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________________ इस पवित्र दिन की स्मृति स्वरूप उनके अनुयायी जैन लोग “दीपावली'' मनाकर आत्मसाधना और ज्ञानाराधना का स्मरण करते हैं। १३ पालि साहित्य में महावीर को "निगण्ठनातपुत्त' के नाम से उल्लेखित किया गया है। वे तथागत बुद्ध के ज्येष्ठ समकालीन चिन्तक थे।१४ उत्तरकाल में महावीर का धर्म दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया -- दिगम्बर और श्वेताम्बर। दिगम्बर सम्प्रदाय पूर्ण निर्वस्त्र अवस्था में मुक्ति मानता है जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय सवस्त्र अवस्था को भी उनका अधिकारी बनाता है। जैनधर्म और सिद्धान्त तीर्थङ्करों में चूँकि महाश्रमण महावीर की ही वाणी हमारे पास श्रुति परम्परा से सुरक्षित है इसलिए जैनधर्म उन्हीं के नाम से विशेष रूप से जाना जाता है। इस सन्दर्भ में कहा जाता है, प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव ने अहिंसा, सत्य और अचौर्य इन तीन यामों में अपने समूचे दर्शन को प्रस्तुत किया था। तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ ने उनमें अपरिग्रह को जोड़कर चार याम बना दिये१५ और महावीर ने उनमें ब्रह्मचर्य को पृथक् कर पांच याम व्रतों का उपदेश दिया। अपनी युगीन परिस्थितियों के अनुसार व्रतों में यह परिवर्धन होता रहा है। यद्यपि अहिंसा और सत्य में इन सभी व्रतों का अन्तर्भाव हो जाता है पर आचारिक शिथिलता को दूर करने के उद्देश्य से उन्हें पृथक् व्रतों का स्वरूप दिया गया है। महावीर ने अपने धर्म को अहिंसा, संयम और तप से विशेष रूप से जोड़ा और उनके साथ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रयपूर्वक आचरण को प्रतिष्ठित किया।१६ आत्मा को अस्तित्व के केन्द्र में रखकर उन्होंने कर्मवाद को प्रस्थापित किया। उनकी दृष्टि में व्यक्ति का कर्म ही उसके सुख-दुःख और पुनर्जन्म का कारण है। १७ सृष्टि के उत्पन्न होने और उसे संरक्षित रखने में किसी ईश्वर विशेष का हाथ नहीं होता। वह तो अनेक कारणों से उत्पन्न होता है, नष्ट होता है, पर्यायों में परिवर्तित होता रहता है और मूल तत्त्व स्थायी रूप में निरन्तर बना रहता है। १८ तीर्थङ्कर महावीर ने यह भी कहा कि प्रत्येक प्राणी में तीर्थङ्कर होने की क्षमता है। इस क्षमता का विकास पूर्वोक्त रत्नत्रयपूर्वक बारह व्रतों के परिपालन से किया जा सकता है। १९ गृहस्थ स्थूल रूप से जब उनका पालन करता है तो वे अणुव्रती कहलाते हैं और सूक्ष्मता से उनका पालन करने वाले मुनि महाव्रती कहलाते हैं।२० ___अर्हन्त महावीर को इन्द्रिय विजयी होने के कारण “जिन' कहा जाता था और उनके अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म को आहत् या जिनधर्म। बाद में लगभग आठवीं सदी में उनके अनुयायियों को “जैन" कहा जाने लगा और उनके धर्म को “जैनधर्म" की संज्ञा दे दी गई। उनके इस धर्म को निर्वाणवादी धर्म भी कहा जाता था जिसमें आत्मा कर्मबन्धन से मुक्त होकर परमात्मा बन जाता है। २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525038
Book TitleSramana 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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