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________________ के आलोक में हम यहाँ सप्रमाण उसका खण्डन करते हुए तथ्यों को प्रस्तुत कर रहे हैं। तीर्थङ्कर परम्परा जैसा पहले कहा जा चुका है, जैन परम्परा के अनुसार महावीर के पहले तेईस तीर्थङ्कर और हो चुके हैं जिन्होंने मानवता का सन्देश दिया। उनमें प्रथम तीर्थङ्कर हैं ऋषभदेव जिनके पिता का नाम नाभि कुलकर और माता का नाम मरुदेवी था। वे हमारी संस्कृति के उन्नायक और आद्य प्रवर्तक थे। असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या और शिल्प के जन्मदाता वही माने जाते हैं। ऋग्वेद आदि प्राचीनतम ग्रन्थों में उनका उल्लेख हुआ है। उनके पुत्र चक्रवर्ती भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा है। २ ___ भगवान् शिव, राम और कृष्ण के समान प्रथम बाईस तीर्थङ्करों की यह परम्परा भी अर्ध-ऐतिहासिक है; क्योंकि साहित्यिक उल्लेखों के अतिरिक्त पुरातात्त्विक सामग्री उनके विषय में उपलब्ध नहीं होती। बाईसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ भगवान् कृष्ण के चचेरे भाई थे और तेईसवें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर महावीर से लगभग २५० वर्ष पहले हुए। पार्श्वनाथ और महावीर, दोनों ऐतिहासिक महापुरुष हैं। इसलिए ऐतिहासिक दृष्टि से महावीर जैनधर्म के न तो संस्थापक हैं और न प्रवर्तक। वे तो वस्तुत: तीर्थङ्कर ऋषभदेव से चली आ रही परम्परा के प्रचारक और प्रसारक हैं।३ जैनधर्म के इन सभी तीर्थङ्करों की जन्मभूमि और कर्मभूमि होने का गौरव मध्यदेश को मिला है, विशेष रूप से मध्य-गंगा मैदान और बिहार को। यहाँ के जनपदों का इतिहास भले ही छठी शताब्दी ई०पू० से प्रारम्भ होता है पर पुरातात्त्विक प्रमाणों से यहां मानव का अस्तित्व लगभग छह हजार ई०पू० मिलता है। इसलिए पौराणिक परम्परा को एकदम झुठलाया नहीं जा सकता। महावीर : पूर्वभव की परम्परा का परिणाम __जैन संस्कृति कर्मप्रधान संस्कृति है, उसमें, आत्मा को स्वभावत: अनादि, अविनश्वर और विशुद्ध मानकर उसे मिथ्यात्व और मोह के कारण संसारबद्ध बताया गया है। आत्मा अनन्त शक्ति का स्रोत है। संसारावस्था में यह शक्ति अविकसित और अप्रकट रहती है। शनैः शनैः भेदविज्ञान होने पर वह अपनी मूल अवस्था में आ जाती है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए उसे अगणित जन्म-जन्मान्तर भी ग्रहण करने पड़ते हैं। महावीर के इन जन्म-जन्मान्तरों अथवा पूर्वभवों का वर्णन उत्तर पुराण, समवायाज, आवश्यक नियुक्ति, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, महावीरचरित, कल्पसूत्र आदि ग्रन्थों में मिलता है। इन ग्रन्थों में महावीर के जीव के पूर्वभव सम्बन्ध का प्रारम्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525038
Book TitleSramana 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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