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________________ ३९ नाम कौशिक रखा गया । पर अत्यधिक चण्ड प्रकृति होने के कारण उसका नाम चण्डकौशिक पड़ गया। चण्डकौशिक अपने आश्रम की रक्षा का ध्यान अधिक रखता था। एक बार समीपवर्ती सेयंबिया नगरी के राजकुमारों ने आश्रम वन को उजाड़ दिया। चण्डकौशिक उन्हें मारने के लिए परशु लेकर दौड़ा। पर बीच में ही वह गड्ढे में गिरकर मर गया और दृष्टिविष नामक विकराल सर्प हुआ। महामना महावीर को ध्यानस्थ देखकर चण्डकौशिक सर्प को बड़ा विस्मय हुआ । वह क्रुद्ध होकर फूत्कार करने लगा। फिर भी महावीर को अविचल देखकर उनके पैर में तीव्र दृष्ट्राघात कर दिया। फलस्वरूप उनके पैर से रक्त के स्थान पर दुग्धधारा प्रवाहित होने लगी । चण्डकौशिक यह देखकर स्तब्ध रह गया। इस बीच महावीर का ध्यान समाप्त हो गया और उन्होंने चण्डकौशिक को उद्बोधन दिया-- "उपसम भो चण्डकोसिया ! हे चण्डकौशिक! शान्त हो जाओ। तुम अपने ही पापों के कारण संसार में भटक रहे हो । अब विकार भावों को छोड़ो और अपना भविष्य सम्भालो । " साधक महावीर की मर्मस्पर्शिनी वाणी को सुनकर चण्डकौशिक को जातिस्मरण हो आया। उनके निश्छल, शान्त और सौम्य भाव को उसने परखा और प्रतिज्ञा की कि मरण पर्यन्त वह न तो अब किसी को सतायेगा और न ही भोजन ग्रहण करेगा। चण्डकौशिक को शान्त और निश्चल तथा महावीर को सकुशल देखकर ग्रामवासियों ने आश्चर्य व्यक्त किया। वे महावीर के प्रशंसक बन गये। इधर चण्डकौशिक 'को निश्चल और शान्त समझकर लोगों ने उसे पत्थर मारे और असह्य पीड़ा दी। पर चण्डकौशिक उस पीड़ा को समभाव से सहन करता रहा और शुभ भावों पूर्वक उसने अपना देह त्याग दिया। १४ मक्खल गोशालक से भेंट : एक नया अध्याय साधक महावीर एक बार तन्तुवायशाला में ठहरे हुए थे। मंखलिपुत्र गोशालक भी वहीं रुका हुआ था। एक बार गोशालक के पूछने पर महावीर ने बता दिया कि तुम्हें आज भिक्षा में कोदों का वासा चावल (भात), खट्टी छाछ और खोटा रुपया मिलेगा। अनेक प्रयत्न करने पर भी गोशालक को भिक्षा में यही सब कुछ मिला। इस घटना से वह नियतिवादी बन गया। १५ इधर महावीर पारणा लेकर नालन्दा से कोल्लाग सन्निवेश पहुँचे। वहाँ बहुल नामक ब्राह्मण के घर आहार लिया। गोशालक भी महावीर को खोजते खोजते कोल्लाग पहुँच गया और वहाँ उसने उनका शिष्यत्व स्वीकार किया । १६ इसके पश्चात् छह वर्ष तक गोशालक अविरल रूप से महावीर के साथ रहा। इस बीच अनेक ऐसी घटनायें हुई जिनसे गोशालक का विश्वास नियतिवाद पर दृढ़तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525038
Book TitleSramana 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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