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________________ १०९ गण, संघ और साधर्मिक (समनोज्ञ), निःस्वार्थ होने से यह वैयावृत्ति अन्तर- तप है और कर्म - निर्जरा का कारण बनती है। स्वाध्याय का तात्पर्य है— स्वयं का अध्ययन । यहाँ स्वाध्याय का अर्थ शास्त्रों का अध्ययन मात्र नहीं है, उस पर चिन्तन कर आत्म-शोधन करना उसका लक्ष्य है। यह स्वाध्याय वस्तुगत नहीं, आत्मगत होता है । वस्तुगत स्वाध्याय साधन है । पदार्थ के स्वभाव का अध्ययन कर उसकी क्षणभंगुरता पर चिन्तन होना चाहिए। कोरा ज्ञान तो अहंकार का कारण बन सकता है, पर स्वाध्याय से परम सत्य का ज्ञान होता है, मूर्च्छा विगलित होती है, मन मंजता है और साधक अप्रमादी होकर अन्तर में झांकने लगता है। यह झांकने की क्रिया वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश के माध्यम से स्वाध्याय की प्रवृत्ति जाग्रत होती है और आत्मजागरण होता जाता है । इसी एक को जानने से सभी को जाना जा सकता है। पाँचवां अन्तर- तप है-ध्यान । ध्यान का तात्पर्य है मन को एकाग्र करना । मन प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों भावों की ओर जाता है। प्रशस्त ध्यान की चर्चा तो सभी ने की है, पर अप्रशस्त ध्यान की ओर महावीर ने ही हमारा ध्यान आकर्षित किया है। पर पदार्थ की ओर चित्त को दौड़ाना अप्रशस्त ध्यान है । पर पदार्थ स्थिर रूप से कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसलिए यहाँ परमात्मा को भी अस्वीकार किया गया है। प्रार्थना भी जैनधर्म में गौण हो गई है, क्योंकि प्रार्थना में दूसरे की सहायता ली जाती है। जैनधर्म में सहायता की आवश्यता ही नहीं की गई है। यहाँ तो पर पदार्थों से सम्बन्ध समाप्त किया जाता है और स्वभाव में स्थिर हुआ जाता है। इसी को सामायिक कहा जाता है। सामायिक में समय का अर्थ है आत्मा, शास्त्र और काल । ये तीनों अर्थ अपने आप में बड़े महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं । काल का सम्बन्ध चेतना की गति से है । पदार्थ में लम्बाई-चौड़ाई - मोटाई तो होती है पर अचेतन पदार्थ में काल पर चिन्तन करने की शक्ति नहीं रहती । यह शक्ति चेतन पदार्थ में होती है और चेतन पदार्थ का मन दौड़ता रहता है, जो समय के बिना सम्भव नहीं होता। सामायिक में शास्त्र- स्वाध्याय के अनुसार अनुभूति का जागरण होता है, आत्मा पर चिन्तन होता है और चेतना की गति को स्थिर किया जाता है। अप्रशस्त ध्यान में मन आर्त और रौद्र भावों पर जाता है, क्रोधादि विकार भावों की ओर मुड़ता है वहीं पर प्रशस्त ध्यान नहीं है जहाँ मन पर पदार्थों से हटकर स्वभाव में स्थिर हो जाता है। प्रशस्त ध्यान में मन को विश्राम नहीं दिया जाता, क्योंकि जहाँ विश्राम की बात आती है वहाँ मूर्च्छा और निद्रा आ ही जाती है। यहाँ तो मन को स्मरण के माध्यम पृथक् किया जाता है । प्रतिक्रमण, जातिस्मरण और स्मरण के माध्यम से ध्याता स्वयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525038
Book TitleSramana 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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