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________________ १९३ अक्षर-भारती : लेखक-विद्यावाचस्पति डॉ० श्रीरंजनसूरि देव; प्रकाशकलता प्रकाशन, पटना; प्रथम संस्करण १९९९ ई०; पृष्ठ १६०; मूल्य-२६/- रुपये। संस्कृत भाषा में रचित यह निबन्ध संग्रह दो भागों में विभक्त है। गद्य भाग और पद्य भाग गद्य भाग, में साहित्य-संस्कृतिविषयक १७ निबन्ध, समसामयिक विषयक ४ निबन्ध, व्यक्ति समाश्रित ४ निबन्ध, स्थान विषयक १ निबन्ध और ५ प्रकीर्ण निबन्ध संकलित हैं जिनकी कुल संख्या ३१ है। पद्य भाग में विभिन्न विषयों पर १२ पद्य संकलित किये गये हैं। निबन्धों में अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त पर आधारित निबन्ध, संस्कृत महिमा, संस्कृते जैन साहित्यम्, कालिदासस्य दाम्पत्यचित्रणम्, कबीरदासस्य सन्देशः, महात्मागान्धिन ईश्वरतत्वम्, वेदोत्तर भारतस्य पञ्चायतस्वरूपम्, भारतस्यान्तरिक्षानुसन्धानम्, जयप्रकाश, नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और आचार्य श्रीरामावतारशर्मा पर केन्द्रित निबन्ध, पाटलिपुत्रम्, संस्कृतस्य चम्पूसाहित्यम्, मारुतिचरितामृतम् आदि निबन्ध प्रमुख हैं। पद्य भाग में बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद आदि पर गीतिकाव्य, सरदार पटेल, दीनदयाल उपाध्याय, विश्वमैत्री आदिविषयक काव्य एवं भारत वन्दना आदि प्रमुख हैं। यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा के प्रेमियों के लिये पठनीय और मननीय है। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक और मुद्रण त्रुटिरहित है। अतुल कुमार प्रसाद आनंदघन-स्तवन : लेखक- त्र्यंबकलाल उ० मेहता, प्रकाशकउमेदचन्दभाई कसुम्बाबेन चेरीटेबल ट्रस्ट, 'सिद्धार्थ', ३, नारायण नगर, पालडी, अहमदाबाद-७, पृष्ठ ९६; मूल्य- ३०/- रुपये। 'तीर्थङ्कर' या 'जिन' जैन परम्परा के सर्वोच्च आध्यात्मिक और धर्म के प्रवर्तक पुरुष माने गये हैं। जैन दर्शन के मान्यतानुसार काल-चक्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दो विभाग हैं। इन दोनों को पुन: छ:-छ: आरों में विभक्त किया गया है। वर्तमान में अवसर्पिणी काल-चक्र का पाँचवां दुषमा आरा विद्यमान है। इस अवसर्पिणी काल के चौथे आरे में चौबीस तीर्थङ्करों की एक शृङ्खला चली। यह चौबीसी केवल दुषमा-सुषमा नामक आरे में ही प्रवर्तित होती है। गत दुषमा-सुषमा आरे में आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव से लेकर अंतिम महावीर तक चौबीस तीर्थङ्करों की अवधारणा है। ये तीर्थकर ही जैन धर्म संघ के संस्थापक और नीति-नियन्ता कहे गये हैं। इनके ही द्वारा आगमरूपी श्रुत ज्ञान का उपदेश प्रारम्भ किया जाता है। वर्तमान में भगवान् महावीर का तीर्थ विद्यमान है, यद्यपि धर्म संघ में सभी चौबीस तीर्थङ्कर समान रूप से पूज्य हैं। इन तीर्थङ्करों पर विद्वानों ने विपुल साहित्य की रचना की है जिनमें स्तोत्र, चरितग्रन्थ, प्रार्थना, स्तवन आदि प्रमुख हैं। इसी परम्परा में गुजराती भाषा में रचित प्रस्तुत ग्रन्थ चौबीस तीर्थङ्करों का स्तवनरूप है। इसमें क्रमानुसार ऋषभ से लेकर महावीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525038
Book TitleSramana 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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