Book Title: Saddha Jiyakappo
Author(s): Dharmghoshsuri
Publisher: Jain Shwetambar Murtipujak Sangh Surat
Catalog link: https://jainqq.org/explore/002631/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीररस | श्री आत्म - कमल - दान - प्रेम - भुवनभानु - जयघोषसूरि गुरुभ्यो नमः तपागणाधीश-आचार्यश्रीधर्मधोषसूरिरचितः सवृत्तिः सड्ढ-जीयकप्पो (श्राद्धजीतकल्पः । प्रेरकाः :- विजय कुलचंद्रसूरयः प्रकाशन वर्ष २००७ चैत्र शु. १३ । : प्रकाशक: श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ श्री अभिनन्दन स्वामि देरासर, मु. पो. मढी, जी. - सुरत. गुजरात : संशोधक: प. पू. गच्छाधिपति-आचार्यश्रीमन्माणिक्यसागरसरीश्वरशिष्य : शतावधानी मुनीराज-लाभसागरगणिः : प्राप्तिस्थान : श्री दिव्यदर्शन ट्रस्ट ३९ कलिकुंड सोसायटी, धोलका - ३८७८१० विक्रम सं. २०६३ वीर सं. २५३३ प्रतय: ५00 2010_05 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोत्थु णं समणरस भगवओ महावीररस | श्री आत्म - कमल - दान - प्रेम - भुवनभानु - जयघोषसूरि गुरुभ्यो नमः तपागणाधीश-आचार्यश्रीधर्मधोषसूरिरचितः सवृत्तिः सड्ढ-जीयकप्पो (श्राद्धजीतकल्पः) 卐 - प्रेरकाः :- विजय कुलचंद्रसूरयः । प्रकाशन वर्ष २००७ चैत्र शु. १३ :प्रकाशक: श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघः श्री अभिनन्दन स्वामि देरासर, मु. पो. मढी, जी. - सुरत. गुजरात. । संशोधक: प. पू. गच्छाधिपति-आचार्यश्रीमन्माणिक्यसागरसूरीश्वरशिष्य : शतावधानी मुनीराज-लाभसागरगणिः : प्राप्तिस्थान : श्री दिव्यदर्शन ट्रस्ट ३९ कलिकुंड सोसायटी, धोलका - ३८७८१० विक्रम सं. २०६३ वीर सं.२५३३ प्रतय : ५०० 2010_05 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : प्रकाशक: श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघः श्री अभिनन्दन स्वामि देरासर, मु. पो. मढी, जी. - सुरत. गुजरात. मुद्रक: द्रष्टि क्रिशन ओल्ड प्रताप प्रेस, भागातलाव, सुरत. (अमरोली) विमल शाह : 98791 79193 वीर सं २५३२ विक्रम सं. २०६३ वीर सं. २५३३ प्रतय : ५०० 2010_05 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम विषय पृष्ठा विषय पृष्ठाङ्क पांच व्यवहारतुं वर्णन । २ अशुद्ध आहारपाणी ओपनारने प्रायश्चित्त । ४९ आलोचनानी विधि। ५ साधु पासे पोतार्नु औषधादि काम कराव- . आलोचनानो कोल । नार श्रावकने प्रायश्चित्त । आलोचना कोने देवी ?। कारणे पासत्था आदिने वंदन न करनारने आलोचनाचार्यना विशेषगुणो । प्रायश्चित्त । आलोचना माटे समग्रगुणवंत गुरुना पासत्था आदिनु स्वरूप । ____ अयोगमां अपवाद । कन्याना फलग्रहणमां, सांढना विवाहमा, आचार्य-उपाध्याय-प्रवर्ति-स्थावर अने ढिंगलाना विवाहमां, वृक्षारोपणमां, गीतार्थनुं स्वरूप । बलिविधानमां, नदी-कुंडादिमां पित्राआलोचना कोनी जेम करे ?। दिने पिंडदोनभां, श्राद्ध करवामां, कुदेआचार्यना छत्रीश गुणो। वताने नमन करवामां, मिथ्यादृष्टिना आलोचना करनारना दश गुणो अने तीर्थोमां स्नान करवामां प्रायश्चित्त । ५४ ___ दश दोषो। १४-१५ पूजा करतां हाथमांथी जिनप्रतिमा पडी जाय, सम्यग आलोचनामां गुणो । श्वास, वस्त्रनो छेडो, कलश-धूपदानी अगीतार्थने आलोचना देवामां दोषो। १६ आदिनो स्पर्श थाय, थूक-पग लागे, गीतार्थ गुरु पासे आलोचना न देवामा अविधिए पूजा करे ए बधामां तथा गुरु दोषो अने देवामां गुणो। अने गुरुना संथारो-आसन आदिने बराबर आलोचना करनार अने नहिं पग लागे, स्थापनाचार्यने पग लागे, करनारनुं फल । हाथमाथी पडी जाय, प्रतिमानो तथा अतिचार आपत्तिना प्रकारो। पाटी-पुस्तका दिनो' भंग-नाशमां प्रायश्चित्तना भेदो। प्रायश्चित्त । हालमा प्रायश्चित्त अने तेने आपनारा नथी मुहपत्ति-आसनादि आहारादि गुरुद्रव्य तथा एवं कहेनारने उत्तर । नैवेद्य-वस्त्र-सुवर्णादि देवद्रव्य तथा अनवस्थाप्य अने पारांचिकनुं स्वरूप । २८ साधारण-द्रव्य वापरवामां प्रायश्चित्त । ५६ आलोचनानुं फल अने तेना संबंधमां पृथिवी आदिना संघट्टनादिमां प्रायश्चित्त । राधावेधक, कथानक । बेइंद्रियथी पंचेन्द्रियना संघट्टामां तथा ज्ञान अने दर्शनना अतोचारोमा प्रायश्चित्त । ३५ अणगल जल पीवं, गरम करवू, तथा ३६३ परदर्शनिओ। तेनाथी स्नान करवू, वस्त्र धोवां आदिमां, भिक्षाना दोषो। ३९ कीडी विगेरेना घरभंगमां, चकली आहार करवाना अने नहिं करवाना कारणो। ४८ आदिना मालाना भंगमां, अग्निमां 2010_05 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___५८ विषय पृष्ठाक विषय अणशोभ्यां इंधन नास्त्रवा, वासी छाणां प्रमार्जन वगर उघाडे, बंध करे, ... थापवा, पुंजमां अग्नि देवो, सड्यां प्रमार्जन वगर शरीरने खजवाले, धान्य दलवा, घंटी-चुल्हा विगेरेने न बालोठ पाटादिने प्रमाा विना ले पूंजवा विगेरेमां प्रायश्चित्त । मूके, बेठां प्रतिक्रमण करे, बे वखत जन समक्ष आ चोर छे, आने अमुक वस्तु उपाश्रयप्रमार्जन पछी काजो उद्धरे चोरी छे एवु तेमज जारनु कलंक नहिं, देवगुरुने वंदन करवा दहेरे देवामां, मंत्रभेद करवामां प्रायश्चित्त । ६१ उपाश्रये जाय नहिं, पच्चक्खाण परायी वस्तुनी चोरी-दाणचोरी विश्वास पार्या विना भोजन करे, पोणी पीवे, घात करवामां प्रायश्चित्त । ६१ पुरुषनो स्त्रीने अने स्त्रीने पुरुषनो आठम आदिना नियमभंगमां, कुमारी संघट्टो तथा जलनो, अग्निनी विधवा-दासी-कुलवधू आदि परस्त्री ज्यातनो, वीजलीनो, स्पर्श थाय, गमनमां, अस्पृश्य जोतिनी स्त्रीगमनमां, पृथिवीकायादि अनंतकाय विकलेंद्रियनपुंसकसेवनमा, हस्तकर्म आदि कर पंचद्रियनो संघट्टो थाय, वमन थाय, वामां, स्वप्नमां नियमभंगमां प्रायश्चित्त। ६२ रातना अकालसंज्ञा थाय, भोजन पछी जघन्य आदि परिग्रहनो नियमभंगमः। ६४ गुरुवंदन न करे, पच्चक्खाण न करे, रात्रिभोजनमां, पांच उदुम्बरा, वेंगण, वगर कारणे शयन करे, पोरिसी महुडा, आदि फलफुलना, वासी द्विदल भणोव्या विना शयन करे, अपडिलेआदिना, जाणतां अजाणतां मध हिय जग्याए मातरं आदि परठवे, आ मांस-मद्य-माखणना नियम भंगमां बधामां प्रायश्चित्त । ६७-६९ ६५ नियम छतां वगर कारणे अतिथिसंविभाग अनंतकायमूलक आईकना भक्षणमां प्रायश्चित। ६६ न करे, पर्वतिथिमां पच्चक्खोणना नियम छतां पौषध-सामायिक न करे, न नियम छतां पच्चक्खाण न करे। ६९ पारे, पौषध-सामायिका मुहपत्ति नियम नहिं छतां पण संविभाग-नमस्कारनवकारवाली गमावे, पौषधमां बे सहितादि तप न करे, तप करनारनी वखत वसतितुं तथा रातना संथा निंदा करे, अंतराय करे, पक्खिए रानी भूमिर्नु प्रमार्जन न करे, चार उपवोस, चोमासीए छटु, संवच्छरीए वार स्वाध्याय न करे, वसति आदिमा अट्ठम न करे तेमां, गंठि सहितादिपेसतां निसीही अने निसरतां आव नमस्कार सहितादिना भंगमां, दिवसस्सही न कहे, पाणी-मातरं परठव्या चरिम पच्चक्खाण न करे, वगर पछी तथा सो होथ दूरथी आव्या कारणे भांगे तो प्रायश्चित्त । पछी ईरियावही न पडिक्कमे, बे वखत प्रतिक्रमणमां, काउस्सग्गमां, गुरुना पार्या उपधि न पडिलेहे, कमाड़ आदिने पहेलां काउस्सग्ग पारे, गुरुजी काउ प्रायश्चित्त । 2010_05 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृवाद पृष्ठाक स्सग्ग करे पछी करे, १९ दोष दूषित करे, प्रमाणथी ओछो अधिको करे, निद्रा-आलस आदिथी न करे, वंदन गुरुथी पहेलां दे अथवा पछी दे, अविधिथी दे तेमां प्रायश्चित्त । विना कारण प्रतिक्रमण न करे, आलसथी बेठा करे, वंदन न दे, बेठा दे, खमासमण अविधिथी दे, न दे, नियम छतां शक्ति छतां प्रतिक्रमण थोडंएकवार करे, सात क्षेत्रना दानमां शक्ति गोपवे, त्रिकाल पूजा करवानी सामग्री छतां थोडं-एकवार करे, तप-स्वाध्याय-संविभाग शक्ति छतां थोडु थोडु करे, नियम छतां देवगुरुने वंदन न करे, ज्ञानभणवा-गणवामां आलस करे, दर्शनसाधर्मिकवात्सल्य न करे, चारित्र विषय मूल-उत्तर गुणमा प्रमाद करे, तपविनय-वैयावच्चादि न करे, द्रब्यादिना अभिग्रह ग्रहण न करे, भांगे, ए बधामा प्रायश्चित्त। द्रव्य-क्षेत्र-कोल-भाव-पुरुष-प्रतिसेवनाना भेदथी प्रायश्चित्तमां भेद । द्रव्य-क्षेत्र-कोलनु स्वरूप । भाव-पुरुषनु स्वरूप । प्रतिसेवनाना चार अने कल्पना चोवीश प्रकार । ७५ दान-तपः-कालप्रायश्चित्तना बब्बे भेदो। ७७ श्रुतव्यवहारने आश्रयी नव प्रकारे तप । ७८ नव प्रकारे आपत्ति तप । गुरुपक्ष लघुपक्ष अने लघुकपक्षमा नव प्रकारे दान तप । वर्षादि काल आश्रि दानतपना भेदो। ८१ भेद यंत्र । केटला नमस्कारसहितादि पच्चक्खाणोथी उपवास थाय । 2010_05 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 णमोत्थु ण समणस्स भगवओ महावीरस्स के आगमोद्धारक-आचार्यप्रवरश्री-आनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः आचार्यश्रीधर्मघोषसूरिरचितः सवृत्तिः श्राद्ध-जीतकल्पः। श्रीवीरं सगणधरं नत्वा श्रुतधरमुनीन् गुरूँग्ध मुदा । श्राद्धजनजीतकल्पं विवृणोमि खपरहितकृतये ॥ १॥ इह श्रावकजनप्रोयश्चित्तप्रतिपादका विविधसामाचार्यमिप्रायेणानल्पा जीतकल्पाः सन्ति । तेषु व कचिद्विस्तरेण कचित् सझेपेण प्रायश्चित्तान्यभिधीयन्ते । तत्र ( प्रायश्चित्तेषु ) च पूर्वाचार्यपरम्परा गताम्नायेन नानातिचारानाश्रित्य पुरुषाद्यौचित्येन काऽपि काऽपि प्रायश्चित्तापत्तिरुक्ता । प्रतिदिनं ३ कस्य सामस्त्येन तदवगाहनसामर्थ्य भवेत् ? ततः किं कुत्र तपो भवति ? कथं च सम्यक् शुद्धिर्भवतीति व्यामुहन्त्यन्तेवासिनः । अतस्तेषां सुखेन प्रायश्चित्तप्रतिपत्तये परमगुरुश्रीधर्मघोषसूरिपादाः समस्तश्राद्धजीत कल्पानामुपनिषत्कल्पं कल्प-व्यवहार-निशीथ-यतिजीतकल्पानुसारेण श्राद्धजीतकल्पं कृतवन्तः। अरं चचोम्यानामेव विनेयानां प्रदेयो नाऽयोग्यानाम् । तत्र योग्या ये रङ्गसंवेगतरङ्गिणीतरङ्गप्रक्षालितान्तर मलाः समस्तसिद्धान्तार्णवपारीणाः परिणतवयसः सार्वपीनप्रतिभाप्राग्भारस्वान्ताः सततमुत्सर्गापवाद गोचराचारचतुराश्चिरप्रव्रजिताः । ये त्वेतद्विपरीताः तितिणिकादयश्च तेऽयोग्याः । यदुक्तम्तितिणिए चलचित्ते गाणंगणिए अ दुबलचरित्ते । रायणिअपारिभासी वामावट्टे अ पिसुणे अ॥१॥ तितिणिको-मुहुर्मुहुर्मन्दमन्दस्वरं झसनशीलः , चलचित्तो-भाषागत्यादिमिश्चञ्चलः , गाणङ्ग णिफो-यः षण्मासान्तर्गणाद् गणं सङ्कामति स गाणङ्गणिकः, यो धृतिवीर्यपरिहीणो दर्शनज्ञानादिपुष्टा लम्बनं विना मूलोत्तरगुणविषयानपराधान् प्रतिसेवते स दुर्बलचरित्रः, रानिको-रत्नाधिक आचार्यादि प्रत्यवज्ञावचनादिमिः परिभाषते यः स रानिकपरिभाषी, वामावर्त्त-आदिष्टकार्यविपरीतकारी, पिशुन:अलीकानीतराणि वा परदूषणानि भाषते यः स पिशुनः । एतेषामयं न दातव्यो, यतः आमे घडे निहत्तं जहा जलं तं घडं विणासेइ । इअ सिद्धंतरहस्सं अप्पाहारं विणासेइ ॥ १॥ इत्यादि । अतो योग्यानामेव दातव्यः । अथ च सर्वाण्यपि शास्राणि मङ्गलामिधेयप्रयोजनसम्बन्धप्रतिपादनपुरस्सराण्येव प्रणीयन्त इति प्रस्तुत शास्त्रस्यादौ शास्त्रकृत् मङ्गलामिषेयप्रयोजनानां साक्षादभिधानाय सम्बन्धस्य संसूचनाय चेमामादिगाथामाह कयपवयणप्पणामो जीयगयं सड्ढदाणपच्छित्तं । सपरहिअधारणट्ठा जहासुअं किंपि जंपेमि ॥१॥ 2010_05 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे व्याख्या-तप्रवचनप्रणामोऽहं जीतगतं श्राद्धदानप्रायश्चित्तं किमपि जल्पामीतिक्रियासम्बन्धः । प्रकर्षण-परसमयापेक्षया यथावस्थितभूरिभेदप्रभेदैरुच्यन्ते जीवादयः पदार्था अनेनास्मिन्निति वा प्रवचनम्-सामायिकादि बिन्दुसारपर्यन्तं मुख्यतः श्रुतज्ञानम् । उपचारात् तत्रोपयुक्तश्चतुर्विधः सङ्घोऽपि । कृतः प्रवचनस्य, मनसो तत् तद्गुणचिन्तनादिरूपो वाचा तदुचारणादिस्वरूपः कायेन भूमौ शिरोलगनादिलक्षणश्च प्रणामो येन स तथा । एतेन शास्त्रकृन्मङ्गलमभिदधे । जीतगतं-जीतव्यवहारानुप्रविष्टं, श्राद्धदानप्रोयश्चित्तं-श्राद्धानां श्रमणोपासकानामतिचारौचित्येन दानयोग्यं पापं छिनत्तीति पापछित् । अथवा प्रायः चित्तं-जीवं मनो वाऽतिचारमलमलिनं शोधयतीति प्रायश्चित्तम् । यदुक्तम्पावं छिंदइ जम्हा पायच्छित्तंति भण्णए तम्हा । पाएण वावि चित्तं विसोहए तेण पच्छित्तं ॥१॥ ___ आर्षत्वात प्राकृतेन पच्छित्तं । किमपि-कियन्मात्रं, न सर्ब सामस्त्येन श्राद्धातिचारविशेषप्रायश्चित्तानां प्रकाशनासामर्थ्यात् । जल्पामि-प्रतिपादयामीत्येतेनाभिधेयमाह । प्रयोजनं द्वधा-कर्तुः श्रोतुश्च । द्वयमपि द्विधा-अनन्तरं परम्परं च । तत्रानन्तरामिधित्सयाऽऽह-किमर्थं ? 'सपरहिअधारणटु'त्ति। खपरहितधारणार्थाय । स्वपरयोर्हितं तच्च तद्धारणं चेति वा समासः। एतेन कर्तुः श्रोतुश्चानन्तरं प्रयोजनमुक्तम् । परम्परं पुनरुभयोरपि प्रायश्चित्तपदानां याथातथ्यप्रवर्त्तनेन परम्परया निःश्रेयसावाप्तिर्भवतीति स्वयमभ्यूह्यम् । सम्बन्धस्तु प्रायश्चित्तपदज्ञानमुपेयमिदं शास्त्रं तस्योपाय इत्येवमुपायोपेयलक्षणः सामर्थ्यादवसेयः । कथं १ यथाश्रुतं-श्रुतस्य-निशीथादेरनेकश्राद्धजीतकल्पलक्षणस्य स्वगुरुसम्प्रदायागतस्य चानतिक्रमेण । यथा तेषूक्तं तथैव, न स्वमनीषीकयेति गाथाक्षरार्थः । इह प्रवचने पञ्च व्यवहाराः प्रोच्यन्ते, तेषु व्यवहारेषु जीतव्यवहारानुसारेणैवात्र प्रायश्चित्तपदानि कथयिष्यन्ते । ते चामी पञ्च व्यवहारा आगम-श्रुता-ऽऽज्ञा-धारणा-जीताख्याः । “ आगम-सुअआणा-धारणा य जीए अ पंच ववहारा” इति वचनात् । एतेषां च परस्परमयं विशेषः । तथाहि-आगमव्यवहारिणस्तावत् षड्विधाः, तद्यथा-केवलिनो मनःपर्यायज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्चतुर्दशपूर्विणो दशपूर्विणो नवपूर्विणश्च । “ केवल-मणो-हि-चउदस-दस-नवपुव्वाइं पढमित्थ" इति वचनात् । अत्र यदा केवली प्राप्यते तदा तस्याऽग्रे प्रायश्चित्तं गृह्यते, तदभावे मनःपर्यवज्ञानिनः पाश्व, एवं पूर्वपूर्वाभावे उत्तरोत्तर. स्यान्तिके प्रायश्चित्तमङ्गीक्रियते यावन्नवपूर्विणः पार्श्व इति । ते च केवल्यादयो जानाना अप्यालोचकमुखेन तदपराधपदानि शण्वन्ति, न तु स्वयमेव ज्ञात्वा प्रायश्चित्तं ददते । एवमेव मानभ्रंश-निर्मायता-ऽऽराधनादिभावात् । ततो निर्मायितयाऽऽलोचिते प्रायश्चित्तं ददते । समायतया तु स्वापराधपदाऽनालोचनेऽन्यस्य पार्श्वे आलोचयेति कथयन्ति। आलोचितेऽपि च सम्यग् प्रत्यावृत्तस्यैव प्रायश्चित्तं ददते, नाऽन्यस्य । विस्मृतं तु स्मारयति न तु गोपितं निष्फलत्वादिति । वक्ष्यति च-' कहेहि सव्वं जो वुत्तो०।९। 'न संभरेइ जे दोसे० ' ।२ । इत्यादि । १ । श्रुतव्यवहारिणश्चाष्ट-सप्त-षट-पञ्च-चतु-त्रि-द्वकार्द्धपूर्विण एकादशाङ्गधारिणो निशीथकल्पव्यवहारदशाश्रुतस्कन्धपञ्चकल्पाद्यशेषश्रुतसूत्रार्थाभिज्ञाश्च । श्रुतव्यवहारश्याचाराङ्गादीनामष्टमपूर्वा न्तानामेव । यदुक्तम्-' आयारपकप्पाई सेसं सव्वं सुअं विणिट्टि 'मिति । 2010_05 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्च व्ववहाराः ३ अत्राह कश्चिद्-कथमष्टमपूर्वान्तमेव श्रुतं नवमपूर्वादीनामश्रुतत्वम् ? । अत्रोच्यते - आगम्यन्तेपरिच्छिद्यन्तेऽतीन्द्रियाः पदार्था येन स आगम इति व्युत्पत्तेर्नवमपूर्वादीनां श्रुतत्वाविशेषेऽपि केवलज्ञानादिवदतीन्द्रियार्थेषु विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमत्वेनैव व्यपदेशः । शेषश्रुतस्य तु नातीन्द्रियार्थेषु तथाविधोऽवबोधस्ततोऽस्मिन् श्रुतव्यवहारः । ते च श्रुतव्यवहारिणोऽपराधपदानि शृण्वन्तो मयाऽनाभोगादिना सम्यग् न श्रुतं पुनरालोचयेत्याद्युक्त्वा त्रिरालोचनां दापयन्ति । सदृगालोचनेऽपराधनिष्पन्नं प्रायश्चितं ददतेऽन्यथा माया निष्पन्नमपराधनिष्पन्नं च प्रायश्चित्तद्वयं ददते । इदानीं चागमव्यवहारिणामभावे समयानुसारेणोत्कृष्टतमश्रुतानां श्रुतव्यवहारिणां सन्निधावालोच्यते । २ । आज्ञाव्यवहारस्तु कावपि गीतार्थाचार्यै सम्यगधिगताशेषसूत्रार्थी क्षीणजङ्घाबलौ दवीयोदेशवासिनो परस्परेणोपान्तमागन्तुमक्षमो तयोरेकः प्रायश्चितं जिघृक्षुरगीतार्थं मतिधारणाकुशलं सन्दिष्टवस्तुनयनसमर्थमागमभाषया गूढान्यपराधपदानि कथयित्वा मन्दमेधसं पुनः शिष्यं तानि लिखित्वा का समर्प्य द्वितीयाचार्यसमीपे प्रस्थापयति । सोऽपि गूढपदैः प्रायश्चित्तं कथयित्वा लिखित्वा वा समर्प्य प्रेषयति । एष आज्ञालक्षणस्तृतीयो व्यवहारस्तदुक्तं - देसंतरठियाणं गूढपयालोयणा आण'त्ति । ३ । " धारणाव्यवहारस्तु संविग्नेन गीतार्थेनाचार्येण द्रव्यक्षेत्रकालभाव पुरुषप्रतिसेवना अवलोक्य यत्रापराधे यत् प्रायश्चित्तं दत्तं तद्दृष्ट्वाऽन्याऽपि तेष्वेव द्रव्यादिषु तादृशे वाऽपराधे तदेव प्रायश्चित्तं दत्ते एष धारणाव्यवहारः। अथवा वैयावृत्त्यकरस्य गच्छोपग्रहकारिणः स्पर्द्धकपतेर्वा प्रवर्त्तकस्य संविग्नस्य देशदर्शनसहायस्य वाऽनेकशः कृतकार्यस्य समस्तछेदश्रुतदानाऽयोग्यस्य सानुप्रहो गुरुः कानिचिदुद्धृतानि प्रायश्चित्तपदानि कथयति । स तान्यवधार्योद्धृतपदालोचनां ददाति स धारणा व्यवहारस्तदुक्तम् ' गीयत्थेणं दिनं सुद्धि अवधारिऊण तह चेव । दितस्स धारणा तह उद्धिअपयधरणरूवा य ' । ४ । पञ्चमस्तु जीतव्यवहारः । येष्वपराधेषु पूर्वमहर्षयो बहुना तपःप्रकारेण शुद्धिं कृतवन्तस्तेष्वपराधेषु साम्प्रतं द्रव्यक्षेत्रकालभावान् विचिन्त्य संहननादीनां च हानिमासाद्य तदुचितेन केनचित्तपःप्रकारेण गीतार्थाः शुद्धिं निर्दिशन्ति तत्समयभाषया जीतमुच्यते । अथवा यद्यत्र गच्छे सूत्रातिरिक्तं न्यनं वा कारणतः प्रायश्चित्तं प्रवर्त्तितं तब्जीतं तस्य व्यवहारो जीतव्यवहारस्तदुक्तम् ' दव्वाइं चिंतिऊणं संघयणाईण हाणिमासज्ज | पायच्छित्त जीअं रूढं वा जं जाह गच्छे ' ॥ १ ॥ तथा-' वत्तणुवत्तपवत्तो बहुसो आसेविआ महाणेणं । एसो अ जीअकप्पो पंचमओ होइ नायव्वो ' || २ || वृत्तः- पात्रबन्ध - प्रन्थिदानादिक एकदा नवो जातः, ततोऽनुवृत्तः पुरुषान्तरं यावत्, ततः प्रवृत्तः पुरुषप्रवाहेणात एवासेवितो महाजनेन - बहुश्रुतनिवहेन । भाष्यकृताऽप्युक्तम् ' वत्तो नामं इक्कसि अणुवत्तो जो पुणो बिइअवारं । तइअवारं पवत्ता सुपरिग्गहिओ महाणेणं || १ || बहुसो वहुस्सुएहिं जो वत्तो न य निवारिओ होइ । वत्तणुवत्तपमाणं जीएण कयं हवाइ एयं ' ॥ २ ॥ एष जीतकल्पः पञ्चमो व्यवहारो भवति ज्ञातव्यः । ५ । इह पञ्चसु व्यवहारेषु सत्सु आगमव्यवहारिभ्य एव प्रायश्चित्तमादेयम् । आगमव्यवहारिणो ह्यतिशायनः संकिश्यमानं विशुद्ध चमानमवस्थितपरिणामं वा ज्ञात्वा श्रुतादधिकं हीनं तन्मात्रं वा तावद्ददति यावता शुद्धयति, न श्रुतमनुरुध्यन्ते । 2010_05 For Private Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे तदभावे श्रुतव्यवहारिभ्यो प्राचं, ते हि श्रुतमनुवर्त्तमाना इङ्गिताकारनेत्रवक्त्रवचनविकारैर्भावसंवेगाद्यमुपलक्ष्य त्रीन वारानालाचनां कारयित्वा परिकुश्चितमपरिकुञ्चितं वा ज्ञात्वा श्रुतोक्तं प्रायश्चित्तं ददति । तथाविधासनश्रुतधराभावे आज्ञाव्यवहारेण दूरस्थानामपि गीतार्थाचार्याणां पार्थात् प्रायश्चित्तमानायितव्यम् । तेषामप्यभावे श्रुतधरपाविधारितप्रायश्चित्तपदेभ्यो धारणाव्यवहारिभ्यो ग्राह्यम् । ते च द्वयेऽपि श्रुतोक्तप्रदत्वात श्रुतव्यवहारकल्पा एव । सर्वेषां चैषामप्राप्तौ जीतेन व्यवहारः । जोतं-श्रुतोक्तापत्तितो हीनमधिकं वा परम्परयाऽऽचीर्णं तेन व्यवहारः । अयं च यावत्तीयं भवतीति । अस्य च जीतकल्पस्य विवरणं सक्षेपेण च विधास्यते । ततोऽत्र गाथानामक्षरार्थ एव ज्ञातव्यः । शब्दव्युत्पत्तिः संस्कारश्च खयमेव ज्ञातव्यौ, केवलस्य समुदायार्थमात्रस्योत्र कथनात् । तथा सूत्रसामस्त्येन साक्षादनुक्तमपि चशब्दादिसूचितं किश्चित् [किश्चिद्] विशेषार्थजातं भणिष्यते । यतो भवति हि कचित् सूत्रे साक्षादनुक्तस्यान्यथोक्तस्य वाऽर्थविशेषस्य प्रतिपत्तिः प्राकृतत्वात् । १ । कापि सूचामात्रकृतत्वात सूत्रस्य । २ । काप्युपलक्षणव्याख्यानात् । ३ । पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् । ४ । विभक्तिव्यत्ययात् । ५ । वचनव्यत्ययात् । ६ । लिङ्गव्यत्ययात् । ७ । विभक्तेर्लोपात् । ८ । क्रियाध्याहारात् । ९ । सम्भवचशब्दा. ध्याहारात् । १० । हस्वा । ११ । ऽनुस्वार । १२ । द्विर्भावानां यथौचित्येन भावाभावाभ्यां । १३ । बहुवचनप्रयोगेऽपि द्विवचनस्य करणात् । १४ । षष्ठास्थानेऽपि चतुर्थ्या व्याख्यानात् । १५ । अकारप्र लेषात् । १६। एवमन्येभ्योऽपि 'प्राकृतं बहुल' मितिवचनाल्लब्धेभ्यः पूर्वविद्वज्जनप्रतिपादितेभ्योऽविशेषलक्षणेभ्यः सूत्रे साक्षादनभिहितापि विवक्षितार्थसङ्गतिर्विधेयेति । तथा श्रीमदुत्तराध्ययनबृहद्वृत्तावप्युक्तं'कचित् सौच्या शैल्या कचिदधिकृतप्राकृतवशात् , कचिचार्थापत्त्या कचिदपि समारोपविधिना । कचिचाध्याहारात् कचिदविकलप्रक्रमबला-दियं व्याख्या ज्ञेया क्वचिदपि तथाऽऽम्नायवशत' ॥१॥ इति । अथ ग्रन्थकृत् प्रतिज्ञातनिर्वाहणाय सकलप्रन्थवक्तव्यार्थसमहपरां द्वारगाथामाह आलोअण दिज्ज कया कस्स कहं केण क इह दोसगुणा । दाणादाणे वा कि आलोअणि पछित्त-फलं ॥२॥ व्याख्या-आलोचनादीनि द्वादश द्वाराणि भवन्तीति क्रियासम्बन्धः । 'आलोअण 'त्ति । पूर्वमालोचना-स्वापराधप्रकाशनरूपा येन विधिना विधीयते, यथा च सम्यगनालोचकस्य सशल्यत्वेन म शुद्धिः तद्विपरीतस्य च शुद्धिस्तद्वक्तव्यम् । १ । तथा कदा-कस्मिन् कियति वो काले आलोचना दद्यात् । २ । तथा कस्य-कीदृशस्य गुरोः पार्वे । ३ । तथा कथं-केन प्रकारेण, ऋजुत्वादिना । ४ । तथा केन-कीदृशेन शिष्येणालोचना प्रदातव्येति च वाच्यम् । ५ । तथा के इहालोचनायर्या दोषाः । ६ । के गुणा इति चाभिधातव्यम् । ७ । तथाऽगीतार्थस्य पार्वे आलोचनाया दाने ये दोषा भवन्ति ते वक्ष्यन्ते । ८ । तथा गीतार्थस्यापि पुरतो लज्जादिभिः सम्यगालोचनाया अदाने ये दोषोः सम्यग् दाने च ये गुणास्ते अभिधास्यन्ते । ९ । किं वाऽऽलोचनीयं-मूलोत्तरगुणादिविषयमपराधजातमिति वाच्यम् ।१०। तथा प्रायश्चित्तमतिचारानुरूपं तपःप्रदानम् । 'पछित्त 'त्ति प्राकृतत्वात् इष्टरूपसिद्धिः । ११ । फलं-सम्यगालोचितातिचारानुरूपप्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यादिना परमार्थप्रसिद्धिरूपं चेति द्वादशं द्वारं वक्तव्यम् । १२ । अयं च द्वारगाथासक्षेपार्थः । विस्तरार्थस्तु यथास्थानमभिधास्यते ॥२॥ 2010_05 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचनाविधिः अथ 'यथोद्देशं निर्देश' इति प्रथमालोचनाद्वारमुच्यते । तत्र येन विधिनाऽऽलोचना प्रदीयते तामाह आलोयणा सपक्खे चउकन्ना इह छकन्न परपक्खे । संविग्गभाविएणं दायव्व विहीइ जं भणिअं ॥३॥ व्याख्यो-आलोचना-स्वापराधप्रकाशनरूपा गुरोः पुरतः पुरुषादिना दातव्येति सम्बन्धः । कथम्भूता ? इत्याह-'सपक्खे चउकन्न 'त्ति । पुरुषः पुरुषस्यालोचनां ददाति स्त्री स्त्रियाश्च तदा स्वपक्षस्तस्मिन् स्वपक्षे पुरुषादौ गुरौ पुरुषादिकमालोचनादायकमाश्रित्य चतुःकर्णा-द्वौ गुरोः कर्णों द्वौ चालोचनादायकस्येति चतुर्णामेव कर्णानां भावात् । पुनः कथम्भूता ? इत्याह-' इह छकन्न परपक्खे 'त्ति । इह-प्रवचने-श्रीजिनागमे, न तु परतीर्थिकग्रन्थेषु, यत एवंरूपस्य-वक्ष्यमाणसूक्ष्मदोषपरिहारप्रावीण्यस्य तेष्वसद्भावात् । यदा सो पुरुषस्यालोचनां ददाति, पुरुषः स्त्रिया वा तदा परपक्षस्तस्मिन् परपक्षे पुरुषादौ गुरौ स्त्र्यादिकमालोचनादायकमाश्रित्य षटकर्णा-द्वौ गुरोः कर्णों द्वयोः स्त्र्यादिकयोरालोचकयोश्चवार इति षण्णामेव कर्णानां सद्भावात् । यतः सूत्रे तज्जातीयद्वितीययुक्तस्यैव योषिदादेरालोचनादोनमनुज्ञातं, न त्वेकाकिनः तथात्मपरोभयसमुद्भवदोषसम्भवात् अज्ञातस्वरूपाणां किमेतौ प्रच्छन्नमालोचयत इति शङ्काभावाच्च । कीदृशेन शिष्येण दातव्या ? इत्याह-'संविग्गभाविएणं 'ति । संविग्नो-मोक्षामिलाषी भावितः-श्रीजिनागमवासितान्तःकरणः, संविग्नश्चासौ भावितश्चेति विग्रहः तेन । कथमित्याह-विधिना ऋजुस्वादिना चतुर्थद्वारे-'जह बालो जंपंतो' इत्यादिवक्ष्यमाणलक्षणेन ईर्यापथिकीप्रतिक्रमणशोधिसन्देशनाद्यर्थमुखवत्रिकाप्रतिलेखनवन्दनकप्रदोनादिलक्षणेन शास्त्रान्तरप्रसिद्धेन वा । यस्तु विधिना नालोचयति किन्तु लज्जादिमिः स्वपापानि गोपायति तस्य शुद्धिर्न भवति । 'जं भणिअं 'ति । यतः कारणाद् भणितं-सूत्रे च वक्ष्यमाणमेवं रूपं प्रतिपादितं विद्यते ॥ ३ ॥ किं तद् भणितमित्याह न हु सुज्झई ससल्लो जह भणि सासणे धुअरयाणं । उद्धरिअसव्वसल्लो सुज्झइ जीवो धुअकिलेसो ॥ ४ ॥ व्याख्या-हुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् न हु-नैव शुद्धथति-अतिचारमलसमुद्भवकालुष्यविरहितो न भवत्येव । क ? इत्याह-सशल्यः-संयमशरीरोपघातकारित्वात् शल्यम्-अतिचारजातं ततो लज्जादिमिरनालोचितेन शल्येन सह वर्त्तत इति सशल्यो, जीव इतिगम्यते । कुत एवमुच्यत ? इत्याह-यथा-येन हेतुना भणितं-प्रतिपादितं शासने-प्रवचने, केषाम् ? इत्याह-धूतरजसां-विधूतसमस्तकर्मणां जिनेन्द्राणामिन्यर्थः। किं भणितम् ? इत्याह-उद्धृतसर्वशल्यो-ज्ञानादिविषयाऽशेषसूक्ष्मबादरातिचारप्रकटनेन समुत्खा. ताऽखिलभावशल्यः शुद्ध यति-सकलापराधपदोद्भूतकालुष्यापनयनेन निर्मलो भवति जीवः । विशेषणद्वारेण हेतुमाह-धूतक्लेशो-विधूतकषाय इत्यर्थः । कषाया हि कर्मोपादानस्याविकलंकारणं तेषु च सत्सु न कपश्चनाप्यात्मनः सम्यग् निःशल्यता शुद्धिश्च स्यादिति गाथार्थः ॥ ४ ।। एवं सति यद्विधेयं तदाह 2010_05 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे तं न खमं खु पमाओ मुहुत्तमवि चिट्ठिउ ससल्लेणं । आयरिअपायमूले गंतूण समुद्धरे सल्लं ॥५॥ व्याख्या- 'तं 'ति । तस्माद्धेतोर्न क्षम-न युज्यते ‘पमाओ'ति । दकारलोपात् प्रमोदतःप्रमत्ततावशात् न तु तादृग्गुर्वप्राप्त्यादिना, मुहूर्तमपि-क्षणमपि स्थातुं सशल्येन-अनालोचितातिचारपदेन किन्तु तत्कालमेवाचार्यपादमूले गत्वा समुद्धरेत्-स्वमनःकोटरात् कर्षयेत् प्रकाशयेदित्यर्थः। किमित्याहशल्यं-प्रबलरागद्वेषादिकृतं स्वकर्म, निःशल्यो भवेदिति भावः । १ । अथ कदा दद्याद् ? इति द्वितीयद्वारमाह पक्खिय चाउम्मासे वरिसे वुक्कोसओ अ बारसहिं । निअमा आलोइज्जा गीआइगुणस्स भणि च ॥६॥ व्याख्या-पाक्षिके चतुर्मासके वार्षिके वा पर्वणि तावद्यावदुत्कर्षतो द्वादशमिवर्षे, निश्चयेनाऽऽलोचयेत् गीतादिगुणयुक्तस्य सूत्रार्थवेत्तृत्वादिगुणगणगरिष्ठस्य साधोविशेषणाद् गुरोः पार्श्व इति गाथाक्षरगमनिका । अयमत्र भावः-'गीअत्थो कडजोगी' इत्यादिगाथावक्ष्यमाणासाधारणगीतार्थादिगुणयुक्तगुरुसामप्रयां पाक्षिके आलोचयेत् । तत्र गुरुसामप्रथभाषादिना केनचित् कारणेनाऽऽलोचनाया अप्रदाने चतुर्मासके, तत्राऽपि तददाने वार्षिके वा पर्वणि आलोचनीयम् । एवं तावयावदुत्कर्षतो द्वादशमिर्वर्षेः-उत्कर्षतो द्वादश वर्षाणि प्रतीक्ष्य गीतार्थगुरोः पुरत आलोचनीयं, न पुनर्गीतार्थादिगुणरहितस्य पार्थे आलोचनादानं युक्तम् । तत्र प्रत्युतापायसम्भवात् बहुनापि कालेन बहुतरक्षेत्रगमनेनापि च सद्गुणगुरोः समीप एवाऽऽलोचनादानस्याऽनुज्ञातत्वात् । भणितं चैतदर्थप्रकाशनसूत्रे ॥ ६ ॥ किं भणितम् १ इत्याह सल्लुद्धरणनिमित्तं खितमि य सत्त जोयणसयाई । काले वारस वरिसा गीअत्थगवेसणं कुज्जा ॥७॥ व्याख्या-शल्योद्धरणनिमित्तं-पूर्वोक्तस्वरूपस्य शल्यस्य प्रकाशनाय, क्षेत्रे इत्यत्र पञ्चम्यर्थे मप्तमी । ततः क्षेत्रत:-क्षेत्रमाश्रित्य सप्त योजनशतानि । कोले इत्यत्रापि सप्तम्याः पञ्चम्यर्थव्याख्यानात् कालतः-कालमाश्रित्य द्वादश वर्षाणि गीतार्थस्य-छेदग्रन्थसूत्रार्थामिज्ञस्य, उपलक्षणत्वात् संविग्नादिगुणस्य गुरोर्गवेषणम्-अन्वेषणं कुर्यात् इति गाथार्थः । __ भावार्थस्त्वयं-सम्यगात्मनः शुद्धिं कर्तुकामेन गीतार्थादिगुणोपेतस्यैव गुरोरालोचना प्रदातव्या । तादृशश्चेद् गुरुस्तत्र क्षेत्रे प्रत्यासन्नक्षेत्रे वा नाप्यते तदा तादृग्गुरुनिमित्तं दूरं दूरतरं वा तावद् गन्तव्यं यावत् सप्त योजनशतानि । तथा पाक्षिके चतुर्मासके वार्षिकेऽपि यदि तादृशो गुरुर्न प्राप्यते तदा तावत्कालं प्रतीक्षणीयं यावता सद्गुरोरवाप्तिः म्यादुत्कर्षतो द्वादशाऽपि वर्षाणि प्रतीक्षेत । न च तथाs. प्यगीतार्थस्यान्तिके आलोचनां दद्यात् कस्यचनापि गुणस्याभावात् प्रत्युतानर्थसम्भवात् । यदुक्तम् 2010_05 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचनाऽऽचार्यस्य विशेषगुणाः 'नासेइ अगीअत्यो चउरंगं सव्वलोअसारंगं । नटुमि चउरंगे न हु सुलहं होइ चउरंग 'मिति ॥७॥ अथ कस्येति तृतीयद्वारमभिधित्सुराह गीअत्थो कडजोगी चारित्ती तह य गाहणाकुसलो । खेअन्नो अविसाई भणिओ आलोयणायरिओ ॥ ८॥ व्याख्या-गीतार्थादिगुणयुक्त आलोचनाऽऽचार्य-आलोचनाप्रदानयोग्यो गुरुर्भवतीति क्रियासम्बन्धः । गीतार्थः-अधीताचारप्रकल्पनिशीथादिश्रुतसूत्रार्थः । यदुक्तं 'गोअं भन्नइ सुत्तं अत्थो पुण होइ तस्स वक्खाणं । गीएण य अत्येण य संजुत्तो होइ गोअत्यो' ॥ १ ॥ इति । कृतयोगी नाम सूत्रोपदेशेन मोक्षाविरोधी कृतः-अभ्यस्तो यो योगो-मनोवाकायव्यापारात्मको विविधषष्ठाष्टमादितपोध्योनादिरूपो वा स कृतयोगः , स यम्याऽस्तीति स कृतयोगी विविधशुमध्यानतपोविशेषैः परिकर्मितात्मशरीर इत्यर्थः । चारित्रीति-निरतिचारचारित्रवान् । तथा ग्राहणाकुशलः-पाहणा नाम बहीभियुक्तिभिरालोचनादायकानां विविधप्रायश्चित्तादिविधेरङ्गीकरणं तत्र कुशलः । खेदज्ञः-खेदो नाम प्रायश्चित्तादिविधिविषयः परिश्रमोऽभ्यास इति यावत् तं जानातीति खेदज्ञः प्रायश्चित्तविधेः सम्यग ज्ञातेत्यर्थः । अविषादी-महत्यप्यालोचकस्य दोषे श्रुते न विषादवान् प्रत्युतालोच. नादायकस्य तत्तन्निदर्शनगर्भवैराग्यवचनैरुत्साहक इत्यर्थः ॥ ८ ॥ पुनरालोचनाचार्यस्यैव विशेषगुणस्वरूपमाह आयारवमाहारव ववहारुव्वीलए पकुव्वी अ । अपरिस्सावी निज्जव अवायदंसी गुरू भणिओ ॥९॥ व्याख्या-आचारवान्-आचारो ज्ञानाचारादिरूपः पञ्चप्रकारः सोऽस्यास्तीत्योचारवान् १, आधारवान्-आलोचितापराधानामा-सामस्त्येन धारणमाधारः सोऽस्यास्तीत्याधारवान् , आलोचकेनालोच्यमानं यः सर्वमवधारयति स आधारवानित्यर्थः २, व्यवहारवान्-प्ररूपणादिप्रकारेण व्यवह्रियतेऽपराधजातं प्रायश्चित्तप्रदानतो येन स व्यवहारः-आगमादिकः पश्चप्रकारः पूर्वोक्तस्वरूपः सोऽस्यास्तीति व्यवहारवान्, यः सम्यगागमादिव्यवहारं जानाति, ज्ञात्वा च सम्यक् प्रायश्चित्तप्रदानतो व्यवहरति स व्यवहारवानित्यर्थः ३, अपनीडकः-अपगता ब्रीडाऽस्येत्यपव्रीडः, अपव्रीडं कुरुतेऽपवीडयति, अपनीडयति-लज्जां मोचयतीत्यपव्रीडकः। आलोचकं लज्जयाऽतिचारान् सम्यगनालोचयन्तं-सर्वथा गोपायन्तं वा यो विचित्रमधुरादिवचनप्रयोगैः परमसंवेगसारैस्तथा कथञ्चनापि वक्ति यथा स लज्जामपहाय सम्यगेवालोचयति सोऽपवीडकः ४, प्रकुर्वी-'कुर्व' इत्यागमप्रसिद्धो धातुरस्ति यस्य विकुर्वणेति प्रयोगः । प्रकुर्वतीत्येवंशीलः प्रकुर्वी। किमुक्तं भवति-आलोचकेनालोचितेष्वपराधेषु यः सम्यक् प्रायश्चित्तप्रदानत आलोचकस्य विशुद्धिमुपजनयति स प्रकुर्वीति-विशुद्धिं कारयितुं समर्थ इत्यर्थः ५, अपरिस्रावी-न परिस्रवतीत्येवंशीलोऽपरिस्रावी-गोप्यमगोप्यं वाऽऽलोचकेनालोचितमतिचारजातं योऽन्यस्मै न कथयति सोऽपरिस्रावीति भावः ६, 'निज्जव 'त्ति। निर्यापो-निधितं यापयति प्रायश्चित्तविधिषु याप्यमालोचक 2010_05 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे करोति - निर्वाहयतीति यावदिति निर्यापः । अच्प्रत्ययः । अपराधकारी यथोक्तप्रायश्चित्तं कर्तुमसमर्थां यथा निर्वहति तथा प्रायस्तदुचितप्रायश्चित्तप्रदानतः प्रायश्चित्तं कारयति स निर्यापक इति भावः ७, तथा अपायदर्शी - इहलोकोपायान् परलोकापायच दर्शयतीत्येवंशीलोऽपायदर्शी । किमुक्तं भवति - यः सम्यग् नालोचयति प्रतिकुञ्चितं वाऽऽलोचयति दत्तं वा प्रायश्चितं सम्यग् न करोति तस्य यदि त्वं सम्यग् नालोचयिष्यसि प्रतिकुचितं वा करिष्यसि दत्तं वा प्रायश्चित्तं सम्यग् न पूरयिष्यसि ततस्ते भूयान् मासिकादिको दण्डो भविष्यतीत्येवमिहलोकापायान् तथा संसारे जन्ममरणादिकं प्रभूतमनुभवितव्यं दुर्लभबोधिता च तव भविष्यतीत्येवं परलोकापायाँश्च दर्शयति सोऽपायदर्शीति भावः । ८ । ८ एवं प्रकाष्टविधगुणयुक्त एव ' गुरू भणिओ'त्ति गुरुर्भणितः - कथित आलोचनादानयोग्यः । आगम इति शेषः । यदाह चाऽऽगमः - अहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अरहति आलोयणं पडिच्छित्तए, तं जहा - आयारखं १, आधारखं २, ववहारखं ३, उव्वीलए ४, पकुव्वए ५, अपरिस्सावी ६, निज्जवए ७, अवायसी ८' इति ॥ ९ ॥ अथ यदा समग्र गुणालङ्कृतो गुरुर्न प्राप्यते तदा किं विधेयम् ? इत्याह- < सुगुरुण अलाभंमि आलोइज्ज सुसंजए । संविग्गपक्खिआणं तु गीअत्थाणं च अंतिए ॥ १० ॥ व्याख्या-' सल्लुद्धरणनिमित्त ' मित्यादिगाथोक्तप्रकारेण गवेषणायां कृतायामपि सुगुरूणां ' गीअत्थो कडजोगी' इत्यादिगाथोक्तासाधारणगुणयुक्तानामलाभे - असम्प्राप्तावालोचनां दद्यात् । क ? इत्याह- ' सुसंजए ' सुसंयत, उपलक्षणत्वात् श्रमणोपासकोऽपि । केषामन्तिके ? इत्याह-' संविग्नपाक्षिकाणां ' संविग्नाश्चारित्रिणस्तेषां पक्ष-पक्षपातं साहाय्यं कुर्वन्तीति संविद्मपाक्षिकाः । ' सुद्धं सुसाहुधम्मं० ' ' वंदइ न य वंदावइ० ' इत्याद्युपदेशमालादिशास्त्रान्तरोक्तस्वरूपास्तेषां कीदृशानाम् ? इत्याहगीतार्थानां चशब्दस्यैवकारार्थत्वेन व्यवच्छेदफलत्वान्नागीतार्थानामन्तिके - समीपे । अयमर्थः - सप्तयोजनशत्यां द्वादशभिर्वर्षैश्च यदि तादृग्गुरुर्न प्राप्यते तदा संविग्नपाक्षिकाणामन्तिके आलोचयेन्न पुनरनालोचितातिचार एवावतिष्ठते, सशल्यस्यानाराधकत्वात् । गवेषणं कुर्वाणस्त्वन्तराऽपि मृत आराधक एव । यद्वक्ष्यति - ' आलोयणापरिणओ० ' इत्यादि । अधिकपदमधिकाक्षरं वोऽधिकार्थसंसूचकं भवतीति संविग्गपक्खिणं तु' इत्यत्र तुशब्दस्तदभावे पश्चात्कृत - सारुपि - प्रभृतीनां पार्श्वेऽप्यालोचनां दद्यादिति वक्ष्यमाणोक्त श्लोकार्थक्रमसूचनार्थ इतिगाथार्थः ॥ १० ॥ अथ संपिाक्षकाद्यभावे किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह तयभावम्मि आलोए सिद्धे काऊण माणसे । आराहणा ससल्लस्स जओ नत्थित्ति आगमे ॥ ११ ॥ व्याख्या - तेषां - संविग्नपाक्षिकादीनामप्यभावे - ऽप्राप्तावालोचयेत् - स्वापराधपदानि प्रकाशयेत् । किं कृत्वा ? इत्याह-सिद्धोन् - ज्ञानसङ्क्रान्ताशेषत्रिभुवनवस्तून् मानसे कृत्वा सिद्धसमक्षमित्यर्थः । कुतः 2010_05 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलोचनादानक्रमः कारणादेवं विधीयत ? इत्याह-आराधना-आ-सामस्त्येन राधना-ज्ञानादिमोक्षमार्गस्य संसिद्धिः-प्रतिपालना, सशल्यस्य-अनालोचितातिचारजातस्य यतः-कारणान्नास्ति न भवत्येवेत्यागमे, भणितमितिशेषः । इतिगाथार्थः ॥ ११ ॥ अथ सुगुरूणामप्राप्तौ पूर्वगाथास्थतुशब्दसंसूचितेन क्रमेण येषामन्तिके आलोचना प्रदीयते तं क्रमं स्पष्टयन्नाह आयरियाइ सगच्छे संभोइय-इअरगीअपासत्थे । साख्वी-पच्छाकड-देवयपडिमा-अरिह-सिद्धे ॥ १२ ॥ व्याख्या-स्वगच्छे आचार्यादौ-आचार्यसमीपे, आदिशब्दादुपाध्यायादीनां वा पार्श्व आलोचना देया । इयमत्र भावना-प्रायश्चित्त-स्थानमापन्नेन साधुना श्राद्धेन वा नियमतः प्रथमखकीयानामाचार्याणां समीपे आलोचयितव्यम् । तेषामभावे उपाध्यायस्य, तस्याप्यभावे प्रवर्तिनः, तस्याप्यभावे स्थविरस्य, तस्याप्यभावे गणावच्छेदिनो वा समीपे आलोचना देया । अथ स्वगच्छे पश्चानामप्यभावस्तर्हि किं कार्यम् ? इत्याह- संभोइय 'त्ति । स्वगच्छे आचार्यादीनामभावेऽन्यस्मिन् साम्भोगिके-एकसामाचार्यादिवति गन्तव्यम् । तत्राप्याचार्यादिक्रमेणालोचयितव्यम् । साम्भोगिकगच्छेऽपि पञ्चानामाचार्यादीनामभावे ' इयर 'त्ति । इतरोऽसाम्भोगिकः संविग्न इति तस्मिन् गन्तव्यम् । तत्राऽप्याचार्यादिक्रमेणवालोचयितव्यम् । संविग्नाऽसाम्भोगिके गच्छे पश्चानामभावे 'गीय 'त्ति । पदेकदेशे पदसमुदायोपचाराद् गीतार्थः । एतच्च विशेषणं पार्श्वस्थ-सारूप्य-पश्चात्कृतानां त्रयाणामपि योज्यम् । ___ ततश्चोयमर्थः-पार्श्वस्थस्य गीतार्थस्य समीपे आलोचयितव्यम् । तस्मिन्नपि गीतार्थे पार्श्वस्थे असति गीतार्थस्य सारूपिकस्य पार्श्व संयतवेषस्य गृहस्थस्य लिङ्गमात्रधारिण इत्यर्थः। तस्मिन्नपि गीतार्थसारूपिके असति पश्चात्कृतस्य गीतार्थस्य पार्श्वे आलोचयितव्यम् । पश्चात्कृतचरणस्य-परित्यक्तचारित्रवेषस्य गृहस्थस्य पार्श्वे इतियोवत् । पार्श्वस्थादीनां च मध्ये यस्य पुरत आलोचना दातुमिष्यते तमभ्युत्थाप्य तस्य पुरत आलोचयितव्यम् । अभ्युत्थापनं नाम वन्दनकप्रतीच्छनादिकं प्रत्यभ्युपगमकारापणा । अभ्यु. त्थिते वन्दनाप्रतीच्छनादिकं प्रति कृताभ्युपगमे प्रतिक्रान्तो भवेन्नान्यथो विनयमूलत्वाद्धर्मस्य । यदुक्तम्'विणओ सासणे मूल 'मित्यादि । अथ ते पार्श्वस्थादय आत्मानं हीनगुणं पश्यन्तो नाभ्युत्तिष्ठन्ति तदा पार्थस्थादीनां निषद्यामारचय्य प्रणाममात्रं कृत्वाऽऽलोचनीयम् । पश्चात्कृतस्य इत्वरसामायिकारोपणं लिङ्गप्रदानं च कृत्वा यथाविधि तदन्तिके आलोचनीयम् । यदि पार्श्वस्थादिकोऽभ्युत्तिष्ठति तदा तेनाऽन्यत्र गन्तव्यम् । येन प्रवचनलाघवं न भवति । तत्र च गत्वा तमापन्नप्रायश्चितं शुद्धतपो वाहयति मासादिकमुत्कर्षतः षण्मासपर्यवसानम् । अथ स नाभ्युत्तिष्ठति शुद्धं च तपस्तेन प्रायश्चित्ततया दत्तं ततस्तत्रैव तपो वहतीति । पार्श्वस्थादीनामप्यभावे यत्र कोरण्टकादौ गुणशीलादौ वा भगवान् मुनिसुव्रतखाम्यादिः श्रीवर्द्धमानस्वाम्यादिर्वा समवसृतस्तत्र तीर्थकरैर्गणधरैर्बहूनां बहूनि प्रायश्चित्तानि दत्तानि तानि च दीयमानानि तत्र तया देवतया दृष्टानि, ततस्तत्र गत्वा तत्र च सम्यक्त्वभावितदेवताराधनार्थ 2010_05 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे मष्टमं कृत्वा तत्र सम्यगाकम्पिताया देवतायाः पुरतो यथोचितप्रतिपत्तिपुरस्सरमालोचयति । सा च प्रयच्छति यथार्हं प्रायश्चित्तम् । अथ सा देवता कदाचित् च्युता भवेत् पश्चादन्या समुत्पन्ना तथा च न दृष्टस्तीर्थकरस्ततः साऽष्टमेनाऽऽकम्पिता ब्रूते महाविदेहे तीर्थकरमापृच्छय समागच्छामि । ततः स तेनानुज्ञाता महाविदेहे गत्वा तीर्थकरं पृच्छति पृष्ट्वा च समागत्य साध्वादिभ्यः प्रायश्चित्तं कथयति । तासामपि देवतानामभावे अर्हत्प्रतिमानां पुरतः स्वप्रायश्चित्तदानपरिज्ञानकुशल आलोचयति । ततश्च स्वयमेव प्रतिपद्यते प्रायश्चित्तम् । तासामप्यभावे प्राचीनादिदिगभिमुखोऽर्हतः सिद्धानभि समीक्ष्य जानन् प्रायश्चित्तदानविधिविद्वानालोचयति । आलोच्य च स्वयमेव प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यते । स च तथाप्रतिपद्यमानः शुद्ध एव, सूत्रोक्तविधिना प्रवृत्तेः । यदपि च विराधितं तत्रापि शुद्धः प्रायश्चित्तप्रतिपत्तेरिति । १० अथ पानामाचार्यादीनां प्रागुक्तानां किञ्चित्स्वरूपं व्यवहारभाष्यगाथाभिरेव स्पष्टीक्रियते । तत्र प्रथममाचार्यस्वरूपमाह सुत्तत्थतदुभएाह उवउत्ता नोणदंसणचरिते । गणतत्तिविष्यमुक्का एरिसया हुंति आयरिया || १ || व्याख्या- ये सूत्रार्थतदुभयैरुपेता इति गम्यते । तथा ज्ञानं च दर्शनं च चारित्रं चेति समाद्दारो द्वन्द्वस्तेषु सततमुपयुक्ताः - कृतोपयोगाः । तथा गणस्य - गच्छस्य या तप्तिः - सारा तया विप्रमुक्ता गणाबच्छेदप्रभृतीनां तत्तप्तेः समर्पितत्वात् उपलक्षणमेतत् शुभलक्षणोपेताश्च । ये एतादृशा एवंविधगुणोपेता भवन्ति ते आचार्याः । ते चार्थमेव केवलं भाषन्ते, न तु सूत्रमपि वाचयन्ति । तथा चोक्तम्'सुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो गच्छस्स मेढिभूओ य । गणतन्तिविप्पभुक्को अत्थं भासेइ आयरिओ ' ॥१॥ अथ किं कारणमाचार्याः स्वयं सूत्रं न वाचयन्ति ? तत आह व्याख्या- एगग्गयाय झाणे वुड्ढी तित्थयर अणुगिई गुरुआ । आणाथिज्जमिइ गुरू कयरिणमुक्खो न वाएइ ॥ - सूत्रवाचनप्रदान परिहारेणार्थमेव केवलं व्याख्यानयत आचार्यस्यैकाग्रता - एकाग्रमनस्कता ध्याने- अर्थचिन्तनात्मके भवति । यदि पुनः सूत्रमपि वाचयेत् तदा बहुव्यग्रत्वादर्थचिन्तायाstar न स्यात् । एकाग्रतयाऽपि को गुण ? इत्यत आह-' वृद्धिः ' एकाग्रस्य हि सतोऽर्थचिन्तयतः सूत्रार्थस्य तत्र सूक्ष्मार्थोन्मीलनाद् वृद्धिरुपजायते । तथा तीर्थकरानुकृतिरेवं कृता भवति । तथाहि तीर्थ कृतो भगवन्तः किलार्थमेव केवलं भाषन्ते, न तु सूत्रं नापि गणर्ताप्त कुर्वन्ति । एवमाचार्या अपि तथावर्त्तमानातीर्थकरानुकारिणो भवन्ति । सूत्रवाचनां तु प्रयच्छतामाचार्याणां लाघवमप्युपजायते । तद्वाचनायास्ततोऽधस्तन पदवृत्तिभिः क्रियमाणत्वाद् । एवं च तस्य तथावर्त्तमानस्य लोके राज्ञ इव महती गुरुता प्रादुर्भवति । यद्गुरुतायां च प्रवचनप्रभावना । तथा आज्ञायां स्थैर्यमाज्ञास्थैर्यं कृतं भवति । तीर्थकृतामेवमाज्ञा पालिता भवतीत्यर्थः । इयं हि तीर्थकृतामाज्ञा यथोक्तप्रकारेण ममानुकारिणा आचार्येण भवितव्यमिति । इत्यस्माद्धेतुकलापाद् गुरुराचार्यः कृतः ऋणमोक्षो येन स कृतऋणमोक्षः, न ह सामान्यावस्थायाम के साधवः सूत्रमध्यापितास्तत ऋणमोक्षस्य कृतत्वात् सूत्रं न वाचयति । उक्तमाचार्य स्वरूपमिदानीमुपाध्यायस्वरूपमाह 2010_05 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्यायादिस्वरूपम् सुत्तत्थतदुभयविऊ उज्जुत्ता नाणदसणचरित्ते । निष्फायग सीसाणं एरिसया हुंति उज्झाया ॥ १ ॥ व्याख्या-ये सूत्रार्थतदुभयविदो ज्ञानदर्शनचारित्रेषूयुक्ता-उपयुक्तास्तथा शिष्याणां सूत्रवाचनादिना निष्पादका एतादृशा भवन्त्युपाध्यायाः । उक्तं च‘सम्मत्तनाणसंजम-जुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिन्नू । आयरियठाणजुग्गो सुत्तं वाएइ उवज्झाओ' ॥१॥ अथ कस्मात् सूत्रमुपाध्यायो वाचयति १ उच्यते-अनेकगुणसम्भवात् । तानेवाहसुत्तत्थेसु थिरत्तं रिणमुक्खो आयई अपडिबंधो । पाडिच्छा मोहजओ सुत्तं वाएइ उवज्झाओ ॥१॥ व्याख्या-उपाध्यायः शिष्येभ्यः सूत्रवाचनां प्रयच्छन् स्वयमर्थमपि परिभावयति सूत्रेऽर्थे च तस्य स्थिरत्वमुपजायते । तथा अन्येभ्यः सूत्रवाचनाप्रदानेन सूत्रलक्षणस्य ऋणस्य मोक्षः कृतो भवति । तथा आयत्यामागामिनि काले आचार्यपदाध्यासेऽप्रतिबन्धोऽत्यन्ताभ्यस्ततया यथावस्थतया स्वरूपस्य सूत्रस्यानुवर्त्तनं भवति । तथा 'पडिच्छे'त्ति । येऽन्यतो गच्छान्तरादागत्य साधवस्तत्रोपसम्पदं गृह्णते ते प्रतीच्छका उच्यन्ते। ते च सूत्रवाचनाप्रदानेनानुगृहीता भवन्तीति वाक्यशेषः । तथा मोहजयः कृतो भवति, सूत्रवाचनादानव्यग्रस्य सतः प्रायश्चित्तविस्रोतसिकाया अभावात् । यत एवं गुणास्तस्मादुपाध्यायः सूत्रं वाचयेत् ॥ उक्तमुपाध्यायस्वरूपमधुना प्रवर्तिनः स्वरूपमाहतवनियमविणयगुणनिहि-पवतया नाणदसणचरिते । संगहुवग्गहकुसला पवत्ति एआरिसा हुंति ॥१॥ व्याख्या-तपो-द्वादशप्रभेदम् , नियमा-विचित्रा द्रव्याद्यमिग्रहाः विनयो-ज्ञानादिविनयः । ततश्च तपोनियमविनयानां गुणानां निधय इव तपोनियमविनयगुणनिधयस्तेषां प्रवर्तकाः । तथा ज्ञानदर्शनचारित्रेषूद्युक्ताः-सततोपयोगवन्त इतिवाक्यशेषः । तथा सङ्ग्रहः-शिष्याणां सङ्ग्रहणम् । उपमहः-तेषामेब ज्ञानादिषु सीदतामुपष्टम्भकरणं तयोः सङ्ग्रहोपग्रहयोः कुशलाः एतादृशा-एवंरूपाः प्रवर्तिनो भवन्ति । यथोचितं प्रशस्तयोगेषु सीदतः साधून् प्रवर्तयन्तीत्येवंशीलाः प्रवर्तिन इति व्युत्पत्तेः । तथा चाहसंजमतवनियमेसुं जो जुग्गो तत्थ तं पवत्तेइ । असहू अ नियत्तेती गणतत्तील्लो पवत्तिओ ॥ १ ॥ व्याख्या-तपःसंयमयोगेषु मध्ये यो यत्र योग्यस्तं तत्र प्रवर्त्तयन्ति । असहाँश्वासमाँश्च निवर्त्तयन्ति । एवं गणतप्तिप्रवृत्ताः प्रवर्तिनः ॥ १८ ॥ - उक्तं प्रवर्तिस्वरूपम् । सम्प्रति स्थविरस्वरूपमाहसविग्गो मदविओ पियधम्मो नाणदसणचरित्ते । जे अठै परिहायइ सारितो तो हवइ थेरो ॥१॥ व्याख्या-यः संविग्नो-मोक्षाभिलाषी, माईवितः-संजातमार्दवः, प्रियधर्मा-एकान्तवल्लभसंयमानुष्ठानो यो ज्ञानदर्शनचारित्रेषु मध्ये यान् अर्थान् उपादेयान् अनुष्ठानविशेषान् परिहापयति-हानि नयति तान् संस्मारयन् भवति स्थविरः । सीदमानान् साधून् ऐहिकामुष्मिकापायप्रदर्शनतो मोक्षमार्गे स्थिरीकरोतीति स्थविर इति व्युत्पत्तेस्तथा चाह 2010_05 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे थिरकरणा पुण थेरो पबत्तिवावारिस अत्थेसु । जे जत्थ सीयइ जई संतबलो तं पचोएइ ॥ १ ॥ व्याख्या - प्रवर्त्तिव्या पारितेष्वर्थेषु यो यत्र यतिः सीदति, सद्विद्यमानं बलं यस्य स सद्बलस्तथाभूतः सन् यस्तं प्रचोदयति-प्रकर्षेण शिक्षयति स स्थिरकरणात् स्थविर इति । उक्तं स्थविरस्य स्वरूपम् । अधुना गीतार्थस्वरूपमाह - १२ उद्धावणा-पहावण-खित्तोवहिमग्गणासु अविसाई । सुत्तत्थतदुभयविऊ गीयत्था एरिसा हुति ॥ १ ॥ व्याख्या—उत्-प्राबल्येन धावनमुद्धावनं प्राकृतत्वाच्च स्त्रीत्वनिर्देशः । किमुक्तं भवति - तथाविधे गच्छप्रयोजने समुत्पन्ने आचार्येण सन्दिष्टोऽसन्दिष्टो वा आचार्यान् विज्ञप्य यथैतत्कार्यमहं करिष्यामीति तस्य कार्यस्यात्मानुग्रहबुद्धया करणमुद्धावनं, शीघ्रं तस्य कार्यस्य निष्पादनं प्रधावनं, क्षेत्रमार्गणा - क्षेत्रप्रत्युपेक्षणा उपघेरुत्पादनम् एतासु येऽविषादिनो - विषादं न गच्छन्ति । तथा सूत्रार्थतदुभयविदः, अन्यथा हेयोपादेयपरिज्ञानायोगात् ते एतादृशा - एवंविधा गीतार्था - गणावच्छेदिन इत्यर्थः । इत्यलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥ १२ ॥ अथ कथमिति चतुर्थं द्वारमभिधित्सुराह जह बालो जंपतो कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ । तं तह आलोइज्जा मायामयविप्पमुको वा ॥ १३ ॥ व्याख्या—यथा-येन प्रकारेण बालो - ऽव्यक्तचैतन्यः शिशुर्मातापित्रोः पुरस्ताज्जल्पन् कार्यंसभ्यं कथनार्द्दम्, अकार्यं चासभ्यं - कथनानर्हमपि ऋजुकं - लज्जाभयादिमिरवत्रीकृतं भणति - व्याहरति । ततः किमित्याह-' तं 'ति । तत्कार्यं च स्वकृतं ' तह 'ति । एवकारस्य गम्यमानत्वात् तथैव - बालकप्रकारेणैवालोचयेत्-प्रकटयेदालोचक इति गम्यते । किंविशिष्टः सन् ? इत्याह-मायामदविप्रमुक्तश्चशब्दालब्जादिरहितश्चेति गाथार्थः ॥ किं कृत्वाऽऽलोचयेद् ? इत्याह गंतूण गुरुसमीवं काऊणं अंजलि विणयमूलं । जह अप्पणो तह परे जाणाविजत्ति उवएसो ॥ १४ ॥ व्याख्या- - गुरुसमीपं गत्वा कृत्वा च विनयमूलं - विनयपूर्वकमञ्जलिं 'जह अप्पणो 'ति । विभक्तिव्यत्ययादात्मना यथा जानाति तथा परान् गुरूनपि ज्ञापयेत् स्वकीयदुष्कृतानीति गम्यते । इत्युपदेशस्तीर्थकरगणधरादीनामिति गाथार्थः ॥ १४ ॥ अथ सम्यग् प्रायश्चित्तदानविधिज्ञेनापि परसमक्षमेवालोचनीयमिति दृष्टान्तद्वारेणाह - जह सुकुसलो वि विज्जो अत्तस्स कहेइ अप्पणो वाहिं । एवं जाणंतस्सवि सल्लुद्धरणं परसगासे ॥ १५ ॥ 2010_05 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ व्याख्या -- यथा सुकुशलश्चिकित्सायामतिनिपुणाऽपि वैद्योऽन्यस्य वैद्यस्य कथयत्यात्मनो व्याधिम् । एवं जानतोऽप्यतिचारानुरूपेण सम्यग् प्रायश्चित्तपदान्यवगच्छतोऽपि गीतार्थस्यापीति भावः । अपिशब्दादजानत: किं वाच्यम् । शल्योद्धरणं परसकाश एव कर्त्तुं युज्यत इति गम्यत इति गाथार्थः ।। १५ ।। नन्वियमालोचनात्मसाक्षिक्यपि केनापि विधेया उत परसाक्षिक्येव ? उच्यते - परसाक्षिक्येव । एतदेवाह - सूरिगुणाः . छत्तीसगुण समन्ना - गएणवि अवस्स कायव्वा । परसक्खिया विसोही सुट्ठुवि ववहारकुसलेणं ॥ १६ ॥ व्याख्या - षट्त्रिंशद्गुणैः शास्त्रान्तरप्रसिद्धैः समन्वागतेन - संयुक्तेन तेनाऽप्यशेषमहर्षिजनातिशायितया प्रसिद्धेनाप्याचार्येणेति गम्यते । अवश्यमितिपदस्यावधारणार्थत्वाद् भिन्नक्रमत्वाच्च परसाक्षिक्येव विशोधिः-अतिचारालोचनेन निःशल्यता कर्त्तव्या । कीदृशेन ? इत्याह- 'सुडुवि ववहारकुशलेणं 'ति । सुष्ट्वपि पूर्वोक्तपञ्चव्यवहोरनिपुणेनेति गाथाक्षरार्थः । षत्रिंशद् गुणास्त्वमी - देश-कुल- जाइ - रूवी संघयणी धिइजुओ अणासंसी । अविकत्थणो अमाई थिरपरिवाडी गहियवक्को ॥ १ ॥ जियपरिसो जियनिदो मज्झत्थो देशकालभावन्नू । आसन्न -लद्ध-पइभो नाणाविह सभासन्नू ॥ २ ॥ पंचविद्दे आयारे जुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिन्नू । आहरण - हेउ - कारण - नयनिउणो गाहणाकुसलो ॥ ३ ॥ ससमय-परसमयविक गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो । गुणसयकलिओ जुत्तो पवयणसारं परिकहेउं ॥ ४ ॥ 2010_05 एतासां गाथानां किञ्चिद् व्याख्या - आर्यदेशोद्भूतः सुखावबोधवचनो भवतीत्यतो देशग्रहणम् | १ | पैतृकं कुलमिक्ष्वाक्वादि ज्ञातकुलश्च यथोत्क्षिप्तभारवहने न श्राम्यतीति । २ । मातृक जातिस्तत्सम्पन्नो विनयादिगुणवान् भवति । ३ । यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्तीति रूपग्रहणम् । ४ । संहनन- धृतियुक्तो - व्याख्यानादिषु न खेदमेति । ५-६ । अनाशंसी - श्रोतृभ्यो न वस्त्राद्याकाङ्क्षति । ७ । अविकत्थनो - हितमित-भाषी । ८ । अमायी सर्वत्र विश्वस्यः । ९ । स्थिरपरिपाटि :- स्थिरपरिचितग्रन्थस्य सूत्रार्थगलनाऽसम्भवात् । १० । ग्राह्यवाक्यः - सर्वत्रास्खलिताज्ञः | ११ | जितपर्षद् - राजादिसदसि न क्षोभमुपयाति । १२ । जितनिद्रश्चाऽयमप्रमत्तत्वान् निद्राप्रमादिनः शिष्यान् सुखेनैव प्रबोधयति । १३ । मध्यस्थः-शिष्येषु समचित्तो भवति । १४ । देशकालभावज्ञः सुखेनैव गुणवदेशादौ विहरिष्यति । १५-१६-१७ । आसन्नलब्धप्रतिभो- द्राक् परवोद्युत्तरदानसमर्थो भवति । १८ । नानादेशभाषाविधिज्ञस्य नानादेशजाः शिष्याः व्याख्यानं सुखमवभोत्स्यन्ते । १९ । ज्ञानाद्याचारपञ्चकयुक्तः श्रद्धेयवचनो भवति । २०-२१-२२-२३-२४ | सूत्रार्थतदुभयविधिज्ञ - उत्सर्गापवादप्रपञ्चं यथावत् ज्ञापयिष्यति । २५ । हेतूदाहरणनिमित्तनयप्रपञ्चज्ञोऽनाकुलो हेत्वादीनाचष्टे । २६-२७-२८-२९ । ग्रहणाकुशलो बह्वीमिर्युक्तिमिः शिष्यान् बोधयति । ३० । स्वसमयपरसमयज्ञः सुखेनैव तत्स्थापनोच्छेदौ करिष्यति । ३१-३२ । गम्भीरः खेदसहः । ३३ । दीप्तिमान् - पराऽधृष्यः । ३४ । शिवहेतुत्वात् Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे शिवस्तदधिष्ठितदेशे मार्याधुपशमात् । ३५ । सौम्यः-सर्वजनमनोरमणीयः । ३६ । गुणशतकलितः प्रश्रयादिगुणोपेतः एवंविधः सूरिः प्रवचनानुयोगे योग्यो भवतीतिगाथाचतुष्टयार्थः । यद्वा संविग्गो१ मज्झत्थो२ संतो३ मउओ४ रिऊ५ सुसंतुट्ठो६ । गीयत्थो७ कडजोगी८ भावन्नू९ लद्धिसंपन्नो१० ॥ १ ॥ देसन्नू११ आदेओ१२ मइमं१३ विन्नाणिओ१४ कवी१५ वाई१६ । नेमित्ती१७ ओअंसी१८ उवयारी१९ धारणाबलिओ२० ॥ २ ॥ बहुदिट्ठो२१ नयनिउणो२२ पियंवओ२३ सुस्सरो२४ तवे निरओ२५ । सुसरीरो२६ सुप्पइभो२७ चाई२८ आणंदओ२९ दक्खो३० ।। ३ ।। गंभीरो३१ अणुवत्ती३२ पडिवनपालओ३३ थिरो३४ धीरो३५ । उचियन्नू३६सूरीणं छत्तीसगुणा इमे हुंति ॥ ४ ॥ एतासां व्याख्या शास्त्रोन्तरतो ज्ञेया । यद्वा-' अट्ठविहा गणिसंपय ' इत्यादिनानाप्रकारेरक्ता अनेकधा सूरीणां षट्त्रिंशद् गुणो भवन्तीत्यलं विस्तरेण ॥ १६ ॥ अथ केनेति पञ्चमद्वाराभिधित्सयालोचकस्य दश गुणानाह 'जाइकुलविणयउवसम-इंदिअजयनाणदंसणसमग्गा । अणणुत्तावि अमाई चरणजुयालोअगा भणिआ ॥ १७ ॥ व्याख्या-जात्या-विप्रादिकया मातृपक्षेण वा । १। कुलेनोग्रादिकेन पितृपक्षेण वा । २ । विनयेन-द्विपञ्चाशद्भेदेन । ३ । उपशमेन-क्रोधादिपरित्यागरूपेण । ४ । पञ्चेन्द्रियजयेन। ५ । ज्ञानेनश्रतज्ञानादिरूपेण । ६ । दर्शनेन-श्रद्धानलक्षणेन च समग्राः-सहिताः । ७ । ' अणणुत्तावित्ति । आलोचनानन्तरं पश्चात्तापरहिताः । ८। अमायिनो-मायारहिताः । ९ । चरणयुताः-चारित्रवन्तः । १० । 'आलोअगा भणिअ'त्ति । उत्कर्षतो दशैतद्गुणविशिष्टा आलोचका-आलोचनादानयोग्या भणिता आगमे इतिशेषः । यदुक्तमागमे दसहि ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अरहति अत्तदोसं आलोइत्तए। तं० जातिसंपण्णे१ कुलसंपण्णे२ विणयसंपण्णे३ णाणसंपण्णे४ देसणसंपण्णे५ चरित्तसंपण्णे६ खंते७ दंते८ अमायी९ पच्छाणणुतावी१० इति। तत्राऽऽलोचकानां शिष्याणां किमेतावान् गुणकलापोऽन्विष्यत ? इत्युच्यते-जातिसम्पन्नास्तावत् प्रायोऽकृत्यं न कुर्वन्ति कृतं च सम्यगालोचयन्ति । कुलसम्पन्नाः-प्रतिपन्नप्रायश्चित्तनिवाहका भवन्ति । विनयसम्पन्नाः-वन्दनादिकाया आलोचनासामाचार्याः सम्यक् प्रयोक्कारो भवन्ति । उपशमसमया गुरूपालम्भादितर्जिता अपि न कुप्यन्ति । इन्द्रियजयसमग्रास्तपः सम्यक् कुर्वन्ति । ज्ञानसम्पन्ना:-श्रुतानुसारेण सम्यगालोचयन्ति अमुकश्रुतेन मे दत्तं प्रायश्चित्तमतः शुद्धोऽहमिति च जानते । दर्शनसममाः प्रापश्चित्ताच्छद्धिं श्रद्दधते । अननुतापिनो नाम ये पश्चात्परितापं न कुर्वन्ति-हा ! दुष्टं कृतं मया पदालोचितमिदानों प्रायश्चित्ततपः कथं करिष्यामीति । प्रत्युतवं मन्यन्ते-धन्योऽहं यत् प्रायश्चित्तं प्रतिपन्न 2010_05 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यगालोचनागुणाः वानिति । अमायिनोऽप्रतिकुश्चितं निर्मायमालोचयन्ति । चरणयुताः पुनरतिचारं प्रायो न कुर्वन्ति अनालोचिते वा चारित्रं मे न शुद्धथतीति सम्यगालोचयन्तीति गाथाभावार्थः । उक्तगुणस्यालोचकस्यालोचना निर्जरा फला भवति । उक्तगुणरहितस्य त्वालोचनायाः प्रायः प्रयासमात्रफलत्वादित्यत एतदर्जने यतनीयं निर्जरार्थिनेति ।। अथेह के दोषा ? इति षष्ठं द्वारं व्याचिख्यासुरालोचकस्य दश दोषानाह आकम्पइत्ता अणुमाणइत्ता जं दि8 बायरं व सुहुमं वा । छन्नं सदाउलयं बहुजण अवत्त तस्सेवी ॥ १८ ॥ व्याख्या-'आकम्प्ये 'ति । अयं गुरुवैयावृत्त्यकरणादिमिरावर्जितः सन् मम महत्यप्यपराधे यथा लघीयांसं प्रायश्चित्तं दण्डं ददातीत्यभिप्रायेणाऽऽलोचनाचार्यमावर्ण्य यदालोचयति स प्रथम आलोचनादोषो भवतीतिक्रियासम्बन्धो वाच्यः १ । तथा अनुमान्य-अनुमानं कृत्वा लघुतरापराधनिवेदनादिनो मृदुदण्डप्रदायकत्वादिस्वरूपमालोचनाचार्यस्याकलय्यालोचयति । अथवा गुरुप्रायश्चित्ताहमपराधजातं वचनप्रकारेण लघुप्रायश्चित्ताह कृत्वाऽऽलोचयति । यद्वा-अमुकेनामुकमोलोचितं तस्येदं प्रायश्चित्तमायातम् अहमपि तदनुसारेणालोचयामि यथा तावतैव प्रायश्चित्तेन मुक्तो भवामि नाऽधिकं कर्तुं क्षमोऽहमित्यभिप्रायेणेति द्वितीय आलोचनादोषः । यद् दृष्टं गुरुमिरन्येन वा साधुना गृहस्थादिना वाऽनाचरणीयमाचर्यमाणं तदेवाऽऽलोचयति न पुनरदृष्टमिति तृतीयः । 'बायरं वत्ति । वाशब्दस्य विकल्पार्थत्वाद् बादरं वा बादरमतिचारजोतमालोचयति न तु सूक्ष्मं तत्रावज्ञापरत्वादिति चतुर्थः । 'सुहुमं व 'त्ति । अत्रापि वाशब्दस्य विकल्पार्थत्वात् सूक्ष्मं वा तृणादिग्रहणरूपमालोचयति न तु बादरं, यः किल सूक्ष्ममप्यालोचयति स कथं बादरं स्वर्णमाणिक्यादिग्रहणरूपं सन्नालोचयेदित्येवंरूपभावसम्पादनायाचार्यस्येति पञ्चमः । छन्नं-मन्दस्वरमालोचयति लज्जालुतामुपदर्य यथा स्वयमेव शृणोति न गुरुस्तथैवाव्यक्तवचनेनालोचयतीत्यर्थः। शब्दाकुलं यथा स्यात्तथाऽऽलोचयति यथा गुरुरकृत्यं सम्यग नावगच्छति, सम्यगनवगतापराधश्च गुरुर्मे स्वल्पं प्रायश्चित्तं दद्यादिति भाववान् । यद्वा-शब्दाकुलं-बृहच्छब्दं यथा भवत्येवमालोचयति अमीतार्थादीनपि श्रावयतीत्यर्थः इति सप्तमः । 'बहुजण 'त्ति । बहुजनेभ्यः स्वकृतमपराधं कथयति न तु गुरुपुरत एव । अथवा बहवो जना-आलोचनागुरवो यत्र तद् बहुजनमालोचनम् एकस्याप्यपराधस्य बहुभ्यो निवेदनमित्यर्थ इत्यष्टमः । 'अवत्त 'त्ति । अव्यक्तम्-अव्यक्तस्यानवगतछेदग्रन्थरहस्यस्य गुरोः पुरतो यदालोचनं तदप्युपचारादव्यक्तमिति नवमः । ' तस्सेवि 'त्ति । तदेवापराधपदं-स्वकृतापराधसदृशं यो गुरुः सेवते स तत्सेवी, तत्सकाशे शुद्धिं याचते । एष ममातिचारेण तुल्यस्ततो न किमपि प्रायश्चित्तं दास्यति, न च मां खरण्टयिष्यति-यथा विरूपं कृतं त्वयेत्यादिमनःपरिणामवानिति दशमः । एतेषां दशानामप्यालोचनादोषाणां स्वरूपमवेत्यालोचकेनामी सम्यग् वर्जनीया मोक्षार्थिनेति भावार्थः ।। १८ ।। अथ सम्यगालोचने के गुणा ? इति सप्तमद्वारमाह लहुआ हाईजणणं अप्पपरनिअत्ति अज्जवं सोही । दुक्करकरण' आणा निस्सल्लत्तं च सोहिगुणा ॥ १९ ॥ 2010_05 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावजीतकरुपे व्याख्या-लघुता, यथा भारवाही अपहृतभारो लघुर्भवति तथा आलोचकोऽप्युद्धृतमनःशल्यः पापभारापगमादेकान्तलघुर्भवति । यद्वक्ष्यति-' कयपावोवि मणूसो' इत्यादि । तथा 'हाईजणणं'ति । हादिजननं हादै सुखे चेति भौवादिको धातुस्ततः हादनं हादिरौणादिक इप्रत्ययः प्रहति प्रह्लादिः तस्या जननं हादिजननं-प्रमोदोत्पाद इतियावत् । भवति हि संविग्नानां परममुनीनां पापशल्यापगमतो महान् प्रमोद इति । 'अप्पपरनिअत्ति 'त्ति । आत्मपरनिवृत्तिदोषेभ्य इतिशेषः । आलोचना. प्रदानतः स्वयमात्मनो दोषेभ्यो निवृत्तिः कृता, तं च दृष्ट्वाऽन्येऽप्यालोचनाभिमुखा भवन्ति इत्यन्येषामपि दोषेभ्यो निवर्त्तनमिति । तथा ' अज्जवं 'ति । यदतिचारजातं प्रतिसेवितं तत्परस्मै प्रकटयता स्वयमात्मन आर्जवं सम्यग भावितं भवति । आर्जवं नाम अमायाविता । तथा शोधिः-अतीचारपङ्कमलिनस्यात्मनश्चरणस्य वा प्रायश्चित्तजलेनातीचारपङ्कप्रक्षालनतो निर्मलता। तथा दुष्करकरणं दुःकरकारिता तथाहि-यत् प्रतिसेवनं तन्न दुःकरमनादिभवाभ्यस्तत्वात् , यत् पुनरालोचयति तद्दःकरं प्रबलमोक्षानुयायिवीर्योल्लासविशेषेणैव तस्य कर्तुं शक्यत्वात् तस्य करणं दुःकरकरणं तत एव मासक्षपणादिभ्योऽपि सम्यगालोचनाङ्गीकारस्याऽभ्यन्तरतपोभेदत्वेन दुःकरत्वं लक्ष्मणार्यादीनां तथाश्रवणात् । तथाचाऽऽज्ञा तीर्थकृतामाराधिता भवति । 'विणओ 'त्ति पाठे तु आलोचयता चारित्रविनयः सम्यगुपपादितो भवति । निःशल्यत्वं च प्रागुक्तशल्याभावश्च प्रतिपद्यत इति । यदुक्तं श्रीमदुसराध्ययने 'आलोअणयोए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ?, आलोअणयाए णं मायानियाणमिच्छादरिसणसल्लाणं मुक्खमग्गविग्घाणं अणंतसंसारवड्ढणाणं उद्धरणं करेइ । उज्जुभावं च णं जणयइ । उज्जुभावपडिवण्णे य णं जीवे अमाई इत्थीवेअं नपुंसगवेअं च न बंधइ, पुव्वबद्धं च णं निज्जरेइ 'त्ति । 'सोहिगुण 'त्ति । शुद्धः-आलोचनाया अमी उक्तस्वरूपा इहापि भवे गुणा अवगन्तव्या इति गाथार्थः ॥ १९ ॥ अथागीतार्थस्य पार्वे आलोचनाया दाने दोषा भवन्तीत्यष्टमं द्वारमाह अग्गीओ न वियाणइ सोहिं चरणस्स देइ ऊणहियं । तो अप्याण आलोअगं च पाडेइ संसारे ॥२०॥ व्याख्या-'अग्गीओ'त्ति पदेकदेशे पदसमुदायोपचारादगीतार्थः-छेदश्रुतसूत्रार्थानमिज्ञो न विजानाति शुद्धि-शुद्धिप्रकारं चरणस्य-सर्वविरतिरूपस्य देशविरतिरूपस्य वा चारित्रस्यातिचारमलमलिनस्य । इयता प्रायश्चित्तजातेन इयतः सर्वविरतेर्देशविरतेर्वाऽतिचारस्य शुद्धिर्भवतीत्यादिरूपं शोधनप्रकारमगीतार्थों न जानातीत्यर्थः । अत एव सूत्रोक्तादूनमधिकं वा प्रायश्चित्तं ददाति । एवं च को दोष ? इत्याह'तो'त्ति ततो न्यूनाधिकप्रायश्चित्तप्रदानत आत्मानमुत्सूत्राचरणप्रवृत्तत्वादालोचकं च तद्दत्तप्रायश्चित्तेनातिचारकालुष्यानपगमात् पातयति संसारे-चतुतिलक्षणे इति गाथार्थः ॥ २० ॥ कुत एवं १ यत आह जो अमुणंतो सुद्धि अपच्छित्ते य देइ पच्छित्तं । पच्छित्ते अइमत्तं आसायण तस्स महई उ ॥२१॥ 2010_05 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगीतार्थस्य आलोचनादाने दोषाः व्याख्या - यः कश्चिद्गीतार्थादिः छेदश्रुतानभिज्ञत्वेन 'अमुणंतो'ति । अमन्वानो -ऽजानन् शुद्धिशुद्धिप्रकारं द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव- पुरुषप्रतिसेवनाद्यौचित्येन प्रायश्चित्तप्रदानलक्षणाम् । किं करोति ? इत्याहअप्रायश्चित्ते-प्रायश्चित्तानुचिते आलोचितेऽतिचारं विनैवेत्यर्थः, ददाति प्रायश्चित्तम् । चशब्दो व्यवहितसम्बन्धत्वात् 'पच्छित्ते ' इत्यत्र पुरस्ताद्योजयिष्यते । तथा 'पच्छित्ते 'ति । प्रायश्चित्तार्हे चालोचितेऽतिमात्रंसूत्रोक्तादतिरिक्तं प्रायश्चित्तं ददाति । तस्य किं स्यादित्याह - आशातना - ज्ञानाद्योयशाटस्वरूपा तस्याऽविधिप्रायश्चित्तप्रदायकस्य तुशब्दस्यावधारणार्थत्वेन महत्येव भवत्यनन्तसंसारवर्द्धकत्वादिति । तथा चोक्तम्' अपच्छित्त अपच्छित्तं पच्छित्ते अइमत्तया । धम्मस्सासायणा तिव्वा मग्गस्स य विराहणा ' इति गाथार्थः ।। २१ । एवं च सति किं स्याद् ? इत्याह आसायण मिच्छत्तं आसायणवज्जणा उ सम्मत्तं । आसायणनिमित्तं कुव्व दीहं च संसारं ॥ २२ ॥ व्याख्या - आशातना मिध्यात्व हेतुत्वान्मिथ्यात्वम् । यद्वा-आशातनैव साक्षान्मिथ्यात्वं, द्वयोरपि ज्ञानादिशाटरूप स्वरूपस्याविशेषात् । आशातनावर्जना तु साक्षात्सम्यक्त्वम् । तद्वर्जनपरिणामस्य सम्यक्त्वरूपत्वात् । अत एवागीतार्थोऽविधिप्रवृत्तेराशातनानिमित्तम्- आशतिनाप्रत्ययं आशातनया - हेतुभूतयेत्यर्थः । करोति दीर्घं-प्रभूतकालानुभवनीयं, चशब्दादसात वेदनीयं बहुलं संसारं - भवभ्रमणमितिगाथार्थः ।। २२ ।। एवं चागोतार्थस्य पुरत आलोचनाप्रदानमपायपरम्परा हेतुर्भवतीत्युक्तम् । अथ गीतार्थोऽपि सारणादिरहितः परिहार्य एव भवतीत्येतदर्थ ख्यापनार्थमाह जह सरणमुवगयाणं जीवाणं निर्कितए सिरे जो उ । एवं सारणियाणं आयरिय असारओ गीओ ॥ २३ ॥ १७ व्याख्या-‘यथे’त्युपदर्शने । यथा शरणं भयार्त्तत्राणलक्षणमुपगतानां - सामीप्येन प्राप्तानां जीवानां शिरांसि निकृन्तति-छिनन्ति यः - पापीयान् । तुः सम्भावने । सम्भाव्येतैवंविधः कोऽपि क्लिष्टकर्मा विश्वस्तघातकः । एवमनेनैवोपमानेन सारणीयानां - सारणायोग्यानां संयमयोगेषु प्रमादच्यावनेन प्रवर्त्तनीयानां स्मारणीयानां वाऽज्ञानप्रमादादिना विस्मृतेषु करणीययोगेषु स्मारणार्हाणां शरणमुपगतानां साधूनामपीति शेषः । आचार्योऽसारको -ऽस्मारको वा भावनीयः । सोऽपि शरणोपगतशिरोनिकत्र्तक इवैकान्तेनाहितका रीति भावः। शरणमुपगतानां संसारापारपारावारे निरनुकम्पं प्रक्षेपणात् । स च तादृश इहपरलोकार्थिना परित्याज्यः । यस्तु खरपरुषभणनेनापि संयम योगेषु सीदतः सारयति - प्रवर्त्तयति स संसारनिस्तारकत्वादे कान्तेन हितकारीत्याश्रयणीयः । यदुक्तम् — 'जोहाए विलिहंतो न भद्दओ जत्थ सारणा नत्थि । दंडेणवि ताडितो स भद्दओ सारणा जत्थ ' ॥१॥ ( व्यवहारभाष्ये) इत्यादि । उपलक्षणत्वादविधिप्रवृत्तादीनां वारणाद्यकर्त्ता । तथाचोक्तं सोरणादिखरूपम् - ३ 2010_05 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे पम्हढे सारणा वुत्ता अणायारस्स वारणा । चुकाणं चोयणा भुजो निट्ठरं पडिचोयणा' ॥ १ ॥ इत्यादि । किंस्वरूप ? इत्याह-' गोओ'त्ति पदेकदेशे पदसमुदायोपचाराद् गीतार्थोऽपीति गाथार्थः । गीतार्थस्याप्याचार्यख्य स्मारणाद्यकत्तु (रालोचना न दातव्येति तात्पर्यार्थः) रालोचनायाश्च दाने दोषाः, एवमगीतार्थस्यास्मारकगीतार्थस्यापि च पुर आलोचनाप्रदाने ये दोषा भवन्ति, तद्दोषप्रतिपादकमष्टमं द्वारमुक्तम् । अथ गीतार्थादिगुणान्वितगुरोरालोचनाया अदाने दोषा दाने च गुणा भवन्तीत्येवंरूपं नवमं द्वारं व्याचिख्यासुराह लज्जाइ गारवेण य बहुस्सुअमएण वावि दुचरिअं । जे न कहंति गुरूणं न हु ते आराहगा भणिआ ॥ २४ ॥ व्याख्या-लज्जया-बीडया — गारवेण य 'त्ति । वचनव्यत्ययस्य प्राकृतत्वाद् गारवैश्च हेतुभूतै रसादिगारवप्रतिबद्धत्वेन तपोऽचिकीर्षुतयेत्यर्थः। बहुश्रुतमदेन वा-बहुश्रुतोऽहमित्यभिमानेन, वाशब्दो विकल्पार्थे । अपिशब्दादपमान-प्रायश्चित्तभीरुत्वादिना च दुश्चरितं-विरुद्धमासेवितं ये केचन मन्दबुद्धयः सत्त्वा न कथयन्ति-नाऽऽलोचयन्ति गुरूणां पुरतः। हुशब्दस्यैवकारार्थत्वान्नव ते दुश्चरितानालोचका आराधका ज्ञानादिमोक्षमार्गस्य भणितास्तीर्थकरगणधरादिभिरितिगाथार्थः ॥ २४ ॥ अथैनमेवार्थ दृष्टान्तपूर्वक प्रकारान्तरेणाह अप्पंपि भावसल्लं अणुद्धिअं रायवणिअतणएहिं । जायं कड्डयविवागं किं पुण बहुआई पावाई ॥ २५ ॥ व्याख्या-इह शल्यं द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । तत्र द्रव्यतः शल्यं कण्टक-तोमरादि, परमाण्वादिद्रव्यनिष्पन्नत्वात्तस्य । भावतः शल्यं जीववध-मृषावादाद्यतीचारजातम् । भावोऽन्तरङ्गः परिणामः तमाश्रित्य शल्यमात्मनोऽनन्तसंसारित्वादिविधायकत्वेन दुरन्तदुःखदायित्वात् । तदप्यल्पबहुत्वभेदतो द्विधा । तत्राल्पमपि-पूर्वभवप्रव्रज्यानन्तरं स्वजायासाध्वी-सानुरागावलोकनमात्रत्वेन स्तोकमपि भावशल्यं 'अनुद्धतं' गुरुभ्योऽनिवेदितं राजवणिक्तनयाभ्यां-यथाक्रममार्द्रकुमारेणेलापुत्रेण च जातं कटुकविपाकं-दारुणायतिफलं. तयोरेव सम्यक् संयमासन्नीकृतमोक्षयोरपि धर्मविच्युतिनीचकुलाऽऽगमनादिना दारुणपरिणाम बभूवेत्यर्थः । किं पुनर्बहूनि-प्रभूतानि पापान्यतिचारपदान्यनुद्धतानीतिशेषः । तानि हि भावशुद्धथाऽनालोचितान्यनन्तात्यन्तदारुणसंसारफलानि जन्तूनां भवन्तीति भावः ।। २५ ।। एवं सति यद्विधीयते तद् गाथाद्वयेनाह हा सहसमाणेण व भीएण व पिल्लिएण व परेणं । वसणेण पमाएण व मूढेण व रागदोसेणं ॥ २६ ॥ 2010_05 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहसाकारादिस्वरूपम् जं किंचि कयमकजं न हु तं लभा पुणो समायरि। तं तह पडिक्कमियव्वं न हु तं हियएण वोढव्वं ॥ २७ ॥ व्याख्या-यतः कारणोत् पापान्यनालोचितानि कटुविपाकानि भवन्ति, ततः कारणात् सहसाकारादिमिर्यत् किश्चित्कृतमकार्य नैव तत् पुनः समाचरितुं लभ्यमिति क्रियासम्बन्धः । 'सहस 'त्ति । सहसाकारो-ऽविमृश्यकरणं, यथा पूर्वमदृष्ट्वा पदक्षेपे पश्चाज्जीवदर्शने पदस्य निवर्तयितुमशक्यता । यदुक्तं पुव्वं अपासिऊणं छूढे पाये कुलिंगि जं पासे । न य तरइ निअत्तेउं जोगं सहसाकरणमेअं" ॥ १॥ ति (निशी० भा०) । 'कुलिंगि'त्ति । कुत्सितमनिष्टं लिङ्गमिन्द्रियं यस्य स तथा । यद्वा-कुत्सितान्यसम्पूर्णानि लिङ्गानीन्द्रियाणि यस्य स तथा । उभयत्रापि द्वीन्द्रियादिरिति । अज्ञानेन वा-पञ्चधा प्रमादविरहेऽपीर्यादिष्वनुपयोगेन । तथा चोक्तम् _ 'अन्नयरपमाएणं असंपउत्तस्स नोवउत्तस्स । इरियासु भूयत्थेसु अवट्टओ एवमन्नाणं' ॥ १ ॥ निद्राद्यनन्यतरप्रमादेनासम्प्रयुक्तस्य ‘नोवउत्तस्स इरियासु भूयत्थेसु 'त्ति नो-निषेधे । भूतार्थो नाम विचार-विहार-संस्तार-भिक्षादिका संयमसाधिका क्रिया। धावन-वल्गन-डेपनादिकोऽभूतार्थस्तत ईर्यासमित्यादिषु भूतार्थेष्वनुपयुक्तस्य 'अवट्टओ'त्ति । व्याख्यानतो विशेषार्थप्रतिपत्तिर्भवतीतिन्यायतःप्राणाति. पातेऽवर्तमानस्य यद् भवनम् । 'एवमन्नाण'ति । एवंस्वरूपमज्ञानं भवतीति । तथा भीतेन-अभियोगभयेन पलायमानेन यत्कृतं प्राणव्यपरोपणादि । 'पिल्लिएण व परेणं 'ति । परेण प्रेरितेन द्वीन्द्रियादयः प्रेरिताः। तथा व्यसनेन-धूतादिना, प्रमोदेन-मद्य-विषय-कषाय-निद्रा-विकथालक्षणपञ्चविधप्रमादेन । 'आयंकण व 'त्ति पाठे आतङ्केन-ज्वराशुपसर्गेण, मोहेन-मिथ्यात्वभावनारूपेण, रागद्वेषौ प्रतीतौ। यदुक्तम् 'जूआइ होए वसणं पंचविहो खलु भवे पमाओ अ। मिच्छत्तभावणाओ मोहो तह रागदोसोअ' ॥१॥ इति प्रथमगाथार्थः। जं किंचि 'त्ति। एतैः सहसाकारादिभिरुक्तलक्षणैर्हेतुभिर्यत् किञ्चिन् महत सूक्ष्मं वो कृतमकार्यमकृत्यं प्रोणिवधादि भवति, नैव तदकार्य ‘लब्भ 'त्ति लभ्यं-योग्यं पुनः समाचरितुम् एकश एवालोचयिष्यामीत्यादिबुद्धया भूयः कत्तुं नैव युक्तमित्यर्थः । 'लब्भा' इति तु आकारः प्राकृतत्वात् । पूर्वकृतस्य तु किम् ? इत्याह-'तं'ति । सहसाकारादिहेतुमिः कृतं तदकार्य तथैव-कृतप्रकारे व प्रतिक्रमितव्यम् । प्रतिक्रमणालोचनादिप्रायश्चित्तविषयं विधेयमितिभावः । 'न हु'त्ति । नैव तदकृत्यं लज्जा-भयादिभिह दयेन वोढव्यम् । किन्तु तत्कालमेवालोचनीयमिति द्वितीयगाथार्थः ॥ २७ ।। एवं च को गुण ? इत्याह कयपावो वि मणूसो आलोइअनिदिअ गुरुसगासे । होइ अइरेगलहुओ ओहरियभरुव्व भारवहो ॥२८॥ व्याख्या-कृतपापोऽपि-विहितप्राणिवधायकृत्योऽपि मनुष्यः-पुरुषः आलोचितानि-वाचा गुरोः पुरतः प्रकाशितानि, निन्दितानि-हा ! मया दुष्ठु कृतं दुष्ठु कारितं दुष्ठु अनुमोदितं चेत्योद्यात्मगर्हात्मिकया निन्दया गुरोः पुरत एव जुगुप्सितानि, सूचकत्वात्सूत्रस्य स्वकृतपापानि येन स आलोचितनिन्दितः। 2010_05 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजोतकल्पे आलोचना गुरुं विना न स्यात् निंदा तु गुरुं विनापि स्यादिति तद्व्यवच्छेदार्थमाह- कस्मिन् ? ' गुरुसगासे 'ति । गुरुसकाशे-गुरोः पुरतः । एवंविधः पुमान् भवत्यतिरेकलघुकोऽतिशयेन लाघववान् भवति पापभारापगमादिति शेषः । क इव ? अपहृतभार इव भारवाहकः । यथा कोऽपि भारवाहकः पुमान् लोहादिभारावतारणानन्तरमात्मानमतिशयेन लघुकं मन्यते । तथाऽऽलोचकोऽप्यालोचितातिचार इतिगाथार्थः ॥ २८ ॥ २० अतः सर्वाण्यपि पापानि निर्मायतयाऽऽलोचनीयानि शुद्धचर्थिना । यतो मायाविनः कुतो शुद्धिर्न भवतीत्याह कहेहि सव्वं जो वृत्तो जाणमाणो निगूहई | न तस्स दिति पच्छित्तं बिंति अन्नत्थ सोहय ॥ २९ ॥ व्याख्या- ' कहे हि सव्वं 'ति । कथय सर्वमालोच्यजातं ' जो वृत्तो 'ति । इति यः कश्चिन्मन्दबुद्धिरालोचनाग्राही उक्तः सन् जानन् - स्मरन्नपि स्वपापानि निगूहति - कानिचिद् गोपयति । तस्य मायाविन-आलोचकस्य न ददति प्रायश्चित्तमागमव्यवहारिण इति गम्यते । किन्तु ' बिंति 'ति । ब्रुवन्ति च तं प्रति- ' अन्यत्र शोधय' इति अन्येषां पार्श्वे गत्वाऽऽलोचयेति । मायावितयाऽतिचारान् गोपयन्तं न स्मारयतीति भावः ।। २९ ।। 1 अथ यः स्मृत्यभावान्नालोचयति तस्य किम् ? इत्याह न संभरेइ जे दोसे सब्भावा न य भायओ । पच्चक्खी साहए ते उ माइणो उ न साहए ॥ ३० ॥ व्याख्या—यः कश्चनाप्यालोचनां ददानो न स्मरति यान् दोषान् - स्वापराधान् सद्भावोद्-अकौटिल्यभावात् । न च मायातः- मायातोऽपि हि कश्चित् किष्टकर्माssलोचकः स्मरन्नपि निजाकृत्यान्यस्मरन्तमिवात्मानं दर्शयति, तस्य सद्भावादस्मरणेनाऽनालोचकस्य प्रत्यक्षज्ञानी - अतिशयज्ञानी आगमव्यवहारीति यावत् 'साहए 'ति । साधयति - कथयति ' ते उत्ति । तांस्तु विस्मृतदोषान् यथा चामी दोषा विस्मृताः सन्ति तानालोचयेति । मायाविनः पुनर्दोषस्मृतावप्यनालोचकस्य न कथयति, यदमुकानपराधानालोचयेति गाथार्थः ॥ ३० ॥ अथ मायाविनो दोष विशेषमाह - पावं काऊण सयं अप्पाणं सुद्धमेव वाहरइ । दुगुणं करेइ पोवं बीअं बालस्स मंदत्तं ॥ ३१ ॥ व्याख्या – पापं - प्राणिवधादिकं स्वयमात्मना कृत्वाऽऽत्मानं शुद्धमेव व्याहरति-' शुद्धोऽहं - मया न पापं कृतमिति वक्ति । तथा च स मायावी द्विगुणं पापं करोति, द्विगुणप्रायश्चित्तशोध्यत्वात् । एकमपराधनिष्पन्नमेकं च मायानिष्पन्नं च प्रायश्वित्तं प्राप्नोतीत्यर्थः । द्वितीयमेतद् बालस्य- मूर्खस्य मन्दत्वम्-अपायानभिज्ञत्वम् । एकं पापकरणं द्वितीयं पापापलाप इति गाथार्थः ॥ ३१ ॥ 2010_05 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यगालोचकानां फलम् ततः किं कुर्याद् ? इत्याह मायाइदोसरहिओ पइसमयं वड्ढमाणसंवेगो । आलोइज अकजं न पुणो काहंति निच्छयओ ॥ ३२ ॥ व्याख्या-मायया-आदिशब्दाल्लज्जाकम्पनादिभिश्च दोषै रहितः प्रतिसमयं-प्रतिक्षणं वर्द्धमानसंवेग आलोचयेदकार्य-करणानहत्वादकार्थ-पापं, न पुनरेतदकृत्यं करिष्यामीति निश्चयादन्यथा तत्प्रदानस्य वयर्थ्यप्रसङ्गादिति गोथार्थः ॥ ३२ ॥ यथोक्तप्रकारेणालोचिताऽऽलोच्यपदानामालोचकानां फलमाह निवियपावपंका सम्मं आलोइउ' गुरुसगासे । पत्ता अणंतसत्ता सासयसुक्खं अणाबाहं ॥३३॥ व्याख्या-सम्यग-निर्मायतया गुरुसकाशे स्वातिचारानिति गम्यते, आलोच्य ‘निष्ट्रवियपावपंक 'त्ति । क्षपितसकलकर्मा शमलाः सन्तोऽनन्तकालेनानन्तसङ्ख्याया अपि लम्यमानत्वादनन्तीः सत्त्वाः-प्राणिनः प्राप्ता-गताः, किमित्याह-शाश्वतं-साधनन्तत्वात सौख्यं-मुक्तावस्थालक्षणमनाबाधं. क्षुदादिबाधाऽभावात् । उपलक्षणत्वाद् यास्यन्त्यनन्ता इति गाथार्थः ।। ३३ ।। अनालोचकानां फलव्यतिरेकमाह मरिउ ससल्लमरणं संसाराडविमहाकडिल्लंमि । सुइरं भमंति जीवा अणोरपारंमि ओइन्ना ॥ ३४ ॥ व्याख्या-सशल्यमरणं यथा भवति एवं मृत्वा संसार एवाटवीमहाकडिल्लम्-अटवीमहागहनम् तत्र, कीडशे ? इत्याह- अणोरपारंमि 'त्ति । अनर्वापारे अवतीर्णाः-प्राप्ताः सन्तः सुचिरं-प्रभूततरकालं भ्रमन्ति-नैरयिकाद्यपरापरपर्यायत्वेनोत्पद्यमाना तिष्ठन्ति जीवा इति गाथार्थः ॥ ३४ ॥ अथ सशल्यस्य तपसोऽपि व्यर्थतामाह ससल्लो जइवि कढग्गं घोरं वीरं तवं चरे । दिव्वं वाससहस्सं उ तओवि तं तस्स निष्फलं ॥ ३५ ॥ अविय । व्याख्या-सशल्यो-मिथ्यादर्शनादिशल्यसंयुक्तः पुमान् यद्यपि कष्टं - कष्टकारित्वात् उग्रं मन्दसत्त्वैरनाश्रयणीयत्वात् घोरं-दुर्धरत्वात् वीरं-वीरजनसाध्यत्वात् तपो-बाह्यान्तरभेदं चरेतकुर्यान् । कियन्मितं कालमित्याह-'दिव्वं 'ति । लोकप्रसिद्धथा देवसम्बन्धि वर्षसहस्र । तदुक्तं भवेत्पैत्रं त्वहोरात्रं मासेनादेन देवतम् । देवे युगसहस्र द्व ब्राह्मथ कल्पौ तु ते नृणाम् ' ॥ १ ॥ इत्यादि । ततोऽपि तत्तपस्तस्य निष्फलं-विशेषफलासाधकं सशल्यत्वादेवेति गाथार्थः ॥ ३५ ॥ 2010_05 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे · अविय 'त्ति। अपिचेति समुच्चयार्थः । शल्यस्य अनुद्धतस्य सर्वेभ्योऽप्यनर्थकारिवस्तुभ्योऽधिकतां गाथाद्वयेनाह नवि तं सत्थं व विसं व दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो । जंतं व दुप्पउत्तं सप्पुव्व पमाइणो कुद्धो ॥३६ ॥ जं कुणइ भावसल्लं अणुद्धिअं इत्थ सव्वदुहमूलं । दुल्लहबोहीअतं अणंतसंसारियत्तं च ॥३७॥ व्याख्या-नैव तदर्थजातमात्मनः करोतीति सम्बन्धः । शस्त्रं-खड्गादि, विष-द्विधा स्थावर कालकूटादि, जङ्गमं सर्पादि दुष्प्रयुक्तो वा-द्रव्यक्षेत्रकालाधनौचित्येन व्यापारितो मन्त्रपूजोपहारादिना विराधितो वैतालो-दुष्टव्यन्तरः , यन्त्र-शतघ्न्यादि दुष्प्रयुक्तं-विरुद्धप्रकारव्यापारितं सर्पो वा प्रमादिनःकुतूहलादिना कलिश्चादिघट्टनप्रमादवतः क्रुद्धः सन् ‘ज कुणइ 'त्ति । यदनर्थजातं करोति भावशल्यंमिथ्यादर्शनादि अनुद्धतमनिःकाशितम् ‘इत्थ' इह संसारे सर्वदुःखाना-शारीरमानसाद्यशेषकष्टानां मूलंमलहेतुः । किंरूपं तदनर्थजातं ? इत्याह-दुर्लभबोधिकत्वम् । 'बोहीयत्तमि 'त्यत्रार्षत्वादिकारस्य ईकारः । तत एवानन्तसंसारिकत्वं चेति गाथाद्वयार्थः ।। ३६-३७ ।। अतस्तत्त्वज्ञा यत् कुन्ति, तदाह -- तो उद्धरंति गारवरहिआ मूलं पुणब्भवलयाणं । मिच्छादसणसल्लं मायासल्लं नियाणं च ॥३८॥ व्याख्या-तत्-तस्माद्धेतोरुद्धरन्ति-हृदयान्निःकाशयन्ति गारवरहिता-ऋद्धयादिगारववियुक्ता विवेकिन इति गम्यते । मूल-कन्दभूतं पुनर्भवलतानां-पुनर्भवः-संसारः स एव लता-वल्लयः तासां बहुवचनमुपमेयगुपिलत्वख्यापनार्थं, किं तदित्याह-मिथ्यादर्शनमेव शल्यं-तीव्रतरदुःखहेतुत्वात् मिथ्यादशनशल्यम् । तथा मायाशल्यं-माययाऽनुद्धतमतिचारजातमुपचारान्मायोच्यते, ततो मायैव शल्य मायाशल्यमतिचाराणां गुरोः पुरतोऽप्रकाशनरूपं भावशल्यमित्यर्थः । तथा ' निदानमिति । निदानशल्य-विषयाभिष्वङ्गादिना प्रार्थनारूपम् । तच्च नवधा तथाच __निव १ सिटि २ इथि ३ पुरिसे ४ परपविआरे सुरे ५ सपरिआरे ६ । अपरयसुर ७ दरिदे ८ सड्ढे ९ हुन्जा नव निआणा ।। १ ।। इति गाथार्थः ।। ३८ ॥ शल्योद्धारश्च गीतार्थादिगुणान्वितस्य गुरोरन्तिके विधेयः । स च गुरुश्चेदासन्नो नोऽवाप्यते तदा तन्निमित्त सप्त योजनशतान्यपि यावद् गन्तव्यमिति पूर्वमुक्तम् । तथा गच्छतश्चेदायुःपरिसमाप्तिर्भवेत्तदा किमित्याह आलोअणापरिणओ सम्मं संपठिओ गुरुसगासे । जइ अंतरावि कालं करिज्ज आराहगो तहवि ॥ ३९ ॥ 2010_05 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिचारापत्तिर्दशधा २३ व्याख्या-आलोचनापरिणत-एकान्तेनालोचनाप्रदानपरिणामः सम्यग-मनःशुद्धथा, न पुनर्बहिवृत्तिमात्रेण गुरुसकाशे-गीतार्थगुरुसमीपे गन्तुकामः सम्प्रस्थितः-प्रचलितः सन् . यदि कदाचिदन्तरापि-मार्गेऽपि गुरुष्वमीलितेष्वपीति भावः । कालं कुर्यान्-मरणमासादयेत् तथाप्यानालोचितातिचारोऽप्याराधक एव ज्ञानादिमोक्षमार्गस्य, न विराधकः शुद्धचित्तत्वेन विधिप्रवृत्तत्वादिति गाथार्थः ॥ ३९ ॥ अथ किमालोचनीयम् ? इति दशमद्वारमभिधातुकाम आह नाणाइसु मूलुत्तरगुणेसु कोहाइपावठाणाई । दव्वाइ य सहसाईहिं सेविअं जं तमालोए ॥ ४० ॥ व्याख्या-ज्ञानादिषु-ज्ञानदर्शनचारित्रेषु तथा मूलगुणेषु वय ५-समणधम्म १० संजम ५७ वेयावच्चं च १० बंभगुत्तीओ ९। नाणाइतियं ३ तव १२ कोहनिग्गहाई ४ चरणमेअं ॥ १ ॥ इति गाथोक्तेषु प्राणातिपातविरमणादिषु, उत्तरगुणेषु पिंडविसोही ४ समिई ५ भावण १२ पडिमा य १२ इंदिअनिरोहो५ । पडिलेहण २५ गुत्तीओ ३ अमिग्गहा चेव ४ करणं तु ।। १ ।। इति गाथोक्तेषु पिण्डविशुद्ध-यादिषु, ज्ञानादीनां मूलगुणान्तर्गतत्वेऽपि पृथगुपादानं प्राधान्यख्यापनार्थम् । यद्वा-प्रायः प्रथमं ज्ञानादिविषया अतिचारा आलोचनीया इति ज्ञापनार्थम् । ‘सेविअंजं 'ति । सेवितं यत् कालविनयादिहीनश्रुताध्ययनादि प्राणातिपातादि च 'तमालोए 'त्ति । तदालोचयेदितिसम्बन्धः । तथा ' कोहाइ पावठाणाई 'ति । प्राणातिपातादीनां पञ्च पापस्थानानां मूलगुणविषयप्रतिसेवितेऽन्तर्भावाच्छेषमिति पदम्य गम्यत्वाच्छेषं यत् क्रोधादि पापस्थानम् , आदिशब्दात् कृत्याकरणादि · दवाइ 'त्ति । तथाविधद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावानासाद्येति शेषः । सहसाकारादिभिर्वक्ष्यमाणलक्षणैर्यदासेवितं तत् सर्वमप्यालोचयेदिति गाथार्थः ।। ४० ।। अथ के ते सहसाकारादय ? इत्याह सहसाऽणाभोगाउर-आवय-संकिअ-पओस-चीमंसा । भय-दप्प-पमायतिअं पडिसेवा दसह अहवेसा ॥४१॥ व्याख्या-इह सर्वत्र प्रत्येकं तृतीयायोगः कार्यः. ततः ‘सहस 'त्ति । सहसाकारेण, सहसाकारो-ऽविमृश्यकरणमाकस्मिकक्रियेत्यर्थः । तथा-अनाभोगेन-अत्यन्तविस्मृत्या अज्ञानेनेतियावत् । तथा 'आउर 'त्ति । भावप्रधानत्वानिर्देशस्य, आतुरत्वं नाम क्षुपिपासाद्यैः पीडितत्वम् । तथा आपद्भिस्तत्र आपच्चतुःप्रकारा-द्रव्य-क्षेत्र-काल भावभेदात् । तत्र द्रव्यापत कल्पनीयाशनपानादिद्रव्यदुर्लभता १ क्षेत्राऽऽपत् कान्तारादिषु प्रत्यासन्नग्रामादिरहितत्वं क्षेत्रमल्पं वा २. कालापद् दुर्भिक्षादिः कालः ३ मावापद् ग्लानत्वादिः ४। तथा शङ्कितत्वेन-सन्देहेन यदतिचारजातं कृतमकृतं वेति निश्चेतुमशक्यतादिरूपेण । यद्वा-शङ्कितेन-आधाकर्मादिदोषत्वेन शङ्कितभक्तपानादिविषयेन। अत्र निशीथपीठे 'तितिणे 'ति पठ्यते । तत्र तिन्तिणत्व नाम आह गद्यलाभे सखेदं वचनम् । तथा प्रद्वेषेण-क्रोधादि 2010_05 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्राद्धजीतकल्पे कषायरूपेण । तथा विमर्शन-शैक्षकादिपरिणामपरिज्ञानार्थ परीक्षया । तथा ‘भय-दप्प-पमायतिअं'ति । भयदर्पप्रमादत्रिकेन च। तत्र भयं-सप्तविधम् इहपरलोकादानाकस्मोदाजीवमरणाश्लोकरूपम् । दोधावनवल्गनादिः । प्रमादः-कषायविषयविकथादिस्तेषां त्रिकं-भयदर्पप्रमादत्रिकं तेन । 'पडिसेवा दसह 'त्ति । एवं सहसाकारादिभिः सप्तभिर्भयदर्पप्रमादत्रिकेन व प्रतिसेवा अतिचारापतिर्दशप्रकारा भवतीतिशेष इतिगाथार्थः ।। ४१ ।। तामेवाह दप्प अकप्प निरालंब-चिअत्ते अप्पसत्थ-चीसत्थे । अपरिच्छि अकडजोगी निरणुत्तावी अ निस्संको ॥ ४२ ॥ व्याख्या-दर्प:-धावनडेपनादिः । तत्र धावनं निःकारणमतित्वरितमविश्राम गमनम , डेपनंगतवरण्डादीनां रयेणोल्लङ्घनम् । आदिशब्दात् मल्लवद् बाहुयुद्धकरण-लकुटादिभ्रमण-वल्गनादिग्रहः १। अकल्पः-अपरिणतपृथ्वीकायादिग्रहणानन्तकाय-बहुबीज-प्रतिषिद्धसचित्तफलाद्यभ्यवहारादिः अनधीतपिण्डेषणाध्ययनसाध्वानीतोपधिशय्याापभोगादिर्वा २। निरालम्बो-ज्ञानाद्यलम्बनं विनाप निःकारणमकल्पिकासेवनकारी । यद्वा-अमुकेनामुकमाचरितमतोऽहमप्याचरामीति ३ । ' चियत्ते 'त्ति । त्यक्तकृत्यः-त्यक्तचारित्रः, अपवदिनासंस्तरे ग्लानादिकारणे वा यदकल्प्यमासेवितं पुनस्तदेव संस्तरेऽपि निवृत्तरोगोऽप्यासेवते । ४ । अप्रशस्तः-अप्रशस्तेन भावेन कामादिवृद्धचाद्यर्थं कल्प्यमपि भुञ्जानः किं पुनरकल्प्यम् ५। विश्वस्तः-प्राणातिपाताद्यकृत्यं सेवमानः स्वपक्षतः - साधुश्रावकादेः परपक्षतोमिथ्यादृष्टयादेन बिभेति । यद्वा-अकृत्यं सेवमानः संसारादभीरुर्वा विश्वस्तः ६ । 'अपरिच्छि 'त्ति। अपरीक्षी-युक्तायुक्तविवेकविकलः , यद्वा-उत्सर्गापवादयोरायव्ययावनालोच्य प्रतिसेवनाकारी ७ । अकृतयोगी-अगीतार्थों ग्लानादिकार्ये त्रीन् वारान् कल्प्यमेषणीयं वाऽपरिभाव्य प्रथमवेलायामेव यथा तथाऽकल्प्यानेषणीयग्राही ८ । 'निरणुत्तावी अ'त्ति । निरनुतापी-अपश्चात्तापी योऽपवादेनोप्यकृत्यं कृत्वा नानुतप्यते, यथा मया दुःकृत कृतमिति, यस्तु दर्पणासेव्य नानुतप्यते किं तस्योच्यते ? ९ । निःशङ्को-निरपेक्षः अकार्य कुर्वन् कस्याप्याचार्यादेर्न शङ्कते, नेहलोकस्यापि बिभेतीत्यर्थः । यद्वा-निश्शङ्को-निर्दय इहपरलोकापायशङ्कारहितः १० । एवं दर्पाकल्पयोः सप्तमीयोगादर्षे ऽकल्पे च सति, निरालम्बादिषु त्वाधारे आधेयोपचाराच्च । अयमर्थः-आधारे-प्रतिसेवावति पुरुषे आधेयोपचाराचचषापि दशधा प्रतिसेवा भवतीति गाथार्थः ।। ४२ ॥ अथ प्रतिसेवनापदेषु प्रभूतेष्वेकमप्यनालोचितं महतेऽनर्थाय भवतीति । तथा च श्रीभगवद्वचः पायच्छित्तस्स ठाणाई संखाइयाई गोयमा !। अणालोइअं तु इकपि ससल्लं मरणं मरइ ॥ ४३ ॥ य व्याख्या-प्रायश्चित्तमतिचारविशुद्धयर्थं गुरुदत्तं तपः, तस्य स्थानानि-अतिचारा येषु प्रायश्चित्तं दीयत इत्यर्थः । सङ्घयातीतानि सन्तीति भगवान् वीरः श्रीगौतमं प्रति प्राहेतिसम्बन्धः । 'अणालोइयं __ 2010_05 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधा प्रायश्चित्तम् तु इकपि 'त्ति । इहाऽग्रतश्च विभक्तिव्यत्ययः प्राकृतत्वात् । तुशब्दः पुनरर्थे । ततस्तु-पुनरनालोचितेनैकेनापि प्रायश्चित्तस्थानेन सशल्येन मरणेन म्रियते-सशल्य एव म्रियते इत्यर्थः ॥ ४३ ॥ अतः सम्यगालोच्य यत् कार्य तदाह ता तस्स पायच्छित्तं जं मग्गविऊ गुरू उवइसति । तं तह आयरियव्वं अणवत्थपसंगभीएणं ॥ ४४ ॥ व्याख्या-'त 'त्ति, यत एवं ततस्तस्यापराधस्य प्रायश्चित्त-तपः 'जं'ति । यत-यावन्मानं 'मग्गविऊ 'त्ति, मार्गविदः । तत्र मागों द्विधा द्रव्यतो भावतश्च । द्रव्यतो नगरप्रामादिपन्थाः मावतस्तु मोक्षमार्गः । स च द्विधा-श्रुतरूपश्चारित्ररूपश्च । अत्र तु भावमार्गेणाधिकारस्तस्य विदः-श्रुतवन्तः क्रियावन्तश्चेत्यर्थः । 'गुरू'त्ति, गुरव उपदिशन्ति-कथयन्ति, तत् प्रायश्चित्तं तथा-गुरुदत्तप्रकारेणाचरितव्यंकर्त्तव्यं साध्वादिनाऽऽलोचकेनेति गम्यते, न तु प्रमादावहीलने कार्ये इत्यर्थः । कीदृशेन ? इत्याह' अनवस्थाप्रसङ्गभीतेन' तं दृष्ट्वाऽन्योऽपि तथा करोतोत्यनवस्थाप्रसङ्गः। यद्वा-अवस्थानमवस्था न अवस्था अनवस्था-अवस्थानाभाव इति यावत् । अयमर्थः-प्रथमं परिणामस्य तथाविधदारुणत्वाभावेनालोचनाईमपराधमासेव्य पश्चालज्जादिना गुरोः पुरतोऽनालोचकत्वेन परिणामदारुणत्ववृद्धथा प्रतिक्रमणाचं प्राप्नोति प्रायश्चित्तं, तावद्वाच्यं यावत् पोराश्चिकमपि प्राप्नोति । एवं प्रायश्चित्तेष्वनवस्थितिरूपति तस्याः प्रसङ्ग इति गाथार्थः ॥ ४४ ॥ लघुप्रायश्चित्तशोध्यं स्थानं भावविशेषाद् गुरुप्रायश्चित्तशोध्यं स्यात्तथा गुरुप्रायश्चित्तशोध्य भावविशेषाल्लघुप्रायश्चित्तशोध्यं भवतीति भावस्यैव प्रायश्चित्तापत्त्यविकलहेतुत्वज्ञापनार्थ प्रायश्चित्तापत्तिवैचित्र्यमाह जह मन्ने पढम सेविऊण निग्गच्छई उ चरिमेणं । तह मन्ने चरिमं सेविऊण निग्गच्छई पढमे ॥ ४५ ॥ व्याख्या-मन्ये-सम्भावये, यथा-येन पूर्वोक्तप्रकारेण प्रथम-प्रथमालोचनाप्रायश्चित्तशोध्यं पदमासेव्यातिसक्लिष्टाध्यवसायत्वाचरिमेण निर्गच्छति-पाराश्चिकप्रायश्चित्तेन शुद्धयतीत्यर्थः । तुशब्दादनवस्थाप्यादिमिरपि । तथा मन्ये, चरिमं-पाराश्चिकोचितं पदमासेव्य ज्ञानाद्यालम्वनमपेक्ष्य सम्यग यतनया प्रवृत्तत्वेन निग्गच्छइ 'पढमे'त्ति। प्रथमालोचनाप्रायश्चित्तेनैव शुद्धथतीति भावः । यस्मादेवं तस्माद्यद् गुरव उपदिशन्ति प्रायश्चित्तं तत्तथैव समाचरितव्यमनवस्थाप्रसङ्गादिदोषमीतेन जन्तुनेति पूर्वगाथया सह सम्बन्धः।। अथ प्रायश्चित्तभेदानाह तं दसविहमालोयण-पडिकमणोभय-विवेगमुस्सग्गे । तव-छेय-मूल-अणवहया य पारंचिए चेव ॥ ४६॥ व्याख्या-तं'ति । तत्-प्रस्तुतं प्रायश्चित्तं दशविध-दशप्रकारं भवतीतिक्रियासम्बन्धः। के ते दश प्रकारा ? इत्याह-'आलोयण 'त्ति । आलोचनम्-आ-मर्यादया ‘जह बालो जंपंतो' इत्यादि 2010_05 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजोतकल्पे रूपया लोचनं-गुरोः पुरतः प्रकाशनमालोचनं, वचसा प्रकटीकरणमिति भावः । तावन्मात्रेणैव यस्य पापस्य शुद्धिस्तदालोचनाह, तद्विशोधकं प्रायश्चित्तमुपचारादालोचनाहम् । एवं सर्वेष्वपि उपचारो दृष्टव्यः । १ । प्रतिक्रमणं-सहसाऽनुपयुक्तेन यदि श्लेष्मादि प्रक्षिप्तं भवति, न च हिंसादिकं दोषमोपन्न इत्यादिकमन्यदपि यत मिथ्यादुष्कृतमात्रेणैव शुद्ध यति, न गुरोः पुरत आलोच्यते तत् प्रतिक्रमणाम् ।२। उभयम्-आलोचनाप्रतिक्रमणरूपम् । यच्च प्रतिसेव्य गुरोः पुरत आलोच्यते गुरूपदेशेन च विशुद्धयर्थ मिथ्यादुष्कृतं दीयते तत् तदुभयाहम् । ३ । विवेकः-त्यागः, यस्य चानेषणीयादेः गृहीतभक्तपानादेविधिना परित्यागेनैव शुद्धिस्तद्विवेकाईम् । ४ । व्युत्सर्गः-कायोत्सर्गः, यस्तु कायचेष्टानिरोधरूपकायोत्सर्गोपयोगमात्रणेव दुःस्वप्नादिकमिव शुद्धथति तद् व्युत्सर्गाहम् । ५ । तपः, यत्र प्रतिसेविते निर्विकृत्यादि षण्मासिकान्तं तपो दीयते तत् तपोऽहम् । ६ । छेदः, यथा शेषाङ्गरक्षार्थ व्याधिदूषितमङ्ग छिद्यते, एवं व्रतशेषपर्यायरक्षार्थमतिचारानुमानेन दूषितः पर्यायो यत्र छिद्यते तच्छेदाहम् । ७ । मूलं, यस्यां चासेवनायां सर्वपर्यायमपनीय पुनर्महाव्रतारोपणं क्रियते तन्मूलाहम् । ८ । अनवस्थाप्यः, यत्र प्रतिसेविते उपस्थापनाया अप्ययोग्यत्वेन यावदनाचीर्णविशिष्टतपास्तावदनवस्थाप्यः क्रियते, पश्चादाचीर्णतपाः पुनर्महाव्रतेषु स्थाप्यते तदनवस्थाप्यमेतदुपाध्यायादेर्भवति । ९ । पाराश्चिकः-लिङ्गक्षेत्रकालतपोमिबहिष्कृतस्तपसाऽपराधस्य पारंतीरमञ्चतीत्येवं साधुकारी ततो दीक्ष्यते यः स पाराश्ची, पाराच्येव पाराञ्चिकः । येन कर्मणा पाराञ्चिकः क्रियते, तत्पाराश्चिकाईम् । एतदाचार्यस्यैव भवति । १० । इत्यं तत्प्रायश्चित्तं दशधा भवतीति योग इति गाथार्थः ॥ ४६ ।। नन्विदानों प्रायश्चित्तं तदातारश्च न सन्त्येव, तत् कः कस्यालोचनां दास्यतीत्यादि ये केचनाविदितागमरहस्याः प्रतिपादयन्ति, तन्निरोकरणार्थमाह जो भणइ नत्थि इण्हिं पच्छित्तं तस्स दायगा वावि । सो कुव्वइ संसार जम्हा सुत्ते विणिहिट्ठं ॥४७॥ व्याख्या-यः कश्चित् क्लिष्टकमैवं ब्रवीति, यदुत-इदानीं प्रायश्चित्तं दोषशोधकतपोविशेषलक्षणं नास्ति, तत्प्रतिपादकग्रन्थाभावादिति । तथा तस्स दायगा वावित्ति, तस्य वा प्रायश्चित्तस्य दायकागीतार्थाश्चारित्रिणो गुरवोऽपि न सन्तीति । स उन्मार्गदेशकत्वादात्मनो दीर्घ संसारमेव करोति । यस्मात् सूत्रे-छेदग्रन्थलक्षणे निर्दिष्टं-भणिमिति गाथार्थः ।। ४७ ॥ किं तद् ? इत्याह सव्वंपि अ पच्छित्तं नवमे पुव्वंमि तइयवत्थुमि । तत्तोचिअ (विय ) निज्जूढं थेरेहिं सुविहिअहिअट्ठा ॥ ४८ ॥ व्याख्या-सर्वमपि-सकलसूक्ष्मबादरातिचारौचित्येनालोचनादि पाराश्चिकपर्यन्तं प्रायश्चित्तं तावन्नवमे प्रत्याख्याननामनि पूर्वे तत्रापि तृतीयवस्तुन्याप्तैरुक्तमभूदिति शेषः । ततोऽपि च-प्रायश्चित्तप्रतिपादकनवमपूर्वान्तर्गततृतीयवस्तुमध्यान् — नियूढं 'ति कल्पव्यवहारादिप्रन्थरूपतया समुद्धृतं स्थविरैः 2010_05 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारप्रकल्पादिसूत्राणां त्रिवर्षादिपर्यायलभ्यत्वम् श्रीभद्रबाहुस्वाम्यादिमिः । सुविहितहितार्थाय, शोभनं विहितं येषां ते सुविहिताः-संविग्नाः साधवस्तेषां कालवैषम्याद्धीयमानप्रज्ञाबलत्वेन पूर्वश्रुतस्य चकोनविंशति-वर्षपर्यायलभ्यत्वेन च नवमपूर्वोक्तप्रायश्चित्तावगमदूरस्थानां हितमल्पग्रन्थनिबद्धत्वेनाल्पपर्यायलभ्यत्वेन च तदर्थायेति । तदुक्तम्" तिवरिसपरियागस्स उ आयारपकप्पनाम अज्झयणं । चउवरिसस्स उ सम्मं सूअगडं नाम अंगंति ॥१॥ सकापववहारा संवच्छरपणगदिक्खियस्सेव । ठाणं समवाओ वि अ अंगेए अट्ठवासस्स ॥२॥ दसवासस्स विवाहो इकारसवासयस्स इमे उ । खुडिअविमाणमाई अझयणा पंच नायव्वा ।।३।। बारसवासस्स तहा अरुणुववायाइ पंच अज्झयणा । तेरसवासस्स तहा उटठाणसुआइया चउरो ॥४॥ चउदसवासस्स तहा आसी विसभावणं जिणा बिति । पन्नरसवासगस्स य दिट्ठीविसभावणं तह य ||५|| सोलसवासाईसु अ एगुत्तरवुढिएसु जहसंखं । चारणभावण-महसुविणभावणा तेअगनिसग्गा ॥६॥ एगूणवीसगस्स उ दिट्ठीवाओ दुवालसममंगं । संपुन्नवीसवरिसो अणुवाई सव्वसुत्तस्स ।।७।। जं केवलिणा भणियं केवलनाणेण तत्तओ नाउं । तस्सन्नहाविहाणे आणाभंगो महापावो" ॥८॥ (पञ्चव० ) इतिगाथार्थः ॥ ४८ ।। अत्रोदाहरणमाहबालाईणणुकंपा संखडिकरणंमि हो अगारीणं । ओमे अ बीअभत्तं रना दिनं जणवयस्स ॥ ४९ ॥ व्योख्या-यथेत्यस्योदाहरणोपन्यासार्थस्य गम्यत्वाद् यथा बालादीनां-बालकर्मकरादीनामुपरि अनुकम्पा-दया 'होइ 'त्ति । भवति, कस्मिन् ? संखडिकरणे, सङ्खडी-उत्सवविशेषस्तस्याः करणमुपचारात्तद्दिनमपि सङ्खडीकरणमुच्यते तस्मिन् । केषाम् ? अगारीणां-गृहस्थानामिति । अयमों-यथा सङ्खडोदिने भोजनस्य प्रहरत्रयोद्देशे सद्भावान् मैते बुभुक्षया विषीदन्त्वित्यनुकम्पया बालफर्मकरादीनामसौ गृहस्थः प्रथमालिकादि प्रयच्छति । पुनदृष्टान्तान्तरमाह-' ओमे 'त्ति, अवमे-दुर्भिक्षे बहुवार्षिके बीजानि च भक्तं च बीजभक्तमेकवद्भावः । राज्ञा सर्वमेव राज्यं मम जनपदायत्तमिति विचिन्त्य दापितं जनपदस्य-लोकस्य, 'तास्थ्यात् तदव्यपदेश' इतिन्यायात् । ततो लोकः सुस्थः सञ्जातः, पुनस्तेन राज्ञो द्विगुणत्रिगुणाद्यर्पितमिति । एवं पूर्वश्रुतयोग्यतामप्राप्तवतां शिष्याणां सुखावबोधाय स्थविरैः कल्पादयः समुद्धृता इतिगाथार्थः ।। ४९ ॥ ततः किमित्याह तंमि धरते अज्जवि तहायारे अ कह तुम भणसि ? । वुच्छिनं पच्छित्तं तदीया वा अवि अ वुत्तं ॥ ५० ॥ व्याख्या-तस्मिन्-प्रायश्चित्तप्रतिपादके कल्पादौ शास्त्रे अद्यापि धरति-अवतिष्ठमाने तथा तहातरि च-प्रायश्चित्तदातरि गीतार्थे चारित्रिणि गुरौ चावतिष्ठमाने कथं त्वं भणसि ? अत्यन्तासम्बद्धत्वान्नेदं वक्तुमपि उचितमितिभावः । अत्र त्वमित्येकवचनमर्हदाज्ञाविरोधकत्वेन तस्यानन्तसंसारिकत्वेन 2010_05 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकरूपे निन्द्यत्वमावेदयति । किं भणसि ? इत्याह-व्यवच्छिन्न प्रायश्चित्तं तदाता च गीतार्थादिगुणान्वितगुरुर्व्यवच्छिन्न इति । अभ्यैवार्थस्य ग्रन्थान्तरानुवादप्रदर्शनार्थमोह-'अपिचेत्युपन्यासे, उक्तं-प्रतिपादितं शास्त्रान्तर इति गम्य इतिगाथार्थः ।। ५० ।। तदेवाह अणवटुप्पो तवसा तवपारंची अ दुणि वुच्छिण्णा । चउदसपुव्वधरंमि धरति सेसा उ जा तित्थं ॥५१॥ __व्याख्या-तपसा कृत्वाऽनवस्थाप्यस्तपोऽनवस्थाप्यस्तथा तपःपाराश्चिकश्च एतौ द्वापि प्रायश्चित्तभेदी व्यवच्छिन्नौ। कस्मिन् पुरुष ? इत्याह-चतुर्दशपूर्वधरे श्रीभद्रबाहुस्वामिनि । शेषास्तु लिङ्गक्षेत्रकालानवस्थाप्यपाराश्चिका यावत्तो) धरन्ति -अनुव्रजन्ति भवन्तोत्यर्थः । यदि लिङ्गक्षेत्रकालानवस्थाप्यपाराश्चिका यावत्तीयं भवन्ति, तदालोचनादिप्रायश्चित्तानां यावत्तीथं भवमे किं वाच्यमितिभावः । अथ किञ्चिदनवस्थाप्य-पाराञ्चिकयोः स्वरूपं यतिजोतकल्पगाथाभिरेवोच्यते 'कोरइ अणवट्ठप्पा सो लिंगा खित्तकालओ तवओ। लिंगेण दव्वभावे भणिओ पव्वावणाणरिहो' । १। क्रियते तथाविधापराधकारित्वान् महाव्रतेषु लिङ्गे वा नावस्थाप्यत इत्यनवस्थाप्यः । म चतुर्द्धा-लिङ्गतः क्षेत्रतः कालतस्तपोविशेषतश्च । लिङ्गं द्विधा-द्रव्ये भावे च । तत्र द्रव्यलिङ्गं-रजोहरणादि, भावलिङ्ग-महाव्रतादि । अत्र चतुर्भङ्गो द्रव्यलिङ्गेन भावलिङ्गेन चानवस्थाप्य इत्येको भङ्गः । द्रव्यलिङ्गेनानवस्थाप्यो न भावलिङ्गनेति द्वितीयः । भावलिङ्गनानवस्थाप्यो न द्रव्यलिङ्गेनेति तृतीयः । उभाभ्यामपि नानवस्थाप्य इति चतुर्थः । इह द्रव्यलिङ्गेन भावलिङ्गेन चानवस्थाप्यः प्रवाजनानहाँ भणितः । लिङ्गानवस्थाप्यादि चातुर्विध्यमेव विवृण्वन्नाह ‘अप्पडिविरओसन्नो न भावलिंगारिहोणवट्ठप्पो । जो जत्थ जेण दूसइ पडिसिद्धो तत्थ सो खित्ते' । १ । अप्रतिविरतः-साधर्मिकान्यधार्मिकस्तैन्यात् प्रदुष्टचित्तत्वेनानिवृत्तः स्वपक्षपरपक्षप्रहरणोद्यतो निरपेक्षोऽनुपशान्तवैरो यः स द्रव्यभावलिङ्गाभ्यामनवस्थाप्यः प्रथमभङ्गवर्ती क्रियते । अष्टाङ्गनिमित्ताद्यर्थदानप्रयोक्ताऽवसन्नोदिकस्तत्तदोषानिवृत्तौ न भावलिङ्गाहः । अयं भावः-स द्रव्यालङ्गी भवति, न भावलिङ्गमहति । भावलिङ्गमपेक्ष्यानवस्थाप्यः तृतीयभङ्गवर्ती भवतीत्यर्थः । द्वितीय-चतुर्थभङ्गो पुनर्न सम्भवत इति । क्षेत्रतोऽनवस्थाप्यो यो यत्र क्षेत्रे येन कर्मणा दूष्यते स तद्दोषकरणनिवृत्तोऽपि तत्र क्षेत्र प्रतिषिद्धः-महाव्रतेषु स्थापने निराकृतः-यथार्थादानकारी तत्रैव क्षेत्रे महाव्रतेषु न स्थाप्यते । यतः पूर्वाम्यासात्तं लोको निमित्तं पृच्छेत् स वा तं निमित्तज्ञानजमृद्धिगौरवं सोढुमक्षमः कदाचित् कथयेत , ततोऽन्यत्र नीत्वोपस्थाप्यः । उत्तमार्थप्रतिपन्नस्य पुनस्तत्रापि-स्वस्थानेऽपि स्थितस्य महाव्रतारोपः कार्य एव । उक्तौ लिङ्गक्षेत्रानवस्थाप्यौ । कालतपोऽनवस्थाप्यावाह जत्तियमित्तं कालं तवसा उ जहण्णएण छम्मासा । संवच्छरमुक्कोसं आसायइ जो जिणाईणं । १। यो यावन्तं कालं दोषान्नोपरमते स तावन्तं कालमनवस्थाप्यः क्रियते । तपसा त्वनवस्थाप्यो 2010_05 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपसाऽनवस्थाप्यस्वरूपम् द्विधा-आशातनाऽनवस्थाप्यः प्रतिसेवनाऽनवस्थाप्यश्च । तत्र जिनादीनां-तीर्थकर-सङ्घ-श्रुता-ऽऽचार्यमहद्धिक-गणधराणामाशातनां यः कुर्यात् , यथा-तीर्थकरैः सर्वोपायकुशलरपि गृहवासत्यागादिकाऽतिकर्कशा देशना कृता, यदि गृहवासो न श्रेयान् ततः किमिति स्वयं गृहवासे वसन्ति स्म भोगांश्च भुक्तवन्त ? इत्येवं तीर्थकृतोऽधिक्षिपेत् सङ्घ च दृष्ट्वाऽवज्ञया वदेत्-हुं हुं दृष्टा मयाऽरण्येऽपि सङ्काः शृगालश्वान-वृक-चित्रकादीनामिति । श्रुतं चैवमधिक्षिपति यथा 'काया वया य तेञ्चिय पुणोवि ते चिय पमाय-अपमाया । मोक्खस्स देसणाए जोइसजोणीहि किं कज ? ॥ १॥ आचार्य जात्यादिभिरधिक्षिपति । महर्धिकांग्ध, गणभृतो गौतमादयः । यो वा यस्मिन् युगे प्रधानभूतास्तान ऋद्धि-रस-सातगौरवप्रसक्ताः कथका इव लोकावर्जनोद्यता एते इत्यादिवाक्यैरधिक्षिपति । स आशातनाकारित्वादाशातनातपोऽनवस्थाप्यः । म जघन्येन षण्मासानुत्कषतः संवत्सरं यावत्तपः कुर्वन् कर्त्तव्यः । तावता च तपसा क्षपिताशातनाजनितकर्मत्वात्तदूर्ध्व महाव्रतेषु स्थाप्यते । प्रतिसेवनानवस्थाप्यमाह 'वासं बारस वासा पडिसेवी कारणाउ सम्वोवि। थोवं थोवयरं वा वहिज्ज मुंचिज्ज वा सव्वं ॥१॥ प्रतिसेवी-प्रतिसेवनानवस्थाप्यः साधर्मिकाऽन्यधोमिकस्तैन्याभ्यां परमरणभयनिरपेक्षयष्टिमुष्टिलकुडादिप्रहारप्रदानलक्षणहस्ततालादिभिश्च भवति । स च जघन्यतो वर्षमुत्कर्षतो द्वादशवर्षाणि तदनन्तरं प्रतेषु स्थाप्यते । स चानवस्थाप्यः संहननादिगुणयुक्त एव क्रियते, अन्यस्य तु मूलमेव दीयते । तथा चोक्तम्'संघयणवीरिय आगम सुत्तत्यविहीइ जो समग्गो य । तवसी निग्गहजुत्तो पवयणसारे अ गहिअत्थो ।। तिलतुसतिभागमित्तो वि जस्स असुहो न विजई भावो। निजूहणारिहो सो सेसे निजूहणा नत्थि ।।२।। ___एय गुणसंपउत्तो पावइ अणवट्ठ मुत्तमगुणोहो । एअ गुणविप्पहीणे तारिसगंमी भवे मूल ' ॥३॥ तवसी-तपश्चरणवान् निग्गहजुत्तो-जितेन्द्रियः निज्जूहणारिहो-गच्छात पृथक्करणाहः । अपवादतस्त्व. नन्यसाध्यकुलगणसङ्घकार्यकारीत्यतः कारणान् सर्वोऽपि-द्विप्रकारोऽपि आशातनानवस्थाप्य-प्रतिसेवनानवस्थाप्यलक्षणस्तत्तपो न कारयेदित्यर्थः । यस्त्वनवस्थाप्यतपः प्रतिपद्यते तद्विधिमाह 'वंदइ न य वंदिजइ परिहारतवं सुदुच्चरं चरइ । संवासो से कप्पइ नालवणाईणि सेसोणि' ॥ १ ॥ अनवस्थाप्यतपश्चरणकरणकालं यावत् स्वगण गीतार्थे निक्षिप्याचार्य उपाध्याये वा प्रशस्तेषु द्रव्यक्षेत्रकालभावेषु स्वातिचारं प्रकाशयति, तदनन्तरं तस्मिन् जघन्येन मासमुत्कर्षतः षण्मासोदिकमनवस्थाप्यतपः प्रतिपद्यमाने आलोचनादायकः कार्योत्सर्ग करोति ।। _ 'एअस्स आयरिअस अणवटुप्पतवस्स निरुवसग्गनिमित्तं ठामि काउस्सग्गं अन्नत्थ उससीएण 'मित्यादि 'वोसिरामी 'तियावत् । चतुर्विशतिस्तवमनुचिन्त्य पारयित्वा चतुर्विशतिस्तवमुच्चार्याऽऽचार्यों वक्ति 'एस तवं पडिवज्जइ न किंचि आलवह मा य आलवहा । अत्तचिंतगस्स उ वाघाओ भे न कायव्वो' ॥१॥ एष युष्मानालापयिष्यति, युष्माभिरप्येष नालाप्यः। सूत्रार्थों शरीरवाता वा न प्रक्ष्यति, युष्माभिरपि न प्रष्टव्यः । खेलमल्लकमात्रादिकं वा नाऽस्य ग्राह्यमर्पणीयं वा । उपकरणं परस्परं 2010_05 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे न प्रतिलेख्यम् । भक्तपानं परस्परं न ग्राह्यम् । सङ्घोटकेऽस्य न मिलनीयम् । अनेन सहैकमण्डल्यां न भोक्तव्यम् । किमप्यनेन सार्धं न कार्य कार्यमिति । अधुना गाथाक्षरार्थः-प्रतिपन्नानवस्थाप्यतपाः शक्षादीनपि वन्दते, न चासौ वन्द्यते । परिहारतपश्च-परिहारिकसाधूनां तपः ग्रीष्मे चतुर्थषष्ठाष्टमानि, शिशिरे षष्ठोष्टमदशमानि, वर्षास्वष्टमदशमद्वादशानि जघन्यमध्यमोत्कृष्टानि । पारणके च निर्लेपभक्तमित्येवरूपं सुदुश्चरं तपश्चरति । संवासो-सह वासो गच्छेनास्यकक्षेत्रे एकोपाश्रये एकस्मिन् पार्श्व शेषसाध्वपरिभोग्यप्रदेशे कल्पते, नाऽऽलपनादीनि शेषाणीत्येष सक्षेपतोऽनवस्थाप्यविधिः । उक्तमनवस्थाप्याई, साम्प्रतं पाराश्चिकमाह तित्थयर-पवयण-सुअं आयरिअंगणहरं महड्ढीयं । आसायंतो बहुसो अभिनिवेसेण पारंची ॥ १॥ तीर्थकरादीनाशातयन्-हीलयन्नाशातनापाराश्चिको भवति । प्रतिसेवनापाराश्चिकमाह जो उसलिंगे दुरो कसायविसएहिं रायवहगो य । रायग्गमहिसिपडिसेवओ य बहुसो पगासो उ ॥ १ ॥ इह प्रतिसेवनापाराश्चिकनिधा-दुष्टो मूढोऽन्योऽन्यं कुर्वाणश्च । तत्र दुष्टो द्विधा-कषायतो विषयतश्च । पुनरेकैको द्विधा-स्वपक्षे-श्रमणश्रमणीरूपे परपक्षे-गृहस्थेऽन्यतीर्थे वा । अत्र च स्वपक्षपरपक्षाभ्यां कषायविषयदुष्टयोश्चत्वारश्चत्वारो भङ्गाः पूर्ववदवसेयाः। स्वपक्षकषायदुष्टयोरुदाहरणानि शास्त्रान्तरतोऽवसेयानि । परपक्षयोस्त्वाह- रायवहगो अ 'त्ति । परपक्षकषायदुष्टस्तु राजवधक -उदायिनृपमारकवत् । परपक्षविषयदुष्टस्तु बहुशः-पौनःपुन्येन प्रकाशो-लोकतः विदितः राजाग्रमहिषीप्रतिसेवकः, अग्रमहिषीग्रहणादन्यापि राज्ञो या काचिदिष्टा तत्सेवकश्च, चशब्दाद् युवराजसेनापत्याद्यग्रमहिषीसेवकश्च द्वावप्येतौ लिङ्गपाराश्विको । उक्तो दुष्टपाराश्चिकः । मूढः-प्रमत्तः, स तु पञ्चधा-कषायविषय-मद्य-न्द्रिय-निद्राख्यैः प्रमादभेदैविस्तरेणाऽऽख्येयः । अन्योऽन्यं-पुरुषः पुरुषान्तरेण मैथुनाऽऽसे. वायां प्रसक्तोऽन्योऽन्यं कुर्वाणः । एवं प्रकारः पाराश्चिकः क्रियत इत्यर्थः । एतदेवाह सो कीरइ पारंची य लिंगाओ खित्तकालओ तवओ । संपागडपडिसेवी लिंगाओ थीणगिद्धी अ ॥ ५ ॥ पाराश्चिकश्चतुर्द्धा-लिङ्गतः क्षेत्रतः कालतस्तपोविशेषतश्च । अत्रापि द्रव्यभावलिङ्गाभ्यां चतुर्भङ्गी पूर्ववत् ज्ञेयो । तत्र सम्प्रकटप्रतिसेवी राजाप्रमहिष्यादिसेवकः स्त्यानर्द्धिमांश्च, चशब्दादन्योऽन्यासेवनाप्रसक्तो राजवधकश्च लिङ्गतः पाराश्चिको-द्रव्यभावलिङ्गाभ्यां पाराश्चिकः क्रियत इत्यर्थः । क्षेत्रपाराश्चिकं गाथाद्वयेनाह वसहिनिवेसणपाडगसाहिनिओगपुरदेसरज्जाओ। खित्ताओ पारंची कुलगणसंघालयाओ वा ।।१।। जत्थुप्पन्नो दोसो उप्पज्जिस्सइ य जत्थ नाऊणं । तत्तो तत्तो कीरइ खित्ताओ खित्तपारंची ।।२।। वसतिः-प्रस्तावाद् ग्रामः, निवेशनम्-एकनिर्गमप्रवेशद्वारो प्रामयोरन्तराले द्वयादिगृहाणां संनिवेशः, एवविधस्वरूप एव ग्रामान्तर्गतः पाटकः, साही-शाखास्वरूपेण श्रेणिक्रमेण स्थिता गृहाणामेकतः परिपाटिः, नियोगपुरं-निश्चिता योगा- दिनकृत्यव्योपारा यस्य स नियोगो-राजा तस्य पुरं-राजधानी, देशो-जनपदः, राज्य-राष्ट्र यावत्सु देशेष्वेकभूपतेराज्ञा तावद्देशप्रमाणम् । एषां द्वन्द्वस्तस्मात्क्षेत्रात् पाराचिकः कुलगणसङ्घालयाद्वा-कुलगणसङ्घाः प्रतीतास्तेषामा-सामस्त्येन यत्र क्षेत्रे लयनं-मिलनं तस्माद्वा । यत्र क्षेत्रे वसति 2010_05 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालतपःपाराञ्चिकस्वरूपम् निवेशनादिके उत्पन्नो दोषः पाराश्चिककारी, उत्पत्स्यते वा यत्र तिष्ठतो दोषस्तज्ज्ञात्वा ततस्ततः क्षेत्रात क्षेत्रपाराश्चिकः क्रियते । कालतपःपाराश्चिकावाह'जत्तिअमित्तं कालं तवसा पारंचिअस्स वि स एव । कोलो दुविगप्पस्स वि अणवटुप्पस्स जो भणिओ' ॥ १ ॥ ‘सूचकत्वात सूत्रस्य' यो यावन्तं कालमुपशान्तदोषोऽनुपरतपाराचिकापत्तिहेत्वतिचारः स सावन्तं कालं कालपाराश्चिकः । तपसा पारात्रिको द्विविधः-आशातनापाराश्चिकः प्रतिसेवनापाराश्चिकश्च । आद्यः प्रागुक्तरूपः । प्रतिसेवनापाराश्चिकस्त्रिधा-दुष्टः प्रमत्तोऽन्योऽन्यं कुर्वाणश्च । तपःपारानिकस्य द्विविकल्पस्यापि स एव कालस्तावत्प्रमाणः समयो यः पूर्वमनवस्थाप्यस्यामिहितः। तस्य चेयं योजना-आशातनातपःपाराश्चिकस्य जघन्येन षण्मासा उत्कर्षेण वर्ष, प्रतिसेवनापाराश्चिकस्य तु जघन्येन वर्षमुत्कर्षतो द्वादश वर्षाणि । तथा पाराश्चिकमप्यनवस्थाप्यमिव संहननादिगुणवत एव दीयते । तपोऽपि परिहारिकाऽऽख्यमनवस्थाप्यस्येव पाराश्चिकस्यापि भवतीत्यलं प्रसङ्गेनेति । नोदकः प्राह-यद्यस्ति प्रायश्चित्तं ततः कस्मात् केचित् कुर्वन्तो न दृश्यन्ते ? । सूरिराह-उपायेन कुवन्ति, ततो न दृश्यन्ते । तथाचात्र धनिकेन सद्विभवोऽसद्विभवाभ्यां धारकाभ्यामधमर्णाम्यां च दृष्टान्तः । एतदेव ब्यवहारभाष्यगाथामिः स्पष्टतरमुच्यते___ 'संतविभवो उ जाहे मग्गिओ ताहे देइ तं सव्वं । जो पुण असंतविभवो तत्थ विसेसो इमो होइ' ॥ १॥ धनिकस्य द्वौ धारको सम्भवतस्तद्यथा-सद्विभवोऽसद्विभवश्च । तत्र यः सद्विभवः स यदेव याच्यते तदेव तत्सर्व दातव्यं ददाति । यः पुनरसद्विभवस्तत्रायं वक्ष्यमाणो विशेषो भवति । तमेवाह'निरविक्खो तिण्णि चयइ अप्पाण धणागमं च धारणगं । साविक्खो पुण रक्खइ अपाण धणं च धारणगं' ॥१॥ धनिको द्विधा-सापेक्षो नाम यो धारकादसद्विभवाद् धनमुपायेन गृहाति, निरपेक्षः कर्कशग्रहेण धनग्राही । तत्र निरपेक्षस्त्रीणि त्यजति । तद्यथा-आत्मानं धनागमं धारकं च । सापेक्षः पुनस्रोण्यपि रक्षति । कथमित्याह 'जो उ असंते विभवे पाए चित्तण पडइ पाडेणं । सो अपाण धणंपि अ धारणगं चेव नासेइ' ॥ १॥ यो धनिको निरपेक्षोऽसद्विभवस्य पादौ गृहीत्वाऽऽत्मीयपदेन सह बद्ध्वा पातेन पतति. स आत्मानं धनं धारकं च नाशयति । यतः स तथा क्लिश्यमानो धनिकं जीविताद्वयपरोपयेत् । यदिवाऽऽमानं विनाशयेत् । यद्वोभयमपि ततस्त्रयस्यापि विनाशः 'जो पुण सहई कालं सो अत्थं लभइ रक्खए तं च । न किलिस्सई सयपिअ एव उवाओ उ सव्वत्थ' यः पुनर्धनिको धारकमसद्विभवं ज्ञात्वोपायेनास्माद्धनमुपादेयमिति विचिन्त्य वक्ष्यमाणप्रकारेण कालं सहते, सोऽयं लभते, तं च धारकं रक्षति, न च स्वयमपि क्लिश्यति । एवमुपायः पुरुषेण सर्वत्र कर्तव्यः । 'जो उ धारिज वड्ढतं असंतविभवो सयं । कुणमाणो उ कम्मं तु निव्विसे करिसावणं ।।१।। अणमप्पेण कालेणं सो तगं तु विमोयए। दिळंतो सो भणिओ अत्थोवणओ इमो तस्स ॥२॥ यो धारको रूपकशतं दातव्यं धनिकानुमत्या प्रतिमासं चैकककाकिनीवृद्धया वर्धमानं धारयति-ददातीति 2010_05 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे यावत् । स्वयं वाऽसद्विभवो धनिकस्य गृहे कर्म कुर्वन् कार्षापणं निवेशयति-धनिकस्य प्रवेशयति । सोऽल्पेन कालेन तकत् ऋणं मोचयति । एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयस्तस्य_' संत-विभवेहिं तुल्ला धिइसंघयणेहिं जे उ संपन्ना । ते आवण्णं सव्वं वहंति निरणुमाहं धीरा' ॥ १॥ ये धृतिसंहननाम्यां सम्पन्ना-युक्ताः सद्विभवैस्तुल्यास्ते धीराः सर्वमापन्नप्रायश्चित्तमनुग्रहरहितं वहन्ति । ___संघयणधिईहीणा असंतविभवेहिं हुंति तुलाओ। निरविक्खो जइ तेसिं देइ तओ ते विणस्संति' ॥ १ ॥ ये पुनर्धतिसंहननाभ्यां हीनास्ते असद्विभवैस्तुल्यास्तेषां यदि निरपेक्षः सन् निरवशेष प्रायश्चित्तं ददाति, ततस्ते विनश्यन्ति । तत् प्रायश्चित्तं निरव शेषं वोढुमशक्नुवन्तस्तपसा कृशीकृता जीवितादपगच्छेयुः। 'ते तेण परिचत्ता लिंगविवेगं तु काउं वच्चंति। तित्थुच्छेओ अप्पा एगाणिअ (गिअ) तेण चत्तो य।' ___ यदि वा ते प्रायश्चित्तभग्ना लिङ्गविवेकं कृत्वा व्रजन्ति । ततस्तेन निरव शेषप्रायश्चित्तदात्रा परित्यक्ताः। यथैवमेके एवमन्येप्येवमपरेऽपि ततः सर्वसाधुव्यपगमतस्तीर्थस्योच्छेदः तथा तेनाऽऽचार्येण निरवशेष प्रायश्चित्तं साधूनां ददता प्रायश्चित्तभग्नभयात् साधूनामपगमत आत्मा एकाकीकृतः, एकाकीतया च त्यक्तः चशब्दाद्गच्छोऽपि त्यक्तस्तथाहि-साधूनामपगमे बालवृद्धग्लानादीनामुपग्रहेऽपि न कोऽपि वर्तते, ततस्तेन तत्त्वतस्तेऽपि परित्यक्ताः । गथा धनिकेनीपायवता शनैः शनैरसद्विभवाद्धारकाद्धनं गृहीतं नैकोऽपि क्लेशमापन्न एवमालोचका अपि धृतिसहननादिहीना महत्यामपि प्रायश्चित्तापत्तौ सान्तरदानाद्यनुग्रहवता तपसि प्रवर्तिता न क्लेशमनुभवन्तोत्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ ५१ ।। उक्तं किमालोचनीयमिति दशमं द्वोरम् । अथ क्रमप्राप्तमपि प्रायश्चित्तद्वारं बहुवक्तव्यत्वादुल्लथाल्पवक्तव्यत्वात् पूर्व फलद्वारमाह आयरिअपायमूले इअ जो पयडेइ अत्तणो दोसे। सो जइ न जाइ मुक्खं अवस्स वेमाणिओ होइ ॥ ५२ ॥ जओ व्याख्या-आचार्याणां-पूर्वव्यावर्णितगुणानां पादमूले-चरणान्तिके यः-कश्चिद् जातिकुलविनयोपशमादिगुणालङ्कृतः सन् । इति-पूर्वोक्तप्रकारेण गुरुगुणानालोचनाविधिं चावबुध्य प्रकटयतिनिर्मायतया सम्यक् प्रकाशयति आत्मनः-स्वस्य दोषानपराधान् , न पुनः परस्य, अपरापराधप्रकाशनस्य हि नूतनकर्मबन्धनिबन्धनत्वेन स्वस्य प्रचुरतरसंसाराभिवृद्धेरितिभावः । स किं प्राप्नोति ? इत्याह-स-पूर्वोदितगुण आलोचको यदि-कथश्चित्कालादिवैषम्यान्न याति-न गच्छति मोक्षमपवर्ग, तथापीत्यध्याहियते, अवश्यंनिश्चितं वैमानिको-विमानवासी सुरो भवति । भवनपत्यादिषु तस्य गमनप्रतिषेधादिति गाथार्थः ।। ५२ ।। एतदेवाहदुक्तत्वज्ञापनपूर्वं दृढयति । जओ 'त्ति । यत इति पूर्वोक्तार्थहेत्वर्थे, तमेवाह अविराहिअसामण्णस्स साहूणो सावगस्स य जहण्णो । सोहम्मे उववाओ मणिओ तेलुक्कदंसीहिं ॥ ५३॥ 2010_05 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राधावेधकथा ३३ व्याख्या-अविराधितश्रामण्यस्य-प्रकरणादालोचितातिचारत्वादिना न विराधितं-सम्यगनुपालितं श्रामण्य-देशविरति-सर्वविरतिरूपं चारित्रं येन तस्य, सम्यगनालोचकस्यानाराधकतायाः प्राग बहुशः प्रतिपादितत्वात् । एवम्भूतस्य साधोः श्रावकस्य च जघन्यः सौधर्म-प्रथमदेवलोके उपपात-उत्पत्तिर्भणित:प्रतिपादितस्रलोक्यदर्शिमिनिजामलकेवलालोकावलोकिताशेषपदार्थस्तीर्थकृद्भिरिति गाथार्थः ॥ ५३ ॥ फलमेव प्रकारान्तरेणाह उद्धरियसव्वसल्लो मतपरिणाइ धणियमाउत्तो । मरणाराहणजुत्तो चंदगविज्झ समाणेइ ॥ ५४ ॥ व्याख्या-उद्धृतसर्वशल्यो भक्तपरिज्ञायां-भक्तप्रत्याख्याने धनितम्-अत्यर्थमायुक्तः-प्रयत्नपरः मरणाराधनयुक्त-आलोचितातिचारादिवत्त्वेन कृतपण्डितमरणः, स एवंविधो महासाहसोपायाभिज्ञत्वादिगुणवान् चन्द्रकवेध्यं-राधावेधं समानयति-करोतीत्यर्थः । अत्र च राधोवेधकथानकमावश्यकान्तर्गताम्यां गाथाम्यां ज्ञेयं यथा ___ 'इंदपुर इंददत्ते बावीस सुआ सुरिंददत्ते य । महुराए जिअसत्तू सयंवरो निव्वुईए उ ॥ १ ॥ अग्गियए पव्वयए बहुली तह सागरे अ बोद्धव्वे । एगदिवसेण जाया तत्थेव सुरिंददत्ते य' ॥२॥ इति योगसमहंगाथाम्यां समवसेयम् । सक्षेपतस्तच्चेदम्-इन्द्रपुर नगरं तत्रेन्द्रदत्तो नाम राजा। तस्येष्टदेवीना द्वाविंशतिः पुत्राः। तथा तेन राजकाऽमात्यसुता परिणीता । सा च कर्मवशतः परिणयनसमय एव दृष्टा, न परतः । एकदा पुरान्तर्गच्छता दृष्टा साऽमात्यगेहस्था । पृष्टं च केयमिति परिजनेनोक्तं युष्मद्देवीति । ततस्तं वासकं राजा तद्गृहेऽवतस्थौ। तदा च सा ऋतुमसीत्वेन गर्म दधौ। स वृत्तान्तोऽमात्यस्याग्रे कथितो तया । तस्यां रात्रौ राज्ञा यदुक्तं यत्कृतं च तत्सर्नममात्येनाभिज्ञानपूरणाय पत्रे लिखितं । कालेन पुत्रो जातः सुरेन्द्रदत्तो नाम । चत्वारश्च दासीपुत्राः सहजातो अग्निकपर्वतक-बाहुलिक-सागरास्तस्य मित्राणि । द्वाविंशतिस्ते पुत्राः सुरेन्द्रदत्तश्च मित्रपरिवृतः कलाचार्यसमीपे कलाः पठन्ति । स्खलने कलाचार्यस्ताडयति । द्वाविंशतिरपि स्वस्वमातुरने कथयन्ति । ताः कलाचार्यस्योपालम्भं ददति । सुरेन्द्रदत्तकथने त्वमात्यसुता प्रत्युत प्रेरयति । ततस्त्रयोविंशत्यापि राधाक्षः शिक्षितः। इतश्च मथुरानगयीं जितशत्रुराज्ञो ‘यः कश्चिद् राधावेधं साधयिष्यति तं परिणेष्यामी 'ति निश्चयवत्या निर्वतिकन्यायाः स्वयंवरमण्डपे त्रयोविंशतिपुत्रयुत इन्द्रदत्तः प्राप । अन्येऽपि भूयांसो राजानः स्वस्वपरिवारपरिवृता आजग्मुः। तत्र स्वस्वोचितस्थानेषूपाविशन् । एकतश्च नितिकन्या। ततश्चेन्द्रदत्तेनाऽऽद्यपुत्रः श्रीमालीनामा राधावेधाय भणितः। राधावेधो नाम एकस्मिन् भूभागे एको बृहत्तरस्तम्भः । तत्राष्टौ चक्राणि चत्वारि सृष्टया चत्वारि संहारेण च भ्रमन्ति । चक्रे चक्रे चाष्टो अष्टावक्षाः । तदुपरि चैका पुत्रिका । ततश्च भूमिस्थतलभृतभाजनामिमुखदृष्टिना पुरुषेण चक्राटकाक्षमध्येन भूत्वा पुत्रिका-वामाक्षितारिकावेधः क्रियते स राधावेधः । ततश्च तेन तथाविधाकृताभ्यासत्वेन वेपमानहस्तेन कथमपि गृहीतं धनुः मुक्तश्च शरो यद्भवति तद् भवत्विति विचिन्त्य प्रथमचक्र 2010_05 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ श्राद्धजीतकल्पे एव स्खलितः। एवं शेषेकविंशत्यापि न कृतो राधावेधः । ततश्च लज्जया राजोपहतमनास्तिष्ठति । ततश्चोमात्येनोक्तम्-यदेष त्रयोविंशो युष्मदङ्गजो जयपताकां ग्रहीष्यति । कथं मदङ्गज ? इति राज्ञोक्ते तान्यमिज्ञानानि दर्शयति । ततश्च सुरेन्द्रदत्तेन मित्रचतुष्टये विघ्नं कुर्वति द्वाविंशतौ कुमारेषु हसत्सु सुभटद्वयेऽसिव्यग्रहस्ते पार्श्वद्वयेऽवस्थिते कलाचार्ये बहुतरं निर्भर्त्सयति च तथाविधकृताभ्यासत्वेनान्यत्र कुत्रापि मनो अकुर्वता भूमिस्थतैलभृतभाजने प्रतिबिम्बिताष्टचक्राक्षाणि सुनिपुणं विलोक्य पुत्रिकावामाक्षि विद्धं हर्षकोलाहलश्चाजनि । अयमत्रोपनयः-यथा कुमारस्तथा साध्वादिः । यथा ते चत्वारि मित्राणि तथा कषायाः। यथा ते द्वाविंशतिः कुमारास्तथा परीषहाः । यथा तौ द्वौ सुभटौ तथा रागद्वेषौ । यथा पुत्रिकाक्षिवेध्यं तथाऽऽराधना । यथा निवृतिः कन्या तथा सिद्धिरिति गाथार्थः ।। ५४ ।। उक्तं द्वादशं प्रायश्चित्तफलद्वारम् । अथ पूर्वमुक्तमेकादशं प्रायश्चित्तद्वारम् । तत्र ज्ञानाचाचारपश्चकातिचारक्रमेण प्रायश्चित्तं प्रतिपादयिष्यते। तत्रादौ ज्ञानाशातनायामोधप्रायश्चित्तसाम्यादर्शनाचारातिचारान्तर्गतमुत्पाद्याशातनासु चौघप्रायश्चित्तमाह तणुमझुक्कोसासायणाइ मुणि-नाण-देव-गुरु-विवे । लहु-गुरु-चउलहु सुत्ते अत्थे गुरु-चउलहु-गुरुगा ॥ ५५ ॥ व्याख्या-वचनव्यत्ययात्तनुमध्योत्कृष्टाशातनाभिः-जघन्यमध्यमोत्कृष्टाभिराशातनाभिर्मुनि ज्ञानदेव-गुरु-बिम्बविषयाभिः 'लहु गुरु चउलहुत्ति । लघु-गुरु-चतुर्लघूनि क्रमेण लघुमास १ गुरुमासी चतुलघूनिध प्रायश्चित्तानि भवन्ति । तत्र मुनिः प्रवर्तकादिपदविवर्जितः संयतः, ज्ञान-श्रुतम् , देवोऽहन् , गुरु:-आचार्यादिः, बिम्बमहत्प्रतिमा । तेषु जघन्याशातनायां लघुमासः१ मध्यमाशातनायां गुरुमासी उत्कृष्टाशातनायां चतुर्लघुः प्रायश्चित्तं भवतीति भावार्थः । ज्ञान च सूत्रार्थभेदाद् द्वेधा । तत्र · सुत्ते 'त्ति। अपिशब्दस्य गम्यमानत्वात् सूत्रेऽपि-सूत्रविषयायां जघन्यमध्यमोत्कृष्टरूपायामाशातनायामपि 'लहु गुरु चउलहु 'त्तिपदस्य डमरुकमणिन्यायादत्रापि योगात् क्रमेण लघुमास-गुरुमास-चतुर्लघूनि प्रायश्चित्तानि भवन्ति । 'अत्थे 'ति । अर्थे तु अर्थविषयायां जघन्यमध्यमोत्कृष्टरूपायामाशातनायां 'गुरु चउलहु. गुरुग'त्ति । क्रमेण गुरुमासी चतुर्लघु चतुर्गुरूणिधी प्रायश्चित्तानि भवन्तीति गाथाक्षरार्थः ।। ५५ ॥ ___ अथ विभागतो ज्ञानाचारातिचारविषयं प्रायश्चित्तमुच्यते-स चाष्टविधस्तद्यथा-अकाले-अखाध्यायिकेऽनध्यायदिनेषु वा स्वाध्यायकरणं कालातिचारः १ । श्रुतमधिजिगांसोर्जात्यादिमदावलेपेन गुरुषु विनयो-वन्दनादिरुपचारस्तस्याऽप्रयोजनं हीलनं वा विनयातिचारः २ । श्रुते गुरौ वा बहुमानो-हार्दः प्रतिबन्धविशेषस्तस्याऽकरणं बहुमानातिचारः ३ । उपधानम्-आचाम्लादितपसा योगविधानं तस्याकरणमुपधानातिचारः ४ । यत्पाद्यं श्रुतमधीतं तं निहते-अपलपति, अन्यं वा युगप्रधानमात्मनोऽध्यापकं निर्दिशति, स्वयं वाऽधीतमित्याचष्टे । एष निवनाभिधानोऽतिचारः ५ । व्यज्यतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनम्-आगमसूत्रं तन्मात्राक्षरबिन्दुभिरूनमधिकं वा करोति, संस्कृतं वा विधत्ते, पर्यायैर्वाऽभिधत्ते । यथा-'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ 'मित्यादिस्थाने 'पुन्नं कल्लाणमुक्कोसं दया संवरनिज्जरे 'ति व्यअनातिचारः ६ । आगमपदार्थस्यान्यथापरिकल्पनमातिचारः। यथा आचारसूत्रेऽवन्त्यध्ययनमध्ये 2010_05 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टधा दर्शनातिचारः ‘ओवंती केयावंती लोगमि विपरामुसंती 'त्यत्राचारागसूत्रे यावन्तः केचन लोकेऽस्मिन् पोखण्डिलोके विपरामृशन्तीति प्रस्तुतेऽर्थेऽन्योऽर्थः परिकल्प्यते । यथा-अवन्ती जनपदे केया-रज्जुर्वातात कूपे पतिता तां लोकः स्पृशतीति ७ । यत्र च सूत्रार्थों द्वावपि विनाश्येते स तदुभयातिचारः। धम्मो मंगलमुक्ट्रो अहिंसा गिरिमत्थए । देवावि तस्स नस्संति जस्स धमे सया मसी ८ । अयं च महीयानतिचारो, यतः सूत्रार्थोभयनाशे चारित्रनाशस्तन्नाशे मोक्षाभावस्तदभावे दीक्षावैयर्थ्यमिति । एष चाष्टविधो ज्ञानातिचारः। तंत्र यथोहं प्रायश्चित्तमाह हीणक्खराइ लहु पुत्थियाइपाडण-पयाइथुक्काई । चउलहु गुरू अकालाइ निंदपडिणीययाईसु ॥ ५६ ।। व्याख्या- उच्चारस्याध्याहारात् हीनाक्षरोच्चारे, आदिशब्दादधिकाक्षरोच्चारे संस्कृतकरणे पर्यायैर्वाऽभिधाने व्यञ्जनातिचारे इतिभावः। लघुमासः १ प्रायश्चित्तं भवतीति सर्वत्र योज्यम् । तथा पुस्तिकादिपातने, आदिशब्दात् पट्टिका-पत्रटिप्पनीका-नमस्कारावल्यादिप्रहः ‘सूचकत्वात् सूत्रस्य' तत्र पादादिना स्पशने, निष्ठातादिनाऽक्षरमार्जने च चतुर्लघुः । तथा गुरुमासः प्रायश्चित्तं भवति । केषु ? इत्याह- अकालाइ' इत्यादि। अकालपठनादौ, आदिशब्दादध्यापकगुरुं प्रति विनयबहुमानाकरणे यथाईमुपधोनमन्तरेणैव सूत्राध्ययनेऽर्थस्यान्यथाकल्पने च ज्ञानस्य ज्ञानिनां वा निन्दायां प्रत्यनीकतायां चादिशब्दादुपघातकरणादिषु चेति । इदं च मध्यमापराधानाश्रित्य ज्ञेयम् । जघन्योत्कृष्टापराधेषु पुनर्लघु १ चतुलघुकेव भवत इति गाथार्थः ॥ ५६ ॥ अथ दर्शनाचारातिचारानुद्दिश्य प्रायश्चित्तमाह संकाइ मूढदिट्ठी पासत्थाईकुदिठिवच्छल्ले । संथव पसंस मिच्छप्पहावणा संजमथिरत्ते ॥ ५७ ।। तह संघाणुववृहाइसु देसे चउलहु-गुरुग सव्वे । गुरुग अ ममत्ताइसु लहु गुरु-चउलहु तिविहमिच्छे ॥५८॥ व्याख्या-दर्शनाचारातिचारोऽष्टधा । तद्यथा-शङ्का काक्षा विचिकित्सा मूढदृष्टिरुपबंहणा स्थिरीकरणं वात्सल्यं प्रभावना चेति । तत्र संशयकरणं शङ्का । सा द्विघा-देशतः सर्वतश्च । तत्र देशतस्तुल्येऽपि जीवत्वे कथमेके भव्या अपरे त्वभव्या ? इत्यादि । सर्वतम्तु प्राकृतभाषानिबद्धमिदं श्रुतं न ज्ञायते कि सर्वज्ञेन प्रणीतमाहोश्वित् कुशलमतिना केनापि परिकल्पितमिति । न पुनरेतद्विचारयति यथा-भावा हेतु. ग्राह्या अहेतुप्राह्याश्च । तत्र हेतुमाह्या जीवास्तित्वादयः, अहेतुमाह्या अस्मदाद्यपेक्षया भव्यत्वादयः , प्रकृष्टज्ञानगोचरत्वात्तद्धेतूनामिति । प्राकृतनिबन्धोऽपि बालादिसाधारणत्वात् । उक्तं च ____ 'बालस्त्रीमन्दमूर्खाणां नृणां चारित्रकाक्षिणाम् । अनुप्रहार्थं सर्वः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः । इतश्च न परिकल्पितो, दृष्टेष्टाविरुद्धत्वात् १ । अन्यान्यदर्शनग्रहणमाकाङ्क्षा । साऽपि देशतः एकं किञ्चित् कुतीर्थिकमतमाकाङ्क्षति । यथा-अस्मिन्नपि खल्वहिसैव धर्मो, मोक्षश्च फलमुच्यते । सर्वतः सर्वाणि 2010_05 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ शाक्या ऽऽजीवक- कपिल-बोटिको लूक - वेद - तापसादिकुमतान्याकाङ्क्षति, कृषीबल इव सर्वधान्यवपनानि कदाचित् किञ्चित् फलतीतिधिया २ । विचिकित्सा - आत्मनः फलं प्रत्यनाश्वासः । यथा - आसीत्तादृशानुष्ठायिनां पुरातनानां महासत्त्वानां मोक्षः, अस्मादृशां त्वस्नान केशलुञ्चनादिकं कष्टमेव मन्दसत्त्वत्वात क्व मोक्षसम्भव ? इति देशतः स्तोकोऽनाश्वासः । सर्वतस्तु सर्वथाऽनाश्वासः । यद्वा- विदक् ज्ञाने ' विदन्तीति क्विप तल्लोपे विदः - साधवस्तेषां जुगुप्सा विद्जुगुप्सा । देशतोऽहो ! मलदुर्गन्धा इमे मुनयो ष्णोदकेन स्नायुस्तदा को दोषः स्याद् ? इत्यादि । सर्वतस्तु मण्डल्यां नन्दिपात्रे मिथः संसृष्टभोजिनोऽमी । गुप्तिगृहवासिन इव मलीमसाङ्गवाससः प्रागदत्तदानत्वेनाऽऽजन्म भिक्षाचरा इत्यादि ३ । मूढदृष्टिःपरतीर्थिकानां बालतपस्वितपोविद्यामन्त्राद्यतिशयान् राजादिकृतां पूजां वा दृष्ट्वा तदागमाद्वा श्रुत्वा देशतः स्तोकान् मतिव्यामोहात्, सर्वतस्तु सर्वथा मूढा - स्वभावाच्चलिता दृष्टिः- सम्यग्दर्शनरूपा यस्यासौ मूढदृष्टिः । उक्तं च श्राद्धजीतकल्पे णेगविद्दा इड्ढीओ पूयं परवाइणं च दट्ठूणं । जस्स न मुज्झइ दिट्ठी अमूढदिट्ठि तयं बिंति ४ । उपबृंहा-प्रशंसा । सा ज्ञानदर्शनतपः संयमवेयावृत्त्याद्युद्यतानां समानधार्मिकाणां साध्वादीनां तत्तद्गुणप्रशंसनेन तदुत्साहवृद्धिहेतुः प्रशस्ता । यदुक्तम् ' खमणे वेयावच्चे विणए सज्झायमाइसु अ जुत्तं । जो तं पसंसए एस होइ उववूहणाविणओ' ॥ १ ॥ मिथ्यादृशां शाक्यचरकादीनां त्वप्रशस्ता ५ । स्थिरीकरणं - ज्ञानदर्शनसंयम तपोवैयावृत्त्यादिषु सीदतां समानधार्मिकसाध्वादीनां यथार्होपष्टम्भदानेन स्थैर्यहेतुः प्रशस्तम् । यदुक्तम् एएस चि खमणाइए सीयंत चोयणा जा उ । बहुदोसे माणुस्से मा सीय थिरीकरण मेयं || १ || ' खमणाइएसु 'त्ति । आदिशब्दाद्वैयावृत्त्यविनयस्वाध्यायादिषु । असंयमविषये पुनस्तद्प्रशस्तम् ६ । वात्सल्यं नाम आचार्य - ग्लान- प्राघुर्णक - तपस्वि - सेहा - ऽसह - बाल- वृद्धादीनामाहारोपध्यादिना समाधिसम्पादनं प्रशस्तम् । उक्तं च 'साहम्मिवच्छलं आहाराइसु होइ सव्वत्थ । आएस- गुरु- गिलाणे तवस्सि - बालाइसु विसेसो || १ | गृह - पार्श्वस्थापष्टम्भरूपं तु तदप्रशस्तम् ७ । प्रभावना नाम प्रभाव्यते - विशेषतः प्रकाश्यते इति प्रभावना ' णिवेत्त्यासश्रत्थे ' [ सिद्धम० | ५|३|१११ । ] त्यादिना भावे अनप्रत्ययः । सा चार्थात प्रवचनस्य सा प्रशस्ता । तत्र यद्यपि प्रवचनं शाश्वतत्वात्तीर्थकरभाषितत्वाद्वा सुरासुरनमस्कृतत्वात् स्वयमेव दीप्यते तथापि दर्शनशुद्धिमात्मनोऽमीप्सुर्यो येन गुणेनाधिकः स तेन तत्प्रवचनं प्रभावयति यथा - भगवदार्यवज्रस्वामिप्रभृतिकः । उक्तं च " , ‘ कामं सभावसिद्धं तु पवयणं दिप्पए सयं चेव । तहवि य जो जेणहिओ सो तेण पभावए तं तु ॥ १ ॥ ते प्रवचनप्रभावका अतिशय्यादयः । उक्तं च 6 अइसेसि - इड्ढि - धम्मकहि-वाइ - आयरिअ - खवग-नेमित्ती । विज्जा रायगणसंमया य तित्थं पभाविति ' ॥१॥ अस्या अक्षरगमनिका - अतिशयी - अवधि - मनः पर्यायज्ञानयुक्तोऽतिशाय्यध्ययनो वा १ । ऋद्धिप्रहाद् राजाऽमात्यादि: ऋद्धिमान् दीक्षामाहकः आमषैषध्यादि-ऋद्धिप्राप्तो वा २ । 2010_05 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिषष्टयधिकशतत्रयं परदर्शनिनः धर्मकथी-आक्षेपणीविक्षेपणीनिर्वेदनीसंवेदनीकथाभियों धर्ममाख्याति ३ । वादी-वादलब्धिसम्पन्नः ४ । आचार्यः-स्वपरसिद्धान्तप्ररूपकः ५ । क्षपकः-तपस्वी ६ । नैमित्तिकः-अष्टाङ्गनिमित्तवेत्ता ७ । विद्याग्रहणाद्विद्यासिद्धः आर्यखपुटाचार्यवत् ८ । राजगणसम्मताश्च । तत्र राजसम्मता मन्त्र्यादयः, गणसम्मता महत्तरादयः चशब्दादानश्राद्धादिपरिग्रहः । एते तीर्थ-प्रवचनं प्रभावयन्ति । स्वतः प्रकाशकस्वभावमेव सहकारितया प्रकाशयन्तीति । कुतीर्थिकविषया त्वप्रशस्ता ८ । इह चोपड़हादीनां प्रशस्तानां यथाशक्त्यकरणे अप्रशस्तानां तु करणे अतिचारता । देशसर्वभेश्वोपबृहादीनामपि शङ्कादीनामिव ज्ञेयः । अथ गाथाव्याख्या-शङ्कादिषु-शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सासु देशे चउलहु' इत्येतस्य द्वितीयगाथास्थस्य सर्वत्र योगाद्देशतश्चतुर्लघुध तथा ' मूढदिट्टी यत्ति । मूढदृष्टित्वे ' पासत्थाइ 'त्ति । पार्श्वस्थावसन्नादयो द्रव्यलिगिनो मुनयः, कुदृष्टयो-मिथ्यादृष्टयः परतीर्थिकाः तेषां वात्सल्ये । तथा तैः सह संस्तवे-ऽतिपरिचये। प्रशंसायां-मिध्यादृष्टचादीनामुपबृ हणार्या च देशतश्चतुर्लघुध । इह किल मिथ्यादर्शनिनोऽपरिमितास्तदुक्तं सम्मतिसूत्रे श्रीसिद्धसेन दिवाकरेण ___ 'जावइया वयणपहा तावइया चेव हुंति नयवाया । जावइया नयवाया तावइया चेव परसमया' ॥ १ ॥ यावन्तो नयबादा-एकैकांशावधारणवाचकशब्दप्रकारास्तावन्त एव परसमयाः-परदर्शनानि भवन्ति, स्वेच्छाप्रकल्पितविकल्पनिबन्धनत्वात् परसमयानाम् । अयं भावः-यावन्तो जने तत्तदपरा. परवस्त्वेकदेशानामवधारणप्रतिपादकाः शब्दप्रकारा भवेयुस्तावन्त एव परसमया भवन्ति । ततस्तेषामपरिमितत्वमेव । स्वकल्पनाशिल्पिघटितविकल्पानामनियतत्वात् तदुत्थप्रवादानामपि तत्सङ्ख्यापरिमाणत्वादिति । तदेवं गणनातिगा मिथ्यादर्शनिनो भवन्ति । यद्वा-सूत्रकृताख्ये द्वितीयेऽङ्गे परप्रावा. दुकानां-परदर्शनिनां त्रीणि शतानि त्रिषष्टयधिकानि परिसङ्ख्यायन्ते । तदर्थसङ्ग्रहगाथेयम् 'असीइसयं किरिआणं अकिरिअवाईण होइ चुलसीई । अन्नाणिय सत्तट्ठी वेणइयाणं च बत्तीसा॥१॥ अस्या लेशतोऽक्षरगमनिका-' असीइसयं किरियाणं 'ति । अशीत्युत्तरं शतं क्रियावादिनाम् । तत्र क्रियां-जीवाद्यस्तित्वं वदन्तीत्येवंशीलाः क्रियावादिनो-मरीचि-कुमार-माठरोल्कप्रभृतयः। ते पुनरमुनोपायेनाशीत्यधिकशतसया विज्ञेयाः। जीवाजीवाश्रवबन्धसंवरनिर्जरापुण्यापुण्यमोक्षाख्यानवपदार्थान् परिपाटचा पट्टकादौ विरचय्य जीवपदार्थस्याधः स्वपरभेदावुपन्यसनीयौ । तयोरधो नित्यानित्यभेदौ । तयोरप्यधः कालेश्वरात्मनियतिस्वभावभेदाः पञ्च न्यसनीयाः । ततश्चैवं विकल्पाः कर्तव्याः'अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालत' इत्येको विकल्पो, विकल्पार्थश्चायं खलु-अयमात्मा स्वेन रूपेण नित्यश्च कालवादिना मत इति । उक्तेनेवाभिलापेन द्वितीयो विकल्प ईश्वरकारणिकः । तृतीयो विकल्प आत्मवादिनः 'पुरुष एव इदं सर्वम्' इत्यादि । चतुर्थो विकल्पो नियतिवादिनः । पञ्चमो विकल्पः स्वभाववादिनः । एवं स्वत इत्यनेन लब्धाः पञ्च विकल्पाः । एवं परत इत्यनेनापि पञ्चव लभ्यन्ते । एते च नित्यत्वापरित्यागेन दश विकल्पाः। एवमनित्यत्वेनापि दशैव । एकत्र मिलिता विशतिर्जीवपदार्थेन लब्धाः । एवमेवाजीवादिष्वष्ठखपि प्रतिपदं विंशतिविकल्पानां भावाविंशतिर्नवगुणिता जातमशीत्युत्तरं शतं क्रियावादिनामिति । _ 'अकिरियवाईण होइ चुलसीई 'त्ति । अक्रियावादिनां चतुरशीतिः । तत्र न कस्यचित प्रति 2010_05 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 श्राद्धजीतकल्पे क्षणमनवस्थितस्य पदार्थस्य क्रिया सम्भवति, उत्पत्त्यनन्तरमेव विनाशादिति ये वदन्ति, ते अक्रियावादिन आत्मादिनास्तित्ववादिन इत्यर्थः । कोकुलकां ठेविद्धि रोमक-सुगत-प्रमुखाः । तथा चाहुरेके 'क्षणिकाः सर्वसंस्कारा अस्थिराणां कुतः क्रिया । भूतिर्येषां क्रिया सैव कारणं सैव चोच्यत' इत्यादि। तेषां चतुरशीतिर्भवति । सा चामुनोपायेन द्रष्टव्या । पुण्याऽपुण्यवर्जितशेषजीवादिपदार्थसप्तकन्योसः। तस्य चाधः प्रत्येक स्वपरभेदौ असत्त्वादात्मनो नित्यानित्यविकल्पौ न स्तः । कालादीनां च पञ्चानामधस्तात् षष्ठी यहच्छा न्यस्यते । इह यदृच्छावादिनः सर्वेऽप्यक्रियावादिनः , ततः प्राक् यदृच्छा नोपन्यस्ता । तत एव विकल्पामिलाप:-'नास्ति जीवः स्वतः कालत' इत्येको विकल्पः । एवमीश्वरादिभिरपि यदृच्छावसानः सर्वे च षट् विकल्पाः । तथा 'नास्ति जीवः परतः कालत इति षडेव विकल्पाः' एकत्र मिलिता द्वादश । एवमजीवादिष्वपि षट्सु प्रतिपदं द्वादश विकल्पाः। ततः सप्त द्वादशगुणाश्चतुरशीतिविकल्पाश्चाक्रियावादिनां नास्तिकानामिति । ___ 'अन्नाणि य सत्तट्ठी 'ति । अज्ञानिकानां सप्तषष्टिर्भेदाः । तत्र कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं तदेषामस्तीत्यज्ञानिकाः 'अतोऽनेकस्वरादि 'ति मत्वर्थीय इकप्रत्ययः । अथवा-अज्ञानेन चरन्तीत्यज्ञानिकाः । असश्चिन्त्य कृतकर्मबन्धवैफल्यादिप्रतिपत्तिलक्षणाः सप्तषष्टिः । ते चामुनोपायेन ज्ञातव्याः । तत्र जीवादि नवपदार्थान् पूर्ववद् व्यवस्थाप्य पर्यन्ते चोत्पत्तिमुपन्यस्याधः सप्त सदादय उपन्यसनीयाः । ते चामी-सत्त्वम् असत्त्वं सदसत्त्वम् अवाच्यत्वं सदवाच्यत्वम् असदवाच्यत्वं सदसदवाच्यत्वं चेति । तत्र सत्त्वं-स्वरूपेण विद्यमानत्वम् । असत्त्वं-पररूपेणाविद्यमानत्वम् । सदसत्त्वं-स्वरूप-पररूपाभ्यां विद्यमानाविद्यमानत्वम् । तथा तदेव सत्त्वमसत्त्वं च यदा युगपदेकशब्देन वक्तुमिष्यते तदा तद्वाचकः शब्दः कोऽपि न विद्यते इत्यवाच्यत्वम् । यदा त्वेको भागः सन्नपरश्वावाच्यो युगपद् विवक्ष्यते तदा सदवाच्यत्वम् । यदा त्वेको भागोऽसन् परश्चावाच्यस्तदाऽसदवाच्यत्वम् । यदा त्वेको भागः सन्नपरश्वासनपरतरश्चावाच्यस्तदा सदसदवाच्यत्वमिति । ततः सप्त नबमिर्गुणितात्रिषष्टिः। उत्पत्तेस्तु चत्वार एव विकासाः। ते चामीसत्त्वमसत्त्वं सदसत्त्वमवाच्यत्वं चेति । शेषविकल्पत्रयं तूत्पत्त्युत्तरकालं पदार्थावयवापेक्षमित्यतोऽत्राऽसम्भवीति नोक्तम् । एते चत्वारो विकल्पास्त्रिषष्टिमध्ये क्षिप्यन्ते जाताः सप्तषष्टिः। विकल्यार्थश्चैवम्-को जानाति जीवः सन्नित्येको विकल्पः, ज्ञातेन वा किं तेन ? । एवमसदादयोऽपि वाच्याः। उत्पत्तिरपि किं सतोऽसतः सदसतोऽवाच्यस्येति ? । को जानातीत्येतन्न कश्चिदपीत्यमिप्रायः। वेणइयाणं च बत्तीस 'त्ति । वैनयिकानां द्वात्रिंशद् भेदाः । तत्र विनयेन चरन्ति विनयो वा प्रयोजनमेषामिति वैनयिंकाः । एते चानवधृतलिङ्गाचारशास्त्रा विनयप्रतिपत्तिलक्षणा द्वात्रिंशदमुनोपायेनावगन्तव्याः। सुर-नृपति-ज्ञाति-यति-स्थविर-अधम-मातृ-पितॄणां-प्रत्येकं कायेन मनसा वाचा दानेन च देशकालोपपन्नेन विनयः कार्य इत्येते चत्वारो भेदाः सुरादिष्वष्टसु स्थानेषु भवन्ति । अष्ट चतुर्भिर्गुणिता द्वात्रिंशदिति । सर्वसङ्ख्या पुनरेतेषां मिलने त्रीणि शतानि त्रिषष्टयधिकानीतिरूपो परदर्शनिनां भवतीत्यलं प्रसङ्गेन । अथ प्रकृतं प्रस्तूयते-- मिच्छप्पभावण 'त्ति । मिथ्यात्वसम्बन्धिदेवकुलादौ प्रभावनायाम् । तथा-' असंजमथिरत्ते 'त्ति । असंयमे-ऽसंयमवतां पार्श्वस्थादीनां कुलिङ्गिनां चाधानुष्ठानविषये 2010_05 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षादोषाः स्थिरीकरणे च देशतश्चतुर्लघु प्रायश्चित्तं भवतीति प्रथमगाथार्थः । ' तह संघाणुववूहाइसु 'ति । तथेत्युपन्यासे । सङ्घानुपं हायां - सङ्घस्योपबृंहणाद्यकरणे, आदिशब्दात् स्थिरीकरण - वात्सल्य - प्रभावनानामकरणे च 'देसे चउलहु 'त्ति | देशतश्चतुर्लघु । 'गुरुग सव्वे 'ति । सर्वत एतेषु शङ्कादिषु कृतेषु चतुर्गुरु87। गुरुगो अ ममत्ताइस 'ति । तथा पार्श्वस्थादिषु ममत्वं - प्रतिबन्धरूपं कुर्वतो गुरुमासः ११ आदिशब्दान मरिपालन-संवास - सूत्रार्थदानादानादिष्वपि गुरुमासः री निःकारणमिति गम्यते । कारणे तु ममत्वादिकरणेऽपि न दोषः । ' लहु-गुरु- चउलहु तिविहमिच्छे'त्ति । त्रिविधे - जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदमिन्नेऽपि मिथ्यात्वे यथाक्रमं लघुगुरुचतुर्लघूनि प्रायश्चित्तानि भवन्तीतिगाथार्थः ॥ ५८ ॥ ३९ अथ आधाकर्मादिदोषदुष्टमन्नपानादि ददानस्य श्राद्धस्य प्रायश्चित्तप्रतिपादनावसरस्तत्र पूर्वं किञ्चिदाधाकर्मादिस्वरूपं प्रन्थान्तरतो लिख्यते - इह किल सप्तचत्वारिंशद् भिक्षादोषास्तद्यथा - षोडशोद्गमदोषाः षोडशोत्पादनादोषाः दशपणादोषाः पञ्च प्रासैषणादोषाः । तत्र उद्गमदोषा गृहस्थप्रभवाः षोडश । तद्यथा " 'आहाकम्मुद्देसिय पूईकम्मे अ मीसजाए अ । ठवणा पाहुडियाए पाओयर कीय पामिच्चे ॥ १ ॥ परियट्टिए अभिहडुब्भिन्ने मालोहडे य अच्छिज्जे । अणिसिटुज्झोअरए सोलस पिंडुग्गमे दोसा ॥ २ ॥ अनयोर्लेशतो व्याख्या-आधाकर्म नाम यत् साध्वर्थमेव सचित्तमन्नपानाद्यचित्ती क्रियते १ । औद्देशिकं नाम यदुद्देशेन निष्पन्नं तच्च द्विधा - ओघतो विभागतश्च । तत्र स्वकुटुम्बार्थं पच्यमाने भक्तादौ पाखण्डिनां गृहिणां वा मध्ये यः कोऽपि समेष्यति, तस्य भिक्षादानार्थं कतिपयानधिकतरान् तन्दुलादीनोघेन - सामान्येनैतावत् स्वार्थमेतावच्च भिक्षादानार्थमित्येवं विभागरहितेन गृहनायिका यत्क्षिपति तदौघोद्देशिकम् | विभागतस्तु विवाह - प्रकरणादिषु यदुद्धरितं भक्तादि तत् पृथक् कृत्वा दानाय कल्पितमेतद्विभागेन - स्वसत्तातः पृथक्करणेनौदेशिकं विभागौद्देशिकम् । तच्च प्रथमतखिधा । उद्दिष्टं कृतं कर्म च । तत्र स्वार्थमेव निष्पन्नमशनादिकं भिक्षाचराणां दानाय यत् पृथक्कल्पितं तदुद्दिष्टम् । यत् पुनरुद्धरितं सत् शाल्यौदनादिभिक्षादानाय करम्बादिरूपतया कृतं न पुनः काचिदपि जीवविराधना जाता तत्कृतम् । यत् पुनरुद्धरितं मोदकचूर्णादि तद् भूयोऽपि भिक्षादानाय गुडपाकदानादिना मोदकादिरूपतया कृतं कर्म । यदुक्तम् 'संखडिभत्तुव्वरियं चउण्हमुद्दिसइ जं तमुद्दिट्ठ । वंजणमीसाइ कडं तमग्गितवियाइ पुण कम्मं ॥ १ ॥ एकैकं पुनञ्चतुर्धा - उद्देशसमुद्देशाऽऽदेशसमा देशभेदेन । तत्र यदुद्दिष्टं कृतं कर्म वा यावन्तः केsपि भिक्षाचराः पाखण्डिनो गृहस्था वा समेष्यन्ति, तेभ्यः सर्वेभ्योपि दातव्यमिति सङ्कल्पेन कृत ं तदुद्देशम् । यत्तु पाखण्डिनामेव देयत्वेन कल्पितं तत्समुद्देशम् । यत् पुनः श्रमणानामेव देयत्वेन कल्पितं तदादेशम् । यच्च निर्मन्थानामेव देयत्वेन कल्पितं तत्समादेशम । यदुक्तम् " , जावंतियमुद्देसं पासंडोणं भवे समुद्देसं । समणाणं आएसं निम्गंथाणं समाए ' ॥ १ ॥ ततश्चैवं भेदाभिधानम्-उद्दिष्टोद्देशम् उद्दिष्टसमुद्देशम् उद्दिष्टादेशम उद्दिष्टसमादेशम् । एवं कृत-कर्मणोरपि भेदचतुष्टयं वाच्यम् । एवं विभागतो द्वादशधौदेशिकम् । यदुक्तम् 2010_05 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे बारसविहं विभागे चहुट्ठि कडं च कम्मं च । उद्देशस मुद्देस एससमाएसमेएणं ॥१॥ २ । पूतिकर्म द्विविधं सूक्ष्मं बादरं च । तत्राद्यमाधाकर्मिक धूमाग्निगन्धादिभिः स्यात्, परं तददुष्टमाचोर्णत्वादशक्यपरिहारत्वाच्च । बादरं पुनर्द्वधा - उपकरणे भक्तपाने च । तत्रोपकरणं - चूल्लीस्थाली दर्व्यादिरूपं । याच चुल्ली कियता शुद्धेन कियता चाधाकमिंकेण कर्दमेन निष्पादिता सा इत्थम्भूता उपकरणपूतिः । अनया दिशाऽन्यस्याप्युपकरणस्य पूतित्वं भावनीयम् । आधाकर्मिकचुल्लीस्थाल्यादिषु राद्धं स्थापितं वा आधाकर्मादिखरष्टितस्थास्यादौ स्थापितं वा । आधाकर्मिकभक्तादिलवेनापि मिश्रं वा भक्त वा पानं वा स्वरूपतः शुद्धमपि पूतिः - अपवित्र स्याद्यथा - अशुचिलवेनाशनादि । एतद्भक्तपानपूतिकम । यदुक्तम् ४० " उग्गमकोडिकणेणवि असुइलवेणं व जुत्तमसणाई । सुद्धं पि होइ पूई त सुहुमं वायरंति दुद्दा ' ।। १ ।। ३ । मिश्रजातं त्रिधा - यावदर्थिकमिश्रं पाखण्डिमिश्रं यतिमिश्रं च । यत् स्वस्य योग्यं यावदर्थिकानां पाखण्डिनां यतीनां च योग्यं प्रथमतोऽप्यग्निज्वालनाधिश्रयणदानाद्यैरशनादि मिश्रितमेव राहूमारभ्यते तन्मिश्रजातम् ४ । स्थापना द्वेधा - चिरेत्वरभेदात् । यत् साध्वर्थं भक्तादि स्थापयित्वा मुवति सा चिरस्थापना | गृहपङ्क्त्यामेकः साधुरेकत्र गृहे सम्यगुपयोगेन मिक्षां परिभावयन् गृह्णाति द्वितीयस्तु द्वयोः पार्श्वस्थयोर्दा हस्तगते द्वे भिक्षे परिभावयति । ततो गृहत्रयात्परतो गृहान्तरे साधुनिमित्त या दातृहस्तगता भिक्षा सा इत्वरस्थापना । तत्रोपयोगाभावात् ५ । प्राभृतिकाऽपि सूक्ष्मबादर भेदाद् द्विधा । तत्र गुर्वागमनं ज्ञात्वा कोऽपि श्रावको विव दादेरुपसर्पणमपसर्पणं वा यत्करोति सा बादरप्राभृतिका । यत्तु पुत्रादौ भोजनमर्थयमाने सति साध्वर्थमुत्थिता सती तवापि दास्यामीति यद्दात्री ब्रूते सा सूक्ष्मप्राभृतिका ६ । प्रादुःकरणमपि द्वेधा-प्रकटकरणं प्रकाशकरणं च । तत्र प्रथममन्धकारादपसार्य बहिः प्रकाशप्रदेशे साध्वर्थमन्नादिस्थापनं प्रकटकरणम् । सान्धकारस्थानस्थितस्यैवान्नादेर्मणि- प्रदीप- गवाक्षकुड्य छिद्राद्यैरुद्योतकरणं प्रकाशकरणम् ७ । क्रोतं चतुर्द्धा आत्मद्रव्यक्रीतम् आत्मभावक्रीतं, परद्रव्यक्रीतं, परभावक्रीतं चेति । तत्रात्मना स्वयमेव द्रव्येण - उज्जयन्तादितीर्थभगवतप्रतिमा शेषादिरूपेण प्रदानतः परमावर्ज्य यद्भक्तादि गृह्यते तदात्मद्रव्यक्रीतम् । यत्पुनरात्मना स्वयमेव भक्ताद्यर्थं धर्मकथादिना परमावर्ण्य भक्तादि गृह्यते तदात्मभावक्रीतम । तथा परेण यत्साधुनिमित्तं द्रव्येण क्रीतं तत्परद्रव्यक्रीतम । यत् पुनः परेण साध्वर्थं निजविज्ञानप्रदर्शनेन धर्मकथाकथनादिना परमावर्ज्य भक्तादि गृह्यते तत्परभावक्रीतम् ८ । प्रामित्यं द्विधा - लौकिक लोकोत्तरभेदात् । तत्र यदुद्धारकेण वस्त्राद्यानीय साधुभ्या गृहस्थो ददाति तल्लौकिकम् । साधुरेव वस्त्राभावे साध्वन्तरपार्श्वाद्यदुद्धारकेण गृह्णाति तल्लोकोत्तरम् ९ । एवं परावर्त्तितमपि द्विधा - लौकिकं लोकोत्तरं च । नवरमत्र परावर्त्य ददाति गृह्णाति वेति वाच्यम् ९० । अभ्याहृतं नाम अमि-सम्मुखं स्वस्थानात् साधुसमीपे दानायाऽऽहृतमानीतमभ्याहृतम् । तदुद्विविध-स्वप्रामाभ्याहृतं परग्रामाभ्याहृतं च । तत्र पुनः पाश्चात्यं द्वेधा - सप्रत्यपायपरप्रामाम्याहृतमप्रत्यपायपरग्रामाभ्याहृतं वा ११ । उद्भिन्नं त्रिधा - लिप्तोद्भिन्नं दर्दरोद्भिन्नं कपाटोद्भिन्नं च । तत्र जतुछगणादिलेपेन विलिप्तं घृतघटादिमुखं साधूनां दानायोद्भिद्य यद् घृतादि दीयते तल्लिप्तोद्भिन्नम् । दर्दरं - कुतपादेमुखबन्धनं वस्त्र - चर्मादिखण्डं तमुद्भिद्य यद्दीयते तद्दर्दरोद्भिन्नम् । तथा यत्पिहितं कपाटमुद्भिद्य यद्दीयते तत्कपाटोद्भिन्नम् १२ । मालापहृतं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात् त्रेधा । तत्र भून्यस्तपादाग्राम्या 2010_05 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षादोषाः ४१ मुत्पाटितपाणिभ्यां च पादाभ्यामूर्ध्वविलगितसिक्किकादिस्थं दाच्या दृष्टेरगोचरं यद्दीयते तज्जघन्यम् । मञ्चकादिकमारुह्य यद्दीयते तन्मध्यमम् । निःश्रेण्यादिकमारुह्य यद्दीयते तदुत्कृष्टम् १३ । आच्छेद्यं त्रिधा-स्वामि-प्रभु-स्तेनभेदात् । तत्र स्वामी-गृहादिनायकः, प्रभु-र्गहपतिस्तौ स्वायत्तमानुषेभ्यः, स्तेना-श्चौरास्ते सार्थिकादिभ्यो बलादाच्छिद्योद्दाल्य यद्ददाति तदाच्छेद्यम्, १४. । अनिसृष्टमपि त्रिविधं-साधारणचोल्लकजइभेदतः । तत्र साधारणराद्धं भक्तं सर्वेषामननुज्ञातमेवैकादेर्ददतः साधारणानिसृष्टम् । चोल्लको-भोजनं यत्कौटुम्बिकप्रेषितहालिकयोग्यचोल्लकमध्यात् कौटुम्बिकस्याननुज्ञयैव चोल्लकवाही यत् साधवे ददाति तच्चोल्लकानिसृष्टम् । जड्डो-हस्ती तत्सत्कं पिण्डादिकं राज्ञो गजेन वाऽननुज्ञातमेव यद्ददाति तज्जडानिसृष्टम् १५ । अध्यवपूरको नाम यत्राग्निसन्धुक्षणस्थालीजलप्रक्षेपाचारम्भे यावदर्थिकाद्यागमनात् पूर्वमेवात्मार्थं निष्पादिते पश्चाद् यथासम्भवं त्रयाणां यावदर्थिकादीनामायाधिकतरास्तन्दुलाः सह राद्धं स्थाल्यां प्रक्षिप्यन्ते सोऽध्यवपूरकः । अत एव चास्य मिश्रजाताद् भेदः । यतो मिश्रजातं तदुच्यते यत् प्रथमत एव यावदर्थिकाद्यर्थमात्मार्थं च मिश्रं निष्पाद्यते । यत् पुनः प्रथमतः स्वार्थमारभ्यते पश्चात् प्रभूतान् यावदर्थिकादीनागतानवगम्य तदर्थाय यदधिकतरजलतन्दुलादिप्रक्षेपः सोऽध्यवपूरकः । स च यावदर्थिकमिश्रः पाखण्डिमिश्रो यतिमिश्रश्चेति १६ । एते षोडशोद्गमदोषा भवन्ति । एतेषु च आधाकर्म औद्देशिकभेदत्रयम् भक्तपानपूतिः मिश्रजातान्त्यभेदद्वयं बादरप्राभृतिका अध्यवपूरकान्त्यभेदद्वयं चाविशुद्धिकोटिः। यदुक्तम् 'इअ कम्मं उद्देसिअतिअ मीसज्झोयरंतिमदुगं च । आहारपूइ बायरपोहुडि अविसोहिकोडित्ति' ॥ १॥ तदवयवेनापि स्पृष्टं सर्वमन्नपोनाद्यशुचिलवेनेवाभोज्यं भवति । यदुक्तम् - _ 'उग्गमकोडिकणेणवि असुइलवेणं व जुत्तमसणाई । सुद्धपि होइ पूई तं सुहुमं बायरंति दुहा' ॥ १॥ शेषास्तु विशुद्धिकोटयः । तत्सम्पृक्तं चान्नपानादि पुनः संस्तरे साधवः सर्वमेव त्यजन्ति । असंस्तरे तु विविच्य तदेव त्यजन्ति । तक्रादिरसमध्ये क्षेपे तावन्मात्रमेव वा तद्वस्तु त्यजन्ति । यदुक्तम् तं चेव असंथरणे संथरणे सव्वमवि विगिचंति । दुल्लहदव्वे असढा तत्तियमित्तं चिय चयन्ति ॥ १ ॥ उक्ताः षोडशोद्गमदोषाः । अथ षोडशोत्पादनादोषानाह 'धाई दई निमित्त आजीव वणीमगे तिगिच्छा य । कोहे माणे माया लोभे य हवंति दस एए ॥ १॥ पुविपच्छासंथव विज्जा मंते य चुन जोगे य । उप्पायणाइ दोसा सोलसमे मूलकम्मे य १६ ॥२॥ अनयोाख्या-धात्र्यः-बालकपरिपालिकाः । ताः पञ्च क्षीर-मज्जन-मण्डन-क्रीडना-कधात्र्यः । तासां कर्म धात्रीत्वं तेन लब्धः पिण्डो धात्रीपिण्डः ५। दूती-परसन्दिष्टार्थकथिका । तस्याः कर्म दौत्यं तेन स्वग्रामे परग्रामे वा सन्दिष्टार्थकथनरूपेण प्राप्तः पिण्डो दूतीपिण्डः २। कालत्रयसंसूचकलाभालाभशुभाशुभादि-संसूचकनिमित्तकथनेन प्राप्तः पिण्डो निमित्तपिण्डः ३ । आजीवनापिण्डो जातिकुलगणशिल्पकर्मभेदतः पञ्चधा । तत्र जातिकुले पूर्वोदितस्वरूपे । गणो-मल्लादिवृन्दम् । शिल्पं-तूर्णनसीवनादि, कर्म-कृष्यादि, अथवाऽप्रीत्युत्पादक कर्म प्रोत्युत्पादकं तु शिल्पम् । अन्ये त्वाहुरनाचार्योपदिष्टं 2010_05 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे कर्म आचार्योपदिष्टं तु शिल्पमिति । एतैरात्मनो गृहस्थस्य च तुल्यरूपताख्यापनेन लब्धः पिण्ड आजीवनापिण्डः ४ । वनीपको-भिक्षाचरस्तद्वत् पिण्डार्थं श्रमणातिथिब्राह्मणकृपणश्वानादिभक्तानां दायकानामात्मानं तत्तद्भक्तं दर्शयन् यल्लभते स वनीपकपिण्डः ५ । चिकित्सापिण्डो द्वेधा-सूक्ष्म-बादरभेदात् । तत्र वैद्यवत् स्वयं वमनविरेचनादिरोगप्रतीकारविधापनं बादरचिकित्सा तयाऽवाप्तः पिण्डो बादरचिकित्सापिण्डः । वैद्यौषधादिसंस्तवनेन सूक्ष्मचिकित्सा तयाऽवाप्तः पिण्डः सूक्ष्मचिकित्सापिण्डः ६ । साधोविद्याप्रभावम्-उच्चाटनमारणादिकं तपःप्रभावं-शापदानादिकम् राजकुले वल्लभत्वं क्रोधफलं वा ज्ञात्वा गृहस्थेन यः पिण्डो दीयते स क्रोधपिण्डः ७ । अभिमानेन हठादपि यः पिण्डो गृह्यते स मानपिण्डः ८ । नानाविधविप्रतारणप्रकारैर्यः पिण्डो लभ्यते स मायापिण्डः । वल्लचणकादिकमसारं लभ्यमानं प्रतिषिध्यन् मोदकादि सारमेव प्रतिगृह्णाति । अथवा प्रचुर मधुरस्निग्धादि वस्तु लभ्यमानं दृष्ट्वा यद्बहु गृह्णाति स लोभपिण्डः १० । संस्तवो द्विधा-श्लोघारूपः परिचयरूपश्च । तत्र श्लाघारूपोवचनसंस्तवः, परिचयरूपः-सम्बन्धिसंस्तवः । एकैको द्विधा-पूर्वसंस्तवः पश्चात्संस्तवश्च । तत्र पूर्व यहातारं स्तुत्वा याचते, लब्धे वा पश्चात् स्तौति स पूर्वसंस्तवः पश्चात्संस्तवश्च श्लाघारूपः । सम्बन्धिसंस्तवो मात्रादिनात्रकयोजनं पूर्वसंस्तवः श्वश्वादिसम्बन्धयोजनं तु पश्चोत्संस्तवः ११ । स्त्रोदेवताऽधिष्ठिता ससाधना वा विद्या तत्प्रयोगेण लब्धः पिण्डो विद्यापिण्डः १२ । पुरूपदेवताधिष्ठितोऽसाधनो वा मन्त्रः तत्प्रयोगेणाप्तः पिण्डो मन्त्रपिण्डः १३ । चूर्णमञ्जनादि तदर्पणादिना प्राप्तः पिण्ड'चूर्णपिण्डः १४ । योगः-पादप्रलेपादिः तत्करणार्पणादिना लब्धः पिण्डो योगपिण्डः १५ । मङ्गलमूलिका-नपनक-गर्भाधान-गर्भस्तम्भ-प्रसवपातन-मूलरक्षाबन्धनादिभिर्लब्धः पिण्डो मूलकर्मपिण्डः । एष च महापातकः । यदुक्तम् ___‘मंगलमूलीण्हवणाइ गब्भवीवाहकरणघायाई । भववणमूलं कम्मति मूलकम्मं महापावं' ॥१॥ १६ । उक्ताः षोडशोत्पादना दोषाः । अथ दश ग्रहणैषणादोषानाह ____ 'संकिअ-मक्खिअ-निक्खित्त-पिहिअ-साहरिअ-दायगुम्मीसे । अपरिणय-लित्त-छड्डो य एसणदोसा दस हवंति ।। १ ।। एतस्या व्याख्या-शङ्कितं नाम आधाकर्मादीनां षोडशोद्गमदोषाणां म्रक्षितादीनां च नवैषणादोषाणां मध्ये भक्तादेग्रहणे भोजने वो यं यं दोषं शङ्कते तद् भक्तपानादि तत्तद्दोषशङ्कितं भवति, तद्राही तत्तद्दोषसमानदोषवान् भवतीत्यर्थः । अत्र च चत्वारो भङ्गाः। शङ्कितग्राही शङ्कितभोजी १ शङ्कितग्राही निःशवितभोजी २ निःशङ्कितग्राही शकितभोजी ३ निःशङ्कितग्राही निःशङ्कित. भोजी४ च । अत्र द्वितीयचतुर्थभङ्गौ शुद्धौ, द्वयोरपि भोजनस्य निःशङ्कितत्वेन निर्दोषत्वात् । द्वितीयभङ्गभाविनः शङ्कितग्रहणदोषमात्रस्योत्तरशुभपरिणामेन शुद्धिसम्भवात् । शेषभङ्गद्वये पुनः शङ्कितदोषसमानं दोषमापद्यत इति १ । म्रक्षितं द्विधा-सचित्ताचित्तभेदेन । तत्राद्यं पृथिवी-जल-वनस्पतिभेदेन त्रेधा । तत्र पृथिवीम्रक्षितं चतुर्द्धा-सरजस्कं-सचित्तपृथिवीरजोवगुण्ठितं देय-हस्त-मात्रकादि तच्च तन्मक्षितं च सरजस्कम्रक्षितम् । तथा सेटिकोषादिम्रक्षितम् - ऊषमृत्तिकाहरितालहिङ्गलकमनः शिलाञ्जनलवणगैरिकसेटिकादिपृथिवीकायम्रक्षितमित्यर्थः । निर्मिश्रोऽपरिणतः सचेतनः, मिश्रः सचित्ताऽचित्तरूप एवंविधो यः कर्दमस्तेन म्रक्षितं निर्मिश्रकर्दमम्रक्षितं मिश्रकर्दमम्रक्षितं चेत्यर्थः । अप्कायम्रक्षितमपि चतुर्दा-पुरःकर्म पश्चात्कर्म सस्निग्धं उदका च । तत्र दानात् पूर्वं हस्तमात्रकयोः क्षालने पुरःकर्म, 2010_05 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षादोषाः ४३ दानानन्तरं क्षालने पश्चात्कर्म, सस्निग्धमीषल्लक्ष्यमाणजलखरण्टितं हस्तादि, उदका, स्पष्टोपलभ्यमानजल. संसर्गम् । वनस्पतिकायम्रक्षितं तु द्वेधा-प्रत्येकानन्तभेदेन । पृथिवीम्रक्षितं वनस्पतिम्रक्षितं चानन्तरपरम्परभेदेन प्रत्येकं द्विविधम् । अचित्तम्रक्षितं पुनधा-मांसवसाशोणितसुरामूत्रोच्चारादिगर्हितैक्षितं गर्हिताचित्तम्रक्षितम् । तथा संसजन्ति-विलगन्ति सलेपत्वात् कीटिकामक्षिकादि जन्तवो येषु तानि संसक्तानि तैरगर्हितैरचित्तैक्षितमगर्हितसंसक्ताचित्तम्रक्षितम् २ । निक्षिप्तं-पृथिव्यादिषु स्थापितं तद्द्विधा-अनन्तरं परम्परं चेति । देयं वस्तु पृथिव्यादिषु निरन्तरं सान्तरं वो स्थापितं भवतीति द्विधा निक्षिप्त मित्यर्थः ३ । पिहितं नाम यद् देयमशनादि वस्तु केनाऽप्यपरेण वस्तुना स्थगितं । तत्त्रेधा-गुर्वचित्तपिहितं, सचित्तपिहितं, मिश्रपिहितं चेति ४ । संहृतं नाम येन हस्तेन मात्रकेण वा कृत्वा दात्री साधोरशनादिकं दातुमिच्छति । तत्राऽन्यददातव्यं किमपि सचित्तमचित्तं मिश्रं वाऽस्ति । ततस्तदन्यत्र भूम्यादौ सचित्तेऽचित्ते मिश्रे वा क्षिप्त्वा तेन हस्तेन मात्रकेण वा यद्ददाति । अत्र सचित्ताचित्तमिश्रभेदश्च तिम्रश्चतुर्भङ्ग्यो भवन्ति । तथाहि-एका चतुर्भङ्गी सचित्तमिश्रपदाभ्यां, द्वितीया सचित्ताचित्तपदाभ्यां। तृतीया मिश्राचित्तपदाम्याम् । तत्र सचित्ते सचित्तं संहृतं, मिश्रे सचित्तं, सचित्ते मिश्रं, मिश्रे मिश्रं चेति प्रथमा । सचित्ते सचित्तम्, अचित्ते सचित्तं, सचित्तेऽचित्तम् , अचित्तेऽचित्तम् इति द्वितीया । तथा मिश्रे मिश्रम, अचित्ते मिश्रं मिश्रेऽचित्तम् , अचित्तेऽचित्तमिति तृतीया । अत्र प्रथमायाः सर्वेष्वपि भङ्गेषु न कल्पते, द्वयोस्त्वाद्येषु त्रिषु त्रिषु प्रतिषेधश्वरमे पुनर्भजना। अत्र सचित्तः पृथिवीकायः सचित्त पृथ्वीकाये संहृतः, सचित्ताप्काये वा संहृत इत्यादि षड्जीवनिकायचारणिकया स्वस्थानपरस्थानापेक्षया चतुर्भङ्गीत्रयभङ्गेष्वेककस्मिन् भने ट्त्रिंशद् षटत्रिंशद् भङ्गा भवन्ति । ते च सर्वसङ्ख्यया चत्वारि शतानि द्वात्रिंशदधिकानि भङ्गानां भवन्ति। एते च सर्वेऽपि भङ्गा नैरन्तर्येण च भवन्ति । तत्र चैतेषु सर्वेष्वपि निरन्तर-परम्परसंहृतभङ्गेषु यत्र यत्र सचित्तसचट्टनादिर्दोषस्तत्र तत्र न कल्पते । अन्यत्र तु कल्पते । एतत्सर्वं निक्षिप्तपिहितयोरप्यवगन्तव्यमिति । दायकः स्थविरादिरित्येवंविधो दोषः । स्थविरादिभिर्दीयमाने दायकदोषो भवतीत्यर्थः । तदुक्तम्'थेरऽपहु-पंड वेविर-जरि-अंधऽव्वत्त-मत्त-उम्मत्ते । छिन्नकरचरण-गुव्विणि-नियलंडुअबद्ध-बालवच्छाए । खंडइ पीसइ भुंजइ जिमइ विरोलइ दलइ सज्जि। ठवइ बलिं उवउत्तइ पिढराइ तिहा सपच्चवाया जा ॥ सोहारण-चोरियगं देइ परकं परटं वा । कत्तइ लोढइ पिंजइ विक्खिणइ पगलंतपाउयारूढे ॥३॥ एतासां लेशतो व्याख्या-स्थविरो-वृद्धः । सप्ततिवर्षाणां मतान्तरे षष्टिवर्षाणां वोपरिवर्ती । स्थविरस्य च हस्तेन भिक्षाग्रहणे निपतन-षड्जीवनिकायविराधनादिदोषा भवेयुः । अतस्तद्धस्तेनोत्सगतो न ग्राह्यम् १ । तथा अप्रभुर्दीयमानभक्तादेरस्वामी भृतकादिः । तेन दीयमाने प्रभोरप्रीतिः स्यात् २ । पण्डकोनपुंसकस्तस्मिन् दायके लोकापवादशङ्कादिदोषाः ३ । वेपमान:-कम्पमानशरीरः। तदाने परिशटन-भाजनभङ्गादिदोषाः ४ । ज्वरितो-ज्वररोगपीडितः। ततो भिक्षाग्रहणे ज्वरसङ्क्रमण-जनापवादादयो दोषाः ५ । अन्धः-चक्षुर्विकलः । तस्य भिक्षां ददतः कायवधस्खलनपतनभाजनबहिर्भक्तक्षेपणजनवचनीयतादयो दोषाः ६ । अव्यक्तो-बालो जन्मतो वर्षाष्टकाभ्यन्तरवर्ती । तेन दीयमाने तज्जनन्यादेः प्रद्वेषः ७ । मत्तः-पीतमदिरादिः । स चाशुचित्वालिङ्गनहननभाजनभङ्गकरणादिदोषदुष्टत्वात्साधुमिक्षादानाऽयोग्यः ८ । उन्मत्तोदृप्तो ग्रहगृहीतो वा सोऽपि मत्तवद्दष्टः ९ । छिन्नकरः-कर्तितहस्तः छिन्नचरणो-लूनपादः । एताभ्यां 2010_05 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ श्राद्धजीतकल्पे च सकोशद्भिक्षा न ग्राह्या, दानासमर्थत्वाल्लोकापवादादिदोषसम्भवाच्च ११ । गुर्विणी-आपनसत्त्वा । तत् सकाशाद् गच्छनिर्गता जिनकल्पिकोदयः प्रथमदिनादारभ्य मिक्षां न गृह्णन्त्येव । स्थविरकल्पिकास्त्वष्टौ मासान् यावद् गृह्णन्ति, नवमे मासे तु न गृह्णन्ति, निषीदनोत्थानाभ्यां गर्भपीडासम्भवात् १२ । निगडेन-लोहमयपादबन्धनेन बद्धः अण्डुकेन-काष्ठमयकरबन्धनेन बद्धः एताभ्यां सकाशात् परितापनादिदोषसम्भवाद्भिक्षा न ग्राह्या १३-१४ । बालवत्सा-स्तन्योपजीविशिशुका तया दीयमानं न कल्पते, निक्षिप्तबालस्य मार्जारादिभ्यो विनाशसम्भवात निक्षिप्यमाणस्योत्क्षिप्यमाणस्य चातिसुकुमारत्वेन परि. तापनासम्भवात् १५ । गाथापर्यन्तवर्ती योशब्दोऽत्र प्रत्येकमभिसम्बध्यते । ततश्च या काचिन्महिला खण्डयति-ऊदूखलक्षिप्तानि शाल्यादिवीजानि मुसलघातैः श्लक्ष्णीकरोतीत्यर्थः । तया दीयमाना मिक्षा न ग्राह्या, बीजसचट्टाद्यारम्भसम्भवात् १६ । तथा पिनष्टि-शिलायां तिलामलककुस्तुम्बरुलवणजीरकादीनि मृनातीति भावः । अनयापि दीयमानं न कल्पते तिलादिसट्टसद्भावात् १७ । तथा भृजति-चनकयवगोधूमादीन् अग्निप्रतप्तकडिल्लकादौ स्फोटयतीत्यर्थः । तया दीयमानं न कल्पते कडिल्लकादौ प्रक्षिप्तस्य तस्य चनकादेर्दाहसम्भवात १८ । तथा जेमति-भुङ्क्तेऽभ्यवहरतीत्यर्थः । भुञ्जाना ह्याचमनं विधाय साधुभ्यो यदि दद्यात्तदाऽष्कायविराधना । अथैतद्दोषभयात् तदकृत्वैव वितरेत् तदोच्छिष्टमप्येते न त्यजन्तीत्यादिजनापवादः । तत्र च महान् दोषः । यदाह _ 'छक्कायदयावतो वि संजओ दुल्लहं कुणइ बोहिं । आहारे नीहारे दुगुंछिए पिंडगहणे अ । इत्यतो न कल्पते १९ । तथा विरोलयति-करमन्थनादिना दध्यादिकं मध्नाति । सा हि संसक्तदध्यादिलिप्तकरा भिक्षां ददती सत्त्ववधं विदध्यादिति न गृह्यते २० । तथा दलति-सजीवं सचित्तं गोधूमादि. धान्यं घरटेन पिनष्टि । इयं भिक्षादानायोत्तिष्ठन्ती बीजादि सचट्टयति दत्त्वा च करौ प्रक्षालयतीति न गृह्यते २१ । तथा या काचिन्नारी साधुदानायोद्यता सती मूलस्थालीतः समाकृष्य स्थगनिकादौ बलिमुपहारमग्रकूरमित्यर्थः स्थापयति, तया दीयमाना भिक्षा न कल्पते प्रवर्तनादिदोषसम्भवात् २२ । तथोद्वर्त्तयति-साधुदानबुद्धया परावर्त्तयति पिठरादि-स्थाल्यादि नामयतीत्यर्थः । अत्र च कीटिकादिसस्वोपघातः स्यात् २३ । तथा विधोर्ध्वाधस्तिर्यगलक्षणेनिमिस्त्रिभिः प्रकारैः सप्रत्यपायकाष्ठकण्टकगवादिभ्यः सकाशात्सम्भाव्यमानाभिघाताद्यनर्था या काचिद्वनिता स्यात् । 'तहा सपच्चवाया जा ' इति पाठे तु तथा सप्रत्यपाया या दात्री कूलवालकमुनिव्रतत्याजयित्री मागधिकावेश्येव शाकिन्यादिर्वा तया दीयमानं न कल्पते २४ । तथा साधारणं-बहायत्तं तद्ददातीति योगः। तत्र साधारणानिसृष्टवदोषा वाच्याः २५ । तथा चोरितकं-चौरिकया गृहीतं साधुभ्यो ददाति । तत्र च दोषाः प्रतीता एव २६ । तथा पराक्यं-परसत्कं परकीयमिदमित्युक्त्वा ददाति । अथवा परार्थ-परनिमित्तं कार्पटिकादिदानाय कल्पितमित्यर्थस्तद्ददाति । अत्र च परसत्के ततस्वामिनाऽननुज्ञाते परदानाय कल्पिते च दीयमाने अदत्तादानाऽन्तरायादयो दोषाः २७ । तथा या कर्त्तयति-रूतं चक्रेण सूत्रं करोति २८ । तथा लोढयति-कर्पासं लोढिन्यां कनकेन निरस्थिकं करोतीत्यर्थः २९ । तथा पिञ्जयति-रूतं पिञ्जनेन मृदूकरोति ३० । तथा 'विक्खिणइत्ति । विकीर्णयति-रूतं कराभ्यां पौनःपुन्येन श्लक्ष्णयति ३१ । एतामिश्चतसृभिरपि दीयमानं न कल्पते, कर्पासास्थिकसङ्घट्टन-देयवस्तुखरण्टितहस्तधावनदोषसम्भवात् । तथा प्रगलन्-गलत्कुष्ठस्ततो 2010_05 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षादोषाः मिक्षाग्रहणे हि साधोरपि कुष्ठरोगसङ्क्रातिः स्यात्तदीयोच्छ्वास-त्वकसंस्पर्शस्वेदमलमूत्रोच्चाराहारलालादिमिः शरीरान्तरे तत्समणस्याभिहितत्वात्ततो न ग्राह्या ३२ । तथा पादुकारूढः-काष्ठादिमयोपानत्समारूढः । स हि मिक्षां प्रयच्छन् दुर्व्यवस्थितत्वात् कदाचित् पतति कीटिकादिसत्त्वविराधनां च करोतीत्यतोऽसावपि परिहियते ३३ । तथा 'छक्कायवग्गहत्था समणवा निक्खिवित्त ते चेव । घटुंती गाहंती आरंभंती अ पडिसिद्धा' ॥१॥ एतस्या व्याख्या-षट्कायव्यग्रहस्ता-घटकाययुक्तहस्ता । इह षट्कायव्यग्रहस्ता सोच्यते यस्या हस्ते सजीवलवणमुदकमग्निर्वायुपूरितो दृतिकः फलादिकं बीजपूरादि मत्स्यादयो वा विद्यन्ते । ततः सा श्रमणार्थ-श्रमणभिक्षादानार्थमुत्थाय षटकायान भूम्यादौ निक्षिप्य पुनः तानेव घट्टयन्ती-तत्सदं कुर्वाणा तानेव गाहमाना-विलोडनेनेतस्ततो विक्षेपणेनाऽगाढं गाढं वा परितापयन्ती । तानेवारभमाणा चषट्कायोपद्रवकरमारम्भं कुर्वाणा । खननमर्दनादिना पृथिवीकार्य, मजनवस्त्रधावनादिनाऽप्कायम् , उल्मूकघट्टनादिनाऽग्निम् , अग्न्यादेः फूत्करणादिना मारुतं, फलादेः कर्त्तनादिना वनस्पतिं. स्फुरन्मत्स्यादिछेदनादिना त्रसकाय विराधयन्तीत्यर्थः । एवंविधा दात्री प्रतिषिद्धा । एतस्याः पार्थात् साधुमिर्भिक्षा न ग्राहोत्यर्थः । एवंप्रकारः षष्ठः एषणादोषः ६। उम्मिश्रं नाम साधूनां दानयोग्यमोदनादि, अयोग्यं तु सचित्तं फलादि, मिश्रमामपक्वपृथुकादि, अचित्तं च तुषादि । एतानि द्वन्यादीनि वस्तून्यनाभोगादिना मिश्रयित्वा गृहस्थो यद्ददाति । तत्र सचित्तन मिश्रण वा वस्तुना मिश्रीकृत्य यद्देयद्रव्यं ददाति तन कल्पते, अन्यत्र तु भजना ७। अपरिणतं द्विधा-द्रव्यापरिणतं भावापरिणतं च । तत्र द्रव्यापरिणतं यद्दातव्यद्रव्यमेवापरिणतमप्रासुकं भवति । भावो-ऽध्यवसायः। स च द्वयोः स्वामिनोर्मध्यादेकस्याऽपरिणतो दाने अनभिमुखाऽथवा मिक्षागतसाधुसङ्घाटकमध्यादेकतरस्य साधोर्मनसि एतल्लभ्यमानमशनादि निर्दोषमित्यध्यवसायः द्वितीयस्य तु न तथा । ततो भावेन दातृसत्केन ग्रहीतृसाधुसत्केन वाऽपरिणतं भावापरिणतम् ८ । लिप्तं नाम दधिक्षीरघृततैलतीमनप्रभृतिद्रव्यस्य लेपः करभाजनादौ लगति, तच्च कारणं विना न गृह्यते । यदाह 'चित्तव्वमलेवकड लेवकडमाहु पच्छकम्माई । न य रसगेहिपसंगो न य भुत्ते बंभपीडा य' ॥ १ ॥ ननु यद्येवं लेपकृद्रहणे पश्चात्कर्मादयो दोषा भवन्ति ततस्तन्न गृह्यते, तर्हि मा कदाचनापि साधु(कताम् ? । एवं हि सर्वेषां दोषाणां मूलत एवोत्थोनं निषिद्धं भवति । गुरुराह-सर्वकालं क्षपणमेव कुर्वतः साधोश्चिरकालभावितपोनियमसंयमानां हानिर्भवति. तस्माद्यावज्जीवं क्षपणं न कार्यम् । पुनः प्राह यदि सर्वकालं क्षपणं कर्तुमशक्तस्तहि षण्मासक्षपणं कृत्वा पारणकमलेपकृता विधत्ताम् । गुरुराहयद्येवं तपःकुर्वन् संयमयोगान् कत्तुं शक्नोति तर्हि करोतु, न कोऽपि तस्य निषेद्धा । पुनरप्याह-यदि षण्मासक्षपणं कर्तुं न शक्नोति तर्हि एकदिनोनं षण्मासक्षपणं कृत्वा आचाम्लेन पारयतु । एवमेकंकदिनहान्या तावदात्मानं तोलयेद् यावच्चतुर्थं कृत्वा आचाम्लेन पारणकं करोतु । एवमप्यसामर्थ्य दिवसे दिवसे गृह्णात्वाचाम्लं निर्लेपम् ? । गुरुराह-करोत्वेवं तपो, यदि प्रत्युपेक्षणादि-संयमयोगभ्रंशो न भवति । केवलं सम्प्रति सेवार्तसंहननानां नास्ति तादृशी शक्तिरिति न तथोपदेशो विधीयते । पुनः परः प्राह-ननु महाराष्ट्राः कोशलदेशोद्भवाः सदैव सौवीरकूरमात्रभोजिनः तेऽपि च सेवार्तसंहननाः , ततो 2010_05 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ श्राद्धजीतकल्पे यदि तेऽपीत्थं यापयन्ति यावज्जी तर्हि तथा सौवीरकूरमात्रभोजनेन किं न यतयो मोक्षगमनैकबद्धकक्षा यापयन्ति ? तैः सुतरामेवं यापनीयं प्रभूतगुणसम्भवात् । गुरुराह तिअ सीअं समणाणं तिअमुण्ह गिहीण तेण णुन्नायं । तकाईणं गहणं कट्टरमाईसु भइयव्वं ॥१॥ व्याख्या-आहार उपधिः शय्या एतानि त्रीण्यपि गृहिणां शीतकालेऽप्युष्णानि भवन्ति । तेन तेषां तक्रादिग्रहणमन्तरेणापि बाह्याभ्यन्तरोष्णतापेनाहारोष्णतापेनाहारो जीर्यते । तत्राऽभ्यन्तरो भोजनवशात् । बाह्य शय्योपधिवशात् । एतान्येवाहारोपधिशय्यारूपाणि त्रीणि वस्तूनि यतीनां प्रीष्मकालेऽपि शीतानि भवन्ति । तत्राहारस्य शीतता भिक्षाचर्यायां प्रविष्टस्य बहुषु गृहेषु स्तोकस्तोकलाभेन बृहद्वेलालगनात् , उपधेरेकवारमेव वर्षाकालादर्वाक् प्रक्षालनेन मलिनत्वात् , शय्यायास्तु प्रत्यासन्नाग्निकरणाभावेन । तेन कारणेन ग्रीष्मकालेऽप्याहारादीनां शीतत्वसम्भवरूपेणोपहन्यते जाठरोऽग्निः । तस्माच्चाम्न्युपघातोदजीर्णबुभुक्षामान्द्यादयो दोषा जायन्ते । ततस्तकादिग्रहणं साधुनामनुज्ञातम् । तक्रादिनाऽपि हि जाठरोऽनिरुद्दीप्यते । तेषामपि तथास्वभावत्वात् । कट्टरादिषु-घृतवटिकोन्मिश्रतीमनादीनां ग्रहणं भाज्यम् । ग्लानत्वादिप्रयोजनोत्पत्ती कार्य, न शेषकालमिति भावः । तेषां बहुलेपत्वात् गृद्धिजनकत्वाच्च । एतत्सर्वं प्रासङ्गिकम् । प्रस्तुतं तु लिप्तम् । तत्र च दातुः सम्बन्धी हस्तः संसृष्टोऽसंसृष्टो वा भवति । येन च कृत्वा मिक्षां ददाति तदपि मात्रकं संसृष्टमसंसृष्टं वा । द्रव्यमपि सावशेषं निरवशेषं वा। एतेषां च त्रयाणां पदानां परस्परं संयोगतोऽष्टौ भङ्गाः । संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रं सावशेषं द्रव्यम् १ । संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्र निरवशेषं द्रव्यम् २ । संसृष्टो हस्तोऽसंसृष्टं मात्रं सावशेषं द्रव्यम् ३ । संसृष्टो हस्तोऽसंसृष्टं मात्रं निरवशेषं द्रव्यम् ४ । असंसृष्टो हस्त: संसृष्टं मात्रं सावशेषं द्रव्यम् ५ । असंसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रं निरवशेषं द्रव्यम् ६ । असंसृष्टो हस्तोऽसंसृष्टं मात्रं सावशेषं द्रव्यम् ७ । असंसृष्टो हस्तोऽसंसृष्टं मात्र निरवशेषं द्रव्यम् ८ । एतेषु चाष्टसु भङ्गेषु प्रथम-तृतीय-पञ्चम-सप्तमेषु कल्पते, सावशेषद्रव्ये सति पश्चात्कर्मासम्भवात् । समेषु पुनर्न कल्पते, निरवशेषे द्रव्ये सत्यवश्यं पश्चात्कर्मसम्भवात् ९ । छर्दितं नाम उज्झितं त्यक्तमिति यावत् । तच्च द्विधा-अनन्तरं परम्परं च । यदशनादौ दीयमाने पृथिव्यादिषु षटजीवनिकायेषु परिशाटिनिरन्तरं पतति तदनन्तरं छर्दितं, यत्र तु सान्तरं पतति तत्परम्परं छर्दितम् । छर्दितग्रहणे च षटजीवनिकायविराधनादयो दोषाः सम्भवन्ति । तत्र च मधुबिन्दूदाहरणम् । तच्चेदं-चम्पानगर्या धर्मघोषो मन्त्री । तस्य प्रियङ्गनाम्नी भार्या । एकदोत्पन्नवैराग्यः स प्रवत्राज । कालेनाधीतका. दशाङ्गादिश्रुत एकांकिविहारप्रतिमाप्रतिपन्नो वारत्तयपुरेऽभयसेनराजाऽमात्यवारत्तयगृहे भिक्षार्थं गतः । भूमौ स घृतक्षीरबिन्दुनिपातादगृहीतभिक्ष एव गतः । क्षीरबिन्दौ मक्षिकाः समागताः । ता दृष्टवा तत्र गृहकोलिकः । तदुपरि दुष्टमार्जारः । तं प्रति कुतश्चिदासनग्रामागत-राजपुत्रश्वा, तं प्रति वास्तव्यराजपुत्रश्वा । ततश्च शुनोः परस्परं युद्धे जायमाने तत्स्वामिनोयुद्धमजनि । एतत्सर्वं गवाक्षस्थेन मन्त्रिणा दृष्टम् । ततश्च मन्त्रिणोत्तोर्य वारितौ श्वप्रभू । मन्त्री चिन्तयति-अत एव मुनिना भिक्षा न गृहीता । सञ्जातजातिस्मृतिर्दीक्षां लात्वा वारत्तयमुनिः सुंसुमारपुरे गत्वा देवकुले प्रतिमया स्थितः । इतश्च तत्र धुन्धुमारराजपुत्रीमङ्गारवती चण्डप्रद्योतो याचते । राजा न दत्ते । चण्डप्रद्योतेन पुरं वेष्टितम् । नैमित्तिकश्च श्रुतिं विलोकयन् रात्रौ बालकानि भापयति । तानि तं दृष्ट्वा यत्र देवकुले वारत्तकमुनिः 2010_05 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्च ग्राणादोषाः प्रतिमया स्थितः तत्र गच्छन्ति । सहसा ' मा भैष्ट' इति साधुनोक्ते नैमित्तिको पृष्टः सन् राज्ञे वक्तितब जयोऽस्ति । राज्ञा युद्धं कृतं । चण्डप्रद्योतो बद्धः पुनः सत्कार्य सन्मान्य पुत्री दत्ता । चण्डप्रद्योतः कियन्ति दिनानि स्वपुरे स्थापितः । ततश्चण्डप्रद्योतेन बलाल्पं दृष्ट्वा सा पृष्टा कथमहं बद्धः ? | तयोक्तं मुनिप्रोक्तशकुनबलेन । ततश्चण्डप्रद्योतेन ' हे नैमित्तिक साधो ! तुभ्यं नम ' इत्युपहासे कृते वारत्तकमुनिरा-प्रव्रज्यादिनादती चारमपश्यन् बालव्यतिकरं स्मृत्वा प्रतिक्रम्य मुक्ति गत इति १० । एते दश ग्रहणैषणा दोषा भवन्ति । अथ ग्रासैषणादोषास्ते च पञ्च । यदुक्तम् " संजोअणा पमाणे इंगाले धूमकारणे पढम 'ति । गाथापूर्वार्द्धम् । तत्र पूर्वं संयोजना सा च द्वधा-बाह्या अभ्यन्तरा च । वसतेर्बहिरेव भिक्षामटन् साधू रसगृद्धया दुग्धदध्योदनादीनां द्रव्याणामनुकूलद्रव्यैः सह संयोजन रसविशेषोत्पादनाय यत्करोति सा बाह्या संयोजना । अभ्यन्तरा पुनसतावागत्य भोजनवेलायां संयोजयति । सा च त्रेधा - पात्रे कवले वदने च । तत्र यद् द्रव्यं यस्य रसविशेषाधायि तत्तेन सह पात्रे रसगृद्धया संयोजयति । यथा सुकुमारिकादिकं खण्डादिना सह । एषा पात्रम्यन्तरा संयोजना । यदा तु हस्तगतमेव कवलतयोत्पाटितं सुकुमारिकादिचूर्ण खण्डादिना सह संयोजयति तदा कवले । यदा पुनर्वदने कवलं प्रक्षिप्य ततः शालनकं प्रक्षिपति यद्वा-मण्डकादिकं पूर्वं प्रक्षिप्य पश्चात् गुडादिकं प्रक्षिपति तदा मुखे । रसगृद्धया च बाह्यद्रव्याणां संयोजनां कुर्वन्नात्मनो ज्ञानावरणीयादिकर्म पुद्गलसमूहैः सह संयोजनां करोतीति निषिद्धा संयोजना | वर्द्धिष्णुघृतादिनिगमनार्थं संयोगोऽनुज्ञातस्तीर्थ कृदादिभिः । तत्परिष्ठापने पश्चादपि की टिकादिबहुसत्त्वोपघातसम्भवेन बृहत्तरप्रायश्चित्तसम्भवात् । एवं ग्लानाद्यर्थमपि संयोजना न दुष्टा । यदुक्तम् ४७ रसहेउं संजोगो पडिसिद्धो कप्पए गिलाणट्ठा । जस्स व अभत्त छेदो सुहोचिओ भाविओ जो य ||१|| पिण्डाधिकाराच्व पिण्डविषयैवैषा संयोजनाऽभिहिता । एवमुपकरण विषयाऽपि साऽवगन्तव्या १ । अथातिप्रमोणदोषः । तत्र साधोर्यावन्मात्रेण द्वात्रिंशत्कवला दिप्रमाणेनाहारेण भुक्तेन धृतिबलसंयमयोगा न हीयन्ते तावन्मात्रमाहारप्रमाणं भोजने विज्ञेयम् । कुकुड्यण्डकप्रमाणकवलापेक्षं पुनरेवमाहारमानमभिधीयते - 'बत्तीसं किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ । पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं भवे कवला' ॥ १ ॥ उदरभागापेक्षं त्वेवं— " > अद्धमसणस्स सर्वजणस्स कुज्जा दवस्स दो भाए । वायपविआरणट्ठा छब्भागं ऊणगं कुज्जा' ॥१॥ प्रकामनिकामप्रणीतभक्तपानातिबह्वाहाराति बहुवारभोजनादौ च प्रमाणातिक्रमदोषः स्यात् । यदुक्तं ' पगामं च निगामं च पणीअं भत्तपाणमाहरे । अइबहुअं अइबहुसो पमाणदोसो मुणेयव्वो ' ॥ १ ॥ तत्र द्वात्रिंशदादिकवलेभ्यः परतो भुञ्जानस्य प्रकामभोजनं । तदेव च प्रत्यहं क्रियमाणं निकामभोजनम् । गलत्स्नेहं भोजनं प्रणीतम् । अतिशयेन निजप्रमाणातिरेकेण बहु अतिबहु । त्रिभ्यो वारेभ्यः परतो भोजनमतिबहुशः । अतिप्रमाणे च भोजने वमनातिसारमरणादयो दोषा भवन्ति । अतः प्रमाणातिक्रमो न कर्त्तव्यः प्रमाणयुक्तमेव च भोक्तव्यम् । तस्यैव गुणावहत्वात् । यदाह - 2010_05 For Private Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ श्राद्धजीतकल्पे 'अप्पाहारस्स न इंदियाई विसएसु संपवटुंति । नेव किलिस्सइ तवसा रसिएसु न मुज्झए आवि' ॥ १॥ तथा हिआहारा मिआहारा अप्पाहारा य जे नरा । न ते विज्जा तिगिच्छंति अप्पाणं जे तिगिच्छिगा' ॥ २ ॥२। अङ्गारं नाम यनिर्दोषमप्याहारं भुञ्जानः तद्गतविशिष्टगन्धरसास्वादवशतो जाततद्विषयमूर्छः सन्नहो ! सुसम्भृतं सुस्निग्धं सुपक्वं सुरसमित्येवं प्रशंसति तद्भोजनमङ्गारम् , चरणेन्ध नस्य प्रदीप्तरागाग्निना अङ्गारसन्निभत्वापादनात् । यदुक्तं -' तं होइ सइंगालं जं आहारेइ मुच्छिओ संतो' ।३। धूमं नाम यनिर्दोषमप्याहारं भुञ्जानः तद्गतविरूपरसगन्धास्वादतो जाततद्विषयद्वेषः सत्रहो ! विरूपं कुथितमपक्वमसंस्कृतमलवणं चेति निन्दति तद्भोजनं धूमम् ४ । ' द्वेषामिना चरणे न्धनस्य स धूमोपमत्वकरणात् । आह च- - तं पुण होइ सधूमं जं आहारेइ निंदतो । ४ । अकारण नाम कारणाभावेऽप्याहारग्रहणम् । इह साधूनामाहारग्रहणकारणानि षट् भवन्ति । तानि चामूनि 'वेअणवेयावच्चे इरिअट्ठाए अ संजमाए । तह पाणवत्तिआए छठें पुण धम्मचिंताए' ॥ १॥ अस्या अर्थः-वेदना-बुभुक्षारूपा पीडा तदुपशमनाय । यदुक्तं-' नत्थि छुहाइ सरिसआ विअणा भुंजिज्ज तप्पसमणट्ठा' । तथा आचार्यादीनां वैयावृत्यकरणाय । यदाह-छाओ वेयावच्चं न तरइ काउं अओ भुंजे' । तथा ईर्यापथसंशोधनार्थं । बुभुक्षितो हि ध्यामललोचनत्वादित ईर्यापथं शोधयितुं न शक्नोति । तथा संयमः-प्रत्युपेक्षणाप्रमार्जनादिलक्षणः तदर्थ-तत्परिपालननिमित्तम् । तथा प्राणप्रत्ययार्थ-प्राणधारणार्थं । षष्ठं पुनः धर्मचिन्तार्थ सूत्रानुचिन्तनादिरूपधर्मध्यानामिवृद्धयर्थं भुञ्जीतेति क्रियासम्बन्धः । षड्मिस्तु कारणः साधुने भुजीत । तानि चेमानि 'आर्यके उवस्सगे तितिक्खया बंभचेरगुत्तीसु । पाणिदयातवहे सरीरवुच्छेयणढाए' ॥१॥ अस्या अर्थः-आतङ्के-ज्वराजोर्णादावुत्पन्न सति नाभीयात् । तथा उपसर्गे-राजस्वजनादिकृते देवमनुष्यतिर्यकृते वा सञ्जोते सति तितिक्षार्थमुपसर्गसहनार्थं न भुजीत । तथा ब्रह्मचर्यगुप्तिष्वित्यत्र षष्ठयर्थे सप्तमी । ततोऽयमर्थः-ब्रह्मचर्यगुप्तीनां परिपालनाय न जेमेत् । तथा प्राणिदयाहेतोः वर्ष-वर्षति महिकायां वा पतन्त्यां प्राणिदयार्थं नाभीयात् । सूक्ष्ममण्डूक्यादिसंसक्तायां वां भूमौ प्राणिदयार्थमटनं परिहरन्न भुञ्जीतेति भावः । तथा तपः-चतुर्थादिलक्षणं तद्धेतोः तत् करणनिमित्तं नाद्यात् । तथा शिष्य निष्पादनादिसकलकर्त्तव्यतानन्तरं पश्चिमकाले-पाश्चात्यवयसि संलेखनाकरणेन यावज्जीवानशनप्रत्याख्यानकरणस्यात्मानं योग्यं कृत्वा शरीरस्य व्यवच्छेदार्थ भोजनं परिहरेत् नान्यथा । यतः शिष्यनिष्पादनाद्यभावे प्रथमे द्वितीये वा वयसि संलेखनामन्तरेण वा शरीरपरित्यागार्थमशनप्रत्याख्यानकरणे जिनाज्ञाभङ्गः। ततश्च यानि षडाहारग्रहणकारणान्यभिहितानि विनापि बलरूपादिनिमित्तं रसगृद्धया वा य आहारो गृह्यते तदकारणं भोजनम् । तथा कारणानि यान्याहारग्रहणविषये प्रदर्शितानि तेषु समुत्पन्नेष्वप्याहाराग्रहणे दोषः । ननु आहाराप्रहणं तपोरूपं तपश्च परमपदापणप्रवणकारणगणाप्रेसरम् । अतः कथं तस्मिन् विधीयमाने दोषसम्भवः ? । भवानुबन्धि-सावद्यव्यापारनिबन्धनत्वाद् दोषापत्तेः । सत्यम् ; परं तपोऽपि जिनाज्ञयैव विधीयमानं सिद्धिनिबन्धनं सम्पद्यते । अन्यथा तु क्रियमाणं तदपि भवानुबन्ध्येव भवेत् । अतस्तस्मिन् तथाविधे दोषापत्तिरपि सम्भाव्यते इति ५ । इति पञ्च ग्रासैषणा दोषाः । सर्वे 2010_05 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्धान्नपानादि ददानस्य प्रायश्चित्तम् मीलिताः सप्तचत्वारिंशद् भवन्ति । इत्युक्तमाधाकर्मादिदोषस्वरूपम् । अर्थतेषु षोडशोत्पादनादोषाणां [ चतुर्णा ] ग्रासैषणादोषाणां च साधुप्रभवत्वात् तेषु न श्राद्धानां प्रायश्चित्तसम्भवः । षोडशोद्गमदोषेषु गृहस्थप्रभवत्वात् सर्वेषु एषणादोषाणां तूभयप्रभवत्वाद् येषु श्राद्धानां प्रार्याश्चत्तसम्भवो यथायोग तेषु तेषु सक्षेपेण प्रायश्चित्तमतिदिशति गुरुग जईणमगाढे दिते कम्माइ लहुग मीसाई। / अझोयराइ गुरुगो लहु उद्दिसिए पणग ठविए ॥4 व्याख्या-' गुरुग जइणमगाढे दिते कम्माइ 'त्ति । यतीनामगाई तथाविधग्लानादिगाल कार्याभावे आधाकादि-गुणे गुणवदुपचारादाधाकर्मादिदोषवदन्नपानादि ददानमा पन्तस्य चतुर्गुलथे प्रायश्चित्तं भवतीति । एवमग्रेऽपि भावना कार्या । अत्रादिशब्दात कर्मसमुद्देशाकमेदवयं, पाखण्डिमिश्रजातयतिमिश्रजातरूपमिश्रजातान्त्यभेदद्वयं, बादरप्राभृतिका, सप्रत्यपायपरग्रामाभ्याहृतम्, अचित्तगुरुद्रव्यपिहितम् , अनन्तकायानन्तरनिक्षिप्तपिहितसंहृतानि तथा दायकदोषमाश्रित्य प्रगलत्पादुकारूढौ द्वित्रिचतुरिन्द्रियानन्तकायोपद्रवं कुर्वाणा, पन्चेन्द्रियोपद्रवं कुर्वाणायाः शास्त्रान्तरे षड्लघुकस्योक्तत्वात पञ्चेन्द्रियमाढपरितापं कुर्वाणाच, सचित्तानन्तकायोन्मिश्रम् , अनन्तकायाऽपरिणतम् , अनन्तकायनिरन्तर छर्दितं च गृह्यते । ततः कर्मोद्देशादि दोषवदन्नपानाद्यपि ददानस्य श्राद्धस्य चतुर्गुरु प्रायश्चित्तं भवतीति भावः तथा ' लहुग मीसाइ 'त्ति । मिश्रजातेऽन्त्यभेदद्वये चतुर्गुरुप्रायश्चित्तस्योक्तत्वात शेषयावदर्थिकमिश्रजातादिदोषवदन्नपानादि ददानस्य श्राद्धस्य चतुर्लघु प्रायश्चित्तं भवति । अत्राप्यादिशब्देन कर्मोद्देशं, प्रकाशकरणरूपप्रादुष्करणान्त्यभेदं क्रीताऽऽद्यभेदत्रयं, लौकिकषामित्य-परावर्तिते, निष्प्रत्यपायपरग्रामाभ्याहृतं, लिप्तोद्भिन्ने, कपाटोद्भिन्ने, उत्कृष्टमालापहृतं, त्रिविधमप्याच्छेद्यं, त्रिविधमप्यनिसृष्टं, निर्मिश्रकर्दम क्षितम्, अप्कायम्रक्षितभेदौ पुरःकर्मपश्चात्कर्मणी, गर्हिताचित्तम्रक्षितं, अगर्हितसंसक्ताचित्तम्रक्षितं, तेजोवायुप्रत्येकवनस्पति-त्रसकायनिरन्तरनिक्षिप्तपिहितसंहृतोन्मिश्राणि तथा दायकदोषमाश्रित्य स्थविरादय आद्याः सप्तविंशतिर्दायकाः, पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतीनामुपद्रवं कुर्वाणा, द्वित्रिचतुरिन्द्रियानन्तवनस्पतीनां गाढपरितापं कुर्वाणा, पञ्चेन्द्रियस्यागाढपरितापं कुर्वाणा दात्री च, पृथिव्यादिष्वनन्तरछर्दितं च गृह्यन्ते । तथा-' अज्झोअराइ गुरुगो'त्ति । अध्यवपूरकाद्यभेदे लघुमासस्याभिधास्यमानत्वादन्त्यभेदद्वयं ग्राह्यम् । ततोऽध्यवपूरकान्त्यभेदद्वयादिदोषवदन्नपानादि ददानस्य श्राद्धस्य गुरुकं-गुरुमासः ॥ प्रायश्चित्तं भवति । अत्र पुनरादिशब्दतश्चतुर्विधं कृतोद्देशिकं, मध्यमं मालापहृतम् , अनन्तकायपरम्परनिक्षिप्त-पिहित-संहृतोन्मिश्रानन्तकायनिरन्तरनिक्षिप्त-पिहित-संहृतानि दायकदोषमाश्रित्य पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतीनां गाढपरितापं कुर्वाणा द्वित्रिचतुरिन्द्रियानन्तवनस्पतीनामगाढपरितापं कुर्वाणा पञ्चेन्द्रि याणां सङ्घदं कुर्वाणा च मिश्रानन्तकायोन्मिश्रम अनन्तकायपरम्परछर्दितं, मिश्रानन्तकायनिरन्तरछर्दितं च गृह्यन्ते । तथा — लहु उद्दिसिए 'त्ति । कृतोद्देशकर्मोद्देशादिषु प्रागपि प्रायश्चित्तस्याभिहितत्वादत्रौ द्दशिकशब्देनोद्दिष्टो द्देशाद्यौ देशिकाद्यभेदचतुष्टयं गृह्यते । ततश्च उद्दिष्टोद्देशादिभेदचतुष्टयदोषवदन्नपानादि ददानस्प श्राद्धस्य लघुमासः प्रायश्चित्तं भवतीति । अत्रोपलक्षणत्वादुपकरणपूतिः, विरस्थापना प्रादुष्करणा 2010_05 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे ऽऽधभेदः प्रकटकरणरूपः, परभावक्रीतं, स्वग्रामाभ्याहृतं, दर्दरोद्भिन्नं, जघन्यमालापहृतं. यावदर्थिकमिश्ररूपोऽध्यवपूरकाद्यभेदः, सेटिकादि-पृथ्वीकायम्रक्षितं, उदकार्द्ररूपमप्कायम्रक्षितं, प्रत्येकवनस्पतिम्र. क्षितं, पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतित्रसेषु परम्परनिक्षिप्त-पिहित-संहृतानि, मिश्रपृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतित्रसेषु परम्परनिक्षिप्त-पिहित-संहृतानि, दायकदोषमाश्रित्य कर्त्तयन्ती, लोढयन्ती, पिञ्जयन्ती, विकीर्णयन्ती, पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतीनामगाढपरितापं कुर्वाणा द्वित्रिचतुरिन्द्रियानन्तकायवनस्पतीनां सङ्घद्रं कुर्वाणा च । मिश्रपृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पत्युन्मिश्र, मिश्रपृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतिपरिणतं, सचित्तपृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतिषु परम्परछर्दित, मिश्रपृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतिषु निरन्तरछर्दितं च गृह्यते । तथा 'पणग ठविए 'त्ति । चिरस्थापनायां प्राग लघुमासस्योक्तत्वाद् अत्र स्थापनाशब्देनेत्वरस्थापना गृह्यते । तत इत्वरस्थापनादोषवदन्नपानादि ददानस्य श्राद्धस्य पञ्चकं मिनमासः प्रायश्चितं भवतीति । अत्राऽप्युपलक्षणत्वात् सूक्ष्मप्राभृतिका, सरजस्कम्रक्षितं, सस्निग्धरूपमप्कायप्रक्षित, मिश्रपृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतित्रसेषु परम्परनिक्षिप्तपिहितसंहृतानि दायकदोषमाश्रित्य पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतीनां सबटुं कुर्वाणा प्रत्येकानन्तबीजोन्मिश्ररूपं बीजोन्मिश्र, प्रत्येकानन्तबीजाऽपरिणतरूपं बोजाऽपरिणतं, मिश्रपृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतिषु परम्परछर्दितं, प्रत्येकानन्तबीजेषु निरन्तर परम्परछर्दित, मिश्रानन्तकायपरम्परछर्दितं च गृह्यते । ततः सूक्ष्मप्रामृतिकादिदोषवदन्नपानादि ददानस्य श्राद्धस्य पञ्चकं भिन्नमासः प्रायश्चित्तं भवतीति । तथा प्रथममेषणादोषं शङ्कितमाश्रित्य दायकः साधोरन्नपानादि ददानो यं यं दोष शङ्कते प्रागुक्ततत्तदोषप्रायश्चितवान् भवति । तथाऽनेक-द्वीन्द्रियायुपघातं कुर्वन्त्यास्तु दात्र्या यावतां द्वीन्द्रियादीनामुपघातः कृतः तावन्ति स्वप्रायश्चित्तानि भवन्ति । अयमर्थः-यद् यस्य द्वीन्द्रियादेरुपघातेऽत्र जीतकल्पे प्रायश्चित्तं भणितमस्ति तस्य स्वप्रायश्चित्तमुच्यते । तच्चकस्य द्वीन्द्रियादेरुपघाते एकं स्वप्रायश्चित्तं भवति । द्वयोरुपघाते द्वे स्वप्रायश्चित्ते भवतः । त्रयाणामुपपाते त्रीणि तानि भवन्ति । यावद्दशानामुपघाते दश स्वप्रायश्चित्तानि स्युः । ततः परमेकादशादिषु बहुष्वपि यावदसङ्ख्येयेष्वपि द्वीन्द्रियादिषूपहतेषु दशैव स्वप्रायश्चित्तानि भवन्तीति । यदुक्तं सामाचार्याम् 'एगाइदसतेसु एगाइदसतयं सपच्छित्तं । तेण परं दसगं चिय बहुएसु वि सगलविगलेसु ॥२॥ अयमाधाकर्मादिषु प्रायश्चित्तविधिः 'गुरुग-जईणमगाढे' इत्यादिगाथासंसूचितो यतिजीत-कल्पोक्तरीत्या प्राहकसाध्वनुसारेणैव दायकस्यापि श्राद्वादेरुक्तोऽन्यत्र क्वापि तद्विधेः पृथगदर्शनादिति गाथार्थः ॥ अथ साधोः पार्खाल्लेखशालाद्यात्मीयकार्यकारणे श्राद्धस्य प्रायश्चित्तं पादोनगाथाद्वयेन निरूपयति साहहिं लेहसालं चिगिच्छ-चप्पुडिअ-रक्खडी-खडिअं । सिसुकीलण-घरकम्मं कयविक्कयमेसिमेहिं वा ॥ ६०॥ कंकणिअ-कंडगाई गणत्तिआहारपोअणाइ तहा । कारिते पणकलं लहू तदभंगपयधुवणे ॥ ६१ ॥ व्याख्या-साधुमिर्लेखशालां-शिशुपाठनरूपां कारिते ‘पणकल्ल' मित्यस्य द्वितीयगाथातृतीयपदवर्तिनः सर्वत्र योगात यदि श्राद्धः कारयति तदा पञ्चकल्यं प्रायश्चित्तं भवति । एवं 'चिगिच्छत्ति । 2010_05 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वस्थादीनां स्वरूपम् चिकित्सा-रोगप्रतीकारं । 'चप्पुडिअ 'त्ति । चप्पुटिकां । ' रक्खडी 'त्ति । रक्षाटिकां । 'खडिअं'ति । खटिका । 'सिसुकीलणे'ति । शिशुक्रीडनं । 'घरकम्म'ति । गृहकर्म च धवलनचित्रकरणादि । एतानि सर्वाण्यपि श्राद्धो यदि साधुमिः कारयति तदो श्राद्धस्य पञ्चकल्यं प्रायश्चित्तं भवतीति । 'कयविक्कयमेसिमेहिं व 'त्ति । तथैतेषां साधूनां सम्बन्धिवस्तुनः क्रयविक्रययोः करणे । तथैतैर्वा साधुमिः स्वसम्बन्धि वस्तुनः क्रयविक्रययोर्विधापने च श्राद्धस्य पञ्चकल्यं प्रायश्चित्तं भवतीति प्रथमगाथाक्षरार्थः । कङ्कणिकाकराभरणं कंडगं-वलयं आदिशब्दादन्याभरणसमारचनादि । 'गणत्तिआहारपोअणाइ तह 'त्ति । तथा गणेत्रिकाहारप्रोतनादि, आदिशब्दादन्यदप्येवंविधं साधुजनानुचितं गृहकर्म गृहस्थः साधुमिर्यदि कारयति तदा गृहस्थस्य पञ्चकल्यं प्रायश्चित्तं भवतीति । तथा 'लहू तब्भंगपयधुवणे 'त्ति । तेषां साधूनां श्राद्धन गात्राभ्यङ्गादाने पादधावने च श्राद्धस्य लघुमासः प्रायश्चित्तं भवतीति द्वितीयगाथाक्षरार्थः ।। ६१ ॥ अथ कारणे पार्श्वस्थादीनामवन्दनेऽपि श्राद्धानां प्रायश्चित्तं भवतीत्येतत्प्रतिपादयति उप्पन्नकारणमि किइकम्मं जो न कुज दुविहं पि । पासत्थाईआणं उग्घाया तस्स चत्तारि ॥ ६२॥ व्याख्या-श्रीसङ्घगच्छादिकार्येऽनन्यसाध्ये उत्पन्ने सति कृतिकर्म-वन्दनकं यः श्राद्धादिर्न कुर्यात् द्विविधमपि-अभ्युत्थानवन्दनकरूपं । केषां ? पार्श्वस्थादीनां-पार्श्वस्थावसन्न-कुशील-संसक्त-यथाछन्दानां किं तस्य प्रायश्चित्तम् ? इत्याह-'उग्घाया तस्स चत्तारि 'त्ति । ' उग्घाया नाम जं संतरं दाणं लघुमित्यर्थ' इति निशीथचूर्णिवचनादुद्घाता-लघवः तस्य श्राद्धस्य चत्वारः-चतुर्लघुप्रायश्चित्तं भवतीति भावार्थः । अत्र किश्चित् पार्श्वस्थादीनां स्वरूपमावश्यकान्तर्गतषन्दननिर्युक्त्यादिगाथामिः स्पष्टीक्रियते‘सो पासत्यो दुविहो देसे सव्वे अ होइ नायव्वो। सव्वंमि नाणदंसण-चरणाणं जो उ पासमि' ॥१॥ व्याख्या-स पार्श्वस्यो द्विविधो-द्विप्रकारः। तद्यथा-देशे-देशतः सर्वस्मिन्-सर्वतः । तत्राल्पवक्तव्यत्वात् सर्वत आह-सव्वंमी 'त्यादि । सर्वस्मिन् । एष सर्वतः पार्श्वस्थः उच्यते इत्यर्थः । क ? इत्याहज्ञानम्-आमिनिबोधिकादि दर्शनं-सम्यक्त्वं चारित्रम्-आश्रवनिरोधः। एतेषां यः पार्वे-तटे वर्तत इति वाक्यशेषः । ज्ञानादिषु नान्तर्गत इत्यर्थः । देशतः पार्श्वस्थमाह ___देसंमि य पासत्यो सिज्जायरमिहडरायपिंडं वो। नीयं च अम्गपिंडं भुंजइ निकारणं चेव' ॥२॥ व्याख्या- देसंमी 'ति । देश-एष देशतः पार्श्वस्थ उच्यते । क ? इत्याह-यः शय्यातराभ्याहृतराजपिण्डमग्रपिण्डं च भुङ्क्ते निष्कारणमेव । तथा ___ 'कुलनिस्साए विहरइ ठवणकुलाणि अ अकारणे पविसइ । संखडिपलोयणाए गच्छइ तह संथवं कुणइ ' ॥३॥ व्याख्या-कुलनिश्रया विहरति, यानि कुलानि तस्याग्रे सम्यक्त्वं प्रतिपन्नानि तोनि येषु प्रामेषु नगरेषु वा वसन्ति तेषु गत्वा तेभ्य आहारादिकमुत्पादयतीत्यर्थः। तथा अकारणेकारणाभावेऽपि स्थापनाकुलानि प्रविशन्ति । अथवा यानि लोके गर्हितानि कुलानि तानि स्थापितान्यु. च्यन्ते, तेषामपरिभोग्यतया जिनः स्थापितत्वात् । तेभ्य आहारादिकमुत्पादयति । तथा सङ्खड्याः सतत 2010_05 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे माहारलौल्यतः प्रलोकनाय गच्छति । तथा संस्तवं द्विविधं-मातापित्रादिसम्बन्धयोजनारूपं पूर्वसंस्तवं श्वश्वादिनात्रक-योजनारूपं पश्चात्संस्तवं च करोति । उक्तः पावस्थः । साम्प्रतमवसन्नमाह 'ओसन्नो वि अ दुविहो सव्वे देसे य तत्थ सव्वंमि । उडुबद्धपीढफलगो ठविअगभोई य मुणेयव्वो' ॥ १ ॥ व्याख्या-अवसन्नोऽपि च द्विविधो ज्ञातव्यो सर्वतो देशतश्च । तत्र सर्वतोऽवसन्नो य ऋतुबद्धपीठफलक:-ऋतुबद्धकालेऽपि वर्षाकालं विनैवेत्यर्थः पीठफलकसेवकः। · अबद्धपीठफलगो' इति पाठे तु यः पक्षस्याभ्यन्तरे पीठफलकादीनां बन्धनानि मुक्त्वा प्रत्युपेक्षणं न करोति, यो वा नित्यावस्तृत. संस्तारकः सोऽबद्धपीठफलकः । तथा स्थापितकभोजो-स्थापनादोषदुष्टप्राभृतिकाभोजो । देशावसन्नमाह ___ 'आवस्सय-सन्हाए पडिलेहण-झाण-मिक्ख अमत्त । आगमणे निग्गमणे ठाणे अ निसीअण तुय?' ॥ २ ॥ व्याख्या-आवश्यकादिष्ववसीदन् देशतोऽवसन इत्योघतो गाथाक्षरयोजना । भावाथस्त्वयं-आवश्यकमनियतकालं करोति, यदि वा हीनं-हीनकायोत्सर्गादिकरणात् । अतिरिक्तं वा अनुप्रेक्षार्थमधिकाधिककायोत्सर्गकरणात् । अथवा देवसिके आवश्यके कर्त्तव्यं तद् रात्रिके करोति, रात्रिके कर्तव्य देवसिके । तथा स्वाध्यायं सूत्रपौरुषीलक्षणम् अर्थपौरुषीलक्षणं वा, कुरुघ्वमिति गुरुणोक्ते गुरुसंमुखीभूय किश्चिदनिष्टं जल्पित्वा करोति न करोति वा, सर्वथा विपरीतं करोति कालिकवेलायाम् उत्कालिकमुत्कालिकवेलायां कालिकं वा । तथा प्रतिलेखनामपि वस्त्रादीनामावर्त्तनादिमिरूनामतिरिक्तां वा विपरीतां वा दोषेर्वा संसक्तां करोति । तथा ध्यानं धर्मध्यानं शुक्लध्यानं वा यथाकालं न ध्यायति । तथा भिक्षां न हिण्डते । गुरुणा वा भिक्षां नियुक्तो गुरुसंमुख किश्चिदनिष्टं जल्पित्वा हिण्डते । तथा भक्तार्थ-भक्तविषयं प्रयोजनं सम्यग् न करोति । किमुक्तं भवति-न मण्डल्यां समुद्दिशति । काकशुगौलादिभक्षितं वा करोति । अन्ये तु व्याचक्षते 'अभसट्ट 'त्ति । अभक्तार्थप्रहणं सकलप्रत्याख्यानोपलक्षणं । ततोऽयमर्थःप्रत्याख्यानं न करोति, गुरुणा वा भणितो गुरुसंमुखं किश्चिदनिष्टमुक्त्वा करोति । आगमे नैषेधिकी न करोति निर्गमने आवश्यकी च । स्थाने-ऊर्ध्वस्थाने निषीदने-उपवेशने त्वग्वत्तने-शयने एतेषु क्रियमाणेषु न प्रत्युपेक्षणां करोति । नापि प्रमार्जनों करोति । अथवा प्रत्युपेक्षणप्रमार्जने दोषदुष्टे करोति । गतोऽवसन्नः। साम्प्रतं कुशीलमाह 'तिविहो होइ कुसीलो नाणे तह दसणे चरित्ते य । एसो अवंदणिज्जो पण्णत्तो वीयरागेहि ॥ १ ॥ व्याख्या-त्रिविधः-त्रिप्रकारो भवति कुशीलः। कथमित्याह-ज्ञाने तथा दर्शने चारित्रे च । एष कुशीलोऽवन्दनीयः प्रज्ञप्तो-भणितो वीतरागैः-तीर्थकृद्धिः । प्रकारत्रयमेवाह ___ 'नाणे नाणायारं जो उ विराहेइ कालमाईयं । दसणे दंसणायारं चरणकुसीलो इमो होइ' ॥ २ ॥ व्याख्या-यो ज्ञानाचारं कालादिकं — काले विणए ' इत्यादिरूपं विराधयति स ज्ञाने-ज्ञानकुशील उच्यते । यस्तु दर्शनाचारं निःशङ्कितत्वादिकं विराधयति स दर्शने-दर्शनकुशीलः । चरणकुशीलोऽयं वक्ष्यमाणलक्षणो भवति । तमेवाह ___ 'कोउअ भूईकम्मे पसिणापसिणे निमित्तमाजीवी। कक्ककुरुयाइ लक्खण उवजीवइ विज्जमंताई' ॥ ३ ॥ व्याख्या-कौतुकं नाम आश्चयं । यथा मायाकारको मुखे गोलकान् प्रक्षिप्य कर्णेन निःकाशयति 2010_05 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वस्थादीनां स्वरूपम् नासिकया वा । तथा मुखादग्निं निःकाशयतीत्यादि । अथवा परेषां सौभाग्यादिनिमित्तं यत् स्नपनादि क्रियते एतत्कौतुकम् । उक्तं च सोहग्गाइनिमित्तं परेसिं ण्हवणाइ कोउयं भणिय'मिति । तथा भूत्यादिकर्म नाम यत् वरितादीनाममिमन्त्रितेन क्षारादिना रक्षाकरणम् । 'जरियाइभूइदाणं भूईकम्मं विणिहिटुं' इतिवचनात् । प्रभाप्रश्नं नाम यत् स्वप्नविद्यादिमिः शिष्टस्यान्येभ्यः कथनम् । उक्तं च 'सुविणगविज्जाकहियं आइंखिणिघंटियाइकहिअं वा । जं सासइ अण्णेसिं पसिणापसिणं हवइ एअं' ॥ निमित्तमतीतादिभावकथनम् । तथा आजोवो नाम आजीविका । स च जात्यादिभेदः सप्तप्रकारः। तदुक्तं ‘जाईकुले गणे अ कम्मे सिप्पे तवे सुए चेव । सत्तविहं आजोव उवजीवइ जो कुसीलो उ ।। तत्र जात्यादयः प्रागुक्तस्वरूपाः। तपःश्रुते प्रतीते। एनं सप्तविधमाजीवं य उपजीवति-जीवनार्थमाश्रयते । तद्यथा-'जाति कुलं वात्मीयं लोकेभ्यः कथयति, येन जातिपूज्यतया कुलपूज्यतया वा भक्तपानादिकं प्रभूतं लभेयमिति । अनयैव बुद्धथा मल्लगणादिभ्यो गणेभ्यो गणविद्याकुशलत्वं, कर्म-शिल्पकुशलेभ्यः कर्मशिल्पकौशलं कथयति । तपस उपजीवना-तपः कृत्वा क्षपकोऽहमिति जनेभ्यः कथयति । श्रुतस्योपजीवनाबहुश्रुतोऽहमिति जनेभ्यः कथयति । इति सप्तविध आजीवनाकुशलः । तथा कल्को नाम प्रसूत्यादिषु रोगेषु क्षारपातनमथवा आत्मनः शरीरस्य देशतः सर्वतो वा रोधादिमिरुद्वर्त्तनम् । तथा कुरुका-देशतः सर्वतो वा शरीरस्य प्रक्षालनम् । लक्षणं-पुरुषलक्षणादि, विद्यामन्त्रौ प्रसिद्धौ । आदिशब्दान्मूलकर्मचूर्णादिपरिग्रहः । एतानि य उपजीवति स चरणकुशीलो निरूपितः कुशीलः । अधुना संसक्तप्ररूपणामाह _ 'गोभत्तालंदा विव बहुरूअ नडुव्ब एलगो चेव । संसत्तो सो दुविहो असंकिलिट्ठो य इयरो वा' ॥ १ ॥ व्याख्या- गोभक्तयुक्तोऽलिन्दो गोभक्तालिन्दः । अलिन्दो भाजनविशेषः स इव । किमुक्तं भवति-यथा अलिन्दो गोभक्तं-कुकुसा ओदनम्-अवश्रावणमित्यादिसर्वमेकत्र मिलितं भवतीति संसक्त उच्यते । एवं यः पार्श्वस्थादिषु मिलितः पार्श्वग्थसदृशो भवति, संविग्नेषु मिलितः संविनसदृशः संसक्त इति । यथा वा नटो रङ्गभूमौ प्रविष्टः कथानुसारतस्तत्तद्रूपं करोति । एवं बहुरूप नट इव सोऽपि पार्श्वस्थादिमिलितः पार्श्वस्थादिरूपं भजते, संविग्नमिलितः संविनरूपमिति । यदि वा यथा-एडको लाक्षारसे निमग्नः सन् लोहितवर्णों भवति, गुलिकाकुण्डनिममः सन् नीलवर्ण इत्यादि । स च द्विविधो-द्विप्रकारः । तद्यथा-असलिष्ट इतरश्च सक्लिष्टः । तत्रासक्लिष्टमाह __'पासत्थ अहाछंदे कुशील ओसन्न पप्प एमेव । संसत्तो पियघन्मेसु चेव इणमो असंकिलिट्ठो' ॥२॥ व्याख्या-पार्श्वस्थे मिलितः पार्श्वस्थः, यथाछन्दे यथाछन्दः, कुशीले कुशीलः, अवसन्नेऽवसन्नः, संसक्ते संसक्तः, तथा प्रियधर्मसु मिलितः प्रियधर्मा । एष असतिष्टः संसक्तो ज्ञातव्यः । सक्लिष्टमाह _ 'पंचासवप्पवत्तो जो खलु तिहिं गारवेहिं पडिबद्धो। इत्थिगिहि संकिलिट्ठो संसत्तो सो उ नायव्वो' ॥ ३ ।। व्याख्या --य खलु पञ्चसु आश्रयेसु हिसादिषु प्रवृत्तः, तथा त्रिमिर्गारवैऋद्विरससातलक्षणैः 2010_05 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ श्राद्धजीतकल्पे प्रतिबद्धः । तथा स्त्रीषु गृहिषु प्रतिबद्धः स सक्लिष्टः संसक्तो ज्ञातव्यः । व्यावर्णितः संसक्तः । इदानों यथाछन्दमाह _ 'उस्सुत्तमायरंतो उस्सुत्तं चेव पन्नवेमाणो। एसो य अहाछन्दो इच्छाछन्दो य एगट्ठा' ॥१॥ व्याख्या-सूत्रादूर्ध्वमुत्सूत्रम् । तदाचरन्-प्रतिसेवमानः तदेव यः परेभ्यः प्रज्ञापयन् वर्त्तते । एष यथाछन्दोऽभिधीयते । इच्छाछन्द इत्येकार्थः । यथाछन्द इच्छाछन्दश्चेति तस्य नामद्वयं भवतीत्यर्थः । उत्सूत्रमित्युक्तमत उत्सूत्रं व्याख्यानयति 'उत्सुत्तमणुवइटुं सच्छन्दविगप्पियं अणणुवाई । परतत्तिपवत्तो तितिणो अ एसो अहाछन्दो' ॥२॥ व्याख्या-उत्सूत्रं नाम यत्तीर्थकरादिभिरनुपदिष्टम् । तत्र या सूरिपरम्परागता सामाचारी । यथानागिला रजोहरणमूर्ध्वमुखं कृत्वा कायोत्सर्ग कुर्वन्ति । चारणानां वन्दनके 'कथमपी'त्युच्यते इत्यादि । साऽप्यङ्गोपाङ्गेषु नोपदिष्टेति तामप्यनुपदिष्टां शङ्केत । ततोऽनुपदिष्टमाह । स्वच्छन्देन-स्वामिप्रायेण विकल्पितं स्वेच्छाकल्पितमित्यर्थः । अत एवाननुपाति-सिद्धान्तेन सहाघटमानकम् । न केवलमुन्सूत्रमाचरन् प्रज्ञापर्यैश्च यथाछन्दः । किन्तु यः परतप्तिषु-गृहस्थप्रयोजनेषु करणकारणानुमतिमिः प्रवृत्तः परतप्तिप्रवृत्तः । तथा तिन्तिणो नाम य स्वल्पेऽपि केनचित् साधुनाऽपराद्धेऽनवरतं पुनः पुनः झपनास्ते। अयमेवंरूपो यथाछन्दः । तथा 'सच्छंदमइविगप्पिय किंची सुहसाय-विगइपडिबद्धो । तिहिं गारवेहिं मजइ तं जाणाही अहाछंद' ॥ ३ ॥ व्याख्या-स्वच्छन्दमतिविकल्पितं किञ्चित् तच्च लोकाय प्रज्ञापयति । ततः प्रज्ञापनगुणेन लोकाद् विकृतीर्लभते, ताश्च विकृतीः परिभुञ्जानः स्वसुखमासादयति । तेन च सुखास्वादनेन तत्रैव रतिमातिष्ठते । तथा चाह- सुहसाय ' सुखास्वादे विकृतौ प्रतिबद्धः । तथा तेन स्वच्छन्दमतिविकल्पितप्रज्ञापनेन लोकपूज्यो भवति । अभीष्टरसांचाहारान् प्रतिलभते वसत्यादिकं च विशिष्टं । ततः स आत्मनः सभ्येभ्यो बहुमन्यते । तथा चाह-त्रिभिर्गारवैः-ऋद्धिरससातलक्षणर्माद्यति । य एवम्भूतस्तं यथाछन्द जानीहीति । उक्तं यथाच्छन्दस्वरूपम् । ततः उक्तं पार्श्वस्थादीनां स्वरूपमित्यलं प्रसङ्गनेति गाथार्थः ॥६२।। कन्नाहल-संडविवाहमाइ लहुगा लहू ढिउल्लीणं । बलि-पिंड-सद्ध-वारसि-खण-नमणाइसु चउगुरुल्ने ॥ ६३ ॥ व्याख्या-कन्याफले-कन्याफलग्रहणे, शण्डविवाहे, आदिशब्दात्तरुरोपणबलिपिण्डश्राद्धादावपि 'लहुग'त्ति । लघुकाः-चतुर्लघुप्रायश्चित्तं भवतीत्यर्थः । तथा 'ढिउल्लीणं'ति । ढिउल्लिकानां-वस्त्रखण्डनिर्मितपुत्तलिकानां तु विवाहे क्रीडार्थं वा करणे लघुमासः १। मतान्तरेण त्वत्रापि चतुर्लघव एव । अत्र मतान्तरमाह-तथा बलिविधाने, नदीकुण्डादिषु पित्रादीनां पिण्डप्रदाने, श्रोद्धविधाने, द्वादशीभरणे, क्षणकरणे, नमने-महामात्रादिकुदेवताप्रणामकरणे, आदिशब्दान्मिध्यादृष्टितीर्थेषु स्नानादिष्वपि च 'चउगुरु 'त्ति । चतुर्गुरुवा प्रायश्चित्तं भवतीत्यन्ये केचनाचार्याः प्रतिपादयन्तीति गाथाक्षरार्थः ॥ ६३ ॥ अथ जिनप्रतिमाशातनाविषयं प्रायश्चित्तं निरूपयति 2010_05 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनप्रतिमादेवगुरुस्थापनाविषयं प्रायश्चित्तम् पूअंतपडिअबिंबे सासंचलकुंपिआइ-संघट्टे । लहु-गुरुमासो थुक्काइ अविहि उज्जालणाईसु ॥६४ ॥ व्याख्या- पूज्यमाने-अर्यमाने, उपलक्षणत्वात् स्नप्यमाने, स्थानात स्थानान्तरं वा नीयमाने बिम्बे-जिनप्रतिमारूपे प्रमादेन हस्तात्पतिते सति । तथा श्वासानलकुम्पिकादिसट्टे । श्वास-आस्यनासिका विनिर्गतः पवनः , अञ्चल:-परिधानादिवस्त्रप्रान्तः, कुम्पिका-वासकर्पूरादिभाजनविशेषः, आदिशब्दात्कल. शभृङ्गारधूपदहनपिङ्गानिकादीनां परिग्रहः । ततस्तेषां सट्टे-बिम्बस्य स्पर्शे लघुमासः। तथा 'गुरुमासो'त्ति। गुरुमासः प्रोयश्चित्तं भवति । कस्मिन् । वदनोत्यनिष्ठ यूतलवस्पर्श, आदिशब्दाचरणघटनादौ । पुनः कस्मिन् ? अविधिना जिनप्रतिमोद्योतने, आदिशब्दादधौतपोतिकया पूजनादौ चेति गोथार्थः ॥ ६४ ॥ अथ देवगुर्वोराशातनायां सामान्येन यत्प्रायश्चित्तं भवति, गुरु-विषयायां चाशातनायां विभागतोऽपि यत् प्रायश्चित्तं स्यात्तदाह सामण्णं दुसु वि गुरू तिविहं गुरुणो पयाइ-संघट्टे । लहु-गुरु-चउलहु पणगं गुरुसंथाराइ-संघट्टे ॥६५॥ व्याख्या-सामान्येन-जघन्यादिविवक्षामन्तरेण 'दुसु वि 'त्ति । द्वयोरपि-देवगुर्वाशातनयोः कृतयोर्गुरुमासः प्रायश्चित्तं भवति । विभागतस्तु गुरोः पादादिना सट्टे जघन्याशातनायाम, आदिशब्दात् श्लेष्मनिष्ठीवनलवस्पर्शनादौ मध्यमाशातना, गुर्वादेशाकरणविपरीतकरणापकर्णन-परुषभाषणादावुत्कृष्टाशातनायां च क्रमेण त्रिविधं प्रायश्चित्तं भवति । किं तदित्याह-'लहुगुरुचउलहु'त्ति । लघुमास-गुरुमासचतुर्लघूनि । तथाऽनाभोगादिना गुरोः संस्तारकस्यादिशब्दाद् गुरुपरिभोग्योपकरणाऽऽसनादेश्चरणादिना सङ्घ? ' पणगं' मिन्नमासः प्रायश्चित्तं भवतीति गाथार्थः ।। ६५ ।। अथ स्थापनाचार्यविषयं प्रायश्चित्तमाह ठवणगुरुमि अठविए ठविए अ कमा पयाइलग्गंमि ।। भिन्न-लहु पडणाइसु लहु-गुरु तह नासिए मिनं ॥ ६६ ॥ व्याख्या-स्थापनागुरावस्थापिते-ऽकृतमन्त्रन्यासे, स्थापिते-कृतमन्त्रन्यासे च पादादौ लग्ने सति क्रमेण भिन्नं लघुमासश्च । तथा तयोर्हस्तात् स्थापनाचार्यस्थानाद्वा प्रमादेन पातने. आदिशब्दादवज्ञामोचनादौ क्रमेण लघुमासगुरुमासौ। तथा नाशिते स्थापनाचार्ये भिन्नम् । मतान्तरेण तु गुरुमासः । अप्रत्युपेक्षिते मिन्नम् , अप्रत्युपेक्षितस्थापनाचार्यपुरतोऽनुष्ठानकरणे लघुमासः, स्वाध्यायशतं वा केचित् प्रतिपादयन्तीति गाथार्थः ॥ ६६ ॥ अथ जिनप्रतिमाशातनाविशेषविषयं प्रायश्चित्तमाह पडिमाइ भंगदाहे पलीवणाइसु पमायणाभोगा । पट्टिअ-पुत्थाईण वि नवकारणपुव्व लहुगाई ॥ ६७ ॥ 2010005 For Private & Personal use only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ श्राद्धजीतकल्पे व्याख्या-प्रदीपन-धाटिप्रपात-ग्रामभङ्गादिषु प्रमादानाभोगाभ्यां प्रतिमाया भङ्गे दाहे-नाशने वा । तथा पट्टिका-पुस्तकादीनामपि भङ्गादिषु नवकारणपूर्व-तानि प्रतिमादीनि नवानि कारयित्वेत्यर्थः । 'लहुगाई 'ति । चतुर्लघुचतुर्गुरुषड्लघूनि क्रमाद् भवन्ति । मतान्तरेण पुनः प्रतिमायांः प्रदीपनादौ ज्वलने नमस्कारलक्षम् । हस्ताद्यवयवभङ्गे तु नमस्कारदशसहस्रीति गाथार्थः ॥ ३७ ॥ अथ यतिद्रव्यपरिभोगे प्रायश्चित्तमाह मुहपत्ति-आसणाइसु मिन्नं जलन्नाईसु गुरु लहुगाइ । जइदव्वभोगि इय पुण वत्थाइसु देवदव्वं वा ॥ ६८ ॥ व्याख्या-मुखवत्रिकाऽऽसनशयनादिषु, अर्थाद् गुरुयतिसत्केषु परिभुक्तेषु मिन्नम् । तथा 'जलन्नाईसु 'त्ति । यतिसत्के जले अन्ने, आदिशब्दात् वस्त्रादौ कनकादौ च । 'धर्मलाभ इति प्रोक्ते दूरादुच्छ्रितपाणये । सूरये सिद्धसेनाय ददौ कोटि नराधिपः' ॥ १ ॥ इत्यादिप्रकारेण केनापि साधुनिश्रया कृते लिङ्गिसत्के वा परिभुक्ते सति 'गुरुलहुगाइ 'त्ति । क्रमेण गुरुमासश्चतुर्लघव आदिशब्दाचतुर्गुरवः षड्लघवश्च स्युः । अयमर्थः-गुरुसत्के जले परिभुक्तेरी अन्ने वत्रादौ कनकादौ ६ प्रायश्चित्तानि भवन्ति । यतिद्रव्यभोगे ‘इय 'त्ति । एवं प्रकारः प्रायश्चित्तविधिरवगन्तव्यः । अत्रापि पुनर्वस्त्रादौ देवद्रव्यवत्-वक्ष्यमाणदेवद्रव्यविषयप्रकारवत् ज्ञेयम् । अयमर्थःयत्र गुरुद्रव्यं भुक्तं स्यात् तत्राऽन्यत्र वा साधुकार्ये वैद्याद्यर्थं बन्दिग्रहादिप्रत्यपायापगमाद्यर्थं वा तावन्मित. वस्त्रादिप्रदानपूर्वमुक्तं प्रायश्चित्तं देयमिति गाथार्थः ॥ ६८ ॥ अथ साधारणदेवद्रव्यादिविषयं प्रायश्चित्तमाह साहारण-जिणदव्वं जं भुत्तं असण-वत्थ-कणगाई । तत्थन्नत्थ व दिन्ने चउलहु-चउगुरुअ-छल्लहुगा ॥ ६९ ॥ व्याख्या-साधारणद्रव्यं जिनद्रव्यं च यत्-यावन्मानं भुक्तं-स्वकार्ये व्यापारितं स्यात् । किं तदित्याह-अशनं-नैवेद्यादि वखं-परिधापनिकादि कनकादि-कनकरूप्यरूपकमौक्तिकादीनि । तस्मिँश्च तावन्मात्रे साधारणद्रव्ये देवद्रव्ये वा त्रिविधे जघन्यमध्यमोत्कृष्टरूपेऽशनादौ बखादौ कनकादौ च तत्रतस्मिन्नेव देवस्थाने चैत्यादौ अन्यत्र वा चैत्यादौ दत्ते सति चतुर्लघु चतुर्गुरुवा षड्लघूनि प्रायश्चित्तानि यथाक्रमं भवन्ति । तस्मिन् तावन्मात्र पुनरनर्पिते एतत्प्रायश्चित्तागीकरणेऽपि न शुद्धिरिति भावः । देवरथहारवणे पट्टिकापुस्तिकाकवलीजपमालानाशने कचिद् गुरुमासो दृश्यते । कचित्तु जपमालानिर्गमने एक कल्यम् । सम्यक्त्वविषयाः पश्चाप्यतिचारा दर्शनाचारातिचारेष्वेवान्तर्भूता इति न तेषां पृथक प्रायश्चित्तं प्रतिपादितमिति गाथार्थः ।। ६९ ।। ___ उक्तं दर्शनाचारातिचारषियं प्रायश्चित्तं । सम्प्रति चारित्राचारातिचारविषयप्रायश्चित्तप्रतिपि. पादयिषया प्रथमं प्रथमाणुव्रतविषयं तदाह 2010_05 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथिव्यादिसङ्घट्टादि विषयं प्रायश्चित्तम् पुढवाइ-घट्टणाऽगाढ गाढपीडा-वहे अकज्जमि । भिन्नं लहु-गुरु लहुगा दस पुरओ सव्वेहिवि दसगं ॥ ७० ॥ व्याख्या-इह च निषिद्धस्याचरणे तावत् प्रायश्चित्तं । गृहिणश्च सार्थिका स्थावरकायहिंसा न निषिद्धा, निरर्थिका पुनर्निषिद्धैव । यदुच्यते ग्रन्थान्तरे 'थूला सुहमा जीवो संकप्पारंभओ अ ते दुविहा । सोवराह निरवराहा सोविक्खा चेव निरविक्खो' ॥ १ ॥ अस्या अक्षरगमनिका-इह प्राणिवधो द्विविधः-स्थूलः-स्थूलजीवानां सूक्ष्मः-सूक्ष्म जीवानाम् । तत्र स्थूला-द्वोन्द्रियादयः सूक्ष्माश्चेकेन्द्रियाः, न तु सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्तिनः । तेषां उपघाताऽ. भावात् स्वयमायुःक्षयेणैव मरणात् । तत्र गृहस्थानां स्थूलप्राणिवधानिवृत्तिः न तु सूक्ष्मवधीत । पृथिवीजलादिषु सततमारम्भप्रवृत्तत्वात् । विंशोपकाः १० । स्थूलप्राणिवधोऽपि द्विधा-सङ्कल्पज आरम्भजश्च । तत्र सङ्कल्पान्-मारयाम्येनमिति मनःसङ्कल्पाज्जातः सङ्कल्पजः । आरम्भजश्च कृष्याद्यारम्भप्रवृत्तस्य द्वीन्द्रियादिव्यापादनम् । तत्र श्राद्धानां सङ्कल्पजोत् निवृत्तिरस्ति न पुनरारम्भजात् । अन्यथा शरीरकुटुम्बनिर्वाहाभावात् । वि०५ । सङ्कल्पजोऽपि द्विधा-सापराधो निरपराधश्च । तत्र निरपराधान्निवृत्तिन सापराधात् । सोपराधे तु गुरुलाघवचिन्तनं-यथा गुरुरपराधो लघुर्वा । वि०२३ । सापराधेऽपि सापेक्षनिरपेक्षक्रिययोः सर्वत्र सापेक्षेणैव भवितव्यं न तु निरपेक्षेण तस्य दयापरिणामाभावात् । वि० ११ एवं सर्वप्रकारैर्जीववधनिवृत्तेर्विशतिविंशोपकः साधुः । सपादविंशोपकश्च श्राद्धो दयाव्रतमाश्रित्येत्यर्थः । ततोऽकार्य-कारणाभावे पृथिव्यादीनां-पृथिव्यप्तेजोवायु-प्रत्येकवनस्पतीनां मनाक् संस्पर्शनं-सङ्घट्टनम् । अत्राह-ननु पृथिव्यादीनां चतुर्णा घटते सङ्घट्टनम् । अप्कायस्य तु कथं सङ्घट्टनं सम्भवति ? तस्य द्रवरूपत्वेन स्पर्शमात्रेऽपि विनाशसम्भवात् । उच्यते-घटादिस्थस्याप्कायस्यापि मनाक् करचरणादिना चालने सङ्घट्टः सम्भवति । पीडा-परितापनमुच्यते । तच्च द्विधा-अगाढं गाढं च । तत्र संमर्दनचालनाबहुतरं पीडोत्पादनमगाढं, बहुतमपीडोत्पादनं च गाढम् । वघ- उपद्रवः सर्वथा जीवविनाशः । स च पृथिव्यन्योरत्यन्तसम्मर्दनाद्यैरप्कायस्य तु वह्नितापन-दण्डाद्यभिघातनपातनपादादि-क्षालनादिना । वायोः तालवृन्ताभिघातादिना । वनस्पतेः पत्रपुष्पाङ्कुरादित्रोटनादिभिः । ततश्चैषां पृथिव्यादीनां पञ्चानामपि प्रत्येकं सङ्घट्टने मिन्नमासः । अगाढपीडायां लघुमासः । गाढपीडाया गुरुमासः । वघे चतुर्लघु । 'दस पुरओ' सव्वेहि वि दसगं 'ति । दशानां परतस्तु सर्वेषामप्येकादशाद्यसङख्येयपर्यन्तानां सङ्घट्टनादिषु दशकमेव स्वप्रायश्चित्तानां दीयते। तथा चोक्तं यतिजोतकल्पवृत्तौ 'एगाइ-दसतेसु एगाइदसतयं सपच्छित्तं । तेण परं दसगं चिय बहुएसु वि सगलविगलेसु' ॥१॥ अस्या अर्थः-एकादिषु दशान्तेषु पृथिव्यादिषु द्वीन्द्रियादिषु वोपहतेषु एकादि-दशान्तं स्वप्रायश्चित्तं भवति । यद्यस्य पृथिव्यादे:न्द्रियादेर्वोपघातेऽत्र जीतकल्पे प्रायश्चित्तं भणितमस्ति, तत्तस्य स्वप्रायश्चित्त मुच्यते । तदेकस्य पृथिव्यादेीन्द्रियादेर्वा उपघाते एकं स्वप्रायश्चित्तं भवति । द्वयोढें । त्रयाणां त्रीणि । यावद दशानामुपघाते दश । 'तेने 'ति । पञ्चम्यर्थत्वात्ततीयायाः । ततः परमेकादशादिषु बहुष्वपि यावद 2010_05 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे सङ्ख्येयेष्वपि सकलविकलेषु-पञ्चेन्द्रियविकलेन्द्रियेषु उपलक्षणत्वात् पृथिव्यादिषु वोपहतेषु दशकमेवदशैव स्वप्रायश्चित्तानि दातव्यानि भवन्तीत्यर्थः ॥ ७० ॥ अथ विकलेन्द्रियानन्तकाय-पञ्चेन्द्रियविषयं प्रायश्चित्तमाह विगलाणां ते सहसाणाभोगे वि लहु गुरु-लहुग-गुरुगा । पंचेंदिए पमाया गुरु-लहुअ-गुरुग-छलहुगा ॥ ७१ ॥ व्याख्या-द्वित्रिचतुरिन्द्रियानन्तकायानां सहसाणाभोगे वि 'त्ति । अपिशब्दस्य वाऽर्थत्वात् सहसाकारादनाभोगाद्वा प्रत्येकं सट्टनाऽगाढपरिताप-गाढपरितापोपद्रवेषु यथासङख्यं 'लहु-गुरु-लहुग गुरुग'त्ति । लघुमास १ गुरुमोस १ चतुर्लघुध चतुर्गुरूणिधो स्युः। अत्र पञ्चेन्द्रियाणां प्रमादानिप्रयोजनं सट्टादिषु जातेषु 'गुरु-लहुअ-गुरुअ-छलहुग'त्ति । यथाक्रमं गुरुमास-चतुर्लघु-चतुगुरु-षडलघूनि प्रायश्चित्तानि स्युः । अत्र पञ्चेन्द्रियसङ्घः तदहर्जातमूषकगृहकोलिकादिविषयो द्रष्टव्य इति गाथार्थः।। पुनरपि प्रथमाणुव्रतविषयमेव विशेषमाह अगलिअजलछडण-हाण-पाण धुअ-ताव-घट्टणाइ छगुरु । पणकलं संखारय कोलिअ-कीडिअघराईसु ॥७२॥ व्याख्या-अगलितजलस्य छर्दने-त्यागे स्नाने-तेनैव शरीरस्य प्रक्षालने ‘पाण 'त्ति । तस्यैव पाने, धावने-तेनैव वस्त्रादिक्षालने, तापने-तस्यैवोष्णीकरणे । आदिशब्दादुत्कालनाधिश्रयणादिदानेऽपि च षड्गुरुकं प्रायश्चित्तं भवति । तथा 'पणकल्लं'ति । पञ्चाभक्तार्थाः पञ्चाचाम्लानि पञ्चकाशनानि पश्च पूर्वार्धाः पञ्च निर्विकृतिकानीत्येवंरूपं पञ्च कल्यं प्रायश्चित्तं भवति । केषु ? 'संखारयेत्यादि । 'व्याख्यानतो विशेषार्थप्रतिपत्तिर्भवतीति' न्यायात् सङ्खारकस्य शोषे त्यागे वा, कोलिकानां-लूतानां कीटिकानामुपदेहिकादीनां च गृहादिषु भग्नेषु, आदिशब्दाद् शुषिरवृत्यादिषु स्नानजलोष्णावश्रावणादिवाहनेऽशोधितेन्धनस्याग्नौ क्षेपे शिरसि कङ्कतकक्षेपेऽपि च भूरिजीवविराधनासम्भवात् पञ्चकल्यं प्रायश्चित्तं भवतीत्यर्थः । केचित्तु चतुर्गुरुकमेवाहुः । अन्ये चैतेषु पर्युषित-गोमयस्थापनादिषु च षड्लघुकमेव । अन्ये पर्युषित [मेवं] गोमयस्थापने, पुजे वह्रिदाने, त्रससंसक्तधान्यदलने, मत्कुणितशयनीयाद्यातपमोचने, चटकमालकभङ्गे, बहुवारं सूतिभवने तत्करणे चेति । निद्धंधसव्यापारत्वेन बहुजीवविधिनातश्च पश्चकल्यं । तथा सूतिकायां ही घरटिकोदूखलचूल्हिकादीनामप्रमार्जने भिन्नमासं प्रायश्चित्तं प्रतिपादयन्तीति गाथार्थः ।।७२।। अथ बहूनां द्वीन्द्रियादीनामुपद्रवे प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तविधिमाह दु-ति-चउ-पणकल्ला वा बहुसु दु-ति-चउ-पणिदिएसु कमा । दसवार उवरि दस पण कल्ल संकप्प दप्पे अ ॥ ७३ ॥ व्याख्या-वाशब्दः प्रकारान्तरवाचकः । ततः प्रागेकेन्द्रियविषयप्रायश्चित्तप्रतिपादनावसरे 'दस पुरओ सव्वेहि वि दसग' मित्यत्र सर्वेषामपि पृथिव्यादीनां वक्ष्यमाणद्वीन्द्रियादीनां चैकाद्यसङ्ख्ये 2010_05 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तकरणासामर्थ्य प्रकारान्तरम् यपर्यन्तानां सङ्घट्टादिषु दशकमेव स्वप्रायश्चित्तानां दीयत इत्यादिनैकः प्रकारः प्रतिपादितः तदपेक्षयाऽयमन्यः प्रकार इत्यर्थः । ततश्च समुदायेन बहुषु द्वित्रिचतुन्द्रियेषूपहतेषु क्रमेण द्वित्रिचतुःपञ्चकल्यानि प्रदेयोनि । अयमर्थः-द्वीन्द्रियेषु बहुषूपहतेषु द्वे कल्ये । त्रीन्द्रियेषु त्रीणि कल्यानीत्यादि । अथ सङ्कल्पदर्पाभ्यां द्वीन्द्रियादीनामुपद्रवे विशेषमाह-दशानां वाराणामुपरि एतेषु द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियेषु जीवेषूपहतेषु सङ्कल्पतो दश कल्यानि-क्षपणविंशतिः । दर्पतः पुनः पश्चाशत्कल्यानि-क्षपणशतमित्यर्थः । अत्र सङ्कल्पःप्रयोजनं दो-धावनवल्गनवरण्डाघुल्लङ्घनमल्लयुद्धादिः । अत्र केचिच्चैवं वदन्ति-एकस्मिन् द्वीन्द्रिये उपहते क्षपणं, बहुषु क्षपण-चतुष्कम् । त्रीन्द्रिये क्षपण त्रयं, बहुषु क्षपणषट्कम् । चतुरिन्द्रिये क्षपणचतुष्कं, बहुषु क्षपणाष्टकम् । पञ्चेन्द्रिये दर्पण प्रहारदाने गुरु, पीडने चतुर्लघु, मूर्छायां चतुर्गुरु, हस्तपादादिभङ्गे षडलघु, उपद्रवे क्षपणदशकम् । दर्पण पञ्चेन्द्रियोपद्रवे पश्चकल्यम् । प्रमादेन पञ्चेन्द्रियोपद्रवे क्षपणपञ्चकम् । आकुट या क्षपणविंशतिः। कल्पेन षडलघु । दर्पादिस्वरूपं त्विदम् 'आउट्रिआ उविच्चा दप्पो पुण होइ वग्गणाईओ । कंदप्पाइ पमाओ कप्पो पुण कारणे करणं' ॥ १॥ एतस्या भावार्थः - संकप्प वग्गणाई' त्यादिसप्तदशोत्तरशतगाथाव्याख्यावसरे सविस्तरं प्रतिपादयिष्यतीतीह नोच्यते इति गाथार्थः ।। ७३ ।। अथ यथोक्तप्रायश्चित्तकरणासामर्थ्य तत्करणे प्रकारान्तरमाह पणकल्लं पच्छित्तं अतरते जहकमेण काउं जे । कारिति दस चउत्थे दुगुणायंबिलतवे चेव ॥७४ ।। व्याख्या-कल्यं नि० पु० ए० आं० उ० रूपम् । तच्च पश्चगुणं पञ्चकल्यं प्रायश्चित्तं-पश्चाभक्तार्थाः, पश्चाचाम्लानि, पञ्चैकाशनानि, पञ्च पूर्वार्द्धा, पश्च निर्विकृतिकानीत्येवंरूपं बहुपञ्चेन्द्रियोपद्रवाद्यापन्नं 'अतरते 'त्ति । आलोचकान् पुरुषानतरतो यथाक्रमेण निर्विकृत्यादि यथोक्तप्रकारेण कर्तुमशक्नुवतो 'जे' इति पादपूरणे 'अजेराः पादपूरणे' इतिवचनात् । कारयन्ति दश चतुर्थान गीतार्था इतिशेषः । अयमर्थ:- एतत् पश्चकल्यं तपो यथोक्तक्रमेण कर्तुमशक्नुवतः पुरुषान् दश चतुर्थान कारयन्तीति । तथा 'चेव 'त्ति । चैवशब्दस्य विकल्पार्थत्वात् द्विगुणाचाम्लतपो वा कारयन्ति । दशचतुर्थकरणासामर्थ्य विंशतिमाचाम्लानि कारयन्तीति भावः ॥ ४ ॥ तेषामपि करणासामर्थे कि विधेयम् ? इत्याह एगासण-पुरिमड्ढा निन्विइगा दुगुणदुगुण पत्तेयं । पत्तेयासहदाणं कारिंति व संनिगासं तु ॥ ७५॥ व्याख्या-एकाशनकानि पुरिमार्द्धानि निर्विकृतिकानि 'दुगुणदुगुण पत्तेयं 'ति । प्रत्येक स्थानद्विगुणवृद्धया द्विगुणानि द्विगुणानि गीतार्थाः प्राक्तनप्राक्तनकरणासामर्थ्यवतः पुरुषान् कारयन्ति । अयमर्थ :-विंशत्याचाम्लकरणाशक्तौ चत्वारिंशदेकाशनानि, तदशक्तावशीतिः पूर्वार्द्धान् , तदशक्तावपि षष्टिशतं निर्विकृतिकानां वा कारयन्ति । — पत्तेयासहदाणं 'ति । एतत् पञ्चसु कल्येषु एकक कल्यं 2010_05 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे प्रत्येकमनवस्थित्या कर्तुमसहस्याऽशक्तस्यालोचकस्य दानमुक्तम् । ‘कारिंति व संनिगासं तु 'त्ति । तुः पुनरर्थे वा शब्दोऽथवार्थे । अथवा पुनरयमन्यः प्रकारः-सन्निकाशं-सन्निभं वा कारयन्ति । इयमत्र भावनाश्राद्धादिर्यत्र पञ्चकल्याणमापन्नः तन्मध्यादाद्यं द्वितीयं तृतीयं वा यथाशक्त्यैकतरं द्वयादीनि वा यथोक्तप्रकारेण वहति, शेषमाचाम्लादिभिः प्रवेशयन्तीतिगाथाक्षरार्थः ।। ७५ ।। पुनरन्यथानुग्रहप्रकारमाह चउ-तिग-दुगकल्लाणे एगं कल्लाणगं व कारिति । जो जं तरइ तं तस्स दिति असहस्स झोसंति ॥ ७६ ॥ व्याख्या-यः कश्चिदालोचकः पञ्चकल्यतप आपन्नः पञ्च कल्यानि कत्तं न शक्नोति, तं चत्वारि कल्यानि कारयन्ति । तथाप्यशक्तौ कल्यत्रिकं कल्यद्विकमेककल्याणकं वा कारयन्ति । किं बहूच्यते । यः पुमान् यद् यादृशं यावन्मानं वा तपस्तरति-कर्तुं शक्नोति । तस्याशक्तस्य प्रभूतस्याप्यापत्तौ तत्तादृशं तावन्मात्रमेव च तपो ददति, गीतार्था इति गम्यते । यावन्मानं स्वशक्तिसद्भावं प्रवृत्तत्वेन तावत्तपसाऽपि तस्य शुद्धिसम्भवादन्यथा कदाचित्ततो गाढबाधासम्भवेन मनोविपरिणत्यादिसद्भावात् । यस्तदपि कर्तुं न शक्नोति तस्य किं कर्त्तव्यम् ? इत्याह-' असहस्स झोसिंति 'त्ति । असहस्यैककल्याणकादितपःकरणेऽप्यसमर्थस्य सर्व झोषयित्वा-हामयित्वा एकमभक्तार्थं ददति । अथवैकमाचाम्लं यावन्निविकृतिकं वा ददति । तदपि कर्तुमशक्तस्य न किमपि दद्यात् । भिध्यादुष्कृतेनैव तस्य शुद्धिरादेश्येत्यर्थः । तथापि स शुद्धो भावशुद्धया प्रवृत्तत्वादिति ॥ ७६ ॥ एतदेव दृढयन्नाह एवं सदयं दिज्जइ जेणं से संजमो थिरो होइ । न य सव्वहा न दिज्जइ अणवत्थपसंगदोसाओ ॥ ७७ ॥ व्याख्या-'एव'मिति । उक्तप्रकारेणालोचकस्य शक्तिमपेक्ष्य सदयं-सानुकम्पं तपो दीयते येन तपसा प्रदत्तन ' से 'त्ति । तस्य संयमः स्थिरो भवति-संयमस्थैर्यं भवतीत्यर्थः । न च सर्वथा न दीयतेऽपि त्वेवं पूर्वोक्तप्रकारेण स्तोकं स्तोकतरं वो दीयते एवेति । कस्मादित्याह-' अणवत्थे ' त्यादि । अनवस्थाप्रसङ्गदोषात् । यद्येवमेव शुद्धिर्भवति तर्हि पुनरप्येतत् प्रतिसेवामीत्यनवस्थाप्रसङ्गः । यद्वा-तद् दृष्टवाडन्यस्यापि तत्पापकरणे निःशङ्कत्वं स्यादिति । भिन्न एव वा प्रसङ्गनामा दोषः । उपलक्षणत्वादाज्ञाभङ्गादयो भूयांसो दोषाः सम्भवेयुरिति गाथाक्षरार्थः ॥ ७७ ।। अथ द्वितीयाणुव्रतविषयं प्रायश्चित्तमाह गुरुमाइतिविहमोसे मित्रं जा राइ दोसदाणिन्ने । डाहणि-निहिलाहे लह गुरुगा चोरे जणसमक्खं ॥ ७८ ॥ व्याख्या-इह किल द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्योत्कृष्टादिभेदस्त्रिविधो मृषावादः । यदुक्तं निशीथचूर्णी-मुसावाओ जाव राईभोअणं, एएसिं इक्किकं तिविहं, ते य इमे तिगभेदा-उक्कोसो मज्झिमो ___ 2010_05 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुव्रतविषयं प्रायश्चित्तम् जहण्णो य । दवाइआ च उहत्ति । उक्कोसमुसावाओ चउव्विहो-दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ। मज्झिमो वि चउव्विहो दव्वाइ । एवं जहण्णो वि चउव्विहो । एवं अदत्तादाणं दुवालसभेअं। मेहुणंपि परिग्गहो वि राईभोयणपि दुवालसभेदं । उक्कोसं पुण दव्वं एवं भवइ । बहुत्तओ सारओ वा मूलओ वा । एवं मज्झिमे वि तिन्नि भेयो । जहण्णे वि तिन्नि भेया । उक्कोसे दव्वावलावे उक्कोसो मुसावाओ मज्झिमे मझो, जहन्ने जहन्नो । एवं अदत्ताइसु जोअणिज्जं । खित्तओ जं जत्थ खित्ते अचिंतं मज्झिमं जहन्नं वा । कालओ जं जत्थ काले अर्चितं मज्झिमं जहन्नं वा । भावओ वि वण्णाइगुणेहिं उक्कोसं मज्झिमं जहन्नं वा । एवं बुद्धीए आलोएउं जोअणा कायव्वा इति । तत्र त्रिविधेऽपि जघन्यमध्यमोत्कृष्टरूपे मृषावादे गुर्वादि प्रायश्चित्तं भवति। जघन्यमृषावादे गुरुमासः शी मध्यममृषावादे चतुर्लघु, उत्कृष्टमृषावादे चतुर्गरुवा च प्रायश्चित्तं भवतीति सर्वत्राऽपि भावना कार्या। केचिजघन्येव मध्यमेवी उत्कृष्ट पञ्चकल्यं च । अपरे पुनर्जघन्यादौ मासलघ्वादिकमाहुः । 'भिन्नं' ति । 'जणसमक्ख'मित्यस्य गाथापर्यन्तवर्तिनः सर्वत्राऽपि योगाजनसमक्षं जारविलासिन्यादिदोषदानेऽन्ये पुनराचार्या भिन्न प्राहुः । 'डाइणि 'त्ति। लोकसमक्षमेवेयं डाकिनी, लब्धोऽमुत्रामुना निधिः, उपलक्षणत्वात् स्थितो वाऽस्य समीपेऽमुकनिक्षेप इत्यादिभणने लघुमासः १, गुरुगत्ति, जनसमक्षमेव चौरोऽयं यतोऽमुकस्यानेनामुकं चोरितमित्यादिभणने गुरुकाश्चतुर्गरव इति । एके तु चौर-जारप्रभृतिकलङ्कदाने राटिरटने च जघन्ये चतुर्लघु, मध्यमे स्वजनादिसमक्षे चतुर्गुरुवा उत्कृष्ट राजपर्यन्ते क्षपणद्वयम् । दण्डापितेऽशीतिसहस्राधिकं लक्षस्वाध्यायं चाहुः । केचित्त्वक्षरमषीमन्त्रभेदे चतुर्लघुप्त इति कथयन्तीति गाथार्थः ।। ७८ ।। चउलहु परपरिवायाब्भक्खाणासन्भराडि-पेसुन्ने । रायकुलंते कलहे पणकल्लं दप्पभणिए अ॥ ७९ ॥ व्याख्या-परपरिवादे-स्वभावादन्यदोषप्रकाशने अभ्याख्याने-प्रकटमसदोषाध्यारोपे असभ्यराटिकादाने-असभ्यवचनोचारपूर्वककलहे पैशून्ये-प्रच्छन्नं सदसदोषाध्यारोपे च 'चउलहु 'त्ति । प्रत्येक चतुर्लघु । 'राय'त्ति । राजकुलान्ते राजकुलं यावत् प्रसिद्ध कलहे कृते, दर्पण च भणिते पञ्चकल्यं, चशब्दाद् वक्ष्यमाणादत्तादानादिष्वपि दर्पणाचरितेषु पञ्चकल्यमेव । यदुक्तं मोसाइसु मेहुणवजिएसु दव्वाइवत्थुभिन्नेसु । हीणे मज्झुक्कोसे आसणमायामखमणाई ।।१।। अहवा मोसादत्ते परिग्गहे मेहुणे अ परदारे । पत्तेयं पत्तयं, दप्पेणं पंचकल्लाणमिति ।। ७९ ॥ अथ तृतीयाणुव्रतविषयं प्रायश्चित्तमाह लहु सगिहतणुअदिन्ने मज्झि-अनाए गुरु-लहुग-नाए । जिठे दसगमनाए सकलह-नाएत्थ पण-कल्ला ॥ ८ ॥ व्याख्या-इह सामान्येन द्रव्यादि-चतुःप्रकारेऽप्यदत्तोदाने जघन्ये गुरुशी मध्यमे चतुर्लधुरा उत्कृष्ट चतुर्गुरुवी। यदुक्तं- मोसाइसु मेहुणवज्जिएसु 'त्तीत्यादि । एतत्सूत्रोक्तं तु विशेषतः पुनरेवं'लहु 'त्ति । स्वगृहे तन्वदत्ते-जघन्यादत्तादाने लघुः-लघुमासः । ' मज्झि 'त्ति । मध्यमे-मध्यमादत्ता _ 2010_05 e Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे दाने स्वगृहेऽज्ञाते गुरुः-गुरुमासःशी तस्मिन्नेव ज्ञाते चतुर्लघुप । मतान्तरेण चतुर्गुरु ।। ' जिट्ठि 'त्ति। स्वगृहे उत्कृष्टादत्तादानेऽज्ञाते दशकं क्षपणानामिति गम्यते । 'सकलह 'त्ति । ज्ञाते चोत्कृष्टादत्तादाने राजकुलपर्यन्ते च कलहे सम्पन्ने षट् पञ्च कल्यानि-षष्टिः क्षपणानामित्यर्थः । अन्ये तु स्वगृहेऽन्नादिचोरणे लघु, वनद्रव्यादौ गुरु, ज्ञाते च चतुर्लघु । स्वर्णादौ परकीये चोरिते क्षपणदशकम् । ज्ञाते कलहे च क्षपणदशकं स्वाध्यायलक्षयुतमिति । केचित्तु शुल्कचौर्यांध विश्वासघातेधी च प्राहुरिति गाथार्थः ॥८॥ अथ चतुर्थाणुव्रतविषयं प्रायश्चित्तविधिमाह सहसापमायणाभोगि छलहु छगुरु अ चउगुरु सदारे । वेसाइ छलहु-छगुरु-छल्लहु इत्तरियवयभंगे ॥ ८१ ॥ व्याख्या-सहसाकारः-पूर्वातिप्रवृत्तक्रीडाभ्यासतोऽविमृश्यकरणम् । प्रमादः-कषायविषयादिलक्षणः। यदुक्तम् 'मज्जं विसयकसाया निद्दा विगहा य पंचमी भणिआ। एए पंच पमायो जीवं पाडंति संसारे' ॥ १ ॥ अथवाऽज्ञानसंशयादिस्वरूपः। तथा चोक्तम् 'पमाओ अ जिणिंदेहिं भणिओ अट्ठभेअओ । अन्नाणं संसओ चेव मिच्छानाणं तहेव य ॥१॥ रागो दोसो मइब्भंसो धम्ममि य अणायरो । जोगाणं दुप्पणीहाणं अट्टहा वज्जिअव्वओ' ॥२॥ त्ति । अनाभोगो-ऽत्यन्तविस्मृतिः । एतैः ‘सदारे 'त्ति । स्वकलत्रविषये इत्वरिकव्रतभङ्गः-कियत्कालावधिगृहीतनियमलोपोऽष्टम्याद्यङ्गीकृतनियमभङ्गो वा, तस्मिन् जाते सति षड्लघु-षड्गुरु-चतुर्गुरवो भवन्ति। अयमभिप्रोयः-सहसाकारेण स्वदारेषु नियमभङ्गे षड्लघु ६, प्रमादेन षड्गुरु ६ी अनाभोगेन चतुर्गुरुवा। केचित् सामान्येनैव स्वकलत्रविषयेऽष्टम्यादिगृहीतनियमभङ्ग फ, मतेन फ्रा, आदेशान्तरेण एका । 'वेसाइ छलह 'त्ति । वेश्यायां तु सहसाकारादिभिरित्वरिकनियमभङ्गे क्रमेण षडलघु-षड्गुरु-षड्लघूनि भवन्ति । मतान्तरेण सहसाकारादिभिस्त्रिभिरपि नियमभङ्गे षड्गुरुकमेव । अन्ये त्वाहुः-स्वदारेत्वरव्रतभङ्गे वेश्येत्वरव्रतभङ्गे च षड्लघु इत्वरायां-कियत्कालान्यपरिगृहीतायां स्वयं धृतोयां वा गमने षड्गुरु । एवं स्त्रियाः स्वपुरुषेऽनाभोगादिमिरित्वरिकव्रतभङ्गे क्रमेण फ्र। फ्रा। एका । सपल्या वारके फ्र। इति गाथार्थः ।।८।। पुनरत्रैव विशेषमाह आभोगे पणकल्लं दुण्ह कुलवहूइ मूलमविसंकं । सासकमनाए पणकल्लं नाए छ पण कल्ला ॥८२॥ व्याख्या-आभोगे-नियमोऽस्ति ममेत्युपयोगे जानानस्येत्यर्थः । स्वदार-वेश्यादिनियमभङ्गे प्रत्येकं पञ्चकल्याणम । उक्तं च 'आभोगे पञ्चकल्लमिक्किक्के । इह च स्त्री पुरुषो वा यो बलात्कारं करोति तस्येदमितरस्य तु पूर्वोक्तमेव । उभयसम्मत्या तूभयोरपि पश्चकल्यम् । 'दुण्ह कुलवहूइ'त्ति । तथा परस्त्री कुलवघूगमने द्वयोरपि निःशङ्कयोर्मूलम् । पुनः श्रावकधर्मारोपः क्रियते, पाण्मासिकं वा तपो देयमिति _ 'छम्मासं बहुअपावे वी 'ति वचनात् । श्रीमहावीरतीर्थे उत्कृष्टतोऽपि षण्मासान्तमेवातिचारशुद्धयर्थ 2010_05 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीविशेषजमनाविषयं प्रायश्चित्तम् तपः स्यादिति हेतोः । मृदुस्वभावस्य तु पञ्चकल्यमेव 'जइ संतप्पइ तो पंचकल्लाणमिति वचनात् । तथा ‘सासंकमनाए' इत्यादि । साशङ्कयोद्धयोरपि लोकाज्ञाते सति पश्चकल्यम् । 'नाए' इत्यादि । ज्ञाते तु लोकप्रसिद्ध सति साशङ्कयोदयोरपि षड् पञ्च कल्यानि-स्वाध्यायलक्षयुतं पञ्चकल्यं तपो देयमित्यर्थः ।।८२॥ पूर्वोक्तमेवार्थ प्रकारान्तरेणाह पण कल्ला दस कल्ला अनाय नाए बलाओकारिस्स । खवणसयं तीसाइ व दसवेला जा उवरि मूलं ॥८३॥ व्याख्या-बलात्कारिणः पुरुषस्य स्त्रियो वा शीलभङ्गेऽज्ञाते-लोकाप्रसिद्ध सति पञ्च कल्यानि । ज्ञाते-लोकप्रसिद्धे च दश कल्यानि । खवणसयमित्यादि । वारंवारमेवं कुर्वतस्तु दशवेला-दश वारान् यावत् क्षपणशतं प्रायश्चित्तं भवति । पात्राद्यपेक्षया तु त्रिंशदादीनि वा चतुर्थानि भवन्ति । ' उवरि मूलं 'ति । दशवेलानामुपरि साशङ्कयोरपि मूलं प्रागुक्तलक्षणम् । मृद्वोः पश्चातापिनोश्च पुंखियोः पञ्च. कल्याणं वेति गाथार्थः ॥ ८३ ।। अथ स्त्रीविशेषगमनमधिकृत्य पुंसः प्रायश्चित्तमाह पणकल्ल वड्ढकुमारी-मयपइया ओहओ अ परदारे । छग्गुरुग दासियाइसु छल्लहु खत्तिअदिआईसु ॥ ८४ ॥ व्याख्या-बृहत्कुमारी प्रतीता, मृतपतिका-विधवा तासु तथौधतः-सामान्येन वक्ष्यमाणदासिकादिजघन्यादिपरस्त्रीविशेषं विना परदारेष्वज्ञातकुलाङ्गनासु गमने प्रत्येकं पञ्चकल्यम् । आदेशेन षड् गुरुकाः प्रायश्चित्तं भवति । विशेषतस्तु प्राह-'छग्गुरु' इत्यादि । दासिकादिषु जघन्यपरस्त्रीषु गमने षड्गुरुवः क्षत्रियाणी ब्राह्मण्यादिषु मध्यमपरदारेषु गमने च षडलघवश्च प्रायश्चित्तं भवतीति गाथार्थः ।।८४।। साम्प्रतमुत्तमपरस्त्रीगमनमधिकृत्य प्रायश्चित्तमाह ठकुरपिआइ छग्गुरु दस पण कल्ला अनायनाए वा । असिओ लक्खो मूलं पत्तं वाऽऽसज्ज पणकल्लं ॥८५ ॥ व्याख्या- ठक्करो-ग्रामाद्यधिपतिः तत्प्रियायां गमने, उत्तमपरदारगमने इत्येके । वाशब्दस्य चार्थत्वादज्ञाते-जनाप्रसिद्धे, ज्ञाते-जनप्रसिद्ध सति षड्गुरवो दश पञ्च कल्यानि च क्रमेण प्रायश्चित्तं भवन्ति । तथाहि-लोकरज्ञाते षड्गुरु, ज्ञाते पुनर्दश पञ्च कल्यानि क्षपणशतमित्यर्थः। 'असिओ लक्खो' इत्यादि । वाशब्द आदेशान्तरसूचकः । तत उत्तमपरकलत्रेण सह व्रतभङ्गेऽज्ञातेऽशीतिसहस्राधिकं स्वाध्यायलक्षं पञ्चचत्वारिंशत्कल्यानीत्यर्थः । ज्ञाते पुनर्मूलं प्रागुक्तलक्षणं च प्रायश्चित्तं भवति । 'पत्तं वे' त्यादि । वाशब्दोऽथवार्थोऽथवेदमन्यदादेशान्तरं तृतीयमित्यर्थः । तत उत्तमपात्रमासाद्य पञ्चकल्यमेव वा । अतिप्रसिद्धपात्रस्य तु मूलस्याप्यापत्तौ पञ्चकल्यमेव प्रायश्चित्तं प्रदेयम् न मूलमित्याप्तोपदेशः । अन्ये तु स्त्रियं प्रत्येवमाहुः-' सीलस्स बला भंगे लक्ख इन्थीइ सपणकल्लाणमि 'ति गाथार्थः ।। ८५ ।। 2010_05 a Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे साम्प्रतमत्रैव विशेषमाह पणकल्लमनाए तीस-कल्ल नाए अछिप्पजाईसु । कल्लमणुतावि किवे तिव्वभिलासे य पणकल्लं ॥ ८६ ॥ व्याख्या-' अछिप्पजाईसु 'त्ति । अस्पृश्यजातिषु मातङ्गयादिपरस्त्रीषु गमनेऽज्ञाते-जनाप्रसिद्ध पञ्चकल्याणं, ज्ञाते तु त्रिंशत्कल्यानि-स्वाध्यायलक्षयुतं पश्चकल्याणमित्यर्थः । अन्ये तु केवलं स्वाध्यायलक्षमेवाहुः पञ्चाशत्क्षपणोनीत्यर्थः । 'कल्लमणुतावि कीवे 'त्ति । 'व्याख्यानतो विशेषार्थप्रतिपत्ति 'रिति न्यायात् क्लीबे-क्लोबसेवनायां-नपुंसकसेवनायर्या अनुतापे-पश्चात्तापे सति कल्यम् । तथा'तिव्वमिलासे य पणकल्ल 'मित्यादि । तीव्राभिलाषे तु पञ्चकल्यं प्रायश्चित्तं पुरुषस्य स्यादिति । यद्वाअनुतापिनः-पश्चात्तापवतः क्लीबस्य-नपुंसकस्य कल्यम् । तीव्रामिलाषे-तीव्रानुरागात् क्लिष्टाध्यवसायस्य तु पञ्चकल्यं, चशब्दात् पुंस्त्रियोरपि हस्तभङ्गयां-हस्तकर्मादिकरणे चतुर्लघुध । उभयोरपि गाढाऽऽकाङ्क्षायां सरागभाषायां च गुरोरालोचनं पुनरकरणेन च मिथ्यादुःकृतदानमिति । स्वप्ने नियमभङ्गे नमस्काराधिकचतर्विशतिस्तवचतुष्ककायोत्सर्गः कार्य इति । 'सयमट्ठसयं चउत्थ 'मिति वचनादिति गाथार्थः ।।८।। अथ पञ्चमाणुव्रतविषयं प्रायश्चित्तविधिमाह गुरु-लहुग-गुरुग तिविहे परिग्गहे उत्तमे व पणकल्लं । एगे असीअ लक्खं उविच्च भंगे इमं अन्ने ॥८७ ॥ व्याख्या-द्रव्यादिविषये परिग्रहे जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात्त्रिविधेऽपि यथाक्रमं गुरुचतुर्लघुचतुर्गुरुकाः प्रायश्चित्तं भवति । यदाह-' मोसाइसु मेहुणवज्जिएसु' इत्यादि । इह च पाठान्तरम् ' लहुगुरु-चउलह तिविहे परिग्गहे ' इति । तत्रेत्थं व्याख्या-त्रिविधेऽपि जघन्यमध्यमोत्कृष्टरूपे द्रव्यादिविषये परिग्रहे क्रमेण लघुमास-गुरुमास-चतुलघुकाः प्रायश्चित्तं भवति । उत्तमपरिग्रहनियमभङ्गविषये आदेशान्तरद्वयमाह- उत्तमे वे 'त्यादि । वाशब्द आदेशान्तरसूचनार्थः। तत उत्तमे परिग्रहे आदेशेन पञ्च कल्यं प्रायश्चित्तं भवति । 'एगे' इत्यादि । एके पुनराचार्या उत्कृष्टपरिग्रहनियमभङ्गे अशीतिसहस्राधिक स्वाध्यायलक्षमाहुः । 'उविच्च भङ्ग ' इत्यादि । अन्ये पुनराचार्या इदमशीतिसहस्राधिकस्वाध्यायलक्षदानरूपं प्रायश्चित्तमुपेत्य-आकुट यादिना परिग्रहव्रतभड़े प्राहुः । अत्रापि दर्पण परिग्रहवतभङ्गे पञ्चकल्याणं प्रायश्चित्तम् । · अहवा मोसादत्ते' इत्यादि वचनादिति गाथार्थः ।। ८७ ।। अथ गुणव्रतत्रयविषयं प्रायश्चित्तविधिमाह दिसिवय अणत्थभंगे चउगुरु निकारणं च निसिभत्ते । कोहे पक्वाईए पगाढमायामयाईसु ॥८८ ॥ व्याख्या-दिग्त्रतविषयेषु पञ्चस्वप्यतिचारेषु तथा अपध्यान-प्रमादाचरिता-ऽधिकरणप्रदान पापोपदेशरूपचतुर्विधोनर्थदण्डविरमणव्रतभड़े च प्रत्येकं चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तं भवति । तथा भोगोपभोग 2010_05 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभक्ष्यनियमभङ्गविषयं प्रायश्चित्तम् गुण निष्कारणं - रोगधरणादिकारणं विना रात्रिभोजने चतुर्गुरुद्वी । एके तु कारणे रात्रिभोजने चतुगुन्निः कारणे षड्गुरूंश्च प्रायश्चित्तं प्राहुः । अथानर्थदण्डविरमणव्रतविषये किचिद्विशेषतः प्रायश्चित्तविधिमाह - ' कोहे ' इत्यादि । क्रोधे पक्षातीते - पक्षाद्यतीते पक्षं चतुर्मासकं वाऽतिक्रम्यापि कृतावस्थाने तथा प्रगाढेषु-पक्षाद्यतिक्रान्तेषु मायोमदादिषु, लोभातिरेकतः परवञ्चनात्मिका माया मदो-जात्यादिरष्टप्रकारः पीठिकायां प्रागुक्तस्वरूपः, आदिशब्दात् प्रगाढलोभादिषु कलहादिषु च प्रत्येकं चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तं भवतीति । गुरु' इत्येतस्य पूर्वार्द्धप्रतिपादितस्य सर्वत्रापि योगादिति गाथार्थः ॥ ८८ ॥ 4 अथ यः श्राद्धादिः उपशामनशक्तौ क्रोधादीन् कुर्वन्तं पुमांसं नोपशामयति, तस्य किं प्रायवित्तम् ? इति प्रकरणागतं तत् प्रायश्चित्तविधिमाह - जो जम्हा उवसमई विज्झवणं तेण तस्स कायव्वं । जो उ उवेहं कुज्जा सो पावइ मासियं लहुयं ॥ ८९ ॥ व्याख्या– यो यस्मादुपशाम्यति निवृत्तानुशयो भवति, तेन तस्य ' विज्ावणं - विध्यापनं कर्त्तव्यं, प्रकरणात् क्रोधाग्नेरितिशेषः । शास्त्रान्तरेषु क्रोधादीनामग्न्याद्युपमानस्य सुप्रसिद्धत्वात् । 'जो उ उवेह ' मित्यादि । एवं सति यस्तु श्राद्धादिः तत्र शक्तोऽप्युपेक्षां कुर्यात् स प्राप्नोति मासिकं लघुकं, तस्य लघुमासप्रायश्चित्तशोध्यं दूषणं भवतीति भावः ॥ ८९ ॥ अथ भोगोपभोगगुणवते ऽभक्ष्य नियमभङ्गविषयं प्रायश्चित्तमाह महु - पंचुंबरि- फल - फुल्लमाइवयभंगि गुरुग अन्नाए । नाए छगुरु अनियमे पिसिआसव - मक्खणे दसगं ॥ ९० ॥ , 6 व्याख्या - मधु - प्रतीतं, पञ्चोदुम्बरी - ' उदुम्बरवटप्लक्ष - काकोदुम्बरशाखिनाम् । पिष्पलस्य च नाश्नीयात् फलं कृमिकुलाकुलम् ' ॥ १ ॥ इत्याद्युक्तरूपा । फलं - वृन्ताकादि । पुष्पं- मधूकादि । आदिशब्दादुषित द्विदल हिमविषादिपरिग्रहः । एतेषां व्रतस्य - नियमस्य भने ' अन्नाए 'त्ति । अज्ञाते - ऽनाभोगेन इत्यर्थी, जाते सति 'गुरुग 'ति । गुरुकाश्चतुर्गुरवः प्रायश्चित्तं भवतीति । नाए छग्गुरु 'त्ति । ज्ञातेआभोगे सति मधुप्रभृतीनां नियमभङ्गे षड्गुरु प्रायश्चित्तं भवति । अन्ये तु सामान्येन पयोदुम्बरीफलपुष्पादित्रतभङ्गे लघु, नमस्काराष्टशतं त्वेके । अपरे तु नियमं विनाऽपि पोदुम्बर्यादिषु निषिद्धेषु भक्षितेषु चतुर्गुरु, नियमभङ्गे तु षड्गुरुकमाहुः । अनियमेत्यादि । यस्य त्राह्मणवणिजादेर्जातिस्वभावादेव पिशितादीनि न भक्ष्यन्ते तस्य निर्विषयत्वात्कदाचिदकृतनियमस्यापि पिशितासवम्रक्षणानां । तत्र पिशितं -मांस, आसवो - मद्यं, क्षणं - नवनीतम् । एतेषां भक्षणे दशकं - क्षपणानामिति गम्यत इति गाथार्थः ॥ ९० ॥ अथ भोगोपभोगगुणत्रत एवानन्तकाय प्रत्येक वनस्पतिनियमविषयं प्रायश्चित्तं किञ्चिन् मांसा - सवविषयं विशेषप्रायश्चित्तं चाह 2010_05: Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे चउगुरुगंते चउलहु परित्तभोगे सचित्तवज्जिस्स । मंसासववयभंगे छग्गुरु चउगुरु अणाभोगे ॥९१ ॥ व्याख्या-सचित्तवर्जकस्य श्राद्धादेः · अणंत 'त्ति । अनन्तकायानां-मूलकाकादीनां भक्षणे चतुर्गुरुवा प्रायश्चित्तं भवति । यदागमः 'सोऊण जिणपडिकुट्ठो अणंतजीवाण गायनिप्फन्नो। गेहीपसंगदोसा अणतकाए अओ गुरुगा' ॥१॥ तथा सचित्तवर्जकस्यैव श्राद्धादेः 'परित्त 'त्ति । प्रत्येकपरिभोगे-प्रत्येकाघ्रादिफलपुष्पादिभोगे चतुर्लघु प्रायश्चित्तं भवति । तथा मांसासवयोः उपलक्षणत्वोन्मधुनवनीतयोश्च 'वयमंगे 'त्ति । अनाभोगतः पृथग् वक्ष्यमाणत्वादत्राभोगतो ज्ञेयं । ततश्चाभोगे सति प्रतस्य भङ्गे षड्गुरु । 'चउगुरुग 'त्ति । अनाभोगे सति मांसासवमधुनवनीतानां व्रतभङ्गे चतुर्गुरु प्रायश्चित्तं भवतीति गाथाक्षरार्थः ॥ ९१ ।। __अथ भोगोपभोग एव विकृत्यादिनियमभङ्गविषयं देशावकाशिकव्रतविषयं पञ्चदशकर्मादानविषयं च प्रायश्चित्तमाह विगई-ण्हाण-सचित्तासणाइ-भोगोवभोगभंगि लहु । चउलहु देसवगासे कम्मादाणे छगुरु गुरुगा ॥९२ ॥ व्याख्या-विकृति-स्नान-सचित्तग्रहणेन द्रव्याशनपानखादिमस्वादिमविलेपनपुष्पादीनां भोग्यानामुपादानम् आसनादिकथनेन च वस्त्राभरणयानवाहनशयनासनोपानहादीनामुपभोग्यानामङ्गोकरणं, ततो विकृति-स्नान-सचित्तासनादि-भोगोपभोगव्रतभङ्गे लघु । तथा देशोवकाशिकवतभक्गे चतुर्लघु । तथा पञ्चदशकर्मादाननियमभङ्गे षड्गुरु प्रायश्चित्तं । 'गुरुग 'त्ति । मतान्तरेण गुरुकाश्चतुर्गुरु प्रायश्चित्तं पश्चदशकर्मादाननियमभने च भवतीति । पश्चदशकर्मादानस्वरूपं च ग्रन्थान्तरोक्तमेवम् 'इंगालविकायं इट्टवायकुंभारलोहगाराणं । सोनारभाडभुंजाइयाण कम्मं तमिंगालं ॥१॥ फुल्लफलपत्ततणकटपणियकंदाइयाण विणयं । आरामकच्छियाकरणयं च वणकम्ममाहंसु ॥ २ ॥ सगडाणं घडणघडावणेण तविक्कएण जा वित्ती । तं सागडियं कम्मं तदंगविकिणणमवि नेयं ॥ ३ ॥ निअएणुवगरणेणं परकीयं भाडएण जो वहइ । तं भाडकम्ममहवा वसहाइसमप्पणमन्नेसि ।। ४ ॥ जवचणयगोहुममुग्गमासकरडिप्पभिईण धन्नाणं । सत्तुय-दालिकणिकातंदुलकरणाइ फोडणया ।। ५ ॥ अहवा फोडीकम्मं सीरेणं भूमिफोडणं जं तु । सिलकुट्टणउल्लत्तं खणणं लवणागराईणं ॥ ६ ॥ नहदंतचम्मखला भेरिकवडायसिप्पिसंखा य । कच्छूरियपूअसमाइयं च इह दंतवाणिज्जं ॥ ७ ॥ लक्खाधाहगुलियामणसिलहरिआलवज्जलेवाणं । विफिणण लक्खवणिजंतुअरिअसक्करडमाईणं ।।८।। महुमज्जमंसमक्खण चउण्ह विगईण जमिह विकणणं । रसवाणिज्जं सह दुद्धतिलघयदहिअपमिईणं ।। मणुयाणं तिरियाणं विकिणणं इत्थ अन्न देसे वा। केसवणिज्ज भण्णइ गोगद्दहअस्समाईणं ॥१०॥ विसवाणिज्ज भण्णइ विसलोहप्पहरणाण विक्किणणं । धणुहसरखग्गछुरिया-परसुअकुद्दालिआईणं ॥११॥ सिलउक्खलमुसलघरट्टकंकयाईण जमिह विकिणणं। उच्छतिलपीलणं वा तं बिती जंतपीलणयं ॥१२॥ 2010_05 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिकपोषधव्रतविषयं प्रायश्चित्तम् कन्नोण फालणं नासवेहवद्धिअयडंभणं तिरिसु । कंबलपुच्छछेयणपमिईनिलंछणं भणियं ॥ १३ ॥ वणदवदाणमरण्णे दवग्गिदाणं च जीववहजणयं । सरदहतलायसोसो बहुजलयरजोववहकारी ॥१४॥ मज्जारमोर-मक्कडकुकुड-सालहिअकुकुरोईणं । दुट्ठित्थिनपुंसाईण पोसणं असइपोसणया ॥ १५ ॥ एवं सङ्क्षपतः पञ्चदशकर्मादानस्वरूपमिति गाथार्थः ॥१२॥ ___ अथ गाथानुलोम्येन देशावकाशिकदशमव्रतस्य प्रायश्चित्तविधेः पूर्वमुक्तत्वात् साम्प्रतं सामायिकपौषधोपवासवतयोर्नवमैकादशमयोः प्रायश्चित्तविधिमाह नियमे पोसहसामाइअकरणे चउगुरू अपारणए । इह पुत्तीहारवणे चउगुरु लाहे पुणो भिन्नं ॥९३ ॥ व्याख्या-नियमे सति पौषधस्य सामायिकस्य चाकरणे चतुर्गुरवः । तथा 'अपारणे 'त्ति । ‘डमरुकमणि' न्यायेन 'चगुरु' इत्यस्यात्रापि योगात् पौषधसामायिकयोरपारणेऽपि चतुर्गुरु प्रायश्चित्तं भवति । मतान्तरेणापारणे चतुर्लघु । नियमाभावेऽपि सुश्रावकस्य सामग्य सत्यां सामायिकाकरणे लघुमासः। तथा इह पौषधसामायिकयोरङ्गीकृतयोर्यदि मुखवत्रिकी सर्वथा नाशयति तदा चतुर्गुरु । मतान्तरेण चतुर्लघु । लाभे-पुनस्तस्याः प्राप्तौ भिन्न-भिन्नमासः । पुनःशब्दाद् हस्ताद्यवग्रहाद् बहिःस्थितायामपि तस्यां भिन्नमासः । कचिन्नमस्कारावलिकानां नाशने च मासगुस् । इति गाथार्थः॥९३॥ अथ विशेषतः पौषधविधिविषयं प्रायश्चित्तमाह वसहि-अपमजणे तह सज्झाय-निसीहियावसिअकरणे । इरिआइ अपडिकमणे उवही थंडिल अपडिलेहे ॥ ९४ ॥ अपमजिउ कवाडुग्घाडे पिहणे अ कायकंडुअणे । कटाइगहणमुअणे मिन्नं कुड्डाइवर्टमे ॥ ९५ ॥ व्याख्या-यदि गृहितपौषधोपवासघ्रतो द्विवेलं वसतिं न प्रमार्जयति । तथाशब्दाद्रात्रौ वपन् संस्तारकभूमि कायोत्सर्गकरणभूमि वा न प्रमार्जयति, चतुःकालं स्वाध्यायं न करोति, वसत्यादौ प्रविशन्नैषेधिकी न कथयति, उपलक्षणादौपग्रहिकरजोहरणेन पादौ न प्रमार्जयति, शिरस्यञ्जलिं न बध्नाति च, तथा निःसरन्नावश्यकीं न करोति, तथा कायिकादिपरिष्ठापने हस्तशतादागमने पयस्त्यागादौ वेर्यापथिकी न प्रतिक्रमति, उभयकालमुपधि स्थण्डिलानि चागोढोच्चारप्रश्रवणमरिष्ठापनार्थ न प्रत्युपेक्षते । नषेधिक्यादिस्वरूपं स्थण्डिलानां प्रमाणसङ्ख्यादिस्वरूपं च ग्रन्थान्तरतोऽवसेयम् । तथा 'अपमज्जिउ 'ति। पृथग पृथग् सर्वत्र सम्बध्यते । ततश्च कपाटादीन् पूर्व चक्षुषा निरीक्ष्य औपग्रहिकेन साधुसत्केन या रजोहरणेनाप्रमार्योद्घाटयति । पिदधाति-स्थगयति वा । तथाऽप्रमाय कायं शरीरकं कण्डूयति । तथा काष्ठपीठफलकमात्रकदण्डकादिकमप्रमाय॑ गृहाति मुञ्चति वा, कुडये-मित्तौ आदिशब्दात् स्तम्भमालादावप्रमाावष्टभ्नाति । एतेषु सर्वेष्वपि स्थानेषु भिन्न-भिन्नमासः प्रायश्चित्तं भवतीति गाथाद्वयार्थः॥ ९५ ॥ 2010_05 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे उवविट्ठपडिक्कमणे नासज्जपमज्ज-पुंजणुद्धरणे ।। जिणमुणिगेहागमणे लहुगनपारियजिमणपियणे ॥ ९६ ॥ व्याख्या-अशक्तेरालस्यादेर्वा गृहीतपौषधेऽन्यथा वा श्राद्ध उपविष्टः सन् प्रतिक्रमणं करोति । तथा अन्धकारे परिभ्रमन् बाढमासज्जेति न कथयति त प्रमार्जयति च । तथा द्विवेलमुपाश्रयप्रमार्जनानन्तरं पुखं नोद्धरति । तथा जिनमुनिगेहयो-देवालयोपाश्रययोर्देवगुरुवन्दनाय न गच्छति । तथा प्रत्याख्यानम पारयित्वा भुङ्कते पानीयं च पिबति । एतेषु सर्वेष्वपि लघुकं-लघुमासः प्रायश्चित्तं भवतीति गाथार्थः ।।१६।। पुरिसस्सित्थीफासे चउलाहु इत्थीइ होइ चउगुरुयं । लहुअं संतरफासे अंचलतिरिफासणे मिन्नं ॥९७ ॥ व्याख्या-पौषधेऽङ्गीकृते पुरुषस्य निरन्तरं स्त्रीस्पर्श चतुर्लघु प्रायश्चित्तम् । खियस्तु निरन्तरं पुरुषस्य स्पर्श चतुर्गुरु प्रायश्चित्तम् । तथा सान्तरे स्पर्शे-परम्परसङ्घट्टे द्वयोरपि स्त्रीपुंसोलघुमासः प्रायश्चित्तम् । तथाअञ्चलेन-वस्त्रप्रान्तादिना स्त्रिया सङ्घट्टे तिरश्च्याः स्पर्शने च मिन्नं-मिन्नमासः प्रायश्चित्तं भवतीति गाथार्थः।। तिविह जल-जलणफुसणे विज्जुप्फुसणे अ भिन्न-लहुगुरुगो । चउलहु वग्धारंमी तं चिय दग-मट्टियगमे य ॥ ९८॥ व्याख्या-त्रिविधे-अघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदमिन्ने जलस्य-जलदादिसत्कस्य ज्वलनस्याऽग्निज्योतिषश्च स्पर्शने, विद्युतः स्पर्शने च भिन्नं लघुगुरु च । जलादीनां जघन्यस्पर्शने मिन्नं, मध्यमस्पर्शने लघुमासः उत्कृष्टस्पर्शने गुरुमासश्च प्रायश्चित्तं भवति । 'चउलहु वग्घारंमि 'त्ति । वग्यारं नाम या अविच्छिन्ना वृष्टिः । यद्वो-यस्यां वृष्टावुपरि प्रावृतं कम्बलादिकं श्चोतति, यद्वा-उपरितनकम्बलादिकं मित्त्वाऽन्तःकोयमार्द्रयति । तथा ' तं चिय 'त्ति । तदेव चतुर्लघुकमेव प्रायश्चित्तं भवति । क्वेत्याह-उदके मृत्तिकायां च उदकमिश्रमृत्तिकायां वा गमने इति गाथार्थः ॥ ९८ ॥ नववासवुट्टि-किसलयविराहणा जत्तिआणि दिअहाणि । तावइआ चउगुरुगा दसगं छपिआल-सुइनासे ॥ ९९ ॥ व्याख्या-अमिनववर्षाकालवृष्टौ जातायां यानि किशलयान्यनन्तकायरूपाणि भवन्ति । तेषां विराधना यावन्ति दिनानि स्यात्तावन्तश्चतुर्गु रुकाः प्रायश्चित्तम् । अयमभिप्रायः-वर्षाकाले किल प्रथमघृष्टौ जातायां दिनत्रयं यावत् सूक्ष्माङ्करा अन्तर्मुहूर्त्तमात्रकालमनन्तकायरूपाः प्रायः सर्वत्र भूतले प्रतिक्षणं प्रादुर्भक्न्तो भवन्ति । ते च दुर्लक्ष्यतया परिहत्तुं दुःशका अतस्तदानीं तद्विराधनाभीरवो गृहीतपोषधा गृहीतसामायिकाश्वोपासका दिनत्रयं थावत्तत्परिहाराय यथाशक्ति यतन्ते । यतमानानामपि च गृहीतपौषघादीनां श्राद्धानां नवीनाङ्करविराधना यावन्ति दिनानि स्यात्तावन्तश्चतुगुरुकाः प्रायश्चित्तं भवति । तथा ग्रन्थान्तरे सामान्यतो लोहनाशे चतुगुरुकस्रोक्तत्वादन 'सुइ'त्ति सूचिकालयस्य प्रहणम् । ततश्च षट्पद्यालयो-यूकागृहं सूची-सूचिकालयः तयोर्नाश २ दशकं प्रत्यासत्तेश्चतुर्गुरुकाणां प्रायश्चित्तं भवतीति गाथार्थः।। 2010_05 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिथिसंविभागविषयं तपआचारादिविषयं प्रायश्चित्तम् पुढवाइ-घट्टणाइसु मिन्नाइ अणंत-विगलि लहुगाइ । पंचिंदिसु गुरुमाइ दसगं सव्वेसु नवपुरओ ॥ १०० ॥ व्याख्या-पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतीनां ‘घट्टणाइसु 'त्ति । सचट्टानागाढ-परितापोपद्रवेषु जातेषु 'मिन्नाइ'क्रमेण-मिन्नमास-लघुमास-चतुर्लघवः प्रायश्चित्तं भवति । पृथिव्यादीनां सट्टादिस्वरूपं प्राक् प्रथमाणुव्रते प्रतिपादितमेव । तथाऽनन्तकायवनरपतेर्विकलेन्द्रियाणां च सङ्घट्टादिषु चतुर्वपि 'लहुगाइ 'त्ति । यथासयं लघुमास-गुरुमास-चतुर्लघु-चतुर्गुरवः प्रायश्चित्तं भवति । तथा पञ्चेन्द्रियविषयेषु सङ्घट्टादिषु 'गुरुमाइ 'त्ति । गुरुमास-चतुर्लघु-चतुर्गुरु-षड्लघवः प्रायश्चित्तं गृहीतपौषधस्य श्राद्धस्य भवति । अत्रापि पञ्चेन्द्रियसचट्टः तदहर्जातमूषक-गृहकोलिकादिविषयो द्रष्टव्य इति । 'दसग 'मित्यादि । सर्वेष्वपि पृथिव्यादिविषयेष्वेतेषु सचट्टादिषु नवानां वाराणां परतो दशादिषु यावत्परःशतेष्वपि सञ्जातेषु दशकं स्वप्रायश्चित्तानां भवति । यथा दशमिरेकादशमिर्यावत्परःशतैश्च पृथिवीस?भिन्नदशकमेव, नाधिकं तावता तस्य शुद्ध यापत्तेरिति । नव यावत्तु यावन्तः सट्टादयः तावन्ति प्रायश्चित्तानि भवन्ति । एवमन्येषामपि भावना कार्येति गाथार्थः ॥ १० ॥ वमणे निसि वोसिरणे जिमिऊणावंदणे असंवरणे । अनिमित्त दिवा सुअणे विकहा सावज्जभासाए ॥१०१ ॥ पोरिसिमभणिअ सागारमकरिउ गाहमभणिउ सुअणे । चउलहुअमपेहिअथंडिलेसु मोआइ वोसिरणे ॥१०२ ।। व्याख्या-गृहीतपौषधस्य वमनं जायते । निशि व्युत्सर्जनमकालसझा भवति । तथा भुक्त्वा अवन्दनं-गुरोः कृतिकर्म न करोति । तथा असंवरणं-प्रत्याख्यानं वन्दनकदानेऽपि चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानरूपदिवसचरिमस्वरूपं न विधत्ते । तथा अनिमित्तं-ग्लानत्वादिकं कारणमन्तरेण दिवा स्वपिति । तथा विकथाः-स्त्रीकथादिकाः करोति । तासां स्वरूपं ग्रन्थान्तरतोऽवसेयम् । तथा परोपघातिन्यादिकां सावद्यभाषां भाषते । तथा पौरुषी-पौरुषी-चैत्यवन्दनामभणित्वाऽकृत्वेत्यर्थः । तथा साकारं-पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् साकारानशनप्रत्याख्यानमकृत्वा । तथा 'गाथा 'मित्यत्रैकवचनं जात्यपेक्षमित्यतो गाथाः-संस्तारकगाथा-' अणुजाणह संथारमि 'त्यादिका अभणित्वा-अकथयित्वा च स्वपिति । तथा दिवा अप्रतिलिखितेषु स्थण्डिलेषु मोकादीनि-प्रश्रवणोचारादीनि व्युत्सृजति । एतेषु सर्वेष्वपि गाथाद्वय. प्रतिपादितेष्वपराधस्थानेषु चतुर्लघु प्रायश्चित्तं भवतीति गाथाद्वयार्थः । एतच पौषधोपवासव्रतप्रायश्चित्तं प्राक सामायिकव्रताधिकारे अनुक्तं यथासम्भवं तत्राऽप्यवगन्तव्यमिति ।। १०१-१०२ ।। अथ अतिथिसंविभागव्रतविषयं तपआचारादिविषयं प्रायश्चित्तविधिमाह चउगुरु अकारण संविभाग-पचक्खाण अकरणे नियमे । अवए वि लहु सुसटस्स निंदविग्धे य तव कुणओ ॥ १०३॥ व्याख्या-नियमे सति कारणं-ग्लानत्वादिकं बिना संविभागं न करोति । तथा पर्वतिथौ ___मया अमुकं प्रत्याख्यानं कर्त्तव्यं शेषतिथिपु चामुकमिति नियमे सति प्रत्याख्यानं न करोति, प्रत्येक 2010_05 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० श्राद्धजीतकल्पे चतर्गरु प्रायश्चित्तं भवति । तथा अव्रतेऽपि-नियमाभावेपि सुश्रावको यदि प्रमादेनातिथिसंविभागं तपश्च नमस्कारसहितादि न करोति लघुमासः प्रायश्चित्तम् । तथा तपः कुर्वतों निन्दाकरणे विघ्नकरणेअन्तरायकरणे, चशब्दात् प्रत्यनीकता-प्रद्विष्टताऽऽशातनादिषु च प्रत्येकं लघुमासः । एवं सामान्येन पर्युषणादिष्वष्टमाद्यकरणे च लघु । विशेषतः पुनरेवम्-'पक्खिए विसेसतवं अकरितस्स बालस्स पणगं, वुड्ढस्स लघु, तरुणस्स गुरु । चाउम्मासिए बालस्स लहु, वुड्ढस्स गुरु, तरुणस्स चउलहु । संवच्छरिए बालस्स गुरु, वुड्ढस्स चउलहु, तरुणस्स चउगुरु इति ॥ १०३ ।। संकेयद्धाभंगे अट्ठसयं लहु गुरू तदहियं वा । तम्मत्तं वा चरिमाकरणे भंगे लहू वमणे ॥ १०४ ॥ व्याल्या-सङ्केतप्रत्याख्यानमगठमन्थिसहितादि । अद्धाप्रत्याख्यानं-नमस्कारसहित-पौरुषीसार्द्धपौरुषी-पुरिमार्द्धादि । एतयोरुपलक्षणत्वाद् द्वथासनकासनादीनां च भङ्गेऽष्टोत्तरशतं नमस्काराणामिति शेषः । 'लहु 'त्ति । अन्ये त्वेतेषां भने लघुमासमाहुः । 'गुरू'त्ति । अपरे तु गुरुमासं । 'तदहियं वत्ति । केचिन्नमस्कारसहित-पौरुषी-पुरिमार्द्धा-पार्द्ध-द्वथासन-कासन-निर्विकृतिका-चाम्ल-क्षपणानां भने तदधिकप्रत्याख्यानदानं । ' तम्मत्तं व 'त्ति । इतरे पुनर्यदेवकासनादि प्रत्याख्यानं भज्यते तदेव भणन्ति । एकासनादीत्यर्थः । क्वचिदेवं व्याख्या-सङ्केतभङ्गे नमस्काराणामष्टोत्तरशतम् । अन्ये तु लघु. मासं चाहुः। अद्धाभङ्गे तदधिकं, यथा क्षपणभड़े क्षपणद्वयं, ग्रन्थिसहितादिभङ्गे नमस्कारशतद्वयं तावन्मात्रमेव वा स्यादिति । तथा ' चरिम 'त्ति । पदेकदेशे पदसमुदायोपचारात् दिवसचरिमप्रत्याख्यानस्याकरणे-ग्लानत्वादिकारणाभावेऽप्यविधाने भङ्गे च प्रत्येकं लघुमासः । मतेन पञ्चकम् । अन्ये तु पानकासंवरणे पञ्चकम् । वमनात् प्रत्याख्यानभङ्गे लघु । मतेन पञ्चकम् । मतान्तरेण सर्वप्रत्याख्यानभने प्रत्येकं भिन्नमिति गाथार्थः ।। १०४ ॥ अथ वीर्याचारविषयं प्रायश्चित्तविधिमाह भिन्नाइ सयं पारे पच्छन्याऽविहिकए अपुन्नकए । गुरुमासाइ अकरणे इग-दु-ति-चउवंदणुस्सग्गे ॥ १०५ ॥ व्याख्या-उत्सर्गतो गुरुसामग्रीसद्धावे गुरुणा सार्द्ध प्रतिक्रमणं कुर्यात् 'पडिकमणं सह गुरुणा' इति वचनात् । तत्र गुरुभिः साई प्रतिक्रमणं कुर्वन् श्राद्धो यदि गुरुणा कायोत्सर्गे अपारिते स्वय प्रथमं पारयति, गुरुणा वा कायोत्सर्गे छते पश्चात्क्षणमात्रेण करोति, अविधिना या घोटकलताद्या. वश्यकसूत्रायुक्तकायोत्सर्गकोनविंशतिदोषैर्दुष्टं करोति, अपूर्ण वा निजनिजप्रमाणतो न्यूनमुपलक्षणादधिकं वो करोति । एतद्दोषदुष्टेष्वेकद्वित्रिचतुःसङ्ख्येपु कायोत्सर्गेषु · मिन्नाइ 'त्ति । मिन्नादि प्रायश्चित्तं भवति । तथाहि-एकस्मिन्नुत्सर्गे स्वयं पारिते पश्चात्कृते अविधिना कृते अपूर्णकृते वा भिन्नमासः । एवं द्वयोरुत्सर्गयोलघुमासः । त्रिषु कायोत्सर्गेषु गुरुमासः । तुर्पु कायोत्सर्गेषु चतुर्लघवः । तथा 'ऽकरणे'त्ति । निद्रालस्यादिना सर्वथा पुनरकरणे एकस्योत्सर्गस्य पुमासः । द्वयोर्गुरुमासः । त्रिषु चतुर्लघु । चतुर्षु चतुर्गुरु प्रायश्चित्तं भवति । एवं वन्दनकेऽपि प्रायश्चितविधिर्भावनीयः । तथाहि-वन्दनकं गुरोः पूर्व पश्चाद्वा दत्ते, 2010_05 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विस्मृताज्ञातस्तादिसर्वाचारातिचारविषयं प्रायश्चित्तम् ७१ अविधिना न्यूनाधिकावश्यकत्वादिना दत्ते, अपूर्ण वा पदवाक्यछन्दनादिमिन्यूनं वा दत्ते । तत्रैकस्य वन्दनकस्य गुरोः पूर्वं पश्चाद्वा दानादौ मिन्नमासः। द्वयोर्वन्द नकयोलघुमासः । त्रयाणां वन्दनकानां गुरुमासः । चतुर्णा वन्दनकानां चतुलघु । सर्वथा त्वदत्ते एकस्मिन् वन्दनके लघुमासः । द्वयोर्वन्दनकयोर्गुरुमासः । त्रिषु वन्दनकेषु चतुर्लघु । चतुर्पु वन्दनकेषु चतुर्गुरु प्रायश्चित्तं भवतीति गाथार्थः ॥ १०५ ॥ पडिकमणस्साकरणे चउगुरु चउलहु वइट्टपडिकमणे । गुरु वंदणगाकरणे बइट्टकरणे अ लहुमासो ॥ १०६ ॥ व्याख्या-श्राद्धो निष्कारणं प्रतिक्रमणं न करोति चतुर्गुरु, आलस्यादिनोपविष्टः सन् करोति चतुर्लघु प्रोयश्चित्तं भवतीति । एवं वन्दनकं न ददाति गुरुमासः , उपविष्टः सन् ददाति लघुमासः प्रायश्चित्तं भवति । चशब्दात्क्षमाश्रमणादेरविधिना दानादानयोभिन्नादि ज्ञेयमिति गाथार्थः ॥ १०६ ।। अथ वीर्यातिचारमेव सामान्येनाह पडिकमण-दाण-पूआ-तव-सज्झायाइ थोवकरणंमि । गुरुगो बहुसामत्थे लहु नियमे मुणि-जिणानमणे ॥ १०७ ।। व्याख्या सामान्येन नियमे सति बहुकरणसामर्थेऽपि प्रतिक्रमणं स्तोकं करोत्येकवारमित्यर्थः । एवं दाने सप्तक्षेत्र्यादिविषये शक्ति निगूहति । पूजायाश्च त्रिकालकरणसामग्यामेकवेलादिकरणे । एवं तपःस्वाध्यायसंविभागादिविषयेऽपि स्तोककरणे गुरुमासः। तथा नियमे सति दिनमध्ये देव-गुरूणामवन्दने लघुमासः प्रायश्चित्तं भवतीति गाथार्थः । इह च सामान्येन वीर्याचारे निगृहिते चतुर्लघु । विशेषतस्तु-' नाणाइ निगूहि गुरू दव्वाइ अभिग्गहागहे य लहू । नाणे-पढणगुणणाइसु आलस्सं करेइ । दसणे-वच्छल्लकरणाइसु न उज्जमइ । चरित्ते-मूलउत्तरगुणेसु पमायं करेइ । तवंमि-विणयवेयावचाइ न करेइ'। मासगुरु प्रायश्चित्तं भवतीति । द्रव्यक्षेत्रकालभावाद्यभिग्रहाणामग्रणे, तुशब्दाद्भङ्गे च लघु । 'मायाए अप्पाणं नाणतवविरिआइसंजुयं कहंतस्स लहु' इति ।। १०७ ॥ अथ विस्मृताज्ञातकृतादिसर्वाचारातिचारानाश्रित्याह चउम्मासिअवरिसे सामन्नालोअणासु पाएण । विम्हरिअन्नायकए सुद्धस्स वि पंचकल्लाणं ॥१०८॥ व्याख्या-चातुर्मासिकायां वार्षिकायामनिर्धारितवर्षसङ्ख्यबालालोचनारूपायां सामान्यायां वाऽऽलोचनायां प्रत्येकं पञ्चकल्याणम् । अन्ये त्वाहुः-प्रतिवर्षमालोचनाग्राहिणः पश्चाचारान् प्रति प्रत्येकं पञ्चकल्याणं-पश्चाशचतुर्गुरुका इत्यर्थः । अपरे पुनः प्राहुः-आलोचनानन्तरं यावन्ति वर्षाणि यान्ति तावन्ति पञ्चकल्याणानि दीयन्ते । एतत्पश्चकल्यादि प्रायश्चित्तं किंविषयम् ? इत्यत आह-' विम्हरिए' त्यादि । विस्मृताज्ञातकृतविषये । अयमर्थः-तत्तप आलोचयतो यत्किमपि अनाभोगादिना विस्मृत, यच्च पूर्वमतिचारकरणकाले न ज्ञातं तदानित्य ज्ञेयं, न पुनर्मायादिना निगृहितातिचारविषयेऽपि । 2010_05 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे एतच्च कस्य ? इत्याह-'सुद्धस्स वित्ति । शुद्धस्यापि-सामान्येन निरतिचारस्य, अपिशब्दात् सातिचारस्यैकं समासेवितानेकातिचारायातं प्रायश्चित्तं, द्वितीयं च वर्षाद्यापनमिदं दीयते इति । आलोचनाप्रवेशावधिकाल उत्कषेतोऽपि वर्षपर्यन्त एव दीयते नाधिक इत्येके । अन्ये त्वाहुर्बालालोचनाया वर्षत्रथमिति । अपरे पुनर्यथाशक्ति इतिगाथार्थः ॥ १०८ ॥ सम्प्रति विशेषाभिधानाय प्रस्तावनामाह पायमिमं ओहुत्तं विभागओ हीणमहिअ तम्मत्तं । दिजा नाउं दन्वाइ-पुरिस-पडिसेवणविसेसे ॥ १०९ ॥ व्याख्या–प्रायो-बाहुल्येनेदं-पूर्वोक्तं प्रायश्चित्तदानं ओघेन-सामान्येन उक्तं-द्रव्याद्यविभागतः प्रतिपादितं, विभागतो-विशेषतः पुनहींनमधिकं तन्मात्रं वा-जीतोक्तमात्रमेव वा दद्यात् प्रायश्चित्तमितिशेषः । किं कृत्वेत्याह-' नाउ 'ति । ज्ञात्वा-अवगम्य द्रव्यादिपुरुषप्रतिसेवनाविशेषान् । अयमत्र भावार्थ:-द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषप्रतिसेवनाविशेषेषु हीनेषु हीनम् , अधिकेष्वधिकम् , अहीनोत्कृष्टेषु तन्मात्रं-जीतोक्तसममेव प्रायश्चित्तं दद्यादिति गाथार्थः ।। १०९॥ तत्र द्रव्यक्षेत्रकालाभिधित्सयाऽऽह दव्वे सुलहे बलिए य अहिअमूणं व दुब्बले दुलहे । खित्ते ऊणहिअं रुक्ख सीयले एव काले वि ॥ ११ ॥ व्याख्या-आहारादिकं द्रव्यं यत्र देशे सुलभं बलिकं च स्यात् । यथा-अनूपदेशे शालिकूरो बलिकः स्वभावेनैव सुलभश्च तस्मिन् सत्यधिकं जीतोक्ताद् बहुतरमपि दद्यात् । यथा यत्र पुनर्वल्लचणककालिकादिको रूक्षाहारो दुर्लभो दुर्बलश्च तस्मिन् सति ऊनं-हीनं जीतोक्तादल्पमपि दद्यात् , चशब्दात् साधारणे द्रव्ये जीतोक्तमेव दद्यात् । न हीनमधिकं वेत्यनुक्तमपि ज्ञेयम् । तथा क्षेत्रे-ग्रामादौ ऊनमधिकं तन्मात्रं वा दद्यात् । किविशिष्टे ? इत्याह-रूक्षे-स्नेहरहिते, उपलक्षणाद्वातिले वा हीनं, शीतले पुनः स्निग्धे-अनूपे वा क्षेत्रे जीतोक्तादधिकमपि दद्यात् , चशब्दात् साधारणं चानुक्तमपि ग्राह्यम् । तत्र साधारणे मध्यस्थे-अस्निग्धरूले जीतोक्तमात्रमेव दद्यान्न पुनरूनोधिकम् । तथा-' एव काले वित्ति । एवममुनैवोक्तप्रकारेण जीतोक्ताऽधिकसमहीनानि तपांसि कालेऽपि त्रिविधे-वर्षाशिशिरग्रीष्मलक्षणे यथासङ्ख्यं दद्यादिति सामाम्यातिदेश इति गाथार्थः ।। ११० ॥ इति सामान्येन कालस्वरूपातिदेशमभिधाय विशेषतः कालस्वरूपामिधित्सयाऽऽह बहु-अबहु-थोवसीओ निदो उक्कोसमज्झिमजहन्नो । इअ रुवखो उपहतिगे काले गिम्हो सिसिरवासा ।। १११ ॥ व्याख्या-अत्र सामान्येन कालो द्विधा-स्निग्धो रूक्षश्च । स च द्विरूपोऽप्युत्कृष्टमध्यमजघन्यभेदात्रिधा । तदेवाह-बहु-अबहु-स्तोक-शोतः स्निग्धः । बहु-घमं अबहु-मध्यमं स्तोकमल्पं च शीतं 2010_05 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावविषयं प्रायश्चित्तं पुरुषस्वरूपं च ___७३ यस्मिन् स तथारूपः कालः स्निग्धः । स चोत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्च । तत्रोत्कृष्टस्निग्धो बहुशीतः __मध्यमस्निग्धोऽबहुशीतः । जघन्यस्निग्धः स्तोकशीतः । 'इय'त्ति । इतिः पूर्वोक्तप्रकारसमावेशार्थः । तत श्चेति-पूर्वोक्तप्रकारेण रूक्षोऽपि त्रिविधः। क सति ? उष्णत्रिके-बहबहुस्तोकोष्णत्वे सति । इदमुक्तं भवतिउत्कृष्टरूक्षो बहूष्णः । मध्यमरूक्षोऽबहूष्णः । जघन्यरूक्षः स्तोकोष्णः । स च स्रिग्धो रूक्षोऽपि कालखिविधः । ग्रीष्मः शिशिरो वर्षालक्षणश्च । अयमर्थः-स्तोकशीतो जघन्यस्निग्धो बहूष्ण उत्कृष्टरूक्षश्च प्रीष्मः। अबहुशीतो मध्यमस्निग्धोऽबहूष्णो मध्यमरूक्षश्च शिशिरः । बहुशीत उत्कृष्टस्त्रिग्धः स्तोकोष्णो जघन्यरूक्षश्व वर्षा इति । इदमत्र तात्पर्यम्-प्रीष्मशिशिरवर्षाषु यथाक्रमं चतुर्थषष्ठाष्टमानि जघन्यानि, षष्ठाष्टमदशमानि मध्यमानि, अष्टमदशमद्वादशान्युत्कृष्टानि दद्यात् । एतजा स्वयमेव वक्ष्यति । इति गाथार्थः ॥ इत्युक्तं कालद्वारं । साम्प्रतं भावविषयं प्रायश्चित्तं पुरुषस्वरूपं चाह हट्ठस्स दिज्ज भावे न गिलाणस्स व सहिज्ज जं च तयं । दिज्ज सहिज्ज व कालं पुरिसा सह असह असढाई ॥११२ ॥ व्याल्या-भावे-भावतः कश्चिदालोचनाग्राही हृष्टो-निरोगः समर्थः । कश्चिद् ग्लानो-रोगी शक्तिविकलश्च । इत्येतद्विचार्य हृष्टस्य जीतोक्तादधिकमपि दद्यात् , ग्लानस्य तु न दद्यात् , वाशब्दाज्जी. तोक्तादूनं वा दद्यात् । यच्च वा यावन्मानं स सहते-कर्तुं शक्नुयात् तत्प्रायश्चित्तं तावन्मात्र ग्लानादेरालोचनाग्राहिणो दद्यात् । कालं वा सहते-यावता स प्रगुणो भवति, तावन्तं कालं प्रतीक्षेत, रोगनिवृत्तौ समर्थस्य सतो दद्यादित्यर्थः । उक्तो भावः । साम्प्रतं सक्षेपेण पुरुषद्वोरमाह-तत्र केचित् पुरुषा आलोचनाप्राहिणः सहाः-सर्वप्रकारैः समर्थाः । अपरे असहा-असमर्थाः । तथा केचिदशठाः-सरला. त्मानः, आदिशब्दात् केचिच्छठा-मायाविनः । एवं गीतार्थपरिणामकादयश्च भवन्तीतिशेषः । ते च गीतार्थादयोऽमी । इह प्रवचने अनेकविधाः शिष्याः-गीतार्थाः परिणामका अपरिणामका अतिपरिणामकाः शैक्षा उच्छृङ्खलाश्चेति । तत्र गीतार्थो-'गीयं भण्णइ सुत्त'मित्यादिगाथोकस्वरूपः । तथोत्सर्ग उत्सर्गमपवादे चापवादं यथा भणितं ये श्रद्दधति आचरन्ति च ते परिणामकाः। ये पुनरुत्सर्गमेव श्रद्दधत्याचरन्ति च, अपवादं तु न श्रद्दधत्याचरन्ति वा ते अपरिणामकाः । ये चापवादमेवाचरन्ति, नोत्सर्ग ते अतिपरिणामकाः । शैक्षा-नवदीक्षिताः उच्छृङ्खला-उल्लुण्ठाः, अपरिणामकादयोऽपात्रं-न सिद्धान्तरहस्ययोग्या इति गाथार्थः ॥ ११२ ।। एवं विचार्य किं कार्यम् ? इत्यत आह जो जह सत्तो बहुतरगुणो अ तस्साहियपि दिज्जाहि । हीणस्स हीणतरयं झोसिज्ज व सव्वहीणस्स ॥ ११३ ॥ भणियं च ।। व्याख्या-पूर्वोक्तपुरुषाणां सहाऽसहादीनां मध्याघा यथा शक्तः-तपः कतुं क्षमः बहुतरगुणो वा-धृतिसंहननादिसम्पन्नः परिणतादिर्वा भवेत् , तस्याधिकमपि-जीतोक्कादतिरिक्तमपि दद्यात् । तथा 2010_05 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ श्राद्धजीतकल्पे हीनस्य-धृतिसंहननादिरहितस्यापरिणतादेर्वा हीनतरं-जीतोक्तादल्पतरं दद्यात् । तथा सर्वहीनस्य-सर्वथा धृतिसंहननादिशक्तिविकलस्य झोषयित्वा मिथ्यादुष्कृतेनैव तस्य शुद्धिरादेश्येत्यर्थ इति गाथार्थः ।। ११३ ॥ 'भणिअं च 'त्ति । भणितं चागमे इतिशेषः । किमित्याह पणगं मासविवड्ढी मासगहाणीय पणगहाणीय । एगाहे पंचाहं पंचाहे दिति एगाहं ॥११४ ॥ रागद्दोसविड्ढेि हाणिं वा नाउं दिति पचक्खी । चउदसपुवाई वि हु तह नाउं दिति ऊणहि ॥ ११५ ॥ व्याख्या-'रागद्दोसे 'त्यादि द्वितीयगाथापूर्वार्द्ध । रागद्वेषयोर्विवृद्धि हानि वा ज्ञात्वा-अवगम्य प्रत्यक्षिणः-प्रत्यक्षज्ञानिनः केवलमनःपर्यायावधिज्ञानिनोऽधिकं हीनं वा जीतोक्ताद्ददतीति क्रियासम्बन्धः । कथमित्याह-'पणग'मित्यादि । प्रत्यक्षागमज्ञानिनस्तुल्ये अपराधे सति पञ्चकयोग्यपुरुषस्य स्वरूपं विचार्यैकस्य पश्चकं भिन्नं ददति, अपरस्य तु रागद्वेषविवृद्धिमुपलभ्य मासविवृद्धि-मासेन मासाभ्यां मासैर्वा वृद्धि प्रयच्छन्ति-पश्चकस्थाने लघुमासादिकं वा ददतीत्यर्थः । उपलक्षणमेतत् मूलमनवस्थाप्यं पाराश्चिकं वा यच्छन्ति । तथा तुल्येऽपि पारानिकयोग्ये अपराधे एकस्य पाराश्चिकमपरस्यानवस्थाप्यं मूलं छेदं वा मासेन मासाभ्यां मासर्वा हान्या तपश्चशब्दात् पञ्चकं यावदन्ते नमस्कारसहितं, हा ! दुष्टं कृतं, हा ! दुष्टं कारितं, हा ! दुष्टं अनुमोदितं मयेत्येवं वैराग्यभावनातो रागद्वेषहानि भूयसीमतिभूयस्तरामुपलभ्य प्रयच्छन्ति । तथा कस्यचिन्मासिकप्रतिसेवनायामल्पां रागद्वेषहानिमुपलभ्य पञ्चकहान्या मासिकं ददति-पञ्चविंशति दिनानि ददतीत्यर्थः । तथा एकोहं नामाऽभक्कार्थः तस्मिन् प्रतिसेविते कस्यचिद्रागद्वेषवृद्धिमुपलभ्य पश्चाहं ददति । तथा अपरस्य रागद्वेषहानिमुपलभ्य पश्चाहे प्रतिसेविते एकाहमुपलक्षणत्वादोचाम्लमेकाशनं पूर्वार्द्ध निर्विकृतिकं पौरुषों नमस्कारसहित वा प्रयच्छन्तीति । नन्वेवं प्रत्यक्षागमज्ञानिन एव ददत्युतान्येऽपि ? इत्यत आह-' चउदसपुव्वाई 'त्यादि द्वितीयगाथोत्तरार्द्ध । हुनिश्चये । एवं चतुर्दशपूादयोऽपि, आदिशब्दान्नवदशादिपूर्वधरा एकादशोङ्ग-निशीथादिश्रुतधारिणोऽपि, तथा तेनैव प्रकारेण रागद्वेषयोवृद्धि हानि वा ज्ञात्वा जीतोक्तादधिकमूनं वा प्रायश्चित्तं ददति । अत्राधिकशब्दस्य पुरोनिपातश्छन्दोनुरोधादवसेय इति गाथाद्वयार्थः ॥ ११४-११५ ॥ इदं च प्रायश्चित्तं पुरुषाणामिव स्त्रीणामपि दातव्यमित्यत आह एयं पायच्छित्तं जह पुरिसाणं तहेव इत्थीण । नाऊण सत्तमेसिं दिज्जाहि विसोहणट्ठाए ॥ ११६ ॥ व्याख्या-एतच्च प्रायश्चित्तं यथा-येनैव प्रकारेण पुरुषाणां दातव्यमुक्तं तथैव-तेनैव प्रकारेण स्त्रीणामपि दातव्यम् । किं कृत्वेत्याह-ज्ञात्वा सत्त्वं-शक्तिमासां-खीणां प्रायश्चित्तं दद्यात् । किमर्थमित्याहविशोधनार्थाय-पूर्वकृतातिचारमलक्षालनायेति गाथार्थः ।। ११६ ।। ___उक्तं पुरुषद्वारमिदानी प्रतिसेवनाद्वारमाह ___ 2010_05 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विशतिमेदः कल्पः संकप्प-वग्गणाई-कंदप्प-प्णाणकारणाईआ। आउट्टि-दप्प-पमाय-कप्प-पडिसेवणा चउहा ॥ ११७ ।। व्याख्या-आकुट्टिका-दर्प-प्रमाद-कल्पैः कियमाणा प्रतिसेवना चतुर्द्धा-चतुःप्रकारा भवति । कथम्भूतो? इत्याह 'सङ्कल्प-उपेत्य सावद्यकरणोत्साहात्मकः, वल्गनादिः-वल्गनडेपनधावनादिः, कन्दोहास्यजनकवचनादिरूपः, ज्ञान-विशेषश्रुतज्ञानग्रहणं तदेव कारणं ज्ञानकारणम् । एतानि चत्वार्यप्यादौ यस्यां सा तथा । इह चादिशब्दः प्रत्येकं योज्यते । ततो अयमर्थः-सङ्कल्पादिका आकुट्टिकाप्रतिसेवना । वल्गनादिका दर्पप्रतिसेवना । कन्दर्पादिका प्रमादप्रतिसेवना । ज्ञानकारणादिका कल्पप्रतिसेवना। एवं चतुर्दा प्रतिसेवनेति । इदमुक्तं भवति-सङ्कल्पेन या क्रियते साऽऽकुट्टिका प्रतिसेवना । वल्गनादिभिर्या क्रियते सा दर्पप्रतिसेवना । कन्दर्पण दिवा रात्री वा प्रतिलेखनाप्रमार्जनाद्यनुपयुक्ततया वा या क्रियते सा प्रमादप्रतिसेवना । ज्ञानदर्शनादिना चतुर्विशतिभेदेन कारणेन गीतार्थेन कृतयोगिनोपयुक्तेन पुरुषेण यतनया या क्रियते सा कल्पप्रतिसेवनेति गोथार्थः ॥ ११७ ॥ उक्ताः स्वरूपतः प्रतिसेवनाः । सम्प्रति तास्वेव प्रायश्चित्तविधिमाह भणियमिण तु पमाए दप्पे वढिज्ज ठाणमाउटिए । ठाण तरं व दिज्जा कप्पे पडिकमणमुभयं वा ॥ ११८॥ व्याख्या-इदं तु जीतव्यवहारेण यत्तपोदानं भणितमुक्तम् , तत् प्रमाद एवोक्तम्-प्रमादप्रतिसेवनाकारिणः पुरुषस्यैवोक्तम् । दर्प-दर्पप्रतिसेवनाकारिणः पुरुषस्य पुनः स्थानं-प्रमादप्रतिसेवकप्रायश्चित्तस्थानादेकं स्थानान्तरं वर्द्धयेत् । अयमर्थः-प्रमादप्रतिसेवनया मिन्नमास-लघुमास-गुरुमासचतुर्लघु-चतुर्गुरु-षडलघु-षड्गुरूणामापत्तौ निर्विकृतिक-पुरिमार्द्धंकाशनाचा ल-चतुर्थ-धष्टाष्टमास्यं तपो दीयते । दर्पप्रतिसेवनाकारिणस्तु मिन्नमासादीनामापत्तौ सत्यां स्थानान्तरवृद्धिः कार्या-निर्विकृतिकं मुक्त्वा पुरिमा दीनि दशमान्तानि तपांसि देयानीत्यर्थः । तथा आकुट्टिकायाम्-आकुट्टिकाप्रतिसेवनायां पुनः स्थानान्तरं वा दद्यात् । दर्पप्रतिसेवाकारिणः सकाशात् स्थायवृद्धयाऽधिकं तपःस्थानं वितरेत् । दर्पाऽऽसेविनो हि भिन्नमासाद्यापत्तौ पुरिमार्द्धादीनि दशमान्तानि दीयन्ते । अस्य त्वेकाशनादीनि द्वादशमान्तानि देयानि, वाशब्दात् स्वस्थानमेव वा दद्यात् । इहापत्तिरूपं प्रायश्चित्तं स्वस्थानमुच्यते । यथाऽऽकुट्टिकायां पञ्चेन्द्रियवधे मूलम् । अन्यत्रापि चाकुट्टिकायां यत्रापराधनाते यद्भिन्नमासादिकमुक्तं तत्तत्र स्वस्थानम् । तदेवाकुट्टिकाप्रतिसेविनो दद्यादित्यर्थः । तथा कल्पे-कल्पप्रतिसेवनायां प्रतिसेवितायां प्रतिक्रमणं-मिथ्यादुष्कृतं प्रायश्चित्तम् । वा-अथवा उभयम्-आलोचना-मिथ्यादुष्कृतोभयरूपं प्रायश्चित्तं द्वयं दद्यादिति गाथार्थः ॥ ११८ ॥ अथ के ते कल्पचतुर्विशतिभेदा १ इत्याह दंसणनाणचरित्ते तवपवयणसमिइगुत्तिहेउ वा । साहम्मिअवच्छल्लत्तणेण (वावि ) कुलओ गणस्सेव ॥ ११९ ॥ 2010_05 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ श्राद्धजीतकल्पे संघस्सायरिअस्सा असहस्स गिलाणवालवुड्स्स । उदयग्गिचोरसावय-भयकंतारावइवसणे ॥ १२० ॥ व्याख्या-यद्यपि पूर्व ज्ञानादयश्चतुर्विशतिः कल्पस्य भेदा उक्ताः, तथाप्यत्र झानदर्शनयोः समानत्वख्यापनार्थ छन्दोनुरोधाच्च दर्शनोदय उच्यमाना न दोषाय । ततो ' दसण 'त्ति । ' व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्ति 'रितिन्यायाद्दर्शनं-दर्शनप्रभावकाणि प्रमाणशास्त्राणि गृह्णन्नसंस्तरे अकल्प्यमपि यतनया प्रतिसेवमानः शुद्धोऽप्रायश्चित्त इत्यर्थः । एवं सर्वत्र यथायोगं भावना कार्या १ । एवं ज्ञान-विशेषश्रुतज्ञानं तद् गृहनसंस्तरे अकल्प्यमपि यतनया प्रतिसेवमानः शुद्धः २। तथा चारित्र-तपः-प्रवचन-समितिगुप्तिहेतुषु पञ्चसु सम्यगाराध्यमानेष्वपि द्रव्यक्षेत्रादिवैषम्याद् बहुविराधनासम्भवमुत्पत्स्यमानं कश्चिदु. पद्रवं सम्भाव्य तत्परिहारार्थ यतनया कमप्युपायं कुर्वतः कापि स्वल्पा विराधना सम्भवेत् तथापि शुद्धः, प्रवचनार्थं विष्णुकुमारवत् ७ । तथा साधर्मिकवात्सल्येनापि-साधर्मिकवात्सल्यमाश्रित्य तत्समाधोनोय किञ्चिन्निषिद्धमपि यतनया कुर्वीत श्रीवत्रस्वामिवत् ८ । कुलगणकार्ययोः सङ्घकार्ये वा समुत्पन्नेषु वशीकरणोच्चाटनाभिचारादीनि राजादिकमुद्दिश्य प्रयुक्ते चूर्णयोगादीन् वा करोति ११ । आचार्या सहिष्णुग्लानबालवृद्धानां येन समाधिर्भवति तदपि तदुपकाराय यतनया करोति । तत्र राजयुवराजामात्यश्रेष्ठिपुरोहिता असहिष्णवः पुरुषा भण्यन्ते १६ । उदकाग्निचौरश्वापदादीनामागमनं दृष्ट्वा उदकपूर-प्रदीपन-तस्कर-व्याघ्रादीन् स्तम्भनविद्यया स्तभ्नीयात विद्याया अभावे पलायेत २० । भयंव्याघ्रादेः (धाट्यादेः) तस्मिन् सति पलायमानः पृथिव्यादीन् विराधयेत् २१ । कान्तारे चानपानाद्यप्राप्तौ निषिद्धमपि स्वल्पदोषमाहारादिकं सशङ्कः सन् यतनया गृहीयात् २२ । आपच्चतुर्द्धा-द्रन्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च । तत्र द्रव्यापत-प्रासुकानपानाचलाभः, क्षेत्रापत-दीर्घाध्वप्रतिपनत्वम्, कालापद्दुर्भिक्षादिः, भावापद्-ग्लानत्वादिः, तस्यां किञ्चित्प्रतिषिद्धमपि यतनया समाचरेत् २३ । व्यसनं-गीतताम्बूलोद्यभ्यासो, गीतव्यसनितया सामायिकपौषधस्थोऽपि गीतोच्चारं कुर्यात् ताम्बूलव्यसनितया वा निषिद्धताम्बूलोऽपि शुष्कपत्रादि मुखे प्रक्षिपेत् २४। एष चतुर्विशतिभेदः कल्प इति गाथार्थः ॥११९।१२०।। अथ पूर्वोक्तमेवार्थ दृढयन्नाह इअ दव्वाइ बहुगुणे गुरुसेवाए य बहुअरं दिजा । हीणयरे हीणयरं हीणयरं जाव झोसत्ति ॥ १२१ ॥ व्याख्या-इति-अमुना प्रकारेण द्रव्यादौ-द्रव्यक्षेत्रकालभावाख्ये प्रतिसेव्ये बहुगुणे-बहुगुणिते प्रचुरे दोषवत्त्वेन समर्थे वा विपरीतलक्षणया वा बहुदोषे गुरुसेवायां-गुरुतरायां प्रतिसेवायां कृतायां बहुतरं प्रायश्चित्तं दद्यात् । तथा हीनतरे-अल्पदोषे द्रव्यादिके प्रतिसेविते हीनतरमल्पतरं प्रायश्चित्तं दद्यात् । ततोऽपि हीनतरे यावत्सर्वहीने अत्यल्पदोषे द्रव्यादोवल्पीयस्यां सेवायां 'झोस 'त्ति क्षपणा-हासः कार्यः सर्वस्तोकं तपो देयमित्यर्थ इतिगाथार्थः ॥ १२१ ॥ इदं पूर्वव्यावर्णितस्वरूपं प्रायश्चित्तं परिणामानुरूपेणैव दद्यादित्याह ___ 2010_05 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ प्रायश्रितस्य मेदाः आलोअंते संकेससोहिओ नाउ दिज्ज तम्मत्तं । हीणं वा अहिरं वा छम्मास बहुअपावेवि ॥ १२२ ॥ व्याख्या-'आलोअंते' इत्यत्र षष्टयर्थे सप्तमी । ततश्चालोचयत-आलोचना गृहृतः पुरुषस्य सडक्लेशविशुद्धितः-सङ्क्लिष्टविशुद्धपरिणामाभ्यां ज्ञात्वा-खरूपमवगम्य दद्यात् । किमित्याह-तन्मात्रंजीतोक्तमानं प्रायश्चित्तं, हीनं वा-जीतोक्तादल्पं वा, अधिकं वा-जीतोक्ताद् बहुतरं वा । अयमर्थः-आलोचनाकालेऽप्येकमप्यपराधविशेषं यः सर्वथा न प्रकाशयति, कथयन्नप्यर्द्धकथितं वा करोति स सलिष्टपरिणाम इति कृत्वा तस्य जीतोक्तादधिकमपि दद्यात् । यः पुनः संवेगमुपगतो निन्दा-गर्दादिमिविशुद्धपरिणामः तस्य जीतोक्ताद्धीनमपि दद्यात् । यः पुनर्मध्यस्थपरिणामः तस्य जीतोकमात्रमेव दद्योदिति । तथा बहुकेऽपि-मूलानवस्थाप्ययोग्येऽपि पापे कृते श्रीमहावीरस्य तीर्थे षण्मासिकमेव प्रायश्चित्तं दीयते नाधिकमिति । एतच प्रायश्चित्तं श्रावकाणां श्राविकाणां च शक्त्यादिकं विचार्य दातव्यमित्यर्थः ।। १२२ ॥ अथोक्तप्रायश्चित्तस्य भेदानाह दाण-तव-कालपच्छित्तमिह तिहा गुरुलहुत्ति पुण दुविहं । गुरुमवि संतरदाणे लहू निरंतरि लहवि गुरू ॥ १२३ ॥ व्याख्या-दानतपःकालभेदात् प्रायश्चित्तमिह जोते त्रिधा । दानप्रायश्चित्तं तपःप्रायश्चित्तं कालप्रायश्चित्तं चेति । एकैकं गुरुकं लघुकं च भवतीति पुनरपि द्विविधम् । तत्र दानप्रायश्चित्तद्वैविध्यमाह-गुर्षपि प्रायश्चित्तं सान्तरदाने-अन्तरेण सह दीयमानं लघु भवति-दानमाश्रित्य लघुकमुच्यत इत्यर्थः। तथा निरन्तरे तु दाने लघ्वपि प्रायश्चित्तं गुरुकं भवति-दानमाश्रित्य दुष्करत्वाद् गुरुकमुच्यत इत्यर्थ इति गाथार्थः ॥ १२३ ॥ उक्तं दानप्रायश्चित्तद्वैविध्य, सम्प्रति तपःकालप्रायश्चित्तद्वैविध्यं विवरीषुराह छद्रुतं तव लहुमट्ठमाइ तव गुरु जमुज्झई गिम्हे । तं लहुमवि कालगुरू गुरूवि लहुअं सिसिरवासे ।। १२४ ॥ व्याख्या-भिन्नादिकं षष्ठान्तं-षष्ठं यावदीयमानं प्रायश्चित्तं तपो लघु भण्यते, अष्टमादिकं तदेव दीयमानं तपो गुरुर्भण्यते-षष्ठान्तं तपो दीयमानं तप आश्रित्य लघुकमष्टमान्तं तपो दीयमानं तप आश्रित्य गुरुकमुच्यते इत्यर्थः । तथा यद् ग्रीष्मे-निदाघकाले ऊह्यते तद् दानतपोभ्यां लध्वपि कालगुरु, कालस्य दारुणत्वात् कालमाश्रित्य गुरुकमुच्यते । तथा दानतपोभेदाभ्यां गुरुकमपि लघुकं भवति, यत् शिशिरे वर्षासु चोहते, कालस्य स्निग्धत्वादिति भाव इति गाथार्थः ॥ १२४ ॥ साम्प्रतं जीतव्यवहारयन्त्रकस्वरूपममिधित्सुरिमां द्वारभूतां गाथामाह ति-नव-सगवीस-इगसी पक्खे-आवत्ति-दाण-कालतिगे । नवतवसुअववहारे जंते दसरेह तिरिउड्ढे ॥ १२५ ॥ 2010_05 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे व्याख्या-अत्रैष नवविधतपोदानलक्षणः श्रुतव्यवहारनिभिर्नवमिः सप्तविंशतिभिरेकाशीतिभिश्च यथाक्रमं पक्षे आपत्तौ दाने कालत्रिके भवति । अयमर्थः-तत्र सझेपतः तावदयं त्रिभेदः पक्षत्रयभेदात्, आपत्तिभेदतः पुनर्नवभेदः, दानतपोभेदतस्तु सप्तावशतिभेदः, कालत्रिकविशेषेण पुनरेकाशीतिभेदश्च भवति । एतेषां सर्वेषामपि भेदानां स्वरूपं ग्रन्थकारः स्वयमेव पुरस्ताद् व्यक्तीकरिष्यति । एवंविधभेदभिन्नश्च नवविधतपोदानलक्षणः श्रुतव्यवहारो यन्त्रके स्थापितः सुखावसेयो भवतीत्यतो यन्त्रस्थापनामतिदिशति । यन्त्र स्थाप्यमाने तिर्यगूध्वं च दश दश रेखा भवन्तीति । एतत्स्थापना च सकलभेदप्रतिपादनानन्तरं दर्शयिष्यते इति गाथार्थः ॥ १२५ ।। तत्र पूर्व सामान्येन कालत्रयमाश्रित्य नवविधतपोदानश्रुतव्यवहारमेव दर्शयन्नाह उववास-छट्टअट्ठम जहन्न छठट्ठमा दसममज्झा । अट्ठमदसमदुवालस जिट्ठ तिकाले तवो नवहा ॥ १२६ ॥ व्याख्या-अत्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् । ततत्रिकाले-ग्रीष्मशिशिरवर्षालक्षणे कालत्रये उपवासादिभिर्जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन नवधा-नवभेदं तपो भवति । तथाहि-ग्रीष्मशिशिरवर्षासु यथाक्रम चतुर्थषष्ठाष्टमानि जघन्यानि । षष्ठाष्टमदशमानि मध्यमानि । अष्टमदशमद्वादशान्युत्कृष्टानि दीयन्ते । उक्तं च'गिम्हासु चउत्थं दिज्जा छटुगं च हिमागमे । वासासु अट्ठमं दिज्जा तवो एस जहन्नगो ॥१॥ गिम्हासु छटुगं दिजा अट्टमं च हिमागमे । वासासु दसमं दिजा एस मज्झिमगो तवो ॥२॥ गिम्हासु अट्ठमं दिजा दसमं च हिमागमे । वासासु दुवालसमं एस उक्कोसओ तवो ॥३॥ एष नवविधतपोदानलक्षणः श्रुतव्यवहारोपदेश उच्यते इतिशेष इति गाथार्थः ॥ १२६ ।। अथवा नवविधश्रुतव्यवहारोपदेशोऽयम् । तथैवाह निविय-पुरिमासणंबिल-इगदुतिचउपंचखवण नवह तवो । सुयववहारुवएसा आहेण विभागओ चेव ॥ १२७ ॥ __ व्याल्या-निर्विकृतिकं १, पुरिमार्द्धः २, एकाशनं ३, आचामाम्लं १, एकक्षपणं चतुर्थ२, द्वे क्षपणे षष्ठ ३, त्रीणि क्षपणानि अष्टमं १, चत्वारि क्षपणानि दशमं २, पश्च क्षपणानि द्वादशं ३, श्रुतव्यवहारोपदेशात्-श्रुतव्यवहारमाश्रित्य एवं प्रकारान्तरेण नवधा तपो भवति । अत्रापि विभक्तिलोपः प्रागवत् । इदं च तपो द्विधा । ओघेन-सामान्येन, विभागतो-विशेषेण । चैवशब्दो समुच्चये इति गाथार्थः।। तत्रौघतः प्रागुक्तमेव । विभागतः पुनस्तपःस्वरूपप्रतिपादनार्थं यथोद्देशं निर्देश ' इति न्यायात् 'ति-नवे 'त्यादिपूर्वगाथोपन्यस्तेषु पक्षत्रयादिषु पूर्व पक्षत्रयं स्पष्टयनाह गुरु लहु लहुस तिपक्खा पिहो तिहाऽतिगुरु गुरुतरो गुरुओ । लहुतम लहुतर लहुओ लहुसतमो लहुसतर लहुसो ॥ १२८ ॥ 2010_05 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवविधतपोव्यवहारः व्याख्या- एष नवविधतपोव्यवहारः सङ्खपतनिधा-उत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्च । तत्र गुरुतम-गुरुतर-गुरु-रूपभेदत्रयात्मको गुरुपक्ष उत्कृष्टः, लघुतम-लघुतर-लघु-रूपभेदत्रयात्मको लघुपक्षो मध्यमः, लघुस्वतम-लघुस्वतर-लघुस्वाख्यत्रिभेदो लघुस्वपक्षो जघन्य इति । यदाह 'नवविहववहारे सो संखेवेणं तिहा मुणेयव्वो। उक्कोसो मज्झिमगो जहन्नगो चेव तिविहो सो ॥१॥ उक्कोसे गुरुपक्खो लहुपक्खो मज्झिमो मुणेयव्यो । लहुसपक्खो जहन्नो तिविगप्पो एस नायव्वो' ॥२॥ व्याख्या-इदानी प्रकृतगाथाक्षरार्थः-गुरुः१ लघुः२ लघुस्वः३ लघुस्वशब्दश्चतुर्लघुकार्थः । स्वशब्दस्याल्पार्थकप्रत्ययार्थत्वादित्येते त्रयः पक्षाः पृथक-प्रत्येकं त्रिधा भवन्ति । त्रैविध्यं चैतेषां दर्शितमेवेति गाथार्थः ।। अथ नवविधापत्तितपोव्यवहारं दर्शयति गुरुलहु छप्पणमासा चउतिगमासा दुमासगुरुमासो । लहुमास भिन्न वीसं पनरस दस पण तिपक्खकमा ॥ १२९ ॥ उक्कोसमझहीण आवत्ति नव तिदाणकालतिगे । उक्कोसुक्कोसुक्कोसमज्झ उक्कोसगजहन्ना ॥ १३० ॥ मझुक्कोसा मज्झिममज्झिमगा तह य मज्झिमजहन्ना । जह उक्कोस जहनगमज्झा य जहनगजहन्ना ॥ १३१ ॥ ठयाख्या-तिपक्खत्ति । प्राकृतत्वात् सप्तमीसुपो लोपात्तेषु त्रिषु पक्षेषु गुरुलघुलघुखलक्षणेषु एता आपत्तय उत्कृष्टमध्यमजघन्यरूपाः क्रमादवगन्तव्याः । तथाहि-गुरुपक्षे गुरुलघु पाण्मासिकरूपा उत्कृष्टापत्तिः। अयमर्थः-गुरुपक्षे उत्कृष्टापत्तौ गुरुभावेन षण्मासा लघुभावेन पञ्च मासाश्च भवन्तोति । एवमग्रेतनापत्तिद्वयेऽपि भावनो कार्या । तथा गुरुपक्ष एव चतुर्मासिकत्रिमासिकरूपा मध्यमापत्तिः, द्विमासिकगुरुमासरूपा जघन्यापत्तिः । तथा उत्कृष्टापत्तौ लघुपक्षे लघुमासः सार्द्धसप्तविंशतिदिनरूपः उत्कृष्टापत्तिः । मिन्नमासः पञ्चविंशतिदिनानि मध्यमापत्तिः । विंशतिदिनानि जघन्यापत्तिः । तथा उत्कृष्टापत्तावेव लघुस्वपक्षे पञ्चदश दिनान्युत्कृष्टापतिः। दश दिनानि मध्यमापत्तिः । पञ्च दिनानि जघन्यापत्तिरित्येवं नवविधापत्तितपोरूपः श्रुतव्यवहारो दर्शितः । भणितं च'गुरुपक्खे उक्कोसो मज्झजहन्नो य एव लहुवि । एमेव य लहुसे वी इय एसो नवविहो होई ।।१।। गुरुपक्खे छम्मासो पणमासो चेव होइ उक्कोसो । मज्झो चउतिमासो दुमासगुरुमासग जहन्नो ॥२॥ लहु-भिन्नमास-वीसा लहुपक्खोक्कोसमज्झिमजहन्ना । पनरसदसगं पणगं लहुसुकोसाइ तिविहो सो ॥३॥ आवत्तितवो एसो नवभेओ वण्णिओ समासेण । अहुणा उ सत्तवीसो दाणतवो तस्सिमो होइ ।।४।। तथा — तिदाण 'त्ति । तस्यापत्तितपसो नवविधस्य दानतपत्रिविधमुत्कृष्टमध्यमजघन्यलक्षणं सप्तविंशतिभेदं भवति । एकैकस्यामापत्तौ त्रीणि त्रीणि दानतपःस्थानानि भवन्तीति । तानि दानस्थानानि नवापत्तिमिर्गुणितानि सप्तविंशतिर्मवन्तीति भावः । 'कालतिग'ति । तानि पुनः प्रत्येकं कालत्रिके वर्षा शिशिरग्रीष्मलक्षणे भवन्ति । अत्रायमर्थः-सप्तविंशतिर्दानस्थानानि वर्षासु, सप्तविंशतिः शिशिरे, ___ 2010_05 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे सप्तविंशतिर्णीष्मे च भवन्तीति सप्तविंशतिखिभिर्गुणिता एकाशीतिर्भदा भवन्तीति । तेर्षा च सप्तविंशतेनितपःस्थानानां नामान्याह-तत्र गुरुपक्ष एकोऽपि नवधा । तद्यथा-उत्कृष्टोत्कृष्टः उत्कृष्टमध्यमः उत्कृष्टजघन्यः, मध्यमोत्कृष्टः मध्यममध्यमः मध्यमजघन्यः, जघन्योत्कृष्टः जघन्यमध्यमः जघन्यजघन्यश्चेति । एवं लघुपक्षोऽपि नवधा, लघुस्वपक्षोऽपि चैवमेव नवधा सर्वमीलने सप्तविंशतिर्भेदा भवन्ति । भणितं च 'गुरु-लह-लहसगपक्खे इक्तिको नवविहो मुणेयव्यो । उकोसुकोसो वा उक्कोसो मज्झिमजहनो ॥१॥ मझुकोसो मज्झिममज्झो तह होइ मज्झिमजहन्नो । इअ नेओ जहन्नो वि अ उक्कोसो मज्झिमजहन्नो। गुरुपक्खे नव एए नव चेव य हुंति लहुयपक्वेवि । नव चेव लहुसपक्खे सत्तावीसं भवंतेए' ॥३॥ इति गाथात्रयार्थः ॥ १२९-३०-३१ ।। अर्थतेषु गुरु-लघु-लघुस्खलक्षणेषु त्रिषु पक्षेषु सप्तविंशतिविधं दानतपो व्यक्तीकरोति तहिं वारस दसमट्टम जिट्टे मज्झि दसमटूमा छठें । अट्ठमछठचउत्थं जहन्नतिगि दाण गुरुपक्खे ॥ १३२ ॥ व्याख्या-तत्र पक्षत्रये क्रमेण तपः प्रतिपाद्यते, यथा-इह गुरुपक्षे पाण्मासिकपञ्चमासिकाख्योत्कृष्टापत्तौ सत्यामुत्कृष्टोत्कृष्टं द्वादशं तपः , उत्कृष्टमध्यमं दशमम्, उत्कृष्टजघन्यमष्टमम् । चातुर्मासिक. त्रिमासिकाख्यमध्यमापत्तौ मध्यमोत्कृष्टं दशमं, मध्यममध्यममष्टमं, मध्यमजघन्यं षष्ठम् । द्विमासिकगुरुमासाख्यजघन्यापत्तो जघन्योत्कृष्टमष्टमं, जघन्यमध्यमं षष्ठं, जघन्यजघन्यं चतुर्थम् । एवं गुरुपक्षे नवधा दानतपः प्रोक्तमिति गाथार्थः ॥ १३२ ॥ अथ लघुपक्षे नवधा दानतपः प्रतिपादयति इह दसमठमछट्ठा अट्ठमछट्ठा चउत्थया कमसो । छठचउत्थायाम लहुपकखे दाण वासासु ॥ १३३ ॥ व्याख्या-लघुपक्षे लघुमासाख्योत्कृष्टापत्तावुत्कृष्टोत्कृष्टं दशमम् , उत्कृष्टमध्यममष्टमम् , उत्कृष्टजघन्यं षष्ठम् । मिन्नमासाख्यमध्यमापत्तौ मध्यमोत्कृष्टमष्टमं, मध्यममध्यमं षष्ठं, मध्यमजघन्यं चतुर्यम् । विशत्याख्यजघन्यापत्तौ जघन्योत्कृष्टं षष्ठं, जघन्यमध्यमं चतुर्थ, जघन्यजघन्यमाचामाम्लम् । इत्यमुना प्रकारेण लघुपक्षे क्रमेण दानतपो नवविधमुक्तम् । एतच दानतपो वर्षास्ववगन्तव्यम् । पूर्वगाथोक्तमपि अग्रेतनगाथोक्तमपि चेति गाथार्थः ॥ १३३ ।। अथ लघुस्खपक्षे दानतपो नवविधं प्रतिपादयति अटूठमछठचउत्थं छटठचउत्थंविलं लहुसपकखे । तह खवणंविल आसण इअ अदफंति सगवीसा ॥१३४ ॥ व्याख्या- लघुस्वपक्षे पञ्चदशास्योत्कृष्टापत्तावुत्कृष्टोत्कृष्टमष्टमम् , उत्कृष्टमध्यमं षष्टम् , उत्कृष्टजपन्यं चतुर्थम् । दशकाख्यमध्यमापत्तौ मध्यमोत्कृष्टं षष्ठं, मध्यममध्यमं चतुर्थ, मध्यमजवन्यमाचामाम्लम् । 2010_05 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तस्य भेदाः पञ्चकाख्यजघन्यापत्तौ जघन्योत्कृष्टं चतुर्थ, जघन्यमध्यममाचामाम्लं, जघन्यजघन्यमेकाशनकम् । इत्येवम॰पक्रान्त्या वर्षासु सप्तविंशतिधा दानतपः । यदाह-बारसमदसममद्रम-छप्पणमासेसु तिविहदाणेणं । चउतेमासे दसमदमछ? उक्कोसगाइ तिहा ॥१॥ एमेवुक्कोसाई दुमासगुरुमासिए तिविह दाणं । अट्ठमछट्टचउत्थं नवविहमेयं तु गुरुपक्खे ॥२॥ दसमं अट्ठमछठें लहुमासुक्कोसगाइ तिह दाणं । अट्ठमछठचउत्थं उक्कोसाई अ तिह मिन्नं ॥३॥ छट्ठचउत्थायामं उक्कोसाईण दाण वीसाए । लहुपक्खंमि नवविहो एसो बीओ भवे नवगो ॥४॥ अट्ठमछट्ठचउत्थं एसुक्कोसाइ दाण पन्नरसे । छठ्ठचउत्थायामं दससू तिविहे य दाण भवे ॥५॥ खवणायामेगासण तिविहुक्कोसाइ दाण पणगंमि । लहुसे स तइअ नवगो सत्तावीसे सवासासु।।६।। इति । अथ केयम पक्रान्ति म । अर्द्धस्याऽसमप्रावभागरूपस्य एकदशस्य एकपदात्मकस्यापक्रमणंनिवर्त्तनं शेषस्य तु द्वयादिपदसङ्घातात्मकस्य एकदेशस्यानुवर्त्तनं यस्यां रचनायां सा समयपरिभाषयाऽर्द्धापक्रान्तिरुच्यते । यथा वर्षासु गुरुतमे उत्कृष्टतो द्वादशमं, मध्यमतो दशमं, जघन्यतोऽष्टमम् । एषां मध्यादेकदेशो द्वादशमलक्षणोऽपक्रामति, दशमाष्टमे गुरुतरं गच्छतः अग्रेतनं च षष्ठं मील्यते । ततश्च गुरुतरे उत्कृष्टतो दशमं, मध्यमतोऽष्टमं, जघन्यतः षष्ठम् । पुनरेषां मध्यादेकदेशो दशमलक्षणो निवर्तते, अष्टमषष्ठे गुरुकं गच्छतः अग्रेतनं च चतुर्थं मील्यते । ततश्च गुरुके उत्कृष्टतोऽष्टमं, मध्यमतः षष्ठ, अघन्यतश्चतुर्थमिति । यथा चेयमेकाशीतिके दानतपोयन्त्रके वर्षाधनवकेऽर्धापक्रान्तिर्दर्शिता । तथैव सर्वेष्वपि नवकेषु विलोकनीया । यदाह-सिसिरे दसमाईणं चारणभेएण सत्तवीसेणं । ठायइ पुरिमड्ढंमी अड्ढक्कंतीइ तह चेव ॥१॥ अट्ठमगाई गिम्हे चारणभेएण सत्तवीसेण । तह चेव अड्ढकंती ठायइ नीब्विइए नवरं ॥२॥ इत्युक्ता वर्षासूत्कृष्टाद्यापत्तिनवके सति दानतपसो द्वादशममादौ कृत्वा एकाशनान्ताधारणिकया सप्तविंशतिर्भदा इति गाथार्थः ॥ १३४ ॥ सम्प्रति शिशिरे प्रीष्मे च तानेव दानतपसः सप्तविंशतिभेदानतिदिशन्नाह दसमाई पुरिमंता सिसिरे २७ गिम्हिट्ठमाइ निविअंता २७ । असहि इक्किक्क हासो जा पंतिसु अंति इकिकं ॥१३५ ॥ व्याख्या-'इअ अड्ढकंति सगवीसा' इति पदमत्राऽप्यनुवर्तते । ततोऽयमर्थः-इत्येवं पूर्वोक्तप्रकारेणापक्रान्त्या यथा वर्षासूत्कृष्टाद्यापत्तिनवके सति दानतपसो (द्वा) दशममादौ कृत्वा एकाशनान्ताः सप्तविंशतिभेदाश्चारणिकया कथिताः तथा शिशिरेऽपि दशमादयः पुरिमान्ता कार्याः-दशममादौ कृत्वा पुरिमार्द्धान्ता इत्यर्थः । तथा ग्रीष्मेऽष्टमादयो निर्विकृतिकान्ताः सप्तविंशतिभेदाः कार्याः । यन्त्रकस्थोपनातश्च ज्ञेया इति । वर्षाशिशिरग्रीष्माणां च सप्तविंशतित्रयमीलने एकाशीतिर्दानतपसो भेदा भवन्ति । अर्द्धापक्रान्तिश्चेयम्-' अर्द्धस्यासम' इत्यादि प्राग्वत् । अत्र सूत्रानुपात्तान्यपि सौकर्यार्थ 2010_05 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे शिशिरग्रीष्मयोः सप्तविंशतिः सप्तविंशतिः दानतपांसि नामतो लिख्यन्ते । यथा-गुरुपक्षे षण्मासपञ्चमासाख्योत्कृष्टापत्तावुत्कृष्टोत्कृष्टं दशमं, उत्कृष्टमध्यममष्टमम् , उत्कृष्टजघन्यं षष्ठम् । चतुर्मासिकत्रिमासिकाख्यमध्यमापत्तौ मध्यमोत्कृष्टमष्टमं, मध्यममध्यमं षष्ठं, मध्यमजघन्यं चतुर्थम् । द्विमासिकगुरुमासाख्यजघन्यापत्तौ जघन्योत्कृष्टं षष्ठं, जघन्यमध्यमं चतुर्थ, जघन्यजघन्यमाचामाम्लमिति 'शिशिराद्यनवकतपांसि ' इति । लघुपक्षे लघुमासाख्योत्कृष्टापत्तौ उत्कृष्टोत्कृष्टमष्टमम् , उत्कृष्टमध्यमं षष्ठं, उत्कृष्टजघन्यं चतुर्थम् | भिन्नमासाख्यमध्यमापत्तौ मध्यमोत्कृष्टं षष्ठं, मध्यममध्यमं चतुर्थ, मध्यमजघन्यमाचामाम्लम् । विंशत्याख्यजघन्यापत्तो जघन्योत्कृष्टं चतुर्थ, जघन्यमध्यममाचामाम्लं, जघन्यजघन्यमेकाशनकम् इति । शिशिरद्वितीयनवकतपांसि' इति । लघुस्वपक्षे पञ्चदशाख्योत्कृष्टापत्तावुत्कृष्टोत्कृष्टं षष्ठम् , उत्कृष्टमध्यमं चतुर्थ, उत्कृष्टजघन्यमाचामाम्लम् । दशाख्यमध्यमापत्तौ मध्यमोत्कृष्टं चतुर्थ, मध्यममध्यममाचामाम्लं, मध्यमजघन्यमेकाशनकम् । पश्चाख्यजघन्यापत्तौ जघन्योत्कृष्टमाचामाम्लं, जघन्यमध्यममेकाशनकं, जघन्यजघन्य पुरिमार्द्धः । इति 'शिशिरलघुस्वपक्षरूप-तृतीयनवकदानतपांसि' इत्येवं शिशिरे सप्तविंशतिदानतपांसि लिखितानि ।। ___ अथ प्रीष्मसम्बन्धीनि लिख्यन्ते यथा-गुरुपक्षे पाण्मासिकाख्योत्कृष्टापत्तावुत्कृष्टोत्कृष्टमष्टमम् , उत्कृष्टमध्यमं षष्ठम् , उत्कृष्टजघन्यं चतुर्थम् । चतुर्मासिकत्रिमासिकाख्यमध्यमापत्तौ मध्यमोत्कृष्टं षष्ठ, मध्यममध्यमं चतुर्थ, मध्यमजघन्यमाचामाम्लम् । द्विमासिकगुरुमासाख्यजघन्यापत्तौ जघन्योत्कृष्टं चतुर्थ, जघन्यमध्यममाचामाम्लं, जघन्यजघन्यमेकाशनकम् इति । 'ग्रीष्माद्यनवकदानतपांसि' इति । लघुपक्षे लघुमासाख्योत्कृष्टापत्तावुत्कृष्टोत्कृष्टं षष्ठम् , उत्कृष्टमध्यमं चतुर्थ, उत्कृष्टजघन्यमाचामाम्लम् । भिन्नमासाख्यमध्यमापत्तौ मध्यमोत्कृष्टं चतुर्थं, मध्यममध्यममाचामाम्लं, जघन्यमध्यममेकाशनकम् । विंशत्याख्यजघन्यापत्तो जघन्योत्कृष्टमाचामाम्लं, जघन्यमध्यममेकाशनकं, जघन्यजघन्यं पुरिमार्द्धः । इति 'ग्रीष्मद्वितीयनवकदानतपांसि' । लघुस्वपक्षे पञ्चदशाख्योत्कृष्टापत्तावुत्कृष्टोत्कृष्टं चतुर्थ, उत्कृष्टमध्यममाचामाम्लम् , उत्कृष्टजघन्यमेकाशनकम् । दशाख्यमध्यमापत्तौ मध्यमोत्कृष्टमाचामाम्लं, मध्यममध्यममेकाशनकं, मध्यमजघन्यं पुरिमार्द्धः । पञ्चाख्यजघन्यापत्तौ जघन्योत्कृष्टमेकाशनकं, जघन्यमध्यम पुरिमार्द्धः , जघन्यजघन्यं निर्विकृतिकम् इति । ' ग्रीष्मतृतीयनवकदानतपांसि ' इति ग्रीष्मसम्बन्धीनि सप्तविंशतिदानतपांसि लिखितानीत्यलं प्रसङ्गेन । साम्प्रतं गाथोत्तरार्द्ध व्याख्यायते-एवंविधापत्तिषु द्वादशमाद्यं तपः कर्तुमसहिष्णोरसमर्थस्य एकैकस्वतपसो हासः तावत्कोर्यो योवन्नवस्वपि पङ्क्तिषु पर्यन्ते कोष्ठकगतमेकैकं चतुर्थादिनिर्विकृतिकान्तं तपः स्थितम् । ततस्तस्य तद्दीयत इत्यर्थ इति गाथार्थः ॥१३५।। अथ तत्करणेऽप्यशक्तस्य पुनस्तथैव हासो भवतीति दर्शयति असहस्स तंपि हसइ सट्ठाणाउ दिज परठाणं । इअ हिट्ठमुहे हासे निव्विरं ठाइ सुद्धो वा ॥ १३६ ॥ व्याख्या-असहस्य-तत्करणासमर्थस्य तदपि पक्तिपर्यन्ते कोष्ठकगतमपि तपो हास्यते । ततश्चायमर्थः-पूर्व स्वस्थानतपो दीयते । वर्षासु-वर्षाकालोक्तं, शिशिरे शिशिरोक्तं, प्रीष्मे ग्रीष्मोक्तम् । 2010_05 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्विकृतिकादीनां सब्ज्ञानामानि तदपि कर्तुमक्षमस्य ततः स्वस्थानात्परस्थानं-परस्थानतपः। वर्षास्वपि शिशिरोक्तं, शिशिरेऽपि च ग्रीष्मोक्तं तपो दीयते । इत्येवमधोमुखे हासे स्थाने स्थाने वर्षाशिशिरग्रीष्मरूपे हासयद्भिः तावन्नेयं यावन् निर्विकृतिकमात्रमेव देयतया स्थितम् । शुद्धो वा यः पुनर्निर्विकृतिकमात्रमपि तपःकर्तुमशक्तः स मिथ्यादुष्कृतेनैव शुद्धचतीत्यर्थ इति गाथार्थः ।। १३६ ॥ ____ एष नवविधो व्यवहारः । अस्य च व्यवहारस्य व्यक्तीकरणाय यन्त्रकस्थापना। तत्र चोत्कृ. ष्टादीनि जघन्योन्तानि तपांसि स्थाप्यन्ते । यथासुखेन हासः कत्तुं शक्यत इति । सूत्रे तु यथा कथञ्चिदतानि विचित्रत्वात् सूत्ररचनाया इति । इति श्रुतव्यवहारयन्त्रकस्वरूपं तत्स्थापना चेयम सम्प्रति निर्विकृतिकादीनां क्षपणत्रयान्तानां सञ्ज्ञानामान्याह पण तव कल्लाण निवी-पुरिमासण-अंबिलेगदुतिखमणा । मिन्नं लहु गुरु चउलहु चउगुरु छल्लहु छगुरुंमासा ॥ १३७ ॥ व्याख्या-पञ्च तपांसि निर्विकृतिकपुरिमार्द्धंकाशनाचामाम्लोपवासरूपाणि समुदितानि पञ्चकल्याणमुच्यते । किञ्चिदूनोपवासद्वयेनैक कल्याणकमित्यर्थः । तद्विगुणवृद्धया द्विकल्याणकादीन्यप्यवसेयानि । तथा निर्विकृतिकपुरिमाकोशनाचामाम्लैकद्वित्रिक्षपणोनि क्रमेण मिन्नलघुमासादिसज्ञानि भवन्ति । अयमर्थः-निर्विकृतिकस्य भिन्नमासः १, पुरिमार्द्धस्य लघुमासः २, एकाशनकस्य गुरुमासः ३, आचामाम्लस्य चतुर्लघुमासः ४, एकक्षपणस्य चतुर्थस्य चतुर्गुरुमासः ५, क्षपणद्वयस्य षष्ठस्य षड्लघुमासः ६, क्षपणत्रयस्याष्टमस्य षड्गुरुमासः ७ इति सज्ञानामानि यथाक्रमं जीतपरिभाषयोच्यन्त इति गाथार्थः ॥ पुनस्तेषामेव क्रमेण सज्ञान्तराण्याहइगचउछ सुन्न लहुगुरु रित्तभरिय केवलीसरा अंका । चउछलहू एक फ गुरू सागरा मिनि पणगना ॥ १३८ ॥ व्याख्या- एकं चत्वारि षट् च शून्यानि स्थाप्यन्ते । तानि लघुगुरुभेदेन द्विधा भवन्तीति रिक्तानि भृतानि च क्रियन्ते । तत्र यानि रिक्तानि-मध्ये शून्यानि तानि क्रमेण लघुचतुर्लघुषड्लघून्यु. च्यन्ते । यानि पुनर्मध्ये भृतानि-पूरितानि क्रमेण गुरुचतुर्गुरुषड्गुरूण्युच्यन्ते । अथवा-केवला:-स्वरसंयोगरहिताः ईस्वराः-ईकोरः स्वरो येषु ते ईस्वराः-ईकारस्वरसहिता इत्यर्थः ५ अका-एकक-चतुष्कषटकरूपा भवन्ति । अयमर्थः-यदि ते एककचतुष्कषट्करूपा अङ्काः केवलाः १।४।६। तदा क्रमेण लघुचतुर्लघुषड्लघव उच्यन्ते । अथ ईस्वरयुक्ताः । ४ी। ही यदि भवन्ति तदा गुरुचतुर्गुरुषड्गुरव उच्यन्ते । तथा चतुर्लघुषड्लघू एक-फ्र शब्दाभ्यां क्रमेणोच्यते । तावेव गुरू साकारौ-आकारस्वरयुक्तावित्यर्थः । एका चतुर्गुरुः , फ्रा षड्गुरुरित्यर्थः । भिन्ने पुनः पञ्चको ५ नाशब्दश्च सज्ञान्तरद्वयं भवतीति शेषः । अयं च गाथाद्वयार्थो यन्त्रकस्थापनातः सम्यगवसीयते । तस्य स्थापना चेयम् इति गाथार्थः ॥१३८॥ 2010_05 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे यन्त्र १० ६।५ उत्कृष्टापत्ती ४१३ मध्यमापत्ती गुरुतमपक्षे उ० उ० गुरुतमपक्षे उ०म० गुरुतमपक्षे उज० गुरुतरपक्षे म०० गुरुतरपक्षे म०म० १२ २७३ उत्कृष्टापत्ती २५ मध्यमापत्तौ लघुपक्षे उ०३० लघुपक्षे उ०म० लघुपक्षे उज० लघुतरपक्षे म०उ० लघुतरपक्षे म०म० १५ उत्कृष्टापत्तौ १० मध्यमापत्तो लघुस्वपक्षे उ०३० लघुस्वपक्षे उ०म० लघुस्वपक्षे उज० लघुस्खतरपक्षे म०३० लघुस्खतरपक्षे म०म० ६५ उत्कृष्टापत्तौ ४।३ मध्यमापत्ती गुरुतमपक्षे उ०उ० गुरुतमपक्षे उ०म० गुरुतमपक्षे उ०० गुरुतरपक्षे म०उ० गुरुतरपक्षे म०म० २७. उत्कृष्टापत्तौ लघुपक्षे उ०उ० लघुपक्षे उ०म० लघुपक्षे २५ मध्यमापत्तौ उज० लघुतरपक्षे म०उ० लघुतरपक्षे म०म० १५ उत्कृष्टापत्तौ १० मध्यमापत्तौ लघुस्वपक्षे उ०उ० लघुस्वपक्षे उ०म० लघुस्वपक्षे उज० लघुस्वतरपक्षे म०उ० लघुस्वतरपक्षे म०म० ४ आं० आं० ६।५ उत्कृष्टापत्तो ४।३ मध्यमापत्तो गुरुतमपक्षे उ०३० गुरुतमपक्षे उ०म० गुरुतमपक्षे उ०ज० गुरुतरपक्षे म०० गुरुतरपक्षे म०म० २७३ उत्कृष्टापत्तौ २५ मध्यमापत्तौ लघुपक्षे उ०३० लघुपक्षे उ०म० लघुपक्षे उज० लघुतरपक्षे म०३० लघुतरपक्षे म०म० आं० आं० १५ उत्कृष्टापत्तौ १० मध्यमापत्तौ लघुस्वपक्षे उ०३० लघुस्वपक्षे उ०म० लघुस्वपक्षे उ०ज० लघुस्वपक्षे म०३० लघुस्वपक्षे म०म० आं० आं० ए० 2010_05 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापना गुरुतरपक्षे म०ज० लघुतरपक्षे म०ज० ४ गुरुतरपक्षे म०ज० ४ लघुतरपक्षे म०ज० आं० २।१ जघन्यापत्तौ गुरुपक्षे ज०उ० ८ २० जघन्यापत्तौ लघुतमपक्षे ज०० लघुतमपक्षे ज०म० ४ ५ जघन्यापत्तौ लघुखतरपक्षे म०ज० लघुस्वतमपक्षे ज० उ० लघुस्वतमपक्षे ज०म० लघुस्वतमपक्षे ज०ज० ગાં ४ आं० ए० २।१ जघन्यापत्तौ गुरुक्षे ज०म० गुरुक्षे गुरुक्षे 2010_05 ज०३० गुरुक्षे २।१ जघन्यापत्तौ गुरुतरपक्षे म०ज० गुरुपक्षे ज०३० आं० ४ २० जघन्यापत्तौ लघुतमपक्षे ज०उ० लघुतमपक्षे ज०म० ४ आं० गुरुक्षे ज०म० गुरुपक्षे ज०ज० ४ अ. ५ जघन्यापत्तौ लघुखतरपक्षे म०ज० लघुस्वतमपक्षे ज०3० लघुखतमपक्षे ज०म० लघुस्वतमपक्षे ज०ज० ए० rto ए० पु० ज०ज० ४ लघुतमपक्षे ज०ज० आं० २० जघन्यापत्तौ लघुतरपक्षे म०ज० लघुतमपक्षे ज० उ० लघुतमपक्षे ज०म० आं० ए० ए० ज०म० गुरुपक्षे आं० लघुतमपक्षे ज०ज० ए० For Private Personal Use Only ज०ज० ए० ५ जघन्यापत्तौ लघुस्वपक्षे म०ज० लघुस्वतमपक्षे ज०ड० लघुस्वतमपक्षे ज०म० लघुस्वतमपक्षे ज०ज० पु० ए० पु० नि० लघुतमपक्षे ज०ज० पु० ८५ वर्षासु तपोदान यन्त्रकम् शिशिरे तपोदान यन्त्रकम् ग्रीष्मकाले तपोदान यन्त्रकम् Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ 6 निवी पुरम एकाशन आचामाम्ल भिन्नमास लहुमास गुरुमसि ना श्राद्धजीतकल्पे चउत्थ छट्ठ अट्ठम चउलहुमास चउगुरुमास छलहुमास छग्गुरुमास ० ० ०० 2010_05 ४ ण्क ठी ण्का ० ० ० ० फ्र सम्प्रति कतिभिर्नमस्कारसहितादिभिः प्रत्याख्यानैरुपवासो भवतीति गाथाद्वयेनाह अडयाल नमुक्कारा पोरुसि चउवीस सोलपुरिसड्डा । इह च अवडूढ दुगभत अट्ठ सज्झायसहसदुगं ॥ १३९ ॥ इगभत चउ दुगंबिल ति निवि अ सुद्धछअंबिलं गं । उबवासो जीएणं केवलनिवि सोल पुरिमड्ढा ॥ १४० ॥ व्याख्या- - अष्टाचत्वारिंशन्नमस्कारा - नमस्कारसहितान्युपवासो भवति । अष्टाचत्वारिंशता नमस्कारसहितप्रत्याख्यानैरुपवासो भवतीति । प्रथमान्तान्यपि नमस्कारसहितादिपदानि सुखावबोधाय तृतीयान्तानि व्याख्येयानि । प्राकृतत्वाद्विभक्तिव्यत्ययो वा । तथाहि - चतुर्विंशत्या पौरुषीभिरुपवासः । एवं सर्वत्र योज्यम् । ततश्च षोडशभिः ' पुरिसड्ढ 'त्ति सार्द्धपौरुषीमिः । तथा इह ' जीतव्यवहारे चतुर्भिरपार्थैः । तथा-द्विभक्तैद्वर्यासनैरष्टभिः तथा स्वाध्यायसहस्रद्विकेन चोपवासो भवति । तथा चतुर्भिरेकभक्तैरेकासनैः तथा द्वाभ्यामाचामाम्लाभ्यां तथा त्रिभिर्निर्विकृति कैरेकासनविशेषैः । तथा " सुछ अंबिल ' शुद्धाछाचामाम्ले नोचामाम्लविशेषेणैकेन उपवासो भवतीति शेषः । जीतेनगीतार्थसमाचीर्णसामाचारीरूपेण ' केवल निवि सोल 'त्ति । तथा षोडशभिः केवलै निर्विकृति फैरेकासनाद्युच्चारमन्तरेणापि रूक्षाहार प्रत्याख्यानरूपैः । तथा पुरिमड्ढ 'ति । अष्टभिः पुरिमा रुपवासो भवतीत्युक्तमेवेति गाथाद्वयार्थः ।। १३९ - १४० ।। ? अथ शास्त्रार्थमुपसंहरन्नाह— इअ एस जीअकप्पो समासओ सुविहियाणुकंपाए । कहिओ ओ अ पुणो पत्ते सुपरिक्विअगुणंमि ॥ १४१ ॥ For Private Personal Use Only ६ी फ्रा STY व्याख्या - इति - पूर्वोक्तप्रकारेण प्रथमं गाथोचतुःपञ्चाशता शास्त्रप्रस्तावनामभिधाय 'तणुमज्युकोसा सायनाइ मुणिनाणदेवगुरुबिंबे ' इति गाथातः प्रारभ्य ' असहस्स तं पि हसइ 'त्ति गाथापर्य Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्तीकृत्यैकाशीत्या गाथाभिर्ज्ञानाद्यतिचारपचकगोचरस्य तपःप्रायश्चित्तस्य । तथा गाथाद्वयेन प्रायश्चित्तसञ्ज्ञायाः । तथा गाथाद्वयेनोपवासप्रमाणस्य च व्याख्यानेन एष सर्वसमुदायात्मको जीतकल्पः - श्रावकाणां जीतमाचरितं तस्य कल्पो वर्णना- प्ररूपणा समासतः - सङ्क्षेपतः सुविहितानुकम्पया - शोभनं विहितमनुष्ठानं येर्षा ते सुविहिताः तेषामनुकम्पया कथितः - प्ररूपितः । देयः पुनरयं पात्रे सुपरीक्षितगुणे-जात्यकाञ्चनवत्तोपच्छेदनिकषस हे संविग्नगीतार्थे न पुनरन्यस्मिन् । येन जीतकल्पदायक - ग्राहको द्वापि कर्मनिर्जरया शुद्धयतः - सिद्धयतश्चेति गाथार्थः ॥ १४१ ॥ पृष्ठम् पङ्क्तिः १ १४ २३ २४ २७ mm व्याख्या—श्रीदेवेन्द्रमुनीश्वराणां विनेयैः शिष्यैः श्रीधर्मघोषसूरिभिरितीदं श्राद्धजीतकल्पशास्त्रं स्वपरज्ञानार्थाय-स्वपरपरिज्ञानहेतवे सूत्ररूपतया ( रचितं ) प्रथितम् । इदं हि यद्यपि श्रुतानुसारादेवोक्तं न पुनर्निजमनीषि कल्पना विजृम्भितम् । तथापि गीतार्थाः- श्रीनिशीथादिछेदग्रन्थसूत्रार्थधराः शोधयन्तु - प्रमादादिजनितं दूषणं व्यपनयन्तु शुद्धिं जनयन्त्विति गाथार्थः || १४२ ।। इति श्रीजीतकल्पवृत्तिः समर्थिता ३ ३ mmy 20 ३ ४ ४ ४ ५ प्रत्यक्षरं गणनया श्लोकमानं विनिश्वितम् । षड्विंशतिशतीयुक्ता षट्चत्वारिंशता पुनः ॥ १ ॥ अङ्कतोऽपि श्लोक २६४६. ३० १ ८ सिरिदेविंदमुणीसरविणेअ - सिरिधम्मघोससूरीहिं । इअ सपरजाणणट्ठा रइअं सोहिंतु गीअत्था ॥ १४२ ॥ १४ २३ ११ अशुद्धम् भारस्वान्ताः जाह आसेविआ पवत्ता शायनः भाव सूत्र षष्ठा ग्रन्थकूदभ्यर्थना शल्यम् साधो 2010 05: जह आसेविओ पवत्तो शयिनः शुद्धम पृष्ठम् पङ्क्तिः भारसारस्वान्ताः ८ २५ ९ ३ भावं सूत्रे षष्ठी शुद्धिपत्रक १० १० १० ११ ११ शल्यमिव शल्यम् असाधारण व १५ ३ ११ २६ १२ १२ १४ 2 x 28 २७ २७ २० अशुद्धम् णोक्त श्लोकार्थ कमेण स एहि यद् उवज्झाओ तान् वा अत्तस्स त्यर्थः । ८७ शुद्धम् ण गाथोक्त येन क्रमेण सा एहि तद् उज्झओ तं तान् य अन्नस्स त्यर्थ इति षष्ठः । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राद्धजीतकल्पे चउलहु ता पृष्ठम् पङ्क्तिः अशुद्धम् । शुद्धम् । पृष्ठम् पङ्क्तिः १५ २७ नच अल्पं वा दास्यति न च ३१ २५ प्रमाद प्रमोद १६ १०।११।१२ दुःकर दुष्कर ३४ १३।२१ प्रतिपद्यत सम्पनीपद्यत | ३५ १२ १७ ११ आसायण आसायणा १८ २० शल्यमिव शल्य १८ २७ हा १९ ३० एव एवं २० २१ मुकान मुकानमुकान २२ १९ मेयगु मेयस्य गु आतुरत्यं आतुरत्वेन आतुरत्व रूपेति रुपैति . | ४३ २९ २६ ७ यस्तु यत्र निवृत्ती निवृत्तो २८ २६ स वा स च वा २९ ३ यदि यदि च ४६ १० काश्च ४६ १९ ___ २९ ८ यो कषाय दुष्ट कषायविषयदुष्ट | ४८ २ विषय विकथाविषय ३० २० पारंची य पारंचिय । ७९ १६ मुपशान्त मनुपशान्त * * * * अशुद्धम् शुद्धम् सयपि सयंपि अ तत्रलोक तखैलोक्य चउलहू दर्शना इह दर्शना यद्य या त्रिविधे त्रिविधेऽपि निष्पादिते निष्पाद्यते पोहुडि पाहुडि संस्तवनेन संसूचनेन पतिषिध्यन् प्रतिविषध्य यन् सज्जिअं सजिअं तस्य तस्य हि बीजादि बीजानि सजीव सजीवं उल्मूक उल्मुक साधुना साधूना भङ्गेषु भङ्गेषु विषमेषु वसते तत्र वसते जे सन्नहो! सन्नहो! मृष्टमहो! मासिक मासिकपश्चमासिक कांश्च ते ३ पृष्ठम् पङ्क्तिः ५ इतः भवतीति एषा पङ्क्तिः पठनीया योगः । ' अहवेस 'त्ति । अथवेति प्रकारान्तरेण एष वक्ष्यमाणरूपा प्रकारान्तरतो दशधा प्रतिसेवा भवतीति - शेष भवति · संयमऽथिरत्ते 'त्ति पाठे तु संयमे संयमवतां साध्वादीनां धर्मानुष्ठानास्थिरीकरणे च देशतश्चतुर्लघु ४ भवतीति ३९ १ प्रायश्चित्तं 2010_05 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयड तीर्थोद्धारक, वैराग्यवारिधि प. पू. आचार्य श्री कुलचंद्रसूरीश्वरजी म. सा. नी साहित्य यात्रा 1 श्री कल्पसूत्र - अक्षरगमनिका (प्रताकार) * 2 श्री श्राद्धविधि प्रकरण - संस्कृत (प्रताकार) 3 श्री आचाराङ्ग सूत्र - अक्षरगमनिका (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 4 श्री आचाराङ्ग सूत्र - अक्षरगमनिका (द्वितीय श्रुतस्कन्ध) . 5 श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्र - अक्षरगमनिका (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 6 श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्र - अक्षरगमनिका (द्वितीय श्रुतस्कन्ध) 7 श्री श्राद्ध-जीत कल्प 8 नव्य यति जीत कल्प 9 श्री महानिशीथ सुत्र 10 श्री पञ्चकल्प भाष्य चूर्णी * 11 न्यायावतार - सटीक * 12 मुहपत्ति चर्चा - (हिन्दी - गुजराती) * 13 श्री विंशतिविंशिका प्रकरण - (हिन्दी - गुजराती) * 14 श्री विंशतिविंशिका प्रकरण - (सटीक) * 15 श्री मार्गपरिशुद्धि प्रकरण - (सटीक) 16 सुलभ धातु रूप कोश 17 संस्कृत शब्द रूपावली * 18 संस्कृत अद्यतनादि रूपावली 19 सुबोध संस्कृत मार्गोपदेशिका (संस्कृत बुक - 1) 20 सुबोध संस्कृत मन्दिरान्त : प्रवेशिका (संस्कृत बुक - 2) * 21 कर्म नचावत तिमहि नाचत - (गुजराती) * 22 सुखी जीवननी मास्टर की - (गुजराती) * 23 जीव थी शिव तरफ - (गुजराती) * 24 तत्वनी वेबसाईट - (गुजराती) * 25 भकित करतां छूटे मारा प्रण - (गुजराती) * 26 कोन बनेगा गुरुगुणज्ञानी - (गुजराती) 27 सुबोध प्राकृत विज्ञान पाठमाला (प्राकृत बुक) - * 28 जैन इतिहास (हिन्दी) 29 जैन श्रावकाचार - (हिन्दी और गुजराती) 30 जीवविचार एवं तत्वज्ञान - (हिन्दी) 31 ओघो छे अणमूलो..... (दीक्षा गीत संग्रह) 32 सुबोध संस्कृत धातु रूपावली भाग - 1 (पोकेट साईज) 33 सुबोध संस्कृत धातु रूपावली भाग - 2 (पोकेट साईज) 34 सुबोध संस्कृत धातु रूपावली भाग - 3 (पोकेट साईज) 35 सुबोध संस्कृत धातु रूपावली भाग - 4 (पोकेट साईज) 36 श्राद्धविधि प्रकरण (हिन्दी) * निशानी वाली पुस्तकें अप्राप्य है -प्राप्ति-स्थानदिव्य दर्शन ट्रस्ट, 39, कलिकुंड सोसायटी, मफलीपुर, चार रास्ता, on International 2016धोलका - 387810. जि. अहमदाबाद, फोन नं. : (02714) 225482 www.lainelibraryan/