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पर्युषण : सही दृष्टि देने वाला महापर्व
व्यक्ति साधारण तौर पर भौतिक चकाचौंध में इतना अधिक अन्धा हो जाता है कि उसे पञ्चेन्द्रिय वासनाओं के दुष्फलों की ओर सोचने का भी बोध जाग्रत नहीं होता । वह काम, क्रोधादि विकारों में आपाद मग्न रहता है और धर्म की वास्तविकता को पहचानने से इन्कार कर देता है। इस इन्कार करने की तसवीर को बदलने के लिए आध्यात्मिक पर्व निश्चित ही अमोघ साधन का काम करते हैं।
पर्युषण पर्व का अर्थ
पर्व के अनेक अर्थ होते हैं। यथा बांस या पौधों या अंगुलियों की पोरियों ' का सूचक होता है- पर्व। वह महीनों का विभाग करता है और पुस्तक के अध्याय- परिवर्तन को भी सूचित करता है। मत्स्यपुराण (१४८.२८.३२) के अनुसार पर्व धार्मिक कार्यों के लिए अच्छे अवसर प्रदान करता है । इस दृष्टि से अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा और संक्रान्ति ये सभी पर्व ही हैं। जब पूर्णिमा अथवा अमावस्या का अन्त होता है और प्रतिपदा का प्रारम्भ होता है उस काल को भी पर्व कहा जाता है। श्रावक प्र० टीका (३२१) के अनुसार जैन परम्परा में भी ऐसे ही समय को पर्व का अभिधान दिया गया है।
ऐसे पर्वों में पर्युषण (पज्जुसणा) पर्व अथवा दशलक्षण पर्व का विशेष महत्त्व है। जैन संस्कृति में यह पर्व साधारणतः वर्षावास प्रारम्भ होने के ५० दिन बाद प्रारम्भ होता है । वर्षायोग का प्रारम्भ आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी की रात्रि के प्रथम प्रहर से हो जाता है और कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि के पिछले प्रहर में उसकी समाप्ति होती है । किसी विशेष प्रसङ्ग में साधु चातुर्मास के बाद भी पन्द्रह दिन तक और रुक सकता है।
चातुर्मास के पीछे जीवों का संरक्षण और आध्यात्मिक वातावरण का निर्माण मुख्य ध्येय रहा है । इस दृष्टि से चातुर्मास के लगभग मध्य भाग में इस महापर्व का प्रारम्भ हुआ है। भाद्रपद मास वैसे ही कल्याणकारी माना गया है। इस महापर्व का प्रारम्भ दिगम्बर परम्परा में भाद्रपद शुक्ल पंचमी से होता है और श्वेताम्बर परम्परा में यह पर्व इसके आठ दिन पूर्व शुरू हो जाता है और भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी का दिन संवत्सरी के रूप
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