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________________ में पांच सौ जन्मों तक संस्कारों के प्रभाव की बात स्वीकार की है। इन भावों का एक आभामण्डल बन जाता है और उसी के अनुसार हमारे भावी जन्मग्रहण की प्रक्रिया शुरु होती है। महावीर की रूपान्तरण प्रक्रिया नयसार या सिंह पर्याय से प्रारम्भ होती है और महावीर तक आते-आते समाप्त हो जाती है। पर्युषण पर्व पर तीर्थङ्कर महावीर के जीवनचरित और उनके पूर्व भवों पर विशेष चर्चा की जाती है। इसके पीछे दो दृष्टिकोण मुख्यत: रहे हैं। पहला यह कि आत्मा के अस्तित्व के साथ ही कर्म के अस्तित्व की अवधारणा को स्वीकारना और दूसरा कि महावीर के चरित को सुनकर स्वयं की आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत करने का संकल्प करना। जीवन उत्थान-पतन की कहानी है, सुख-दुःख का संगम है। कोई भी व्यक्ति दुःखों के बीच नहीं रहना चाहता। सुख-दुःख में कार्य-कारणभाव का सम्बन्ध है। बिना कारण के उनकी अवस्थिति नहीं मानी जा सकती है। सुख-दुःख की अवस्थिति का कारण ज्ञात होने पर व्यक्ति के जीवन में रूपान्तरण आ सकता है और वह संसार की "नश्वरता का चिन्तन करता हुआ अपना आचरण विशुद्ध बना सकता है। जीवन को विशुद्धता और सरलता-सहजता की ओर ले जाना ही पर्युषण का मुख्य ध्येय है। जीवन को धार्मिकता की ओर उन्मुख कर सांसारिक कष्टों से मुक्त कराना ही उसका लक्ष्य है। धर्म का स्वरूप भारतीय संस्कृति में धर्म के अनेक अर्थ मिलते हैं। उन अर्थों में कर्तव्य और स्वभाव अर्थ अधिक लोकप्रिय रहा है। धर्म की सारी परिभाषायें इन दोनों अर्थों के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। यहीं निश्चय और व्यवहार का दार्शनिक क्षेत्र भी समाहित हो जाता है। जैनाचार्यों ने धर्म की व्याख्या निवृत्तिवादी दृष्टि से अधिक की है। स्वयं निवृत्ति के पुजारी होने के कारण धर्म का सम्बन्ध उन्होंने संसरण से मुक्त करानेवाले साधन से स्थापित किया है तथा अहिंसा और दया को धर्म की प्रकृति मानकर उसे आत्मा का स्वभाव बताया है। आत्मा का स्वभाव ज्ञान और दर्शन क्रोधादिक विकार भावों के कारण आवृत्त हो गया है। वस्तु का स्वभाव उसकी क्षणभंगुरता है और वही उसका धर्म है। इस धर्म को हृदयस्थ करने से क्षमादि भाव स्वत: स्फुरित हो जाते हैं। इससे व्यक्ति की चेतनता में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय पनप जाते हैं और श्रावकधर्म से मनिधर्म की ओर जाने के लिए शुभोपयोग से शुद्धोपयोग की ओर उसके कदम आगे बढ़ जाते हैं। इसीलिए धर्म गुरु भी है और मित्र भी है। धर्म की इन सारी परिभाषाओं में समय-समय पर विकास हुआ है। उनमें दो तत्त्व स्पष्ट रूप से सामने आते हैं, पहला यह कि धर्म का अर्थ स्वभाव है और जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525038
Book TitleSramana 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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