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जीवन की निष्कपटता ही ऋजुता है
अर्थ और स्वरूप
___ उत्तम आर्जव का तात्पर्य है आत्मा के ज्ञायक स्वरूप में कपट का भाव उत्पन्न न होने देना। उसमें पूरी सरलता, ऋजुता आ जाना। मृदुता आ जाने के बाद यह ऋजुता आती है। आचार्य कुन्दकुन्द ने द्वादशानुप्रेक्षा में कुटिल भाव को छोड़कर निर्मल हृदय से आचरण करने को आर्जव कहा है। उमास्वामी, पूज्यपाद, अकलंक, अभयदेवसूरि, सिद्धसेनसूरि आदि आचार्यों ने इसी परिभाषा को स्वीकार किया है। इन सभी परिभाषाओं के समग्र चिन्तन से यह तथ्य निकलता है कि मन, वचन, काय में किसी भी प्रकार की वक्रता न होना और आचरण शुद्ध होना ही ऋजुता है। इसी को तत्त्वार्थवार्तिक में "योगस्यावक्रता आर्जवम्" कहा है।
आर्जव का सम्बन्ध विशुद्ध धर्म से है। धर्म प्रतिस्रोत का मार्ग है, एकान्त साधना का मार्ग है। भीड़ में उसका पालन नहीं किया जा सकता। आत्मनिरीक्षण के साथ ही मन में ऋजुता आ जाती है। "सोइ उज्जुयभूयस्स" अर्थात् शुद्धि उसी की होती है, जो ऋजु-सरल होता है। शुद्ध धर्म का पालन व्यक्ति को इतना सरल बना देता है, जितना छोटा बच्चा होता है। इस सरलता के मानदण्ड अपने-अपने हो सकते हैं पर उसे सभी चिन्तक वक्रता के अभाव में देखते हैं।
माया और प्रतिक्रिया
पदार्थ के प्रति आसक्ति ही कपट की जननी है। इसलिए उस आसक्ति को कम करने के लिए आचार्यों ने धर्मोपदेश दिया है। संसारी व्यक्ति को आसक्ति से ही भय उत्पन्न होता है। एक आसक्ति से दूसरी आसक्ति उठ खड़ी होती है और कोई भी आसक्ति सन्तुष्ट नहीं हो पाती। राजस्थानी कहावत है - चोर ने तूंबे चुराये। नाले में उनको डुबोना चाहा पर वह एक डुबोता तो दूसरा ऊपर आ जाता, यही स्थिति आसक्ति की होती है। आसक्ति के सन्तुष्ट न होने पर व्यक्ति मायावी हो जाता है और उसकी कथनी-करनी में अन्तर आ जाता है।
कपट भाव से मानसिक तनाव बढ़ता है और प्रतिक्रिया जन्म लेती है। प्रतिक्रिया से ही झूठ, चोरी, हिंसा, कपट आदि दुर्गुण आ जाते हैं और संघर्ष शुरू हो जाता
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