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________________ प्रतिक्रमण आदि क्रियायें- साधनार्थ की जाती हैं। इन साधनाओं से क्रोधादि कषायों का उपशमन हो जाता है। २. पज्जुसणा (पर्युषणा) – इस समय देव-शास्त्र-गुरु की उपासना की जाती है। यह वर्षावासीय अवस्थिति का सूचक है। ३. परियायउवणा - साधु की दीक्षा-पर्याय की गणना पर्युषण काल से होती थी। ४. पागइया - प्राकृतिक रूप से यह पर्व साधु एवं गृहस्थ वर्ग के लिए समाराधनीय है। ५. पढमसमोसरण - वर्षावास के प्रथम माह का प्रथम दिन है। आषाढ़ी पूर्णिमा को संवत्सर समाप्त होने के बाद श्रावणी प्रतिपदा से प्रारम्भ होने वाले नये वर्ष का प्रथम दिन है। दिगम्बर परम्परानुसार महावीर की प्रथम देशना श्रावणी प्रतिपदा को ही हुई थी। इसलिए इसे पढमसमोसरण कहा जाता है। ये सभी शब्द व्यक्ति की आध्यात्मिक साधना के आस-पास घूमते दिखाई देते हैं। पर्युषण शब्द का अर्थ ही है- परि समन्तात् उषणा वासः पर्युषणा अथवा परि समन्तात् ओषति दहति समूलं कर्मजालं यत् तत् पर्युषणम् अर्थात् सम्पूर्ण रूप से आत्मा के समीप बैठकर कर्मजाल को भस्म करना पर्युषण है। सम्यक् तप, सामायिक, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि के माध्यम से जीवन की सही पहचान कर आत्मसिद्धि प्राप्त करना ही इसका उद्देश्य है। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि जीवन के कृष्ण पक्ष से प्रारम्भ कर आत्मा की कलुषता को दूर कर त्याग, तपस्या आदि के माध्यम से शुक्लपक्ष अर्थात् निर्मल क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। जीवन को सम्हालने और सम्हारने की दृष्टि से हमारे आराध्य तीर्थङ्करों और आचार्यों के उदाहरण हमें प्रेरक सूत्र के रूप में उपस्थित रहें, इस दृष्टि से श्वेताम्बर समाज में अन्तकृद्दशासूत्र, दशवैकालिकसूत्र और कल्पसूत्र की वाचना की जाती है। इन सूत्रों को आठ दिनों में विभाजित कर लिया जाता है। अन्तकृद्दशासूत्र में तो वर्ग भी आठ ही हैं। इसी तरह कल्पसूत्र के तीन भाग हैं - तीर्थङ्करों का जीवन चरित्र, स्थविरावली और सामाचारी। स्थानकवासी परम्परा में अन्तकृद्दशा और दशवैकालिकसूत्र का वाचन होता है, तो मूर्तिपूजक परम्परा में कल्पसूत्र का। तेरापंथी परम्परा में किसी ग्रन्थ विशेष का वाचन नहीं होता, यहाँ आहार आदि विभिन्न संयमों पर आचार्य या मुनि व्याख्यान देते हैं। इन व्याख्यानों में तीर्थङ्करों का अनुकरण कर जिन आचार्यों ने जिस प्रकार की आत्मसाधना की उसका समुचित वर्णन व पठन-पाठन इस पर्व में हो जाता है। दिगम्बर परम्परा में इन दिनों क्षमादि दस धर्मों का विवेचन किया जाता है, जो जीवन को पवित्र बनाने में साधक होते हैं। ये दोनों परम्परायें एक-दूसरे की परिपूरक हैं। इसलिए इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525038
Book TitleSramana 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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