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________________ ९३ इस तथ्य को विज्ञान के क्षेत्र में आइन्सटीन ने सापेक्षवाद के रूप में प्रस्तुत किया और दार्शनिक क्षेत्र में यही सापेक्षवाद 'स्याद्वाद' के नाम से जाना जाता है। चिन्तन के क्षेत्र में इसी को अनेकान्तवाद कहा जाता है। यह स्याद्वाद शायदवाद नहीं, संशयवाद नहीं, अनिश्चितता नहीं। यह तो सापेक्षता या रियलिटी को द्योतित करता है। इससे व्यक्ति के दृष्टिकोण का सम्मान किया जाता है। पारस्परिक संघर्ष को दूर करने का इससे सरल और कोई दूसरा सत्य - मार्ग नहीं है। हंसी-मजाक में, उपहास में, क्रोध में, लोभ में हम असत्य बोल देते हैं। महावीर ने कहा, इस प्रकार भी असत्य नहीं बोला जाना चाहिए। किसी का उपहास करने में हम कभी-कभी प्रतीक का सहारा लेते हैं। किसी के केले के छिलके से फिसलने पर हम उसका मजाक करने लगते हैं। सत्य के क्षेत्र में इस प्रकार के मजाक भी नहीं किये जाने चाहिए। इससे दूसरे का अपमान होता है। काने, बहरे, लूले लंगड़े को काना, बहरा, लूला-लंगड़ा कहकर पुकारना किसी भी स्थिति में व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता। सत्यवादक इन शब्दों का प्रयोग कर उसका अपमान नहीं करेगा। इस प्रकार सत्य, उत्तम सत्य जीवन के विविध पहलुओं को समझने का एक सही मार्ग है, संघर्ष और कलह से बचने का सर्वोत्तम रास्ता है, आत्मशान्ति और आनन्द का यथार्थ पक्ष है। यह आदेशात्मक नहीं, उपदेशात्मक है, सार्वभौमिक है। सन्दर्भ परसंतावयकारणवयणं मोत्तूण स-पर र-हिदवयणं । बा० अणु०, ७४. जो वददि भिक्खु तुरियो तस्स दु धम्मो हवे सच्चं । । सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधु वचनं सत्यमित्युच्यते । स० स० ९.६. सच्चं नामं सम्मं चिंतेऊण असावज्जं ततो भासियव्वे सच्चं च । दशवै ० चू०, पृ० १८. जिणवयणमेव भासदि तं पालेदुं असक्कमाणो वि। ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सो | | - का० अणु०, ३९८. परायेतापादिवर्जितं कर्मादानकारणान्निवृत्तं साधुवचनं सत्यम् । मूला०वृ० ११.५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525038
Book TitleSramana 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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