SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थङ्कर महावीर ने इस तथ्य को बड़े सुन्दर शब्दों में समझाने का प्रयत्न किया है। उन्होंने कहा है कि जिस प्रकार मूर्ख गाड़ीवान् जान-बूझकर सीधे-सादे राजमार्ग को छोड़कर ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर अपनी गाड़ी ले जाता है और गाड़ी की धुरी टूट जाने पर असहाय-सा होकर शोक करने लगता है, उसी प्रकार मूर्ख मनुष्य भी जान-बूझकर धर्म को छोड़कर अधर्म पकड़ लेता है, सत्य का अपलाप करता है और अन्त में मृत्यु के मुख में पहुँचने पर, जीवन की धुरी टूट जाने पर शोक करता है - जहा सागडिओ जाणं, समं हिच्चा महावहं । विसमं मग्ग-मोइण्णो, अक्खे भग्गम्मि सोयई।। एवं धम्म विडक्कम्म, अहम्मं पडिवज्जिया। बाले मुच्चुमुहं पत्ते, अक्खभग्गे व सोयई।। इस सांसारिक सत्य को समझने के लिए, आत्मसात करने के लिए अवस्था का कोई बन्धन नहीं रहता। इस सत्य पर फूल खिलने के लिए वृद्धावस्था की बाट जोहना आवश्यक नहीं है। इसलिए जैनधर्म कहता है कि धर्म का सही पालन वृद्धावस्था नहींहोता। उस समय तो इन्द्रियाँ स्वत: शिथिल हो जाती हैं। धर्म का सही पालन तो तब होता है जब इन्द्रियाँ युवा होती हैं, शक्ति से भरी रहती हैं। इसलिए संन्यास वृद्धावस्था का फल नहीं है। वह तो युवावस्था में आना चाहिए। युवावस्था में इन्द्रियों की उद्दाम शक्ति को कुण्ठित करने के लिए सारे तप आदि का व्याख्यान हुआ है। ऊर्जा को इस युवावस्था में यदि रूपान्तरित कर दिया जाये, तो जीवन में सही क्रान्ति आयेगी। महावीर इसी क्रान्ति के जनक थे, इसी सत्य मार्ग के प्रज्ञापक थे। अनन्त सम्भावनाओं भरा सत्य सत्य का सम्बन्ध हमारे सम्यक् श्रवण से है। हम अपने पूर्वाग्रह के कारण सत्य को सनना ही नहीं चाहते, निष्पक्ष होकर उस पर विचार ही नहीं करना चाहते। निष्पक्ष होकर जब विचार किया जाता है, तभी सत्य की अनुभूति होती है। हर पहल में अनन्त सम्भावनायें बनी रहती हैं। व्यक्ति साधारणत: कुछ-एक पहलुओं को ही जानता है। असाधारण स्थिति में यदि वह पदार्थ को सम्पूर्ण रूप से, यथार्थ रूप से जान भी जाता है तो उसे उसी रूप में एक साथ व्यक्त नहीं कर सकता। सत्य जाना जा सकता है समग्र रूप में, पर उसकी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। इसी कठिनाई का अनुभव किये जाने पर महावीर ने स्याद्वाद सिद्धान्त दिया और कहा कि एक प्रश्न का उत्तर सात प्रकार से दिया जा सकता है। इसके लिए उत्तर देने के पूर्व 'स्यात्' लगाइये जिसका अर्थ होता है 'कथञ्चित् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525038
Book TitleSramana 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy