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________________ उन्हें वीर, सन्मति और अतिवीर भी कहा जाता है। राजकुमार वर्धमान गृहस्थावस्था में रहते हुए भी भोग और वासनाओं में निरासक्त थे। संसार की गहनता और असारता का अनुभव उन्हें हो चुका था। आध्यात्मिक चिन्तनशीलता रात-दिन बढ़ती चली जा रही थी। फलस्वरूप लगभग तीस वर्ष की भरी युवावस्था में उन्होंने घर-बार छोड़ दिया और परम वीतरागी सन्त के रूप में कठोर तपस्या करने लगे। इस महाभिनिष्क्रमण से लेकर केवलज्ञान की प्राप्ति तक उन्होंने लगभग बारह वर्ष तक भीषण उपसर्ग सहे, यातनायें भोगी और समभाव से समीपवर्ती प्रदेशों में पैदल भ्रमणकर आत्मसाधना की। ८ अन्त में राजगृह के पास ऋजुकुला नदी के तटवर्ती शालवृक्ष के नीचे तपस्या करते हुए गोधूलि वेला में महावीर ने केवलज्ञान की प्राप्ति की। अब वे अर्हन्त, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो गये। केवलज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर ने स्वानुभूति से प्राप्त जीवन-दर्शन को बिना किसी भेदभाव के सभी जाति और सम्प्रदाय के लोगों तक पहुंचाने का संकल्प किया। वे राजगृह की ओर बढ़े जहां विपुलाचल पर्वत पर तैयार किये गये विशाल समवशरण (पाण्डाल) में बैठकर सभी प्राणियों को समान भाव से जीवन सन्देश दिया। इसी समवशरण में इन्द्रभूति गौतम, सुधर्मा आदि ग्यारह प्रसिद्ध ब्राह्मण विद्वान भी अपनी शिष्य मण्डली सहित वहाँ पहुँचे। उन्होंने महावीर से कुछ दार्शनिक प्रश्न पूछे और सन्तुष्ट हो जाने पर वे उनके अनुयायी हो गये। महावीर ने उन्हें फिर अपने-अपने संघ का नेता बना दिया और “गणधर" की संज्ञा दे दी। महावीर के उपदेशों को अभिव्यक्ति देने का कार्य इन्हीं गणधरों ने किया था।१० ___ गणधरों के शिष्य बन जाने पर महावीर की लोकप्रियता और भी अधिक बढ़ गयी। साथ ही उनके अनुयायियों की संख्या भी बढ़ने लगी। यह देखकर महावीर ने गणों की स्थापना की और इन विद्वान् गणधरों की देखरेख में चार प्रकार के संघ की नींव डाली जिनमें श्रावक, श्राविका, श्रमण (मुनि) और श्रमणी (आर्यिका) सम्मिलित थे।११ तीर्थङ्कर महावीर ने अपने तीस वर्षीय धर्म के प्रचार काल में जैनधर्म को भारतवर्ष के कोने-कोने में फैला दिया। उनका भ्रमण विशेषत: उत्तर, पूर्व, पश्चिम और मध्य भारत में अधिक हुआ। श्रावस्ती नरेश प्रसेनजित, मगधनरेश श्रेणिक बिम्बसार, चम्पानरेश दधिवाहन, कौशाम्बीनरेश शतानीक, कलिंगनरेश जितशत्रु आदि जैसे प्रतापी राजा महाराजा भगवान् के कट्टर भक्त और उपासक थे। १२ लगभग बहत्तर वर्ष की अवस्था तक महावीर ने सारे देश में पैदल भ्रमण कर अपने धर्म का प्रचार-प्रसार किया। अन्त में उनका परिनिर्वाण मल्लों की राजधानी अपापापुरी (पावापुरी) में कार्तिक कृष्ण अमावस्या के प्रात:काल ई०पू० ५२७ में हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525038
Book TitleSramana 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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