेतना-जगत् में चला जाता है। तप और साधक ध्यान वस्तुत: चित्त को बदलने की एक क्रिया है, एक जीवन पद्धति है, जहाँ विवेक जाग्रत हो जाता है और बदलाव शुरु हो जाता है। साधक कायोत्सर्ग और सामायिक आदि के माध्यम से आत्मचिन्तन करता है, संसार चिन्तन करता है और विशुद्धि प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। यही उसकी यथार्थ साधना है। साधना का प्राण है- विवेकपूर्वक किया गया तप, जिससे हमारी सुषुप्त शक्तियाँ जाग्रत होती हैं और आत्म से परमात्म अवस्था को प्राप्त होती हैं। यह तप सम्यक् हो, रत्नत्रय से संयुक्त हो तभी सार्थक होता है, अन्यथा शरीर को कृश करना कोरी मूर्खता मानी जाती है, कर्मों की निर्जरा उससे नहीं होती। तामली ने साठ हजार वर्ष तक ऐसा ही तप किया, जो आत्मदर्शनपरक नहीं था। इसे बालतप कहा जाता है। सम्यग्ज्ञान के बिना किया गया तप तप नहीं है। कड़कड़ाती धूप में आतापना लेना, वृक्ष-शाखा से औंधे लटकना, एक पैर या शीर्षासन के बल पर खड़े रहना, छाती तक भूमि में गड़े रहना, काई या तृण मात्र खाकर बने रहना, नासाग्र तक जल में खड़े रहना आदि Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ तपस्यायें शरीर को मात्र कष्ट देना है, यदि उससे सम्यग्ज्ञान या विवेक न जुड़ा हुआ हो। यथार्थ तप अन्तर्मुखी होता है और परमात्म अवस्था को पाने के संकल्प के साथ किया जाता है। तीर्थङ्कर ऋषभदेव ने छद्मावस्था में एक हजार वर्ष तक तप किया। अन्य तीर्थङ्करों ने भी इस प्रकार तप कर अपने कर्मों की निर्जरा की। महावीर ने बारह वर्ष की उत्कृष्ट साधना की, जिसमें ३४९ दिन ही आहार ग्रहण किया। उनके शिष्यों में धन्ना अनगार जैसे महादुष्करकारक उग्र तपस्वी थे, जिन्होंने मुक्तावली, एकावली, आयंबिल, भिक्षुप्रतिमा, सर्वतोभद्रप्रतिमा आदि अनेक प्रकार के तप किये और निर्वाण प्राप्त किया। तप वस्तुतः आध्यात्मिक साधना का आलम्बन है। उसमें जब त्रियोग के परमाणु तथा तैजस और कार्मण के अति सूक्ष्म परमाणु उत्पन्न होते हैं, तब परिणामों में निर्मलता आती है, विषय- कषायों का शमन होता है और कर्मों की निर्जरा होती है। यह वस्तुतः एक अन्तर्यात्रा है जो स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार विषय और कषाय-भाव का निग्रह कर ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा आत्मा की भावना करना तप है । उमास्वामी ने पूज्यपाद और अकलंक ने बाह्य और आभ्यन्तर तपों का जिक्र करते हुए लिखा है कि कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है उसे तप कहते हैं। कुमार कार्तिकेय ने समभावपूर्वक जो काय क्लेश किया जाता है, उसे तप कहा है। अभयदेवसूरि और सिद्धसेनसूरि के मत में जिससे रक्त, मांस आदि तपता है, वह तप है। तप में चेतना का तपाव होता है । उसमें ध्यान, ध्याता और ध्येय तीनों मिल जाते हैं। उनका यह मिलन बिना अग्नि परीक्षा के नहीं होता है। रत्नत्रय का पालन भी तप ही है या यों कहिए कि मुक्ति प्राप्ति के लिए रत्नत्रय के साथ-साथ तप भी करना पड़ता है। स्वर्ण की परख तापन से ही हो पाती है। बिना अग्नि में डाले उसकी विशुद्धता नहीं जानी जाती। अपने को अग्नि में डालकर ही सोना सौ चट होकर सामने आता है और आभूषण बनकर अपने को प्रस्तुत करता है। दूध को तपाकर मलाई बनायी जाती है। इसी तरह तप को धौंकनी की भी उपमा दी गई है । जीवन रूपी लौह तत्त्व को तप रूपी धौंकनी से धौंककर तपाया जाता है, तब कहीं वह स्वर्ण बन पाता है । इसलिए साधना के क्षेत्र में तप के महत्त्व को सभी ने स्वीकारा है । तप एक ऊर्जा है तप करने के पीछे दो प्रकार की मानसिकता होती है - एक तो पूर्वोपार्जित कर्मों की निर्जरा करना और दूसरी शरीर को कष्ट देकर सुख की आकांक्षा करना । आकांक्षा के साथ तप का कोई सम्बन्ध नहीं है । दुःख तो कोई भी प्राणी नहीं चाहता पर सुख Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ की लालसा में वह दुःख पाने से बच भी नहीं पाता और सम्यग्ज्ञान न होने के कारण कायिक दुःख में भी वह सुख का अनुभव करता है। जो आगे चलकर वह एक आदत के रूप में मन में घर कर जाता है। तप का सम्बन्ध स्वयं से लड़ना नहीं है। यदि तपस्वी स्वयं से लड़ता है तो वह तप का विकृत रूप है, आत्मदमन है और आत्मदमन तप हो नहीं सकता है। उसमें तो जिस वृत्ति का दमन किया जायेगा वह प्रक्षेपित होकर और भी विकृत रूप में सामने आयेगी। प्राचीन आगमों में 'इन्द्रियदमी' जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है। वहाँ वस्तुत: दमन का अर्थ वृत्ति को दबाना नहीं है, शमन करना था और यह शमन किया नहीं जाता है, हो जाता है। इसमें तपस्वी विपरीत वृत्ति से लड़ता नहीं है, क्योकि यदि वह लड़ेगा तो अप्रत्यक्ष रूप में उसी ओर खिंचता चला जायेगा। काम या धन से लड़ने वाले तपस्वी का खिंचाव उसी ओर बढ़ता जायेगा। फलत: प्रकृति से वह विकृति की ओर जायेगा, संस्कृति तक नहीं पहुँच पायेगा। संस्कृति तक पहुँचने के लिए उसे विकृतियों से ऊपर उठना होगा। ध्यान के अध्ययन से उन वृत्तियों को शक्ति के रूप में परिणत करना होगा। कामवासना का केन्द्र शरीर का सबसे नीचे का भाग है जहाँ हम प्रकृति से जुड़े हैं। हमारा ध्यान वहाँ न होकर यदि सहस्रार चक्र पर हो तो तप से एक ऊर्जा मिलेगी, जो साधक को विकृतियों से बचा सकेगी, शक्ति को रूपान्तरित कर सकेगी। तप को अग्नि भी कहा गया है। अग्नि ऊर्ध्वगामिनी होती है। अन्तर की इस अग्नि का स्वभाव भी ऊपर उठना है। इसे यदि हमने सही मार्ग दे दिया तो यह सहस्रार चक्र तक पहुँच जायेगी, क्योंकि उस मार्ग पर आदत का कोई नामोनिशान नहीं रहता। आदत स्वभाव नहीं है। आदत तो हम स्वयं निर्मित करते हैं और जिसका निर्माण किया जाता है, वह स्थायी नहीं होता। इसलिए आदत से मुक्त हुआ जा सकता है। वह शरीर और मन के बीच एक सुलह है, जिससे व्यक्ति बार-बार उस पर ध्यान देता है, पुनरावृत्ति करता है और फिर आदत का निर्माण कर लेता है। पुनरावृत्ति का रस मन में न हो तो आदत से मुक्त होना कठिन नहीं है। शरीर को तो हम अपने अनुसार मोड़ सकते हैं। असली प्रश्न है मन की चंचल गति को रोकना। मन की दौड़ से ही आदत बनती है। तप आदत नहीं है, ध्यान के माध्यम से अपने मूल स्वभाव को प्राप्त करना है, केन्द्र को बदलना है। महावीर ने तप को इसीलिए ऊर्जा कहा है कि सम्यक् रूप से तपस्वी उस ऊर्जा को प्राप्त कर लेता है और उसके क्रोधादि विकार शान्त हो जाते हैं, मन शीतलता का अनुभव करता है। शरीर को कृश करना तप नहीं है, मन को कृश करना तप है, सही मन से शरीर को कृश कर उस ऊर्जा से सम्बन्ध स्थापित कना तप है। यह ऊर्जा ही आभामण्डल है, जो हमारे शरीर के बाहर हमारे भावों के अनुसार वर्तुल रूप में बना रहता है। इसे ही हमारे ग्रन्थों में सूक्ष्म शरीर कहा गया है। योग में चक्रों की सारी व्यवस्था इसी सूक्ष्म Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ शरीर से होती है। यही सूक्ष्म शरीर वास्तविक शरीर कहा जाना चाहिए, क्योंकि दृश्य शरीर का क्षरण होता जाता है, नष्ट हो जाता है पर अदृश्य सूक्ष्म शरीर कभी नष्ट नहीं होता, प्राण-ऊर्जा नष्ट नहीं होती। वह शरीर से बाहर निकलकर नये शरीर की खोज करती है और यह खोज भावों या कर्मों के अनुसार होती है। इसी को पुनर्जन्म कहते हैं। तप के प्रकार जैन धर्म में तप को दो रूपों में विभाजित किया गया है- बाह्य तप और आभ्यन्तरतप। तपके ये दो हिस्से हैं। बाहर से अन्तर में जाना इसका उद्देश्य है। इसलिए ये दोनों प्रक्रियायें साथ-साथ चलती हैं। बाह्य तप करना मिथ्या तप माना गया है। बाह्य तप है- अनशन, ऊनोदर, वृत्तिसंक्षेप, रस-परित्याग, काय-क्लेश और विविक्त शय्यासन। आगमों में इन तपों का विस्तृत वर्णन मिलता है। वहाँ कनकावली, एकावली आदि विविध प्रकार के तपों का उल्लेख हुआ है। इन तपों में बाह्यतप के बिना आभ्यन्तर तप अधिक कार्यकारी नहीं होता, भीतरी आत्मतत्त्व को सक्रिय करने के लिए शरीर को तपाना ही पड़ता है दूध को तपाने के लिए बर्तन की जरूरत पड़ती ही है। इन तपों को संक्षेप में हम निम्न प्रकार से समझ सकते हैं। बाह्यतप अनशन का तात्पर्य है अचानक भोजन से निवृत्ति अर्थात् उपवास। भोजन की आवश्यकता होती है शरीर को सुस्थिर रखने के लिए। जब भोजन बन्द कर दिया जाता है तब शरीर अपने भीतर ही रहने वाली चर्बी को अपना भोजन बना लेता है। इसलिए कहा जाता है कि नब्बे दिन तक व्यक्ति भोजन के बिना रह सकता है। यह एक संकटकालीन प्राकृतिक व्यवस्था है। सात-आठ दिन के बाद भूख भी समाप्तप्राय हो जाती है, क्योंकि शरीर अपने ही भीतर से भोजन लेना शुरू कर देता है। भोजन लेने और छोड़ने के बीच के संक्रमण काल पर चिन्तन करना अनशन का उद्देश्य है। इस चिन्तन में "मैं शरीर नहीं हूँ" पर गहराई से विचार किया जाता है। शरीर के साथ भोजन का तादात्म्य सम्बन्ध है। जितना अधिक भोजन होगा, शरीर पर उतना ही अधिक ध्यान जायेगा। इस तादात्म्य सम्बन्ध से फिर निद्रा आने लगती है। भोजन के बाद नींद के आने का यही कारण है। अनशन करने से नींद नहीं आयेगी, जागरण होगा। जो ऊर्जा आहार के पाचन में लग रही थी वह अब चिन्तन में लग जायेगी। इसलिए अनशनकाल में शरीर की अस्थिरता पर चिन्तन करना आवश्यक है। इस सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि अनशन करने वाले का भोजन भी सात्विक होना चाहिए। तामसिक भोजन से कामोद्दीपन होता है। मांस भक्षण से काम और राग अधिक बढ़ते हैं, पाचन क्रिया पर भी जोर पड़ता है। इसलिए पूर्ण शाकाहारी होना तपस्वी के लिए एक शर्त है। यह भी शर्त है कि अनशन करने वाला आहार Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ पर चिन्तन न करे, अन्यथा उसका अव्यक्त मन आहार पर ही दौड़ता रहेगा और स्वप्न में भी उसे आहार-भोजन ही दिखाई देता रहेगा। उस स्थिति में व्यक्ति मन का दास हो जायेगा और अनशन कार्यकारी नहीं हो पायेगा। यह प्रामाणिकता हमारे मन में होनी चाहिए। संकल्प होना चाहिए। यहाँ उसे आदत नहीं बनाया जा सकता। आदत में चिन्तन नहीं होगा, इसलिए अनशन का त्याग ही एकायक नहीं होता। अनशन के बाद तपस्वी अवग्रह लेता है कि यदि ऐसा-ऐसा होगा तो ही वह भोजन ग्रहण करेगा, अन्यथा नहीं। यह अनिश्चितता प्रकृति पर छूट जाती है। इसमें आहार से कोई लगाव नहीं रहता, बस एक प्रामाणिकता रहती है, संकल्प रहता है। उसमें जीवेषणा नहीं रहती। अनशन जीवेषणा को त्यागने का द्वार है, इन्द्रिय संयमन का उपाय है। जीवन आहार के लिए नहीं है, आहार जीवन के लिए है। यही उद्घोषणा अनशन का उद्देश्य है। ___ अनशन के बाद बाह्यतप में ऊनोदर का नाम आता है, जिसका अर्थ है- भूख से कम खाना या परिमित खाना। इसको अवमौदर्य और अवमोदरिका भी कहा जाता है। स्वस्थ पुरुष का आहार बत्तीस कवल का होता है, स्त्री का अट्ठाईस का और नपंसक का चौबीस कवल का होता है। ऊनोदर का तात्पर्य है इक्कीस कवल से अधिक नहीं खाना। ___बहुत सारे काम हम अपनी आदत के अनुसार करते हैं और वही आदत एक स्वभाव का रूप ग्रहण कर लेती है। प्रत्येक इन्द्रिय का एक उदर है, सीमा है, उससे अधिक उसे यदि दिया जायेगा तो उसकी क्षमता कम हो जाती है। प्रकृति का सन्तुलन बिगड़ जाता है, अस्वाभाविक हो जाता है। आदत से वासनायें जागती हैं। भूख यदि आदत बन जाये तो वह स्वाभाविक भूख नहीं होगी। अनशन से झूठी भूख टूटती है और ऊनोदर से वास्तविक भूख उभरती है। उस वास्तविक भूख में भी कम खाना ऊनोदर तप है। इस तप में इच्छा को सामर्थ्य के भीतर रोका जाता है (यदि सामर्थ्य के बाहर वह चला जाता है, तो आप उसके अधीन बन जाते हैं, जिसका परिणाम मात्र विषाद ही होता है। अत: किसी भी इन्द्रिय को चरम सीमा तक नहीं जाने देना चाहिए। चरम तक पहुँचने के पहले ही उससे हट जाना ऊनोदर तप है। यह तप सन्तुलन का प्रतीक है। तीसरा तप है वृत्ति संक्षेप। इसका तात्पर्य है अपनी वृत्तियों और इच्छाओं को संक्षिप्त करना, सीमित करना या केन्द्रित करना। 'इच्छा हु आगाससमा अणंतिया', इच्छायें आकाश के समान अनन्त होती हैं। सभी को परिपुष्ट नहीं किया जा सकता। अत: उन पर संयम कर व्यर्थ में बहने वाली ऊर्जा को रोक लेना चाहिए। संक्षेप का तात्पर्य है-सिकोड़ना। यदि इच्छाओं को सिकोड़कर केन्द्र पर सीमित कर दिया जाये और उसके फैलने के लिए बुद्धि का प्रयोग किया जाये तो इच्छायें स्वत: समाप्त होने लगती हैं। मन को एकाग्र कर इस फैलाव को रोकना ही वृत्ति संक्षेप है। इन्द्रियों का उपयोग कम से कम होना चाहिए। उससे स्वानुभूति में तीव्रता आती है और प्रज्ञा का Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ प्रकाश फैल जाता है। वृत्ति को केन्द्रित करने के बाद रस परित्याग होता है। रस परित्याग का तात्पर्य मधुर, आम्ल, तिक्त, कषायला और लवण में से किसी रस या रसों का परित्याग करना मात्र नहीं है। असली बात है रस परित्याग कर उसके स्वाद से मन को अलग कर देना । वस्तु तो स्वाद का निमित्त मात्र है। यदि अन्तर उससे जुड़ा न हो तो स्वाद आयेगा ही नहीं । मृत्यु और मिष्ठान्न दोनों सामने हों तो मिष्ठान्न का स्वाद आयेगा कैसे? न मिठाई का मीठापन गया है और न इन्द्रिय की स्वाद ग्रहणशीलता कम हुई है, पर मन उसे पकड़ने की स्थिति में नहीं है। अतः रस परित्याग कर मन को वश में करना आवश्यक है । अन्यथा वह और भी वेग से आक्रमण कर सकता है। मन बार-बार स्वाद को लेना चाहता है पर चेतना यदि उससे नहीं जुड़ी है तो मन भी क्या करेगा ? रस-स्वाद से मुक्त होने के लिए कभी-कभी दूसरे रस को ले लेते हैं, नमक छोड़कर उसे स्थान पर मीठा ग्रहण करने लगते हैं। पर यह तो बेइमानी है। इससे हम स्थानपूर्ति ही करते हैं । मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जिन बच्चों को प्यार नहीं मिलता, माँ दूध नहीं मिलता वे अंगूठा चूसने लगते हैं और वही बड़े होकर सिगरेट पीने लगतेहैं । एकाकीपन को दूर करने के लिए शराब और सिगरेट का साथ लेने लगते हैं । अतः चेतना के सहयोग से मन को रोका जाना चाहिए। रस- परित्याग के बाद कायक्लेश है, जिसे परीषह या उपसर्ग कहा जाता है । इसमें शरीर को कष्ट नहीं दिया जाता, बल्कि शरीर से तादात्म्य छोड़ा जाता है। तादात्म्य छोड़ने के लिए कभी-कभी साधक कष्ट आमन्त्रित करता है और कभी प्रकृति से स्वभावतः जो मिलता है उसे सहता है। प्रकृति से जो दुःख मिलता है उसे साधक प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करता है और जप, तप आदि के माध्यम से कष्टों को आमन्त्रित कर शरीर से राग छोड़ता है। कायोत्सर्ग, वीरासन, प्रतिमासन, दंडासन आदि धारण कर शरीर से ममत्व को त्यागने की प्रक्रिया की जाती है। केशलुंचन भी उनमें एक है। काम-क्लेश से किसी प्रकार के सुख की अकांक्षा नहीं होती बल्कि उस दुःखानुभव से दुःख से मुक्ति होती है। काय - क्लेश संलीनता का कारण बन जाता है। संलीनता का असली अर्थ है। स्व में लीन हो जाना। स्व में लीन होने के लिए कुछ सीढ़ियाँ पार करनी पड़ती हैं। सबसे पहली और मुख्य सीढ़ी है- शरीर को हलन चलन क्रिया से मुक्त करना । काय - क्लेश या तप करते समय शरीर स्थिर रहना चाहिए। मानसिक व्यग्रता होगी तो हाथ-पैर चलेंगे। क्रोध में नथुने फूलना, आँखे लाल होना व्यग्रता का परिणाम है। कमर को झुकाकर बैठना, दीवाल से टिक जाना हमारी व्यग्रता का ही प्रदर्शन है। इस व्यग्रता और बहुचित्तता को रोकना आवश्यक है। यहाँ संलीनता का तात्पर्य है सम्यक् निरीक्षण Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ करना, स्वयं में लीन हो जाना, आत्मरमण करना। संलीन का प्रतिपक्षी शब्द है तल्लीन होना। तल्लीन होने में व्यक्ति के सामने कोई दूसरा पदार्थ रहता है, जिसमें वह स्वयं को समर्पित कर देता है। यह एक प्रकार से आत्मसमर्पण है। महावीर का मार्ग आत्मसमर्पण का नहीं, आत्मरमण का है। हमारे भीतर एक और यन्त्र मानव या रोबोट बैठा है जो यन्त्रवत् काम कर रहा है। अवधान हो जाने पर वही काम करता है। मातृ भाषा भी इसी का परिणाम है। वह बचपन में रोबोट तक पहुँच जाती है, फिर मूर्च्छित अवस्था में भी वही पुनरुक्त होती है। अवधान का रहस्य भी इसी से जुड़ा हुआ है। प्रतिसंलीनता में आत्मशान्ति मिलती है, विधेयक भाव जाग्रत होते हैं। साधक इससे अन्तर में प्रवेश करता है। बाह्यतप के प्रथम पाँच भेद शक्ति को एकत्रित करते हैं और प्रतिसंलीनता साधक को अन्तर में प्रवेश करा देता है जिससे आत्मशक्ति का प्रवाह स्वयं की ओर मुड़ जाता है। यहीं से संवर की यात्रा शुरु होती है। इसलिए इसे 'संयम' और 'गुप्ति' भी कहा जाता है। इसे स्पष्ट करने के लिए कच्छप का उदाहरण दिया गया है और कहा गया है कि साधक पाँच इन्द्रिय, चार कषाय, तीन योग और विविक्त-शय्यानासों का कच्छप की तरह गोपन करे। यही प्रतिसंलीनता है। यह अन्तर तप या आभ्यन्तर तप के लिए वस्तुत: द्वार कहा जाना चाहिए। आभ्यन्तर तप आभ्यन्तर तप के छ: भेद हैं- प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग। प्रायश्चित्त का तात्पर्य है प्राय: लोगों के मन में आये दोषों को दूर करने की प्रक्रिया। यह प्रथम अन्तर इसलिए रखा गया है कि इसमें साधक सबसे पहले स्वयं की गलती को देखे। साधारणत: गलती होने पर कभी कर्म पर आरोपण कर दिया जाता है तो कभी परिस्थिति पर, स्वयं को नहीं देखते। इसमें स्वयं के द्वारा स्वयं में ही निहारा जाता है। दूसरे की गलती पर ध्यान न देकर स्वयं को गलत स्वीकार कर लेना। इस स्वीकृति से अहंकार का दलन होता है और आत्मजागरण का संकल्प शुरू होता है। प्रायश्चित्त को पश्चात्ताप नहीं कहा जाना चाहिए। पश्चाताप में आपने जो किया उसके लिए संताप व्यक्त किया जाता है, पर स्वयं को देखा नहीं जाता। पश्चात्ताप में अहंकार की तृप्ति होती है, की हुई भूल पर क्षमा-याचना की जाती है, पर प्रायश्चित्त में व्यक्ति उससे भी आगे सोचता है कि वह गलती उसी की है। इससे स्वयं के भीतर झाँकने का अवसर मिलता है, उसे क्षमा करने का भी ध्यान नहीं करना पड़ता। यहाँ तो परमात्मा भी व्यर्थ हो जाता है। इसमें तो आत्म स्वीकृति मुख्य है, दोषों से विगलित होने की प्रक्रिया है। दर्प, प्रमाद, अनाभोग, आतुर, भय आदि के कारण व्रतों की साधना में दोष आ जाते हैं। प्रायश्चित्त से इन दोषों की शुद्धि की जाती है। इनकी शुद्धि के Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ उपाय हैं- अलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभयार्ह, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, दीक्षा छेद, पुनः दीक्षा-ग्रहण (उपस्थापना), अनवस्थाप्य और पारांचिकाई। प्रमादजन्य दोषों की शुद्धि के लिए इन मार्गों का विधान किया गया है। साधक प्रायश्चित्त में सारी गलती का आरोपण स्वयं पर कर लेता है कि यदि ऐसा नहीं होता तो उसे ऐसा नहीं करना पड़ता। उसका ध्यान यहाँ तक कि स्वयं के अतीत जन्मों पर चला जाता है कि उसने पूर्वजन्मों में भी इसी प्रकार भूलें की होंगी। इस सहज स्वीकृति से आत्म-विशुद्धि बढ़ जाती है और नये-नये द्वार उद्घाटित हो जाते हैं। प्रायश्चित्त के बाद विनय आता है। विनय बिना अहंकार-नाश के नहीं आता। इसमें दूसरे के दुर्गुण को देखने में न रस रहता है और न स्वयं को सज्जन प्रमाणित करने की आकांक्षा। यह तो एक विधेयात्मक गुण है, जहाँ अहंकार का कोई भाव ही नहीं है। इसमें यह भी नहीं देखा जाता है कि सामने खड़ा व्यक्ति अपने से छोटा है या बड़ा। अपने से श्रेष्ठ या बड़े व्यक्ति का आदर करना व्यावहारिक विनय है, क्योंकि अपने से छोटे या निकृष्ट व्यक्ति का फिर अनादर भी किया जा सकता है। पर विनय तप में ऐसा नहीं होता। वहाँ तो आदर दिया नहीं जाता, हो जाता है। तुलना का कोई स्थान विनय में नहीं है। वह तो एक आन्तरिक गुण है, विशुद्धि है। विनय-तप करने वाला गलती करने वाले के कर्मों पर विचार करेगा कि कर्मों के कारण उसे ऐसा करना पड़ा। दोष उसका नहीं उसके कर्मों का है। अत: कर्म करने वाले का अनादर क्यों किया जाये? व्यावहारिक विनय के आगे का कदम है विनय-तप, जहाँ सब कुछ स्वयं पर डाल दिया जाता है, ताकि किसी प्रकार का अहंकार न आ सके। इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार के माध्यम से विनय सम्पत्रता आ पाती है। वैयावृत्य का अर्थ है-सेवा। रोगी, वृद्ध, ग्लान आदि की निःस्वार्थ भाव से सेवा करना वैयावृत्ति है। यह वैयावृत्ति वस्तुत: अतीत कर्मों की निर्जरा के लिए होती है। इसका सम्बन्ध भविष्य से नहीं है। भविष्य तो स्वभावत: आत्मविशुद्धि के कारण मोक्ष प्रापक होगा पर वह साध्य नहीं है। साध्यता है, अतीत कर्मों की निर्जरा। इसलिए गहराई से विचार करने पर यह समझ में आयेगा कि जैनधर्म में दया और पुण्य को भी कर्मबन्धन का कारण माना गया है। ईसाई आदि धर्मों में सेवा को परमात्मा की प्राप्ति से जोड़ा गया है, पर जैनधर्म ने उसका सूत्र भविष्य से न जोड़कर अतीत से जोड़ा है, क्योंकि कोई स्वार्थ उससे न जुड़ा रहे अन्यथा अहंकार उठ खड़ा होगा। इसलिए वैयावृत्ति को उत्तम सेवा माना गया है। इस सेवा में न वासना की कोई गन्ध रहती है और न उसमें किसी प्रकार का रस रहता है। यह तो एक औषधि है, जिससे दूसरे का रोग मिटा दिया जाता है। साधक के मन में कर्तृत्व का भाव नहीं रहता। इस सेवा के क्षेत्र में आचार्य. उपाध्याय. स्थविर, तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित, कल (शिष्य समदाय), Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ गण, संघ और साधर्मिक (समनोज्ञ), निःस्वार्थ होने से यह वैयावृत्ति अन्तर- तप है और कर्म - निर्जरा का कारण बनती है। स्वाध्याय का तात्पर्य है— स्वयं का अध्ययन । यहाँ स्वाध्याय का अर्थ शास्त्रों का अध्ययन मात्र नहीं है, उस पर चिन्तन कर आत्म-शोधन करना उसका लक्ष्य है। यह स्वाध्याय वस्तुगत नहीं, आत्मगत होता है । वस्तुगत स्वाध्याय साधन है । पदार्थ के स्वभाव का अध्ययन कर उसकी क्षणभंगुरता पर चिन्तन होना चाहिए। कोरा ज्ञान तो अहंकार का कारण बन सकता है, पर स्वाध्याय से परम सत्य का ज्ञान होता है, मूर्च्छा विगलित होती है, मन मंजता है और साधक अप्रमादी होकर अन्तर में झांकने लगता है। यह झांकने की क्रिया वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश के माध्यम से स्वाध्याय की प्रवृत्ति जाग्रत होती है और आत्मजागरण होता जाता है । इसी एक को जानने से सभी को जाना जा सकता है। पाँचवां अन्तर- तप है-ध्यान । ध्यान का तात्पर्य है मन को एकाग्र करना । मन प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों भावों की ओर जाता है। प्रशस्त ध्यान की चर्चा तो सभी ने की है, पर अप्रशस्त ध्यान की ओर महावीर ने ही हमारा ध्यान आकर्षित किया है। पर पदार्थ की ओर चित्त को दौड़ाना अप्रशस्त ध्यान है । पर पदार्थ स्थिर रूप से कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसलिए यहाँ परमात्मा को भी अस्वीकार किया गया है। प्रार्थना भी जैनधर्म में गौण हो गई है, क्योंकि प्रार्थना में दूसरे की सहायता ली जाती है। जैनधर्म में सहायता की आवश्यता ही नहीं की गई है। यहाँ तो पर पदार्थों से सम्बन्ध समाप्त किया जाता है और स्वभाव में स्थिर हुआ जाता है। इसी को सामायिक कहा जाता है। सामायिक में समय का अर्थ है आत्मा, शास्त्र और काल । ये तीनों अर्थ अपने आप में बड़े महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं । काल का सम्बन्ध चेतना की गति से है । पदार्थ में लम्बाई-चौड़ाई - मोटाई तो होती है पर अचेतन पदार्थ में काल पर चिन्तन करने की शक्ति नहीं रहती । यह शक्ति चेतन पदार्थ में होती है और चेतन पदार्थ का मन दौड़ता रहता है, जो समय के बिना सम्भव नहीं होता। सामायिक में शास्त्र- स्वाध्याय के अनुसार अनुभूति का जागरण होता है, आत्मा पर चिन्तन होता है और चेतना की गति को स्थिर किया जाता है। अप्रशस्त ध्यान में मन आर्त और रौद्र भावों पर जाता है, क्रोधादि विकार भावों की ओर मुड़ता है वहीं पर प्रशस्त ध्यान नहीं है जहाँ मन पर पदार्थों से हटकर स्वभाव में स्थिर हो जाता है। प्रशस्त ध्यान में मन को विश्राम नहीं दिया जाता, क्योंकि जहाँ विश्राम की बात आती है वहाँ मूर्च्छा और निद्रा आ ही जाती है। यहाँ तो मन को स्मरण के माध्यम पृथक् किया जाता है । प्रतिक्रमण, जातिस्मरण और स्मरण के माध्यम से ध्याता स्वयं Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० को पर पदार्थों से पृथक् करके देखता है। यही भेदविज्ञान है। शब्द और अर्थ पर उसका मन संक्रमण करता रहता है। बाद में यह संक्रमण बन्द हो जाता है और पदार्थ की एक ही पर्याय पर पर ध्यान केन्द्रित हो जाता है। ध्यान की यह द्वितीय अवस्था बड़ी महत्त्वपूर्ण है। इसमें कषाय शान्त हो जाते हैं और परम वीतरागता प्रगट हो जाती है। इसी को पारिभाषिक शब्द में “एकत्व-श्रुत-अविचार" कहा जाता है, जहाँ केवलदर्शन और केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। इस अवस्था में सारे द्वन्द्व समाप्त हो जाते हैं। तीर्थङ्करों द्वारा कथित उपदेशों का चिन्तन-मनन, अनुकरण करते हुए आत्मा और शरीर के पृथक्त्व पर विचार करते हुए साधक शुक्लध्यान पर पहुँच जाता है। अरिहन्त परमेष्ठी की स्थिति में पहँचने पर साधक के नाम, गोत्र, वेदनीय और अघातीय कर्मों की स्थिति आयुकर्म से अधिक हो जाती है। उसे समान करने के लिए केवली अपने आत्मप्रदेशों को समस्त संसार में फैला देते हैं और आयुकर्म की स्थिति को बराबर शेष अघातीय कर्मों की स्थिति में कर लेते हैं। बाद में आत्मप्रदेश पूर्ववत् शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं। इसी को समुद्घात क्रिया कहा जाता है। इससे स्थूलकाय के माध्यम से स्थूल मनोयोग और वचनयोग का निरोध हो जाता है और श्वासोच्छवास के रूप में सूक्ष्म क्रिया बच जाती है। जब वह भी समाप्त हो जाती है तो केवली शैलेशी अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। इसी को चौदहवाँ गुणस्थान कहा जाता है। अन्तर तप का अन्तिम भेद है-कायोत्सर्ग। शरीर से पूर्णत: ममत्व छोड़ देना, शरीर के रहते हुए भी उससे चेतना को दूर हटा लेना कायोत्सर्ग है। साधक प्रतिदिन कायोत्सर्ग करता है और चेतना तथा शरीर के बीच स्थापित तादात्म्य को विच्छिन्न करने के भाव को दृढ़ करता है। इस अवस्था में अहंकार, ममकार, कषाय आदि सभी प्रकार की उपधियों का व्युत्सर्ग हो जाता है। सही मृत्यु की यही तैयारी है, यथार्थ ज्ञान प्राप्ति का यही छोर है। मैं शरीर नहीं हूँ, यह भाव दृढ़तर करने रहना ही मृत्यु की तैयारी है। मैं आत्मा हूँ, ज्ञान-दर्शनमय हूँ, जैसे विधायक भावों को चेतना में स्थिर कर लेना ही कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग में मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है, मोहनीय-कर्म का विनाश हो जाता है और पाप-पुण्य से परे, स्वर्ग-नरक से अलग मोक्षतत्त्व को प्राप्त कर लिया जाता है। तप का आधार चारित्रिक विशुद्धि तप का भी एक क्रम होता है। उसे धीरे-धीरे बढ़ाया जाता है। जिसका लीवर खराब हो जाता है उसकी जठराग्नि को उद्दीप्त करने के लिए पहले मूंग की दाल का पानी देते हैं और फिर धीरे-धीरे रोटी वगैरह देना प्रारम्भ करते हैं। इसी तरह तप की ओर साधक क्रमश: बढ़ता चला जाता है और अन्तत: मोक्ष प्राप्ति तक पहुँच जाता है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ इस उद्देश्य की प्राप्ति में चारित्रिक विशुद्धि एक आवश्यक तत्त्व है, जो तपस्या से उसी तरह जुड़ा हुआ है जिस तरह शरीर से त्वचा । इसी प्रकार मन को विशुद्ध करने के लिए ध्यान-साधना भी की जाती है, जिसमें शरीर, श्वासोच्छवास आदि पर चिन्तन-मनन किया जाता है। मन विशुद्ध न हो, मिथ्यात्व से भरा हो तो ऐसे तप को तप नहीं कहा जा सकता और न ही उसे आध्यात्मिक साधना का अंग ही माना जा सकता है क्योंकि ऐसा तप शरीर को कष्ट देने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। इस प्रकार मोक्ष की साधना में तपोयोग का सर्वाधिक महत्त्व है। संवर और निर्जरा का उत्तरदायित्व तपोयोग का ही होता है। तपोयोग की साधना में आहारशुद्धि, कायक्लेश, इन्द्रियसंयम और ध्यान - ये चार सूत्र हैं, जिनसे व्यक्ति में चिन्तन, अनुप्रेक्षा और भावना आता है तथा समता की प्राप्ति होती है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि तपस्या वृद्धावस्था में ही नहीं की जाती है, बल्कि वह उस समय भी की जानी चाहिए जब सारी इन्द्रियाँ अपने भरे यौवन पर हों । अन्यथा इन्द्रिय विजयी कैसे कहा जा सकेगा। वृद्धावस्था में सारी इन्द्रियाँ वैसे ही दुर्बल हो जाती हैं। विवश होकर व्यक्ति इन्द्रियभोग नहीं कर पाता । इन्द्रियों के दुर्बल होने पर यदि इन्द्रिय विजय की बात कही जाये, तो वह मात्र धोखा देना ही होगा। जिसने सारी जिन्दगी रावण की सेवा की हो वह मरते वक्त राम का नाम कैसे ले सकता है। संस्कार जैसे होंगे, अन्तिम समय भी वही संस्कार रहेंगे । इसलिए जैनधर्म प्रतिस्रोतगामी माना जाता है, संघर्षशील कहा जाता है। तप का यही रूप और स्वरूप है। सन्दर्भ विसयकसायविणिग्गहभावं काऊण झाण-सज्झाए । जो भाव अप्पाणं तस्स तवं होदि णियमेण । । कर्मक्षयार्थं तप्यते इति तपः । - स०सि० ९ ६ । वो णाम तावयति अट्ठविहं कम्मगंठिं नासेतित्ति वृत्तं भवइ । १, पृ० १५ । चरणम्मि तम्मि जो उज्जमो य आडंजणा यजो होई । सो चेव जिणेहिं तवो भणिदो असढं चरंतस्स ।। इह परलोयसुहाणं णिरवेक्खो जो करेदि समभावो । विविहं कायकिलेसं तवधम्मो णिम्मलो तस्स ।। बा० अणु० ७७ । - दशवै ० चू० भ० आ० १०। का० अनु० ४००। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राग-द्वेष भाव का विसर्जन ही त्याग है अर्थ और प्रतिपत्ति तप के बाद साधक का मन अपने शरीर से निरासक्त हो जाता है और वह त्याग की ओर बढ़ जाता है। यहाँ 'त्याग' और 'दान' दो शब्दों का प्रयोग होता है। साधारण तौर पर दोनों में अन्तर नहीं किया जाता है, पर गहराई से विचार करें तो दोनों शब्दों में अन्तर है। पदार्थ के प्रति राग-द्वेष भाव का विसर्जन करना 'त्याग' है। इस त्याग में 'स्व' को निमित्त बनाकर कषाय को छोड़ने का प्रयत्न किया जाता है। परन्तु 'दान' में दूसरे के लिए देने का भाव रहता है। उसमें राग का त्याग पर के निमित्त से होता है- स्वस्यातिसर्गो दानम्। पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में 'स्व-परानुग्रहहेतोः' कहकर त्यार्ग धर्म को स्पष्ट किया गया है। कन्दकन्दाचार्य ने समस्त द्रव्यों से मोह के त्याग को त्याग कहा है। उमास्वामी ने बाह्य, आभ्यन्तर, उपधि, शरीर और अनपानादि के आश्रय से होने वाले भाव-दोष के परित्याग को त्याग माना है। पूज्यपाद और अकलंक ने सचेतन और अचेतन परिग्रह की निवृत्ति को त्याग माना है। कुमारस्वामी ने मिष्ट भोजन, राग-द्वेषादि उत्पन्न करने वाले उपकरण और ममता भाव को उत्पत्र करने में होने वाले निमित्त रूप वसति के त्याग करने को त्याग कहा है। अभयदेवसूरि और सिद्धसेनगणि ने भी लगभग इसी प्रकार त्याग की व्याख्या की है। आगमों में त्याग के साथ ही प्रत्याख्यान शब्द का भी प्रयोग हुआ है। जो समानार्थक है। उत्तराध्ययन' में नव प्रकार के प्रत्याख्यानों की चर्चा आई है- संभोग (मण्डली भोजन), उपधि, आहार, आहार कषाय, योग, शरीर, सहाय, भक्त (भोजन) और सद्भावना प्रत्याख्यान। भगवती में प्रत्याख्यान को फल संयम बताया गया है। ठाणांग (स्थानाङ्ग ४.३१०) में चार प्रकार के त्याग का उल्लेख है- मन, वचन, काय और उपकरण त्याग। इनका सम्बन्ध साधुओं के भोजनादि दान से जोड़ा गया है। इन उल्लेखों से पता चलता है कि त्याग में वैराग्य-भावनापूर्वक शुभ-अशुभ योगों का त्याग किया जाता है और संपत्ति आदि का दान दिया जाता है। शुद्धोपयोग Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ की अपेक्षा से शभ प्रवृत्तियों के प्रति भी राग छोड़ दिया जाता है। श्रावकों के लिए दान, पूजा, अभिषेक, अतिथि-सत्कार आदि कर्तव्यों की गणना की गई है, जो लोभ को शिथिल करते हैं और अहं के विसर्जन में कारण बनते हैं। त्याग और दान जिनसेनाचार्य ने सभी प्रकार के दानों को अभयदान के अन्तर्गत रख दिया है। मन्दिर आदि प्रतिष्ठान वीतरागता की उत्पत्ति में सहायक बनते हैं और व्यक्ति को संसार से निर्भय बना देते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में आयी निर्भरता सभी गुणों के लिए आधारभूमि बन जाती है। भय के तीन क्षेत्र हैं- रोग, मौन और बुढ़ापा। जिन्हें अध्यात्म से कोई रस नहीं, प्रेम नहीं, वे इन तीनों प्रकार के भयों से ग्रस्त रहते हैं। पर अध्यात्म रस में डूबे हुए महात्मा बिलकुल निर्भय रहते हैं। सुकरात को कभी मृत्यु का भय नहीं रहा। रवीन्द्रनाथ टैगोर को कोई मारने आया तो उन्होंने कहा- “रुको, अभी पत्र पूरा कर लूं।" सुनकर मारने की तैयारी करने वाला चरणों में गिर गया। । त्याग-धर्म के साथ अन्तर्चेतना का स्फुरण सम्बद्ध है। कहा जाता है, एक ज्योतिषी ने भिखारी के घर को खुदवाकर रत्नभण्डार होने की सूचना दी। यह कथा इस ओर संकेत करती है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक अन्तर्चेतना है, जो शुभोपयोग और शुद्धोपयोग की ओर साधक को लगा देता है। किन्तु इसके लिए उसे अपनी वृत्तियों की भी गहरी खुदाई करनी होगी और उपवास व संकल्प शक्ति का विकास करना होगा। अभय बिना कोई भी व्यक्ति आध्यात्मिक नहीं बन सकता, इसलिए अभय को प्रणाम किया गया है- णामोत्थुणं अभयदयाणं। जब तक शरीर से मूर्छा है, तब तक भय बना रहता है। भय से ही पलायन होता है। पर पलायन करना उचित नहीं है। यदि व्यक्ति शरीर पर चिन्तन करे तो उसमें न मर्छा होगी, न भय होगा और न वह पलायन करेगा। राग-द्वेष भी विगलित होने लगेगा। त्याग करने वाले वीतरागी साधु का सत्संग आध्यात्मिकता के उन्मेष के लिए आवश्यक है। उनका उपदेश, प्रवचन सुनकर व्यक्ति अपना आभामण्डल बदल सकता है। वह ज्ञानदान, आहारदान, औषधिदान और अभयदान देकर अपने जीवन को कृतार्थ कर सकता है। ___ अन्धकार से प्रकाश में लाना, अंधे को ज्योति देना ज्ञानदान है। पाठशालायें, महाविद्यालय, साहित्य प्रकाशन संस्थायें आदि खोलकर साक्षरता के अभियान को तेज किया जा सकता है। भटकते व्यक्ति को सत्पथ पर लाना अनुपम पुण्य कार्य है। भूखों को भोजन देना अथवा साधुओं को आहार देना आहारदान है। चिकित्सालयों की स्थापना Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना औषधिदान है और पशु-पक्षियों की सेवा करना, ऐसी व्यवस्था करना कि कोई उनका शिकार न कर सके, अभयदान है। ये दान किसी भी आसक्ति के साथ नहीं दिये जाने चाहिए। आसक्तिपूर्वक दिया गया दान निरर्थक होता है। त्याग धर्म है और दान पुण्य है। पर-पदार्थ का त्याग तो हो सकता है, पर दान नहीं हो सकता। नदी निर्मल होती है त्याग से। तेनसिंह चढ़ा भार हलका कर। मुक्ति के लिए भी संसार सागर त्यागकर अपने परिग्रह का भार हलका कर प्रस्थान करना चाहिए। सांसारिक आसक्ति जोंक के समान खून चूसने वाली होती है। आसक्ति ही दो दिलों में भेद पैदा कर देती है। धन की चाह में भाई अपने भाई का गला काटने को तैयार हो जाता है। न्यायालयों की सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते पीढ़ियाँ दर पाढ़ियाँ अस्त हो जाती हैं, पर मुकदमों की श्वासें बन्द नहीं हो पातीं। त्याग और ग्रहण के बीच कभी-कभी अन्तर्द्वन्द्व चल जाता है। त्याग जब परिपक्व नहीं होता तो साधक का मन संसार में वापिस आने की ओर चंचल हो उठता है। भर्तृहरि और शुभचन्द्र तपस्वी हो जाते हैं, पर ऐसे ही अन्तर्द्वन्द्व में भर्तृहरि सही रास्ता नहीं अपना पाते। भर्तृहरि साधना कर ऐसी स्वर्ण रस सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, जिससे पत्थर भी सोना हो जाता है। शुभचन्द्र के पास वे रस भेजते हैं, यह सोचकर कि शुभचन्द्र दिगम्बर मुद्रा में दरिद्र हैं, अत: इस रस से वे स्वर्ण बनाकर धनी हो जायेंगे। शुभचन्द्र ने उस रस को यों ही फेंक दिया और कहा कि यदि सोना ही चाहिए था तो तपस्या क्यों की। अन्ततः भर्तृहरि को शुभचन्द्राचार्य सन्मार्ग पर ले आये। राग-द्वेषादि विकारों का त्याग कर देने पर इल्म, दौलत और शराफत एक साथ कैसे रह सकते हैं। कषायमक्ति: किलमक्तिरेव। दौलत का अर्जन करने के बाद यदि विसर्जन नहीं किया जाता तो वह दो लातें देकर घर के बाहर निकल जाती है। विसर्जन के साथ कोई इच्छा नहीं जुड़ी रहनी चाहिए। निष्काम दान और याचना के सन्दर्भ में वरतन्तु-कौत्स का उदाहरण प्रसिद्ध ही है। त्याग वस्तुत: पूरे मन से होना चाहिए और स्थिर होना चाहिए। जैसी करनी वैसी भरनी का ध्यान रखते हुए त्याग के वास्तविक रूप पर विचार करना चाहिए। इससे विचारों की पवित्रता और दूसरे की दृष्टि का आदर करने की प्रकृति का निर्माण होगा। धनार्जन यदि शुद्ध साधनों से नहीं होगा तो धन की दुर्गति ही होगी। साध्य और साधन की पवित्रता त्याग का मूल रूप है। ___ पवित्र हृदय से उद्भूत दान देने के संस्कार जीवन के अन्तिम समय में भी नहीं छूटते। कर्ण का उदाहरण हमारे सामने है। रथचक्र के धंस जाने पर असहाय अवस्था Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ में अर्जुन ने जब उसे बाणबिद्ध कर दिया तब भी उसने विप्र वेषधारी कृष्ण को अपना स्वर्णदन्त काटकर दान दे दिया। कवचदान तो उनका प्रसिद्ध ही है। इस तरह के ढेरों उदाहरण हमारे इतिहास में भरे पड़े हुए हैं। सामाजिक कल्याण के लिए महर्षि अंगिरस के माध्यम से बालक उत्तंक के जैसे आत्मोत्सर्ग के उदाहरण भी स्मरणीय हैं। त्याग और इन्द्रियवृत्ति ___ इन्द्रियाँ संवेदनशील होती हैं। वे बाह्य पदार्थों पर घूमकर सूचनायें एकत्रित कर मन के साथ उनमें रमण करती हैं। इस रमण की प्रक्रिया में इन्द्रियाँ चेतना पर हावी रहती हैं, जिससे आसक्ति-भोग का संसार गहरा होता जाता है। पर यदि चेतना इन्द्रियों पर हावी है और इन्द्रियाँ चेतना का अनुसरण करती हैं, तो वह त्याग है। ___इन्द्रियों का दास होने पर हमारी सारी वृत्तियाँ भोग की ओर दौड़ पड़ती हैं, अतृप्त होने पर स्वप्न और कल्पना का जाल मन बुनने लगता है। स्वप्न हमारे मन का ही विस्तार है। निर्बाध और स्वतन्त्र होकर स्वप्न-लोक में विचरण करना भोगी की वृत्ति बन जाती है। इन्द्रियाँ पदार्थ का स्पर्श करती हैं और हमारा मन उस स्पर्श में आसक्त हो जाता है। __पाँचों इन्द्रियों का क्षेत्र अलग-अलग है। स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्ष और श्रोत्र अपने-अपने विषय पर घूमते हैं इसलिए परस्पर विरोधी भी हैं। उनकी यह परस्पर विरोधी वृत्ति एक जटिल और दुःखदायी स्थिति में पहुँचा देती है। आंख जिसे सुन्दर मान रही है, नाक उसे स्वीकार करे यह आवश्यक नहीं है। वस्तु सुन्दर है, पर वह कडुवी है और दुगन्धित है तो उसे न रसनेन्द्रिय स्वीकार करेगी और न घाणेन्द्रिय समीप जायेगी। तब दुःख उत्पन्न होगा, मन संघर्ष करेगा और मन की प्रबलता के साथ उस विशेष इन्द्रिय की विषयवृत्ति प्रकट होगी। इन्द्रियाँ विषय के ऊपर दौड़ लगाती हैं और हमारा मन उन्हें भीतर ले जाना चाहता है। उन्हें भीतर ले जाने की वृत्ति में हमारी जागरूकता, चुनाव और सम्यग्दृष्टि नहीं रही तो त्याग हो ही नहीं सकता। मन तो कचड़े की पेटी है। सब कुछ उसमें चला जाता है। भीतर किसे ले जाना है, यह हमारे विवेक पर निर्भर होना चाहिए। इसलिए मूर्छा को परिग्रह कहा गया है। परिग्रही व्यक्ति का संसार आकलन और संग्रह तक ही सीमित होता है उसकी तिजोरी भरी रहनी चाहिए, इसी में उसे सुख मिलता है। वह तिजोरी सोने से भरी हो मा पत्थर से, यदि उसका उपभोग नहीं होता है तो सोने या पत्थर में क्या अन्तर है? परिग्रही को पकड़ होती है, उसमें उपयोगी वृत्ति नहीं होती। यही पकड़ वस्तुत: उसकी दरिद्रता या गरीबी का लक्षण है। वस्तु उस पर हावी है। उसे वह छोड़ नहीं सकता। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ त्याग में वस्तु हावी नहीं रहती, उसकी छोड़ने की वृत्ति मुख्य रहती है। छोड़ने में, त्याग में उसे आनन्द आता है। दान देने में, आसक्ति छोड़ने में उसे प्रसन्नता होती है। उसको याद रखने की भी उसे आवश्यकता महसूस नहीं होती। उस त्याग में भी राग हो जाये तो फिर त्याग ही कहाँ? जहाँ सम्मोहन होगा वहाँ त्याग हो ही नहीं सकता। मूर्छा और त्याग __ मूर्छा का तात्पर्य है वस्तु की कीमत हम से अधिक हो जाना। धनी होने का अर्थ सम्पत्ति को मात्र इकट्ठा करने से नहीं है, उसे अपने से बाहर नहीं होने देने से है। पैसा कमा लेने के बावजूद जो उसे छोड़ नहीं पाता, दान नहीं कर पाता वह अमीर नहीं, गरीब है। पकड़ गरीबी का लक्षण है, क्योंकि आप उसे बाँट नहीं पा रहे हैं, वस्तु पर आपका कोई अधिकार नहीं है। इसलिए दान करने वाला ही सही धनी कहा जाना चाहिए। सही धनी वह है जो त्याग करता है, पर उसकी शेखी नहीं बघारता, सूची बनाकर नहीं रखता। त्यागवृत्ति से दूर रहने वाला व्यक्ति आशा से बँधा रहता है। सदैव वह आपण लगाये रहता है कि इससे अभी और अधिक पाना है। इसलिए वह दुःखी रहता है। गरीब व्यक्ति दुःखी नहीं रहता, वह कष्ट में रहता है। प्रयत्न करने पर भी वह कुछ नहीं पाता। आशा करना विषाद को निमन्त्रित करना है। एक की पूर्ति हो जाने पर दूसरी की आकांक्षा दौड़ पड़ती है और यह तांता लगा रहता है, कभी खत्म नहीं होता। इसलिए दुःखी होना उसका स्वभाव बन जाता है। वस्तुत: आशाजन्य दुःख इन्द्रधनुष-सा होता है जो पास आने पर खो जाता है। आकाश को कभी छुआ नहीं जा सकता भले ही वह कहीं पृथ्वी से छूता हुआ दिखे। इसी तरह आशा-वासना कभी तृप्त नहीं हो पाती। अतृप्त होने से दुख का सागर बढ़ता ही रहता है। धन की उपयोगिता है मूल आवश्यकता की पूर्ति हो जाना। वस्तु का आवश्यकता से अधिक होना मिट्टी के समान है। पानी की उपयोगिता प्यास शान्त होने तक रहती है। प्यास शान्त होने पर वह निरर्थक हो जाता है। इसी प्रकार व्यक्ति जब अनावश्यक रूप से वस्तु इकट्ठा करने लगता है, तब उसका लोभ काम करने लगता है। फिर वह साधन नहीं, साध्य बन जाता है। अब जब साध्य बन जाता है, तब व्यक्ति कंजूस हो जाता है, मात्र संग्रह की वृत्ति हो जाती है। वह विसर्जन नहीं कर पाता। इसलिए धनी प्राय: कंजूस हुआ करते हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि बाहर का हमारा समूचा वातावरण हमारे अन्तर की वृत्ति को प्रतिबिम्बित करता है। ऐसा अनजाने ही वह करता रहता है। अचेतन रूप में उसकी आदत काम करती रहती है। हम इसीलिए दूसरे के दोषों को देखने के तो Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ आदी हो जाते हैं, पर अपने दोष नहीं देख पाते, क्योंकि अपने दोष अचेतन में चले जाते हैं। इसलिए सन्तों ने कहा है- 'निन्दक नियरे राखिए, आंगन कुटी बनाय।' भीतर जब खालीपन होता है तब लोभ उत्पन्न होता है। यह लोभ ऊपरी रहता है, क्योंकि अन्दर का खालीपन धन-सम्पत्ति से नहीं भरा जाता। अन्तर तो भरा हुआ ही है, हम उसे समझ नहीं पा रहे हैं। जो भरा है उसे हम खाली मान रहे हैं। आत्मा में कोई वस्तु रहती नहीं, इसलिए वह खाली दिखती है, पर वह खाली नहीं है, अनन्त गुणों का वह संग्रह है, जिसे लोभी व्यक्ति देख नहीं पाता। साधु भी यदि आत्मद्रष्टा नहीं है तो वह लोभी है, गृहस्थ है- “जे सिया सन्निहिकामे, गिही पव्वइए न से।" उत्तम त्याग वह है, जहाँ दान में कोई राग-द्वेष नहीं हो। दान यदि अपनी प्रतिष्ठा बनाने के लिए किया गया हो, पत्थर पर नाम लिखा कर अमर बनने के लिए किया गया हो, तो वह दान उत्तम त्याग नहीं है, मूर्छापूर्वक विसर्जन मात्र है। ऐसा दान तो एक सौदा है व्यापार है, इसलिए कर्म-निर्जरा का कारण नहीं कहा जा सकता है। सन्दर्भ .. णिव्वेग तियं भावइ मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु। जो तस्स हवे चागो इदि भणिदं जिणवरिं देहि।। - वा० अणु० ७८। त्यागो दानं, तच्छक्तितो यक्षविधि प्रयुज्यमानं त्याग:। - स०सि०, ६-२४। जो चयदि मिट्ठभोज्जं उवमरणं रायदोससंजणयं। वसदिं ममत्तहेदुं चायगुणो सो हवे तस्स।। - का० अनु० ४०१। चागो णाम वेयावच्चकरणेण आयरियो वज्झयादीणं महती कम्मनिज्जरा भवइ-- । दशवै० चू० १, पृ० १८। परप्रीतिकरणतिसर्जनं त्याग: - तत्त्वार्थवा० ६.२४.६. आहाराभयज्ञानानां भवाणां विधिपूर्वकमात्मशक्त्यनुसारेण पात्राय दानं शक्तितस्त्याग उच्यते- तत्त्वार्थवृत्ति श्रुत, २.२४. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्ममत्व की ओर बढ़ना ही आकिञ्चन्य है अर्थ और प्रतिपत्ति त्याग का आचरण करने के बाद साधक के पास स्वयं के अतिरिक्त बचता ही क्या है? वह अपरिग्रही हो जाता है। सांसारिक माया जाल में उसकी कोई आसक्ति नहीं रहती, वह मात्र एकत्व पर मनन करता है। कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार- सभी प्रकार से निःसंग होकर सुख-दुःख देने वाले आत्म भावों का निग्रह कर निर्द्वन्द्व रहना आकिञ्चन्य है। उमास्वाति, पूज्यपाद आदि आचार्यों ने भी “निर्ममत्व का होना आकिञ्चन्य है” ऐसा माना है। कुमारस्वामी ने कल है कि जो लोक-व्यवहार से विरक्त मुनि चेतन-अचेतन परिग्रह को मन, वचन, काय से सर्वथा छोड़ देता है उसे आकिञ्चन्य धर्म होता है। स्थानाङ्ग (४.३५३) में यह अकिञ्चनता चार प्रकार की बताई गई है- मन, वचन, काय और उपकरण की अकिञ्चनता। इसका तात्पर्य है मन, वचन, काय और उपकरण की निष्परिग्रहणता में ही एकत्व फलता-फूलता है। इस अवस्था तक आते-आते साधक अपने चिन्तन और दृष्टि के माध्यम से स्थिरतापूर्वक यह विचार करने लगता है कि संसार में जो आया है उसका जाना निश्चित है। दुनियाँ में सिकन्दर, हिटलर जैसे अनगिनत शक्तिशाली सम्राट हो चुके हैं, जिन्होंने लाख कोशिश की पर उन्हें जिन्दगी का एक क्षण भी उधार नहीं मिल सका। मृत्यु देवता ने दरवाजे पर जब भी दस्तक दी, वह खाली हाथ नहीं गया और यह भी उतना ही सत्य है कि कोई भी मुट्ठी बाँधकर नहीं ले गया। उसकी सारी सम्पत्ति और सारे पारिवारिक मित्र यहीं रह गये, कोई साथ नहीं गया। साधक की संवेग और वैराग्य भावना यही सोचकर दृढ़तर होती जाती है और सांसारिक पदार्थों से मोह छूटता चला जाता है। ___ मोह, ममता इतनी प्रबल होती है कि जल्दी से सरलतापूर्वक वह पीछा नहीं छोड़ती। इसलिए सबसे पहला काम साधक का यह रहता है कि वह मन को संयमित, करे और ऐसे निमित्तों से बचे जो उसे आसक्ति में जकड़ने के लिए खडे हुए हों। उसकी अन्तर्चेतना इतनी जाग्रत हो जाय कि निमित्त सामने रहने पर भी वह मन को आकर्षित Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ नहीं कर सके। स्थूलभद्र ने वेश्या के घर चातुर्मास किया और वेदाग वापिस आये। इतना ही नहीं उस वेश्या को भी अपने संवेगी रंग में रंग लिया। जबकी ईष्यालु दूसरा साधु भ्रष्ट हो गया। इसलिए बाह्य निमित्तों से बचने के साथ ही आन्तरिक कुभावों को पनपने न दे और सद्भावों की खेती को प्रोत्साहन मिलता रहे। साधना का मूल उद्देश्य साधना का मूल उद्देश्य है क्षमता को जाग्रत करना। यह क्षमता तब तक जाग्रत नहीं होगी जब तक हमें चैतन्य का सही अनुभव नहीं होगा और आत्म-साक्षात्कार नहीं होगा। सबसे अधिक नजदीक हमारा अपना शरीर है। उसके अंग-प्रत्यंगों पर गहराई से विचार करें और स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाते हुए यह देखने का प्रयास करें कि शरीर के बीच बसी हुई आत्मा शरीर से बिलकुल अलग है। उन दोनों के स्वभाव भी बिलकुल भिन्न-भिन्न हैं। एक समझौते के अन्दर वे एक साथ रहने के लिए कालबद्ध हैं। हंसना, रोना, सुख, दुःख आदि क्रियायें शरीर की नहीं हैं, पर वे उसके माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं। आत्मा स्वरूपत: परम विशुद्ध और अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुख-शक्ति भरपूर है, पर कर्मों के कारण उसका यह स्वभाव आवृत्त हो गया है। जैसे ही उसका यह आवरण हट जाता है, देह और आत्मा पृथक्-पृथक् हो जाते हैं, वे अपनी मूल प्रकृति में पहुँच जाते हैं। यह यात्रा बहुत लम्बी है। पाथेय इकट्ठा करना होगा उस पर चलने के लिए। तदर्थ 'तज्जीवतच्चछरीरवाद' को छोड़कर भेद-विज्ञान पर मन को टिकाना होगा। संसार का स्वभाव विषमता है। विषमता में समता पैदा करना सरल नहीं होता। सभी धनी हो जायें और सभी सुखी हो जायें, यह सम्भव नहीं। संसार में धनी होने और सुखी होने का अर्थ ही कुछ दूसरा है। आध्यात्मिक क्षेत्र में उसे मात्र सुखाभास कहेंगे, क्योंकि उस धन और सुख के नीचे बारूद की सुरंगे बिछी हुई हैं, दुःख की परतों पर परतें लगी हुई हैं। संसारी अतृप्त वासना से पीड़ित रहता है और उसी की तृप्ति में दिन रात आपा-धापी करता रहता है। फिर भी तृप्ति नहीं होती, क्योंकि तृप्ति का पेट अगाध रहता है। जितनी तृप्ति होती जाती है, उसका पेट उतना ही गहरा और फूलता चला जाता है। इस अतृप्ति को साधक अपनी सुलझी चेतना से देखता है और उसके नग्न सत्य का आभास पाकर वैराग्य की ओर मुड़ जाता है। उसके अन्तर में वैराग्य भावना का विकास होता है और समाधि के माध्यम से वह चित्त में फैली गन्दगी को दूर कर उसे सुस्थिर करता है। उसके सारे उपाय और साधन सम्यक् हो जाते हैं, पारे के समान चिन्तन होने के बावजूद मन को बांधने की कोशिश करता है और अन्तत: वह बंध भी जाता है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० संसार एक महास्वप्न है, जिसकी वैसाखी के सहारे संसारी सुखी होने की कल्पना करने लगता है। उसका सारा जीवन एक नाटक और अभिनेता का रहता है जो वास्तविकता से मेल नहीं खाता। अभिनय के दौरान यदि उसे लगातार यह आभास बना रहे कि वह अभिनय कर रहा है, वास्तविकता कुछ और है तो उसका चित्त एकत्व भावना से आप्लावित हो जायेगा और स्वयं को संसार में रहते हुए भी संसार रूपी जल से भिन्न कमलवत् मानता रहेगा । संसार कर्मों का फल है। आत्मचिन्तन के बिना सुख-दुःख की अनुभूति विषादमय हो सकती है। तृष्णा उस विषाद को और भी गहरा बना देती है। इसी तृष्णा के कारण कर्तृत्व, भोक्तृत्व और स्वामित्व की भावना से संसरण और लम्बा होता चला जाता है । भोगासक्त व्यक्ति पल भर के लिए वहाँ से बाहर निकलकर विवेक मार्ग नहीं पकड़ पाता । फलतः रुदन और क्रन्दन के अतिरिक्त उसके हाथ कुछ भी शेष नहीं रह जाता। " भोगो न भुक्तः वयमेव भुक्ताः कालो न याता वयमेव याता" की स्थिति बन जाती है। इस स्थिति से बचने के लिए साधक को धर्म का चिन्तन करना चाहिए । जन्म स्मरण, स्वप्न-दर्शन, देव-दर्शन आदि के माध्यम से आत्मचिन्तन में तीव्रता आती है और प्रज्ञा की उपलब्धि हो जाती है। प्रज्ञा से अलौकिक चेतना और अनुशासन का जन्म होता है, जो जीवन की दिशा को बिल्कुल मोड़ देता है । शरीर के प्रति प्रज्ञावान् की आसक्ति समाप्त हो जाती है, सांसारिक पदार्थों के प्रति अनुप्रेक्षाओं की भावना से मोह कम हो जाता है और आत्मा के प्रति ध्यान के माध्यम से चिन्तन परिष्कृत हो जाता है। 'अहम्' और 'मम' का त्याग आकिञ्चन्य में अहं और मम का विकल्प छिन्न-भिन्न हो जाता है। स्व-पर भेदविज्ञान से मिथ्यात्व, अज्ञान, कषाय आदि विकारभाव ध्वस्त हो जाते हैं और आत्मभाव पाने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। व्यावहारिक क्षेत्र में भी अकिञ्चनभाव अत्यन्त उपयोगी है। उसकी भावना आने पर संघर्ष और प्रतिक्रिया के भाव स्वतः समाप्त हो जाते हैं, स्वतन्त्रता और स्वावलम्बन जाग्रत हो जाता है और समतावादी दृष्टि पनपने लगती है। वीतराग स्वरूप का चिन्तन ही आकिञ्चन्य अर्थ का फल है । 'अहम्' और 'मम' मिटे के बिना आकिञ्चन्य भाव नहीं आ पाता । इस भाव में परिग्रह की सत्ता नहीं रहती । परिग्रह के कारण ही संसार में भटकना होता है। जन्म-मरण की प्रक्रिया की समाप्ति परिग्रह की समाप्ति के बिना नहीं हो पाती। इसलिए परिग्रह Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ को सबसे बड़ा पाप माना गया है। दसवें गुणस्थान तक परिग्रह बना रहता है। यही उसकी तीव्रता का निदर्शन है। भरत-बाहुबली का युद्ध परिग्रह का ही जनक है। संसार की इतनी माया से भी भरत को सन्तोष नहीं हुआ और उन्होंने अपने ही भाई बाहुबली पर आक्रमण करना चाहा। बाहुबली भी 'मैं' और 'मम' से जब तक छुटकारा नहीं पा सके तब तक उन्हें मोक्ष प्राप्त नहीं हो सका। कुछ लोग सोचते हैं अर्जन से ही विसर्जन होगा। इसलिए वे पैसा कमाने में लगे रहते हैं और फिर अपने ढंग से उसका विसर्जन करते हैं। यह बात सही है कि विसर्जन अर्जन के बिना नहीं होता। पर यह भी सही है कि अर्जन में जो मानसिक सन्ताप होता है वह विसर्जन से पूरा नहीं होता। यह तो वैसी ही बात हुई जैसे पहले कीचड़ में अपने पैर खराब कर लेना और फिर उन्हें पानी से साफ करने की बात सोचना। इससे तो अच्छा यही है कि हम कीचड़ में पैर ही नहीं रखे-- "प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम्।” तत्त्वार्थसत्र के नवम अध्याय में संवर और निर्जरा तत्त्व का वर्णन मिलता है। कर्मों का संवर और उसकी निर्जरा के लिए अप्रमादी होना बहुत आवश्यक है। कहा जाता है- भारण्ड पक्षी मृत्यु से इतना भयभीत रहता है कि वह कभी सोता नहीं है। सदा उड़ता ही रहता है यह सोचकर कि यदि वह सोयेगा तो मर जायेगा। साधक भी भारण्ड पक्षी की तरह मृत्यु का चिन्तन करता है और अप्रमादी होकर, त्रिगुप्तियों और पंच समितियों का पालन कर धर्म-साधना करता है। समय की धारा निरपेक्ष रहती है। वह किसी के लिए रुकती नहीं। यदि कोई यह सोचे कि उसका मुर्गा यदि बाग नहीं देगा तो सुबह नहीं होगी, तो यह उसकी मूर्खता ही होगी। मुर्गा बाग देकर सुबह होने की सूचना तो दे सकता है, पर सुबह होने के लिए कोई रोक नहीं सकता।। तीर्थङ्कर महावीर ने गौतम को अप्रमादी होने का उपदेश देकर उनके मोहभाव को कम किया। बुद्ध ने सारिपुत्र से कहा कि अब तुम मेरे प्रति भी राग छोड़ो और संसार से पार हो जाओ। यह है आकिंचन्य भाव की जागृति। यह जागृति अचेतन पदार्थ से ममत्व तोड़कर चेतन पदार्थ रूप आत्मा की साधना करने से होती है। अचेतन पदार्थ के प्रति लगाव ही हमारे दुःख का कारण है और फिर उसी दुःख में हम परमात्मा का स्मरण करते हैं। आकिंचन्य भाव में इस दुःख के मूल कारण रूप अचेतन के प्रति लगाव ही समाप्त हो जाता है। वह कमल के समान निर्लिप्त हो जाता है, वासना का दौर समाप्त हो जाता है और भीतर की ज्योति से बाहर के प्रति मोह टूट जाता है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ उत्तम आकिञ्चन्य अवस्था में साधक अप्रमादी हो जाता है। उसके मोह के कारण विगलित हो जाते हैं, इसलिए दुःख की सारी स्थितियाँ भग्न हो जाती हैं। ममत्व के कारण दुःख आता है। जब ममत्व ही चला गया तो दुःख कहाँ से आयेगा? पर-पदार्थों से 'मेरे' का भाव यदि तिरोहित हो गया, तो दुःख का नामोनिशान नहीं रहेगा। मात्र आनन्द का प्रवाह बहेगा, यहाँ तक कि मन-विचार भी समाप्त हो जायेगा। इस अवस्था में अन्तर और बाहर समान हो जाते हैं। बाह्य आचरण अच्छा हो और अन्तर में ज्वालायें धधक रही हों तो फिर दुर्वासा ऋषि की स्थिति आ जायेगी। साधु का आचरण यदि मुखौटा हो, अन्तर नहीं बदलेगा। यही कारण है कि कभी-कभी न चाहते हुए भी हम अपशब्द निकाल देते हैं। अन्तर यदि बदल गया, शुद्ध हो गया तो बाह्य स्वतः शुद्ध हो जायेगा। यदि किसी कारणवश अशुद्ध हो भी गया तो वह क्षणिक ही रहेगा। इसलिए जैनधर्म समग्रता का पक्षधर है। अन्तर और बाहर दोनों समान रूप से शुद्ध होना चाहिए और साधक का चिन्तन अडिग होना चाहिए कि सांसारिक पदार्थों में उसका कोई राग नहीं है। आत्मधर्म के अतिरिक्त उसका और कोई तत्त्व नहीं है। यही उसका आकिंचन भाव है। सन्दर्भ होऊण य णिस्संगो णियभावं णिग्गहित्तु सुहदुहदं। णिदं देण दु वट्टदि अणयारो तस्सऽकिंचण्हं।। - बा० अणु० ७९ । तिविहेण जो विवज्जदि चेयणमियरं च सव्वहा संगं। लोयववहारविरदो णिग्गंथतं हवे तस्स।। - का० अणु० ४०२। उपान्तेष्वपि शरीरादिषु संस्कारापोहाय ममेदमित्यभिसन्धिनिवृत्ति: आकिञ्चन्यम्। नास्य किञ्चनास्तीति अकिञ्चन: तस्य भावः कर्म वा आकिञ्चन्यम् --- स०सि० ९-६; अन०ध० स्वोन्टीका० ६.५४। शरीरधर्मोपकरणादिषु निर्ममत्वमाकिञ्चन्यम्। - त०भा० ९-६। ममेदमित्यभिसन्धिनिवृत्तिराकिञ्चन्यम् तत्त्वार्थवा. ९.६.२१. उपानेष्वपि शरीदादिषु संस्कारापोहनं नैर्मल्यं वा आकिञ्चन्यम् ---- त०सुखवो, ९.६. नास्ति अस्य किञ्चन किमपि अकिञ्चनो निष्परिग्रहः, तस्य भावः कर्म वा आकिञ्चन्यम्। निजशरीरादिषु संस्कारपरिहाराय ममेदमित्यभिसन्धिनिषेधनमित्यर्थः -- त०वृत्ति० श्रुत०, ९.६. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा में रमण करना ही ब्रह्मचर्य है अर्थ और प्रतिपत्ति आकिञ्चन्य धर्म का पालन करने बाद साधक निष्परिग्रही हो जाने के कारण आत्मरमण करने की स्थिति में आ जाता है। ब्रह्म का अर्थ है-आत्मा। अनगारी साधक आत्मा में रमण करता है, आत्मचिन्तन करता है और सागार या श्रावक वर्ग अपनी कामवासना को सीमित करने के लिए ब्रह्मचर्याणुव्रत को धारण कर लेता है। साधक मुनि वर्ग पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करता हैं और उपासक वर्ग एक देश ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करता है, वह स्वदार संतोषी अर्थात् परदारत्यागी होता है। ___कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार स्त्रियों के सब अंगों के देखते हुए भी उनमें दुष्टभाव नहीं करना ब्रह्मचर्य है। उमास्वाति ने इसे और अधिक स्पष्ट कर यह और कह दिया कि इष्ट मनोज्ञ स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्द, विभूषादि से आनन्दित न होना ब्रह्मचर्य का विशेष गुण है। व्रतों के परिपालन के लिए गुरुकुल में वास करना ब्रह्मचर्य है। पूज्यपाद ने इसमें अनुभूत स्त्री का स्मरण न करना, स्त्री विषयक कथा-श्रवण का त्याग करना और स्त्री से सटकर सोने या बैठने का त्याग करना और जोड़ दिया है। अकलंक, सिद्धसेन गणि, कुमार कार्तिकेय आदि आचार्यों ने इसी कथन का समर्थन किया है। __ इन सारी परिभाषाओं का केन्द्रबिन्दु है काम-गुणों पर विजय प्राप्त करना। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध के उपभोग में निरपेक्ष हो जाना, तटस्थ हो जाना और समभाव द्वारा उन सभी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना ब्रह्मचर्य धर्म है। इसे निरतिचारपूर्वक परिपालन करना आवश्यक है। पाँच काम गणों में आसक्ति के लिए क्रमश: प्रसिद्ध हैं- हरिण, हाथी, पतंगा, भ्रमर और मछली। कामगुणों की आसक्ति के कारण ये प्राणी अपनी जान गंवा देते हैं। यदि पाँचों कामगुण किसी एक व्यक्ति में केन्द्रित हो जायें तो उसकी क्या स्थिति होगी, विचारणीय है। तन्त्र परम्परा और जैन चिन्तन तन्त्र परम्परा में अनुभव करने के बाद ही उससे मुक्त होने की बात कही गई है, पर जैन परम्परा इसके विपरीत है। उसका मन्तव्य है कि इस प्रकार का अनुभव एक आदत का रूप ग्रहण कर लेता है, जिससे मुक्त होना सरल नहीं होता। अत: आदत Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ डालने का मौका ही न आने दिया जाये। आदत बनने के पहले ही उस ऊर्जा को ऊपर उठने का अवसर दिया जाये, तो अधिक अच्छा है। कांट ने तो ब्रह्मचर्य में हिंसा होने का विचार व्यक्त किया है, जो सही नहीं है। विज्ञान की दृष्टि से सम्भोग में दस करोड़ जीवों का घात होता है। उनमें से एक ही बाहर आ पाता है। अत: अब्रह्मचर्य को ही हिंसा कहा जाना चाहिए। ब्रह्मचर्य व्यक्ति को स्वतन्त्र बना देता है। शरीर का शृङ्गार दूसरों के लिए किया जाता है। विपरीत का आकर्षण होता ही है। आत्मा की खोज में विपरीत का कोई उपयोग नहीं होता। इसमें सम्यक् सन्तुलन की आवश्यकता होती है। स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन भी उपयोगी नहीं रहता। सम्यक् और शुद्ध शाकाहारी आहार हो, तभी ब्रह्मचर्य व्रत का संरक्षण हो सकता है। इस उद्देश्य को पाने के लिए इन्द्रिय वासनाओं पर विजय प्राप्त करना और आहार में रस-त्याग करना बहुत ही आवश्यक है। रस-त्याग किये बिना आत्मानुभव नहीं हो सकता। ब्रह्मचर्य और आधुनिक मनोविज्ञान वस्तुत: शक्ति एक है। उसका उपयोग करना हम पर निर्भर करता है। हमारी वृत्ति और प्रवृत्ति उस शक्ति को नीचे ले जाये या ऊपर ले जाये। इसका निर्णय हमें स्वयं करना पड़ेगा। योग में काम का अनुभव नहीं किया जाता, पर तन्त्र अनुभव के रास्ते से गुजरना आवश्यक मानता है। महावीर की दृष्टि में काम का अनुभव आदत का रूप ले लेता है और फिर आदत से मुक्ति पाना सरल नहीं होता। हमारा अधिकांश जीवन आदत पर ही चलता है। काम भी एक आदत है, रस है। यदि उसका अनुभव ही न किया जाये तो फिर आदत बनने का प्रश्न ही नहीं उठता। आज का मनोविज्ञान कहता है कि बालक पर प्रारम्भिक अवस्था में जैसे संस्कार गिर जायें, सारे जीवन फिर वह उन्हीं संस्कारों से जीता है। अधिक से अधिक सात साल तक बच्चे को संस्कारित किया जा सकता है। उसके बाद उसे बदलना सरल नहीं होता। गर्भाधान से ही हमारे संस्कारों की नींव पड़ जाती है। इसलिए उस पथ से चलना ही नहीं चाहिए जहाँ गड्ढे हों, गिरने का भय हो। महावीर इसलिए इस प्रकार के अनभव से दूर रहना ही हितकर मानते हैं। __ काम आसत्र केन्द्रीय भाव है। हमारी अधिकांश प्रवृत्तियाँ उसी के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। इसलिए अनुभव पाने की व्यग्रता से मुक्त होना सरल नहीं है। इस स्थिति में एक मार्ग यह है कि व्यक्ति अनुभव पाने के लिए गृहस्थ-मार्ग का अनुकरण करे, पर अध्यात्म का चिन्तन न छोड़े। अणुव्रत की स्थापना के पीछे यही एक उद्देश्य है कि व्यक्ति कामादिक भाव को यदि न सह पाये तो सीमित होकर उसका अनुभव कर ले और वहीं से महाव्रती बनने का संकल्प करे। अणुव्रती से महाव्रती बनने का एक यह भी मार्ग है जहाँ किसी भाव का दमन नहीं किया जाता, बल्कि अनुभव के माध्यम Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ से क्रमश: उसका शमन किया जाता है। महावीर के धर्म में ये दोनों मार्ग हैं, जो अपनी शक्ति के अनुसार ग्रहण किये जा सकते हैं। स्वानुभव की चेतना और ध्यान धर्म का मूल आधार अनुभव की चेतना है। मृग में कस्तूरी भीतर छिपी है, पर वह बाहर दौड़ता रहता है। प्रियता और अप्रियता के कारण उसे अन्तर्जगत में छिपी सम्पत्ति का भाव नहीं होता। जब तक मूर्छा का कठोर आवरण मन पर से नहीं हटेगा तब तक निजता की प्रतीति नहीं हो सकती। पारसमणि पर रखा हुआ कपड़े का आवरण जब तक अलग नहीं किया जायेगा, तब तक पारसमणि सोना बनाने का काम नहीं कर सकता। अहं और मम के आवरण ऐसे ही हैं, जिनसे केवलज्ञान प्रकट नहीं हो पाता। ब्रह्म अर्थात् आत्मा का साक्षात्कार करने के लिए संकल्प-शक्ति का विकास करना नितान्त आवश्यक है। स्वाध्याय और चिन्तन के माध्यम से चैतन्य पर ध्यान किया जाये तो मन की चंचलता को काबू में किया जा सकता है। बोझ लादकर कोई तैराक तैर नहीं सकता, उसे निर्भर होना पड़ेगा नदी को पार करने के लिए। खाली होने की इसी क्रिया को अध्यात्म कहा जाता है। निर्विचार और निर्विकल्प ध्यान चित्तवृत्तियों से मुक्त कर देता है और प्रतिरोधात्मक शक्ति का विकास करता है। स्वाध्याय करते-करते हमारी आस्था गहरी होती जाती है, मूर्छा विगलित होने लगती है और दृष्टि में विशुद्धता तैरने लगती है। चेतना का लक्षण ही है-उपयोग या अनुभव या अस्तित्व का बोध, जहाँ 'कोऽहं' का उत्तर 'सोऽहं' में मिल जाता है। यह आत्मबोध स्वयं को पहचाने के बिना नहीं हो पाता।संघर्ष वहीं होता है, जहाँ दो पदार्थ होते हैं। नमि राजर्षि की बीमारी को दूर करने के लिए चन्दन लेप तैयार करने में चूड़ियों की कर्कश आवाज आयी। सभी महिलाओं ने सारी चूड़ियाँ उतार दी, मात्र एक-एक चूड़ी पहने रहीं। आवाज तुरन्त बन्द हो गई। यह जानकर नमि राजर्षि का ध्यान इस तथ्य पर गया कि दो के रहने से ही आवाज आती है। अकेला रहना ही अच्छा है, श्रेयस्कर है। राजर्षि ने ध्यान का और स्वस्थ होने का सुन्दरतम सूत्र पाया। मृत्यु का चिन्तन बेहोशी को दूर करने का अमोघ साधन है। काया का उत्सर्ग कर दिया जाता है, शरीर और चेतन अलग-अलग दिखाई देने लगते हैं, तो मन वासना से स्वयमेव दूर हट जाता है। श्मशान में ध्यान करने के पीछे यही चिन्तन छिपा है कि व्यक्ति मृत्यु और पदार्थ की यथार्थता को समझें और आत्म-चेतना को जाग्रत करें। प्रात:काल व सन्ध्याकाल भी ध्यान की दृष्टि से इसीलिए उपयोगी माना जाता है कि यह संक्रमण काल है और संक्रमण की भावधारा चिन्तन के साथ जुड़ सके। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर ही एक ऐसे चिन्तक हुए हैं, जिन्होंने सबसे पहले अप्रशस्त-ध्यान की बात कही है। रागादि विकारों के साथ जो ध्यान किया जाता है उससे स्वयं की या ब्रह्म की उपलब्धि नहीं होती। कुछ शक्ति केन्द्रित ऋद्धियाँ और मन्त्र-तन्त्र प्रवृत्तियाँ ऐसी ही होती हैं जो दूसरे को नुकसान पैदा करती हैं, विनाशात्मक होती हैं या भोगोपभोग की सामग्रियाँ प्रस्तुत करती हैं। इसके विपरीत प्रशस्त-ध्यान होता है, जो रागादि विकारों को दूर करने के लिए किया जाता है। यही वास्तविक ध्यान है। इसी से साधक अपने स्वभाव में पहुँचने का प्रयत्न करता है। ऐसे ही ध्यान को सामायिक कहा गया है। महावीर ने यहाँ समय का अर्थ आत्मा और टाइम (काल) दोनों किया है। वहीं साथ ही समय का अर्थ आगमशास्त्र भी निर्दिष्ट है। चिन्तक और दार्शनिक आइन्स्टीन ने हर वस्तु में तीन आयाम माने हैं- लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई। इसी के साथ चौथा आयाम है समय, आत्मा और काल। चेतना की गति भी समय में ही होती है। निर्जीव पदार्थ में नहीं होती। जातिस्मरण, प्रतिक्रमण आदि तत्त्व इसी ध्यान अथवा सामायिक में होती हैं। ब्रह्मचर्य : आत्मचिन्तन की चरित्र परिणति ब्रह्मचर्य में संयम आदि सभी धर्मों का आकलन हो जाता है। दशलक्षणमूलक धर्मों में यह अन्तिम धर्म है, जिसे हम महापर्व की साधना का फल कह सकते हैं। काम व्यक्ति की स्वाभाविक प्रकृति है। पर ब्रह्मचर्य उससे भी अधिक आनन्द का महाकेन्द्र है जिसे संयम के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। शिव ने तीसरे नेत्र से काम को भस्म कर दिया। यह पिच्युटरी ग्रन्थि को जाग्रत करने का फल है। प्राण ऊर्जा नाभि से नीचे की ओर प्रवाहित होती है तो काम ग्रन्थि खुलती है और जब वह ऊपर की ओर प्रवाहित होती है तो वह ज्ञानग्रन्थि खोल देती है, जहाँ प्राण ऊर्जा का संचय होता रहता है। ज्ञानग्रन्थि खोलने का काम ब्रह्मचर्य-व्रत का है। यही उसका प्रतिफल है। उत्तम ब्रह्मचर्य आत्मचिन्तन की चरम परिणति है, वह समूची ध्यान-प्रक्रिया और प्रशस्त भावनाओं का केन्द्रबिन्दु है, जहाँ आत्मा के मूल स्वरूप को प्राप्त किया जा सकता है। यहीं से समाज-निर्माण का काम भी प्रारम्भ हो जाता है। अतीन्द्रिय शक्ति का जागरण भी इसी केन्द्र से होता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की समन्वित अवस्था का विकास भी यहीं चरम सीमा पर होता है। यही आत्मसिद्धि है। हर इन्द्रिय वासना से जुड़ी हुई है। आज का मनोविज्ञान कहता है कि वासना का हर कोण काम से जुड़ा हुआ है। अर्थात् हर इन्द्रिय के सूत्र कामवासना से जुड़े हुए हैं। इसलिए साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपना सारा ध्यान इन्द्रिय वासना से हटाकर मोक्ष मंजिल पर लगा दे। इन्द्रियों को रस न मिलने पर काम-वासना स्वत: समाप्त होने लगती है। ब्रह्मचर्य को इसीलिए मक्ति का मार्ग माना जाता है और Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ उसे दस धर्मों में अन्तिम धर्म चरम परिणति के रूप में रखा है। ब्रह्म का अर्थ आत्मा भी है। अर्थात् इन्द्रिय वासना से पूर्णतः मुक्त हुआ व्यक्ति ही आत्मरमण कर सकता है। आत्मरमण करने वाले साधक में शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श इन पाँचों काम गुणों में कोई रस नहीं रहता। उनके देखने पर भी मन में कोई कम्पन नहीं होता, ध्यान वहाँ जाता ही नहीं है। अत: रस-त्याग के बिना आत्मानुभव हो ही नहीं सकता। आत्मानुभव होने पर इन्द्रियों का रस सुखद न होकर दुःखद लगने लगता है और सच तो यह है कि समस्त दुःखों का मूल ही इन्द्रियाँ हैं। सुख यदि है भी तो क्षणिक रहता है। इसलिए संसारी व्यक्ति उसी क्षणिक सुख को बार-बार पाने की कोशिश में लगा रहता है। क्षणिक क्षणिक ही है। वह शाश्वत नहीं हो सकता। शाश्वत सुख पाने के लिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना अपरिहार्य है। महावीर ने इसीलिए कहा है कि जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन करता है, इन्द्रियों से अपना सम्बन्ध तोड़ लेता है, अन्तर-ध्यान करता है उसे देव, दानव, गन्धर्व आदि भी नमस्कार करते हैं देवदाणवगन्धव्या जक्ख-रक्खस-किन्नरा। बंभयारि नमंसन्ति, टुक्करं जे करेन्ति तं।। इतिहास में महावीर प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने मानव जन्म को इतना अधिक महत्त्व दिया है और उसे दुर्लभ माना है। सभी धर्म देवों को बड़ा ऊँचा स्थान देते हैं, उनके अभिन्न सुखों की कल्पना करते हैं, पर महावीर कहते हैं कि यदि देव मोक्ष प्राप्त करना चाहते हैं, तो उन्हें मनुष्य जन्म लेना पड़ेगा और ब्रह्मचर्य-व्रत धारण करना पड़ेगा, क्योंकि परम वीतरागता और चेतना का ऊर्ध्वारोहण मनुष्य जन्म में ही हो सकता है। ऐसे निष्काम साधक के चरणों में देव भी नमस्कार करते हैं। ब्रह्मचर्य : अध्यात्म जागरण का सूत्र ब्रह्मचर्य अध्यात्म चेतना को जाग्रत करने का अनोखा साधन है। इसमें साधक आत्मचिन्तन करता है शरीर पर विचार करता है और सांसारिक पदार्थों पर विमर्श करता है, यही अध्यात्मवाद है। इसमें शरीर और आत्मा तथा स्व और पर-पदार्थों के बीच सम्बन्ध पर गहराई से ध्यान किया जाता है। यहाँ आत्मा प्रधान और शरीर गौण हो जाता है। आत्मा चैतन्यमय है और शरीर अचेतन है। आत्मा अविनश्वर है और शरीर विनाशशील है। अध्यात्म के मूल तत्त्व हैं- आत्मा, आत्मा की मनुष्य, देव आदि पर्यायें, पुनर्जन्म, कर्म, मृत्यु की अवश्यंभाविता, सोऽहं, कोऽहं के उत्तर की खोज। इन तत्त्वों पर जितना गहन चिन्तन निष्पक्षता और विशुद्धता से किया जायेगा, उतनी ही विवेक बुद्धि जाग्रत होगी, उतनी ही भोक्ता की सापेक्षता समझ आयेगी और स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने का सूत्र हाथ लगेगा। Fort Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ संसार समस्याओं से भरा एक कंटकाकीर्ण जंगल है, जहाँ एक साधारण व्यक्ति प्रवेश करते ही भयभीत हो जाता है। पर यदि उसकी धार्मिक चेतना का निर्माण हो जाता है, बुद्धि के साथ ही विवेक जाग्रत हो जाता है तो वह निर्भयता की सीढ़ियाँ चढ़ जाता है और प्रलोभन से दूर रहकर अपने आपको जानने का प्रयत्न करता है। ऐसा निर्भय और विवेकशील व्यक्ति ही संसार की समस्याओं से दूर रह सकता है और दूसरे को भी सन्मार्ग पर ला सकता है। धर्म की कितनी भी परिभाषायें कर दी जायें पर यदि वे हमें जीवन जीने की कला नहीं दे सकी तो उन परिभाषाओं में अधूरापन ही रहेगा। अभय, समता और क्षमाशीलता ही धर्म है। इन्हीं से जीवन-मूल्यों की साधना होती है। उसमें सार्वजनीनता, सार्वकालिकता और सार्वदर्शिकता आती है और आत्मसाक्षात्कार का द्वार उद्घाटित होता है। मन कोरा कागज है। हमारी भावनायें संस्कार और वृत्तियाँ उस पर चित्रित हो जाती हैं, जिससे उसकी स्वाभाविकता चंचलता द्विगुणित हो जाती है। संकल्प, विकल्प और विचारों के अन्तर्द्वन्द्वों में झूलता यह मन व्यक्ति को साधना से गिराने में कोई कर. नहीं रखता। इसलिए साधक उसे एकाग्रता की डोरी से कसकर बाँध लेता है और निर्विचार की स्थिति में पहुँचने का भरपूर प्रयत्न करता है। इस प्रयत्न में विशुद्ध मान्त्रिक शक्ति और आन्तरिक परीक्षण उसका विशेष सहयोगी होता है। जीवन में आध्यात्मिकता को पल्लवित करने के लिए इन्द्रियों पर अनुशासन रखना आवश्यक है। इसके लिए आहारशुद्धि, सम्यग्योग तत्प्रतिसंलीनता और कायोत्सर्ग जैसे साधन उपयोगी माने जाते हैं। इन्द्रियों को वश में रखने वाली कथाओं से साहित्य भरा पड़ा है। बड़ी मार्मिक और हृदयवेधक ये कथायें संयम और सन्तोष की शिक्षायें देती हैं। यही संयम और सन्तोष जीवन का शृङ्गार है। कांक्षी और आसक्त व्यक्ति तनावग्रस्त रहता है और उससे बीमारियों को आमन्त्रित करता है। अहं और मद का विसर्जन कर उससे मुक्त होने के लिए साधक को कायोत्सर्ग करना चाहिए। चिता समान चिन्ता को दूर कर शरीर के प्रति ममत्व छोड़ देना चाहिए। मानसिक एकाग्रता और ध्यान के माध्यम से तनाव-मुक्त हुआ जा सकता है। अपने आप पर नियन्त्रण स्थापित कर और अवेगों को समाप्त करने की दिशा में कदम बढ़ाने से हमारी चेतना जाग्रत हो जायेगी। जीवन की तलाश आध्यात्मिकता में हो पाती है, अन्यथा साधक निष्ठुर-सा हो जाता है। मानसिक पतन एवं चारित्रिक क्षरण के साथ संवेदन शून्यता आ जाती है। व्यक्ति वस्तु के स्वभाव पर निष्पक्ष होकर चिन्ता करे तो वह इस चारित्रिक पतन से बच सकता है और पर्यावरण दूषित होने से उत्पन्न समस्याओं से मुक्त हो सकता है, Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ आशा और तृष्णा के कारण व्यक्ति भौतिक साधनों को एकत्रित करता है। प्रकृति के साथ क्रूर व्यवहार करता है और हिंसक साधनों का उपयोग कर सृष्टि पर प्रहार करता है। तीर्थंकर महावीर ने जिस अहिंसक, संयमित ओर मानवीय जीवन-पद्धति का सूत्रपात किया है, उसका परिपालन करने से ये समस्यायें उत्पन्न ही नहीं होती। पर्यावरण को सुरक्षित रखने और सामाजिक सन्तुलन को बनाये रखने में जैनधर्म ने जो अहिंसा और अनेकान्त के सिद्धान्त दिये हैं, वे निश्चित ही बेमिशाल हैं। उनका यदि सही ढंग से परिचालन किया जाये तो विश्वशान्ति प्रस्थापित होने में बड़ी मदद मिल सकती है। भौतिकता की अन्धाधुन्ध चकाचौंध जीवन में संघर्षों को आमन्त्रित करती है। अनन्त आकांक्षायें अपनी आशा के पर बांधे आकाश में उड़ने लगती हैं और अपूर्त होने की स्थिति में धड़ाम से नीचे गिर जाती हैं, पंख कटकर पानी के बबूले जैसे बिखर जाते हैं। संसार के मायाजाल को सत्य के कटोरे में लेकर व्यक्ति घूमता फिरता है, अनेक मुखौटे लगाकर उसकी रक्षा करता है और धक्के लग जाने पर वह टूटकर बिखर जाता है। सारी जिन्दगी की यही कहानी है। * ब्रह्मचर्य किंवा अध्यात्म भीतर का दीपक है, जो इस कहानी को सही ढंग से, सही आँखों से देखता है और सूत्र देता है जीवन को सही ढंग से समझने का, उसके साथ बतयाने का। जब तक मुखौंटों को अलगकर सत्य की ऋचाओं का संगीत कानों में नहीं पहुँचता, तब तक हृदय की वीणा के तार अनखुले ही रह जायेंगे और जीवन के सूत्र कटते चले जायेंगे। पर्युषण जैसे पवित्र पर्व ऐसे बिखरे सूत्रों को संयोजित करने का एक अमोघ साधन है, अपूर्व अवसर है जिसे हाथ से नहीं खोना चाहिए। सन्दर्भ १. सव्वंगं पेच्छंतो इत्थीणं तासु मुयदि दुब्भाव। सो बम्हचेरभावं सुक्कदि खलु दुद्धरं धरदि।। - बा० अणु० ८०। २. जीवो बंभा जीवम्मि चेव चरिया हविज्ज जा जदिणो। ते जाण बम्भचेरं विमुक्कपरदेहतित्तिस्स।। - भ० आ० ८७८। ३. ज्ञानं ब्रह्म दया ब्रह्म ब्रह्मकामविनिग्रहः। सम्यगत्रं वसत्रात्मा ब्रह्मचारी भवेन्नरः।। - उपासका०, ८७२। आत्मा ब्रह्म विविक्तबोधनिलयो यत्तत्र चर्यं परं स्वाङ्गासंगविवर्जितैकमनसस्तद् ब्रह्मचर्यं मुनेः। एवं सत्यबला: स्वमातृभगिनीं पुत्रीसमा: प्रेक्षते वृद्धाद्या विजितेन्द्रियो यदि तदा स ब्रह्मचारी भवेत् । - पद्म०पंच०, १२.२। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભાષાના વિકાસમાં પ્રાકૃત–પાલિભાષાનો ફાળો પંડિત બેચરદાસ માનવકુલમાં પરસ્પર કૌટુંબિક સંબંધ જે રીતે તુલનાત્મક પરીક્ષણ દ્વારા અનુભવાય છે તે જ રીતે ભાષાકુલમાં પણ એવો જ સબંધ સ્પષ્ટપણે છે એમ હવે સિદ્ધ થઈ ગયું છે. ધારો કે આપણી સામે જુદાં જુદાં દેખાતાં પાંચસાત કુટુંબનાં ભાઈબહેનો બેઠેલાં છે, તેમની એકબીજાની વપરાશની ભાષા જુદી જુદી છે, તેમનો પોશાક, ખાનપાન અને બીજી પણ રહેણીકરણી નોખી નોખી છે. આ ઉપલક દેખાતા ભેદભાવ દ્વારા આપણે એમ સમજી લઈએ કે એ કુટુંબો વચ્ચે પરસ્પર કોઈ પ્રકારનો સંબંધ નથી જ તો એ ખરેખર ભૂલભરેલું ગણાય. કોઈ તુલનાત્મક દષ્ટિ ધરાવનારો ખંતીલો અભ્યાસી એ તદ્દન જુદાં જુદાં જ દેખાતાં કુટુંબોમાં ય તેમનામાં રહેલી એક મલિક સમાનતા શોધી બતાવે અને તે મૌલિક સમાનતાના પુરાવા તરીકે આપણી સામે તે કુટુંબોમાં વર્તતી કેટલીક તેમની એકસરખી મૂલ ખાયિતો એક પછી એક વીણીવીણીને તારવી બતાવે ત્યારે માત્ર ઉપલક ભેદને લીધે અત્યાર સુધી એ કુટુંબોને જુદાં જુદાં માનનારા આપણે પણ તેમને એક માનવા લાગીશું. આવો જ ન્યાય ભાષાકુળને પણ બરાબર લાગુ પડે છે. જે ભાષાઓનો મૂળ પ્રવાહ જ તદ્દન જુદો છે તેમના સંબંધમાં ભલે આ ન્યાય ન લાગુ થાય; પરંતુ જેમનો પ્રવાહ મૂળમાં એકસરખો છે તેમને વિશે તો જરૂર ઉપરનું ધોરણ બંધ બેસે એવું છે. ઉપરઉપરથી જોતાં ભલે તે ભાષાકુટુંબો તરત જુદાં જુદાં પરસ્પર એકબીજા વચ્ચે સબંધ વિનાનાં માલુમ પડતાં હોય તેમ છતાં ય ત્યારે તે ભાવાકુટુંબોની અંદર રહેલી એક મૌલિક સમાનતાને આપણે જાણી શકીએ અને તેના પુરાવા તરીકે આપણી સામે તે નોખા નોખા દેખાતા ભાષાકુલોમાં વર્તતી કેટલીક તેમની એકસરખી મૂલભૂત અનેકાનેક ખાસિયતોને આપણે સ્પષ્ટપણે તેમના તુલનાત્મક પરીક્ષણ દ્વારા પૂરેપૂરી ખાતરીથી અનુભવી શકીએ ત્યારે એ ભાષાકુલો વિશેનો આપણે કલ્પેલો ઉપલકિયા ભેદનો ભ્રમ ભાંગે જ ભાગે. પ્રસ્તુતમાં પ્રાકૃતપાલિ ભાષા વિશે કહેતી વખતે આપણે તેમના મૂળ સુધી પહોંચી જઈએ તો જ એ હકીકત સ્પષ્ટપણે આપણું ધ્યાનમાં તત્કાળ ઊતરી જશે કે એ ભાષાએ ચાલુ લોકભાષાઓના વિકાસમાં કેવો અને કેટલો ભારે ફાળો આપેલો છે. આજથી હજારો વરસ પહેલાં મૂળ એક આર્યભાષા હતી. પરિસ્થિતિનાં જુદાં જુદાં બળોને લીધે તેની બીજી અનેક પેટાભાષાઓ બની ગઈ. જેમકે; હીટાઈટ ભાષા, ટોખારિયન ભાષા, સંસ્કૃત ભાષા, પુરાણ ફારસી ભાષા, ગ્રીક ભાષા, લેટિન ભાષા, આઈરિશ ભાષા, ગોથિક ભાષા, લિથુઆનિઅન ભાષા, પુરાણ સ્લાવ ભાષા અને આર્મેનિઅન ભાષા. ભાષાનાં આ નામ સાંભળતાં કોઈને પણ એમ લાગવાનો સંભવ નથી કે આ બધી ભાષાઓ એકમૂલક વા અભિનપ્રવાહવાળી છે, તેમ છતાં ય તેમના તુલનાત્મક પરીક્ષણ દ્વારા એમ ચોક્કસ માલુમ પડેલ છે કે ભલે તે ભાષાઓનાં નામો જુદાં જુદાં હોય અને બીજી પણ તેમાં ઉપલક જુદાઈ ભલે દેખાતી હોય; પરંતુ તેમનામાં એટલે તે બધી ભાષાઓમાં મૂળભૂત એવી એકસરખી અનેક ખાસિયતો હોવાનાં ઘણાં ધણું એધાણું મળી આવેલાં છે એટલે તેમને એકમૂલક માન્યા વિના કોઈની પણ વ્હો નથી. आचार्य विजयवल्लभ सूरि स्मारक-ग्रन्थ, मुम्बई १९५६ ई० से साभार Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩૧ » દોમોટુ * એમનામાં જે એકસરખી અનેક ખાસિયતો છે તે બધી વિશે તો કહેવાનું આ સ્થાન નથી; છતાં તેમની પારસ્પરિક એકમૂલકતાનો સ્પષ્ટ ખ્યાલ આવે તે સારુ તેમના કેટલાક શબ્દો આ નીચે નોંધી બતાવું છું સંસ્કૃત પતિઃ ગ્રીક પોતિ લેટિન પોતિસ લિથુઆનીઅન પતઈસ - અપિ " એપિ પિબામિ બિબો • ભરામિ ફેરો ફેરો આર્મેનિયન બેરેમ ” ત્રયઃ ” બેસ્ટ સ દમ: દોમુસ્ સ્લાવ દમ્ ” પાદમ ” પોદ પદેમ ” ધુમઃ ” થેમોસ્ટ ” ફેમુસ્ લાવ ઘણુ રુધિર ” એગ્રોસ ” બેર (સંસ્કૃત સિવાયની બીજી બીજી ભાષાઓના જે એકસરખા શબ્દો ઉપર દર્શાવ્યા છે તેમને હું શુદ્ધ રીતે અહીં આપણું ગુજરાતી લિપિમાં ઉતારી શક્યો નથી એથી અહીં બતાવેલા શબ્દો દ્વારા તેમનાં શુદ્ધ ઉચ્ચારણું કરી શકાય એમ નથી.) તે તે ભાષાનાં નામો પ્રજા ઉપરથી કે દેશ ઉપરથી પ્રચલિત થયેલાં છે. ઉત્તરમાં વસનારાઓની ભાષાનું નામ ઉદીચ્ય ભાષા, પૂર્વમાં વસનારાઓની ભાષાનું નામ પ્રાગ્ય ભાષા, મધ્યપ્રદેશમાં વસનારાઓની ભાઈ નામ મધ્યદેશીય ભાષા. એ જ રીતે મગધ દેશની માગધી ભાષા, શરસેન દેશની શારસેની ભાષા, પિશાચ દેશની પશાચી ભાષા, અવંતી દેશની ભાષા અવંતિજ, સુરાષ્ટ્રની સૌરાષ્ટ્રી, મહારાષ્ટ્રની મહારાષ્ટ્રી, વિદર્ભની વૈદર્ભ, ગ્રેઈક નામની પ્રજાની ટોળીની ગ્રીક ભાષા, લેટિનમ નામના કની લેટિન ભાષા, આયૉની ઈરાની ભાષા, લોકોમાં પ્રચલિત ભાષાનું નામ લૌકિક ભાષા. આ રીતે ભાષાના નામકરણની ઘણી પ્રાચીન પ્રથા છે, આમાં ક્યાંય સંસ્કૃત ભાષા, પ્રાકૃત ભાષા કે અપભ્રંશ વા અપભ્રષ્ટ ભાષા આવાં નામ મળતાં નથી. મહાભાષ્યકાર જેવા કટ્ટર સનાતની પુરોહિતે પણ સંરક્ત નામે ભાષાનો ઉલ્લેખ કરેલો નથી. ત્યારે અહીં એ પ્રશ્ન થવો સ્વાભાવિક છે કે એ નામો આવ્યાં શી રીતે ? એ નામોનો ઉદ્દભાવક કોણ? આનો ઉત્તર અતિસંક્ષેપમાં આમ આપી શકાય: થોડા સમય પહેલાં આપણા દેશમાં રાજશાહી હતી, તેનો અને તેની અતિસંકુચિત પ્રકૃતિનો આપણને અનુભવ છે. જે લોકો માત્ર પોતાની જ જાતને નરી સુખી સુખી જેવા વા કરવા ચાહે છે તેમને પોતાના ભાઈઓ તરફ પણ જુલમગારની પેઠે વર્તવું પડે છે, માટે જ તે સુખાર્થીઓની પ્રકૃતિ અતિ સંકુચિત બની જાય છે. એવી રાજશાહી જેવી જ આશરે બેત્રણ હજાર વરસ પહેલાં આપણા દેશમાં પુરોહિતશાહી ચાલતી હતી. માણસ માત્ર સમાન હકના અધિકારી છે એ નિયમને નહીં સ્વીકારી તેણે પોતાની જાતને સૌથી ઉત્તમ કલ્પી અને બીજી તમામ જનતાને પુરોહિતો માત્રથી ઊતરતી ગણી, આ સાથે તે પુરોહિતશાહી એ જ પોતાની ભાષાને પણ ઉત્તમ કોટિની માની અને બીજી આમજનતાની ભાષાને અનુત્તમ કોટિની કહી અર્થાત તે પ્રાચીન પુરોહિતવિપ્રોએ પોતાની ભાષાને સંરક્ત એવું નામ આપ્યું અને જનતાની ભાષાને પ્રાકૃત અથવા અપભ્રષ્ટ કે અપભ્રંશ નામ આપ્યું. એવો આ સંસ્કૃત પ્રાત વા અપભ્રંશ નામોની પાછળ વર્તમાનમાં તો ઘણું આવે એવો ઇતિહાસ છુપાએલ છે. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩ ૨ વસ્તુસ્થિતિએ વિચારવામાં આવે તો સૌ કોઈ તટસ્થને એમ ચોકખું જ જણાશે કે અમુક ભાષા ઉત્તમ છે અને અમુક ભાષા અનુત્તમ છે એવી કલ્પના જ વાહિયાત છે વા અમુક ભાષાને બોલનારો વર્ગ શિષ્ટ છે અને અમુક ભાષાને બોલનારો વર્ગ અશિષ્ટ છે એવી કલ્પના પણ વળી વધારે વાહિયાત છે અને માનવતાનું દેવાળું કાવનારી છે. કોઈપણ ભાષાનું મૂલ્ય તેના ખરા અર્થવહનમાં છે. જે ભાષા જે લોકોને માટે બરાબર અર્થવાહન કરનારી હોય તે ભાવે તેમની દૃષ્ટિએ બરાબર છે એટલે કયાં જાય છે એ વાક્ય જેટલું અર્થવાહક છે તેટલું જ બરાબર અર્થવાહક “ઓ જાય છે” એ વાક્ય પણ છે, માટે એ બેમાંથી એકે વાકયને અશિષ્ટ કેમ કહેવાય ? ભાષાશાસ્ત્રની દષ્ટિએ તો અમુક એક ભાષા શિષ્ટ છે અને અમુક એક ભાષા અશિષ્ટ છે એવી કલ્પના તદ્દન અસંગત છે. એ શાસ્ત્ર તો દરેક ભાષાનાં ઉચ્ચારણ અને તેનાં પરિવર્તનોનાં બળોને શોધી કાઢી તેમની વચ્ચેની સાંકળ બતાવી ભાષાના ક્રમિક ઈતિહાસની કેડી તરફ આપણને લઈ જાય છે. એ શા બતાવેલી કેરીને જોતાં આપણી ભારતીય આર્યભાષાના વિકાસની મુખ્ય મુખ્ય રેખાઓની ભૂમિકાઓ આ પ્રમાણે છેઃ ભારત-યુરોપીય ભાષા, ભારત-ઈરાની ભાષા અને ભારતીય-આર્ય ભાષા. પ્રસ્તુતમાં અંતિમ એવી ભારતીય આર્ય ભાષા વિશે ખાસ કહેવાનું છે. ભારતીય આર્ય ભાષાની પણ પ્રધાનપણે ત્રણ ભૂમિકાઓ છે: પ્રાચીન ભારતીય આર્ય ભાષા, મધ્યયુગીન ભારતીય આર્ય ભાષા અને નવ્ય ભારતીય આર્ય ભાવા. આ ત્રણે ભૂમિકાઓને સંસ્કૃત, પ્રાકૃત અને અપભ્રંશ ભાષારૂપે પણ સમજાવી શકાય. આપણી આર્ય ભાષાનો ઈતિહાસ ઘણો પ્રાચીન છે. આવો અને આટલો પ્રાચીન ઇતિહાસની કોઈ ભાષાને હોય એવું હજી સુધીમાં જણાયેલ નથી. જે કે મથાળામાં પ્રાકૃત અને પાલિ એ બે નામો જુદાં જુદાં બતાવેલાં છે; છતાં ય વસ્તુસ્થિતિએ એક પ્રાકૃત નામમાં જ તે બન્ને ભાષાનો સમાવેશ થઈ જાય છે. પ્રાકૃત ભાષાઓ ભારતીય આર્ય ભાષાના ઈતિહાસની એક અગત્યની ભૂમિકારૂપ છે. ભગવાન મહાવીર, ભગવાન બુદ્ધથી માંડીને ભારતીય તમામ સંતોએ એટલે પેલા યુગના પૂર્વ ભારતના સરહપા, કહ૫, મહીપા, જયાનંતપ વગેરે સિદ્ધો, દક્ષિણ ભારતના જ્ઞાનેશ્વર, તુકારામ, ઉત્તર ભારતના તુલસીદાસ, કબીર, નાનક, પશ્ચિમ ભારતના નરસિંહ મહેતા, આનંદઘન વગેરે સંતોએ પોતાના સાહિત્યનું મુખ્ય વાહન પ્રાકૃત ભાષાઓને બનાવેલ છે. અહીં એ યાદ રાખવું જરૂરી છે કે આ પ્રાચીન અને અર્વાચીન તમામ સંતો આમજનતાના પ્રતિનિધિસમ હતા અને આમજનતાના સુખદુઃખના સમવેદી હતા. પ્રાકૃત ભાષાનું પ્રધાન લણે આ પ્રમાણે આપી શકાય. એક તરફથી પ્રાચીનતમ ભારતીય આર્ય ભાષા એટલે ઠેઠ વેદોની ભાષા અને બીજી તરફથી વર્તમાનકાળની બોલચાલની ગુજરાતી, હિન્દી, મરાઠી, બંગાળી વગેરે ભાષાઓ. એ બન્ને વચ્ચે અર્થાત્ આદ્ય ભાષા અને અંતિમ ભાષાના સ્વરૂપોની વચ્ચે વર્તનારા ભારતીય ભાષાના ઇતિહાસની જે સાંકળરૂપ અવસ્થા છે તેને પ્રાકૃતનું નામ આપી શકાય વા પ્રધાન લક્ષણ ગણી શકાય. કોઈ ને કોઈ પ્રકારે પ્રાકૃતસ્વરૂપે સંક્રમણ પામ્યા પછી જ તે આઘ અથવા પ્રાચીનતમ ભારતીય ભાષા, આર્ય ભાષા વા વેદોની ભાષા વર્તમાન કાળે બોલચાલમાં વર્તતી નવીન ભારતીય ભાષાના રૂપમાં પરિણામ પામી શકે, એ એક ભાષાશાસ્ત્રનો સુનિશ્ચિત સિદ્ધાંત છે. એવી જાતનાં વિવિધ સંક્રમણ વિના આ નવી અનેક આય ભાષાઓનો ઉદ્દભવ કેમ કરીને થાય? Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩૩ આવાં ભાતભાતનાં સંક્રમણોમાં પસાર થતાં પ્રાકૃત ભાષાઓ આ નવી ભાષાના રૂપને પામી છે એ જ એમનો ના વિકાસમાં મોટામાં મોટો ફાળો છે. ભાષાઓના કમવિકાસની પ્રક્રિયા એ ભાષાશાસ્ત્રનો મૂળ પાયો છે. ધ્વનિઓનું વિવિધ પ્રકારનું સંક્રમણ કાંઈ આકસ્મિક નથી તેમ અનિયમિત પણ નથી. એ સંક્રમણ સર્વથા વૈજ્ઞાનિક નિયમને વશવતી છે અને તે અમુક અમુક નિયમોને વશવત હોઈ એકદમ સુનિયમિત છે, આમ છે માટે જ આપણું પ્રાચીન ભાષાકુળો અને અર્વાચીન ભાષાકુળો વચ્ચે એકસરખું સાંગ અનુસંધાન સચવાયેલ છે અને એને લીધે જ ભૌગોલિક પરિસ્થિતિને લીધે નોખા નોખા પડી ગયેલા છતાં એક આર્ય ભાષા બોલનારા આપણામાં એટલે તમામ પ્રાંતના અને તમામ વર્ગના લોકોમાં એવો કોઈ મોટો વિચ્છેદ થઈ ગયો હોય એવું ભાવિકાસની દષ્ટિએ જરાય જણાતું નથી વા પરાપૂર્વથી ચાલ્યા આવતા આપણું સામાજિક પ્રવાહમાં કોઈ મોટું અંતર પડી ગયું હોય એમ પણ અનુભવાતું નથી. ગંગાનાં પાણી નિરંતર બદલાયાં કરતાં હોવા છતાં જેમ તે એકરૂપમાં દેખાય છે તેમ આપણી પ્રાચીન પરંપરાઓ અને અર્વાચીન પરંપરાઓ નિરંતર બદલાતી રહી છે તો તેમાં સાંગસૂત્રતા અખંડતા અભિન્નતા સતત સાતત્ય ટકી રહેલાં છે એવું આજે હજારો વરસ પછી પણ આપણે અનુભવીએ છીએ એ પ્રતાપ ભાષાઓના સંબંધમાં સચવાયેલી મૌલિક સમાનતાનો છે એમાં લેશ પણ શક નથી. આયપ્રધઓ જ્યારે વિજેતારૂપે ભારતમાં ઉતરી પડી અને આતર પ્રજાઓ સાથે સંઘર્ષમાં આવી ત્યારે આર્યપ્રજાની ભાષાઓને પણ બીજી અનેક આર્યતર પ્રજાઓની ભાષાઓ સાથે બરાબર સંઘમાં ઊતરવું પડેલું અને એમાં કેટલેક અંશે વિજ્ય મેળવ્યા પછી જ આર્ય ભાવે ભારતમાં પોતાનું સાંસ્કૃતિક સ્વરૂપ પ્રાપ્ત કરી શકી. વેદોના સમયથી માંડીને બ્રાહ્મણગ્રંથોના સમય સુધીની આર્ય ભાષા પોતાના સમયની બીજી બીજી અનેક આતર ભાલાઓ સાથે સંઘર્ષમાં આવતાં છતાં કેટલીક માંડવાળ પછી પોતાનું સ્વરૂપ બરાબર ટકાવીને વિજયી બની માટે જ એ ભાષાને ભારતીય આર્ય ભાષાની પ્રથમ ભૂમિકારૂપે ગણી શકાય. એક બીજી પ્રજાઓથી અતા રહેવું વા બાહ્ય રંગ કે ચોકખાઈના મિથ્યાભિમાનથી પ્રેરાઈ બીજી બીજી આતર પ્રજાઓ સાથે સંસર્ગમાં ન આવવું એ વૃત્તિ આર્યોમાં નહતી. જેમાં સમુદ્રમાં અનેક નદીઓ ભળી જાય છે અને સમુદ્રરૂપ બની જાય છે તેમ આર્યોમાં અનેક આર્યેતર પ્રજાઓ એવી રીતે ભળી ગઈ છે કે પછી તેને આતર કહીને નોખી પાડવાનાં એંધાણે જ જાણે ભૂંસાઈ ગયાં હોય એવું બની ગયું અને આર્યોનો એક નવો એવો મોટો સમાજ જ બની ગયો. આનો અર્થ એ થયો કે હવે કોઈ અતર છે એમ કળાવું જ અશક્ય બની ગયું – આર્ય અનાર્ય તે બધા વચ્ચે પરસ્પર લોહીનો સંબંધ, કામકાજનો ગાઢ સંબંધ, ભાષાઓનો પણ પરસ્પર વિનિમય; એને લીધે એકબીજી ભાષાઓએ આર્યોની ભાષા ઉપર સારી એવી અસર કરી અને એ અસરને આયોએ બરાબર આવકારી પણ ખરી, તેમ આર્યોની ભાષાએ આતર ભાષાઓ ઉપર પણ સામી એવી જ અસર કરી. આમ એક બીજી ભાષાઓમાં કોઈએ કશું ય આભડછેટનું તત્વ મુદ્દલ નહીં સ્વીકારેલું, પરંતુ દરેક ભાષાએ બીજી ભાષાની અસરને આવવા દેવા પોતાનાં બારણું તદ્દન ખુલ્લાં રાખેલા. આવી વિશાળહૃદયી પરિસ્થિતિને લીધે આ ભાષાએ આતર ભાષાના હજારો શબ્દોને પોતામાં પોતાની રીતે સમાવી લીધાના જે પ્રામાણિક પુરાવાઓ ભાષાસંશોધકોને મળી આવ્યા છે તેમાંના કેટલાક આ પ્રમાણે છે: Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩૪ ભારત અને બેબિલોનિયા વચ્ચે ઘણું મોટું અંતર છે; છતાં જ્યારે આર્યો ત્યા, ફરતાં ફરતાં પહોંચેલા ત્યારે ત્યાંનાં આજથી આશરે ત્રણેક હજાર વરસ પહેલાનાં સંધિપત્રમાં ત્યાંના આતર રાજકર્તાએ પોતાના ઇષ્ટદેવનાં જે નામો લખેલાં હતાં તે જ નામો આપણું આયોનાં પણ ઇષ્ટદેવનાં બની ગયાં. બેબિલોન સંધિપત્રમાં વેદમાં ઈદ-ર મિ-ઈત-ત-૨ મિત્ર અર્જુન અથવા ઉ-૬-વન વરુણ ન-અસત-તિય નાસ નાસત્ય શબ્દ વેદમાં યુગલરૂ૫ અશ્વિનો માટે વપરાયેલ છે. બેબિલોનિયા માટે સર્વેદમાં મંડળ ૧ સુક્ત ૧૩૪ મંત્ર ૧-૭ માં બેલસ્થાન શબ્દ આપેલ છે અને બિબ્લિક પ્રજા માટે વેદમાં ભિન્ફગ્ય શબ્દ વપરાયેલ છે. આર્ય પ્રજા ઓસ્ટ્રિક પ્રજઓ સાથે, દ્રવિડ પ્રજાઓ સાથે અને તિબેટીચીની પ્રજાઓ સાથે સંબંધમાં આવી ત્યારે તે તે પ્રજાની ભાવના પણ હજારો શબ્દો આર્ય ભાષામાં આર્ય રીતે મળી ગયેલા શોધી કઢાયા છે. તેમાંના ઘણા જ થોડો આ છે: આર્ય ભાષામાં ભળી ગયેલા આતર શબ્દો : કેટલાક ઓસ્ટ્રિક શબ્દો : તિતઉ એટલે ચાલણ ઓસ્ટ્રિક ઉચ્ચારણ આર્ય ઉચ્ચારણ રાકા ” પૂનમ પોનહુ એટલે બાણ સિનિ વાલી » ચંદ્રની કળા જણાતી કોપેહ કપસ-કપાસ હોય એવી અમાસ કદલી-કેળ નેમ છે અડધું માતંગ ૧ માતંગ-હાથી પિક કોયલ નિયોરકોલઈ " નારિકેલ-નાળિયેર કિતવ જગારી અથવા ધૂર્ત વાહતિઆગ » વાતિંગણવાગણઅટવી અટવી-જંગલ વેંગણ કલાલ કુંભાર ચીનાઈ તિબેટી ઉચ્ચારણ આર્ય ઉચ્ચારણ તલ ” તાંદુલ–ચોખા છું એટલે ક્ષુ-ઈખ–શેરડી તિલ તલ ખોંગ ૨ » ગંગા જેમ કોઈપણ ચાલુ વહેતી નદીમાં બીજા બીજ પ્રવાહો ભળી ત૬૫ બની જાય છે તેમ જ આપણી આવતી અને જનતામાં ફેલાયેલી આ ભાષામાં ય આવા હજારો આતર શબ્દો ભળી જઈ આર્યરૂપ બની જાય એ કોઈપણ જીવતી ભાષા માટે તદન સ્વાભાવિક છે. વેદોમાં, બ્રાહ્મણગ્રંથોમાં અને ત્યારપછીના મહાભારતથી માંડીને અત્યાર સુધીનાં સંસ્કૃત સાહિત્યમાં એવા આતર શબ્દોને આર્યરૂપે બનાવી વગર સંકોચે તે તે ષિઓએ અને કાવ્યકાર પંડિતોએ ખપમાં લીધેલા છે એટલું જ નહીં, પણ આપણા ૧. ખોરાકમાં માતંગનો અર્થ “મોટો હાથથાય છે. ૨. ચીનાઈ તિબેટીમાં ખગનો અર્થ “નદી' થાય છે. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩૫ એટલે આર્યપ્રવાહમાં એવાં કેટલાંય આતર કર્મકાંડો, પ્રણાલિકાઓ અને પરંપરાઓ આયરૂપ પામી આજલગી ચાલતાં આવેલાં છે, એની પણ કોઈ વિચારક સંશોધક ના નહીં પાડી શકે. આપણામાં આતર લોહી આર્થરૂપ પામી ભળેલું છે એ હકીક્ત કાંઈ આજના શોધકોએ જ શોધી કાઢેલ છે એમ નથી, પરંતુ આપણા મહર્ષિ મીમાંસાશાસ્ત્રકાર શબર અને મહાપંડિત કુમારિલભદ પણ એ હકીકતને સ્પષ્ટપણે જાણતા હતા, તેથી એ બાબત તેમણે પોતાના શાબર ભાગ્યમાં તથા તત્રવાર્તિકમાં નોંધ આપેલી છે અને ત્યાં ખાસ ભલામણ પણ કરેલી છે કે જે આ બે ભાષાના એટલે આર્ય ભાવા અને આતર ભાષાના જાણકાર હશે તેઓ વેદોની પરંપરાને અને વેદોના ભાવને ઠીક ઠીક સમજી શકશે. આ રીતે સમગ્ર માનવમત્રીના એયને વરેલી આર્ય પ્રજા અને તેની આર્ય ભાષા પોતાના વિકાસમાં આગેકૂચ કરી રહી હતી. ભ્રમણમાં આગળ ને આગળ વધતી આયોની ટોળીઓ જ્યારે ભારત-ઈરાની આર્ય ભાષાના સહવાસમાં આવી ત્યારે એ બન્ને ભાષાઓએ વળી એકબીજાની છાપ પરસ્પર બરાબર લગાડી દીધી, તે હકીકત પણ આજે વર્તમાન જે અવેસ્તા સાહિત્ય છે તે દ્વારા સ્પષ્ટ જણાઈ આવે છે. આ નીચે એવાં કેટલાંક નામો, વિભક્તિવાળાં નામો અને ક્રિયાપદો એ બન્ને ભાષાનાં આપ્યાં છે જેથી એ બન્ને ભાષાઓનો અત્યંત નિકટનો સંબંધ સહજ રીતે ખ્યાલમાં આવી જશે. ભારત-ઈરાની આર્ય ભાષા ભારતીય આર્ય ભાષા અસ્ત વોડુ વસુ-પવિત્ર સુક્ત બૂમી ભૂમિ સત્રા એટલે સાથે અહુર અસુર વિભક્તિવાળાં નામો વા એટલે વાતને અહ્યા અસ્ય–એનું વચેબીડ્યા વોભિષ્ય-વચનો વડે ઉોઈખ્યા ઉભયેભ યુગલ માટે સ્વઃ–પોતે અઝેમ અહમ હું વએમ વયમ-અમે અધ્યા અમાન–અમોને મ—મારાથી વિભક્તિવાળાં ક્રિયાપદો નેમખ્યામહી એટલે નમિષ્યામહે-નમીએ છીએ બરઈતી ભરતિ–ભરે છે–પોષણ કરે છે અસિતું છે વએદા વેદ-જાયું હા મત અહી મને Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩૬ ઈ. સ. પૂર્વે બે હજાર વરસ કરતાં ય વિશેષ પ્રાચીન આપણી ભારતયુરોપીય આર્ય ભાષાનો નમૂનો એક સંસ્કૃત અર્વાચીન વાક્ય દ્વારા આ રીતે બતાવી શકાય ઃ હરિશ્ચન્દ્રસ્ય પિતા અશ્વસ્ય ઉપરિસ્થિતઃ ગચ્છન્ પશ્ચ વૃકાન જાન. આ વાક્યનું બે હજાર વરસ કરતાંય પહેલાંના સમયનું ઉચ્ચારણ આમ કલ્પી શકાય ઃ ઝરિકન્ત્રાસ્યા પઅતસ્ અસ્વારયા ઉપર થમતોત્ ગન્થ્રાસ્ પ બ્લુકાસ્ ધંધાન એ જ રીતે ઋગ્વેદના પ્રથમ તનું તથા ગાયત્રી મંત્રનું ભારત-ઈરાની આર્ય ભાષામાં જે જુદું ઉચ્ચારણ થાય છે તેને નીચે દર્શાવેલો નમૂનો આ પ્રમાણે બતાવે છે : ઋગ્વેદ અગ્નિમ્ ઈ 3 પુરોહિતમ યજ્ઞસ્ય દેવમ્ ઋત્વિજન્ હોતારમાં રત્નધાતમમ ગાયત્રી મંત્ર તત્સવિતુર્વરેણ્યમ ભર્ગો દેવસ્ય ધીમહિ ધિયો યો નઃ પ્રચોદયાત્ ઈરાની આર્યભાષા અગ્નિમ્ ઈઝદઈ પુર×ધિતમ યસ્ન દઈવમ્ ઋત્વિશમ્ ૯ઉતારમ રત્નધાતમમ ઈરાની આર્યભાષા તત્સવિતુ× ઉવરનિઅમ ભર્ગઝવસ્ય ધીમધિ ધિય યગ્ નસ્ પ્રચઉદયાત્ નવ્ય ભારતીય ભાષાઓના વિકાસમાં જે પ્રાકૃત ભાષાએ ઘણો મોટો ફાળો આપેલ છે તે પ્રાકૃત ભાષાનું સૌથી પ્રાચીનતમ રૂપ આદિમભારતયુરોપીય ભાષા પછી તેનું બીજું રૂપ ભારત-ઈરાની આર્ય ભાષા અને પછી તેની ત્રીજી ભૂમિકા તે ભારતીય આર્ય ભાષા અને આ પછી આવી પ્રાકૃતની પોતાની ભૂમિકા. આ પ્રાકૃતની ઉત્તર ભૂમિકાઓ તરીકે ત્યારપછીની મધ્ય યુગની વિવિધ પ્રાકૃતો, અપભ્રંશો અને બાદ વર્તમાન હિંદી, મરાઠી, બંગાળી, ગુજરાતી, સિંધી, પંજાબી, ઉડિયા વગેરે ભાષાઓ અને તેમની જુદી જુદી બોલીઓ. હવે પ્રાકૃત ભાષાનાં પ્રાદુર્ભાવક બળોનો વિચાર કરી વર્તમાન ભારતીય નવ્ય ભાષાઓના વિકાસમાં તેના મહત્ત્વના ફાળા વિશે પણ જાણી લઈ એ. વેદોને વા ખીજાં ધર્મશાસ્ત્રોને ભણવાભણાવવાનો અધિકાર એક માત્ર વિપ્રપુરોહિતવર્ગને જ હતો, આમજનતાને તેમના સંપર્કમાં આવતી અટકાવેલી હોવાથી આમજનતાનાં ઉચ્ચારણો પુરોહિતો જેવાં ન રહે એ સ્વાભાવિક છે. એક તો પુરોહિતો ભણેલા અને વળી તેમનો ઉચ્ચારણો કરવાનો વિશેષ મહાવરો હોવાથી તેઓ અભ્યાસ અને પાના બળે જડમાંતોઙ ઉચ્ચારણો પણ કરી શકતા ત્યારે આમજનતાને એવો મહાવરો મુદ્લ નહીં અને અભ્યાસ કે પાનો તો મોકો ન જ મળતો હોવાથી તેઓની પુરોહિતોનાં જેવાં ઉચ્ચારણો કરવાની ટેવ ન પડી તેમ ન ટકી એટલે આમજનતાનાં અને વિપ્ર–પુરોહિતવર્ગનાં ઉચ્ચારણો વચ્ચે ક્રૂરક પડી ગયેલા. વિપ્રની ભાષામાં કહીએ તો તે પોતાનાં ઉચ્ચારણોને સંસ્કૃત માનતો અને આમજનતાનાં ઉચ્ચારણોને પ્રાકૃત સમજતો, આ ઉપરાંત વેદોનાં સૂકતો ગ્રંથસ્થ થઈ ગયાં એટલે તેની ભાષા વહેતી નદીની જેવી મરીને નહીં વહેતા ખાબોચિયા જેવી થઈ ગઈ. આ પરિસ્થિતિને લીધે હવે તે બંધાઈ ગયેલી ભાષાનો વિકાસ થતો અટકી પડ્યો અને આમજનતાની વહેતી જીવતી ભાષા તો વિકસવા માંડી.જી રીતે કહીએ તો જ્યારથી વેદોની ભાષા બંધાઈ ગઈ, જકડાઈ ગઈ અને વહેતી અટકી પડી ત્યારથી પ્રાચીન સમયથી ચાલ્યાં આવતાં આમજનતાનાં પ્રાકૃતોને પ્રકાશમાં આવવાનો અને ઉત્તરોત્તર વિકાસ પામવાનો અવસર મળી ગયો. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧ ૩૭ એમ કહેવામાં આવે છે કે ઉદીચ્યોનાં ઉચ્ચારણો ઉત્કૃષ્ટ પ્રકારનાં હતાં અર્થાત તેમનાં ઉચ્ચારણો વેદોની ભાષાને બરાબર મળતાં આવતાં ત્યારે પ્રાથોનાં ઉચ્ચારણ વેદોની ભાષાને મુકાબલે તરતાં હતાં અને મધ્ય પ્રદેશવાળાઓનાં ઉચ્ચારણ ન ઉત્તમ તેમ ન ઊતરતાં, પરંતુ મધ્યમસરનાં હતાં. ઉદીચ્ય પ્રજા એટલે વર્તમાન વાયવ્ય સરહદ અને પંજાબ પ્રાંતની વસતિ. પ્રાચ્યો એટલે વર્તમાન અવધ, પૂર્વ સંયુક્ત પ્રાંત અને ઘણે ભાગે બિહારની પ્રજા અને ગંગા-યમુનાના પ્રદેશમાં વસતા લોકો તે મધ્ય દેશીય પ્રજા. આમ આ ત્રણે લોકસમૂહોની ભાષા આમજનતાની ભાષા રૂપે ઝપાટાબંધ વિકસવા માંડી, ફેલાવા માંડી અને ઉત્તરોત્તર ઉચ્ચારણોની દષ્ટિએ વિવિધ પરિવર્તનો પણ પામવા લાગી. બરાબર આ જ ટાણે એ સમાજમાંથી કેટલાક આમાથી પક્ષો આમજનતાના ભેરરૂપે પ્રગટ થયા. તેમાં મુખ્ય નાયકરૂપે કપિલ, શ્રીકૃષ્ણ, મહાવીર અને બુદ્ધનું સ્થાન હતું. જે ટોળીના આગેવાન મહાવીર અને બુદ્ધ હતા તે ટોળીઓ વૈદિક કર્મકાંડરૂપ યજ્ઞાદિકને આધ્યાત્મિક શુદ્ધિનું સાધન ન માનતી અને તેથી તે, વિરપુરોહિતોએ નિર્માણ કરેલી કોઈ ધાર્મિક યા સામાજિક વ્યવસ્થાને પણ વશાન નહીં હતી. હિસાપ્રધાન યજ્ઞાદિકને ધર્મરૂપે નહીં સ્વીકારનારી આ ટોળીઓ કેવળ શબ્દોનાં ઉચ્ચારણોને જ શ્રેયસ્કર નહીં સમજતી ત્યારે વિપ્રપુરોહિતો તો એમ કહ્યા જ કરતા કે એક પણ શબ્દનું શુદ્ધ ઉચ્ચારણ જ કલ્યાણકારી નિવડે છે. આ ટોળીઓને વિપ્રપુરોહિતોએ કેવળ “વાય” નામ આપેલું. વાત્ય એટલે બ્રાહ્મણોએ નિર્માણ કરેલી સકારાદિક પ્રવૃત્તિને નહીં સ્વીકારનારી પરંતુ ચિત્તશુદ્ધિ માટેના વ્રતનિયમોને આચરનારી પ્રજા. પુરોહિતો એ ટોળીઓને ઉત્તમ નહીં સમજતા. આ ટોળીઓના અગ્રણી પુરઘો વેદોની ભાષાનાં જડબાતોડ ઉચ્ચારણોને પણ સ્પષ્ટ રીતે બોલી બતાવવા સમર્થ હતા છતાંય તેઓએ એ વૈદિક ઉચ્ચારણોને બદલે આમજનતામાં વ્યાપેલાં ઉચ્ચારણને વિશેષ મહત્વ આપ્યું. કેમકે તેમનો ઉદ્દેશ પોતાનું ધર્મચક્ર આમ જનતા સુધી પહોંચાડવાનો હતો અને એમ કરીને માનવતાના જેમના હકો છિનવાઈ ગયા હતા તેવી આમ જનતાને માનવતાના સર્વે હકો સુધી લઈ આવવાની હતી. આથી કરીને અત્યાર સુધી જે આમજનતાની ભાષાને પ્રકર્ષ નહીં મળેલી તે પ્રકા શ્રી મહાવીર અને શ્રી બુદ્ધ દ્વારા વધારેમાં વધારે મળ્યો અને આ સમય જ પ્રાકૃત ભાષાના અભ્યદયનો હતો. આ સમયનું પ્રાકૃત તે જ પ્રાત-ભાષાની પ્રથમ ભૂમિકા. મહાવીરે અને બુહે પોતાનાં તમામ પ્રવચનો સમગ્ર મગધ, બિહાર, બંગાળ વગેરે પ્રદેશોમાં ફરીફરીને લોકભાષામાં જ આપ્યાં. એ બંને સંતો આમજનતાના પ્રતિનિધિરૂપ હતા, આમજનતાના સુખદુ:ખમાં પૂરી સહાનુભૂતિ રાખનારા હતા અને તેઓએ આમજનતાની ભાષાને પ્રધાન સ્થાને બેસાડી ઘણી મોટી પ્રતિષ્ટા આપેલી છે. જો કે એ સમયની ગ્રંથસ્થ વૈદિક ભાષામાં ય આમજનતાની ભાષામાં જે પરિવર્તનો આવેલાં તેમનાં મૂળ પડેલાં હતાં છતાં તેમાં તે પરિવર્તનો બીજરૂપે અને પરિમિત માત્રામાં હતાં ત્યારે આમજનતાની ભાષાને વિશેષ પ્રતિષ્ટા અને પ્રચારનાં સ્થાન મળવાથી તેમાં તે પરિવર્તનો ઝપાટાબંધ વધવા લાગ્યાં અને એ રીતે વિવિધ પરિવર્તન પામતી આમજનતાની પ્રાકૃત ભાષા હવે દેશમાં ઝપાટાબંધ ફેલાવા લાગી. આમ પોતાની પૂર્વભૂમિકારૂપ આદ્ય ભાષાથી માંડીને આર્ય ઈરાની સહિત વેદિક ભાષાનો સમગ્ર શબ્દવારસો ધરાવતી આમજનતાની આ પ્રાપ્ત ભાવાએ જે જે પ્રકારનાં પરિવર્તનો સ્વીકાર્યો અને એ જ પરિવર્તનો તેની મધ્ય યુગની પ્રાકૃતિના વિકાસમાં, તથા વિવિધ અપભ્રંશોના વિકાસમાં અને છેક છેલ્લે ભારતીય નવ્ય ભાષા હિંદી, મરાઠી, ગુજરાતી, બંગાળી વગેરે ભાષાઓના વિકાસમાં મોટો મહત્ત્વનો ભાગ ભજવનારાં નિવડયાં અને નવી ભાષાઓની બોલીઓના–નોખી નોખી અનેક બોલીઓના–પણ ઉત્તરોત્તર વિકાસનાં કારણરૂપ બન્યાં તે તમામ પરિવર્તનો વિશે પણ થોડું વિચારીએ: Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩૮ સંયુક્ત વ્યંજનો જ્યાં શબ્દની અંદર હતાં વા આદિમાં હતાં તેમાં જે ફેરફાર થયો તે આ પ્રમાણે છે: હસ્ત ને બદલે હત્યા પછી હાથ કર્ણ ને બદલે કહ્યું પછી કાન અક્ષિ ને બદલે અખિ પછી આંખ અથવા અ૭િ પછી આ મક્ષિકા ને બદલે મકિખઆ પછી માખ અથવા મછિઆ પછી મારા ક્ષેત્ર ને બદલે ખેત પછી ખેતર અથવા છે પછી શેતર ક્ષીર ને બદલે ખીર પછી ખીર અથવા છીર પછી ખીર કુક્ષિ ને બદલે કુખિ પછી ફૂખ કે કેન્દ્ર ગવાક્ષ ને બદલે ગવકખ પછી ગોખ પ્રસ્તર ને બદલે પત્થર પછી પથ્થર અથવા પાથર પુરકર ને બદલે પુખર પછી પોખર અથવા પુકુર સત્ય ને બદલે સચ્ચ પછી સાચ કે સાચું કાર્ય ને બદલે કજજ પછી કાજ-કારજ વૃશ્ચિક ને બદલે વિંછિએ પછી વીંછી અથવા વિષ્ણુ અને બદલે અનાજ પછી આજે શવ્યાને બદલે સેક્સ પછી સેજ મર્યાદા ને બદલે મજજાયા પછી માજા ઉપાધ્યાયને બદલે વિઝાય પછી ઓઝા સંધ્યા ને બદલે સંઝા ૫છી સાંજ વત ને બદલે વદી પછી વાટ ગર્ત ને બદલે ગડુ પછી ખાડો નિમ્ન ને બદલે નિરણ પછી તેનું–નાનું સંતા ને બદલે સંણ પછી સાન સ્તમ્ભ ને બદલે થંભ પછી થાંભલો અથવા થેબા કે ખંભા પર્યસ્તિકા ને બદલે પત્યિઆ પછી પલાડી સ્થાન ને બદલે થીણુ પછી થીણું મુષ્ટિ ને બદલે મુ૬િ પછી મૂકી દષ્ટ ને બદલે દિ૬ પછી દીઠો કુમલ ને બદલે કુંપલ પછી કુંપળ જિહા ને બદલે જિળ્યા પછી જીભ કૃષ્ણને બદલે કરહ પછી કાન સ્નાન ને બદલે વહાણ ૫છી નાણું આદર્શ ને બદલે આયરિસ પછી અરિસો કે આરસો ગુલ ને બદલે ગુઝ પછી ગૂંજે Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩૯ હવે કેટલાંક અસંયુક્તવ્યંજનોનાં પરિવર્તન રાજન્ – રાજ અથવા લાજ અથવા રાય નગર – નયર - પછી નેર નયન – નયણ– પછી નેણું મેઘજેહ– પછી મે કથા – કહ– પછી કહેવું રેખા – લેહા - પછી લીહાલી બધિર – બહિર – પછી બહેરો શભામત – સોહામણું – પછી સોહામણું ઘટ – ઘડ– પછી ધડો પાઠ– પાઢ– પછી પાડો ગુડ– ગુલ– પછી ગોળ તાગ — તલાય - ૫છી તળાવ અથવા તાલાવ વચન – વયણ– પછી વેણ દીપ – દીવ – પછી દીવો ભગિનીપતિ–બહિણીવઈ– પછી બનેવી અથવા બહોઈ દશ – દસ– પછી દસ શબ્દ – સદ્ – ૫છી સાદ સિંહ-સિંઘ અથવા સી-પછી સંગ અથવા સંઘ અથવા સી સ્વરોનાં પરિવર્તનો આ પ્રમાણે છેઃ ગ, લૂ, એ અને ઔનો પ્રયોગ જ નિકળી જવા પામ્યો છે. ને બદલે અ– ધૃત- ઘય – પછી ઘી કૃત – કરિઅ– પછી કર્યું , , રિ– ઋદ્ધિ – રિદ્ધિ – પછી રધ , , ઈ– પૃષ્ટિ – પિટ્ટિ –પછી પીઠ , , ઉ– વૃદ્ધ – વૃ– પછી બૂટો પિતગૃહ–પિઉડર – પછી પીતર કે પીયર માતગ્રહ – માઉડર – પછી મારું એ ને બદલે એ અને અઈ- શલને બદલે સઈલ અથવા સેલ. ઐરાવણ – અઈરાવણું – પછી અજીરાવણ ઓ ને બદલે ઓ અને અ8–કોશામ્બી –-કઉસબી – કોસંબી – કોસંબી-કોસમ ધવન – વણ- જોબન Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૦ - આ રીતે વ્યંજનો અને સ્વરોનાં ઉચ્ચારણનાં બીજું પણ ઘણું ઘણું પરિવર્તન આવવા પામ્યાં છે. મધ્યયુગની પ્રાકૃતોનાં પણ આવાં જ પરિવર્તનો દેખાય છે ત્યારે અપભ્રંશોમાં વળી આથી વધારે બીજું વિવિધ પ્રકારનાં પરિવર્તનો છે. આમ પરિવર્તન પામતી પ્રાકૃત ભાષા અને પાલિ ભાષાએ વર્તમાનકાળની નવ્ય ભાષાઓ હિંદી, ગુજરાતી વગેરે અને તેની જુદી જુદી પ્રાંતિક બોલીઓમાં ઘણો મોટો ફાળો આપેલ છે, તે ઉપરનાં થોડાં ઉદાહરણોથી પણ સ્પષ્ટ થઈ જાય છે. સંસ્કૃત ભાષા પ્રાકૃતમાં સામ્યા વિના આ નવ્ય ભાષાઓના પ્રાકટયમાં સીધું નિમિત્ત નથી થઈ શકતી અર્થાત આપણી ભારતીય પ્રચલિત તમામ આર્ય ભાષાઓ અને બોલીઓનું પ્રધાન નિમિત્ત પ્રાકૃત અને પાલિ ભાષા છે; પરંતુ સંસ્કૃત નથી જ એ યાદ રાખવાનું છે. આ લેખ માટે નીચેના ગ્રંથોનો ખાસ ઉપયોગ કરેલો છે : ૧. ભારતીય આર્ય ભાષા અને હિંદી ભાષા --- ડૉ. સુનીતિકુમાર ચેટરજી (ગુજરાત વિદ્યાસભા) ૨. ઋતંભરા – ડૉ. સુનીતકુમાર ચેટરજ ૩. રાજસ્થાની ભાષા - " ૪. પ્રાકૃત ભાષા - ડૉ. પ્રબોધ બેચરદાસ પંડિત ૫. ખોરદેહઅવેતા – કાંગા ૬ભાષાવિજ્ઞાન – મંગળદેવ શાસ્ત્રી ૭. અશોકના લેખો – ઓઝાઇ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈન પરંપરાનું અપભ્રંશ સાહિત્યમાં પ્રદાન પ્રા. હરિવલ્લભ ચુ. ભાયાણી, એમ. એ., પીએચ. ડી. પ્રાસ્તાવિક અપભ્રંશ સાહિત્યની એક તરત જ ઉડીને આંખે વળગે તેવી વિશિષ્ટતા તેને સંસ્કૃત અને પ્રાપ્ત સાહિત્યથી નોખું તારવી આપે છે. ઉપલધ અપભ્રંશ સાહિત્ય એટલે જૈનોનું જ સાહિત્ય એમ કહીએ તો પણ ચાલે, કેમ કે તેઓએ એ ક્ષેત્રમાં જે સમર્થ અને વિવિધતાવાળું નિર્માણ કર્યું છે તેની તુલનામાં બદ્ધ અને બ્રાહ્મણ (એ તો હજી શોધવાનું રહ્યું – મળે છે તે ટાંછવાયાં થોડાંક ટાંચણ જ માત્ર) પરંપરાનું પ્રદાન અપવાદરૂપ અને તેનું મૂલ્ય પણ મર્યાદિત. એમ કહોને કે અપભ્રંશ સાહિત્ય એટલે જેનોનું આગવું ક્ષેત્ર–જે કે આપણને મળી છે તેટલી જ અપભ્રંશ કૃતિઓ હોય તો જ ઉપરનું વિધાન સ્થિર સ્વરૂપનું ગણાય. પણ અપભ્રંશ સાહિત્યની ખોજની ઈતિશ્રી નથી થઈ ગઈ–એ દિશામાં હજી ઘણું કરવાનું બાકી છે. એટલે ભવિષ્યમાં મહત્ત્વની કે ગણનાપાત્ર સંખ્યામાં જૈનેતર કૃતિઓ હોવાનું જાણવામાં આવે તો આપણું આ ચિત્ર લટાઈ જાય. પ્રધાનપણે જૈન અને ધર્મપ્રાણિત હોવા ઉપરાંત અપભ્રંશ સાહિત્યની બીજી એક આગળ પડતી લાક્ષણિકતા તે તેનું એકાતિક પદ્ય સ્વરૂપ. અપભ્રંશ ગદ્ય નગણ્ય છે. તેનો સમગ્ર સાહિત્યપ્રવાહ છંદમાં જ વહે છે. આનું કારણ અપભ્રંશ ભાષા જે ખાસ પરિસ્થિતિમાં ઉદ્ભવી અને વિશિષ્ટ ઘડતર પામી તેમાં ક્યાંક રહ્યું હોવાનો સંભવ છે. અપભ્રંશ ભાષા . સાહિત્યિક પ્રાકૃતોની જેમ સાહિત્યિક અપભ્રંશ પણ એક સારી રીતે કૃત્રિમ ભાષા હોવાનું જણાય છે. એ એક એવી વિશિષ્ટ ભાષા હતી જેના ઉચ્ચારણમાં “પ્રાકૃત' ભૂમિકાનાં પ્રમુખ લક્ષણ જળવાઈ રહ્યાં હતાં, પણ જેનાં વ્યાકરણ અને રૂઢિપ્રયોગો (તથા શબ્દકોશનો થોડોક અંશ પણ) સતત વિકસતી તતત્કાલીન બોલીઓના રંગે અંશતઃ રંગાતાં રહેતાં હતાં. આથી અપભ્રંશને એક લાભ એ થયો કે તે જડ ચોકઠામાં જકડાઈ જવાના ભયથી ટી. કેમ કે શિષ્ટમાન્ય ધોરણનું કડક પાલન કરવાના વલણવાળી કોઈ પણ સાહિત્યભાષા વધુ ને વધુ રૂટિબદ્ધ થતી જાય છે. તેમાં યે અપભ્રંશ સંસ્કૃત તથા પ્રાકૃત જેવી શતાબ્દીઓ જૂની પ્રશિષ્ટ પરંપરા ધરાવતી સાહિત્ય–ભાષાઓના ચાલુ વર્ચસ્વ નીચે ઊરી હતી. એટલે તેને માટે બીજે પક્ષે જીવંત બોલીઓ સાથેનો સતત સંપર્ક નવચેતન અપતો નીવડે એ ઉઘાડું છે. કઈ જાતની પરિસ્થિતિ વચ્ચે અપભ્રંશ ભાષા અને સાહિત્યનો ઉદગમ થયો? આ બાબત હજી સુધી તો પૂર્ણ અંધકારમાં દટાયેલી છે. આરંભનું ઘણુંખરું સાહિત્ય સાવ લુપ્ત થયું છે. અપભ્રંશ સાહિત્યવિકાસના પ્રથમ સોપાન ક્યાં તે જાણવાની કશી સાધનસામગ્રી ઉપલબ્ધ નથી. અપભ્રંશના આગવા ને આકર્ષક સાહિત્યપ્રકારો તથા છંદોનો ઉદભવ ક્યાંથી થયો તે કોઈપણ રીતે સ્પષ્ટપણે સમજાવી શકવાની આપણી સ્થિતિ નથી. आचार्य विजयवल्लभ सूरि स्मारक-ग्रन्थ, मुम्बई १९५६ ई० से साभार Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૨ | આરંભ અને મુખ્ય સાહિત્યસ્વરૂપો સાહિત્યમાં તથા ઉકીર્ણ લેખોમાં મળતા ઉલ્લેખો પરથી સમજાય છે કે ઈસવી છઠ્ઠી શતાબ્દીમાં તો અપભ્રંશે એક સ્વતંત્ર સાહિત્યભાવાનું સ્થાન પ્રાપ્ત કરી લીધું હતું. સંસ્કૃત અને પ્રાકૃતની સાથોસાથ તે પણ એક સાહિત્યભાષા તરીકે ઉલ્લેખાઈ ગણાતી. આમ છતાં આપણને મળતી પ્રાચીનતમ અપભ્રંશ કૃતિ ઈસવી નવમી શતાબ્દીથી બહુ વહેલી નથી. એનો અર્થ એ થયો કે તે પહેલાંનું બધું સાહિત્ય લુપ્ત થયું છે. નવમી શતાબ્દી પૂર્વે પણ અપભ્રંશ સાહિત્ય સારી રીતે ખેડાતું રહ્યું હોવાના પુષ્કળ પુરાવા મળે છે, અને તેના ઉપલબ્ધ પ્રાચીનતમ નમૂનાઓમાં સાહિત્યસ્વરૂપ, રેલી અને ભાષાની જે સુવિકસિત કક્ષા જોવા મળે છે તે ઉપરથી પણ એ વાત સમર્થિત થાય છે. નવમી શતાબ્દી પૂર્વેના બે પિંગલકારોના પ્રતિપાદન પરથી સ્પષ્ટ સમજાય છે કે પૂર્વકાલીન સાહિત્યમાં અજાણ્યાં એવાં ઓછામાં ઓછાં બે નવાં સાહિત્યસ્વરૂપો –– સંધિબંધ અને રાસાબંધ – તથા સંખ્યાબંધ પ્રાસબદ્ધ નવતર માત્રાવૃત્તો અપભ્રંશકાળમાં અસ્તિત્વમાં આવ્યાં હતાં. સંધિબંધ આમાં સધિબંધ સૌથી વધુ પ્રચલિત રચનાપ્રકાર હતો. એનો ઉપયોગ ભાતભાતની કથાવસ્તુ માટે થયેલો છે. પૌરાણિક મહાકાવ્ય, ચરિતકાવ્ય, ધર્મકથા – પછી તે એક જ હોય કે આખું કથા હોય- આ બધા વિષયો માટે ઔચિત્યપૂર્વક સંધિબંધ યોજાયો છે. ઉપલબ્ધમાં પ્રાચીનતમ સંધિ બંધ નવમી શતાબ્દી લગભગનો છે, પણ તેની પૂર્વ લાંબી પરંપરા રહેલી હોવાનું સહેજે જોઈ શકાય છે. સ્વયંભૂની પહેલાં ભદ્ર (કે દક્તિભદ્ર), ગોવિન્દ અને ચતુર્મુખે રામાયણ અને કૃષ્ણસ્થાના વિષય પર રચનાઓ કરી હોવાનું સાહિત્યિક ઉલ્લેખો પરથી અનુમાન થઈ શકે છે. આમાંથી ચતુર્મુખનો નિર્દેશ પછીની અનેક શતાબ્દીઓ સુધી માનપૂર્વક થતો રહ્યો છે. ઉક્ત વિષયોનું સંધિબંધમાં નિરૂપણ કરનાર એ અગ્રણી કવિ હતો. સ્વયંભૂદેવ પણ એમાંના એક પણ પ્રાચીન કવિની કૃતિ ઉપલબ્ધ ન હોવાથી કવિરાજ રવયંભૂદેવ (ઈસવી સાતમીથી દસમી શતાબ્દી વરચે)નાં મહાકાવ્યો એ સંધિબંધ વિશેની માહિતી પૂરી પાડવા માટે આપણે પ્રાચીનતમ આધાર છે. ચતુર્મુખ, સ્વયંભૂ અને પુછપદંત ત્રણે અપભ્રંશના પ્રથમ પંક્તિના કવિઓ છે, અને તેમાં પહેલું સ્થાન સ્વયંભૂને આપવા પણ કોઈ પ્રેરાય. કાવ્યપ્રવૃત્તિ સ્વયંભૂની કુળ પરંપરામાં જ હતી. તેણે કર્ણાટક અને તેની સમીપના પ્રદેશમાં જુદા જુદા જન શ્રેષ્ઠીઓના આશ્રયે રહી કાવ્યરચના કરી હોવાનું જણાય છે. સ્વયંભૂ યાપનીયનામક જૈન પંથન હોય એ ઘણું સંભવિત છે. એ પંથનો તેના સમય આસપાસ ઉકત પ્રદેશમાં ઘણું પ્રચાર હતો. સ્વયંભૂની માત્ર ત્રણ કૃતિઓ જળવાઈ રહી છે ઘરમસિસ અને રિમિતિ નામે બે પૌરાણિક મહાકાવ્ય અને મૂછન્ય નામનો પ્રાકૃત અને અપભ્રંશ છંદોને લગતો ગ્રંથ. માધ્યત્રિક હારતીય- આર્ય છંદો માટે એક પ્રાચીન અને પ્રમાણભૂત સાધન લેખેની તેની અગત્ય ઉપરાંત હાલું મોટું મહત્ત તેમાં અપાયેલાં પૂર્વકાલીન પ્રાકૃત અને અપભ્રંશ સાહિત્યનાં ટાંચણેને અંગે છે. આથી આપને એ સાહિલની લુપ્ત સમુહનો સારો ખ્યાલ આવે છે. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૩ पउमचरित વડમારિ (સં. પતિમ) એ રામાયબપુરાણુ (સં. રામાવાપુનમ) નામે પણ જાણીતું છે. એમાં પા એટલે રામના ચરિત પર મહાકાવ્ય રચવાની સંસ્કૃત તથા પ્રાકૃત સાહિત્યની પરંપરાને સ્વયંભૂ અનુસરે છે. ૧૩મકમાં રજૂ થયેલું રામકથાનું જેન સ્વરૂપ વાલ્મીકિ રામાયણમાં મળતા બ્રાહ્મણ પરંપરા પ્રમાણેના વિરૂ૫(બંનેમાં આ પુરોગામી છે)થી અનેક અગત્યની બાબતમાં જુદું પડે છે. સ્વયંભૂરામાયણનો વિસ્તાર પુરાણની સ્પર્ધા કરે તેટલો છે. તે વિનાદર (સં. વિદ્યાપર), રાજ (સં. મોણા), સુંદર, (સં. યુ) અને ઉત્તર એમ પાંચ કાંડમાં વિભક્ત છે. આ દરેક કાંડ મર્યાદિત સંખ્યાના “સંધિ' નામના ખંડોમાં વહેંચાયેલો છે. પાંચે કાંડના બધા મળીને નેવું સંધિ છે. આ દરેક સંધિ પણ બારથી વીસ જેટલા “ક વક” નામના નાના સુગ્રથિત એકમોનો બનેલો છે. આ કડવા ( = પ્રાચીન ગુજરાતી સાહિત્યનું કરવું) નામ ધરાવતો પઘપરિચ્છેદ અપભ્રંશ અને અર્વાચીન ભારતીય-આર્યના પૂર્વકાલીન સાહિત્યની વિશિષ્ટતા છે. કથાપ્રધાન વસ્તુ ગૂંથવા માટે તે ઘણું જ અનુકૂળ છે. કવિ દેહ કોઈ માત્રા છંદમાં રચેલા સામાન્યતઃ આઠ પ્રાસબદ્ધ ચરણયુગ્મનો બનેલો હોય છે. કવકના આ મુખ્ય કલેવરમાં વર્ષ વિષયનો વિસ્તાર થાય છે, જ્યારે જરા ટૂંકા દમાં બાંધેલો ચાર ચરણનો અંતિમ ટુકડો વર્ષ વિષયનો ઉપસંહાર કરે છે કે વધારેમાં પછીના વિષયનું સૂચન કરે છે છે આવા વિશિષ્ટ બંધારણને કારણે અપભ્રંશ સંધિ શ્રોતાઓ સમક્ષ લયબદ્ધ રીતે પઠન કરાવાની કે ગીત રૂપે ગવાવાની ઘણી ક્ષમતા ધરાવે છે. પ૩મહિના નેવું સંધિમાંથી છેલ્લા આઠ સ્વયંભૂના જરા વધારે પડતા આત્મભાનવાળા પુત્ર ત્રિભુવનની રચના છે, કેમ કે કોઈ અજ્ઞાત કારણે સ્વયંભૂએ એ મહાકાવ્ય અધૂરું મૂકેલું. આ જ પ્રમાણે પોતાના પિતાનું બીજું મહાકાવ્ય દિમિર પૂરું કરવાનો યશ પણ ત્રિભુવનને ફાળે જાય છે અને તેણે મી૩િ(સં. નીવરિત) નામે એક સ્વતંત્ર કાવ્ય રચ્યું હોવાનો પણ ઉલ્લેખ છે. સ્વયંભૂએ પોતાના પુરોગામીઓના ઋણનો સ્પષ્ટ શબ્દોમાં સ્વીકાર કર્યો છે. મહાકાવ્યના સંધિબંધ માટે તે ચતુર્મુખથી અનુગ્રહીત હોવાનું જણાવે છે, જ્યારે વસ્તુ અને તેના કાવ્યાત્મક નિરૂપણ માટે તે આચાર્ય રવિણનો આભાર માને છે. મહિના કથાનક પૂરતો તે રવિણના સંસ્કૃત વરતિ કે જાપુ ( ઈ. સ. ૬૭૭–૭૮)ને પગલે પગલે ચાલે છે. તે એટલે સુધી કે મ ને પતિનો મુક્ત અને સંક્ષિપ્ત અપભ્રંશ અવતાર કહેવો હોય તો કહી શકાય. ને છતાયે સ્વયંભૂની મૌલિક્તા અને ઉચ્ચ પ્રતિની કવિત્વશક્તિનાં પ્રમાણ ૧૩મરિયમાં ઓછાં નથી. એક નિયમ તરીકે તે રવિણે આપેલા કથાનકના દોરને વળગી રહે છે અને આમેય એ કથાનક તેની નાની મોટી વિગતો સાથે પરંપરાથી રૂઢ થયેલું હોવાથી કથાવસ્તુ પૂરતો તો મૌલિક કલ્પના માટે કે સંવિધાનની દષ્ટિએ પરિવર્તન કે રૂપાંતર માટે ભાગ્યે જ કશો અવકાશ રહેતો. પણ શિલીની દષ્ટિએ કથાવસ્તુને શણગારવાની બાબતમાં, વર્ણન ને રસનિરૂપણની બાબતમાં, તેમજ મનગમતા પ્રસંગને બહેલાવવાની બાબતમાં, કવિને જોઈએ તેટલી ટ મળતી. આવી મર્યાદાથી બંધાયેલી હોવા છતાં સ્વયંભૂની સેક્સ લાદષ્ટિએ પ્રશસ્ય સિદ્ધિ મેળવી છે. પોતાની આચિત્યબુદ્ધિને અનુસરીને તે આધારભૂત સામગ્રીમાં કાપકૂપ કરે છે, તેને નવો ઘાટ આપે છે કે કદીક નિરાળો જ માર્ગ ગ્રહણ કરે છે. અપવાંસ કડવકનું સ્વરૂપ પ્રાચીન અવધિ સાહિત્યનાં સુલ પેમાખ્યાનક કાવ્યોમાં અને તુલસીદાસકૃત નરિમન જેવા કૃતિઓમાં ઉતરી આવ્યું છે. • રવિણનું પારિત પોતે પણ જૈન મહારાષ્ટ્રમાં રચાયેલા ઉમલરિકૂત કવલિ (સંભવતઃ ઈસવી ત્રણ શતાબ્દીના પલ્લવિત સંરક્ત છાયાનુવાદથી ભાગ્યે જ વિશેષ છે. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૪ વસમરિ૩ના ચૌદમા સંધિનું વસંતનાં દશ્યોની મોહક પૃષ્ઠભૂમિ પર આલેખાયેલું તાદશ, ગતિમા ઈંદ્રિયસંતપર્ક જલક્રીડાવર્ણન એક ઉત્કૃષ્ટ સર્જન તરીકે પહેલેથી જ પંકાતું આવ્યું છે. જુદાં જુદાં યુદ્ધદૃશ્યો, અંજનાના ઉપાખ્યાન (સંધિ ૧૭–૧૯)માંના કેટલાક ભાવોદ્રેકવાળા પ્રસંગો, રાવણુના અગ્નિદાહના ચિત્તહારી પ્રસંગમાંથી નીતરતો વેધક વિષાદ (૭૭મો સંધિ) — આવા આવા હુયંગમ ખંડોમાં સ્વયંભૂની કવિપ્રતિભાના પ્રબળ ઉન્મેષનાં આપણે દર્શન કરી શકીએ. रिट्टणेमिचरिउ સ્વયંભૂ નું બીજું મહાકાય મહાકાવ્ય રિકળેમિન્વરિ૩ (સં. મરિષ્ટનેમિપરિતમ્) અથવા વિંલપુરાનુ (સં. વિંચપુરાળÇ) પણ પ્રસિદ્ધ વિષયને લગતું છે. તેમાં બાવીશમા તીર્થંકર અરિષ્ટનેમિનું જીવનચરિત તથા કૃષ્ણ અને પાંડવોની જૈન પરંપરા પ્રમાણેની કથા અપાયેલી છે. કેટલાક નમૂનારૂપ ખંડો બાદ કરતાં તે હજી સુધી અપ્રકાશિત છે. તેના એક સો ખાર સંધિઓ (જેનાં બધાં મળીને ૧૯૩૭ કડવક અને ૧૮૦૦૦ ખત્રીા—અક્ષરી એકમો — ગ્રંથાત્ર ' — હોવાનું કહેવાય છે)નો ચાર કાંડમાં સમાવેશ થાય છે : સાયવ( સં. ચાવ ), લુથ, જીન્સ (સં. યુદ્ધ) અને ઉત્તર. આ વિષયમાં પણ સ્વયંભૂ પાસે કેટલીક આદર્શભૂત પૂર્વકૃતિઓ હતી. નવમી શતાબ્દી પહેલાં વિમલસૂરિ અને વિદગ્ધ પ્રાકૃતમાં, જિનસેને (ઈ. સ. ૭૮૩–૮૪) સંસ્કૃતમાં અને ભદ્રે ( કે દન્તિભદ્રે ? ભાવે? ), ગોવિન્દે તથા ચતુર્મુખે અપભ્રંશમાં હરિવંશના વિષય પર મહાકાવ્યો લખ્યાં હોવાનું જણાય છે. રિદળેમિવરિષ્ઠ નો નવ્વાણુમા સંધિ પછીનો અંશ સ્વયંભૂના પુત્ર ત્રિભુવનનો રચેલો છે, અને પાછળથી ૧૬મી શતાબ્દીમાં તેમાં ગોપાચલ ( = વાલીઅર)ના એક અપભ્રંશ કવિ યશકીર્તિ ભટ્ટારકે કેટલાક ઉમેરા કરેલા છે. રામ અને કૃષ્ણના ચરિત પર સ્વયંભૂ પછી રચાયેલાં અપભ્રંશ સંધિબદ્ધ કાવ્યોમાંથી કેટલાં ઝ ઉલ્લેખ અહીં જ કરી લઈએ ~~~ આ બધી કૃતિઓ હજી અપ્રસિદ્ધ છે : ધવલે ( ઈસવી અગીઆરમી શતાબ્દી પહેલાં) ૧૨૨ સંધિમાં રિવંશપુરાળ રચ્યું. ઉપર્યુક્ત યશઃકીર્તિ ભટ્ટારકે ૭૪ સંધિમાં પાંડુપુરાણુ ( સં. પાંડુપુરાળમ્ ) ( ઈ. સ. ૧૫૨૭) તથા તેના સમકાલીન પંડિત રધ્ધિ અપરનામ સિંહસેને ૧૧ સંધિમાં નદ્દપુરાણુ ( સું. યમદ્રપુરાળમ્ ) તેમ જ નેમિનારિક ( સં. નેમિનાથન્નતિમ્ ) રચ્યાં એ જ સમય લગભગ શ્રુતકીર્તિએ ૪૦ સંધિમાં ત્રિપુરાળુ (સં. વિંચવુરાળમ્ ) ( ઈ. સ. ૧૫૫૧ ) પૂરું કર્યું. આ કૃતિઓ સ્વયંભૂ પછી સાત સો જેટલાં વરસ વહી ગયાં છતાં રામાયણ ને હરિવંશના વિષયોની જીવંત પરંપરા અને લોકપ્રિયતાના પુરાવારૂપ છે. પુષ્પદંત પુષ્પદન્ત (અપ. પુજ્યંત ) અપરનામ મમ્મય (ઈ. સ. ૯૫૭ - – ૯૭૨ માં વિદ્યમાન )ની કૃતિઓમાંથી આપણુને સંધિબંધમાં ગૂંથાતા ખીજા બે પ્રકારોની જાણ થાય છે. પુષ્પદન્તનાં માતાપિતા બ્રાહ્મણ હતાં. તેમણે પાછળથી દિગંબર જૈન ધર્મ સ્વીકારેલો. પુપદન્તનાં ત્રણે અપભ્રંશ કાવ્યોની રચના માન્યખેટ ( = હાલનું હૈદરાબાદ રાજ્યમાં આવેલું માલખેડ )માં રાજ્ય કરતા રાષ્ટ્રકૂટ રાજાઓ કૃષ્ણ ત્રીજા (ઈ. સ. ૯૩૯-૯૬૮) અને ખોટ્ટિગદેવ ( ઈ. સ. ૯૬૮–૯૭૨ )ના પ્રધાનો અનુક્રમે ભરત અને તેના પુત્ર નાના આશ્રય નીચે થઈ હતી. સ્વયંભૂ અને તેના પુરોગામીઓએ રામ અને કૃષ્ણપાંડવનાં કથાનકનો ઠીકડીક કસ કાઢ્યો હતો, એટલે પુષ્પદન્તની કવિપ્રતિભાએ જૈન પુરાણકથાના જુદા — અને વિશાળતર પ્રદેશોમાં વિહરવાનું પસંદ કર્યું હશે. જૈન પૌરાણિક માન્યતા પ્રમાણે પૂર્વના સમયમાં ત્રેસઠ મહાપુરુષો ( કે શલાકાપુરુષો ) થઈ ગયા. તેમાં ચોવીશ તીર્થંકર, ખાર ચક્રવર્તી, નવ વાસુદેવ ( = અર્ધચક્રવર્તી), નવ બલદેવ ( તે તે વાસુદેવના ભાઈ) અને નવ પ્રતિવાસુદેવ (એગ્લે કે તે તે વાસુદેવના વિરોધી)નો Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૫ સમાવેશ થાય છે. લક્ષ્મણ, પદ્ય (= રામ) અને રાવણ એ આઠમા બલદેવ, વાસુદેવ ને પ્રતિવાસુદેવ તથા કૃષ્ણ, બલભદ્ર અને જરાસંધ એ નવમા ગણાય છે. આ ત્રેસઠ મહાપુરનો જીવનવૃત્તાંત આપતી રચનાઓ “મહાપુરાણ” અથવા “ત્રિષષ્ટિમહાપુર(કે- શલાકાપુરુ-)ચરિતાને નામે ઓળખાય છે. આમાં પહેલા તીર્થંકર ઋષભ અને પહેલા ચક્રવર્તી ભરતનાં ચરિતને વર્ણવતો આરંભનો અંશ આદિપુરાણ, અને બાકીના મહાપુરુષોનાં ચરિતવાળો અંશ “ઉત્તરપુરાણ” કહેવાય છે. મહાપુરાણ પુષ્પદન્ત પહેલાં પણ આ વિષય પર સરકૃતિ અને પ્રાકૃતમાં કેટલીક પઘકૃતિઓ રચાયેલી. પણ અપભ્રંશમાં પહેલવહેલાં એ વિષયનું મહાકાવ્ય બનાવનાર પુછપદન્ત હોવાનું જણાય છે. મહાપુરાણ કે તિસદ્દિકહાપરિસાદંર (સં. ત્રિષષ્ટિમાપુઠ્ઠ:) નામ ધરાવતી તેની એ મહાકૃતિમાં ૧૦૨ સંધિ છે, જેમાંથી પહેલા સાડત્રીશ સંધિ આદિપુરાણને અને બાકીના ઉત્તપુરાણને ફાળે જાય છે. પુષ્પદન્ત સ્થાનક પૂરતો જિનસેન-ગુણુભકૃત સંસ્કૃત, ત્રિદિમાપુપુરસંપ્રદ્ય (ઈસ. ૮૯૮ માં સમાપ્ત)ને અનુસરે છે. આ વિષયમાં પણ પ્રસંગો અને વિગતો સહિત કથાનકોનું સમગ્ર કલેવર પરંપરાથી રૂઢ થયેલું હતું, એટલે નિરૂપણમાં નાવિન્ય અને ચાતા લાવવા કવિને માત્ર પોતાની વર્ણનની અને લીસજાવટની શક્તિઓ પર જ આધાર રાખવાનો રહેતો. વિષયો કથનાત્મક સ્વરૂપના ને પરાણિક હોવા છતાં જેન અપભ્રંશ કવિઓ તેમના નિરૂપણમાં પ્રશિષ્ટ સંસ્કૃતના આલંકારિક મહાકાવ્યની પરંપરા અપનાવે છે અને આછોપાતળા કથાનક કલેવરને અલંકાર, છંદને પાંડિત્યના ઠેરથી ચઢાવેબઢાવે છે તેનું એક કારણ આ પણ છે. રિમિત્તિમાં સ્વયંભૂ આપણને કહે છે કે કાવ્યરચના કરવા માટે તેને વ્યાકરણ ઈ દીધું, રસ ભરતે, વિસ્તાર વ્યાસે, છંદ પિંગલે, અલંકાર ભામહ અને દંડીએ, અક્ષરડંબર બાણે, નિપુણત્વ શ્રીદે અને છડુણી, દ્વિપદીને ધ્રુવકથી મંતિ પદ્ધકિા ચતુર્મુખે. પુષ્પદન્ત પણ પરોક્ષ રીતે આવું જ કહે છે, વિદ્યાનાં બીજાં કેટલાંક ક્ષેત્રમાં પ્રતિષ્ઠિત એવાં થોડાંક નામો ઉમેરે છે અને એવી ઘોષણા કરે છે કે પોતાના માપુરાણમાં પ્રાકૃતલક્ષણ, સકલ નંતિ, છંદોભંગી, અલંકારો, વિવિધ રસો તથા તત્વાર્થનો નિર્ણય મળશે. સંસ્કૃત મહાકાવ્યનો આદર્શ સામે રાખી તેની પ્રેરણાથી રચાયેલાં અપભ્રંશ મહાકાવ્યોનું સાચું બળ વસ્તુના ચિત્ય કે સંવિધાન કરતાં વિશેષ તો તેના વર્ણન કે નિરૂપણમાં રહેલું છે. સ્વયંભૂની તુલનામાં પુષ્પદન્ત અલંકારની સમૃદ્ધિ, છંદોવિધ્ય અને વ્યુત્પત્તિ ઉપર વિશેષ આધાર રાખે છે. છંદોભેદની વિપુલતા તથા સંધિ અને કાવની દીર્ઘતા પુષ્પદનના સમય સુધીમાં સંધિબંધનું સ્વરૂપાકાંઈક વધુ સંકુલ થયું હોવાની સુચક છે. મહાપુ ના ચોથા, બારમા, સત્તરમા, છંતાળીસમા, બાવનમા ઈત્યાદિ સંધિઓના કેટલાક અંશો પુષ્પદન્તની અસામાન્ય કવિત્વશક્તિનાં ઉત્તમ ઉદાહરણ તરીકે ટાંકી શકાય. મરાપુરાણ ના ૬૯થી ૭૯ સંધિમાં રામાયણની કથાનો સંક્ષેપ અપાયો છે, ૮૧થી ૯૨ સંધિ જન હરિવંશ આપે છે, જ્યારે અંતિમ અંશમાં ત્રેવીસમા તથા ચોવીસમા તીર્થંકર પાર્શ્વ અને મહાવીરનાં ચરિત છે. ચરિતકાવ્ય પુછપદન્તનાં બીજાં બે કાવ્ય, મારવરિ૩ (સં. નકુમારરિતમ્) અને વસવારિક (સં. યશોરરિતમ્) પરથી જોઈ શકાય છે કે વિશાળ પરાણિક વિષયો ઉપરાંત જૈન પુરાણ, અનુશ્રુતિ કે પરંપરાગત ઇતિહાસની પ્રસિદ્ધ વ્યક્તિઓનાં બોધક જીવનચરિત આપવા માટે પણ સંધિબંધ વપરાતો. વિસ્તાર અને નિરૂપણની દૃષ્ટિએ આ ચરિતકાવ્યો કે કથાકાવ્યો સંત મહાકાવ્યોની પ્રતિકૃતિ જેવાં Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૬ ગણાય. આમાં પણ પુષ્પદન્ત પાસે કેટલાંક પૂર્વદમ્રત હોવાં જોઈએ. અછતા ઉલેખ પરથી આપણે પુષ્પદન્તની પહેલાંનાં ઓછામાં ઓછાં બે ચરિતકાવ્યોનાં નામ જાણીએ છીએઃ એક તે સ્વયંભૂત તિ અને બીજું તેના પુત્ર ત્રિભુવનકૃત પીવવિ. અમારવરિત નવ સંધિમાં તેના નાયક નાગકુમાર (= જેન પુરાણકથા પ્રમાણે ચોવીશ કામદેવમાંનો એક)નાં પરાક્રમો વર્ણવે છે અને સાથે તે ફાગણ શુદિ પાંચમને દિવસે શ્રીપંચમીનું વ્રત કરવાથી થતી ફળપ્રાપ્તિનું ઉદાહરણ પૂરું પાડે છે. પુષ્પદન્તનું ત્રીજું કાવ્ય ગઝવરિય ચાર સંધિમાં ઉજયિનીના રાજા યશોધરની કથા આપે છે ને તે દ્વારા પ્રાણિવધના પાપનાં કડવાં ફળો ઉદાહત કરે છે. પુષ્પદન્તની પહેલાં અને પછી આ જ સ્થાનકને ગૂંથતી પ્રાકૃત, સંસ્કૃત, અપભ્રંશ અને અર્વાચીન ભાષાઓમાં મળતી અનેક રચનાઓ એ જૈનોમાં અતિશય લોકપ્રિય હોવાની સૂચક છે. પુષ્પદન્તનું પ્રશિષ્ટ કાવ્યરીતિ પરનું પ્રભુત્વ, અપભ્રંશ ભાષામાં અનન્ય પારંગતતા, તેમ જ બહુમુખી પાંડિત્ય તેને ભારતના કવિઓમાં માનવંતુ સ્થાન અપાવે છે. એક સ્થળે કાવ્યના પોતાના આદર્શન આપો ખ્યાલ આપતાં તે કહે છે કે ઉત્તમ કાવ્ય શબ્દ અને અર્થના અલંકારથી તથા લીલાયુક્ત પદાવલિથી મંતિ, રસભાવનિરંતર, અર્થની ચાતાવાળું, સર્વ વિદ્યાકલાથી સમૃદ્ધ, વ્યાકરણ અને છંદથી પુષ્ટ અને આગમથી પ્રેરિત હોવું જોઈએ. ઉચ્ચ કોટિનું અપભ્રંશ સાહિત્ય આ આદનો સાક્ષાત્કાર કરવામાં પ્રયત્નશીલ રહ્યું છે, પણ તેમાં સૌથી વધુ સરળતા પુષ્પદન્તને મળી છે એમ કહેવામાં કશી અત્યુક્તિ નથી. પુષ્પદત પછીનાં ચરિતકાવ્ય પુષ્પદન્ત પછી આપણને સંચિબદ્ધ ચરિતકાવ્યો કે કથાકાવ્યોનાં પુષ્કળ નમૂના મળે છે. પનામાંનાં ઘણાંખરાં હજી માત્ર હસ્તપ્રતરૂપે જ રહ્યાં છે. જે કાંઈ થોડાં પ્રકાશિત થયાં છે, તેમાં સૌથી મહત્વની ધનપાલકૃત મસિસ્ (સં. મરિયા) છે. ધનપાલ દિગબર ધર્ટ વણિક હતો અને સંભવતઃ ઈસવી બારમી શતાબ્દી પહેલાં થઈ ગયો. બાવીશ સંધિના વિસ્તારવાળું તેનું કાવ્ય પ્રમાણમાં સરળ શૈલીમાં ભવિષ્યદત્તની કૌતુકરંગી કથા કહે છે અને સાથે સાથે કાર્તિક શુદિ પાંચમને દિવસે આવતું બતપંચમી કે જ્ઞાનપંચમીનું વ્રત કરવાથી મળતાં ફળનું ઉદાહરણ આપવાનો ઉદ્દેશ પણ પાર પાડે છે. તેનું કથાનક એવું છે કે એક વેપારી નિષ્કારણું અણગમો આવતાં પુત્ર ભવિષ્યદત્ત સહિત પોતાની પત્નીનો ત્યાગ કરે છે અને બીજી પત્ની કરે છે. ભવિષ્યદત્ત મોટો થતાં કોઈ પ્રસંગે પરદેશ ખેડવા જાય છે ત્યારે તેનો ઓરમાન નાનો ભાઈ બે વાર કપટ કરી તેને એક નિર્જન દ્વીપ પર એકલોઅટૂલો છોડી જાય છે. પણ માતાએ કરેલા શ્રુત પંચમીના વ્રતને પરિણામે છેવટે તેની બધી મુશ્કેલીઓનો અંત આવે છે, તેનો ધણું ઉદય થાય છે અને શત્રુનો પરાજય કરવામાં રાજાને સહાય કરવા બદલ તે રાજ્યાધનો અધિકારી બને છે. મરણ પછી ચોથા ભાવમાં શ્રુતપંચમીનું વ્રત કરવાથી તેને કેવલજ્ઞાન પ્રાપ્ત થાય છે. ધનપાલ પહેલાં આ જ વિષય પર અપભ્રંશમાં ત્રિભુવનનું નિરિક તથા પ્રાકૃતિયાં મહેશ્વરની નાણાપંકીબ (સં. નીચા) મળે છે. ધનપાલની સમીપના સમયમાં શ્રીધરે ચાર સંધિમાં અપભ્રંશ વિસરિડ (સં. વિચારત) (ઈ. સ. ૧૧૭૪) રચેલું છે, જે હજી અપ્રસિદ્ધ છે. કનકામરનું માનવારિક (સં. હરિત) દસ સંધિમાં એક પ્રત્યેકબુદ્ધ(એટલે કે રવયંપ્રબુદ્ધ સંત)નો જીવનવૃત્તાંત આપે છે. બદ્ધ સાહિત્યમાં પણ કરકંકુની વાત આવે છે. ધાહિલકૃત વરસિરિચિત (સં. જારીરિતમ્) (ઈસવી અગીઆરમી શતાબ્દી લગભગ) કપટભાવયુક્ત આચરણનાં માઠાં ફળ ઉદાહત કરવા ચાર સંધિમાં પદ્મશ્રીનો ત્રણ ભવન વૃત્તાંત આપે છે. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૭ સંધિ વીર = પણ પહેલાં કહ્યું તેમ સંધિબદ્ધ ચારિતકાવ્યોના ઘણા મોટા ભાગને હજી મુદ્રણનું સદભાગ્ય નથી સાંપડયું. અહીં આપણે તેવાં કાવ્યોની એક યાદી–અને તે પણ સંપૂર્ણ નહીં આપીને જ સંતોષ માનશું. સામાન્ય રીતે આ કાવ્યો અમુક જૈન સિદ્ધાંત કે ધાર્મિક-નૈતિક માન્યતાના દૃષ્ટાંત લેખે કોઈ તીર્થંકરનું કે જેન પુરાણમાના યા ઇતિહાસના કોઈ યશરવી પાત્રનું ચરિત વર્ણવે છે. ચરિતકાવ્યોની યાદી કવિ રચનાસમય સંખ્યા (ઈસવીસનમાં) पासपुराणु (સં. જાપુરમ્) પદ્યકીર્તિ ૧૮ ૯૪૩ પૂણાનિચરિડ (સં. નૂતાનિવરિતમ્) સાગરદત્ત ૧૯૨૦ ભૂમિરિક (સં. પૂમિતિ) ૧૦૨૦ સુરિક (સં. સુનરિત) નયનંદી ૧૦૪૦ વિવેકહી (સં. વિચારવતીયા) સાધારણ અથવા સિદ્ધસેન ૧૧ ૧૦૬૮ વરાત્તિ (સં. તિ) શ્રીધર ૧૧૩૩ સુમરિ૩ (સં. સુમારવારિતમ્). શ્રીધર ૧૧૫૨ કુમારરૂિ (સં. સુમાનિતમ) પૂર્ણભદ્ર વગુખી (સં. ગપુના ) સિંહ કે સિદ્ધ ૧૨મી શતાબ્દી રિવારિ૩ (સં. વિનવવરિત) લકપણ ૧૨૧૯ વર: મિચરિક (સં. વાભિચરિતમ) વરદત્ત લવિંતિમ (સં. યાવિતમ્) ધનપાલ ૧૩૯૮ ખિયરિડ (સં. શનિવરિતમ્). જયામિત્ર હલ ૧૫મી શતાબ્દી રજપતિ (સં. સારિત) યશકીર્તિ નિવરિ૩ (સં. સતિવિનિવરિત) રઈબ્ધ રારિ (સં. મેરરિત) ૨ઈધૂ વળનવરિ૩ (સં. નિમારવરિતમ્) માળવાવુ (સં. વર્ષનાવ્ય ) જયમિત્ર હલ્લ અમરેગઢ (સં. સમાનારત) માણિયરાજ જયકુમારિક (સં. નાઇમારત્વરિતમ્) સુવારિક (સં. સુત્રોનાવાતિ) દેવસેન ૨૮ કથાકોશો અહી સુધીમાં ગણાવ્યા તે ઉપરાંત બીજો એક વિષયપ્રકાર પણ સંધિબંધમાં મળે છે. તે છે કોઈ વિશિષ્ટ જેન ગ્રંથમાં પ્રતિપાદિત થયેલા અમુક ધાર્મિક વા નૈતિક વિષયને ઉદાહત કરતી કથાવલી. કાકોશ” નામે જાણીતા આ સાહિત્યની સંખ્યાબંધ કૃતિઓ સંસ્કૃત અને પ્રાકૃતમાં મળે છે. અપભ્રંશમાં ૫૬ તથા ૫૮ સંધિના બે ભાગમાં રચાયેલું નયનંદીત સોફિલિપાળ (સં. જાવિધિવિધાન ) (ઈ. સ. ૧૯૪૪) તથા ૫૩ સંધિમાં નિબદ્ધ શ્રીચંદ્રકૃત માહોકુ (કાવ (ઈસવી અગીઆરમી સદી) એ બંને, શ્રમણજીવનને લગતા ને જૈન શેરમેનીમાં રચાયેલા આગમકલ્પ ૧૫૨૦ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૮ પ્રસિદ્ દિગંબર ગ્રંથ માનતી આવધનાની સાથે સંકળાયેલી કથાઓ વર્ણવે છે. નયનંદી અને શ્રીચંદ્રે પોતાની કૃતિઓ પુરોગામી સત્કૃત અને પ્રાકૃત આરાધનાકયાકોશોને આધારે રચી હોવાનું જણાવ્યું છે. ૨૧ સંધિનો શ્રીચંદ્રકૃત ટુંકળયળજરંદુ (સ. ાનયાર નરદ:) (ઈ. સ. ૧૦૬૪), ૧૧ સંધિની હરિષેણુ કૃત પમ્પરિયલ (સં. ધર્મપરીક્ષા) (ઈ. સ. ૮૮), ૧૪ સંધિનું અમરકીર્તિકૃત અમ્બુવએતો (સં. હાર્મોપવેશ) અને સંભવતઃ ૭ સંધિનું શ્રુતકીર્તિકૃત વમિક્રિયાસસાફ (સ. પરમેષ્ઠિપ્રાચલર:) (ઈ. સ. ૧૪૮૭) વગેરેનો પણ આ જ પ્રકારમાં સમાવેશ થાય છે. આ બધી કૃતિઓ પણ હજી પ્રકાશમાં નથી આવી. આમાં હરિષેણુની ધમ્મપરિણ તેના વસ્તુની વિશિષ્ટતાને કારણે ખાસ રસપ્રદ છે. તેમાં મુખ્યત્વે બ્રાહ્મણુ પુરાણો કેટલાં વિસંગત અને અર્થહીન છે તે સચોટ યુક્તિથી પુરવાર કરીને મનોવેગ પોતાના મિત્ર પવનવેગ પાસે જૈન ધર્મનો સ્વીકાર કરાવે છે તેની વાત છે. મનોવેગ પવનવેગની હાજરીમાં એક બ્રાહ્મણસભા સમક્ષ પોતાના વિશે.સાવ અસંભવિત અને ઉટપટંગ જોડી કાઢેલી વાતો કહે છે, અને જ્યારે પેલા બ્રાહ્મણો તેને માનવાની ના પાડે છે, ત્યારે તે રામાયણ, મહાભારત અને પુરાણોમાંથી એવા જ અસભવિત પ્રસંગો ને બનાવો સમર્થનમાં ટાંકી પોતાના શબ્દોને પ્રમાણભૂત ઠરાવે છે. હરિષેણુની આ કૃતિનો આધાર કોઈ પ્રાકૃત રચના હતી. શમ્મરિ′′ને અનુસરીને પછીથી સંસ્કૃત તેમ જ ખીજી ભાષાઓમાં કેટલાંક કાવ્યો રચાયાં છે. હરિભકૃત પ્રાકૃત ધૂર્તોત્થાન (સિવી આઠમી શતાબ્દી)માં આ જ કથાયુક્તિ અને પ્રયોજન છે અને આ વિષયની સર્વપ્રથમ કૃતિ હોવાનું માન તેને ફાળે જાય છે. આ સંક્ષિપ્ત નૃત્તાંત પરથી અપભ્રંશ સાહિત્યમાં સંધિબંધનું કેટલું મહત્ત્વ છે તેનો ઘટતો ખ્યાલ મળી રહેશે. રાસામધ સંધિબંધની જેમ અપભ્રંશે સ્વતંત્રપણે વિકસાવેલું અને ઠીકઠીક પ્રચલિત ખીજું સાહિત્યસ્વરૂપ તે રાસાબંધ. તે ઊર્મિપ્રધાન કાવ્યના પ્રકારની, મધ્યમ માપની (આમ સંસ્કૃત ખંડકાવ્યનું સ્મરણ કરાવતી) રચના હોવાની અટકળ થઈ શકે છે. તેમાં કાવ્યના કલેવર માટે સામાન્ય રીતે અમુક એક પરંપરારૂઢ માત્રા છંદ પ્રયોજાતો, જ્યારે વૈવિષ્ય માટે વચ્ચે વચ્ચે ભાતભાતના રુચિર છંદો વપરાતા. રાસાબંધનો પ્રચાર અને લોકપ્રિયતા આપણને ઉપલબ્ધ પ્રાચીનતમ પ્રાકૃત-અપભ્રંશના હિંગલકારોએ આપેલી રાસકની વ્યાખ્યાથી સમર્થિત થતાં હોવા છતાં (સ્વયંભૂ તો તેને પતિગોફીઓમાં રસાયણુરૂપ કહીને વખાણે છે) એક પણ પ્રાચીન રાસાનો નમૂનો તો ઠીક, નામે ય નથી જળવાઈ રહ્યું એ આશ્ચર્યની વાત છે. અને પાછળના સમયમાં પણ આ મહત્ત્વના અપભ્રંશ કાવ્યપ્રકાર વિશેનું આપણું અજ્ઞાન ઘટાડે તેવી સામગ્રી સ્વલ્પ છે. સતત અને ધરમૂળનું પરિવર્તન પામીને રાસો અર્વાચીન ભારતીય – આર્ય સાહિત્યમાં ઓગણીશમી શતાબ્દીના અંત સુધી ચાલુ રહ્યો છે. પ્રાચીન ગુજરાતી–રાજસ્થાની સાહિત્યમાં ઘણુંખરું જૈન લેખકોના રચેલા રાસાઓ સેંકડોની સંખ્યામાં મળે છે. પણ અપભ્રંશમાં ઠેઠ તેરમી શતાબ્દી લગભગના એક મુસ્લિમ રાસક અને ખારમી શતાબ્દી લગભગના સાહિત્યદૃષ્ટિએ મૂલ્યહીન એક ઉપદેશાત્મક જૈન રાસ સિવાય ખીજું કશું મળતું નથી. આમાં પાઞ્લી કૃતિ પવેશ લાયનવાદ એંશી પદ્મોમાં સદ્ગુરુ અને સમની પ્રશંસા અને કુગુરુ અને ધર્મની નિંદા કરે છે. એ રાસકકાવ્ય એક પ્રતિનિધિરૂપ કૃતિ નહીં, પણ લોકપ્રિય સાહિત્યપ્રકારનો ધર્મપ્રચાર અર્થે ઉપયોગ કરવાનું ઉત્તરકાલીન ઉદાહરણ માત્ર છે. માળિય-પ્રસ્તારિત્ર-પ્રતિષ્ઠાન નામે એક વધારાના રાસનો ઉલ્લેખ આરમી શતાબ્દીની કૃતિમાં મળે છે. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૯ અનિબદ્ધ રચનાપ્રકારો જેમાં પ્રતિપાઘ વિષયને સંવિધાન, સંયોજન વગેરે દ્વારા ચોક્કસ ઘાટ આપવાનો હોય છે તેવા વિશિષ્ટ બંધવાળા પ્રકારો ઉપરાંત અપભ્રંશમાં બંધરહિત પ્રકારોનો પણ ઉપયોગ થતો. અપભ્રશ કથાકાવ્ય માટે સંધિબંધ જ નિયત હતી એવું નથી. કેમ કે આરંભથી અંત સુધી નિરપવાદપણે એક જ છંદ યોજાયો હોય અને બંધારણ કે વિષયાદિને અવલંબીને કોઈ પણ જાતના વિભાગ કે ખંડ પાડવામાં ન આવ્યા હોય તેવાં કથાકાવ્યોનાં આપણને એ બે નમૂના મળે છે. ઈ. સ. ૧૧૫૦માં સમાપ્ત થયેલું હરિભદ્રનું ગેમિ૩િ (સં. નેમિનાથજરિતમ્)નું પ્રમાણ ૮૦૩૨ શ્લોક જેટલું છે, અને તે સળંગ રફા નામના એક મિત્ર છંદમાં રચાયું છે. હરિભદ્ર પહેલાં ઓછામાં ઓછી ત્રણ શતાબ્દી પૂર્વે થયેલા ગોવિંદ નામે અપભ્રંશ કવિએ પણ રહાછંદના વિવિધ પ્રકારોમાં એક કૃષ્ણકાવ્ય રચ્યું હોવાનું આપણે મૂછમાં આપેલાં ટાંચણ પરથી અનુમાન કરી શકીએ છીએ. ધાર્મિક, તથા આધ્યાત્મિક કૃતિઓ અપભ્રંશમાં કથાકાવ્યોની (અને સંભવતઃ ઊર્મિપ્રધાન કાવ્યોની) વિપુલતા હતી. એનો અર્થ એવો નથી કે તે બીજા કાવ્યપ્રકારોથી સાવ અજ્ઞાત હતો. ધાર્મિક બોધક વિષયની કેટલીક નાની નાની રચનાઓ ઉપરાંત ત્રણ આધ્યાત્મિક કે યોગવિષયક રચનાઓ પણ મળે છે. આમાં યોગીન્દુદેવ (અપ. જોઈદુ)નો વનવાસુ (સં. મારમાર) અને યોગાસર સાથી વિશેષ મહત્ત્વના છે. પરમાતુના બે અધિકારમાં પહેલામાંથી ૧૨૩ દોહા છે, જેમાં બાહ્યાભા, અંત માં અને પરમાત્માનું મુક્ત, રસવતી શૈલીમાં પ્રતિપાદન કરેલું છે. ૨૧૪ પદ્યો(ઘણાખરા દોહા)નો બીજો અધિકાર મોક્ષતત્વ અને મોક્ષસાધન ઉપર છે. યોગીન્દુ સાધક યોગીને આત્મસાક્ષાત્કારનુ સવોચ્ચ મહત્વ સમજાવે છે, અને તે માટેના માર્ગ તરીકે વિષયોપભોગ તજવાનો, ધર્મના માત્ર બાહ્યાચારને નહીં, પણ આંતરિક તને વળગી રહેવાનો, આંતરિક શુદ્ધિનો અને આત્માના સાચા સ્વરૂપનું ધ્યાન ધરવાનો ઉપદેશ આપે છે. ચોરીમાં ૧૦૮ પદ્યો(ઘણાખરા દોહા)માં સંસારભ્રમણથી વિરક્ત મુમુક્ષુને પ્રબુદ્ધ કરવા માટે ઉપદેશ અપાયેલો છે. સ્વરૂપ, શિલી અને સામગ્રીની દષ્ટિએ તેનું નામ યાહુ સાથે ઘણું સામ્ય છે. આ જ શબ્દો રામસિંહકૃત પાદુક(સં. શાકાત)ને લાગુ પડે છે. તેનાં ૨૧ર દોહાબહુલ પોમાં એ જ અધ્યાત્મિક નૈતિક દષ્ટિ પર ભાર મુકાયો છે. તેમાં શરીર અને આત્માનો તાત્વિક ભેદ નિરપી, પરમાત્માની સાથે આત્માની અભેદાનુભૂતિને સાધક યોગીનું સવૉચ્ચ સાધ્ય ગણ્યું છે. વિચારમાં તેમ જ પરિભાષામાં આ ત્રણે કૃતિઓ બ્રાહ્મણ અને બૌદ્ધપરંપરાની અધ્યાત્મવિષયક કેટલીક કૃતિઓ સાથે ગણનાપાત્ર સામ્ય ધરાવે છે. તેમની ભાષા અને શૈલી સરળ, સચોટ, લોકગમ અને અલંકારના તથા પાંડિત્યના ભારથી મુક્ત છે. તેમને ભારતીય અધ્યાત્મરહસ્યવાદી સાહિત્યમાં જૈન પરંપરાના મૂલ્યવાન પ્રદાન તરીકે ગણાવી શકાય. નાની ધાર્મિક કૃતિઓમાં લક્ષ્મીચંદ્રત રવાપમલો (સ. વકીલો) અપરનાણ નવરાતwવાર (૧૬ મી શતાબ્દી પહેલાં) ઉલ્લેખાઈ છે. તેમાં નામ પ્રમાણે શ્રાવકોનું કર્તવ્ય લોકભોગ્ય શૈલીમાં સમજાવ્યું છે. એ ઉપરાંત ૨૫ દોહાની મહેશ્વરકૃત સંયમવિષયક સંધનામો (સંભવતઃ ૧૩મી શતાબ્દી લગભગ)નો, જિનદત્ત (ઈ. સ. ૧૦૭૬ – ૧૧૫૨) કૃત છે અને Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૫૦ સ્વરૂજનો, અને ધનપાલકૃત સત્યપુરHદનમવીરોત્સાર (ઈસવી ૧૧મી શતાબ્દી), અભયદેવત તિદુબન આદિ સ્તવનો વગેરેનો ઉલ્લેખ કરી શકાય. - પ્રકીર્ણ કૃતિઓ અને ઉત્તરકાલીન વલણે સ્વતંત્ર કૃતિઓ ઉપરાંત જેને પ્રાકૃત તથા સરકૃત ગ્રંથોમાં અને ટીકાસાહિત્યમાં નાનામોટા સંખ્યાબંધ અપભ્રંશ ખંડો મળે છે. ઉદાહરણ લેખે થોડાંક જ નામ ગણાવીએઃ વર્ધમાનત ગમત (ઈ. સ. ૧૧૦૪), દેવચંદ્રકૃત સાન્નિનાથવરિત્ર (ઈ. સ. ૧૧૦૪), હેમચંદ્રકૃત સિમ વ્યાકરણ તથ સુરપતિ અપનામ રાજય (ઈસવી ૧૨મી શતાબ્દી), રત્નપ્રભત રામાચારો પતિ (ઈ. સ. ૧૧૮૨), સોમપ્રભકૃત કુમારપાધ્ધતિશેષ (ઈ. સ. ૧૧૮૫), હેમહંસશિષ્યક્ત સંગમમંત્તિ (ઈસવી ૧૫મી શતાબ્દી પહેલાં) વગેરે. સંધિ તેરમી શતાબ્દી આસપાસ ટૂંકા અપભ્રંશ કાવ્યો માટે “સંધિ” નામે (આગલા “સંધિબંધથી આ ભિન્ન છે) એક નવો રચનાપ્રકાર વિકસે છે. તેમાં કોઈ ધાર્મિક, ઉપદેશાત્મક કે કથાપ્રધાન વિજયનું થોડાંક કડવાંમાં નિરૂપણ કરેલું હોય છે, અને તેમનો મૂળ આધાર ઘણું વાર આગમિક કે ભાષાસાહિત્યમાંનો – અથવા તો પૂર્વકાલીન ધર્મકથા સાહિત્યમાંનો – કોઈ પ્રસંગ કે ઉપદેશવચનો હોય છે. રત્નપ્રભકૃત અંતસિંધિ (ઈસવી ૧૩મી શતાબ્દી), જયદેવકૃત માવનાસંધિ, જનપ્રભ (ઈસવી ૧૩મી શતાબ્દી)કૃત વાસંધ, મયણાસંધિ (ઈ. સ. ૧૨૪૧) તથા અન્ય સંધિઓ, વગેરે. તેરમી શતાબ્દીમાં અને તે પછી રચાયેલી કૃતિઓના ઉત્તરકાલીન અપભ્રંશમાં તત્કલ્લાન બોલીઓનો વધતો જતો પ્રભાવ છતો થાય છે. આ બોલીઓમાં પણ કયારનીય સાહિત્યરચના થવા લાગી હતી – જે કે પ્રારંભમાં આ સાહિત્ય અપભ્રંશ સાહિત્યપ્રકારો ને સાહિત્યવલણના વિસ્તારરૂપ હતું. બોલચાલની ભાષાનો આ પ્રભાવ આછારૂપમાં તો ઠેઠ હેમચંદ્રીય અપભ્રંશ ઉદાહરણોમાં પણ છે. ઉલટપક્ષે સાહિત્યમાં અપભ્રંશપરંપરા છેઠ પંદરમી શતાબ્દી સુધી લંબાય છે અને કવચિત પછી પણ ચાલુ રહેલી જોવા મળે છે. વસ્તુનિમણુની અને ક્ષેત્રની મર્યાદા છતાં નૂતન સાહિત્યસ્વરૂપ અને સ્વરૂપોનું સર્જન, પરંપરાપુનિત કાવ્યરીતિનું પ્રભુત્વ, વનનિપુણતા અને રસનિષ્પત્તિની શક્તિ- આ બધાં દ્વારા જેને અપભ્રંશ સાહિત્યનાં જે સામાÁ અને સિદ્ધિ પ્રકટ થાય છે તેથી ભારતીય સાહિત્યના ઇતિહાસમ સહેજે તેને ઊચું ને ગૌરવવંતુ સ્થાન પ્રાપ્ત થાય છે. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAINA FESTIVALS PADAMNABH S. JAINI Jainism Jainism today is a religion whose followers are few in number, only about four million throughout India. Along with Buddhism it was one of the two most prominent Shramana or non-Brahmanical religions that originated in the Ganges valley during the sixth or seventh century BCE, but its history differs from that of Buddhism in two striking respects: Buddhism was destined to spread throughout south-east and east Asia, while Jainism never left the subcontinent; secondly, Buddhism declined and almost disappeared from India, while Jainism survives in almost all parts of India, especially in the western states (Punjab, Rajasthan, Gujarat) and the Deccan (Maharashtra and Karnataka). Jainism is recognisable as an Indian religion, espousing the doctrine of samsara (the cycle of birth and death). This doctrine holds that all living beings are bound by their karma (effect of past deeds), which leads to their successive re-births in different bodies, but that there is a possibility of salvation in the form of freedom from the cycle of birth and death. Nevertheless, it rejects the authority of the Vedas and related texts, the efficacy of sacrifice, the existence of a creator-god, and the underlying rationale of the caste system. The human model emulated by the Jainas is that of the perfected ascetic, whom they call Jina (Victorious), whence the name Jaina is derived, or Tirthankara (Maker of a bridge across the river of samsara). The Jainas, who hold to a variation of the typically Indian scheme of beginningless, cyclical time, believe that in each of an infinite number of cosmic cycles there is an ascending and descending phase, and in each phase twenty-four Tirthankaras teach the Jaina path. We are currently near the end of the descending phase, the first. teacher of which was named Rishabha, and the last Vardhamana Mahavira. Only legendary accounts of the first twenty-two nas exist, while the twenty-third Jina, Parshva, is considered an Courtesy: Collection of the Research Papers of Prof. P.S. Jaini Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 historical figure, since his followers, known as Niganthas, aré mentioned in the Buddhist Tripitaka. Mahavira, the last Tirthankara and the supreme teacher of the present day Jainas (599-527) BCE), flourished in the tradition of Parshva and was a contemporary of Gautama the Buddha. According to the canonical texts of the Jainas, their community at the time of Mahavira was comprised of lay votaries and mendicants, with as many as 14,000 monks (sadhus) and 36,000 nuns (sadhvis). Around 300 BCE the once unified Jaina monastic community was split into two major sects known as Digambara and Shvetambara. The Digambara (Sky-clad) monks claimed that total renunciation of clothing - as practised by Mahavira himself – was a prerequisite for being a Jaina monk and therefore adhered to the practice of nudity. The Shvetambaras (White-clad) maintained that nudity was forbidden to the members of the ecclesiastical community and adopted the practice of wearing white (cotton) garments. The two mendicant sects eventually rejected each other as being apostates from the true path, compiled their own scriptures, and ceased to perform their common rituals, such as confession, together. The lay followers called shravakas (hearers of the law), of these two sects also formed their own social groups. They are distinguished mainly by the images of the Tirthankaras that they worship; the Digambara images are naked, while the Shvetambara images are decorated with ornaments of gold and silver. In the sixteenth century, moreover, there arose within the Shvetambara community a reformist movement (Sthanakavasi) that condemned the worship of images. Thus, in spite of a basic agreement about the fundamental teachings of the Jina, there have been sectarian differences regarding the manner in which the Jaina festivals are celebrated. Notwithstanding these sectarian differences the Jainas have been able to preserve their separateness from the Hindus, primarily because of their sizable monastic community. According to the most recent count it includes about two thousand monks and five thousand nuns, who form the most important element in supervising the major Jaina festivals. During the course of more than two thousand years of close contact with the Hindus, especially the merchant castes, the Jaina lay people have adopted many of the Hindu social customs, such as the caste system; and participate in Hindu festivals such as Vijaya-dashami (Dassehra) and Divali, which have become Indian national holidays. But the major Jaina festivals are observed exclusively by the Jainas, since they are celebrations of the holy careers of the Tirthankaras and of ascetic practices that emphasise non-possession (aparigrala) and non-violence (aliimsa), the two most important features of the Jaina teachings. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 153 The Jaina era and calendar The Jainas have traditionally reckoned the era of Mahavira (Virasamvat) to have begun in 528 BCE, the year after Mahavira's death. This era, also known as the Vira-nirvana era is, however, employed by Jaina authors only to indicate the dates of major events in the history of the Jainas (major schisms, councils, compilation of texts, and so on). For all other purposes the Jainas have used the Vikramasamvat (beginning in 58 BCE), prevalent among the Hindus of western India. Thus the holidays described below follow the traditional Hindu calendar (pancanga). New Year's Day has no special religious significance for the Jainas, since it is not associated with the holy career of the Jina. The birthday of Mahavira (Mahavira-jayanti), the only Jaina holiday recognised by the Government of India, therefore functions as the first of the annual cycle of Jaina festivals. The festivals Mahavira-jayanti (April) Mahavira-jayanti, or the celebration of Mahavira's birth, takes place on the thirteenth day of the waxing moon of Caitra. Although the annual festival of confession, the last day of the Paryushana-párva is the holiest, Mahavira-jayanti is the most important festival in social terms. All Jainas, regardless, of sectarian affiliations, come together to celebrate this occasion publicly, taking leave from work and school to participate in the activities. According to tradition Mahavira was born in 599 BCE in Kundagrama, a large city in the kingdom of Vaishali (near modern Patna in the state of Bihar). His father, named Siddhartha, is said to have been a warrior chieftain of the Jnatri clan. His mother, Trishala, was the sister of the ruler of Vaishali. The Jaina myths say that five events in the life of a Jina are the most aupicious occasions (kalyanas), on which the gods come down to earth and attend upon him. His descent from heaven into his mother's womb (garbha) is the first occasion. At this time his mother has sixteen dreams, in which she sees sixteen auspicious objects, such as a white elephant, a lion, the full moon, the rising sun, an ocean of milk, and so on. The second auspicious event is his birth (janma). Indra, the king of gods, and his consort, Indrani, come down to the royal palace and transport the baby to Mount Meru, the centre of the Jaina universe, and sprinkle him with water from all the oceans. Thus they declare the advent of a new Tirthankara. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 During the Mahavira-jayanti, these two auspicious events ar celebrated with great pomp by the Jaina laity in the form of a ritual which may strike an outsider as a dramatic re-enactment. The festival begins in the early part of the morning with the arrival of the Jainas at their local temple. On this day gold and silver images, which represent the objects in Trishala's dreams, are prominently displayed in order to suggest the conception of Mahavira. A newly married or a wealthy couple will volunteer to assume the roles of Indra and Indrani, and will worship a small image of the Jina by placing it on a pedestal (serving as Mount Meru) and pouring perfumed water on it, and anointing it with sandalwood paste. Those who play these roles distribute large amounts of money for charitable purposes as well as for the upkeep of the shrine. The other members of the community join in this ritual by chanting the holy litany while showering flowers on the image and waving lamps (arati) in front of it. If a monk or a nuǹ happens to be in residence at that time, he or she will add to the occasion by reading the Kalpasutra, the biography of Mahavira, and describe the three remaining kalyanas of his spiritual career: Mahavira's renunciation of household life (diksha-kalyana) at the age of 30 his severe austerities for a period of twelve and a half years culminating in his enlightenment (kevalajnana-kalyana), and finally his death (nirvana-kalyana) at the age of 72. The ceremony concludes with the chanting of the holy Jaina hymns in the praise of Mahavira and the lay people returning to their homes to enjoy a feast in honour of Mahavira's birth. Akshaya-tritiya (April/May) The holiday of Akshaya-tritiya (Immortal Third) falls on the third day of the waxing moon of Vaishakha. Akshaya-tritiya celebrates the first instance of alms being given to a mendicant, in this case the first Tirthankara of this cycle, Rishabha. After his renunciation, Rishabha went without food for six months, since none of his contemporaries knew the proper foods acceptable to a mendicant. A Jaina mendicant, who by law must be a vegetarian, observes a great many other dietary restrictions. He may not eat raw vegetables nor fruits like figs, which contain many seeds. Tradition has it that a prince named Shreyamsa dreamed that in a past life he had offered alms to a Jaina monk. This dream led him to recognise the kind of food acceptable to a Jaina mendicant. He then offered a pitcherful of sugar-cane juice to Rishabha, who, by drinking it, broke his sixmonth fast. The gods celebrated this event by showering jewels on Shreyamsa's household, and that day thus became known as the Immortal Third. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 155 The present-day Jainas celebrate the first gift of alms to a Jaina mendicant by publicly honouring lay men and lay women, who undertake fasts similar to that of Rishabha. In almost all major centres of Jaina population several elderly Jainas of both sexes vow to fast on alternate days for periods of six months or a year. The last day of these fasts (varshi-tapa) falls on the Akshaya-tritiya, when the elders of the Jaina community, under the supervision of a monk or a nun, honour these devout Jaina lay people by feeding them spoonfuls of sugar-cane juice, thus helping them to break their fasts. This action recalls Shreyamsa's giving alms to Rishabha and emulates the examples of the first Jaina ascetic in undergoing austerities on the path of salvation. Shruta-pancami (May/June) Shruta-pancami (Scripture-Fifth) is celebrated on the fifth day of the waxing moon of Jyeshtha. It commemorates the day on which the Jaina scriptures (shruta) were first committed to writing. At first the teachings of Mahavira were handed down orally; since they were Sacred, Jaina teachers were not willing to commit them to writing. It was, however, not easy to maintain this oral tradition, since those monks who had committed the teachings to memory gradually died off, and, because of adverse conditions few new monks were trained. The Digambara tradition maintains that around 150 CE two Jaina monks, Bhutabali and Pushpadanta, compiled those teachings that were available and wrote them down on palm leaves. The 'Scripture-Fifth' is said to be the day on which this scripture, entitled Shatkhanda-agama (Scripture in Six Parts), was completed. The Shvetambaras, however, have a different set of scriptures called Dvadasha-anga-shruta (Scripture in Twelve Parts). These were compiled under the supervision of their pontiff (acarya) Devarddhigani Kshamashramana, c.450 CE. This event occurred at a different time of the year, and hence it is celebrated on the fifth day of the waxing moon of Karttika (October November). The actual celebrations, nevertheless, are almost identical. On this day elaborately decorated copies of the scripture are displayed in Jaina temples, and devotees sit in front of the pedestal on which they are placed. They then sing hymns in praise of the Jinas who preached the teachings and the mendicants who faithfully preserve them. On such occasions it is customary for rich lay people to commission new, illustrated copies of certain texts, especially the biographies of the Jinas such as the Kalpasutra, and distribute them to the general public. Jaina children participate in this festival by copying the Jaina litanies and by giving gifts of paper and pens. The Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 ceremony concludes with a sermon by a monk or a nun about the importance of reading scriptures in the search for knowledge. The public then recites a formula in veneration of the teachers. For this reason this day is also known as Jnana-pancami (KnowledgeFifth) or Guru-pancami (Teacher-Fifth). Paryushana-parva/Daksha-lakshana-parva (August) The festivals described above last only a day and are associated with some historical event. On the other hand Paryushana, which means 'passing the rainy season', is dedicated to the cultivation of certain religious practices of a longer duration. The Jaina monks and nuns, unlike their counterparts in other religions, do not have permanent abodes in the form of monasteries and nunneries; they are obliged by law to stay only a few days or weeks at a time in any one place. During the four months of the rainy season (caturmasa), however, they are required to choose a fixed place of residence and spend their time within the boundary of that village or town. The presence of nuns and monks (who must always live separately and in groups of a minimum of three persons) during the rainy season thus affords great opportunities for the lay devotees to undertake a variety of religious practices. The elders in the Jaina community plan for this occasion a year in advance by inviting a particular group of monks or nuns to come to their town for the rainy season. Since the Jaina mendicants must travel by foot, they set out on their journey early enou gh that they may arrive before the onset of the rainy season, which officially begins on the fourteenth day of the waxing moon of Ashadha (June/July). On that day lav people visit the n teachers and resolve to lead temporarily a life of restrait include dietary restrictions (such as not eating certain kinds of foods or not eating at night time), sitting in meditation in a regular every day, or the study of a particular scripture. Participation in these religious observances becomes more intense during the week-long celebration of the Paryushana-parva. For the Shvetambaras this begins on the twelfth day of the waning moon of Shravana (August) and ends on the fourth day of the waxing moon of Bhadrapada. The Digambaras celebrate the same festival a week later, for ten days. During these eight or ten days many members, young or old, of the Jaina community observe some form of restraint regarding food. Some may eat only once a day, or fast completely on the first and the last days; others refrain from eating and drinking (except for boiled water) for the entire week. These latter spend most of their time in temples or monasteries, in the company of monks. participants attempt in these various ways to emulate the life of a Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 157 mendicant for however short a time, detaching themselves from worldly affairs and leading a meditative life. Each day monks and nuns give sermons, placing special emphasis on the life and teachings of Mahavira. For a second time the Shvetambaras celebrate the birth of Mahavira by reading the Kalpasutra in public, thus rededicating themselves to his ideals. The Digambaras refer to the festival of Paryushana-parva also by the name Dasha-lakshana-parva, or the Festival of Ten Virtues: forgiveness, humility, honesty, purity, truthfulness, self-restraint, asceticism, study, detachment, and celibacy. They dedicate each day of the festival to one of the virtues. The celebration of Paryushana-parva comes to a climax on the last day, when Jainas of all sects perform the annual ceremony of confession, Samvatsari-pratikramana. This is the holiest day of the year for the Jainas, who take leave from work or school on this occasion to participate in the activities. On the evening of this day (on which almost all participants have fasted) Jainas assemble in their local Hemples, and, in the presence of their mendicant teachers, they confess their transgressions by uttering the words miccha me dukkadam (may all my transgressions be forgiven). They then exchange pleas for forgiveness with their relatives and friends. Finally they extend their friendship and goodwill to all beings in the following words: 'I ask pardon of all living creatures; May all of them pardon me. May I have a friendly relationship with all beings, And unfriendly with none.' Vira-nirvana (November) The festival of Vira-nirvana, or the anniversary of the death of Mahavira, occurs on the fifteenth day of the waning moon of Ashvina. On this night in the year 527 BCE Mahavira, at the age of 72, entered nirvana (the state of immortality that is freedom forever from the cycle of birth and death), in a place called Pavapuri, near modern Patna. Towards the dawn, his chief apostle (ganadhara) Indrabhuti Gautama, a monk of long-standing, is said to have attained to enlightenment (kevalajnann), the supreme goal of a Jaina mendicant. Tradition has it that Mahavira's eighteen contemporary kings celebrated both these auspicious events by lighting rows of lamps. This act of 'illumination' is claimed by the Jainas as the true origin of Divali, the Hindu Festival of Lights, which falls on the same day. The Hindus, of course, have a different legend associated with Divali, and their festival probably antedates Mahavira's nirvana. Devout Jaina lay people observe Vira-nirvana by undertaking a Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 twenty-four-hour fast, and spend this time in meditation. It is considered highly meritorious to keep vigil throughout this holy night, especially at the actual site of Mahavira's nirvana. Those who cannot make the pilgrimage perform a memorial worship in their local temple by lighting lamps in front of an image of Mahavira. This solemn service takes place early in the morning of the next day, the first day of the waxing moon of Karttika, prior to the breaking of the day-long fast. The ceremony concludes with a public recitation of an ancient hymn addressed to all 'liberated beings' (siddhas), including Mahavira: 'Praise to the holy, the blessed ones, who provide the path across,.. those who are endowed with unobstructed knowledge and insight ... the linas. who have crossed over, who help others cross, the liberated and the liberators, the omniscient, the all-seeing, those who have reached the destiny of the siddha from which there is no return and which is bliss immutable, inviolable, imperishable, and undisturbed; praise to the Jinas who have overcome fear. I worship all the siddhas, those who have been, and those who in future will be.' Karttika-purnima/Ratha-yatra (December) The festival of the Karttika-purnima, or the Jaina Car Festival (Ratha-yatra), occurs within a fortnight of Divali, on the full moon day of Karttika. This marks the end of the rainy season. On the following day the monks and nuns, who have stayed in retreat for four months, must resume their wanderings. At the same time the lay people are released from the various vows which they had undertaken for the duration of the season. The festival of Karttikapurnima provides them with an opportunity to thank the monks and nuns for their sermons and counsel. The lay people celebrate this day by putting an image of the Jina into an immense, beautifully decorated wooden vehicle (ratlia) and pulling it by hand through the streets of the city. The procession, headed by monks and nuns, begins at the local temple and winds its way through the city to a park within the city limits. Here a prominent monk gives a sermon, and the leading lay people call for generous donations in support of the various social and religious projects (such as building temples, libraries, or hospitals) that have been inspired by the presence of the mendicants. The procession then returns of the temple, and the people go home in a festive mood. Bahubali-mastaka-abhisheka (every twelve years, February) Finally, we may mention a special ceremony, which, although not part of the annual cycle, is the most famous and by far the most Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 159 spectacular of all Jaina festivals. This is called Mastaka-abhisheka (Head-anointing), and is held every twelfth year at Shravanabelgola, in Karnataka, in honour of the Jaina saint and hero, Bahubali. The most recent performance of this very popular ceremony took place in February 1981 CE, and was especially dramatic, since it fell on the thousandth anniversary of the consecration of Bahubali's statue, which was installed by the Jaina general, Camundaraya. Hundreds of thousands of Jainas from all over India came to the small town of Shravanabelgola, in order to anoint and to meditate before this monumental statue of Bahubali, which stands fifty-seven feet tall and was carved out of granite on a hill-top just outside of the town. The statue depicts Bahubali, the first man to attain to nirvana in our present time cycle, as standing erect, completely naked, immersed in deep meditation. Bahubali is believed to have held this posture, oblivious to the vines and snakes gathering around him, for twelve months, in a heroic effort to root out the last vestiges of impurity, In order to honour his achievement and to gain great merit for themselves, the faithful come to Shravanabelgola every twelve years, and erect a temporary scaffolding behind the statue, with a platform at the top. From this platform they anoint Bahubali with pitcherfuls of various ointments consisting of yellow and red powder, sandalwood paste, milk, and clear water; the colours of these materials symbolically represent the stages of purification of Bahubali's soul as it progresses towards enlightenment. Table of Jaina festivals February Bahubali-mastaka-abhisheka (every twelve years) April Mahavira-jayanti April/May Akshaya-tritiya May/June Shruta-pancami August Paryushana-parva/Daksha-lakshana-parva Noveniber Vira-nirvana December Karttika-purnima/Ratha-yatra Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FEAR OF FOOD? JAINA ATTITUDES ON EATING PADMANABII S. JAINI One of the several ways of distinguishing the Vedic tradition from the heterodox religious systems is to characterize the former as oriented to sacrifice (yajña) and the latter as adhering to the path of asceticism (tap). Since a yajña primarily consists of offering some kind of food as oblation, the Vedic tradition may be described as that which consumes food initially offered to the Deity and hence sanctified by its acceptance. The Vedic scers declare that they have imbibed soma and have attained immortality: apama somam amṛtā abhūma.' The Upanisads even declare that food is Brahman (annanı brahma)2 and recite a prayer which expresses a wish "Let us all cat together" (saha nau bhunaktu).3 The age-old brahmanical practice of offering śräddha or food to the manes (pitr) by feeding the brahmans has given rise to die adage that a brahman is fond of food: brāhmaṇo bhojanapriyaḥ. In contrast, the heterodox tradition of the śramanas ignores soma altogether, decries oblations to gods as fruitless, prohibits the cating of the socalled prasāda, and ridicules the offerings to the manes as futile; it thus may be said to reject any notion of sacredness attached to food. The preferred mode of spiritual activity of the śramanas is tapas, which primarily consists of 'heating' oneself, i.e., drying or thinning by reducing the intake of food and water. Tapas is uius a form of self-sacrifice which is said to bring about magical powers (ṛddhi) as well as achieve the spiritual goal of mokṣa. The Ājīvikas, the most ancient among the śramaņas, have claimed that their teacher Gośāla had accumulated such heat (tejo-lesya) within himself by fast Courtesy: Collection of the Research Papers of Prof. P.S. Jaini Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 161 ing and Uat he was able to scorch to death iwo Jaina mendicants by urowing tial power in their direction. He is also said to have died fasting without walcr with only a mango stone placed in his mouth for the purpose of salivating. Such a death was considered an extremely holy one and assured the highest licaven, if not mokşa, for the departing soul. The Acārārgu-sütra os the Jainas narrates al length the scvere asceticism of Malāvīra, the last Jaina Tīrthankara. It is said that during the twelve years of his wandering lisc prior to his Enlightenmeni, Mahāvīra had lived on only thrce kinds of rough food-rice, pounded jujube, and pulses: "Taking only these three, lic suscained himself for eight monuis. ... Somctines hic alc only every sixth day or cvery cigfith or cvery tenui or every twelfth. Frce of desires, hic remaincd engrossed in meditation."7 According to the later commentators, during uiesc iwelve years Mahāvīra look food on a total of 349 days only; at other times he fasted completely.8 the Buddhist lexts, 100, make similar claims on behalf of Siddhāruia Gautama wlio is said to have fasted for long periods of time during uic six years of his sucnuous scarch for Enlightenment. In the Majjhimanikāya, lic describes the severity of his fasting in the following words: "Becausc I ate so little, all my limbs became like the knotted joints or withered creepers; because I ate so little, my protruding backbone becanic like a string of balls; bccause I aic so little, my buttocks became like a bullock's hoof; because I aic so littlc, my gaunt ribs became like the crazy rasiers of a (unble-down slicd; becausc I atc so little, the pupils of my cycs appcarcd lying low and dcep in dicir sockets as sparklcs of water in a deep well appcar lying low and decp...."9 There is no doubt thiat Ure sanious Gāndhāran skeleton image of Hic meditating Buddha, now in die Lahore Museum, is a vivid depiction of this passage. As we know, the Buddha abandoned this practice in preference for his Middle Path. Condenuing such fasting as painful mortisication unworthy of a sccker of nirvana, he staricd taking food and is not known ever to have prescribed fasting for anyone else. But the Jainas found this so-called Middle Path of the Buddha as nothing but saintheartedness, a weakness of the spirit unwortly of a true follower of a Jina. They not only employed fasting as the best atonement for transgressions of mendicant rules, 10 but also recommended it as a supreme spiritual practice to Vieir incndicants as well as lay disciples. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 The Jainas arc thus distinguished from the bralunanical tradition by their rejection of the sacredness of food, of sacrificial mcat, but also of ghçc and, by extension, rejection of the cow as a sacred animal. They are distinguished from Ulic Buddhists by their emphatic adherence to the practicc of fasting as a primary component of their spiritual path. Refraining from food for a period of time is not altogether unknown to the bralunanical scriptures. The Manusmrti prescribes fasting as a form of expiation for certain transgressions cspecially by members of the braliman castc." The Purāṇic literature is also full of stories like uial of Viśvāmita whose ycars of fasting were rendered sutilc by thic capriccs of gods, jealous of the sage's superior yogic powers. But thcsc arc, for Uic most part, legends and arc not narralcd to persuade thic Hindu laity to imilate the sage by similar fasting. In the case of the Jainas, however, fasting by their teacher Mahāvīra seems to have left an indelible mark on their consciousness, making it the most important feature of Jaina lapas. This is demonstrated by the fact that a great many Jaina laymend women of all ages undertake sasting on a regular basis and consider it thc singular mark by which their community can be distinguished from that of the bralunanical society. Remarkable still is die most holy Jaina practice of salleklanā which permits certain advanced Jaina mendicants to adopt total sasting as a legitimate way-in fact the only permissible way of choosing death in the face of terminal illness. 12 Thc Jaina emphasis on sasting Uius invites an examination of dicir attitude lo food and thic rcasons for dicir belich in thc cfficacy of lasting as a mcans of allaining moksa. Probably thic Jaina doctrine of the matcrial (paudgaliku) nature of karma capable of producing impure transformation (vibhāvapariņāma) of the soul (jīva) is at the root of this belics. It is well known thal in Jainisin karmic bondage is seen as an accumulation of an extremely subtlc form of sloating 'dust' which clings to the soul when the latter is overcomic, moistened, as it were, by desire and other passions. These desires (present in all souls from beginningless time) in Vieir most subtle for are called sanjñās, a term which may be tentatively translaled as 'instincts'. The Jaina texts cnumcrate four such samjižās universally found in all forms of lisc including the vegetable kingdom. Craving for food (älāra-samjñā) is die most primary of uiesc instincts. No being other than the libcratcd soul is excmpt from it. This desire for food sets up competition between onc living Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 163 being and another which gives rise to the second instinct, namely that of fear (bhaya-samjñā). The consumption of food sets in motion the third and probably the most virulent of the instincts, the desire for SCX (maithuna-samjñā), gratification of which produces further desire for food. This, in turn, produces a craving to accumulate things for future use, the instinct called parigraha-saṇjñā, which invariably goads the soul towards volitional harmful acts (himsā) inspired by attachment and aversion (rāga and dveșa). The Jainas therefore see the craving for food as the very root of all bondage, the uprooting of which is essential for the elimination of the other passions. 13 The Jaina texts dealing with the training of mendicants constantly encourage the cultivation of distaste for food and stipulate a variety of ways of overcoming the desire for flavor (rasa-parityāga). They begin with the characteristic Jaina declaration that the desire for food is the prime cause for all fems of himsā since food cannot be consumed without destroying another life form. Because life cannot be maintained without consuming some amount of food, the Jaina teachers have devised various means of minimizing this himsa for their mendicants who have assumed the vow of total nonviolence (ahimsā-mahāvrata),1a In the Jaina classification of beings, souls endowed with all five senses (pañcendriya-jīva) occupy the highest position, while the vegetable life, endowed with only one sense, namely that of touch, is placed at the bottom of the list. Beings with two or more senses must not be willfully violated even by a lay person because their organisms (muscle, blood, bones, etc.) are similar to urat of human beings. Thus all forms of animal flesh, including foul and fish, are totally unacceptable for a pious Jaina who must depend on a vegetarian dict, with only dairy products as an exception to the rule (since it is believed that removal of milk does not hurt the animal). The list of prohibited food (abhakṣya), however, even extends to certain fruits and vegetables, especially the five kinds of figs (udumbara), fruits with many seeds (bahubīja), and a variety of plants called anantakāyas, which are thought to be inhabited not by individual souls but by an infinite number of living organism. These anantakayas include as many as thirty-two varieties of food including turmeric, ginger, garlic, bamboo, radishes, beetroots, and carrots. 15 The Jainas extend their scruples against destroying ekendriyas even to water used for drinking. No observant Jaina may drink un Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 strained water (agālita-jala) and a mendicant may drink only boiled water which has been rendered srcc of all forms of subllc lisc. Further restrictions apply to the time when permiticd food may be consumcd. Advanced lay people as well as mendicants as a rule observe Uic vow of not partaking of any food or water after sunset (rātri-bhojana-lyrīga-vrata) and the Digambara mendicants are restricted to a single mcal (including water) a day. On certain holy days, such as the cighth and thic fisiccnth of cach lunar inonth, many lay people undertake sasts (called anasana, lit. 'no! cating', or upavāsa) and at least once a year all Jainas observe a communal sast and dedicate Uiat day for begging forgiveness (kşamāpanā) of all begins, including those ckendriyas whose lives Uicy destroyed in the act of cating.16 As for mendicants, who must constantly engage in austcritics, urc Jaina lexis prcscribc a varicty of tapas: giving up stimulating dishes (rasa-parityāgu), reducing one's diet to a few morsels (avamaudarya), and fasting for an entire day (anasana).17 Jaina sasts, whether practiced by the mendicants or the lay pcoplc, must be distinguished from unic "Tasts” kept by tic followers of Judaism, Christianity, and Islam. Fasting in thcsc communities is, for thic inost part, restricted to Ulic daytimc only; often food is freely consumed afler sunsct. Even the followers of various brahmanical religious sccts allow cating fruits or some form of uncooked food—and preferably at night!--on ucir fasting days. The Jaina fast, however, lasts from sunrise to sunrise and is lolal; only boiled water in limited quantitics may be consumed and that too only during the daytime. An extraordinary scature of the Jaina fast—100 much discussed in thic books but tacitly observed—is dial all sexual contact between couples is forbidden for the duration of dic fast, even if only the wisc or thic husband has refrained from food. Although the vow of celibacy (bralma-carya) docs not demand the vow of sasting, the Jainas scem to perceive Uie latter incomplete without uic former. This demonstrates the unique Jaina belief that uic sex instinct (maithuna-samjñā) is inscparablc from Hic craving for food and cannot be overcome without controlling tic desire for uic latter. Fasting for a day only is considered child's play among vic Jaina laity. A great niany Jaina lay people, especially women, during the sacred week called tlic paryüşaņa-parva in the rainy scason (cāturmāsa), undertake longer periods of fasting for Uiree lo cight days. The formal conclusion of a sast is callcd pāraṇā and lakes place long after uic sunrise, with a sip of boiled Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 165 water, usually after an offering of food is made to a Jaina monk or nun visiting this houschold for collecting alms. The pārapās, especially after longer periods of Casting, are occasions for joyous celebrations by the relatives and friends of die person who has completed the vow laululessly and checrfully, Along with fellow members of the community licy gather to seed such a person—in the majority of cases the fasts arc undertaken by women, often nicwly wcddcd bridcs taking the lead and proving their zoal to their new relativeswith spoonfuls of boiled water or fruit juice. The participating community shows in this manner its delight in the spiritual progress made by one of its own and also carns mcrit by the act of giving food to so worthy a person. As for the mendicants, thc Jaina books describc a variety of fasts lasting sometimes several days, wecks, and even months. These are said to result in Uhic inimcdiatc rebirth in die highest of hcavcns (whicrc only Jaina nicndicants may be bom) to be followed by rebirth even as illustrious human beings (siglākāpuruṣa), such as a Cakravartin, a Nārāyana, or even as a Jina, before attaining the supreme goal of mokşa. The ninth-century Punnāļa Jinasena in his Harivansa Purana devotes a whole chapter of 154 verses lo dic description of a varicly of fasts kriown by such grand names as thic Sarvatobliadra (10 fasts), Vasantabhadra (35 fasts), Mahāsarvalobhadra (196 fasts), Trilokasāravidhi, Vajramadhiyavidhi, Ekāvalī, Muktāvalī, Ratnāvalī, and the Simhanişkrīdita, to mention only a few major oncs.18 The last of these fasts consists of 496 fasts with only 61 meals in between and is completed in as many as 557 days. It is said that Krşna, a cousin of Vic 22nd Jina Nemi according to uic Jaina cpics, was in a previous birth a Jaina nicndicant by the name of Nimnāmaka Muni (lit. 'Uie Sage Anonymous'!) and had then performed the above mentioned Sirphanişkrīdita fast. He had as a result been bom during the ume of the Jina Nemi as the last Nārāyaṇa, thic Great Hero of our age. 19 Fasting for the Jaina is thus a holy act to be undertaken by the pious solely for overcoming the sanjñās in order to weaken tic bonds of karma. But a holy act for a mendicant can justly become a source of merit for thc laity sccking worldly fortune. The Jainas consider the offering of food Phāra-dāna) lo a fasting monk or a nun on the pārana day an act of extraordinary merit, a privilege envied even by gods. Tlie Jaina Purāņas are repleto withi storics of a great many pious lay people, remembered in thic tradition Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 with dccp affection, who were fortunate enough to be the donors (dūtā) of alms lo such worthy mendicants, especially when the latter were on the verge of altaining cnlightenment. It is said that Rşabha, the first Jina of our time, wandered without food for a whole year and concluded his fast with a handsul of sugar cane juice offered by King Sreyārsa, a momentous cvent which was grccled by gods with a slower of wcalth. The Jainas still celebrate Ulis day, llic third day of the waxing noon of Vaišāklia (April-May), as thic Immortal Third (Akşaya-istīyā),20 and aspire to offer a similar gist lo mendicants who conclude their fasts on liat day. Mahāvīra, the last Jina, is also said to have wandered for six months without food and water and finally broke his fast with sonic lentils offered to him by a slave girl callcd Candanā who subscqucntly became the head nun of his community of 36,000 nuns.21 In the Buddhist tradition this honor goes to Lady Sujātā who had offered a dish of milk pudding to Siddhārtha Gautama on uic very day of his cnlightenment. It is said that this dish provided nourishinent for the enlightengd Gautama for 49 days.22 Fasting is an act of tapas and is figurativcly spoken of as a blazing fire in front of which mountains of snow of karma vanish, bringing the aspirant ever more closer to the goal of mokşa. The merit resulting from offering the proper food to such holy persons is therefore rightly unequaled by any other charitable activity of a householder. On the other hand, the perils of denying food to a sasting mendicant on his pāranā day are proportionately great and the lay community must remain vigilant lost the fire of his tapas engulf the socicty itsell! The Jaina narrative of Kamsa (thc notorious king of Maturā who was killed by Krşna) serves as an excellent illusualion of the dire consequences that follow upon a mendicant's long fast, the pāraņā of which has been thwarted by carelessness on the part of the laymen. In his former lise, unc soul of the person who will be known in his next life as the villain Kamsa, was a mendicant called Vasiştha. He practiced thc brahinanical asceticism of agnisūdhana, i.e. sitting in incditation surrounded by burning logs of wood, which the Jainas considered false tapas on account of the himsā caused by the blazing fire. Ilc was subsequently converted to Jainism and became a devoul Jaina monk of the Digainbara order. He lived on the mount Govardhana, and the reputation of his great tapas reached the court of King Ugrasena of Mathurā, himself an ardent lay follower of Vic Jina. The muri Vasiştha oncc Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 167 undertook a monthlong fast. The king, desirous of carning mcrit by offering him food on the day of his päraņā, issued a royal decrec in which he claimed that privilege for himself and threatened to punish any one who should como forth to sccd the monk when his fast was over. At the end of tic thirty days, thic muni Vasiştha caine out of scclusion and cntcrcd Mathură, walking in silence in front of the houses, expecting a lay person to properly invite him in for a mcal, as besits a Digambara monk. Unfortunately, Mic king had forgotlen his resolve to feed the monk, and the people were afraid of brcaking the king's command. As a result Vasiştha returned to his abode without concluding the fast and as is customary in such cascs, he underwent another month of sasting. He relurned again to Mathurā, but the king was distracted by a raging fire in the palace and Vasişilia had lo lcave the city without food for the second time. He returned for the third time after the lapse of another monui's fast, but as satc would have it, the king again failed to honor luis promise occupied as he was with an elephant which had gone on a rampage, and Vasiştha returned without finishing his pārajā. An old woman saw thic silent monk rclurning without alms and informed him of thc unjust order of the King Ugrasena. The āhūra-sanjññā is a deadly instinct, und as the wisc frog Gangadatta of the Pancalantra observed: "What sin would not a hungry man commit, for indeed weak men becoine devoid of pity!" (bubhukşitaḥ kiin na karoti pūpam, kşiņā nară nişkarunā bhavanti.)23 Infuriated by this callous ucaunent, Vasiştha in a moment of hunger forgot his mendicant vows and resolved to avenge this insult and deprivation. Ilc died in anguish and was immicdiately conceived in the womb of Padmāvatī, thic chics queen of the same King Ugrasena. Soon after, the queen started having pregnancy cravings (dohala) of an extraordinary kind. She conceived a desire, prompied 110 doubt by the fetus, to cut the heart of her husband and to drink luis bloud in her folded hands. The king, using certain stratagems, sulfilled hier desires and a son was born whom both parents thought it wisc to abandon to avert any danger to the kingdom. They placed him in a copper container (kāmsya-manjūṣā) with a royal scal indicating his true origin and floated it in die river Yanıunā. Thus was the origin of the villain Kamsa who would even pally imprison his father the King Ugrasena and would himself be killed by Krsna, Ulic son of Vasudeva and Devak7.24 This is not the occasion for examining the question whether tlic pregnant Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ woman in the story was projecting on the fetus her own desire to kill her husband, or to debate the possibility of the presence of an ocdipal desire in a fetus. We are here concerned rather with the "edible" complex and should therefore look for the message the story might convey to the members of the Jaina community concerning the instinct for food. Even a fetus is not free from the ravages of the ahara-sanjñā, especially the fetus of a soul that has died of starvation. Notwithstanding the grave provocation which filled the dying muni Vasistha with rage, one would still expect a Jaina mendicant to crave a morsel of vegetarian food rather than lust for a drink of blood. The author of the story is no doubt employing a conventionalized way to describe an acute form of hostility of the frustrated hungry man-and a holy man--- toward those who let him die of hunger. Even so, it is possible to argue that the story also points to the great difficulty of maintaining the practice of vegetarianism in the face of deliberate deprivation of permitted food or in the cvent of a natural calamity like a famine. We will never know why certain animals (e.g. cows, deer, elephants, etc.) are born vegetarians while others are not, but it can be safely said that human beings are vegetarians not by birth but by choice only. Indeed vegetarianism in the Indian context must be considered to be a religious habit acquired over many years of the strictest possible cultural conditioning. It is therefore liable to be lost if favorable conditions such as donors readily offering appropriate food-were not forthcoming, as in the case of muni Vasiṣṭha in our story, or social pressures were to be relaxed as is now the case for many second generation Jainas who have settled in the West. In either case, craving for food, ever present due to the ahara-samjñā, especially for the forbidden variety-the taste (rasa) for which has only been suppressed but has never been totally destroyed-is likely to surface at any time. According to the Jaina texts, the memories of these tastes are so tenacious that they are preserved through countless rebirths and may suddenly overcome a soul even under the best of circumstances. This is illustrated by several Jaina stories one of which may be noted here. 168 We referred earlier to the great fast called the Simhaniṣkrīḍita which was practiced by Kṛṣṇa in one of his previous lives when he had become a Jaina monk. The same narrative tells us that a few lives prior to that period, the soul of Kṛṣṇa was born as a human being and he had entered the service of a king as a cook and had gained great reputation for preparing the most Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 169 delicious mcat dishes. This distinction carned for him not only ilic lordship of ten villages as a gift from the king, but also the title Ampla-rasāyana ("Abode of the Ambrosia Flavor"). The king died and his son who succeeded lo uic thronic came under the influence of a Jaina monk and gave up cating mca! aliogcther. He fired the cook and took away Hic ion villages previously granted to him by the dead king. The cook realized that a Jaina niendicant had deprived him of his living and deliberately sed diat monk a poisonous bitter gourd, as a result of which the monk died. Because of this cvil dccd, upon the cook's death his soul was born in hell. When eventually lic was rcborn as a fiuman being and had progressed cnouglı to become a Jaina nionk, hic performed the Simhanişkrīdila sast and, as a result, was (in his last birth) boni Krsna the Great Hero, a cousin-brother of the twenty-second Jina ca Nemi. One would expect Kșşņa to have by now given up all desire for mcal, but such was not Uic case. It is said that on the eve or Nemi's wedding, Krsna degliberately caused a great many animals to be penned in for Hic purpose of sccding thicir meal to the guests and, as a result, Nemi, utterly overcome by his compassion to the animals, renounced the world 10 become a Jaina mendican.25 Now it is well known that Jainas have always considered dicmselves to be vegetarians, especially at the time of Krşna and Jina Nemi, when the degenerate days of the pancama-kāla (the Jaina version of Hic Kali-yuga in w live) liad not yet arrived. Nor arc die Jainas ever known to fccd non-vcgclarian food cven to their non-Jaina gucsis. Thic bclier that Kļşņa, the Great Jaina Horo, and himsell, a cousin of the Jina, could have succumbed to such a totally unwliolesome and unacceptable practice can only be explained in one way. The relish of the forbidden food and the memories of mcat cating were so ingrained on his soul that they surfaced unexpectedly--riggered no doubt by the impending wedding feast-and drove him to commit that reprehensible act on account of which he was, at the end of his glorious life as a Nārāyana, reborn in the fourth hell. The Jaina epics tell us Urat Kļşa's soul is still languishing in that purgatory, but thcy also promise us Ural lic will emerge from that hell to be reborn again as a human beingand one who remains a vegetarian to be surel-becoming even a Jina himself duus will finally attain illc goal of mokşa.26 A person who does not clinib higlier is in no danger of falling lower. But there is no telling how far and low an apostate, having slipped from the high Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ground, may fall. The story of Kṛṣṇa does not fully spell out what probably the Jaina authors fear actually may happen to a Jaina who has ceased to be a vagetarian. The alleged craving for blood by the muni Vasistha in his new incarnation as the fetus Kamsa must inescapably lead to the horrible conclusion that, for an apostate, cannibalism is just a step away from eating animal flesh. One such story, the subject matter of a long Kannaḍa kāvya called Jinadattarüyacarite, widely known in the Digambara Jaina community of Karnataka, might illustrate this point. The story tells us about the migration of Jainas in ancient times under the leadership of Prince Jinadatta from northern Mathura-the same city once ruled by Kamsa and Kṛṣṇa-to the newly founded Humcă (near the modern city of Shimoggā), the medieval seat of the Santara dynasty of southern Karnataka.27 In brief, the story is that Mathurā was ruled by a devout Jaina king Sākāra and his queen Siyaladevi. They have a son called Jinadatta obtained through the grace of Padmavati, the protector goddess (śāsana-devata) of the Jina Pārsvanatha. Like the king Santanu of the Mahābhārata, king Sākāra once lost his way in a forest and found himself in love with the daughter of a king of hunters (vyādha). He secretly promised her father that he would give his kingdom to her son, and established her separately from his chief queen in the outskirts of the capital where she soon gave birth to a son called Maridatta. For a long while the king remained a vegetarian but with the birth of the new son, he began frequenting her house and in no time became fond of cating meat dishes cooked in her kitchen. One day, we are told, the cook could not find any animal to slaughter and, fearing the king's wrath, procured from the cemetery the flesh of a dead man and prepared a novel dish. The king was extremely pleased with the new dish and was not deterred even when he came to know the source of the meat. Indeed, he even secretly contrived with the cook to obtain freshly killed human meat every day for his table and arranged to send a small child, who would become the victim of the day, to the cook with the ruse of delivering a lemon. Soon small children began disappearing without a trace from the city of Mathurā. The king's addiction to hunan meat had reached a point of no return, enabling the hunter queen to use it to her benefit to get rid of Jinadatta, the rival to her son, by sending him to the cook to deliver the lemon. But fate intervened and Māridatta intercepted him, snatching the lemon away from him, insisting that he would himself deliver it to the cook and was thus killed 170 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 171 insicau. Jinadatta was miraculously saved, and lic, taking his mother and his loyal army, sed Mathură, inigrated to the south, and cstablished a new Jaina kingdom at Huncā, dedicating that city to his savior goddess Padmāvati. A (crriblc fall awaited the King Sākāra who had allowed himself to slip from vegetarian liabits and had wantonly indulged in cating meal, Icading to cannibalism. He died a horrible death and was reborn in the Seventh Ilcll. The stories of Vasiştha, Krşğa and Sākāra examined above, progressively illustrate the manner in which the Jainas vicw tic tremendous power which the instinct for eating (āhūra-samjñā) cxerts upon an aspiring soul, and Uic nccd for ever guarding oneself against the templation for food. Since the samjñās, whether for food, scar, sex or acquisition, are a form of desire, Uicy will persist until all forms of dcluding or molunīya karmas arc destroyed, whcrcupon uic soul liaving allained omniscience (kevala-jiāna) concs to be designated a kevulin. One would expect the Jainas to bclicvc that such a kovalin—a person like Malāvīra, for example, wlio becamc a kcvalin at the age of forty and lived for another thirty-two years-would altogether ccasc cating food. The Jainas would also be required to devise an alternative means of sustaining the lise of such a kevalin, frced as he is for ever from the shackIcs of uc ālāra-samjñā. This brings us to a niost important controversy bc{ween the Jaina sccis of the Svelānibaras and the Digambaras, who have maintained radically different views on the problem of hunger and the susIcnance of life of an omniscient person, whether he be a Tirtarikara kevalin like Malāvīra, and licnce gisied with special bodily sealures, or thousands of ordinary mendicant disciples who also attained tv kuivalya during his time.28 Both sccis agrec Hial lic instincts of scar (bhuya), sex (maithuna) and acquisition (parigraha), have Uncir origin solely in mind and Uicrcforc llicsc can be overcome by meditation on their opposites (rutipaksa-bhavanā) and are terminated without a trace at the time of attaining kaivalya. The instinct for food, however, falls in a clifferent category, since we need for nourishment of Hic body operates independent of a desire to cal and cannot be wished away merely by the contemplation of the opposite. In other words, die absence of Hic āhāra-samjñā in a kevalin does not result in the absence of the nccd for pourislımcnt. The question is how to account for uic sustenance of a kcvalin's body when he is totally devoid of the desire for food? The Svclānbaras saw no conflict here and argued that a kevalin continues to eat 'morsels' of food Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 (kavala-ülüra) dcposilcd (prakṣipta) in the body as bcforc, even in the absence of thc ālāra-sanjījā. A kovalin must lakc such food, thcy argued, in order to sustain himself, i.c. lo satisfy uic biological conditions of hunger (kşudhā) and thirst (trọnā), uic two painful seclings (asäră-vedaniya) which, being a primary condition of all crnbodiment, must risc voluntarily. one who has brought an end to all desires.29 But the Svclāmbaras probably did not forcscc uic pcrils in pcrinitting a kevalin uic morsels or food (kuvula-ālāra), for once it was admitted that cvcn a kovalin may cal, albcit without the urgings of thc āliāra-sanjñā, there was no way of preventing the possibility of his consuming the forbidden food. The Svetāmbara canonical story of Malāvīra's cating of kukkuta-mümsa-decades aster his attaining omniscicucc--apparently for curing himself of the dehydration causcd by the magic local tirown by tic Ājivika Gosāla is a case in point. Nolwidistanding uic opinion of the old Svetāmbara commentators and of tic conscnsus of llic Jaina public in our times that what was catch was not any kind of meat but a mcdicinal herb-probably bījapūra-kaļāha or belphal-he fact still remains that Maltāvīra could have been accused of such an act only because the Svclābara tradition did provide for vic possibilily of a kovalin caling any food at all.30 This precisely sccms lo bc Dic point of controversy sciz.cd upon by the Diganbaras wlio vchemently rejected the idea of a kcvalin ever cating any food subscquent to the attainnent of omniscience. They maintained uiat with the end of thic desire for food (ālāra-samjñā) also came the end of all hunger and thirst for a kcvalin, as well as the need for answering uic calls of nature, and also of slccn. Thcy declared that with thic altaimcnt of ouniscience the body of a kevalin automatically undergoes a bio-chemical change, as it were, his blood bcing transformed to milk as in the case of heavenly beings (deva), srecing liim totally from hunger and thirst and thus from thic dependence on the 'kavala-āliāra' for ever. This transformed body needs no additional nourislument for its sustenance ouir than Ural which is automalically provided by the nokarma-varganā, a kind of karmic mallor responsible for maintaining thic structure and mass of a given body. This subllc karmic maller is involuntarily drawn 10 tic soul in a continuous Now by lic incchanisms of thc rāma and thic āyu-karınas, sorces which, at the timc of Ice present rebirth, liad projected lic human body of uic kcvalin and had also determined its longevity." The Digambaras proclaimed that the transformed Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 173 purc body of the kevalin, now called the paramd-audariku-sarira, will be maintained not by any fresh food dcposilcd (prukșipta) in die mouth or absorbed through the pores of the skin (loma-ülūra), but solely by uic nourislument derived from thic nokamma-vargaņā. Accordingly, they maintained Ural Uic body of die kevalin will be sustained by this voluntary karmic process until the end of his present lise. Then, like a chunk of camphor, this purc body at the moment of dcath, will suddenly cvaporate and the kevalin's persccicd soul will reach thic abode of thic libcratcd ones (siddha) at the summit of uic univcrsc. Sunsāra and food would thus appear to be coterminous for a Jaina; there never was a time when he has not eaten in this beginningless cycle of birth and death. The path of mokşa, thereforc, consists in overcoming the desire for food in all its forms, for truc libcration is freedom from lunger for ever. Notes *Whyper read at the 41st annual meeting of the Association for Asian Studies (Washington, D, C.: March 18, 1989), Session 56: "Edible Complexes: Altitude Toward Food and Eating in South Asian Tradition and Culturc." This article was published originally in Jain Studies in Honour of Jozef Deleu, eds. Smet and Watanabe, (Tokyo: Hon-No-Tomosha, 1993), pp. 339-354. Reprinted with kind permission of The Editor, Kenji Watanabe. 1. Rgvedu VIII 48. 2. Taittariya-Upanişul III 1-6. 3. Ibid., 1 1. 4. Sce P. S. Jaini, “The Pure and the Auspicious in the Jaina Tradition," Journal of Asian Perspectives (Lciden) 1, 1 (1985). 5. Bhagavali-sūtra XV 552; A. L. Bashan, The llistory and Doctrines of the Ajīvakas, London 1951. 6. Ibid. 7. Hermann Jacobi, Jaina Sülras, pt. 1, Sacrod Books of the East, vol. 20, p. 86 (Ācārāriga-sūtra 1 84). 8. Scc P. S. Jaini, The Jaina Path of Purification, Berkclcy 1979, P. 27 n. 61. 9. Majjhimanikāya : 80. ko. Sec Colette Caillai, Atonements in the Ancient Jaina Ritual of the Jaina Monks, L.D. Institute of Indology, no. 49, Aluncdabad 1975. 11. Manlısmrti vi 20. 12. See P. S. Jaini, The Jaina Path of Purification, pp. 227-233. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 13. Jinendra Varni, Jainendra Siddhanla Kośa Iv, Bhāratīya Jiānapitha, Varanda 1973. p. 121. 14. On the mahāvralas, scc H. Jacobi, Jaina Sūtras, pt. 1, pp. 202–210. 15. For a list of the forbidden food, sce R. Willians, Jaina Yoga, Oxford 1963, pp. 110-116. 16. Scc P. S. Jaini, The Jaina Path of Purification, pp. 209-217. 17. Sec Tattvārtha-sūtra of Umāsvāli, ix 19. 18. llurivomía Purana of Jinasena, ed. by Pannalal Jain, Bläratiya Jñānapītha 1962, sarga 34. 19. Ibid., sarga 33, versc 166. 20. Sec P. S. Jaini, "Jaina Festivals," Festivals in World Religions, cu. Alan Brown, London 1986. 21. For thic story of Candanā, scc M. L. Mchta and Rishabh Chandra, Prakrit Proper Names, pl. 1, L. D. Institute of Indology, Alınıcdabad 1970, p. 246. 22. For tic story of Sujalā, scc The Jātuka, pt. 1, cd. V. Fausboll. Pali Text Society, London 1962, pp. 68–70. 23. Pancatantru Iv 16. 24. llurivumisa Purāņa, ibid., sarga 33, verses 47-92. Scc also Brhuikathākośa of Ilarişcia (no. 106: Ugrascna-Vasiştha-kawhānakanı), cd. A. N. Upadhye, Singhi Jain Scrics, no. 17, Bombay 1943, pp. 267-276. 25. Sccllarivainsa l'urāna, ibid., sarga 55. 26. For further references on this point scc P. S. Jaini, The Jaina Puth of Purification, p. 305. 27. Scc thc inuwduction to the Padmā vatīmāhālınye ashavā Jinadallarāyacarile (in Karmnaça, c. 1800), published by the Vivekābhyudaya Kāryālaya, Mangalore 1956. 28. For a full discussion on this controversy, scc Paul Dundas, "Food and freedom: Thic Jaina sectarian debalc on tic naturc of thic Kevalin," Religion XV (1985), pp. 161-198. 29. Umāsvāti's Tallvārthasūtru ex 9 is said to providc lic scriplural authority for boui sccts on this controversy. For tic Digambara vicw, sec Sarvürthusiddhi ix 9. cd. Phoolchandra Siddhāntaśāsti, Bhāraliya Jiānapisha 1971. 30. For a discussion on the nature of uic food caten by Maliāvīra, scc P. S. Jaini, 77e Jainu Puth of Purification, pp. 23-24. 31. For tic Yāpaniya and uie Śvcrāmbara pxositions on kevali-kavalāhāra, scc Sirinirvana-Kevalibhukti-prukarune, ed. Muni Jambuvijaya, Jaina Āunānanda Sabhā, Bhavanagar 1974, pp. 39–52 and 85-100. For Vic Digambara rcsulation, SCC Nyayakumuducandra of Prabhācandra, ed. Maliendrakumar Nyāyācārya, Mānikacandra Jaina Granthamnālā, Bombay 1941, pp. 852-865. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ विद्यापीठ के नये निदेशक प्रो. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' पार्श्वनाथ विद्यापीठ के नये निदेशक के रूप में प्रोफेसर भागचन्द्र जैन 'भास्कर', पूर्व विभागाध्यक्ष, पालि-प्राकृत विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय ने दिनाङ्क १६ जुलाई १९९९ को अपना कार्यभार ग्रहण किया। जैन धर्म-दर्शन एवं भारतीय संस्कृति को समर्पित पार्श्वनाथ विद्यापीठ के पूर्व नियामकोंमुनि कृष्णचन्द्र जी, श्री शांतिभाई बनमाली सेठ, प्रो० मोहनलाल मेहता और प्रो० सागरमल जैन की गौरवशाली परम्परा में प्रो०भागचन्द्र जी अगली कड़ी हैं। आपका जन्म दिनाङ्क १/१/३९ को मध्यप्रदेश स्थित छतरपुर जिले के बम्हौरी नामक ग्राम में हुआ है। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा सागर तथा उच्च शिक्षा सागर, वाराणसी एवं श्रीलंका में सम्पन्न हुई। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से १९६० में आपने संस्कृत भाषा में, १९६२ में पालि भाषा में तथा नागपुर विश्वविद्यालय से १९७२ में प्राचीन 'भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व में एम०ए० की उपाधि प्राप्त की। १९६५ में आपने कामनवेल्थ फेलो के रूप में श्रीलंका के विद्योदय विश्वविद्यालय से Jainism in Buddhist Literature नामक विषय पर पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त की और उसके तत्काल बाद नागपुर विश्वविद्यालय के पालि-प्राकृत विभाग में प्राध्यापक एवं अध्यक्ष के रूप में अपनी सेवायें प्रारम्भ की। १९७८ ई० में आप रीडर पद पर प्रोत्रत हुए। १९८३ में आप राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर में जैन अध्ययन केन्द्र के निदेशक पद पर नियुक्त हुए और १९८५ तक इस पद पर बने रहे। १९८६ से १९८७ तक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के National Fellow रूप में कार्य किया। उसके बाद ही नागपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर पद पर आपकी नियुक्ति हुई जहाँ से अप्रैल १९९९ में आप सेवानिवृत्त हुए। अध्ययन के प्रति आपकी उत्कट भावना रही है इसीलिये आपने १९७८, १९९२ एवं १९९८ में तीन अलग-अलग विषयों पालि-प्राकृत, संस्कृत एवं हिन्दी में डी०लिट० की उपाधि प्राप्त की। अब तक आपके द्वारा लिखित, अनुवादित एवं सम्पादित ४० से अधिक पुस्तकें तथा ३०० से अधिक आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। अनेक अवसरों पर विदेशों के विभिन्न विश्वविद्यालयों में आपके व्याख्यान आयोजित किये जा चुके हैं। आप नागपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं- जैन मिलन एवं आनन्ददीप तथा कोल्हापुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका रत्नत्रय के सम्पादक रहे हैं। नागपुर विश्वविद्यालय से प्रकाशित होने वाली पत्रिका के सम्पादक मण्डल में भी आप रह चुके हैं। १९६० के दशक में अपने वाराणसी प्रवास के समय आप पार्श्वनाथ विद्याश्रम (अब पार्श्वनाथ विद्यापीठ) से भी सक्रिय रूप से जुड़े रहे। संस्थान Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ आपके कुशल नेतृत्व में निरन्तर विकास के पथ पर अग्रसर हो, इसी मंगल कामना के साथ हम सभी आपका हार्दिक अभिनन्दन करते हैं। || विद्यापीठ के प्रांगण में पार्श्वनाथ विद्यापीठ के विशाल सभागार में दिनांक १७/७/९९ को विद्यापीठ परिवार की ओर से अपने नये निदेशक प्रो० भागचन्द्र जैन 'भास्कर' के स्वागत समारोह का भव्य कार्यक्रम आयोजित किया गया जिसमें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों के प्राध्यापकों, बड़ी संख्या में स्थानीय विद्वानों एवं जैन समाज के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। दिनांक २५/७/९९ को विद्यापीठ परिसर में स्थानीय जैन मिलन द्वारा आयोजित भव्य कार्यक्रम में निदेशक महोदय का हार्दिक अभिनन्दन किया गया तथा उन्हें प्रो० सागरमल जैन के स्थान पर जैन मिलन का नया संरक्षक चुना गया। दि० २९/७/९९ को विद्यापीठ में बौद्ध धर्म-दर्शन के विश्वविख्यात् विद्वा, प्रो० नारायण हेमनदास सामतानी का व्याख्यान आयोजित किया गया। उन्होंने जैन-बौद्ध धर्म में शोध के नये आयाम नामक गम्भीर विषय पर अपना विद्वत्तापूर्ण व्याख्यान प्रस्तुत किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग के प्रोफेसर माहेश्वरी प्रसाद ने की। इस व्याख्यान में विभिन्न विद्वानों ने भाग लिया। निदेशक महोदय ने विद्यापीठ में कार्यभार ग्रहण करते ही यहाँ मासिक संगोष्ठी कराने का निश्चय किया जिसके अन्तर्गत ३१/७/९९ को विद्यापीठ के सभागार में पार्श्वनाथ विद्यापीठ नरोत्तम व्याख्यानमाला के प्रथम पुष्प के रूप में प्राकृत भाषा एवं साहित्य के मूर्धन्य विद्वान् प्रो० भोलाशंकर व्यास का प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के विकास में जैनाचार्यों का योगदान नामक विषय पर व्याख्यान आयोजित किया गया। कार्यक्रम के प्रारम्भ में संगोष्ठी के संयोजक विद्यापीठ के वरिष्ठ प्रवक्ता डॉ० अशोक कुमार सिंह ने आगन्तुक अतिथियों का स्वागत किया। विद्यापीठ के निदेशक प्रो० भागचन्द्र जैन ने प्रो० व्यास का माल्यार्पण कर स्वागत किया एवं उन्हें संस्थान के नये प्रकाशनों का एक सेट तथा संस्थान का प्रतीकचिन्ह भेंट किया। इस कार्यक्रम में भारतीय कला के विश्वविख्यात् मर्मज्ञ प्रो० आनन्दकृष्ण मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। निदेशक महोदय ने उन्हें भी माल्यार्पण कर संस्थान के नये प्रकाशनों का सेट तथा संस्थान का प्रतीकचिन्ह भेंट किया। व्याख्यान के प्रारम्भ में उन्होंने बड़े ही विद्वत्तापूर्ण ढंग से विषय प्रवर्तन किया। व्याख्यान के अन्त में डॉ० अशोक कुमार सिंह ने सभी आगन्तक अतिथियों के प्रति आभार प्रकट किया। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ संस्थान को नगर एवं समाज से सक्रिय रूप से जोड़ने के उद्देश्य से कार्यभार ग्रहण करते ही प्रो० भागचन्द्र जैन एवं उनके सहयोगियों ने नगर में आयोजित विभिन्न धार्मिक और शैक्षणिक कार्यक्रमों में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया। इसी क्रम में दिनांक २३/७/९९ को भगवान् पार्श्वनाथ श्वेताम्बर जन्मभूमि मन्दिर परिसर में आयोजित भूमिपूजन कार्यक्रम में निदेशक महोदय एवं उनके सहयोगियों- डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय, डॉ. विजय कुमार जैन, डॉ० सुधा जैन आदि ने भाग लिया। इस कार्यक्रम में श्वेताम्बर जैन समाज के श्री आर०के० गांधी, श्री मिलापचन्द गांधी, श्रीगणपतराय जी भंसाली, श्री मुन्ना बाबू, श्री ललितचन्द जी लोढ़ा, कुंवर विजयानन्द सिंह आदि अनेक गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे। दिनांक २७/७/९९ को सायंकाल भगवान् पार्श्वनाथ दिगम्बर जन्मभूमि परिसर में आयोजित आचार्य श्री सन्मतिसागर के चार्तुमास प्रतिष्ठा समारोह में विद्यापीठ के निदेशक महोदय उपस्थित रहे। दिनांक २८/७/९९ को वाराणसी स्थित इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र में 'जैन ईला' पर सुप्रसिद्ध कलाविद् डॉ० मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी का एक व्याख्यान आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रो० विद्यानिवास मिश्र एवं अध्यक्ष प्रो० आनन्दकृष्ण थे। डॉ० तिवारी ने बड़े ही सुन्दर ढंग से जैन कला के विभिन्न पक्षों को पारदर्शिता के माध्यम से प्रस्तुत किया। इस कार्यक्रम में विद्यापीठ के निदेशक प्रो० भागचन्द्र जैन को शाल भेंट कर उनका विशेष सम्मान किया गया। प्रो० जैन ने इस व्याख्यान के आयोजकों-विशेष रूप से डॉ० सुकुमार चट्टोपाध्याय, शोधाधिकारी, इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, वाराणसी को धन्यवाद देते हुए पार्श्वनाथ विद्यापीठ के भावी कार्यक्रमों की विस्तार से चर्चा की तथा सभी विद्वानों से इस पुनीत कार्य में सहयोग प्रदान करने का आह्वान किया। दिनांक ३१/७/९९ को रायकृष्णदास जन्म शताब्दी समारोह के अन्तर्गत भारत कला भवन (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी) के भव्य सभागार में प्रख्यात् कलामर्मज्ञ प्रो० नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी का 'भारतीय कला में उपदेवताओं का स्थान' विषय पर आयोजित व्याख्यान में विद्यापीठ के निदेशक प्रो० भागचन्द्र जैन एवं प्रवक्ता डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय ने भाग लिया। इस अवसर पर भारत कला भवन के निदेशक प्रो० आर०सी० शर्मा, प्रो० भोलाशंकर व्यास, प्रो० आनन्द कृष्ण आदि ने अपने वक्तव्य दिये। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो० जगदीश मित्तल ने की। ___दिनांक १/८/९९ को वाराणसी की ही नवोदित संस्था ज्ञानप्रवाह में प्रो०विद्यानिवास मिश्र द्वारा कलावीथिका का उद्घाटन तथा योगवशिष्ठ पर प्रो० अरिन्दन चक्रवर्ती, हवाई यूनिवर्सिटी एवं South Indian Painting पर प्रो० जगदीश Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ मित्तल के व्याख्यान हुए। इस कार्यक्रम में विद्यापीठ के निदेशक एवं उनके सभी सहयोगियों ने भाग लिया। ४-५ अगस्त को गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद में आयोजित 'जैन-बौद्ध दर्शन' पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में संस्थान के निदेशक डॉ० भागचन्द्र जैन ने भाग लिया और 'The Concept of Dharma in Jainism and Buddhism' विषय पर अपना शोधलेख प्रस्तुत किया, साथ ही एक सत्र की अध्यक्षता भी की। विद्यापीठ के वरिष्ठ प्रवक्ता डॉ० अशोक कुमार सिंह तथा डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय के निर्देशन में शोधकार्य करने वाले विद्यार्थी नियमित रूप से संस्थान के पुस्तकालय का उपयोग कर रहे हैं। वाराणसी के तीनों विश्वविद्यालयों के साथ-साथ देश के अन्य विश्वविद्यालयों में संस्कृत, प्राकृत, पालि, हिन्दी, राजनीतिशास्त्र, इतिहास, पुरातत्त्व, भारतीय कला, भारतीय दर्शन आदि विभिन्न विषयों में शोधकार्य करने वाले विद्यार्थी प्रारम्भ से ही यहाँ के समृद्ध पुस्तकालय का उपयोग करते रहे हैं। यह क्रम निर्बाध रूप से आज भी जारी है। बाहर से अध्ययनार्थ आने वाले छात्र-छात्राओं को यहाँ के अतिथिगृह एवं छात्रावासों में ठहरने की सुविधा भी प्रदान की जाती है। जुलाई मास' में बीकानेर की श्रीमती बबीता जैन एवं आरा की कु० सीमा सिन्हा ने विद्यापीठ के अतिथिगृह का उपयोग किया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की शोधछात्रा कु० सत्यभामा सिंह विगत दो मास से संस्थान के महिला छात्रावास में नियमित रूप से रहते हुए यहाँ के पुस्तकालय का उपयोग कर रही हैं। ere Sari Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ रखमीमाक्त स्वजैन विद्या उच्च अध्ययन केन्द्र RE SA C. भूमि Masa S R A M जैन-जगत् प्राकृत भाषा और साहित्य सम्बन्धी ग्रीष्मकालीन अध्ययनशाला सम्पन्न नई दिल्ली १३ जून : भोगीलाल लहेरचन्द इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, दिल्ली द्वारा प्रतिवर्ष मई-जून माह में प्राकृत भाषा और साहित्य के अध्ययन के लिये एक कार्यशाला का आयोजन पिछले ११ वर्षों से किया जा रहा है। इसमें समग्र भारत के विश्वविद्यालयों- महाविद्यालयों के लगभग ४० वरिष्ठ अध्यापकों एवं शोधछात्रों को पूर्णकालिक अध्येता के रूप में प्रवेश दिया जाता है। इस वर्ष इस कार्यशाला का उद्घाटन २३ मई को त्रिपुरा के राज्यपाल श्री सिद्धेश्वर प्रसाद ने किया। अध्ययनशाला के समापन के अवसर पर भारत सरकार के स्वास्थ्य मन्त्रालय के सचिव श्री बाल्मीकि प्रसाद सिंह एवं इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली के सचिव श्री मुनीशचन्द्र जोशी विशेष रूप से आमन्त्रित किये गये। इस समारोह में प्राकृत भाषा के दोनों पाठ्यक्रमों में तीन-तीन सर्वोच्च अंक प्राप्तकर्ताओं को पुरस्कार एवं अन्य अध्येताओं को प्रमाणपत्र वितरित किया गया। पार्श्वनाथ विद्यापीठ के शोधछात्र श्री अतुल कुमार प्रसाद सिंह ने प्राकृत भाषा के प्रारम्भिक पाठ्यक्रम में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। इस अवसर पर प्राकृत भाषा और साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय शोधकार्य के लिये सुप्रसिद्ध विद्वान् प्रो० ए०एम०घाटगे को चतुर्थ आचार्य हेमचन्द्रसूरि पुरस्कार प्रदान किया गया। इस समारोह में राज्यसभा के सचिव श्री आर०सी० त्रिपाठी, प्रो० सत्यरंजन बैनर्जी, Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० प्रो०प्रेमसिंह, श्री प्रतापभोगीलाल, श्री एन०पी०जैन, श्री देवेन यशवन्त आदि गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे। श्रतपश्चमीपर्व तथा श्री जैन सिदान्न भवन, आरा का ९६वाँ वार्षिकोत्सव सम्पन्न आरा, १८ जून १९९९, श्रुतपञ्चमी पर्व तथा श्री जैन सिद्धान्त भवन का ९६वाँ वार्षिकोत्सव श्रुतस्कन्ध यन्त्र, महान् ग्रन्थ षट्खण्डागम् की पूजा-अर्चना तथा भवन के वार्षिक प्रतिवेदन आदि के साथ सोल्लास सम्पन्न हुआ। इस शुभ अवसर पर प्रसिद्ध दानवीर बाबू हरप्रसाद जी जैन की पौत्री श्रद्धेया श्रीमती द्रौपदी देवी जी, भवन के संरक्षक श्रीमान् सुबोध कुमार जी जैन, प्रसिद्ध विद्वान् डॉ० गोकुल चन्द जी जैन तथा समाज के अन्य गण्यमान व्यक्ति उपस्थित थे। ज्ञातव्य है कि श्री जैन सिद्धान्त भवन, आरा की स्थापना सन् १९०३ ई० में आज ही यानि श्रुतपञ्चमी पर्व के दिन राजर्षि देव कुमार जैन ने भट्टारक श्री हर्षकीर्ति जी महाराज की प्रेरणा से की थी। इस ग्रन्थागार में प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, कन्नड़, बंगला तथा अन्य विभिन्न भाषाओं में लिखे जैन ग्रन्थ ही नहीं अपितु जैनेतर धर्मों को मिलाकर लगभग ५००० हस्तलिखित ग्रन्थ, १७०० ताड़पत्रीय ग्रन्थ तथा १४००० छपे हुए ग्रन्थ संग्रहीत हैं। इसके अतिरिक्त लगभग ५००० अंग्रेजी में छपे हुए अति दुर्लभ तथा बहुमूल्य ग्रन्थों का भी संग्रह है। ऑडियो-विडियो कैसेट लाइब्रेरी के अन्तर्गत जैन तीर्थस्थलों, मुनि महाराज-सन्तों के प्रवचन, भजन आदि के कैसेट उपलब्ध हैं। श्री जैन सिद्धान्त भवन के प्रकाशन विभाग द्वारा अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के प्रकाशन के अतिरिक्त हिन्दी में श्री जैन सिद्धान्त भास्कर तथा अंग्रेजी में जैन एन्टीक्वेरी नामक वार्षिक शोध-पत्रिकाओं का प्रकाशन सन् १९१२ से निरन्तर सुव्यवस्थित ढंग से होता आ रहा है। इन दोनों पत्रिकाओं में जैन पुरातत्त्व, इतिहास, कला आदि से सम्बन्धित अनेकों महत्त्वपूर्ण लेख प्रकाशित होते चले आ रहे हैं। श्री जैन सिद्धान्त भवन के अन्तर्गत स्थापित श्री देव कुमार जैन प्राच्य शोध संस्थान, जिसे कि मगध विश्वविद्यालय द्वारा मान्यता प्राप्त है, शोधार्थियों को अपनी सेवा प्रदान कर रहा है। शोधकर्ता की सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए बहुमूल्य प्राचीन ग्रन्थों की जेरॉक्स कॉपी देने की व्यवस्था भी भवन में है। .. इस अवसर पर श्री जैन सिद्धान्त भवन के संरक्षक श्री सुबोध कुमार जी जैन ने भवन की विभिन्न सेवाओं तथा उपयोगिताओं पर प्रकाश डाला। मानद् मन्त्री श्री अजय कुमार जी जैन ने श्रुतपञ्चमी पर्व के इतिहास से लोगों को अवगत कराया। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ प्राचीन धमेग्रन्थों का संरक्षण ही श्रुतपंचमी पर्व का प्रमुख लक्ष्य इन्दौर १८ जून : दिगम्बर जैन उदासीन आश्रम, तुकोगंज, इन्दौर द्वारा आयोजित धर्मसभा में आर्यिकारत्न श्रीदृढमती माता जी ने कहा कि देश के महान् आचार्यों व साधु-सन्तों द्वारा प्रणीत प्राचीन धर्मग्रन्थों का संरक्षण, स्वाध्याय, मनन एवं चिन्तन ही श्रुतपंचमी का प्रमुख उद्देश्य है। इस अवसर पर मुनि श्री नमिसागर जी एवं ऐलक श्री सिद्धान्तसागर जी के भी मंगल प्रवचन हुए। इस अवसर पर कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर द्वारा प्रकाशित जैन विद्या के अध्येताओं और जैन पत्र-पत्रिकाओं की बृहद् निर्देशिका का विमोचन भी सम्पन्न हुआ। २१वीं सदी में जैन धर्म की प्रस्ततता अहमदाबाद २६ जून : अन्तर्राष्ट्रीय जैन विद्या अध्ययन केन्द्र, गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद में २६ जून शनिवार को जैनदर्शन के सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ० कुमारपाल "देसाई का २१वीं सदी में जैन धर्म की प्रासंगिकता नामक विषय पर व्याख्यान सम्पन्न हुआ। इसका आयोजन अन्तर्राष्ट्रीय जैन विद्या केन्द्र द्वारा किया गया था। कार्यक्रम की अध्यक्षता विद्यापीठ के कुलनायक श्रीगोविन्दभाई रावल ने की। | श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर तीर्थ, हरिद्वार में मुनिराज श्री जम्बूविजय जी म0सा0 एवम् अन्य साधु-साध्वी वृन्द्र का भव्य मांगलिक चातुर्मासिक प्रवेश हरिद्वार-रविवार दिनांक १८/७/९९ को प्रात: ७.४० बजे गुरुदेव जम्बूविजय जी म० ठाणा १४ के मांगलिक चातुर्मासिक प्रवेश की शोभा-यात्रा ऋषिकेश मार्ग से श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ मन्दिर परिसर की ओर प्रारम्भ हुई। दिल्ली, पंजाब, तमिलनाडु, गुजरात आदि के साथ-साथ अन्य स्थानों से बड़ी संख्या में आए हुए श्रावक-श्राविकाओं ने हर्ष व उल्लास के साथ इस शोभा-यात्रा में भाग लिया। महिलायें सिर पर मंगल कलश धारण किये हुए थीं। जिन शासन कीजय उद्घोष के मध्य ठीक ८.२० प्रात: गुरुदेव श्री ने मन्दिर में प्रवेश किया। ___मन्दिर जी में दर्शन के उपरान्त परिसर में निर्माणाधीन नूतन धर्मशाला के तलघर में धर्मसभा आरम्भ हुई। सर्वप्रथम गुरुदेव श्री ने मांगलिक सुनायी जिसके उपरान्त आध्यात्मिक प्रवचन आरम्भ हुआ। समस्त उपस्थित श्रावक-श्राविकाओं ने बहुत ही भक्तिभाव से प्रवचन सुनकर आनन्द का अनुभव किया। इस अवसर पर गुरुदेव श्री Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ के कर कमलों द्वारा आचार्य श्री कलापूर्णसूरि जी म०सा० द्वारा रचित व हरिद्वार मन्दिर न्यास द्वारा प्रकाशित पुस्तक “मिले मन भीतर भगवान्' का लोकार्पण हुआ। इस धर्मसभा में हरिद्वार क्षेत्र के पाँच मुख्य धर्माचार्यों ने भी भाग लिया और सभी ने अपने-अपने प्रवचनों में जहाँ जैन मन्दिर की स्थापना पर हर्ष व्यक्त किया वहीं जैन धर्म के स्याद्वाद, अनेकान्तवाद आदि सिद्धान्तों का भारतीय परम्परा में जो सामञ्जस्य स्थापित है उसका विशद् विवेचन कर श्रावक-श्राविकाओं को मुग्ध कर दिया। विश्व-प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंसटीन के सापेक्षवाद की भी इस सन्दर्भ में व्याख्या की गयी। अन्त में नवकार महामन्त्र आराधक श्री शशिकान्त भाई मेहता का भाव-विभोर कर देने वाला प्रवचन हुआ जिसे सुनकर तीर्थ के न्यासियों ने उनसे नवकार आराधना शिविर हरिद्वार तीर्थ में आयोजित करने का अनुरोध किया। यह शिविर सितम्बर, १९९९ के अन्तिम सप्ताह में अथवा अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में आयोजित होने की सम्भावना है। श्री रमेशमुनि नी ठाणा ९ चातुर्मासार्थ अहमदनगर में अहमदनगर २२ जुलाई : स्व० आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म०सा० के शिष्य श्री रमेशमुनि जी, उपप्रवर्तक डॉ० राजेन्द्रमुनि जी आदि ठाणा ९ तथा महासती श्री पुष्पवती जी म०सा० की सुशिष्या श्री रत्नज्योति जी ठाणा ३ का अहमदनगर में चातुर्मासार्थ मंगलप्रवेश दिनांक २२ जुलाई को सम्पन्न हुआ। नगर प्रवेश के इस समारोह में बड़ी संख्या में समाज के गणमान्य व्यक्तियों एवं श्रावक-श्राविकाओं ने भाग लिया। मुनि श्रीमणिप्रभसागर जी का चातुर्मासार्थ दिल्ली में प्रवेश श्वेताम्बर मूर्तिपूजक आम्नाय के प्रमुख अंग खरतरगच्छ के मुनि श्री मणिप्रभ सागरजी महाराज के चातुर्मासार्थ दिल्ली में नगर प्रवेश के शुभ अवसर पर स्थानीय जैन समाज द्वारा भव्य कार्यक्रम का आयोजन किया गया जिसमें दिल्ली की मुख्यमन्त्री श्रीमती शीला दीक्षित, केन्द्रीय शहरी विकास मन्त्री श्री जगमोहन, दिल्ली के शिक्षा मन्त्री श्री योगानन्द शास्त्री, पूर्व सांसद श्री जयप्रकाश अग्रवाल, न्यायमूर्ति श्री यू० एन० भानावत, कोटा मुक्त विश्वविद्यालय की डॉ० सुषमा संघवी तथा जैनसमाज गणमान्य लोगों ने बड़ी संख्या में भाग लिया। इस अवसर पर मुनिश्री द्वारा तस्मै श्री गुरुवे नमः नामक पुस्तक तथा श्री ललित नाहटा द्वारा सम्पादित पत्रिका स्थूलभद्रसन्देश के दो अंकों— स्व० श्री हरखचन्द नाहटा जन्म जयन्ती विशेषांक व जहाज मन्दिर के भाई जी विशेषांक का भी विमोचन सम्पन्न हुआ। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ डॉ0 हीरालाल जैन जन्मशताब्दी समारोह . TARI 8 प्राच्य विधाचार्य डॉ० हीरालाल जैन (५.१०.१४९९१3.3.१९७२) जैन धर्म-दर्शन, इतिहास, कला-पुरातत्त्व, प्राकृत-संस्कृत और अपभ्रंश साहित्य के शीर्षस्थ विद्वान, स्वनामधन्य डॉ० हीरालाल जैन की जन्म शताब्दी के अवसर पर उनके प्रशंसक विद्वत् समाज ने उन्हीं के नाम पर एक समिति का गठन किया है। इस समिति के तत्त्वावधान में ५.१०.९९ से ५.१०.२००० तक देश के विभिन्न स्थानों पर जन्म शताब्दी समारोह और विद्वत् संगोष्ठी मनाने और डॉ० साहब के सम्मान में जन्मशताब्दी स्मृतिग्रन्थ प्रकाशित करने का निर्णय किया है। इस स्मृतिग्रन्थ में डॉ० साहब द्वारा रचित साहित्य पर विश्व के शीर्षस्थ विद्वानों के समीक्षात्मक लेखों को विशेष रूप से स्थान दिया जायेगा। डॉ० साहब की जन्म शताब्दी के अवसर पर विद्वत् समाज द्वारा लिया गया उक्त निर्णय अत्यन्त प्रसंशनीय है। समिति ने इस स्मृतिग्रन्थ के प्रकाशन में ११०० रुपये या उससे अधिक सहयोग प्रदान करने वाले हितैषियों को स्मृतिग्रन्थ भेंट करने का भी निर्णय लिया है। इस पुनीत कार्य में समाज के सभी वर्गों का सहयोग आवश्यक है। सहयोगराशि का चेक अथवा ड्राफ्ट डॉ० हीरालाल जैन जन्म शताब्दी समारोह समिति, प्रदीप भवन, अग्रवाल कालोनी, जबलपुर ४८२-००२ के नाम भेजें। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ श्री यतीन्द जयन सार्वजनिक गौशाला का शुभारम्भ ___ झालोद २५ जुलाई : राष्ट्रसन्त श्री विजयजयन्तसेन सूरि जी म० सा० की प्रेरणा एवं श्री के०पी०संघवी चैरिटेबल ट्रस्ट के अनुदान से श्रीराजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् द्वारा एक विशाल सार्वजनिक गौशाला का गुजरात प्रान्त के दाहोद जिले के झालोद नगर में शुभारम्भ किया गया है। इसी क्रम में दिनांक २७.७.९९ को भूमिपूजन कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर बड़ी संख्या में समाज के व्यक्ति उपस्थित थे। आचार्य श्री आनन्दमषि जी की जन्म शताब्दी वर्ष पर विविध आयोजन प्रारम्भ श्रमण संघ के द्वितीय पट्टधर स्व० आचार्य श्री आनन्दऋषि जी म.सा. की जन्म शताब्दी (१२/९/१८९९-१९९९) पर श्वेताम्बर जैन स्थानकवासी समाज द्वारा देश भर में पूरे वर्ष विविध धार्मिक आयोजन प्रारम्भ करने की घोषणा की गयी है। श्रमण संघ के चतुर्थ पट्टधर आचार्य श्री शिवमुनि जी ने जैनधर्म, दर्शन एवं संस्कृति का उद्देश्य जन-जन तक पहुँचाने के उद्देश्य से देश भर के सभी श्रावक-श्राविकाओं से दिनांक, १२/९/९९ को आयंबिल तप करने का आह्वान किया है। श्री सी0एम0संघवी प्रेसिडेन्सियल एवार्ड से सम्मानित सोशल ग्रुप के संस्थापक अध्यक्ष एवं चेयरमैन श्री सी०एम० संघवी को फेडरेशन ऑफ जैन एसोसिएशन इन नार्थ अमेरिका द्वारा वर्ष १९९९ का प्रेसिडेन्सियल एवार्ड प्राप्त हुआ है। श्री संघवी को यह पुरस्कार उनके द्वारा जैन धर्म के सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसार के क्षेत्र में की गयी उल्लेखनीय सेवाओं के उपलक्ष्य में प्रदान किया गया है। [अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी द्वारा संचालित अपभ्रंश साहित्य अकादमी द्वारा 'पत्राचार अपभ्रंश सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम का आठवां सत्र। जनवरी, २००० से आरम्भ किया जा रहा है। हिन्दी एवं अन्य भाषाओं/विषयों के प्राध्यापक, अपभ्रंश- शोधार्थी एवं संस्थानों में कार्यरत विद्वान् इसमें सम्मिलित हो सकेंगे। नियमावली एवं आवेदनपत्र दिनांक ३० सितम्बर, १९९९ तक अकादमी कार्यालय दिगम्बर जैन नासियाँ भट्टारकजी सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-४ से प्राप्त करें। कार्यालय में आवेदन-पत्र पहुँचने की तिथि १५ अक्टूबर, १९९९ है।। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्राचार जैनधर्म दर्शन एवं संस्कृति सर्टिफिकेट पाठ्यक्रम सत्र २००० में प्रवेश दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी द्वारा संचालित जैन विद्या संस्थान भट्टारकजी की नासियाँ, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-४ द्वारा निर्धारित उपर्युक्त पाठ्यक्रम भारत स्थित उन अध्ययनार्थियों के लिए होगा जिन्होंने किसी भी विश्वविद्यालय से स्नातक उत्तीर्ण की हो। इसका माध्यम हिन्दी भाषा होगा। पाठ्यक्रम का सत्र १ जनवरी, २००० से ३१ दिसम्बर, २००० तक रहेगा। निर्धारित आवेदन-पत्र जयपुर कार्यालय से मंगवाकर ३०/९/९९ तक भेजें। ― १८५ प्रवेश अनुमति मिलने पर पाठ्यक्रम का शुल्क १५०/- दिनांक ३०/११/९९ तक ड्राफ्ट द्वारा ही भेजना होगा। पार्श्वनाथ विद्यापीठ निबन्ध प्रतियोगिता '२१ वीं शताब्दी में जैनधर्म की प्रासंगिकता' विषय पर पूर्व प्रस्तावित निबन्ध प्रतियोगिता की अवधि ३१ दिसम्बर तक बढ़ायी जा रही है। इसमें भाग लेने वाले इच्छुक लेखक विद्यापीठ से विस्तृत नियमावली के लिये सम्पर्क करें । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य सत्कार Arhat Parsva and Dharanendra Nexus : Ed. M.A. Dhaky, Publishers, Lalbhai Dalpatbhai Institute of Indology, Ahmedabad, & Bhogilal Laherchand Institute of Indology, Delhi; First edition 1997, P. 14+148+67 plates, Prise Rs. 400/ प्रस्तुत पुस्तक भोगीलाल लहेरचन्द इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, दिल्ली द्वारा वर्ष १९८७ में "Arhat Parsva and Dharanendra Nexus" नामक विषय पर आयोजित संगोष्ठी में देश के शीर्षस्थ विद्वानों द्वारा प्रस्तुत किये गये शोध-लेखों का संकलन है। इस संगोष्ठी के प्रायोजक प्राध्यापक श्री मधुसूदन ढांकी भारतीय स्थापत्य एवं कला तथा जैन धर्म के इतिहास के विश्व के शीर्षस्थ विद्वान् हैं। उक्त विषयों में उनके द्वारा निर्णीत तथ्यों को अन्तिम माना जाता है। प्रस्तुत पुस्तक में कुल १६ आलेख हैं जिनमें से २ हिन्दी भाषा में और शेष १४ आंग्ल भाषा में हैं। इन लेखों के प्रस्तुतकर्ता अपने-अपने अध्ययन के क्षेत्र में सुप्रसिद्ध हस्ताक्षर हैं। विद्वान् सम्पादक ने सभी आलेखों का अत्यन्त श्रमपूर्वक सम्पादन किया है जिससे यह ग्रन्थ विश्वस्तरीय बन सका है। ऐसा प्रामाणिक ग्रन्थ सभी पुस्तकालयों के लिये अनिवार्य रूप से संग्रहणीय और इस क्षेत्र में रुचि रखने वाले सभी विद्वानों के लिये पठनीय और मननीय है। प्राध्यापक श्री ढांकी द्वारा सम्पादित यह पुस्तक भी निश्चित रूप से देश-विदेश में विद्वानों द्वारा आदृत होगी। ऐसे विश्वस्तरीय ग्रन्थ के सम्पादन और अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप उसे प्रकाशित करने के लिये सम्पादक और प्रकाशक दोनों ही अभिनन्दनीय है। पाञ्चाल (पञ्चाल शोध संस्थान, कानपुर की वार्षिक शोध पत्रिका) : अंक ११, १९९८ ई०; सम्पादक- डॉ० ए०एल० श्रीवास्तव; आकार- रायल अठपेजी; पृष्ठ १६+१४६; मूल्य १०० रुपये। प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व की पत्रिकाओं में पञ्चाल का नाम अग्रगण्य है। स्व०प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी के सक्रिय सहयोग से स्वनामधन्य, श्रेष्ठिवर्य श्री हजारीमल जी बांठिया द्वारा स्थापित पञ्चाल शोध संस्थान की यह वार्षिक शोधपत्रिका है। इस संस्थान के क्रियाकलापों और गौरवपूर्ण उपलब्धि से विद्वद्जगत् भली-भांति सुपरिचित है। प्रस्तुत अंक दो विभागों में विभक्त है। प्रथम विभाग में कुल २१ शोधनिबन्ध संकलित हैं जिनमें से १० हिन्दी भाषा में व ११ आंग्ल भाषा में हैं। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ द्वितीय विभाग में पञ्चाल शोध संस्थान के १२वें वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों का विवरण, शोधसृजन एवं समीक्षा तथा पञ्चाल के पूर्व प्रकाशित १० भागों के लेखों व उनके लेखकों की सूची है जो शोध की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी है। अन्त में संस्थान परिचय तथा इस अंक के लेखकों का नाम एवं उनका पूरा पता दिया गया है। पूर्व के अंकों की भांति इस अंक का भी सर्वत्र आदर होगा, इसमें सन्देह नहीं है। नमस्कार चिन्तामणि : लेखक- पूज्य मुनि श्री कुन्दकुन्द विजय जी म०सा०; हिन्दी अनुवादक- श्री चांदमल सीपाणी; प्रकाशक, श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर मन्दिर ट्रस्ट, भूपतवाला, हरिद्वार २४९४१० (उत्तर प्रदेश); पुनर्मुद्रण १९९९ ई०; आकार--- पाकेट साइज; पृष्ठ ५६+२८३; मूल्य ९५/- रुपये।। मानव जीवन में मन्त्रों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक इन तीनों प्रकार के दुखों में किसी भी एक दुःख से जगत् के प्राणी स्वयं को सदैव पीड़ित अनुभव करते हैं। इन पीड़ाओं से बचाने की अद्भुत शक्ति मन्त्रों में भरी पड़ी है। इन मन्त्रों में नमस्कार महामन्त्र का सर्वोच्च स्थान है। जैन परम्परा के सभी सम्प्रदायों में समान रूप से इसका आदरभाव है। इसे द्वादशांगों एवं चौदहपूर्वो का सार माना जाता है। प्रस्तुत पुस्तक मुनि श्री कुन्दकुन्द विजय जी म०सा० द्वारा गुजराती भाषा में रचे गये ग्रन्थ का हिन्दी रूपान्तरण है। पुस्तक के प्रारम्भ में मुनि श्री भद्रंकर विजय गणि द्वारा लिखित प्रस्तावना, मुनि श्री जम्बू विजय जी द्वारा लिखे गये दो शब्द तथा लेखक द्वारा दिया गया विषयप्रवेश अत्यन्त उपयोगी है। इस पुस्तक के विविध अध्यायों में नमस्कार महामन्त्र के बाह्य व आन्तरिक स्वरूप, अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु-पद की विचारणा, उनका विशिष्ट परिचय तथा इस महामन्त्र का जप करने वाले साधकों को ध्यान में रखने वाली यथायोग्य बातों की सविस्तार चर्चा है जो अन्यत्र दुर्लभ है। ऐसे लोकोपयोगी ग्रन्थ का प्रणयन कर मुनिश्री ने मानव जगत् का महान् उपकार किया है। इस पुस्तक का हिन्दी रूपान्तरण हो जाने से हिन्दी भाषा-भाषी भी इससे लाभान्वित हो रहे हैं। इसका प्रथम संस्करण १९६९ ई० में श्री जिनदत्त सूरि मण्डल, अजमेर से प्रकाशित हुआ था और पिछले कई वर्षों से यह अनुपलब्ध था। ऐसे उपयोगी ग्रन्थ का पुनर्मुद्रण कर प्रकाशक संस्था ने प्रसंशनीय कार्य किया है। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक तथा मुद्रण निर्दोष है। गूर्जरफागुसाहित्य : लेखक- डॉ० रमणलाल ची० शाह; प्रकाशक- श्री मुम्बई जैन युवक संघ, ३८५, सरदार वल्लभभाई पटेल मार्ग, मुम्बई ४००००४; आकार- डिमाई; प्रथम संस्करण, फरवरी १९९९ ई०; पृष्ठ १६+३५०; मूल्य१०० रुपये मात्र। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ मध्यकालीन गूर्जर साहित्य में फागु काव्य का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। विक्रम सम्वत् की चौदहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में इस काव्य का उदय हुआ और बाद के काल में इसका पर्याप्त विकास हुआ। फागु काव्यों की रचना बसन्त ऋतु के निमित्त होती रही । बसन्त ऋतु का सर्वोत्तम मास फाल्गुन माना जाता है और इसी मास के निमित्त बनाया गया काव्य ही फागु काव्य कहा जाता है। प्रस्तुत पुस्तक १४ अध्यायों में विभक्त है। इसके प्रथम अध्याय में फागु काव्य के प्रकार और द्वितीय अध्याय में फागु काव्य के विकास की विस्तृत चर्चा है। तीसरे अध्याय में २२वें तीर्थङ्कर नेमिनाथ पर विभिन्न रचनाकारों द्वारा रचे गये ५० फागु काव्यों का परिचय दिया गया है। चतुर्थ अध्याय में स्थूलिभद्र पर रचे गये ४ फागुकाव्यों का विवरण है। पञ्चम अध्याय में ७ विभिन्न रचनाकारों द्वारा रचित वसंत शृङ्गार के फागु काव्यों का परिचय है। षष्ठ अध्याय में विभिन्न जैन तीर्थों पर रचनाकारों द्वारा रचे गये फागु काव्यों का विवेचन है। सप्तम अध्याय में नेमिनाथ को छोड़कर अन्य तीर्थङ्करों पर रचे गये फागु काव्यों की चर्चा है । अष्ठम व नवम अध्यायों में विभिन्न महापुरुषों एवं आचार्यों पर रचे गये फागु काव्यों को स्थान दिया गया है। १०वें अध्याय में, आध्यात्मिक विषयों पर रचे गये फागु काव्यों का विवेचन है। आगे के अध्यायों में क्रमशः वैष्णव परम्परा के फागु काव्यों, लोककथाविषयक फागु काव्यों, प्रकीर्णक फागु काव्यों और संस्कृत भाषा में रचे गये फागु काव्यों की चर्चा है। पुस्तक के अन्त में अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ एवं शब्द सूची दी गयी है जिससे इसका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। ग्रन्थ का मुद्रण त्रुटिरहित व साज-सज्जा आकर्षक है। गूर्जर फागु साहित्य पर शोधकार्य करने वाले शोधार्थियों के लिये इस ग्रन्थ की उपयोगिता निर्विवाद है। ऐसा उपयोगी ग्रन्थ प्रत्येक पुस्तकालयों के लिए उपयोगी है। ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के प्रणयन तथा उसे उत्तम ढंग से प्रकाशित करने और उसे स्वल्प मूल्य में उपलब्ध कराने के कारण लेखक और प्रकाशक दोनों ही बधाई के पात्र हैं। इतिहासनी अमरबेल ओसवाल (ओसवाल जातिनो इतिहास) : लेखकश्री मांगीलाल भूतोड़िया, प्रकाशक- प्रियदर्शी प्रकाशन, ७, ओल्ड पोस्ट आफिस लेन, कलकत्ता ७००००१; प्रथम संस्करण १९९८ ई०; आकार - डिमाई; पक्की बाइंडिंग; पृष्ठ ४+५६१; मूल्य ४००/- रुपये। श्री मांगीलाल जी भूतोड़िया सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ, कुशल लेखक और प्रखर वक्ता के रूप में विख्यात हैं। अब से लगभग ८ - ९ वर्ष पूर्व उनके द्वारा लिखित इतिहास की अमरबेल ओसवाल (ओसवाल जाति का इतिहास) नामक ग्रन्थ दो भागों में प्रकाशित हो चुका है जिसकी लोकप्रियता से हम सभी सुपरिचित हैं। डॉ० लक्ष्मीमल सिंघवी प्रो० कल्याणमल लोढा. श्री बलवन्त सिंह मेहता. डॉ० रघवीर सिंह आदि Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ विश्वविश्रुत विद्वानों ने उक्त पुस्तक की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। प्रस्तुत पुस्तक उसी ग्रन्थ का गुजराती अनुवाद है। इसके अनुवादक भाई श्री पार्श्व सम्भवतः वही व्यक्ति हैं जिन्होंने अंचलगच्छका इतिहास (गुजराती), अंचलगच्छीयलेखसंग्रह, अंचलगच्छीयप्रतिष्ठालेखो आदि प्रामाणिक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। श्री भूतोड़िया जी ने अपने इस ग्रन्थ में अनेक ऐसे विषयों की चर्चा की है जिनके बारे में अन्यत्र या तो अल्प अथवा अप्रमाणिक जानकारी ही अब तक उपलब्ध रही है। गुजराती अनुवाद उपलब्ध हो जाने से गूर्जर धरा पर भी इसका व्यापक प्रचार-प्रसार होगा, इसमें सन्देह नहीं। ऐसे सुन्दर, प्रामाणिक और लोकोपयोगी ग्रन्थ का गुजराती संस्करण प्रकाशित करने के उपलक्ष्य में लेखक, गुजराती अनुवादक तथा प्रकाशन में सहयोगी सभी बधाई के पात्र हैं। अभिधानराजेन्द्रकोश में सुक्तिसुधारस : भाग १-७, लेखिका- साध्वी डॉ० प्रियदर्शना जी एवं साध्वी डॉ० सुदर्शना जी म०सा०; प्राप्ति स्थल, श्री मदनराज जी जैन, C/o शा० देवचन्दजी छगनलाल जी, आधुनिक वस्त्र विक्रेता, सदर बाजार, भीनमाल, जिला-जालौर (राज.) ३४३०२९; आकार-डिमाई, पक्की बाइंडिग; प्रत्येक भाग लगभग २०० पृष्ठ; मूल्य प्रथम व षष्ठ भाग ७५ रुपये, शेष भाग ५० रुपये। आचार्य श्री विजय राजेन्द्रसूरि जी महाराज इस युग के महान् सन्त थे। उनके द्वारा सात भागों में रचित अभिधानराजेन्द्रकोश विश्व की अमूल्य धरोहर है। विवेच्य पुस्तक में साध्वीद्वय ने उक्त महाग्रन्थ से २६६७ सूक्तियों को संकलित कर उन्हें हिन्दी भाषा में सूक्ति सुधारस के रूप में सात खण्डों में तैयार किया है। प्रथम खण्ड में 'अ से 'ह' तक के शीर्षकों के अन्तर्गत सूक्तियाँ संजोयी गयी हैं। अन्त में अकारादि क्रम से अनुक्रमणिका दी गयी है। यही क्रम आगे के सभी खण्डों में दिखाई देता है। प्रत्येक खण्ड में ५ परिशिष्ट हैं जिनमें क्रमश: अकारादि अनुक्रमणिका, विषयानुक्रमणिका, अभिधानराजेन्द्रकोश पृष्ठ संख्या अनुक्रमणिका, जैन एवं जैनेतर ग्रन्थ : गाथ श्लोकादिअनुक्रमणिका और सन्दर्भसूची दी गयी है। ग्रन्थ की साज-सज्जा अत्यन्त आकर्षक तथा मुद्रण निदोष एवं कलापूर्ण है। इस ग्रन्थ का जैन समाज में निश्चय है सर्वत्र आदर होगा। ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का प्रणयन कर साध्वीवृन्द ने समाज का महान उपकार किया है। हमें विश्वास है कि भविष्य में भी उनके द्वारा ऐसे ही लोकोपयोग ग्रन्थ प्रकाश में आते रहेंगे। ऐसी हो जीने की शैली : लेखक– मुनि श्री चन्द्रप्रभ सागर; प्रकाशकश्री जितयशा फाउण्डेशन, ९ सी, एस्प्लानेड रोईस्ट, कलकत्ता ७०००६९; आकारडिमाई; प्रथम संस्करण १९९९ ई०, पृष्ठ ८+१४४; मूल्य २५/- रुपये मात्र। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर वर्तमान शताब्दी में जैन परम्परा के उज्जवल नक्षत्र हैं। अब तक उनकी लेखनी से जैन धर्म-दर्शन, आगम, कथा साहित्य, इतिहास आदि विविध विषयों पर सैकड़ों ग्रन्थ प्रसूत हो चुके हैं। प्रस्तुत पुस्तक मुनि श्री के १९९८ के नागौर चातुर्मास के अवसर पर दिये गये मर्मस्पर्शी प्रवचनों का संग्रह है। यह पुस्तक सभी के लिये पठनीय और मननीय है। ऐसे लोकोपयोगी ग्रन्थ के प्रकाशन तथा उसे स्वल्प मूल्य पर विक्रय हेतु आवश्यक आर्थिक सहयोग प्रदान करने वाले श्रावकगण और प्रकाशक संस्था दोनों ही बधाई के पात्र हैं। अनेकान्तदर्पण (प्रवेशांक १९९९ ई०) : सम्पादक- डॉ० रतनचन्द जैन एवं प्राचार्य श्री निहालचन्द जैन; प्रका०- अनेकान्त ज्ञान मन्दिर शोध संस्थान, बीना (सागर), मध्यप्रदेश ४७०११३; आकार- डिमाई; पृष्ठ १०७+१० रंगीन चित्र। प्रस्तुत पत्रिका दिगम्बर जैन समाज, बीना (सागर) के सहयोग एवं ब्रह्मचारी श्री संदीप जैन 'सरल' के मार्गदर्शन में स्थापित अनेकान्त ज्ञान मन्दिर शोध संस्थान के वार्षिक मुखपत्र का प्रवेशांक है। अनेकान्त ज्ञान मन्दिर द्वारा ब्रह्मचारी जी के सानिध्य में प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपियों के अन्वेषण एवं उनके संरक्षण का जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया जा रहा है उससे जैन समाज भली-भाँति सुपरिचित है। प्रस्तुत अंक में जैनधर्म के लब्ध प्रतिष्ठित विद्वानों के लेखों को स्थान दिया गया है। इसके अलावा इसमें अनेकान्त ज्ञान मन्दिर के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों द्वारा लिखे गये लेखों को भी संकलित किया गया है। पत्रिका के अन्त में १० बहुरंगी चित्र भी दिये गये हैं जो इस ज्ञान मन्दिर का सजीव रूप हमारे सामने उपस्थित करते हैं। ब्रह्मचारी श्री संदीप जैन 'सरल' के अथक परिश्रम से यह संस्था दिनोदिन विकास के पथ पर अग्रसर हो रही है और उनके इस ज्ञान यज्ञ में जैन समाज का जो सक्रिय सहयोग प्राप्त हो रहा है उन सभी का पूरा-पूरा विवरण इस पत्रिका में सहज ही उपलब्ध है। पत्रिका के मुखपृष्ठ पर यहाँ संरक्षित विभिन्न सचित्र पाण्डुलिपियों के रंगीन चित्र दिये गये हैं, जिनसे इसका स्वरूप अत्यन्त आकर्षक हो गया है। यह पत्रिका प्रत्येक पुस्तकालयों के साथ-साथ जैन धर्म-दर्शन में रुचि रखने वाले शोधार्थियों तथा सामान्य पाठकों के लिये भी उपयोगी है। निश्चित रूप से इस शोधपत्रिका का सर्वत्र आदर होगा। सुखी जीवन : लेखक, पं०. शोभाचन्द जी भारिल्ल; प्रका०- पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-४, बापूनगर, जयपुर ३०२०१५; प्रथम संस्करण १९९९ ई०; पृष्ठ ८+२०६; मूल्य १२/- रुपये मात्र। पं०शोभाचन्द्र जी भारिल्ल जैन समाज के सुप्रसिद्ध हस्ताक्षर हैं। हस्तसिद्ध लेखक, कुशल सम्पादक के साथ-साथ वे सफल अनुवादक भी हैं। उनकी मौलिक रचनाओं के विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद और उनके आठ-आठ संस्करण Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ प्रकाशित हो चुके हैं जो उनकी लोकप्रियता के ज्वलंत उदाहरण हैं। प्रस्तुत पुस्तक में विद्वान् लेखक ने अध्यात्म और आगमों के आलोक में सुखी जीवन के रूप में कथा शैली के अन्तर्गत अत्यन्त सुबोध भाषा में जैन दर्शन के मौलिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। इन सिद्धान्तों को दैनिक जीवन में उतार कर प्राणी सुखी जीवन जी सकता है। पण्डित जी की अन्य पुस्तकों की भाँति उनकी इस रचना का भी समाज में सर्वत्र आदर होगा, इसमें सन्देह नहीं। पुस्तक की साज-सज्जा उत्तम व मूल्य अत्यधिक अल्प रखा गया है जिससे इसका अत्यधिक प्रचार-प्रसार हो। बिखरे मोती (डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल द्वारा प्रणीत साहित्य से चुने हुए लेखों का संकलन); संकलन एवं सम्पादक- ब्रह्मचारी श्री यशपाल जैन; प्रका०पं०टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-४, बापूनगर ,जयपुर ३०२०१५; प्रथम संस्करण १९९९ ई०; आकार-डिमाई; पक्की जिल्द; पृष्ठ ६+२१८; मूल्य १२/-रुपये मात्र। प्रस्तुत पुस्तक में डॉ० हुकुमचन्द भारिल्ल द्वारा पूर्व में समय-समय पर लिखे गये विभिन्न लेखों का संकलन है। सम्पूर्ण पुस्तक तीन खण्डों में विभाजित है। प्रथम "खण्ड में १८ लेख हैं जो व्यक्ति विशेष को लक्ष्य में रख कर लिखे गये हैं। द्वितीय खण्ड में १७ लेख हैं जो समसामयिक विषयों पर आधारित हैं। तृतीय और अन्तिम खण्ड में ६ लेख हैं जो व्यक्ति विशेष पर लिखे गये हैं। डॉ० भारिल्ल जैन समाज के सिद्धहस्त लेखक, कुशल वक्ता और पूज्य श्री कानजी स्वामी के प्रमुख अनुयायियों में से हैं। उनकी लेखनी से अब तक शताधिक ग्रन्थ प्रकाश में आ चुके हैं। पुस्तक की साज-सज्जा सुन्दर व मुद्रण त्रुटिरहित है। यह पुस्तक सभी के लिये पठनीय और मनन करने योग्य है। What Is Jainism; T.U. Mehta; Publisher-- UmedchandBhai and Kasumbaben Public Chiritable Trust, "Shiddhartha", 3, Dada Rokadnath Society, Paldi, Ahmedabad, 380007, First Ed. 1996; pp. 34; Prise Rs.5/ प्रस्तुत पुस्तक में जैन धर्म-दर्शन के सार को अत्यन्त सरल ढंग से आंग्ल भाषा में प्रश्नोत्तर के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसके लेखक हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायाधीश श्री टी०यू० मेहता हैं। न्यायमूर्ति श्री मेहता ने अमेरिका और कनाडा की अपनी यात्रा में देखा कि वहाँ स्थायी रूप से निवास करने वाले भारतीयों में वहाँ की उदार और, वैज्ञानिक संस्कृति के साथ-साथ अपनी धर्म-संस्कृति के सम्बन्ध में जानकारी रखने की ऐसी उत्कट भावना है जो अपने देश में दुर्लभ है। यद्यपि विद्वान् लेखक ने प्रस्तुत पुस्तक की रचना उन्हीं भाई-बहनों को उनके संस्कृति से परिचित कराने के उद्देश्य से की है किन्तु इससे जैन धर्म-दर्शन के प्रति जिज्ञासा रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति निश्चित ही लाभान्वित होगा। वस्तुतः इस पुस्तक Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ में लेखक ने गागर में सागर भरने का जो कार्य किया है वह स्तुत्य है । ऐसे सुन्दर ग्रन्थ के लेखन व प्रकाशन के लिये लेखक और प्रकाशक दोनों ही बधाई के पात्र हैं। इसिभासियाइं का प्राकृत- संस्कृत शब्दकोश : लेखक - डॉ० के० आर० चन्द्र; प्रकाशक - प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद ; प्रथम संस्करण १९९८ ई०; आकार - डिमाई; पृष्ठ १४०, मूल्य – ६० रुपये। जैन आगम साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ के रूप में आचारांग और इसिभासियाई माना जाता है। इसिभासियाई का काल विद्वानों ने लगभग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व माना है। इसकी भाषा अर्धमागधी है, जिसमें इसके प्राचीनतम रूप प्राप्त होते हैं। प्रो० के० आर० चन्द्र द्वारा संकलित इस ग्रन्थ के प्राकृत शब्दों का कोश उसकी संस्कृत छाया के साथ प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद से प्रकाशित हुई है। पुस्तक में अकारादि क्रम से शब्दों को सजाया गया है तथा उसके सामने उस शब्द का संस्कृत रूप है । अंकों में प्रथम अंक ग्रन्थ का अध्याय, द्वितीय और तृतीय अंक पृष्ठ संख्या और पंक्ति को इंगित करता है। इन अंकों का एकाधिक प्रयोग उस शब्द के उसी पंक्ति में एकाधिक प्रयोग को संकेतित करता है। गाथा के बाद वाला अंक गाथा संख्या को सूचित कर है । इस शब्द-कोश में डब्ल्यू ० शूबिंग द्वारा सम्पादित और लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद द्वारा १९७४ में प्रकाशित संस्करण को आधार बनाया गया है। कोश में उल्लिखित शब्दों से इसिभासियाई में प्रयुक्त अर्धमागधी और उस पर दूसरे प्राकृतों के प्रभाव को देखा जा सकता है। ग्रन्थ में प्राकृत व्याकरण के नियमों से परे शब्दों की बहुतायत है । जैसे अंकुर निप्पत्ती की जगह अंकुरनिप्पत्ती ( पृ० १), अर्हति > अग्घती ( पृ० ३), आत्मनः > अप्पाहु ( पृ० ९), अधोगामिनः > अहेगामी (पृ० १४) इत्यादि। इसमें शौरसेनी भाषा के प्रभाव जैसे ध का ध ही रह जाना अनिधन:> अणिधणे ( पृ० ४) तथा अनिहण भी लिखा है । इह हध ( पृ० १९), उदधि उदधि ( पृ० २२), तथैव तव, तथा तथा तथा, इत्यादि प्राप्त होता है। प्रथम एकवचन अकारान्त में ए और ओ दोनों शब्द प्रयुक्त हैं जैसे— अतीतः > अतीते ( पृ० ७), आगतः>आगते, आगम: > आगमो ( पृ० १४ ) । मध्यवर्ती व्यंजन का लोप नहीं भी हुआ है, जैसे अभय: > उभ्यो ( पृ० १३ ), ष्फ ज्यों का त्यों रह गया, जैसे पुष्पघाते (पृ० ८६), उर्ध्व का उद्ध ( पृ० २२) और उड्ठ ( पृ० २१) दोनों रूप मिलता है। इस प्रकार के विविधतापूर्ण शब्द प्रस्तुत ग्रन्थ में बहुलता से पाये जाते हैं जिन्हें प्रस्तुत कोश में संकलित किया गया है। कोश अत्यधिक श्रम और विद्वतापूर्ण ढंग से सजाया गया है, इसके प्रधान सम्पादक प्राकृत भाषा एवं जैन विद्या के प्रकाण्ड विद्वान् पण्डित दलसुख मालवणिया और डॉ० एच०सी० भायाणी हैं। अतुल कुमार प्रसाद Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ अक्षर-भारती : लेखक-विद्यावाचस्पति डॉ० श्रीरंजनसूरि देव; प्रकाशकलता प्रकाशन, पटना; प्रथम संस्करण १९९९ ई०; पृष्ठ १६०; मूल्य-२६/- रुपये। संस्कृत भाषा में रचित यह निबन्ध संग्रह दो भागों में विभक्त है। गद्य भाग और पद्य भाग गद्य भाग, में साहित्य-संस्कृतिविषयक १७ निबन्ध, समसामयिक विषयक ४ निबन्ध, व्यक्ति समाश्रित ४ निबन्ध, स्थान विषयक १ निबन्ध और ५ प्रकीर्ण निबन्ध संकलित हैं जिनकी कुल संख्या ३१ है। पद्य भाग में विभिन्न विषयों पर १२ पद्य संकलित किये गये हैं। निबन्धों में अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त पर आधारित निबन्ध, संस्कृत महिमा, संस्कृते जैन साहित्यम्, कालिदासस्य दाम्पत्यचित्रणम्, कबीरदासस्य सन्देशः, महात्मागान्धिन ईश्वरतत्वम्, वेदोत्तर भारतस्य पञ्चायतस्वरूपम्, भारतस्यान्तरिक्षानुसन्धानम्, जयप्रकाश, नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और आचार्य श्रीरामावतारशर्मा पर केन्द्रित निबन्ध, पाटलिपुत्रम्, संस्कृतस्य चम्पूसाहित्यम्, मारुतिचरितामृतम् आदि निबन्ध प्रमुख हैं। पद्य भाग में बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद आदि पर गीतिकाव्य, सरदार पटेल, दीनदयाल उपाध्याय, विश्वमैत्री आदिविषयक काव्य एवं भारत वन्दना आदि प्रमुख हैं। यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा के प्रेमियों के लिये पठनीय और मननीय है। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक और मुद्रण त्रुटिरहित है। अतुल कुमार प्रसाद आनंदघन-स्तवन : लेखक- त्र्यंबकलाल उ० मेहता, प्रकाशकउमेदचन्दभाई कसुम्बाबेन चेरीटेबल ट्रस्ट, 'सिद्धार्थ', ३, नारायण नगर, पालडी, अहमदाबाद-७, पृष्ठ ९६; मूल्य- ३०/- रुपये। 'तीर्थङ्कर' या 'जिन' जैन परम्परा के सर्वोच्च आध्यात्मिक और धर्म के प्रवर्तक पुरुष माने गये हैं। जैन दर्शन के मान्यतानुसार काल-चक्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दो विभाग हैं। इन दोनों को पुन: छ:-छ: आरों में विभक्त किया गया है। वर्तमान में अवसर्पिणी काल-चक्र का पाँचवां दुषमा आरा विद्यमान है। इस अवसर्पिणी काल के चौथे आरे में चौबीस तीर्थङ्करों की एक शृङ्खला चली। यह चौबीसी केवल दुषमा-सुषमा नामक आरे में ही प्रवर्तित होती है। गत दुषमा-सुषमा आरे में आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव से लेकर अंतिम महावीर तक चौबीस तीर्थङ्करों की अवधारणा है। ये तीर्थकर ही जैन धर्म संघ के संस्थापक और नीति-नियन्ता कहे गये हैं। इनके ही द्वारा आगमरूपी श्रुत ज्ञान का उपदेश प्रारम्भ किया जाता है। वर्तमान में भगवान् महावीर का तीर्थ विद्यमान है, यद्यपि धर्म संघ में सभी चौबीस तीर्थङ्कर समान रूप से पूज्य हैं। इन तीर्थङ्करों पर विद्वानों ने विपुल साहित्य की रचना की है जिनमें स्तोत्र, चरितग्रन्थ, प्रार्थना, स्तवन आदि प्रमुख हैं। इसी परम्परा में गुजराती भाषा में रचित प्रस्तुत ग्रन्थ चौबीस तीर्थङ्करों का स्तवनरूप है। इसमें क्रमानुसार ऋषभ से लेकर महावीर Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ तक के चौबीस तीर्थङ्करों का स्तवन बड़े ही श्रद्धा-भक्ति और भावनापूर्वक किया गया है। स्तवन में मल्हार, गौड, धनान्डी, वसन्तकेदारा, केदार, रामकली, रामगिरी आदि रागों का प्रयोग किया गया है। पुस्तक श्रद्धालुओं के लिये पठनीय है तथा इसकी साज-सज्जा सुन्दर और आकर्षक है। अतुल कुमार प्रसाद शारवतधर्म 'मांस निर्यात विरोध विशेषांक' : सम्पादक- श्री जे०के०संघवी; वर्ष ४७, अंक २-३, अगस्त-सितम्बर १९९९; पृष्ठ १४८+९ रंगीन चित्र व अनेक रेखाचित्र; मूल्य २० रुपये मात्र। ___ मनुष्य और पशु समुदाय आदिमकाल से ही एक दूसरे पर आश्रित रहे हैं इसीलिये पशुपालन मनुष्य का प्राचीनतम उद्योग रहा है। कृषि प्रधान देशों में तो पशुओं का महत्त्व निर्विवाद है ही किन्तु जहाँ कृषि योग्य भूमि का अभाव है वहाँ तो पशुपालन ही मनुष्य की एकमात्र आजीविका रही है। कृषि प्रधान देशों की अर्थव्यवस्था में आज भी पशुधन का उतना ही महत्त्व है जितना कि पहले था। पशुधन के विनाश का अर्थ है देश की अर्थव्यवस्था का विनाश। आज हमारे देश में यही हो रहा है। हमारी उपेक्षा और सरकार के सहयोग से मांस निर्यात कर देश के पशुधन को जिस गति से समाप्त किया जा रहा है उससे देश का विनाश सुनिश्चित है। प्रस्तुत पत्रिका के माध्यम से देश के प्रबुद्ध वर्ग ने हमें सोचने का अवसर दिया है कि हम देश की समृद्धि चाहते हैं या विनाश। यह किसी वर्ग या समाज विशेष का प्रश्न नहीं अपितु देश की अस्मिता का प्रश्न है। ऐसे महत्त्वपूर्ण विषय पर विचारोत्तेजक लेखों के अत्यन्त सरल भाषा में प्रस्तुतीकरण के लिये लेखक-सम्पादक दोनों बधाई के पात्र हैं। यह अंक देश के सभी नागरिकों के लिये पठनीय और मननीय है। सरकारी आंकड़ों, रंगीन व रेखाचित्रों के माध्यम से देश की इस विकट समस्या का इसमें जो दृश्य उपस्थित किया गया है वह अन्यत्र प्राय: दुर्लभ ही है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साभार प्राप्त साधर्मिक मारी दृष्टिये : प्रवचनकार- आचार्य श्री विजय भुवनभानुसूरीश्वर जी म.सा०, सम्पादक- पूज्य पंन्यास श्री नंदिभूषण विजय जी म.सा०; प्रकाशक- पूज्य आचार्यश्री भुवनभानुसूरिस्मृतिमन्दिर, पंजक सोसायटी, भठ्ठा, पालडी, अहमदाबाद ३८०००७; आकर- डिमाई; प्रथम संस्करण वि०सं० २०५५; पृष्ठ ८+१५६; मूल्य २५/- रुपये। २. संघ दृष्टिले भुवनभानुसूरि : संकलक-सम्पादक- पूज्य पंन्यास श्री नंदिभूषण विजय जी म०सा०; प्रकाशक- पूर्वोक्त; आकार-डिमाई, प्रथम संस्करण वि०सं० २०५५; पृष्ठ १०+१७४; मूल्य ३०/- रुपये। ३. पर से कुछ भी सम्बन्ध नहीं : लेखक- पण्डित रतनचन्द भारिल्ल; प्रकाशक- पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-४, बापूनगर, जयपुर-३०२०१५; आकार– डिमाई, द्वितीय संस्करण १९९८ ई०, पृष्ठ ६४, मूल्य ५/- रुपये। तत्त्वानुशीलन : लेखक- श्रद्धेय श्री शशीकान्त म०सेठ; प्रका०- श्री वीतराग सत्साहित्य प्रसारक ट्रस्ट, ५८०, जूनी माणेक वाड़ी, भावनगर ३६४००१ (गुजरात); आकार-डिमाई; पृष्ठ १२+१६१; प्रथम संस्करण वीरसं० २५२४; मूल्य - स्वाध्याय। ५. गंगा अवतरण एवम् स्वर्ग की घ्यावहारिक अवधारणा (एक अनुशीलन): लेखिका-- डॉ० संगीता मिश्रा, प्रका०- भारती निकेतन, टेढ़ी बाजार, वशिष्ठ कुण्ड, अयोध्या, फैजाबाद-उत्तर प्रदेश; आकार-डिमाई; पृष्ठ १८; प्रथम संस्करण- जुलाई १९९९ ई०, मूल्य स्वाध्याय। ६. श्रीशीलपाहुडविधान : रचनाकार- श्री राजमल पवैया, प्रका०- श्री भरत पवैया, संयोजक- श्रीकानजी स्वामी ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक ४, भोपाल १९९९ई०; आकार--- डिमाई; पृष्ठ ६४; मूल्य ८/- रुपया। ७. श्रीदर्शनपाहुडविधान : रचनाकार- श्री राजमल पवैया; प्रका०- पूर्वोक्त; श्री कानजी स्वामी ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक ५, भोपाल १९९९ ई०; आकारडिमाई, पृष्ठ ६८; मूल्य ८ रुपया। श्री चारित्रपाहुड विधान : रचनाकार- श्री राजमल पवैया; प्रका०- पूर्वोक्त; श्री कानजी स्वामी ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक ६, भोपाल १९९९ ई०; आकारडिमाई, पृष्ठ ६८; मल्य ८/- रुपया। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NO PLY WOOD. 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