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________________ दिखाई नहीं दिये। महावीर से पूछने पर कोई उत्तर नहीं मिला। क्रुद्ध होकर उसने उनके दोनों कानों में काँस नामक घास की शलाकायें डाल दी और उन्हें पत्थर से ऐसा ठोंक दिया कि वे परस्पर में भीतर मिल गई। बाहर के शेष भाग को उसने तोड़ दिया ताकि कोई उन्हें देख न सके। महावीर ने इस असह्य वेदना को भी शान्तिपूर्वक सह लिया। २२ कर्णशलाका निष्कासन उपसर्ग छम्माणि से महावीर मध्यम पावा पहुँचे। वहाँ भिक्षा के लिए वे सिद्धार्थ नामक वणिक के घर गये। सिद्धार्थ उस समय अपने मित्र ‘खरक' नामक वैद्य से बात कर रहा था। उन दोनों ने महावीर को देखते ही उनकी वेदना का आभास कर लिया। इधर महावीर उद्यान में आकर ध्यानस्थ हो गये। सिद्धार्थ और खरक औषधियों के साथ महावीर को खोजते हुए उद्यान में पहुँचे। उन्होंने उनकी तेल मालिश की और फिर संडासी से दोनों कानों की शलाकायें बाहर निकाल दी। रुधिरयुक्त शलाकाओं के निकलाने की तीव्र वेदना से महावीर के मुँह से एक तीखी चीख निकली। वैद्य खरक ने घाव पर संदोहण औषधि लगा दी और वन्दना करके चला गया। आश्चर्य है कि महावीर की तपस्या का प्रारम्भ भी ग्वाले के उपसर्ग से हुआ और अन्त भी ग्वाले के उपसर्ग से हुआ। आगमों के अनुसार महावीर ने साधनाकाल में दारुण उपसर्ग सहे उनमें जघन्य उपसर्ग कटपूतना राक्षसी का, मध्यम उपसर्ग संगम का और उत्कृष्ट उपसर्ग कानों में कीलों के ठोकने और निकाले जाने का था। २३ दुर्धर तप इस प्रकार साधक महावीर छद्मस्थ काल में लगातार लगभग साढ़े बारह वर्ष तक कठोर साधना में लगे रहे। इस बीच उन्हीं कहीं चोर समझा गया तो कहीं गुप्तचर, कहीं योगी तो कहीं भोगी, कहीं ज्ञानी तो कहीं अज्ञानी। फलत: उन्हें सभी प्रकार के उपद्रवों को झेलना पड़ा। साधक महावीर वीतरागी और महाव्रती थे। उन्हें किसी प्रकार का राग, द्वेष, मोह नहीं था। वे तो उद्यान, गुफा, पर्वत, वृक्ष का अधोभाग, चैत्य, खण्डहर आदि एकाकी स्थानों पर अपनी साधना में मग्न हो जाते थे और मौनव्रती बनकर सभी प्रकार की प्राकृतिक और अप्राकृतिक बाधाओं को सहन करते रहे। २४ साधनाकाल में महावीर को उचित आहार भी अप्राप्य रहा। प्राय: उन्हें नीरस आहार मिलता जिसे वे निस्पृही होकर मात्र शरीर के सञ्चालनार्थ ग्रहण कर लेते। समूचे साधनाकाल में उन्होंने कुल ३४९ दिन आहार ग्रहण किया और शेष दिन निर्जल तपस्या में लगाये। कल्पसूत्र (सूत्र ११६) में उनकी छद्मस्थकालीन तपस्या का वर्णन इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525038
Book TitleSramana 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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