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संसार समस्याओं से भरा एक कंटकाकीर्ण जंगल है, जहाँ एक साधारण व्यक्ति प्रवेश करते ही भयभीत हो जाता है। पर यदि उसकी धार्मिक चेतना का निर्माण हो जाता है, बुद्धि के साथ ही विवेक जाग्रत हो जाता है तो वह निर्भयता की सीढ़ियाँ चढ़ जाता है और प्रलोभन से दूर रहकर अपने आपको जानने का प्रयत्न करता है। ऐसा निर्भय और विवेकशील व्यक्ति ही संसार की समस्याओं से दूर रह सकता है और दूसरे को भी सन्मार्ग पर ला सकता है।
धर्म की कितनी भी परिभाषायें कर दी जायें पर यदि वे हमें जीवन जीने की कला नहीं दे सकी तो उन परिभाषाओं में अधूरापन ही रहेगा। अभय, समता और क्षमाशीलता ही धर्म है। इन्हीं से जीवन-मूल्यों की साधना होती है। उसमें सार्वजनीनता, सार्वकालिकता और सार्वदर्शिकता आती है और आत्मसाक्षात्कार का द्वार उद्घाटित होता है।
मन कोरा कागज है। हमारी भावनायें संस्कार और वृत्तियाँ उस पर चित्रित हो जाती हैं, जिससे उसकी स्वाभाविकता चंचलता द्विगुणित हो जाती है। संकल्प, विकल्प और विचारों के अन्तर्द्वन्द्वों में झूलता यह मन व्यक्ति को साधना से गिराने में कोई कर. नहीं रखता। इसलिए साधक उसे एकाग्रता की डोरी से कसकर बाँध लेता है और निर्विचार की स्थिति में पहुँचने का भरपूर प्रयत्न करता है। इस प्रयत्न में विशुद्ध मान्त्रिक शक्ति और आन्तरिक परीक्षण उसका विशेष सहयोगी होता है।
जीवन में आध्यात्मिकता को पल्लवित करने के लिए इन्द्रियों पर अनुशासन रखना आवश्यक है। इसके लिए आहारशुद्धि, सम्यग्योग तत्प्रतिसंलीनता और कायोत्सर्ग जैसे साधन उपयोगी माने जाते हैं। इन्द्रियों को वश में रखने वाली कथाओं से साहित्य भरा पड़ा है। बड़ी मार्मिक और हृदयवेधक ये कथायें संयम और सन्तोष की शिक्षायें देती हैं। यही संयम और सन्तोष जीवन का शृङ्गार है।
कांक्षी और आसक्त व्यक्ति तनावग्रस्त रहता है और उससे बीमारियों को आमन्त्रित करता है। अहं और मद का विसर्जन कर उससे मुक्त होने के लिए साधक को कायोत्सर्ग करना चाहिए। चिता समान चिन्ता को दूर कर शरीर के प्रति ममत्व छोड़ देना चाहिए। मानसिक एकाग्रता और ध्यान के माध्यम से तनाव-मुक्त हुआ जा सकता है। अपने आप पर नियन्त्रण स्थापित कर और अवेगों को समाप्त करने की दिशा में कदम बढ़ाने से हमारी चेतना जाग्रत हो जायेगी।
जीवन की तलाश आध्यात्मिकता में हो पाती है, अन्यथा साधक निष्ठुर-सा हो जाता है। मानसिक पतन एवं चारित्रिक क्षरण के साथ संवेदन शून्यता आ जाती है। व्यक्ति वस्तु के स्वभाव पर निष्पक्ष होकर चिन्ता करे तो वह इस चारित्रिक पतन से बच सकता है और पर्यावरण दूषित होने से उत्पन्न समस्याओं से मुक्त हो सकता है,
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