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________________ १०५ पर चिन्तन न करे, अन्यथा उसका अव्यक्त मन आहार पर ही दौड़ता रहेगा और स्वप्न में भी उसे आहार-भोजन ही दिखाई देता रहेगा। उस स्थिति में व्यक्ति मन का दास हो जायेगा और अनशन कार्यकारी नहीं हो पायेगा। यह प्रामाणिकता हमारे मन में होनी चाहिए। संकल्प होना चाहिए। यहाँ उसे आदत नहीं बनाया जा सकता। आदत में चिन्तन नहीं होगा, इसलिए अनशन का त्याग ही एकायक नहीं होता। अनशन के बाद तपस्वी अवग्रह लेता है कि यदि ऐसा-ऐसा होगा तो ही वह भोजन ग्रहण करेगा, अन्यथा नहीं। यह अनिश्चितता प्रकृति पर छूट जाती है। इसमें आहार से कोई लगाव नहीं रहता, बस एक प्रामाणिकता रहती है, संकल्प रहता है। उसमें जीवेषणा नहीं रहती। अनशन जीवेषणा को त्यागने का द्वार है, इन्द्रिय संयमन का उपाय है। जीवन आहार के लिए नहीं है, आहार जीवन के लिए है। यही उद्घोषणा अनशन का उद्देश्य है। ___ अनशन के बाद बाह्यतप में ऊनोदर का नाम आता है, जिसका अर्थ है- भूख से कम खाना या परिमित खाना। इसको अवमौदर्य और अवमोदरिका भी कहा जाता है। स्वस्थ पुरुष का आहार बत्तीस कवल का होता है, स्त्री का अट्ठाईस का और नपंसक का चौबीस कवल का होता है। ऊनोदर का तात्पर्य है इक्कीस कवल से अधिक नहीं खाना। ___बहुत सारे काम हम अपनी आदत के अनुसार करते हैं और वही आदत एक स्वभाव का रूप ग्रहण कर लेती है। प्रत्येक इन्द्रिय का एक उदर है, सीमा है, उससे अधिक उसे यदि दिया जायेगा तो उसकी क्षमता कम हो जाती है। प्रकृति का सन्तुलन बिगड़ जाता है, अस्वाभाविक हो जाता है। आदत से वासनायें जागती हैं। भूख यदि आदत बन जाये तो वह स्वाभाविक भूख नहीं होगी। अनशन से झूठी भूख टूटती है और ऊनोदर से वास्तविक भूख उभरती है। उस वास्तविक भूख में भी कम खाना ऊनोदर तप है। इस तप में इच्छा को सामर्थ्य के भीतर रोका जाता है (यदि सामर्थ्य के बाहर वह चला जाता है, तो आप उसके अधीन बन जाते हैं, जिसका परिणाम मात्र विषाद ही होता है। अत: किसी भी इन्द्रिय को चरम सीमा तक नहीं जाने देना चाहिए। चरम तक पहुँचने के पहले ही उससे हट जाना ऊनोदर तप है। यह तप सन्तुलन का प्रतीक है। तीसरा तप है वृत्ति संक्षेप। इसका तात्पर्य है अपनी वृत्तियों और इच्छाओं को संक्षिप्त करना, सीमित करना या केन्द्रित करना। 'इच्छा हु आगाससमा अणंतिया', इच्छायें आकाश के समान अनन्त होती हैं। सभी को परिपुष्ट नहीं किया जा सकता। अत: उन पर संयम कर व्यर्थ में बहने वाली ऊर्जा को रोक लेना चाहिए। संक्षेप का तात्पर्य है-सिकोड़ना। यदि इच्छाओं को सिकोड़कर केन्द्र पर सीमित कर दिया जाये और उसके फैलने के लिए बुद्धि का प्रयोग किया जाये तो इच्छायें स्वत: समाप्त होने लगती हैं। मन को एकाग्र कर इस फैलाव को रोकना ही वृत्ति संक्षेप है। इन्द्रियों का उपयोग कम से कम होना चाहिए। उससे स्वानुभूति में तीव्रता आती है और प्रज्ञा का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525038
Book TitleSramana 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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