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________________ २० महावीर का धर्म, जाति, सम्प्रदाय और वर्ग विहीन धर्म था। उसमें व्यक्ति की पहचान उसके सम्यक् चारित्र से की जाती थी। २३ जैनधर्म के महामन्त्र “णमोकार मन्त्र" में भी किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं बल्कि चरित्रनिष्ठ व्यक्तित्व को प्रणाम किया गया है। यह उसकी सार्वभौमिकता है। २४ जैन दर्शन की दृष्टि से सभी विचारों में सत्यांश रहता है इसलिए उसे नकारात्मक नहीं कहा जाना चाहिए बल्कि समुचित आदर देते हुए सापेक्ष दृष्टि से प्रस्तुत किया जाना चाहिए। दूसरों की विचारधारा को गुणवत्ता की दृष्टि से सम्मान देने और संघर्ष टालने का यह एक अच्छा मार्ग है। शान्ति स्थापित करने का यह सही उपाय है। इसी को स्याद्वाद और अनेकान्तवाद कहा जाता है। २५ __महावीर के धर्म की एक अन्यतम विशेषता है -- आध्यात्मिक साम्यवाद। महावीर ने धर्म का अर्थ ही समता किया है। २६ उनके अनुसार संसार के सभी जीव समान हैं। सभी को अपनी चेतना को विकसित करने का समान अधिकार है। वे पूर्ण विशुद्ध चित्त होकर निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं। अत: इन्द्रिय संयमी होकर अहिंसा का परिपालन करना चाहिए। महावीर की अहिंसा में हिंसक कर्मकाण्ड को पूरी तरह से नकारा गया है और अहिंसक भक्ति परम्परा को स्वीकारा गया है। २७ जैनधर्म ने इसी तरह सामाजिक समता को जन्म देकर पारम्परिक वर्णव्यवस्था का खण्डन किया।२८ उसने जातिवाद को अस्वीकार कर उसके स्थान पर स्वयंकृत कर्म की व्यवस्था दी। इसी आधार पर महावीर के संघ में सभी जाति के लोगों ने दीक्षा ली। चाण्डाल भी दीक्षित हुए।२९ सभी समुदायों के बीच समता और एकात्मकता को स्थापित करने का यह एक ऐतिहासिक कदम था। बाद में भगवान् बुद्ध भी इसी कदम पर चले। समता के ही आधार पर नारी वर्ग को भी उन्होंने तत्कालीन दासता से मुक्त किया और पुरुष के समकक्ष खड़े होने और विकास करने का अवसर दिया।३० समता की इसी भूमिका के साथ महावीर ने अपरिग्रह धर्म में आर्थिक समानता को जन्म दिया और सर्वोदयवाद की प्रतिष्ठा की।३१ जैनधर्म का प्रचार-प्रसार जैनधर्म का आविर्भाव यद्यपि मध्यदेश, विशेषतः बिहार और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में हुआ है पर उसका प्रचार-प्रसार समूचे भारतवर्ष में रहा है। शिशुनाग, नन्द, मौर्य, शुंग, सातवाहन, कुषाण, गुप्त, राष्ट्रकूट, चोल, गंग, चालुक्य, परमार, चन्देल, कल्चुरी आदि सभी वंशों के राजाओं ने जैनधर्म को प्रश्रय दिया और उसकी अहिंसक वृत्ति की प्रशंसा की।३२ महावीरकाल में ही जैनधर्म की लोकप्रियता काफी बढ़ गई थी। उनके ही संघ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525038
Book TitleSramana 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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