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________________ ५९ चेतनता. जानना और देखना, ज्ञान और दर्शन आत्मा का मल स्वभाव है। पूर्ण विशुद्धता उसका लक्षण है। वह स्वतन्त्रता, निश्चल, कर्ता और भोक्ता है। परन्तु कर्मों के प्रभाव से उसका मूल स्वभाव ढक जाता है, उस पर धूलि का आवरण चढ़ जाता है। यही आवरण संसार में जन्म-मरण लेने की प्रक्रिया को बढ़ा देता है। दुःखों का सागर इसी से गहराता चला जाता है। आचरण का प्रमुखतम साधन है अपरिग्रहवृत्ति। सारी बुराइयों की जड़ है आसक्ति। आसक्ति लोभ का ही दूसरा नाम है। वह विवेक के चेहरे पर अपना चेहरा ऐसा चिपका देता है कि वह मुखौटा मूल चेहरे से भी कभी-कभी बेहतर दिखाई देता है। सारी हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदि जैसे पापों के पीछे यही मुखौटा, परिग्रह का भाव काम करता है और सन्मार्ग में कांटे बिछाता है। लगता है, परिग्रह ही पाप का मूल कारण रहा होगा तीर्थङ्कर महावीर की दृष्टि में। अपरिग्रह वृत्ति के बाद हम खान-पान की ओर दृष्टि दें। जैनधर्म एक जीवन पद्धति है, जिन्दगी का रास्ता है जहाँ व्यक्ति निर्भय और निर्द्वन्द्व होकर चल सकता है। आज का विज्ञान क्षेत्र इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि खान-पान का असर हमारे मन पर और हमारी वृत्तियों पर पड़ता है। जैन जीवन पद्धति शुद्ध शाकाहार को तरजीह देती है। शाकाहार मानवता की पुकार है। आश्चर्य है थोड़े से तथाकथित स्वाद के लिए व्यक्ति अपनी मानवता को चट कर जाता है और पशुवृत्ति का प्रतीक मांसाहार करने में जुट जाता है। मांसाहार कोई अनिवार्य तत्त्व नहीं है, अनिवार्य तत्त्व है अनाज और खाद्य वनस्पतियाँ। इसका कोई विकल्प भी नहीं है। क्रूरता, आवेश आदि तामसिक वृत्तियाँ, मांसाहार से अधिक बढ़ती हैं। हृदय रोग, कैंसर, मिर्गी, संधिवात, मोटापा, त्वचा रोग आदि अनेक भीषण रोग मांसाहार से अधिक होते हैं। मांसाहारी पशु और शाकाहारी पशुओं की शरीर-रचना भी बिलकुल भिन्न होती है। शाकाहार में प्रोटीन कम होते हैं यह धारणा भी बिल्कुल गलत साबित हो गई है। अत: जैनधर्म विशुद्ध शाकाहार पर बल देता है। ___ अहिंसादि व्रतों का परिपालन एक साधारण व्यक्ति के वश की बात नहीं होती। अत: वह 'अणुव्रत' कहा जाता है। अणुव्रती होना सच्चे श्रावक का लक्षण है। उसका जीवन निर्व्यसनी होना चाहिए। मद्य, मांसादि के सेवन से विरत होना चाहिए। धनार्जन भी न्यायपूर्वक हो। उसमें शोषण न हो। अहंकारादि भावों से दूर रहकर समता भाव उसकी आधारशिला हो। अर्जन के साथ विसर्जन भी उतना ही आवश्यक है। आचरण का चतुर्थ आयाम है चिन्तन और अभिव्यक्ति में समता भाव। समन्वय चेतना और समतामयी विचारधारा अशान्त वातावरण को प्रशान्त बना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525038
Book TitleSramana 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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