SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४० होता गया और अन्तत: वह घोर नियतिवादी हो गया। ३. कोल्लाग सनिवेश से विहार कर महावीर सुवर्णखल पहुँचे। मार्ग में कुछ ग्वाले खीर पका रहे थे। गोशालक ने कहा- 'रुकिये, हम लोग खीर खाकर चलेंगे।' महावीर ने कहा- 'यह खीर पक नहीं पायेगी। उसके पकने के पूर्व ही हांडी फूट जायेगी।' महावीर की यह सूक्ष्मान्वेक्षण शक्ति का प्रदर्शन था। अनुमान सही निकला। गोशालक का विश्वास नियतिवाद पर और बढ़ा गया। ४. महावीर के साथ रहते हुए भी गोशालक की वृत्तियाँ शान्त नहीं हुई थीं। वह क्रोधी और रागी प्रकृति का था। इसलिए उसे अनेक स्थानों पर अपमान सहन करना पड़ा। कभी वह महिलाओं से छेड़-छाड़ करता तो कभी परमतावलम्बी तथा पार्श्व परम्परानुयायी साधुओं और श्रावकों से झगड़ पड़ता। इसलिए जनसमुदाय के रोष का वह शिकार हो जाता। पार्श्वस्थ साधुओं से भेंट : पुरातन परम्परा का एकीकरण कूर्मारक सन्निवेश में पार्श्वनाथ परम्परा के सन्तानीय साधुओं से गोशालक की भेंट हुई। महावीर तो उद्यान में ही ध्यानस्थ रहे पर गोशालक गाँव में भिक्षार्थ गया। वहाँ विचित्र वस्त्र पहने पार्श्वनाथ की परम्परा के साधुओं से गोशालक की भेंट हुई और उनसे विवाद होने पर गोशालक ने उपाश्रय जल जाने का अभिशाप भी दिया।१७ महावीर से भी उनकी भेंट हुई और वे बड़े प्रसन्न हुए। सन्तानीय साधुओं के प्रधान आचार्य मुनिचन्द्र ने तो उसी समय अपने मुख्य शिष्य को कार्यभार सौंपकर स्वयं जिनकल्प दीक्षा धारण कर ली। साधनाकाल में ही एक आरक्षक पुत्र ने उन्हें तस्कर समझकर उनका अन्त कर दिया। शुभ वृत्तियों के कारण उन्होंने उसी जन्म में निर्वाण प्राप्त कर लिया। १८ अग्नि-उपसर्ग : कठोर साधना ५. हल्लिदुय में साधक महावीर एक हल्लिदृग नामक वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग में स्थिर हो गये। उसी वृक्ष के नीचे कुछ और भी व्यक्ति ठहरे हुए थे। वे रात्रि में आग जलाकर शीत से बचते रहे और प्रात:काल उसे बिना बुझाये ही वहाँ से चल पड़े। संयोग से वह आग फैल गई और उसकी लपटों में महावीर के पैर झुलस गये। फिर भी वे विचलित नहीं हुए।१९ अनार्य देशों में भ्रमण : समभावशीलता इसके बाद साधक महावीर के मन में यह विचार आया कि बिहार भूमि तो उनसे परिचित है। ऐसे स्थान पर क्यों न जाया जाय जहाँ कि उनका कोई परिचित ही न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525038
Book TitleSramana 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy