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________________ आर्जव-धर्म की साधना साधक को धर्म के यथार्थ रूप तक पहुंचा देती है। बनारसीदास और एकनाथ ने, कहा जाता है, चोरों के आने पर अपना धन स्वयं दे दिया। उनकी वह साधना आर्जव-धर्म की साधना थी, जहाँ अनासक्त और निस्संग भाव पनप चुका था। यही जीवन की निष्कपटता है। श्रेयार्थी की ऋजुता जिसमें ऋजुता रहेगी वह श्रेयार्थी होगा और जिसमें कपट होगा वहां प्रेयार्थी होगा। प्रेयार्थी सदैव इन्द्रियों का दास रहता है, इन्द्रियों को जो प्रीतिकर होता है उसकी खोज में वह दौड़ता रहता है, इसलिए दुःख पाता है, सदा नये-नये सुख की आकांक्षा करता रहता है, परन्तु श्रेयार्थी ऐसा नहीं होता। वह इन्द्रियों की चाह को पूरा नहीं करता, जिससे प्रथमत: दुःख मिलता है; पर परिणामतः सुख और आनन्द की प्राप्ति होती है। वह शाश्वत सुख की खोज में रहता है। श्रेयार्थी की ऋजुता में धोखा देने का स्वभाव नहीं रहता। वहाँ सरलता होती है, विनय होता है। सरल व्यक्ति का ज्ञान अनुभव से भरा होगा। उसमें गुरुता होगी, रूपान्तरित करने की शक्ति होगी। वह शिक्षक नहीं होगा, गुरु होगा, बौद्धिकता से परे होगा। शिक्षक पाश्चात्य संस्कृति से आया शब्द है जो मात्र व्यवसायिक है, ज्ञान का व्यापार करता है, पर 'गुरु' शब्द हमारी भारतीय संस्कृति का है, जहां ज्ञान का व्यापार नहीं होता। उसे द्विज भी कहा जाता है। वह इसलिए कि माता-पिता तो जन्म दे देते हैं, पर दूसरा जन्म गुरु के पास होता है जो जीवन को जीने का तरीका सिखाता है, अध्यात्म का पाठ पढ़ाता है इसलिए वह पूज्य होता है, श्रद्धेय होता है। गुरु और शिष्य के बीच का सम्बन्ध भारतीय परम्परा में अनूठा है। शिष्य गुरु की आज्ञा का पालन परे समर्पण भाव से करता है। उसका अहं गिर जाता है और सदैव गुरु के पास रहता है, निर्व्याज रूप से। यह उसकी ऋजुता है। भाषा का आरोपण धोखा को जन्म देता है। शरीर और उसकी भावभंगिमा धोखा नहीं दे पाती। बच्चा मां की भावभंगिमा समझ लेता है। उसे धोखा नहीं दिया जा सकता, पर जैसे ही भाषा का सम्बन्ध आता है, धोखा और कपट भाव प्रारम्भ हो जाता है। शायद इसी आधार पर हमारा समूचा मुद्राशास्त्र खड़ा हुआ है। ध्यान की सारी मुद्रायें ऐसी हैं जिनको स्वीकार करने के बाद क्रोध, कपट आदि विकार भाव स्वत: तिरोहित होने लगते हैं। पद्मासन आदि मुद्रायें ऐसी ही हैं। ऋजुता आने पर हमारा आक्रामक भाव चला जाता है, नम्रता आ जाती है, गम्भीरता पनपने लगती है, किसी को तिरस्कृत करने का भाव नहीं रहता, सभी के साथ सद्भावपूर्वक व्यवहार होता है, निन्दक नहीं होता। आंख की शर्म उसमें दिखाई देती है। उसकी चमड़ी मोटी नहीं होती। गलत काम करने का मन नहीं होता। यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525038
Book TitleSramana 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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