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________________ ९० व्यक्ति को प्रमुखता न देकर समाज को प्रमुखता देने से मानसिक तनाव बढ़ता है। संयोग को सब कुछ मान लिया तो वियोग होने पर असहनीय दुःख होता है। सापेक्ष सत्य यह है कि व्यक्ति और समुदाय दोनों तत्त्व सत्य हैं। दोनों का सापेक्षिक अस्तित्व है। इस प्रकार विचार करने पर मानसिक तनाव कम होगा। सम्पत्ति आदि संयोग को मात्र संयोग माना जाये, तो उसका वियोग अधिक दुःखद नहीं होगा। मल-मूत्र का नियमित विसर्जन आवश्यक होता ही है, अन्यथा व्यक्ति अस्वस्थ हो जायेगा। इस दृष्टि से जैनधर्म क्रान्तिवादी है। वह अहं और मन को विसर्जितकर आत्मसाधना और धर्मसाधना की बात करता है। सम्यग्दृष्टि से मिथ्यात्व को दूर कर, संसार की असारता को समझकर आत्मा और परमात्मा को पहचानने की बात करता है। वह स्पष्ट कहता है कि बगैर जाने किसी को भी न मानो। स्वानुभूति के बिना, आत्मज्ञान के बिना सम्यग्ज्ञान हो नहीं सकता। सम्यग्ज्ञान के बिना सच्ची श्रद्धा भी नहीं हो सकती और इन दोनों के बिना सम्यक-चारित्र का आचरण नहीं हो सकता। रत्नत्रय की साधना के लिए सत्य की साधना आवश्यक है। यह चिन्तन सतत बना रहना चाहिए। पूरा सत्य अनिर्वचनीय भले ही हो पर अनुभवनीय अवश्य होता है। सत्य में सत् है, सत्ता है। सत्यदर्शन निष्पक्ष चित्त की स्थिति है। सत्य विराट होता है इसलिए विरोधाभास दिखाई देता है। पूर्वाग्रह से मुक्त होकर निरपेक्षभाव से सत्य का दर्शन करना चाहिए। वचन पुद्गल का पर्याय है और सत्य आत्मा का धर्म है। सत् स्वरूप आत्मज्ञान में असत्य हो ही नहीं सकता। उस सत्य ज्ञान की साधना के लिए सत्याणुव्रत, सत्य महाव्रत, भाषासमिति, वचनगुप्ति आदि का पालन करना चाहिए। जिसमें वायु की प्रधानता होती है वह बातूनी होता है और जो बातूनी होता है वह असत्यभाषी होता है। "अजैर्यष्टव्यम्" का गलत अर्थ करने वाले का पक्ष लेने के कारण, कहा जाता है, वसु राजा नरक में गये। विभीषण ने भगवान् राम का पक्ष सत्य के कारण ही लिया था। सत्यदर्शी संसार को नाटक मानकर चलता है, इसलिए वह समतादर्शी है, हर्ष-विषाद में सुख-दुःख का अनुभव नहीं करता। जीवन दो प्रकार का होता है -- स्वयं के लिए और शरीर के लिए। संसार को क्षणिक मानकर ही स्वयं का जीवन प्रारम्भ होता है और जब वह विरागी हो जाता है, तो बालक जैसा प्रसन्न हो जाता है। चारित्र ही उसका धर्म बन जाता है। सोना और मिट्टी दोनों ही उसके लिए समान हो जाता है। सत्य-साधक ऐसे ही समतावादी होते हैं। सत्य के प्रकार सत्य और अहिंसा एक ही धर्म के दो पहलू हैं। इस धर्म से डिगने पर पश्चाताप सत्य से ही होता है। यह सत्य दस प्रकार का कहा गया है। आगमों में - नाम, रूप, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525038
Book TitleSramana 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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