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कहा जाता है।
(२) औद्देशिक – किसी श्रमण को लक्ष्य कर जो आहारादि बनाया जाय तो वह उस श्रमण को तो नहीं ग्रहण करना चाहिए, पर अन्य श्रमणों के लिए वह ग्रहणीय है।
(३) शय्यातरपिण्ड - शय्या का तात्पर्य है उपाश्रय, स्थानक आदि। इन्हें बनानेवाला संसार-समुद्र से पार हो जाता है। ऐसे उपाश्रय आदि बनाने वाले गृहस्थ के भोजन को शय्यातरपिण्ड कहा जाता है। ऐसा भोजन श्रमण के लिए निषिद्ध है।
(४) राजपिण्ड - राजा का भोजन भी निषिद्ध है। (५) कृतिकर्म -- ज्येष्ठ श्रमणों का सम्मान करना, विनय करना। (६) व्रत - बारह व्रतों का पालन करना।
(७) ज्येष्ठकल्प - अपने से ज्येष्ठ श्रमणों का समादर करना। यहाँ ज्येष्ठता का निर्णय छेदोपस्थापनीय चारित्र को ग्रहण करने न करने के आधार पर किया जाता है। यहाँ चिरदीक्षिता साध्वी के लिए भी नवदीक्षित साधु वन्दनीय माना गया है।
(८) प्रतिक्रमण – आत्मालोचन कर अपने मूल स्वभाव में वापस आना।
(९) मासकल्प – वर्षाकाल के अतिरिक्त कहीं भी एक माह से अधिक नहीं ठहरना।
(१०) पर्युषणकल्प - पर्युषण पर्व को मनाना ।
इन कल्पों में आचेलक्य, औद्देशिक, प्रतिक्रमण, राजपिण्ड, मासकल्प और पर्युषणाकल्प प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्करों के समय ही विहित हैं तथा शेष चार कल्प चौबीसों तीर्थङ्करों के समय मान्य हैं (आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति, पत्र १२१)। __इस पर्युषणाकल्प में साधु वर्ग के लिए पांच विशेष कर्तव्यों का उल्लेख मिलता है ---- सांवत्सरिक प्रतिक्रमण, केशलोंच, यथाशक्ति तपस्या, आलोचना और क्षमापना। यहाँ हम इन पर पृथक् रूप से विचार नहीं कर रहे हैं। पर इतना अवश्य कहना चाहेंगे कि इन कर्तव्यों का पालन करने से साधु में संसार की अनित्यता और आत्मा के स्वभाव पर चिन्तन गहरा होता जाता है। इसलिए इस पर्व को जागरण पर्व कहा जाना चाहिए। धर्म के सही रूप को समझने और उसे आत्मसात करने का यह सर्वोत्तम मार्ग है। पर्युषण पर्व का उद्देश्य
हमारे कर्म और भाव हमारे मन पर अव्यक्त रूप में संस्कार की रेखायें निर्मित कर देते हैं और वही संस्कार पुनर्जन्म के कारण बनते हैं। तथागत बुद्ध ने तो उदान
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