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________________ ९१ स्थापना, प्रतीत्य, संवृति, संयोजना, जनपद, देश, भाव और समय। इनका विस्तृत वर्णन और व्याख्या वहाँ देखी जा सकती है। इसी तरह असत्य के भी भेद किये गये हैं । वे चार प्रकार के हैं (१) सत् वस्तु का निषेध, (२) असत् की स्वीकृति, (३) वस्तु का विपरीत स्वरूप, और (४) गर्हित वचन बोलना । क्रोध, लोभ, भय, पैशून्य, चपलता आदि के कारण व्यक्ति असत्य बोलने को मजबूर हो जाता है। यदि सत्य बोलने से किसी का बध होता हो और हिंसा होने की सम्भावना हो तो सत्याणुव्रती श्रावक असत्य बोल सकता 1 क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष, हास्य, भय, आख्यायिका और उपद्यात कारण लोग झूठ बोलते हैं। इन कारणों से मुक्त होकर सत्य की साधना करनी चाहिए। wwwww. उत्तम सत्य को समझने के लिए दस सत्यों को समझ लेना चाहिए। तत्त्वार्थवार्तिक में उनका स्वरूप इस प्रकार मिलता है— नाम सत्य - गुणविहीन होने पर भी व्यवहारतः उसे संज्ञा देना। रूप सत्य - वस्तु की अनुपस्थिति में रूपमात्र से उसका उल्लेख करना । स्थापना सत्य- में वस्तु का आरोपण किया जाता है । प्रतीति सत्य- औपशमिक आदि "भावों की दृष्टि से कहा जाता है। संवृति सत्य- लोकव्यवहार के अनुसार संज्ञा देना । संयोजना सत्य- द्रव्यों में आकारादि को संयोजित करना। जनपद सत्य और देश सत्व में आध्यात्मिक वचन, जनपदों और देशों से सम्बद्ध रहते हैं तथा भाव सत्य में श्रावकों का उपदेश सम्मिलित है। सांसारिक सत्य सत्य धर्म बहु-आयामी है। असत्य वादन या चिन्तन भी बहु-आयामी है । इसका सम्बन्ध मात्र झूठ बोलने- न बोलने से ही नहीं है, बल्कि सांसारिक सत्य को भी समझने से है। उदाहरण के तौर पर पदार्थ या व्यक्ति की मृत्यु होती है यह निश्चित है, भले ही कब होगी, यह अनिश्चित है। इस सत्य को यदि स्वीकार कर लिया जाये तो धर्म की ओर उन्मुख हुए बिना नहीं रहा जा सकता । कीर्केगार्ड का यह कथन गलत नहीं है कि धर्म का जन्म मृत्यु की चिन्ता से होता है । मृत्यु होती है, इस सत्य को हम सभी जाते है, पर किसी न किसी कारण से इस सत्य को हम अपने से दूर रखते हैं। मिथ्यात्व, लोभ आदि के कारण हम उस पर विचार नहीं करते, उसे टालते रहते हैं। जन्म के साथ मरण जुड़ा हुआ है और जीवन का प्रतिपल जरा के रूप में क्षरण हो रहा है। बाल्यावस्था से युवावस्था और युवावस्था से वृद्धावस्था की ओर व्यक्ति सतत् बढ़ता जाता है। अपने कन्धों पर दूसरों की अर्थियाँ रखकर उन्हें श्मशानघाट पहुँचाता रहता है, पर स्वयं को इस तथ्य से अलग रखे रहता है। जिस दिन "वत्थु सहावो धम्मो" का सही साक्षात्कार हो गया, उसी दिन संसार से पार होने का मार्ग मिल गया। 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525038
Book TitleSramana 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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