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________________ ७९ अविश्वास के कारण छल-कपट से उसकी आत्मा भटकती रहती है और भटकती रहेगी। उसका स्वभाव कुत्ते की पूंछ जैसा वक्र रहता है, जो बारह वर्ष के बाद अंगूठी से टेढ़ी ही निकलेगी। वह अपना स्वभाव छोड़ ही नहीं पाता और उसी स्वभाव से पतित हो जाता है। हमारे निर्मल और वक्र भावों का बेतार के तार जैसा सम्बन्ध होता है। उसे सामने खड़ा व्यक्ति समझ लेता है। चन्दन की लकड़ी का व्यापारी अपने मित्र राजा की मृत्यु की प्रतीक्षा करता रहा, ताकि उसकी चन्दन की लकड़ी बिक सके। राजा को उसकी भावनाओं पर सन्देह हो गया। फलत: वह पकड़ा गया। उसी तरह वह उदाहरण भी प्रचलित ही है जिसमें एक पथिक किसी वृद्धा की पोटली पहले तो अपने सिर पर नहीं लेता है पर बाद में वह लेने की आकांक्षा व्यक्त करता है इसलिए कि उसमें रखे हुए माल-धन को वह हड़पना चाहता था। वृद्धा ने उसके भावों को परख लिया और उसे पोटली देने से मना कर दिया। अज्ञानी व्यक्ति को टेढ़े चलने में बड़ा आनन्द आता है। बच्चे टेढ़े चलने में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। मायावी व्यक्ति भी ऐसा ही टेढ़ा चलता है और खुश होता है। पर उसे टेढ़े चलने में शक्ति भी काफी लगानी पड़ती है। हमारी कार जितनी टेढ़ी मोड़ पर चलेगी उतना ही पेट्रोल उसमें अधिक लगेगा। मायावी का स्वभाव बगुला जैसा होता है। देखने में तो वह सफेद और शुद्धाचरण वाला दिखाई देता है, पर व्यवहार में वह बड़ा कपटी और हिंसक रहता है। दूज का चन्द्रमा भी इसी तरह वक्रचन्द्र कहा जाता है। जैसे-जैसे उस चन्द्रमा की वक्रता कम होती जाती है वह पूर्णता को प्राप्त हो जाता है और पूर्ण चन्द्रमा कहलाने लगता है। कपटी शल्यों के संसार में जीता है। वह शल्य तीन प्रकार की होती है ---- माया, मिथ्या और निदान। वक्रता इन तीनों की आधारभूमि है। कृष्ण, नील और कापोत लेश्या से भरा उसका सारा जीवन रहता है, जिसमें दूसरे को हानि पहुंचाना ही मुख्य ध्येय होता है। कपटी का मन भी शेखचिल्ली जैसा कल्पनाओं में दौड़ता रहता है। सिर पर दूध की मटकी रखे ग्वाला कल्पना जगत् में घूमता हुआ मटकी से हाथ धो बैठता है। इसी तरह मायावी व्यक्ति कल्पनाओं के माध्यम से संसार की भोग वासनाओं को आमन्त्रित करता है और फिर दुःखों के सागर में कूद पड़ता है। आज राजनीति आहत हो रही है। वहाँ जबर्दस्त कुटिलता और भ्रष्टाचार पनप रहे हैं। राजनीति आज एक शुद्ध व्यवसाय हो गया है। समाज उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। अत: आध्यात्मिक वातावरण का निर्माण किया जाना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525038
Book TitleSramana 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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