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@ONLONO SHIOIDIOHIGEIGHIOINDONOOMINGNOSINONSHONNOISIENDGIRGAORATRO भाद्रपद वीर नि० सं० २४६६ ।
वर्ष ३, किरण ११ सितम्बर १९४०
वार्षिक मूल्य ३ रु. PHOENONORONOROHOROINOSTIOHINOSTROOTSNONOMOTIONOONIROMCHOTHOOKIOKI
अनेकान्त
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लोक
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विद्यासम्य
मिथ्यात
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©©©©DIO1OOGLOADTOFO90010090DLOOG सम्पादक
संचालकजुगलकिशोर मुख्तार
तनसुखराय जैन अधिष्ठाता वीर-सेवामन्दिर सरसावा (सहारनपुर), कनॉट सकस पो० बो० नं०४८ न्यू देहली। NOHINDINOPHTOXIOMIDNIGELSIOSHIDARBT ORIGORRORORGROINOORIMONOROHORIDEO
मुद्रक आर प्रकाशक- अयोध्याप्रसाद गोयलीय
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विषय-सूची
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१. वीरसेन स्मरण २. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य और अकलंक- [प्रो. जगदीशचन्द्र ... ३. गो. कर्मकाण्डकी त्रुटिपूर्ति लेखपर विद्वानोंके विचार और विशेष सूचना-[सम्पादकीय . ४. सिद्धसेनके सामने सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक-[पं० परमानन्द
५. गोम्मटसार कर्मकाण्डकी त्रुटि पूर्ति पर विचार-[प्रो० हीरालाल ६. जैन-दर्शनमें मुक्ति-साधना-[श्रीगरचन्द नाहटा : ... ७. श्राग्रह (कविता)-[ब० प्रेससागर ८. नृपतुंगका मत विचार-[श्री एम. गोविन्द पै १. शिक्षा (कविता)-[ब० प्रेमसागर १०. चैनधर्म-परिचय गीता जैसा हो-[श्री दौलतराम "मित्र" ... ११. आशा (कविता)-[श्रीरघुवीरशरण . १२. विद्यानन्द-कृत सत्यशासन परीक्षा-[श्री पं० महेन्द्रकुमार ... १३. प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा-[सम्पादकीय १४. पण्डित-प्रवर आशाधर-[श्री पं० नाथूराम प्रेमी
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निवेदन "अनेकान्त" की १२ वी किरण प्रकाशित होने पर कृपालु प्राहकोंका भेजा हुआ शुल्क पूरा हो जायगा । क्योंकि अनेकान्तके प्रत्येक ग्राहक प्रथम किरणसे ही बनाये जाते हैं। अतः १२ वी किरण प्रकाशित होनेके बाद "अनेकान्त" का दिल्लीसे प्रकाशन बन्द कर दिया जायेगा। अनेकान्तके घाटेका . भार ला० तनसुखरायजीने एक वर्षके लिये ही लिया था, किन्तु उन्होंने दूसरे वर्ष भी इसे निभाया। अब अन्य दानी महानुभावोंको इसके संचालनका भार लेना चाहिये।
१० वी किरणमें रा० ब० सेठ हीरालालजीका चित्र देखकर कितनी ही संस्थाओंने उनकी ओरसे भेट स्वरूप अनेकान्त भेजने के लिये लिखा है। किन्तु हमें खेद है कि हम उनके आदेशका पालन न कर सके । क्योंकि सेठजीकी ओरसे अनेकान्त जैनेतर संस्थाओं और जैन मन्दिरोंमें चित्र प्रकाशित होनेसे पूर्व ही भेटस्वरूप जाने लगा था।
-व्यवस्थापक
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ॐ अहम्
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नीति-विरोध-ध्वंसी लोक-व्यवहार-वर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
वर्ष ३
सम्पादन-स्थान-वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि०महारनपुर
प्रकाशन-स्थान-कनॉट सर्कस, पो० बो० नं०४८, न्यू देहली भाद्रपद-पूर्णिमा, वीरनिर्वाण सं०२४६६, विक्रम सं०१६६७
किरण ११
पारसन-स्मरणा शब्दब्रह्मेति शाब्दैर्गणधरमुनिरित्येव राद्धान्तविद्भिः, साक्षात्सर्वज्ञ एवेत्यवहितमतिभिः सूक्ष्मवस्तुप्रणीतः ( प्रवीणैः ? ) । यो दृष्टो विश्वविद्यानिधिरिति जगति प्राप्तभट्टारखाख्यः, स श्रीमान वीरसेनो जयति परमतध्वान्तभित्तंत्रकारः॥
-धवला-प्रशस्ति । जिन्हें शाब्दिकों (वैय्याकरणों ) ने 'शब्दब्रह्मा' के रूपमें, सिद्धान्तशास्त्रियोंने 'गणधरमुनि' के रूपमें, सावधानमतियोंने 'साक्षात्सर्वज्ञ' के रूपमें और सूक्ष्मवस्तु-विज्ञोंने 'विश्वविद्यानिधि' के रूपमें देखा-अनुभव . किया और जो जगतमें 'भट्टारक' नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुए,वे परमताऽन्धकारको भेदने वाले शास्त्रकार-धवलादिके रचयिता-श्रीमान् वोरसेनाचार्य जयवन्त हैं-विद्वहृदयों में सब प्रकारसे अपना सिक्का जमाए हुए हैं। '
प्रसिद्ध-सिद्धान्त-गभस्तिमाली, समस्तवैय्याकरणाधिराजः । गुणाकरस्ताकिक-चक्रवर्ती, प्रवादिसिहो वरवीरसेनः ।।
-धवला, सहारनपुर-प्रति, पत्र ७१८ श्री वीरसेनाचार्य प्रसिद्ध सिद्धान्तों-षड्खण्डागमादिकों को प्रकाशित करने वाले सूर्य थे, समस्त
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[ भाद्रपद, वीर निर्वाण सं० २४६६
वैय्याकरण के अधिपति थे, गुणों की खानि थे, तार्किकचक्रवर्ती थे, और प्रवादिरूपी गजों के लिये सिंहसमान थे । श्रीवीरनेन इत्यात्त भट्टारक पृथुप्रयः । स नः पुनातु पूतात्मा वादिवृन्दारको मुनिः ॥ लोकवित्वं कवित्वं च स्थितं भट्टारके द्वयं । वाग्मिता वाग्मिनो यस्य वाचा वाचस्पतेरपि ॥ सिद्धान्तोपनिबन्धानां विधातुर्मद्गुरोश्चिरम् । मन्मनः सरसि स्थेयान्मृदुपादकुशेशयम् ॥ धवलां भारतीं तस्य कीर्ति च शुचि-निर्मलाम् । धवलीकृतनिःशेषभुवनां तां नमाम्यहम् ॥ - श्रादिपुराणे, श्रीजिनसेनाचार्यः जो भट्टारककी बहुत बड़ी ख्यातिको प्राप्त थे वे वादिशिरोमणि और पवित्रात्मा श्रीवीरसेन मुनि हमें पवित्र करो - हमारे हृदय में निवास कर पापोंसे हमारी रक्षा करो ।
जिनकी वाणीले वाग्मी बृहस्पतिकी वाणी भी पराजित होती थी उन भट्टारक वीरसेन में लौकिक विज्ञता और कविता दोनों गुण 1
सिद्धान्तागमों के उपनिबन्धों-धवलादि ग्रन्थों के विधाता श्री वीरसेन गुरुके कोमल चरण कमल मेरे हृदय सरोवर में चिरकाल तक स्थिर रहें ।
वीरसेनकी धवला भारती- धवला टीकांकित सरस्वती अथवा विशुद्ध वाणी - धौर चन्द्रमा के समान निर्मल कीर्तिकी, जिसने अपने प्रकाश से इस सारे संसारको धवलित कर दिया है, मैं वन्दना करता हूँ । तत्र वित्रासिता शेष प्रादि-मद-वारणः ।
वीर सेनाप्रणीवर सेन भट्टारको बभौ ॥ - उत्तरपुराणे, गुणभद्रः
मूलसंघान्तर्गत सेनान्वय में वीरसेना के अग्रणी (नेता) वीरसेन भट्टारक हुए हैं, जिन्होंने सम्पूर्ण प्रवादिरूपी मस्त हाथियोंको परास्त किया था ।
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अनेकान्त
तदन्ववाये विदुषां वरिष्ठः स्याद्वादनिष्ठः सकलागमज्ञः । श्री वीरसेनोऽजनि तार्किक श्रीः प्रध्वस्तरागादिसमस्तदोषः ॥
यस्य वाचां प्रसादेन ह्यमेयं भुवनत्रयम् ॥ आसीदष्टांगनैमित्तज्ञानरूपं विदां वरम् ॥ - विक्रान्तकौरवे, हस्तिमल्लः
स्वामी समन्तभद्रके वंश में विद्वानों में श्रेष्ठ श्री वीरसेनाचार्य हुए हैं, जो कि स्याद्वाद पर अपना दृढ़ निश्चय एवं श्राधार रखने वाले थे, तार्किकोंकी शोभा थे और रागादि सम्पूर्ण दोषोंका विध्वंस करने वाले थे । तथा जिनके वचनोंके प्रसादसे यह श्रमित भुवनत्रय विद्वानोंके लिये अष्टाङ्ग निमित्तज्ञानका अच्छा विषय हो
गया था।
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तत्वार्थाधिगमभाष्य और अकलंक
[ले०-प्रोफ़ेसर जगदीशचन्द्र जैन, एम. ए.]
*ने "तत्वार्थाधिगमभाष्य और अकलंक" समर्थनमें मुख्तार साहबकी सबसे बलबती युक्ति
नामका एक लेख फर्वरी १६४०के “अनेकान्त" यह है कि प्रस्तुतभाष्य में षडव्यका कहीं भी एक ( ३-४ ) में लिखा था । इस लेख में यह बतलाया बार भी उल्लेख नहीं मिलता, जब कि अकलंकने गया था कि तत्वार्थराजवार्तिक लिखते समय "यद्भाष्ये बहुकृत्वः षड्व्याणि" लिख कर किसी अकलंकदेवके सामने उमास्वातिका स्वोपज्ञ तत्वा- दूसरे ही भाष्यकी ओर संकेत किया है, जिसमें र्थाधिगमभाष्य मौजद था, और उन्होंने इस भाष्य- षड्द्रव्यका बहुत वार उल्लेख किया हो। इसी युक्ति का अपने ग्रन्थमें उपयोग किया है। शायद पं० के आधार पर मुख्तार साहबने मेरे दूसरे मुद्दोंको जुगलकिशोरजीको यह बात न अँची, और उन्होंने भी असंगत ठहरा दिया है-उन पर विचार करने मेरे लेखक अत्तमें एक लम्बी चौड़ी टिप्पणी लगा की भी कोई आवश्यकता नहीं समझी। दी । हमारी समझपे इस तरह के रिसर्च-सम्बन्धी लेकिन यहाँ प्रश्न हो सकता है कि वह कौनसा जो विवादास्पद विषय हैं, उन पर पाठकों को कुछ भाष्य था, जिसको सामने रख कर अकलंकदेवने समय के लिये स्वतन्त्र रूपसे विचार करने देना रजवार्तिककी रचना की ? पूज्यपाद अथवा समन्तचाहिये । सम्पादकको यदि कुछ लिखना ही इष्ट भद्रके ग्रन्थों में तो ऐसे किसी भाष्यका उल्लेख अब हो तो वह स्वतन्त्र लेखके रूपमें भी लिखा जा तक पाया नहीं गया। 'अर्हत्प्रवचनहृदय' नामक सकता है। साथ ही, यह आवश्यक नहीं कि लेखक कोई अन्य भाष्य या ग्रन्थ भी अब तक कहीं सुनने सम्पादकके विचारोंसे सर्वथा सहमत ही हो। में नहीं आया। यदि ऐसे किसी भाष्यका अस्तित्व अस्तु, यह इस लेखका विषय नहीं है । हम यहाँ सिद्ध हो जाय तो यह कहा जा सकता है कि केवल हमारे लेख पर जो "सम्पादकीय विचारणा" अकलंकके सामने कोई दूसरा भाष्य था । मतलब नामकी टिप्पणी लगाई गई है, उसीकी समीक्षा यह है कि मुख्तार साहबके प्रस्तुत तत्वार्थभाष्य के करना चाहते हैं ।
अकलंकके समक्ष न होने में जो प्रमाण हैं वे केवल पं॰जुगलकिशोरजीका कहना है कि राजवार्तिक- इस तर्क पर अवलम्बित हैं कि इसी तरहके वाक्यकारके सामने कोई दूसरा ही भाष्य मौजूद था, विन्यास और कथनवाला कोई दूसरा भाष्य रहा और इस भाष्यके पदोंका वाक्य-विन्यास और होगा, जो आजकल अनुपलब्ध है। लेकिन यह कथन सम्भवतः प्रस्तुत उमास्वाति के स्वोपज्ञ तत्वा- तर्क सर्वथा निर्दोष नहीं कहा जासकता। धिगमभाष्यके समान था । इस कथनके हम यहाँ यह बताना चाहते हैं कि राजवार्तिक
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अनेकान्त
[ भाद्रपद, वीर निर्वाण सं०२४६६
में उल्लिखित भाष्य श्वेताम्बर सम्प्रदाय-द्वारा मान्य क्या अर्थ है ? इसका उत्तर है कि यहाँ पंचत्व प्रस्तुत उतास्वातिके स्वोपज्ञभाष्यको छोड़कर अन्य कहनेसे उमास्वातिका अभिप्राय पाँच द्रव्योंमे न कोई भाष्य नहीं। तथा इसमें षड्द्रव्यका उल्लेख होकर पाँच अस्तिकायोंस है । उमास्वाति कहना भी मिलता है।
___ चाहते हैं कि अस्तिका यरूपमे पाँच द्रव्य हैं; काल श्वेताम्बर आगमोंमें कालद्रव्य-सम्बन्धी दो का कथन आगे चलकर 'कालश्चेत्येके' सूत्रस किया मान्यताओंका कथन आता है । भगवतीसूत्रमें जायगा । द्रव्योंके विषयमें प्रश्न होनेपर कहा गया है- कहनेकी आवश्यकता नहीं कि हमारे उत्त 'कह णं भंते ! दम्वा पन्नत्ता ! गोयमा ! छ दव्वा कथनका समथन स्वयं अकलंककी राजवार्तिकमें पन्नत्ता । तं जहा-धम्मस्थिकाए जाव श्रद्धा समये"- किया गया है। वे लिखते हैं-"वृत्तौ पंचत्त्ववचननात् अर्थात द्रव्य छह हैं, धर्मास्तिकायसे लेकर काल- षड्दव्योपदेशव्याघात इति चेन्न अभिप्रायापरिज्ञानात् द्रव्य तक । आगे चलकर कालद्रव्यके सम्बन्धमें (वातिक)-स्यान्मतं वृत्तावमुक्त (वुक्त ? )मवस्थितानि प्रश्न होने पर कहा गया है-"किमियं भंते कालो त्ति धर्मादीनि न हि कदाचित्पंचत्वं व्यभिचरंति (अक्षपवुच्चइ? गोयमा जीवा चेव अजीवा चेव"अर्थात काल- रशः भाष्यकी पंक्तियाँ हैं) इति ततः षड्व्याणीत्युद्रव्य कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं। जीव और अजीव पदेशस्य व्याघात इति | तन्न, किं कारणं ? अभिप्रायाये दो ही मुख्य द्रव्य हैं । काल इनकी पर्यायमात्र परिज्ञानात् । अयमभिप्रायो वृत्तिकरणस्य -कालश्चेति है। यही मतभेद उमास्वातिने "कालश्चेत्येके" सूत्र पृथग्द्रव्यलक्षणं कालस्य वध्यते । तदनपेक्षादिकृतानि में व्यक्त किया है । इसका यह मतलब नहीं उमा- पंचैव द्रव्याणि इति षड्व्योपदेशाविरोधः' । अर्थात स्वाति कालद्रव्यको नहीं मानते, उन्होंने कहीं भी वृत्तिमें जो द्रव्यपंचत्त्वका उल्लेख है वह कालद्रव्य कालका खण्डन नहीं किया, अथवा उसे जीव- की अनपेक्षास ही है। कालका लक्षण आगे चल अजीवकी पर्याय नहीं बताया।,
कर अलग कहा जायगा। "कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुत्वार्थमद्धासमयप्रतिषे- सिद्धसेन गणिने उमास्वातिके तत्त्वार्थाधिगम धार्थ च"--भाष्यकी इस पंक्तिका भी यही अर्थ है भाष्य पर जो वृत्ति लिखी है, उसमें भी अकलंकके कि "अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः" सूत्रमें उक्त कथनका ही समर्थन किया गया है । सिद्धसेन 'काय' शब्दका ग्रहण प्रदेशबहुत्व बताने के लिये लिखते हैं-"सत्यजीवत्वे कालः कस्मान्न निर्दिष्टः इति
और कालद्रव्यका निषेध करने के लिये किया गया चेत् उच्यते-स स्वेकीयमतेन द्रव्यमित्याख्यास्यते द्रव्य. है । क्योंकि कालद्रव्य बहुप्रदेशी होनेसे (?) लक्षणप्रस्ताव एव । श्रमी पुनरस्तिकायाः व्याचिण्याकायवान् नहीं। इससे स्पष्ट है कि उमास्वाति काल सिताः । न च कालोऽस्तिकायः, एकसमयत्वात्"को स्वीकार करते हैं, अन्यथा उसका निषेध कैसा? अर्थात् यहाँ केवल पाँच अस्तिकायोंका कथन यहाँ प्रश्न हो सकता है कि फिर "धर्मादीनि न हि किया गया है । अजीव होने पर भी यहाँ कालका कदाचिरपंचत्वं व्यभिचरन्ति" इस भाष्यकी पंक्तिका उल्लेख इसलिये नहीं किया गया कि वह एक
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वर्ष ३, किरण ११ ]
तत्त्वार्थाधिगमभाष्य और कलंक
समय वाला है उसका कथन 'कालश्चेत्येके' सूत्र में उद्धृत करते हैं ।
किया जायगा ।
स्वयं भाष्यकारने "तस्कृतः कालविभागः " सूत्र व्याख्या में 'कालोऽनन्तसमयः वर्तनादिलक्षण इत्युकम्' आदि रूपसे कालद्रव्यका उल्लेख किया है । इतना ही नहीं मुख्तारसाहबको शायद अत्यन्त आश्चर्य हो कि भाष्यकारने स्पष्ट लिखा है - "सर्व पंचध्वं अस्तिकायावरोधात् । सर्व षट्स्वं षड्व्यावरोधातू" । वृत्तिकार सिद्धसेनने इन पंक्तियोंका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है--“तदेव पंचस्वभावं षट्स्वभावं षड्द्रव्यसमन्वि तत्त्वात् । तदाह-सर्वं षट्कं षड्द्रव्या`वरोधात् । षड़द्रव्याणि । कथं, उच्यते -पंच धर्मादीनि कालश्चेत्येके”। इससे बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि उमास्वाति छ द्रव्यों को मानते हैं । छह द्रव्योंका स्पष्ट कथन उन्होंने भाष्य में किया है। पांच अस्तिकायोंके प्रसंग पर कालका कथन इसीलिये नहीं किया गया कि काल कायवान नहीं । अतएव अकलंकने षड्द्रव्य वाले जिस भाष्य की ओर संकेत किया है, वह उमास्वातिका प्रस्तुत तत्वार्थाधिगम भाष्य ही । इस भाष्यका सूचन अकलंकने 'वृत्ति' शब्द से किया है ।
मुख्तार साहब लिखते हैं- "अत्प्रवचन" का तात्पर्य मूल तत्रर्थाधिगमसूत्र से है, तत्वार्थभाष्य से नहीं ।" अच्छा होता. यदि पं० जुगलकिशोरजी इस कथन के समर्थन में कोई युक्ति देते । आगे चल कर आप लिखते हैं- "सिद्धसेनगणिके वाक्यमें अर्हत्प्रवचन विशेषण प्रायः तत्वार्थाधिगमसूत्र के लिये है, मात्र उसके भाष्य के लिये नहीं ।" यहाँ 'प्रायः ' शब्द से आपको क्या इष्ट है, यह भी स्पष्ट नहीं होता। हम यहाँ सिद्धसेनगणिका वाक्य फिर से
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" इति श्रीमदर्हस्प्रवचने तत्वार्थधिगमे उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये भाष्यानुसारिण्यां च टीकायां सिद्धसेनगणिविरचितायां अनगारगारिधर्मप्ररूपकः सप्तमो ऽध्यायः” ।
यहाँ अर्हत्प्रवचने,तत्वार्थाधिगमे और उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये – ये तीनों पद सप्तम्यन्त हैं । उमास्वातिवाचकोपज्ञ सूत्रभाष्यसे स्पष्ट है उमास्वातिवाचकका स्वोपज्ञ कोई भाष्य है । इसका नाम तत्वार्थाधिगम है । इसे अर्हत्प्रवचन भी कहा जाता है। स्वयं उमास्वातिने अपने भाष्यकी निम्न कारिकामें इसका समर्थन किया है
तत्वार्थाधिगमाख्यं बह्वर्थ संग्रहं लघुग्रंथं । वयामि शिष्यहितमिममद्वचनैकदेशस्य ॥ आगे चलकर तो मुख्तार साहबने एक विचित्र कल्पना कर डाली है । आपका तर्क है, क्योंकि राजवार्तिक बहुत जगह अशुद्ध छपा है, अतएव राजवार्तिक में “उक्तं हि अर्हस्प्रवचने" पाठ भी अशुद्ध है; तथा 'अर्हत्प्रवचन' के स्थान पर 'अर्हत्प्रवचनहृदय' होना चाहिये । कहना नहीं होगा इस कल्पना का कोई आधार नहीं । यदि पं० जुगलकिशोरजी राजवार्तिककी किसी हस्तलिखित प्रति से उक्त पाठको मिलान करनेका कष्ट उठाते तो शायद उन्हें यह कल्पना करनेका अवसर न मिलता। मेरे पास राजवार्तिक के भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट की प्रतिके आधार पर लिये हुए जो पाठान्तर हैं, उनमें 'ईप्रवचन' हीं पाठ है। अभी पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री बनारस से सूचित करते हैं कि "यहाँ की लिखित राजवार्तिक में भी वही पाठ है जो मुद्रितमें है ।"
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[ भाद्रपद, वीर निर्वाण सं० २४६६
और राजवार्तिकके तुलनात्मक उद्धरण देकर यह बता चुके हैं कि अनेक स्थानों पर भाष्य और राजवार्तिक अक्षरशः मिलते हैं । इनमें से बहुतसी बातें सर्वार्थसिद्धिमें नहीं मिलती, परन्तु वे राजवार्तिक में ज्योंकी त्यों अथवा मामूली फेरफार से दी गई हैं ।
"काय ग्रहणं प्रदेशावयव बहुत्वार्थमद्धा समयप्रतिषेधार्थं च" भाष्य की इस पंक्तिको राजवार्तिक में तीन वार्तिक बनाई गई हैं- 'श्रभ्यन्तर कृतेवार्थः कायशब्दः '; 'तद्ग्रहणं प्रदेशावयव बहुत्वज्ञापनार्थे'; 'श्रद्धाप्रदेशप्रतिषेषार्थं च ' । कहना नहीं होगा कि वार्तिकको उक्त पंक्तियों का साम्य सर्वार्थसिद्धिकी अपेक्षा भाष्यसे अधिक है । दूसरा उदाहरण - 'नाणोः' सूत्रके भाष्य में उमास्वातिने परमाणुका लक्षण बताते हुए लिखा है'अनादिरमध्यो हि परमाणुः ' । सर्वार्थसिद्धिकार यहां मौन हैं। परन्तु राजवार्तिक में देखिये - श्रादिमध्या न्तव्यपदेशाभावादिति चेन्न विज्ञानवत् ( वार्तिक) इसकी टीका लिखकर अकलंकने भाष्यके उक्त वाक्य का ही समर्थन किया है। इस तरह के बहुत से उदाहरा दिये जा सकते हैं ।
अनेकान्त
इसके अतिरिक्त कुछ ही पहिले मुख्तार साहब कह चुके हैं कि “अर्हत्प्रवचन' विशेषण मूल तत्वार्थसूत्रके लिये प्रयुक्त हुआ है" तो फिर यदि अकलंक देव “उक्तं हि श्रर्हत्प्रवचने 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः " कह कर यह घोषित करें कि अर्हत्प्रवचन में अर्थात् तत्वार्थसूत्र में ( स्वयं मुख्तार साहब के ही कथना - नुसार ) " द्रव्याश्रया निर्गुणाः गुणाः" कहा है तो इसमें क्या आपत्ति हो सकती है ? 'अत्प्रवचन' पाठको अशुद्ध बताकर उसके स्थान में 'अर्हत्प्रवचनहृदय' पाठकी कल्पना करनेका तो यह अर्थ निकलता है कि अर्हत्प्रवचनहृदय नामका कोई सूत्र ग्रन्थ रहा होगा, तथा " द्रव्याश्रया निर्गुणाः गुणाः” यह सूत्र तत्वार्थसूत्रका न होकर उस अर्हत्प्रवचन हृदयका है जो अनुपलब्ध है ।
श्वेताम्बरग्रन्थोंमें आगमोंको निर्बंथ प्रवचन अथवा अर्हत्प्रवचन के नामसे कहा गया है । स्वयं उमास्वातिने अपने तत्वार्थाधिगमभाष्यको 'अर्ह - द्वचनैकदेश' कहा है, जैसा ऊपर आ चुका है । अर्हत्प्रवचनहृदय अर्थात् अत्प्रवचनका हृदय, एक देश अथवा सार । इस तरह भी अर्हत्प्रवचनहृदयका लक्ष्य भाष्य हो सकता है । अथवा अत्प्रवचन और अर्हत्प्रवचनहृदय दोनों एकार्थक भी हो सकते हैं । हमारी समझसे भाष्य, वृत्ति, अर्ह - त्प्रवचन और अर्हत्प्रवचनहृदय इन सबका लक्ष्य उमास्वातिका प्रस्तुत भाष्य है । जब तक अर्हत्व - चनहृदय आदि किसी प्राचीन ग्रन्थका कहीं उल्लेख न मिल जाय, तब तक पं० जुगलकिशोरजी की कल्पनाओं का कोई आधार नहीं माना जा
'अल्पारम्भ परिग्रहत्वं' आदि सूत्रके विषय में सम्भवतः कुछ मुद्रण सम्बन्धी अशुद्धि हो । शायद वही पाठ मूल प्रतिमें हो और मुद्रितमें छूट गया हो । इसके अतिरिक्त यहां मुख्य प्रश्न तो एक हम अपने पहले लेखमें भाष्य, सर्वार्थसिद्धि योगीकरणका है जो भाष्य में बराबर मिल जाता है ।
सकता ।
इसी तरह सूत्रों के पाठभेद की बात है । 'बन्धे समाधिकौ पारिणामिकौ', 'द्रव्याणि जीवाश्च' आदि सूत्र भाष्य में ज्यों की त्यों मिलती हैं। उक्त विवेचन की रोशनी में कहा जा सकता है कि अकलंकका लक्ष्य इसी भाष्य के सूत्रपाठकी ओर था ।
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वर्ष ३, किरण ११] 'गो० कर्मकाण्डकी त्रुटिपूति' लेखपर विद्वानोंके विचार और विशेष सूचना ६२७
राजवार्तिककी अन्तिम कारिकाओंका प्रक्षिप्त नताओंसे हमारा अभिप्राय है जिनकी चर्चा तक बतानेका भी कोई आधार नहीं । भाष्य और राज- सर्वार्थसिद्धि में नहीं। ऐसी हालतमें प्रस्तुतभाष्यको वार्तिकको आमने-सामने रखकर अध्ययन करनेसे अप्रमाणिक ठहराकर उसके समान वाक्य-विन्यास स्पष्ट मालूम होता है कि दोनोंके प्रतिपाद्म विषयों और कथन वाले किसी अनुपलब्धभाष्यकी सर्वथा में बहुत समानता है। दोनों ग्रन्थोंमें अमुक स्थल निराधार और निष्प्रमाण कल्पना करनेका अर्थ पर बहुतसी जगह बिलकुल एक जैसी चर्चा है। हमारी समझ में नहीं आता । भाष्यकी भाषा, शैली दोनोंमें पंक्तियोंकी पंक्तियाँ अक्षरशः मिलती हैं। आदि देखते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता कि समानता सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिकमें भी है। वह राजवार्तिक अथवा सर्वार्थसिद्धिके ऊपरसे परन्तु यहाँ भाष्य और राजवार्तिककी उन समा- लेकर बादमें बनाया गया है
'गो०कमकाण्डकी त्रुटिपूर्ति' लेखपर विद्वानोंके विचार और विशेष सूचना
'गोम्मटमार-कर्मकाँडकी त्रुटिपति' नामका प्रकृतिकी वे सब गाथाएँ मिलतीहैं जिन्हें 'कर्मप्रकृति' जो लेख अनेकान्तकी गत संयुक्त किरण (नं० ८-९) के आधार पर 'कर्मकाण्ड' में त्रुटित बतलाया गया में प्रकाशित हुआ है और जिस पर प्रो० हीरालाल- था। 'कर्मप्रकृति' की भी एक प्रति संवत् १५२७ जीका एक विचारात्मक लेख इसी किरणमें, अन्यत्र की लिखी हुई मिली है, जिसकी गाथा-संख्या १६० प्रकाशित हो रहा है, उस पर दूसरे भी कुछ विद्वानों है-अर्थात एक गाथा अधिक है-और उस पर के विचार संक्षिप्त में आए हैं तथा आरहे हैं, जिनसे भी आराकी प्रतिकी तरह ग्रन्थकारका नाम मालूम होता है कि उक्त लेख समाजमें अच्छी दिल- 'नेमिचन्द सिद्धान्तचक्रवर्ती' लिखा हुआ है । 'कर्मचस्पीके साथ पढ़ा जा रहा है । उनमें से जो विचार प्रकृति' 'कर्म काण्ड' का ही प्रारम्भिक अंश है । यह इस समय मेरे सामने उपस्थित हैं उन्हें नीचे सब हाल उनके आज ही ( २३ सितम्बरको) प्राप्त उद्धृत किया जाता है । साथ ही यह सूचना देते हुए पत्रसे ज्ञात हुआ है । वे जल्दी ही आकर इस हुए बड़ी प्रसन्नता होती है कि उक्त लेखके लेखक विषय पर एक विस्तृत लेख लिखेंगे, जिसमें पं० परमानन्दजी आज कल अपने घरकी तरफ प्रोफेसर हीरालालजीके उक्त लेखका उत्तर भी होगा गये हुए हैं, उधर एक भंडारको देखते हुए उन्हें अत: पाठकोंको उसके लिये १२ वी किरणकी कर्मकांडकी कई प्राचीन प्रतियां मिलीं हैं जो शाह- प्रतीक्षा करनी चाहिये । विद्वानोंके विचार इस जहाँके राज्यकालकी लिखी हुई हैं और उनमें कम- प्रकार है:
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अनेकान्त
१ न्यायाचार्य पं० महेंद्रकुमारजी जैन, शास्त्री, काशी
"आपका लेख 'अनेकान्त' में देखा। आपका परिश्रम प्रशंसनीय है । यदि यह प्रयत्न सोलह आने ठीक रहा और कर्मकाण्डकी किसी प्राचीन प्रतिमें भी ये गाथाएँ मिल गई तब कर्मकाण्डका अधूरापन सचमुच दूर होजायगा ।"
[ भाद्रपद, वीर निर्वाण सं०२४६६
त्रुटिपूर्तिका मुझे बहुत पसन्द आया है, उसके लिये धन्यवाद है ।"
३ पं० रामप्रसादजी जैन शास्त्री, अध्यक्ष ऐ० प० सरस्वती भवन, बम्बई - "आपका लेख 'कर्मप्रकृति' से 'कर्मकाण्ड' की
४ पं० के० भुजवली जैन शास्त्री अध्यक्ष जैन सिद्धान्त-भवन, आरा
"गोम्मटसार-सम्बन्धी आपका लेख महत्व -
२ पं० कैलाशचन्दजी जैन शास्त्री, स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी
"इसमें तो कोई शक ही नहीं कि कर्मकाण्डका प्रथम अधिकार त्रुटिपूर्ण है । किन्तु 'प्रकृति' की गाथाएँ शामिल करने में अभी कुछ गहरे विचारकी जरूरत है। यह जांचना चाहिये कि 'कर्म प्रकृति' क्या स्वतन्त्र ग्रन्थ है ? 'कर्मकाण्ड' क्या पहले से ही ऐसा बनाया गया था या बाद में उसमें से कुछ गाथाएँ Gommatasara. " छुट 'गई । 'प्रकृति' की गाथाओं में 'जीवकाण्ड' की भी कुछ गाथाएँ सम्मिलित होनेसे अभी कोई निश्चित राय नहीं दी जा सकती। आपका परिश्रम प्रशंसनीय है ।"
1
पूर्ण है ।"
५ प्रोफेसर ए० एन उपाध्याय, एम. ए., डी० लिट०, कोल्हापुर
" Yes, the additional
verses of
Karm Kanda brought to light in Anekant are interesting. Ifwe.can collate some more Mss, we might
come to more reliable text of
' – हाँ, कर्मकाण्डकी जो अतिरिक्त गाथाएँ अनेकान्त द्वारा प्रकाशमें लाई गई हैं वे चित्ताकर्षक हैं। यदि हम कुछ और हस्त लिखित प्रतियोंका समवलोकन-संपरीक्षण करें तो हम गोम्मटसारका अधिक विश्वसनीय मूल पाठ प्राप्त करने में समर्थ हो सकेंगे।'
-सम्पादक
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सिद्धसेन के सामने सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक
[ लेखक - पं० परमानन्द जैन शास्त्री ]
श्वे वा
ताम्बर सम्प्रदाय में सिद्धसेन गणी नामक एक प्रधान आचार्य हो गये हैं, जिनकी उक्त सम्प्रदाय में 'गंधहस्ती' नामसे भी प्रसिद्धि है, जो कि असाधारण विद्वत्ताका द्योतक एक बहुत ही गौरवपूर्ण पद है । आप आगम- साहित्यके विशेष विद्वान थे और इतर दर्शनादि विषयोंमें भी अच्छा पाण्डित्य रखते थे । आपकी कृतिरूपसे इस समय एक ही ग्रंथ उपलब्ध है और वह है उमास्वातिके तत्वार्थ सूत्रकी बृहद्वृत्ति, जो उमास्वातिके 'स्वोपज्ञ' कहे जाने वाले भाष्यको साथ में लेकर लिखी गई हैं और इसीसे उसे 'भाष्यानुसा'रिगी' विशेषण दिया गया है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इसीको‘गंधहस्तिमहाभाष्य' कहा जाता है। इसका प्रमाण प्राय: अठारह हजार श्लोक - जितना है । यह वृत्ति · दो खण्डोंमें प्रकाशित भी हो चुकी है, और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में तत्त्वार्थसूत्र पर बनी हुई अन्य सब वृत्तियोंमें प्रधान मानी जाती है । इतना सब कुछ होनेपर भी इस वृत्तिमें वह रचना-सौन्दर्य, विषयकी स्पष्टता और वस्तुओं के जँचे-तुले लक्षणोंके साथ अर्थका पृथक्करण एवं गाम्भीर्य उपलब्ध नहीं होता जो कि दिगम्बर सम्प्रदाय की पूज्यपाद - विरचित ‘सर्वार्थसिद्धि' टीका और भट्टाकलंक देव विरचित 'राजवार्तिक' नामक भाष्य में पाया जाता है । इस बातको श्वेताम्बरीय प्रमुख विद्वान्
प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी भी स्वीकार करते हैं । आपने हालमें प्रकाशित तत्रार्थसूत्र की अपनी हिंदी टीकाकी 'परिचय' नामक प्रस्तावना में लिखा है कि:
-
"सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक के साथ सिद्धसेनीय वृत्तिकी तुलना करने से इतना तो स्पष्ट जान पड़ता है कि जो भाषाका प्रासाद, रचनाकी विशदत और अर्थका पृथक्करण सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिकमें है वह सिद्धसेनीय वृत्ति में नहीं ।"
सिद्धसेन गणी हरिभद्र से कुछ समय बाद हुए हैं । हरिभद्रका समय विक्रमकी ८वीं ९वीं शताब्दी निश्चित किया गया है। इससे सिद्धसेन गणीका समय प्रायः नवमी शताब्दी होता है । सर्वार्थसिद्धि की रचना विक्रमकी छठी शताब्दी के पूर्वार्द्धकी है, यह निर्विवाद है । और राजवार्तिक की रचना प्रायः विक्रमकी सातवीं शताब्दीकी मानी जाती है । ऐसी हालत में यह स्नयाल स्वभाव से ही उत्पन्न होता है कि जब सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक जैसी अतिविशद और प्रौढ टीकाएँ पहले से मौजूद थीं, तब सिद्धसेन गणी जैसे विद्वान्को टीका उनसे कहीं अधिक विशद, प्रौढ़ एवं विषयको स्पष्ट करने वाली होनी चाहिये थी । मालूम होता है यह ख़याल पं० सुखलालजी के हृदय में भी उत्पन्न हुआ है । और इस परसे उन्होंने अपनी तत्त्वार्थसूत्रकी उक्त
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अनेकान्त
[भाद्रपद, वीरनिर्वाण सं०२४६६
प्रस्तावनामें निम्न तीन कल्पनाएँ की हैं:- इस वाक्यमें “सिद्धिविनिश्चयके जिस सृष्टि
(१) "सर्वार्थसिद्धिकी रचना पूर्वकालीन परीक्षा-प्रकरणके विशेष वर्णनको देखने के लिये होने से सिद्धसेनके समयमें वह निश्चय रूपसे प्रेरणा की गई है वह प्रकरण सिद्धिविनिश्चयके विद्यमान थी, यह ठीक है; परन्तु दूरवर्ती देश-भेद 'आगम' नामक सातवें प्रस्तावमें बहुत विस्तारके होनेके कारण या किसी दूसरे कारणवश सिद्धसेन साथ वर्णित है । जब सुदूर देश दक्षिणमें निर्मित को सर्वार्थसिद्धि देखनेका अवसर मिला नहीं हुआ 'सिद्धिविनिश्चय' ग्रंथ सिद्धसेन तक पहुँच जान पड़ता।"
गया. इतना ही नहीं बल्कि वह इतना प्रचार पा __ (२) “राजवार्तिक और श्लोकवार्तिकको गया था कि उस परसे शेष विषयको देखने तककी रचनाके पहले ही सिद्धसेनीय वृत्तिका रचा जाना योजना कर लेनेकी प्रेरणा कीगई है, तब राजवाबहुत सम्भव है; कदाचित् उनसे पहले यह न रची तिक जैसे अधिक जनतोपयोगी ग्रंथका सिद्धसेन गई हो तो भी इसकी रचनाके बीचमें इतना तो तक न पहुंचना कैसे अनुमानित किया जा सकता कमसे कम अन्तर है ही कि सिद्धसेनको राजवार्तिक है ? खास कर ऐसी हालतमें जब कि वह तत्त्वार्थ
और श्लोकवार्तिकका परिचय मिलनेका प्रसंग ही सूत्रका भाष्य लिखने बैठे, और उसी तत्त्वार्थसूत्र नहीं आया।
पर रचे हुये उन अकलंकदेवके भाष्यको प्राप्त करके (३) "इसके (सिद्धसेनीय वृत्तिमें सर्वार्थसिद्धि देखनेका प्रयत्न न करें,जिनक असाधारण पाण्डित्य और राजवार्तिकके समान जो भाषाका प्रासाद, एवं रचना-कौशलसे वे सिद्धिविनिश्चय द्वारा रचनाकी विशदता और अर्थका पृथक्करण नहीं परिचित हो चके हों। पाया जाता उसके) दो कारण हैं । एक तो ग्रंथकार सर्वाथसिद्धिकी रचना तो राजवार्तिकसे एक का प्रकृतिभेद और दूसरा कारण पराश्रित शताब्दीसे भी अधिक वर्ष पहले हुई है और रचना है।"
सिद्धसेनके समयमें उसका उत्तर भारतमें काफी __इन तीनों कल्पनाओंमें से प्रथमकी दो कल्प- प्रचार हो चुका था, सिद्धसेनको उसके देखनेका नाओंमें कुछ भी सार मालूम नहीं होता; क्योंकि प्रसंग ही नहीं आया ऐसा कहना युक्ति-संगत अकलंकदेव सुनिश्चितरूपसे सिद्धसेन गणीके मालूम नहीं होता । आगे इस लेख में स्पष्ट किया पूर्ववर्ती हुए हैं। सिद्धसेन गणोने उनके 'सिद्धि- जायगा कि सिद्धसेन गणीके सामने भाष्य लिखते विनिश्चय' ग्रन्थका अपनी इस वृत्तिमें स्पष्टरूपसे समय उक्त दोनों दिगम्बरीय टीकाएँ मौजूद थीं, निम्न शब्दोंमें उल्लेख किया है:-
और उन्होंने अपने भाष्यमें उनका यथोचित "एवं कार्यकारणसम्बन्धः समवायपरिणामनिमित्त- उपयोग किया है। निर्वर्तकादिरूपः सिद्धिविनिश्चय-सृष्टिपरिक्षातो योज- अब रही तीसरी कल्पना,उसमें जिन दो कारणों नीयो विशेषार्थिना दूषणद्वारेणेति ।"
का वर्णन किया गया है उनमें से ग्रंथकारके प्रकृति___-भाष्यत्ति १,३३, पृ० ३७ भेदका कुछ अाभास पं०सुखलालजीके इन शब्दोंमें
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वर्ष ३, किरण ११]
सिद्धसेनके सामने सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक
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मिलता है-“सिद्धसेन सैद्धान्तिक थे और आगम- किया गया है कि 'वाचक तो पूर्ववित हैं वे ऐसे शास्त्रोंका विशाल ज्ञान धारण करने के अतिरिक्त वे ( प्रमत्तगीत-जैसे) आर्षविरोधी वाक्य कैसे आगमविरुद्ध मालूम पड़ने वाली चाहे जैसी तर्क- लिख सकते है ? सूत्रसे अनभिज्ञ किसीने भ्रांतिसे सिद्ध बातोंका भी बहुत ही आवेशपूर्वक खंडन लिख दिये हैं अथवा किन्हीं दुर्विदग्धकोंने अमुक करते थे ।" और पराश्रित रचनाका अभिप्राय कथन प्रायः सर्वत्र विनष्ट कर दिया है । इसीसे भाष्यानुसार टीका लिखनेका जान पड़ता है। भाष्य-प्रतियोंमें अमुकभिन्न कथन पाया जाता है, परन्तु भाष्यके अनुसार टीका लिखनेमें भाष्य जो अनार्ष है। वाचक मुख्य सूत्रका-श्वे. आगम रचनाके प्रासाद और अर्थपृथक्करण करने में क्या का उल्लंघन करके कोई कथन नहीं कर सकते । बाधक है,यह कुछ समझमें नहीं आया ! सिद्धसेन- ऐसा करना उनके लिये असम्भव है* इत्यादि ।' ने तो भाष्यकी वृत्ति लिखते हुए भाष्यसे अथवा इन्हीं सब प्रकृतिभेद, योग्यताभेद और लक्ष्यभाष्यके शब्दों परसे उपलब्ध नहीं होने वाले कथन भेदको लिये हुये खींचातानी आदि कारणोंसे को भी खूब बढ़ाकर लिखा है, ऐसी हालतमें वह सिद्धसेनकी वृत्ति में भाषाका वह प्रासाद, रचनाकी माष्य रचनाके प्रासाद और अर्थके पृथक्करण करने वह विशदता और अर्थका वह पृथक्करण एवं में कैसे बाधक हो सकता है ? फिर भी इन दोनों स्पष्टीकरण आदि नहीं सका है जो सर्वार्थसिद्धि में से प्रकृति-भेद उसमें कुछ कारण जरूर हो और राजवार्तिकमें पाया जाता है । राजवार्तिक सकता है। अच्छा होता यदि इसके साथमें योग्यता- और सर्वार्थसिद्धिका सामने न होना इसमें कोई भेदको और जोड़ दिया जाता; क्योंकि सब कुछ कारण नहीं है। साधन-सामग्री के सामने उपस्थित होनेपर भी तद्रूप + "सातकविंशतिनियमित योग्यताके न होने मे वैसा कार्य नहीं हो सकता। नेदं पारमर्षप्रवचनानुसारिभाष्यं, किं तर्हि ? प्रमत्तगीतपरन्तु मुझे तो सिद्ध मेनीय वृत्ति के सूक्ष्म दृष्टिसे
मेतत् । वाचको हि पूर्ववित् कथमेवं विधमार्षविसंवादि अवलोकन करने पर इसका सबसे जबर्दस्त कारमा
निबध्नीयात् ? सूत्रानवबोधादुपजातभ्रान्तिना केनापि यह प्रतीत होता है कि तत्त्वार्थाधिगम भाष्यमें
रचितमेतद्वचनकम्"। कितनी ही बातें ऐसी पाई जाती हैं जो श्वेताम्बरीय
--तत्त्वा० भाष्य० वृ०६,६, पृ० २०६ आगमके विरुद्ध हैं । सिद्धसेनने अपनी वृत्ति
"एतच्चान्तरद्वीपकभाष्यं प्रायो विनाशितं लिखते समय इस बातका खास तौरसे ध्यान रक्खा सर्वत्र कैरपि दुर्विदग्धकैर्येन पण्णवतिरन्तरद्वीपका है कि जो बातें भाष्यमे आगमकेविरुद्ध पाई जाती भाष्येसु दृश्यन्ते । अनार्ष चैतदध्यवसीयते जीवाभिगहैं उन्हें किसी भी तरह आगमके साथ संगत बनाया मादिष षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपकाध्ययनात्, नापि वाचकजाय, और जहाँ किसी भी प्रकार अपने आगम मुख्याः सूत्रोल्लंघनेनाभिदधत्यसम्भाव्यमानत्वात् तस्मात् सम्प्रदायके साथ उनका मेल ठीक नहीं बैठ सका, सैद्धान्तिकपाशैविनाशितमिदमिति"। वहाँ इस प्रकारके वाक्य कह कर ही संतोष धारण
--भाष्य ०३ १६,पृ. २६७०
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अनेकान्त
भाद्रपद, वीरनिर्वाण सं०२४६६
अब मैं कुछ अवतरणों द्वारा इस बातको स्पष्ट ...रागोद्रेकात् प्रहासमिश्रोऽशिष्टवाक्प्रयोगः कन्दर्पः। कर देना चाहता हूँ कि सर्वार्थसिद्धि और राजवा
-सर्वार्थसिद्धि ७, ३२ र्तिक दोनों सिद्धसेनके सामने मौजूद थे और . रागोद्रेकात् प्रहासमिश्रोऽशिष्टवाक्प्रयोगः कन्दर्पः। उन्होंने उनका अपनी इस भाष्य-वृत्तिमें यथेष्ट
-भाष्यवृत्ति ७, २७ उपयोग किया है। दोनों में से पहले सर्वार्थसिद्धिकी अनुभूतप्रीतिविशेषस्मृतिसमन्वाहारः सुखानुबन्धः । और उसके बाद राजवार्तिककी ऐसी कुछ लाक्षणि
___-सर्वार्थसिद्धि७, ३७ कादि पंक्तियाँ नीचे दी जाती हैं जिनका सिद्धसेनने अनुभूतप्रीतिविशेषस्मृतिसमाहरणं चेतसि सुखानुअपनी वृत्तिमें ज्योंके त्यों रूपसे अथवा कुछ थोड़ेसे बन्धः । शब्द-परिवर्तनके साथ उपयोग किया है:
-भाष्यवृत्ति०७, ३२
विशिष्टो नानाप्रकारो वा पाको विपाकः । ' रूपादिसंस्थानपरिणामा मूर्तिः।
. -सर्वार्थसिद्धि ८, १२ -सर्वार्थसिद्धि, ५, ४ कर्मणां विशिष्टो नानाप्रकारो वा पाको विपाकः । मूर्तिहि रूपादिशब्दाभिधेया, सा च रूपादिसंस्थान
___-भाष्यवृत्ति, ८. १२ परिणामा।
___ यत्कर्माप्राह विपाककालमा पक्रमिकक्रियाविशेषसाम-भाष्यवृत्ति, ५, ३, पृ०३२३ दिनुदीर्ण बलादुदीर्योदयावलि प्रवेश्य वेद्यते आम्रअनुप्राहकसम्बन्धविच्छेदे वैक्लव्यविशेषः शोकः। पनसादिवत् सा अविपाकनिर्जरा । ।
-सर्वार्थसिद्धि ८, २३ अनुग्राहकस्नेहादिव्यवच्छेदे वैलष्यविशेषः शोकः । यत्पुनः कर्माप्राप्तविपाककालमौपक्रमिकक्रियाविशेष
-भाष्यवृत्ति, ६, १२ ..
र सामर्थ्यादनुदीर्ण बलादुदीर्योदयावलिकामनुप्रवेश्यवेद्यते ... परवादादिनिमित्तादाविलान्तःकरणस्य तीव्रानुशय
पनसतिन्दुकाम्रफलपाकवत् सा त्वविपाकजानिर्जरा । -सर्वार्थसिद्धि, ६, ११
.. –भाष्यवृत्ति, ८, २४ अभिमतद्रव्यवियोगादिपरिभाष्यादाविनान्तःकरणस्य तीव्रानुशयस्तापः।
-भाष्यवृत्ति, ६, १२ विषयानर्थनिवृत्ति चास्माभिप्रायेणाकुर्वतः पारअनग्रहादीकृतचेतसः परपीडामात्मस्थामिवकुर्वतो. तन्यादभोगनिरोधोऽकामनिर्जरा । ऽनुकम्पनमनुकम्पा।
-राजवार्तिक, ६,१२ -सर्वार्थसिद्धि, ६, १२ अनुग्रहबुद्धयाऽऽीकृतचेतसः परपीडामात्मसंस्था- विषयानर्थनिवृत्तिमात्माभिप्रायेणाकुर्वतःपारतन्त्र्यामिव कुर्वतोऽनुकम्पनमनुकम्पा।
दुपभोगादिरोधः अकामनिर्जरा। -भाष्यवत्ति, ६, १३
-भाष्यवृत्ति, ६, १३
सर्वार्थसिद्धि, ६, ११
स्तापः।
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वर्ष ३, किरण ११]
सिद्धपेनके सामने सर्वार्थसिद्धि और राजवातिक
६३३
विरोधिद्रव्योपनिपाताभिलषितवियोगानिष्टनिष्ठुर- प्रभवः स्कन्ध परिणामः । अनादिरपि धर्माधर्माकाशश्रवणादिबाह्यसाधनापेक्षयादसद्वेद्योदयादुत्पद्यमानःपीडा विषयः ।
-भाष्ववृत्ति ५, २४ पृ०३६० लक्षणः परिणामो दुःखमित्याख्यायते ।
प्रतिसेवनेति षत्वाभावः क्रियांतराभि संबंधात् ॥३॥ -राजवार्तिक, ६, ११ ।।
___यथा विगताः सेवकाः, अस्माद् प्रामाद्विसेवको विरोधिद्रव्यान्तरोपनिपाताभिलषितंवियोगानिष्टश्र.
ग्राम इति षत्वं न भवति तथा प्रतिगता सेवना प्रतिवणादसवेद्योदयापनः पीडालवणः परिणाम प्रात्मनो
' सेवनेति क्रियांतराभिसंबंधात् पत्वं न भवति । दुःखमित्यर्थः।
-राजवार्तिक ६, ४७ -भाष्यवृत्ति, ६, १२ प्रतिगता सेवना प्रतिसेवना । क्रियायोगात्यये धर्मप्रणिधानात् क्रोधादिनिवृत्तिः शांतिः । सत्यपसर्गसम्ज्ञाभावात् षस्वाभावोऽतिसिक्तवत् । -राजवार्तिक, ६,१२
-भाष्यवृत्ति ६,४६, पृ०२८६ धर्मप्रणिधाना क्रोधनिवृत्तिर्मनोवाकायैः शांतिः । इसी प्रकारके और भी बहुतसे अवतरण दिये
-भाष्यवृत्ति, ६, १३ जा सकते हैं, जिन्हें लेखवृद्धिके भयसे यहाँ छोड़ा धाष्टय प्रायमसंबद्धबहुप्रलापित्वं मौखर्यम् । जाता है । हाँ, एक बात और भी यहाँ प्रकट कर
, -राजवार्तिक, ७, ३२ देने की है और वह यह कि ५वें अध्यायके 'द्वयधिधाष्टय प्रायमसभ्यासम्बद्धबहुप्रतापित्वं मौखर्यम् । कादिगुणानां तु सूत्रकी व्याख्या करते हुए पूज्यपाद
-भाष्यवृत्ति, ७, २७ और अकलंकने "णिद्धस्स गिद्धेण दुराधिएण" राजवातिककी लाक्षणिक पंक्तियों के अतिरिक्त इत्यादि गाथा 'उक्तं च'रुपसे उद्धृत की है । सिद्धसेन उसके कार्तिकोंकी अन्य व्याख्याको भी कहीं कहीं ने भी इसी सूत्रके भाष्यकी वृत्ति लिखते हुये उक्त पर अपनाया गया है जिसके कुछ उदाहरण निम्न गाथाको उद्धृत किया है और उसे पूर्वके तीन प्रकार है :
सूत्रोंकेसाथ इस सूत्रको लेकर 'सूत्र चतुष्टयार्थक .. पाचो द्वेधा आदिमदनादिविकल्पात् ॥११॥ बतलाया है । परन्तु हरिभद्रने ऐसा न करके इससे श्राद्यो वैखसिको बंधो द्विधा भिद्यते । कुतः आदिमद- पहले सूत्रको वृत्तिमें ही उक्त गाथाको उद्धृत किया नादिमद्विकल्पात् । तत्रादिमान स्निग्धरूलगुणनिमित्त- है। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि सिद्धसेनको विधुदुल्काजलधारा नींद्रधनुरादिविषयः । अनादिरपि इस विषय में आचार्य हरिभद्र का क्रम पसन्द नहीं वैनसिकबंधो धर्माधर्माकाशानामेकशः त्रैविध्यानव रहा किन्तु दिगम्बरीय व्याख्याओंका क्रम ठीक विधः।
___ जचा है और इसीसे उन्होंने उसका अनुकरण
-राजवार्तिक, ५, २४ किया है। विस्रसः स्वभावः प्रयोगनिरपेक्षो विस्त्रसाबन्धः, ऊपरके इन सब अवतरणों तथा इसी प्रकारके स द्विधा आदिमदनादिमभेदात्,तत्रादिमान् विद्युदुल्का दूसरे अवतरणोंमें भी ध्यान खींचने वाला जो जलधराग्नीन्द्रधनुःप्रभृतिर्विषमगुणविशेषपरिणतपरमाणु भारी सादृश्य पाया जाता है उसे यों ही आकस्मिक
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६३४
अनेकान्त
नहीं कहा जा सकता । वह स्पष्ट बतला रहा है कि एक विद्वानके सामने दूसरे विद्वानका ग्रन्थ जरूर रहा है । सर्वार्थसिद्धिकार और राजवार्तिककार के सिद्धसेन से पूर्ववर्ती होने की हालतमें, जैसा कि ऊपर सिद्ध किया जा चुका है, यह अवश्य कहना होगा कि सिद्धसेन के सामने सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक दोनों ग्रंथ रहे हैं और उन्होंने अपनी भाष्यवृत्ति में उनका कितना ही उपयोग तथा अनुसरण किया है । और इसलिये नाम-धाम-विहान समान विरासत के किसी ऐसे टीका ग्रंथकी कल्पना करना जिस पर से पूज्यपाद, अकलंक और सिद्धसेन तीनोंने ही अपनी अपनी टोकाओं में उक्त प्रकार के कथनों को अपनाया होगा उस वक्ततक कोरी कल्पना ही कल्पना कहा जायगा जब तक कि उसका कोई स्पष्ट उल्लेख न बतलाया जावे अथवा तद्विषयक किसी पुष्ट प्रमाण और अनुसन्धान को सामने रक्खा जाय । मात्र यह कह देना कि सिद्धसेनने यदि सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिकको देखा होता तो वे इनमें वर्णित श्वेताम्बर - भिन्न दिगम्बर मान्यताओं का खंडन किये बिना, संतोष धारण नहीं कर सकते थे, इसके लिये कोई पर्याप्त नहीं है । दूसरे ग्रन्थोंको देखना और उनका यथावश्यकता अपने ग्रंथ में उपयोग करना एक बात है और दूसरे के किसी मन्तव्यका खंडन करना बिल्कुल दूसरी बात है । दूसरे ग्रंथोंको देखकर उनका उपयोग करने वाले के लिये यह कोई लाज़िमी नहीं कि वह दूसरेके मन्तव्यका खंडन भी जरूर करे, चाहे वह कैसी ही प्रकृतिका क्यों न हो। ग्रंथ अनेक पढ़ते हैं
+ यह कल्पना पं० सुखलालजीने तत्त्वार्थसूत्रकी अपनी हिन्दी टaarat प्रस्तावना में की है ।
[ भाद्रपद वीर निर्वाण सं० २४६६
परन्तु खण्डन कोई कोई ही किया करता है । खण्डन के लिये दूसरी भी अनेक बातों तथा सहायक सामग्री की आवश्यकता होती है, जिनके अभाव में अथवा अधुरेपनमें खण्डन नहीं बन सकता, और यदि खण्डन किया भी जाता है तो वह प्रायः उपहास - जनक होता है । सिद्धमेन यदि इस प्रकार के खण्डन कार्य में अधिक पड़ते और दिगम्बरों के साथ ज्यादा उलझते तो वे उस लक्ष्यसे दूर जा पड़ते और उसे वर्तमान रूपमें पूरा न कर पाते जो भाष्यको श्वेताम्बरीय आगमके साथ संगत बनानेका उनका रहा है । उस धुनमें वे सब कुछ भुला सकते हैं। फिर भी ऐसा नहीं है कि सर्वार्थसिद्धि तथा राजवार्तिककी मान्यताओं का कोई aण्डन उन्होंने किया ही न हो - यथावश्यक कुछ खण्डन तथा आलोचन जरूर किया है; चनाँचे पं० सुखलालजी भी अपनी उक्त प्रस्तावना में लिखते हैं- "सिद्धसेनीय वृत्ति दिगम्बरीय सूत्र पाठ विरुद्ध कहीं कहीं समालोचना दिखाई देती है।... तथा कहीं कहीं सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक में दृष्टिगोचर होने वाली व्याख्याओंका खंडन भी है।" ऐसी हालत में पंडित सुखलाल जीका उक्त कथन भी कोरी कल्पना ही कल्पना जान पड़ता है।
ऊपरके सम्पूर्ण विवेचन परसे, मैं समझता हूँ, सहृदय पाठकों को इस विषय में कोई सन्देह नहीं रहेगा कि सिद्धसेन गणो के सामने सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक दोनों ग्रंथ मौजूद थे तथा उन्होंने अपनी भाष्यवृत्ति में इनका यथेष्ट उपयोग किया है । और इसलिये पं० सुखलालजीने इस सम्बन्ध में जो कल्पनाएँ की हैं वे समुचित नहीं हैं ।
वीर सेवा मन्दिर, सरसावा, ता० १० ८ - १९४०
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गोम्मटसार कर्मकाण्डकी त्रुटिपूर्तिपर विचार
[ ले०-प्रो० हीरालाल जैन एम.ए. एलएल. बी. ]
चाराचार्य नेमिचन्द्रकृत कर्मकाण्डके सम्बन्धमें पं०पर- अपने ग्रंथमें यथास्थान रखी थीं तो क्या पश्चात्के
- मानन्दजी शास्त्रीने अनेकांत,वर्ष ३,किरण ८-९ लिपिकारों के प्रमादसे छुट गई, या टीकाकारोंने उन्हें में एक लेख लिखा है, जिसका सारांश यह है- जान बूझ कर छोड़ दिया ? यदि लिपिकारों के प्रमादसे
श्राचार्य नेमिचन्द्र-विरचित कर्मकाण्डके अनेक वे छुट गई होती तो टीकाकार अवश्य उस ग़लतीको प्रकरण व संदर्भ अपने वर्तमान रूपमें 'अधूरे और लंडुरे' पकड़ कर उन गाथाओं को यथास्थान रख देते, और हैं। उन्हीं प्राचार्य द्वारा विरचित एक दूसरा ग्रंथ प्राप्त यदि वे प्रसंगके लिये अत्यन्त आवश्यक थीं तो वे जान हुआ है। जिसका नाम 'कर्म प्रकृति' है । इस कर्म- बझकर तो उन्हें छोड़ ही नहीं सकते थे । इस ग्रंथकी प्रकृतिकी १५६ गाथाओंमें से ८४ गाथायें कर्मकाण्डमें टीकाओं की परम्परा स्वयं उसके कर्ताके जीवन कालमें मौजूद ही हैं । शेष ७५ गाथाओंको भी कर्म-काण्डमें ही, ग्रंथकी रचनाके साथ ही साथ प्रारम्भ हो गई थी। जोड़ देनेसे उसका अधूरापन दूर हो जाता है । ये ७५ कर्मकाण्डकी गाथा नं. ९७२ में प्राचार्य स्वयं कहते गाथायें संभवतः किसी समय कर्म काण्डसे छुट गई हैं कि गोम्मटसूत्र ( गोम्मटसार) के लिखते ही वीरअथवा जुदा पड़ गई । अतएव जो सजन अब कर्मकाण्ड मार्तण्ड राजा गोम्मटराय ( चामुण्डराय ) ने उसकी को फिरसे प्रकाशित कराना चाहें वे उसमें उन ७१ कर देशी (टीका) डाली थी । यथागाथाओंको यथास्थान शामिल करके ही प्रकाशित करें। गोम्मट सुत्तल्लिहणे गोम्मटरायेण जा कया देसी । ____ इस मतमें तीन बातें मुख्यतः विचारणीय ज्ञात सो राओ चिरकालं णमेण य वीरमत्तंडी। होती हैं
इसके कोई तीन सौ वर्ष पश्चात् केशववर्णीने १. कर्मकाण्डमें से ७५ गाथाओंका छुट जाना या गोम्मटसार वत्ति कनदी में लिखी। फिर कर्नाटकवृत्तिके जुदा पड़ जाना कब और कैसे सम्मव हो सकता है ? प्राधारसे संस्कृत टीका रची गई । इन टीकाभों में
२. उन गाथाओंके न रहनेसे कर्मकाण्डके उन चामुण्डरायकृत 'देशी' का आश्रय लिया जाना प्रकरणोंकी अवस्था क्या है, तथा उन गाथाओंको अनुमान किया जा सकता है । संस्कृत टीकाके निर्माणमें जोड़ने से क्या अवस्था व विशेषता उत्पन्न होती है ? अनेक बहुश्रुत अनुरोधकों, सहायकों और संशोधकोंका
३. कर्मप्रकृति ग्रन्थ किसका बनाया हुआ है, और हाथ बतलाया जाता है । साङ्ग और सहेस नामक उसका कर्मकाण्डसे क्या सम्बन्ध है ?
साधुओंकी प्रार्थनासे धर्मचन्दसूरि, अभयचन्द्र गणेश, १. यदि उक्त ७५ गाथायें कर्मकाण्डके रचयिताने लाला वर्णी, आदि विद्वानोंके लिये यह टीका लिखी
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: अनेकान्त
[भाद्रपद, वीर निर्वाण सं०२४६६
गई थी। त्रिविद्य-विद्या विख्यात विशालकीति सूरिने ५० फुलचन्द्रजी शास्त्री व पं० हीरालालजी शास्त्रीके उस कृतिमें सहायता पहुँचाई और सर्वप्रथम उसका साथ किया, जिसका निष्कर्ष निम्न प्रकार पाया गया। चावसे अध्ययन किया, तथा निग्रंथाचार्यवर्य त्रैविद्य- कर्मकाण्डकी नं० ११ को गाथा में दर्शन ज्ञान व चक्रवर्ती अभयचन्द्रने उसका संशोधन करके प्रथम सम्यक्त्वका स्वरूप बतलाया गया है, और उसके पुस्तक लिखी । यथा
अनन्तर १६वीं गाथामें उन्हीं जीव गुणोंका क्रम श्रित्वा कार्णाटिकी वत्ति वणि श्रीकेशवैः कृतिः (तिम्?) निर्दिष्ट किया गया है। अब इन दोनों गाथाओं के बीच कृतेयमन्यथा किचित् विशोध्यं तद्बहुश्रतैः ॥ "मियअस्थि' आदि सप्त भंगियोंके नाम गिनाने वाली
विद्यविद्याविख्यातविशालकीर्तिसूरिणा । कर्मप्रकृतिको १६ गाथा डाल देनेसे ऐसा विषयान्तर सहायोऽस्यां कृतौ चक्रेऽधीता च प्रथमं मुदा ॥ हो जाता है जिसकी सार-ग्रंथों में गुंजायश नहीं। सूरेः श्रीधर्मचन्द्रस्या भयचन्द्रगणे शनः । परिपूर्णताकी दृष्टिसे तो यह भी कहा जा सकता है कि वणिलालादि भव्यानां कृते कर्णाटवृत्तितः ॥ नयोंके नाम गिना देने मात्रसे क्या हुआ, उनके लक्षण रचिता चित्रकूट श्रीपार्श्वनाथालयेऽमुना। भी बतलाना चाहिये था पर यहाँ प्राचार्य न्यायका साधु साङ्ग सहेसाभ्यां प्रार्थितेन मुमुक्षुणा ॥ ग्रन्थ तो रच नहीं रहे । उन्होंने ११ वी गाथामें ज्ञान निग्रंथाचार्यवर्येण त्रैविद्यचक्रवर्तिना। और दर्शनका सप्त भंगियोंसे निर्णय कर लेने मांत्रका संशोध्याभयचन्द्रेणालेखि प्रथमपुस्तकः ॥ उल्लेख कर दिया है, जो हां यथेष्ट है। वहां सप्त
जहां यह टीका रची गई थी वह सम्भवतः वही भंगियों के नाम गिनवानेको कोई आवश्यकता प्रतीत चित्रकूट था जहाँ सिद्धान्ततत्वज्ञ एलाचार्यने धवला नहीं होती। टीकाके रचयिता वीरसेनाचार्यको सिद्धान्त पढाया था। कर्मकाण्डकी २० वीं गाथामें पाठ कर्मोंको नाम ऐसी परिस्थितिमें यह संभव नहीं जान पड़ता कि उक्त निर्देश किया गया है और २१ वी गाथामें उदाहरणों टीकाके निर्माण कालमें व उससे पूर्व कर्म काण्डमें से द्वारा उन आठोंका कार्य सूचित किया गया है। इन उसकी आवश्यक अंग भूत कोई गाथायें छूट गई हों या दोनों गाथाओंके बीच जीव प्रदेशों और कर्मप्रदेशोंके जुदी पड़ गई हों।
सम्बन्ध आदि बतलाने वाली कर्म प्रकृतिको २२ से २६ २. कर्मकाण्डके 'अधूर व लंडूरेपन' के पांच विशेष तककी पांच गाथायें न रहनेसे विषयकी संगतिमें कोई स्थल विद्वान लेखकने बतलाये हैं जो प्रकृति समुत्कीर्तन त्रुटि तो नज़र नहीं आती, प्रत्युत उन गाथाओंके डाल नामक प्रथम अधिकारकी २२ वीं और ३१ वीं गाथाओं देनेसे विषय साकांक्ष रह जाता है; क्योंकि कर्मप्रकृति अर्थात् नौ गाथाओंके भीतरके हैं। इनके अतिरिक्त और की २६ वीं गाथा प्रकृति आदि बंधके चार प्रकारके भी कुछ स्थल ऐसे बतलाये गये हैं जहां कर्म प्रकृतिको नाम निर्देशके साथ समाप्त होती है । उस क्रमसे तो गाथाओंको समाविष्ट करनेकी श्रावश्यकता लेखकको फिर आगे चारों प्रकारके बन्धोंका क्रमसे विवरण दिया प्रतीत हुई है। मैंने इस महत्वपूर्ण विषयका विचार जाना चाहिये था; किन्तु वहां आठ कर्मोंके कार्योंके कर्मकाण्डकी प्रतिको सामने रखकर अपने सहयोगी उदाहरण दिये गये हैं । इस प्रकार वर्तमान रूपमें
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वर्ष ३, किरण ११]
गोम्मटसार कर्मकाण्डकी त्रुटि पूर्ति पर विचार
कर्मकाण्डकी २० वीं और २१ वीं गाथायें सुसंगत जान कर छोड़ दिया है। उनका अभिप्राय केवल उन प्रतीत होती हैं । उनके बीच उक्त पांच गाथायें डालने भेद-प्रभेदोंका वर्णन कर देना रहा है जिनमें उन्हें कुछ से उनमें व्युत्क्रम उत्पन्न होता है।
विशेषता दिखाई दी और जिनकी ओर पाठकोंका ध्यान कर्मकाण्डकी आठ कर्मों के उदाहरण देने वाली २१ आकर्षित करना उन्हें आवश्यक जंचा । ज्ञानावरण वीं गाथाके पश्चात् २२ वीं गाथामें उन पाठों कर्मोकी और दर्शनावरणके भेद-प्रभेदोंका ज्ञान जीव काण्डमें उत्तर प्रकृतियोंकी संख्याका क्रमिक निर्देष किया गया भी कराया जा चुका है, जहां कर्म प्रकृतिकी इन्हीं १२ है जो बिल्कुल सुसंगत है । उनके बीचमें कर्म प्रकृतिकी गाथाओं में से है गाथायें प्राचुकी हैं। उन सबकी यहां
आठ कर्मोंके स्वभाव विषयक दृष्टान्तोंको स्पष्ट करके पुनरावृत्ति करनेकी अपेक्षा प्राचार्यने केवल उन स्थलों बतलाने वाली २८ से ३५ तककी आठ गाथाओंकी पर अपनी अंगुली रखी है जिनका ज्ञान उस सामान्य कोई विशेष आवश्यकता दिखाई नहीं देती, खास कर प्ररूपणसे नहीं हो सकता था । निद्रादिके लक्षण इसी जबकि उनके दृष्टान्त आचार्य २१ वी गाथामें दे चुके प्रकारके हैं और इसलिये मात्र उन्हींका यहाँ वर्णन हैं । ये पाठ गाथायें २१ वी गाथाके स्पष्टीकरणार्थ टीका करना प्राचार्यने उचित समझा । इसमें कोई त्रुटि रूप भले ही मान ली जावें, किन्तु सार ग्रन्थके मूलपाठ न्याल करना अनावश्यक है। में उनकी गुंजाइश नहीं दिखाई देती।
ठीक यही बात कर्मप्रकृतिकी उन दो गाथाओं ___ कर्मकाण्डकी २२ वीं गाथामें उत्तर प्रकृतियोंकी और १४ गाथाओं व ४ गाथाओंके विषयमें कही जा क्रमिक संख्या बता देने के पश्चात् २३ वी गाथासे एक सकती है जिनको क्रमशः कर्मकाण्डकी २५ वीं, २६ दम पांच निद्राओंका कार्य प्रारम्भ हो जाता है। यह वीं और २७वीं गाथाके पश्चात् रख देनेकी तजवीज की एक विशेष स्थल है जहां पं० परमानन्दनीको कर्मकाण्ड गई है । यथार्थतः उनसे सिवाय नाम निर्देष और की त्रुटि बहुत खटकी है, क्योंकि उनके मतानुसार सामान्य स्वरूप ज्ञानके कोई नया प्रकाश नहीं मिलता। विषयको पूरा और सुसंगत बनाने के लिये यहां उत्तर उनमें से सात गाथायें जीवकाण्डमें आ भी चुकी हैं । प्रकृतियोंके नाम व स्वरूपका क्रमशः वर्णन होना चाहिये दर्शन मोहनीयमें बंध मिथ्यात्वका और उदय तथा था और उसीमें निद्राका यथास्थान विवरण आता तब सत्त्व तीनोंका रहता है, अतः शेष दो प्रकृतियोंका ठीक था। इसी कमीकी ये कर्म प्रकृतिकी ३० से ४८ अस्तित्व कैसे हो जाता है, इस विशेषताका ज्ञान तककी १२ गाथाओं द्वारा पूर्ति करते हैं । इस सम्बन्धमें करानेके लिये कर्मकाण्डमें गाथा नं० २६ निबद्ध कर्मकाण्डकी रचनाकी विशेषताकी ओर हमारा ध्यान की गई है, तथा पाँच शरीरोंसे संयोगी भेद कैसे बन जाता है, और सारे ग्रन्थको देखते हुये हमें ऐसा प्रतीत जाते हैं, इस विशेषताको बतलानेके लिये गाथा नं. होता है कि यहां तथा आगामी त्रुटि पूर्ण नंचने वाले २७ रखी गई है । नामकर्मकी प्रकृतियोंमें अंग और स्थलों पर कर्ताका विचार स्वयं प्रकृतियोंके भेदोपभेदों उपांगका भेद किस प्रकार हुआ इस विशेषताको गिनानेका नहीं था । वह सामान्य कथन या तो उनकी दिखाने वाली गाथा नं० २८ रखी गई है। शेष भेदरचनामें आगे पीछे आचुका है,या उन्होंने उसे सामान्य प्रभेद तो सामान्य हैं, अतः जान बूझकर भी वे यहाँ
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रचयिता द्वारा ही छोड़े जा सकते हैं
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कर्मकाण्डकी २१ से ३२ तककी गाथानों में किस संहननसे जीव किस गतिमें जाता है, इसका विवरण दिया गया है; और केवल उन्हीं बातोंको बतलाया गया है जिनके समझने के लिये बंधादि अधिकार पर्याप्त नहीं हैं। यहाँ मनुष्यों और तियंचों के किन संहननों का उदय होता है, इसके बतलाने की तो आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि उदय प्रकरणकी गाथा नं० २१४ से ३०३ तककी गाथाओं में तिर्यंचों और मनुष्योंके उदय, अनुदय और उदयव्युच्छित्तिरूप जो प्रकृतियाँ बतलाई गई हैं उसीसे किस तियंचके या मनुष्यके कितने संहनन होते हैं, इसका भी पता लग जाता है । नं० २६५ से २७२ तककी गाथाओं में जो गुणस्थानोंकी
उदयादिका कथन किया गया है, उससे किस गुणस्थान तक कितने संहनन होते हैं; इसका भी पता लग जाता है। क्षेत्र की दृष्टिसे भोगभूमि के क्षेत्रों में पहला संहनन होता है, इसका पता ३०२ और ३०३ नं० की गाथा से लग जाता है और पारिशेष न्याय से यह भी समझ में आ जाता है कि कर्म भूमिमें सभी संहनन होते हैं । इसी क्षेत्र व्यवस्थाके ऊपरसे काल-व्यवस्था भी समझ आ जाती है। अतएव कर्मप्रकृतिकी ७५ से ८२ तककी श्रठ व ८६ से ८ह तककी चार गाथाओं के यहाँ न रहनेसे कर्मकाण्ड में कोई त्रुटि नहीं रहती। संहननोंका उन गतियोंसे संबंध उपर्युक्त प्रकरणों से नहीं जाना जा सकता था, अतएव उस विशेषताको बतलाना यहाँ श्रावश्यक था ।
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अनेकान्त
[ भाद्रपद, वीर निर्वाण सं० २४६६
किन्तु कर्मप्रकृतिकी गाथा नं० ७५ में दो प्रकार की विहायोगति भी गिना दी गई हैं, जिससे वहाँ शरीरसे लगाकर स्पर्श तककी संख्या १२ हो गई है । sa यदि इन गाथाओं को हम कर्मकाण्ड में रख देते हैं, तो गाथा नं० ४७ के वचन से विरोध पड़ जाता है । इससे सुस्पष्ट है कि कर्मकाण्ड के रचयिताकी दृष्टिमें इन गाथाओं का क्रम नहीं है टीकाकारने भी विहायोगति के दो भेदोंको छोड़ कर ही पचास भेद गिनाये हैं । tara इन गाथाओं को कर्मकाण्ड में रख देना उसमें पूर्वापर विशेष उत्पन्न कर देना होगा ।
कर्मकाण्डकी गाथा नं० ३३ में श्राताप चौर उद्योत नामकी प्रकृतियोंके उदयका नियम बतलाया गया है जो अपनी विशेषता रखता है। शेष प्रकृतियों में ऐसी कोई उल्लेखनीय विशेषता नहीं है । अतएव कर्म प्रकृतिकी नं ० ८१ से १५ तककी पाँच तथा १७ से १०२ तककी छह गाथाओं के रहने न रहनेसे कोई बड़ा प्रकाश व अन्धकार नहीं उत्पन्न होता। यही बात कर्मप्रकृतिकी शेष १५३ से १५७ तककी पाँच गाथाथोंके विषय में कही जा सकती है, जिनमें केवल तीर्थंकर प्रकृतिका बंध कराने वाली षोडश भावनाओं के नाम गिनाये गये हैं और जिन्हें कर्मकाण्डकी गाथा नं. ८०८ के पश्चात् जोड़ने की तजवीज की गई है।
प्रसंगवश यहाँ कर्मप्रकृतिकी एक गाथाके पाठ व उसके अर्थका भी स्पष्टीकरण अनुपयुक्त न होगा । गाथा नं० ८७ में 'मिच्छा पुण्व दुगादिसु' के स्थान पर
कर्मव श्रागे संख्याक्रम से सामंजस्य बैठाने के लिये 'मिच्छा पुण्व - खवादिसु' ऐसा संशोधन पेश किया । किन्तु इस संशोधन के बिना ही उस गाथा का अर्थ बैठ जाता है और संशोधित पाठसे भी अच्छा बैठता है वहाँ पूर्वद्विकादिले अपूर्वादि उपशम श्रेणी
गया
एक बात और विशेष ध्यान देने योग्य है । कर्मकाण्डकी गाथा नं० ४७ में स्पष्ट कहा गया है कि देहसे लगाकर स्पर्श तक पचास कर्मप्रकृतियाँ होती हैं— 'देहादी फासंतापणासा ।
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गोम्मटसार कर्मकाण्डकी त्रुटि पूर्ति पर विचार
वर्ष ३, किरण ११]
के चार और अपूर्वादि चपक श्रेणी के पाँच गुणस्थानों का अभिप्राय है, जो सुसंगत बैठता है । खवादि पाठ कर लेनेसे तो विसंगति उत्पन्न हो जाती है, क्योंकि अपूर्वादिको छोड़कर तो खवादि पाँच गुणस्थान हो नहीं सकते ?
३. अब हम इस विषयकी तीसरी विश्वारणीय बात पर ध्यान देंगे। क्या कर्मप्रकृति ग्रंथ गोम्मटसारके रचयिताका ही बनाया हुआ है ? पं० परमानन्दजी ने इस विषय पर विशेष कोई प्रकाश डालनेकी कृपा नहीं की। उन्होंने उस ग्रन्थ के विषय में निश्चयात्मक रूप से केवल यह कह दिया है कि "हालमें मुझे श्राचार्य नेमिचन्द्र के कमंप्रकृति नामक एक दूसरे ग्रन्थका पता चला है" । पर उन्होंने यह नहीं बतलाया कि इस ग्रन्थके कर्तृत्वका निश्चय उन्होंने किस प्रकार, किन
धारों पर किया है । क्या गोम्मटसारकी अधिकाँश गाथायें उसमें देखकर उसे नेमिचन्द्राचार्य रचित कहा है या उनकी देखी हुई प्रतिमें कर्ताका नाम नेमिचन्द्र दिया है ? यदि प्रतिमें कर्ताका नाम यह दिया हुआ हुआ है तो क्या वे गोम्मटसारके कर्तासे भिन्न कोई आगे पीछेके संग्रहकार नहीं हो सकते ? नेमिचन्द्र नामके और भी मुनियों व श्राचार्यों का उल्लेख मिलता है । यदि वह कृति गोम्मटसारके कर्ता ही है तो वह अब तक प्रसिद्धि में क्यों नहीं आई? क्या किन्ही ग्रन्थकारों या टीकाकारोंने इस ग्रंथका कोई उल्लेख किया है ? इत्यादि अनेक प्रश्न
उस कृतिके सम्बन्ध में उत्पन्न होते हैं, जिनका समाधान करना उसकी गाथाओंोंको कर्मकाण्ड में समाविष्ट कराने की तजवीज से पूर्व अत्यन्त आवश्यक था । हमें ऐसा प्रतीत होता है कि वह 'कर्मप्रकृति' एक पीछे का संग्रह है, जिसमें बहु भाग गोम्मटसारसे व कुछ गाथायें अन्य इधर उधरसे लेकर विषयका सरल विद्यार्थी - उपयोगी परिचय करानेका प्रयत्न किया गया है। उसकी गोम्मटसारके अतिरिक्त गाथाओंकी रचना शैली आदिकी सूक्ष्म जाँच पड़ताल से भी सम्भव है कुछ कर्तृत्व के सम्बन्ध में सूचना मिल सके । यदि पर्याप्त छान बीन के पश्चात् वह ग्रंथ सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमिचन्द्रकी ही रचना सिद्ध हो तो यह मानना पड़ेगा कि उसे श्राचार्यने कर्मकाण्ड की रचना के लिये प्रथम ढांचा रूप तैयार किया होगा । फिर उसकी सामान्य नाम व भेद प्रभेद आदि निर्देशक गाथाओंको छोड़ कर और उपयुक्त विषयका विस्तार करके उन्होंने कर्मकाण्डकी रचना की होगी ।
इस प्रकार न तो हमें कर्मकांड में अधूरे व लंडूरेपन का अनुभव होता है, न उस में से कभी उतनी गाथाथों के छुट जाने व दूर पड़ जानेकी सम्भावना जँचती है, और न कर्मप्रकृतिके गोम्मटसारके कर्ता द्वारा ही रचित होने के कोई पर्याप्त प्रमाण दृष्टिगोचर होते हैं । ऐसी अवस्था में उन गाथाओं के कर्मकांड में शामिल कर देनेका प्रस्ताव हमें बड़ा साहसिक प्रतीत होता है ।
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जैनदर्शनमें मुक्ति-साधना
[ले० श्री अगरचन्द नाहटा,-सम्पादक "राजस्थानो”]
भारतीय समग्र दर्शनोंमें जैन दर्शनका भी महत्त्वपूर्ण स्वीकार किया है । गीतामें समत्व के विषय में बहुत
स्थान है, तत्व ज्ञानका विचार इस दर्शनमें बड़ी सुन्दर विवेचन पाया जाता है । एवं कर्मफल की ही सूक्ष्मतासे किया गया है । प्राचारोंमें 'अहिंसा' और आसक्तिका स्याग अर्थात् अनासक्तयोगको प्रधानता विचारोंमें 'अनेकान्त' इस दर्शनकी खास विशेषता है। दी है। इन दोनों साधनोंके विषय में गीता और जैन इस लेखमें जैनदर्शनानुसार जीव और कर्मका स्वरूप दर्शनकी महती समानता व एकता है। एवं सम्बन्ध बतलाकर मुक्ति और उसकी साधनाके जीवसे कर्मका सम्बन्ध कबसे और क्यों है ? कहा विषयमें विचार किया जायगा।
नहीं जा सकता, क्योंकि वह राग द्वेष-रूप विकारी अनादि-अनन्त संसार चक्रमें जीव और अजीव दो परिणामों या भावोंसे होता है; यह ऊपर कहा ही जा मुख्य पदार्थ हैं। चैतन्य-लक्षण-विशिष्ट जीव और चुका है; पर वह स्वर्ण और मिट्टीके सम्बन्धके सदृश अचेतन-जड़-स्वरूप अजीव है। जीव असंख्यात् प्रदेश अनादिकालसे है, इतना होने पर भी जैसे स्वर्णको वाला, शाश्वत, अरूपी पदार्थ है, उसके मुख्य दो मिट्टीसे अलग किया जा सकता है, उसी प्रकार भेद हैं 'सिद्ध' और संसारी। सिद्धावस्था जीवका शुद्ध श्रात्मारूप स्वर्णसे कर्म-मिट्टी अलगकी जा सकती है, स्वरूप है, और संसारी अवस्था कर्म-संयोग जन्य और इस कार्यमें जो जो बातें सहायक है उन्हें ही 'साधन' अर्थात् विकारी अवस्थाका नाम है । दृश्यमान पदार्थ कहते हैं एवं साधनोंका व्यवहारिक उपयोग ही 'साधना' सारे पुद्गल द्रव्यके नानाविधरूप हैं । जब श्रात्मा अपने कही जाती है । साधना करने वाला ही 'साधक' कहा स्वरूपसे विचलित होकर या भूलकर पुद्गल द्रव्य जाता है, और साधनाके चरम विकाश अर्थात् इष्ट फल अर्थात् पर पदार्थोकी ओर प्रवृत्त होता है, भ्रमसे उन्हें प्राप्तिको 'सिद्धि' कहते हैं । अपना मान लेता है या उन पर आसक्त हो जाता है, जीवके विकारी भावोंकी विविधता एवं तरतमताके तभी अात्मामें राग भावका उदय होता है, राग-से कारण कर्म भी विविध प्रकारके होते हैं, अतः उनके द्वेष उत्पन्न होता है, और इन राग-द्वेषरूप विकारी फलोंमें भी विविधता होना स्वाभाविक है । इसी विविधता भावोंसे आत्माके साथ कर्म पुद्गलोंका संयोग सम्बन्ध के कारण जीवोंमें पशु, पक्षी, मनुष्य, देव नारक भेद हो जाता है । राग-द्वेषरूप चिकनाहटके अस्तित्वमें और उनमें भी फिर अनेक प्रकार कहे जाते हैं । कोई कर्मरज आकर जीवके साथ चिपट जाती है । जहाँ राजा, कोई रंक, कोई । 'डित कोई मूर्ख, कोई अल्पायु राग और द्वेष नहीं है, वहाँ पर पुद्गलोंके हज़ारों रूप कोई दीर्घायु, कोई रोगी कोई निरोगी कोई सुखी कोई सन्मुख रहने पर भी कर्म-बन्धन नहीं होता । इसीलिये दुखी इत्यादि असंख्य प्रकारकी तरतमता और विविधता साधनामें समभावका महत्व सभी आस्तिक दर्शनोंने नज़र आती है । वास्तवमें ये सारे खेल जीवके अपने ही
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वर्ष ३, किरण ११ ]
ज्ञात या अज्ञात रूपसे अर्जित कर्मोंके फल हैं। जिस प्रकार जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, अर्थात् कर्म फलका प्रदाता ईश्वर नहीं है फल तो स्वाभाविक रूप से प्राप्त हो जाते हैं । जिस प्रकार एक व्यक्ति मदिरा पान करता है तो वस्तु स्वभावके गुणसे नशेका श्राना स्वाभाविक प्रत्येक भांति पदार्थ अपने अपने गुणों की अपेक्षा सत् है, कस्तूरी में गर्मी है अतः उसे खाते ही शरीर में गरमी अपने आप आ जाती है, जैसी वस्तु खाते हैं उसके गुण-दोष शरीरमें स्वाभाविक रूपसे अनुभूत होते हैं। देश काल, परिस्थिति, जल-वायु सारे पदार्थों के गुण दोष स्वाभाविक रूप से ही अनुभूत होते रहते हैं, उसी प्रकार कर्मका भी जीवके साथ जैसे रूप-स्वभावमें बंध होता है, उससे उन कर्मोंमें तदनुरूप फल प्रदानकी शक्ति उत्पन्न होती है, और जब जिस कर्मका उदय होता है, तब वह अपने स्वभावानुसार फल उत्पन्न करता है ।
यह तो हुई जीव कर्मके सम्बंधकी बात, अब यह सम्बन्ध किस प्रकार से अलग हो सकता है उस पर विचार करना है । जीवके साथ कर्मके सम्बन्ध होने के जितने भी मार्ग हैं जैन दर्शन में उन्हें 'आसव' तत्व कहते हैं और कर्म आनेके मार्गोंका विरोध 'संवरतत्व' कर्मोंसे सम्बन्ध हो जाना 'वन्ध तत्व' जिन कर्मों द्वारा जीवसे कर्म विनास होते हैं; उसे 'निर्जर - तत्व' और सम्पूर्ण रूप से स्वाभाविक अवस्था प्राप्त कर लेना अर्थात् कर्मोंसे मुक्ति हो जाना 'मोक्षतत्व' है । इस प्रकार जीव और जीव दो मुख्य तत्वोंके साथ इन पाँच तत्त्वोंको जोड़ देनेसे तत्त्वोंकी संख्या ७ हो जाती है । कहीं कर्म व तत्त्व के विशेष स्पष्टीकरण के लिये पुण्य और पाप इन दोनों को पृथक् तत्त्व माना गया है, इससे नव तत्त्व कहे गये हैं । इनमेंसे हमें साधना मार्ग में तीन तत्वों की जानकारी परमावश्यक है, अतः
जैन दर्शन में मुक्ति-साधना
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उनका स्वरूप दृष्टान्त द्वारा नीचे समझानेका प्रयत्न किया जाता है ।
एक सुन्दर सरोवर में जल भरा हुआ है, समय समय पर उसमें नवीन जल श्रोता रहे और वह परि पूर्ण भरा रहे । इसके लिये जलागमनके कई मार्ग रखे जाते हैं। जब हमें उस सरोवरको जलसे खाली करना होता है । तो प्रथम जलके श्रानेके मार्गको बन्द कर देते हैं और पुराने जलको गरमी द्वारा शोषण करके या ऐंच कर निकाल डालना पड़ता है; जब ऐसी क्रिया की जाती है अर्थात् नवीन जल नहीं आने दिया जाता और पुराने जलको बाहर फेंक दिया जाता है, तभी वह खाली हो सकता है। यदि नवीन जल श्रनेके मार्ग बन्द नहीं किये जाते तो चाहे कितना ही प्रयास क्यों न करें सरोवर कभी खाली नहीं हो सकता । इधर जल निकालते जायेंगे, उधर भरता रहेगा । फलतः
- सिद्धि नहीं होगी । इसी प्रकार जीवरूप सरोवर में कर्मरूप जल भरा है; जब हमें जीवको कर्मोंसे मुक्त करना है, तो श्रावश्यक है कि हम कर्मके आने के मार्गों रूप श्रास्रव द्वारोंको रोकें, और पूर्व बँधे हुये कर्मोंको तप-संयमादिके द्वारा बाहर निकाल कर फेंक दें या शोषित करदें | इससे नये कर्मोंका बँध होगा नहीं और पूर्वके कर्म भोगकर या तपादि सद्नुष्ठानोंसे नष्ट कर देने पर जीवकी मुक्ति होना अनिवार्य एवं स्वाभाविक है
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जैनदर्शनकी साधन प्रणालियें
अब यहाँ यह बतलाना आवश्यक है कि कर्मों के आगमनके मार्ग स्रव द्वार कौन कौनसे हैं, कैसे उनको रोका जाता है व पूर्व संचित कर्मोंका शोषण किस प्रकार हो सकता है ? इन बातों की जानकारी व उसके अनुसार आचरण करना ही साधना है ।
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..अनेकान्त .
[भाद्रपद, वीर निर्वाण सं० २४६६
पानवद्वार-प्रधान १ राग और २ द्वेष
३ एषणा समिति-जीवन-यात्रामें श्रावश्यक ५ इन्द्रियाँ-कान, नाक, आँख, जिव्हा, शरीरके निर्दोष साधनोंको जुटानेके लिये सावधानता विषयोंकी इच्छा व श्रासक्ति
पर्वक प्रवृत्ति। . ४ कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ ( रोस, अहंकार, ४ श्रादान निक्षेप समिति-वस्तु मात्रको भलि ____ कपट, तृष्णा )
भाँति देख व प्रमार्जित करके लेना या ५ अव्रत-प्राणी हिंसा, मिथ्या बोलना, चोरी करना, रखना। - मैथुन-कामभोग, परिग्रह-मुर्छावश वस्तुअोंका संग्रह ५ उत्सर्गसमिति-जहाँ जन्तु न हो ऐसे प्रदेश में ३ योग-मन, वचन, कायका शुभाशुभ व्यापार' शुभ देख कर या प्रमार्जित करके ही मलादि
योगसे पुण्य बंध होता है उससे शुभ फलोंकी अनुपयोगी वस्तुअोंका डालना।
प्राप्ति होती है और अशुम योगसे पाप बँधता है। गुप्तिमें असत् क्रिया निषेध मुख्य है और समिति में २५ क्रियायें-परिताप, प्राणबध द्वेष आदिकी प्रवृत्तियों सस्क्रियाका प्रवर्तन मुख्य है।
(लेख विस्तारभयसे सबका विवरण नहीं दिया १० धर्म-- क्षमा, मृदुता (नम्रता ) सरलता, निर्लोभता ___ जा सका । विशेष जानने वालोंकी इच्छा वालोंको सत्यता, संयम, तप त्याग, ममत्व त्याग, ब्रह्मचर्य । .. कर्म-ग्रन्थ तत्वार्थसूत्रकी टीकाएँ और नवतत्व इससे संयमके सतरह प्रकार है-५ इन्द्रियोंका आदि ग्रन्थ देखने चाहियें )
निग्रह ५ अव्रतोंका त्याग, ४ कषायोका जप ३ योगोंका संघर
निग्रह । ३ गुप्ति-१ मनोगुप्ति दुष्ट संकल्प एवं अच्छे बुरे १२ भावनायें-अनुप्रेक्षा या गहरा चिन्तन
मिश्रित विचारोंका त्याग कर अच्छे अच्छे विचार १ अनित्य १ असरण ३ संसार ४ एकत्व ५ अन्यत्व रहना, ईश्वरका ध्यानादि।
६ अशुचि ७ श्राश्रव ८ संवर । निर्जरा १० लोक २ वचनगुप्ति- यद्वातद्वा न बोलकर मौन धारण ११ बोधिदुर्लभ और १२ धर्म, ये बारह भावनायें हैं।
करना । या सन्मार्गका उपदेश देना, प्रभुका भजन २२ परिषहोंका सहना श्रादि ।
तुधा तृषा, शीत उष्ण, दंशमशक, नग्नत्व, अरति, ३ काय गुप्ति—पाप कर्मोंसे कायाकी प्रवृति हटाकर स्त्री, चर्या, निषेध शय्या, आक्रोश; वध, याचना,
परोपकार रूप प्रवृतिये करना, चंचल इन्द्रियोंकी अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार, प्रक्षा अज्ञान, प्रवृतियोंका विरोध कर लेना अर्थात् उपर्युक्त तीनों और अदर्शन, ये २२ परिषह हैं। योगोंका निग्रह करना।
४ चारित्र-१ सामायिक ( समभाव पर्वक रहना ) ५ समिति-१ ईर्यासमिति किसी भी जन्तुको क्लेश न २ छेदोपस्थापन (विशेष शुद्धि के लिये पुनः दीक्षा)
हो एतदर्थ सावधानता पूर्वक चलना। ३ परिहार विशुद्धि (विशेष तप प्रधान ) ४ सूक्ष्म २ भाषासमिति-सत्य हितकारी परिमित संपराय ( क्रोधादि कषायका प्रभाव केवल सूक्ष्म और संदेह रहित बोलना ।
लोभ रहना) ४यथाख्यात (वीतराग भावकी प्राप्ति)
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वर्ष ३, किरण ११]
जैनदर्शनमें मुक्ति-साधना
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निर्जरा तस्वके प्रकार
१ पूर्वोक्त ५ ब्रतोंको अपनी शकिके अनुसार अंशतः १ अनशन-श्राहारका त्याग, २ ऊनोदर क्षुधासे पालन करना अणुव्रत है जैसे निरपराधी जीवको कम भोजन करना, वृत्तिसंक्षेप-विविध वस्तुओंके।
मारनेकी बुद्धिसे नहीं मारना, २-३ विशेष अनिष्ट कारक लालचको कम करना, ४ रस त्याग-घी, दूध, दही, राजदण्ड व लोक निंदा होने वाला असत्य न बोलना व गुड़, तेल, व पक्वानका त्याग और मधु, मांस,
वैसी चोरी नहीं करना, ४ पर स्त्री गमनका त्याग, मक्खन व मदिराका सर्वथा त्याग । ५ कायक्लेश
धनधान्यादिका परिमाण कर लेना, उससे अधिक न ठंड गर्मी या विविध अासनादि द्वारा शरीरको कष्ट
रखना। देना, ६ संलीनता-अंगोपांग संकोच कर रहना,
तीन गुण व्रत-१ चारों दिशाओंमें गमनागमनका एकान्तस्थान में संयत भावसे रहना।
परिमाण दिग् ब्रत, भोग और उपभोगकी वस्तुओंका
परिमाण देशव्रत ३ अनावश्यक अनर्थ पापोंका त्याग ऊपरके ६ भेद बाह्य तपके हैं, आभ्यंतरिक ६ भेद
अनर्थदण्डत्यागवत और ४ शिक्षाव्रत
१ सामायिक ( नियत समय तक सम भावसे रहना) १ प्रायश्चित-दोष शोधन, २ विनय, ३ वैयावृत्य
२ देशावकालिक-पूर्व परिमाण जो जीवन भरके सेवा, ४ स्वाध्याय-वाचना पृच्छना, परावर्त्तना
लिये किया है प्रत्येक दिन व समयके लिये संक्षेप, (श्राम्नाय ) अनुप्रेक्षा, धर्मोपदेशरूप, ५ ध्यान, ..
३ पोषध-उपवासपूर्वक शरीर विभूषाका त्याग कर ६ उत्सर्ग-धनधान्य एवं शरीरादिका ममत्व हटाना धर्ममें तत्पर होना ४ सुपात्र साधुओं श्रादिको दान । और काषायिक विकारोंमें तन्मयताका स्याग ।
__ जीवका कर्म बन्धनसे मुक्त हो जाना ही 'मुक्ति' है, यहां पर लेख विस्तार भयसे मुख्य भेदोंका ही इस अवस्थाको प्राप्त होने पर आत्मा निर्लेप, निर्विकार निर्देश किया है इनमेंसे एक एक भेद भी अनेक प्रकार एवं अनन्त शक्तिको प्राप्त होता है । जीवका स्वभाव हैं, उन सबका स्वरूप जानने के लिये तत्वार्थसूत्र, ऊर्ध्वगती-गामी कहा जाता है । अतः बन्धनके कारण नवपदार्थ ज्ञानसार आदि ग्रन्थोंका अध्ययन करना जीवका स्वभाव आच्छादित था, वह मुक्त होते ही प्रगट चाहिये ।
होता है, और उसके कारण श्रात्मा सब देव लोकोंके . सब साधकोंकी योग्यता एकसी नहीं होती, अतः ऊपर जो स्फटिक रत्नकी सिद्ध शिला है उससे एक योग्यताके तारतम्यके अनुसार दो प्रकारकी साधना योजनके बाद लोकका अन्त आता है, वहाँ जाकर बतलाई गई हैं:-१ गृहस्थ और २ मुनि । इनमेंसे निवास करता है । मुक्तावस्था प्राप्त श्रात्माएँ अपने ध्येय मुनियों के ५ ब्रत होते हैं १ अहिंसा, २ त्याग, ३.अचौर्य की सम्पूर्ण सिद्धि कर लेती हैं अतः वे 'सिद्ध' कहलाते ४ ब्रह्मचर्य ५ अपरिग्रह इन पांचों व्रतोंको सम्पूर्ण रूपसे हैं । ऐसे सिद्ध अनन्त हैं, फिर भी अरूपी होनेके कारण पालन करना मुनिका धर्म है और अंशतः पालन करना न तो स्थानाभाव एवं भीड़ ही होती है और न शरीर के गृहस्थका धर्म है । गृहस्थके ब्रत १२ कहे जाते हैं, वे अभावके करण वहां जगह रुकती है, एक ही स्थानमें इस प्रकार हैं:
अनन्त श्रात्माअोंके रहने पर भी एक दुसरेके लिये
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व्याघात उत्पन्न नहीं करते । मुक्ति हो जाने के बाद पुनः के अभावमें उनके कर्म बन्ध नहीं होते, और कर्मका संसारमें लौटनेका उनके कोई कारण विद्यमान नहीं सम्बन्ध न होनेसे वे संसारमें पुनः लौटते भी नहीं। रहता, अतः सादि अनन्त स्थितिको वे प्राप्त होजाते हैं। शुद्धावस्थाको प्राप्त करने पर सब अात्माएं एक समान ज्ञान, दर्शन चारित्र और अनन्त शक्ति उनके व्यक्त है, हो जाती हैं, उनमें न तो कोई उत्तम है और न कोई अतः सारे विश्वके त्रिकाल विषयको वे जानते हैं। नीच अर्थात् बड़े छोटे-पनका भी कोई तारतम्य नहीं विश्व प्रपंच दुःखका घर है, उसके एकान्ताभावके रहता । प्रत्येक अात्मा को जीवादि पदार्थोंका स्वरूप जान कारण मुक्त जीव अनन्त सहज स्वाभाविक सुखका कर श्रास्रवका त्यागकर संयम और तप रूप संवर-निर्जरा अनुभव करते हैं । जिस प्रकार व्याधि दुःख है और द्वारा कर्मो के बन्धन को तोड़ मुक्ति -शुद्धावस्था प्राप्त करने उसके नष्ट हो जानेसे मनुष्य सहज सुखका अनुभव का यत्न करना चाहिये, यही जैन दर्शनकी साधनाका करता है, उसी प्रकार कर्मजन्य दुःखके नितान्ताभाव में परम लक्ष्य है । परम सुख प्राप्त हो जाता है । इच्छा, वासना, आसक्ति
प्राग्रह शांति-रस पीना बारम्बार ॥ टेक ।। तिक्त भाव से रिक्त करेगा, मानस का भण्डार । सिन्धु यही है साम्य-सुधा का, करना इससे प्यार ॥
शान्तिरस पीना बारम्बार ॥१॥ धुल जावेगा पाप-मैल सब, कर स्नान सम्हार । कीर्ति विश्व में विस्तृत होगी, होगा सत् सत्कार ॥
शान्तिरस पीना बारम्बार ॥ २ ॥ सेवक बन मध्यस्थ भावका, राग-द्वेष परिहार । उभय परिग्रहसे चेतन तु, ममता भाव निवार ॥
शान्तिरस पीना बारम्बार ॥३॥ कल-मल-हरण विमल-पद-कारण, करन भवार्णव पार । नित्य नियम से साधन करना, पाना "प्रेम" सुधार ॥
ब्र प्रेमसागर पंचरत्न "प्रेम" रीठी
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नृपतुंगका मतविचार
मूल लेखक-श्री एम. गोविन्द पै। . (गत किरणसे आगे)
(आ) गणितसारसंग्रह जो ८ श्लोकोंको उद्धृत किया है, उनमें से अपने यह जैन गणितज्ञ 'वीराचार्य' की कृति है, लेखके लिये जितना आवश्यक अंश है उतना यहाँ इस प्रकार श्रीमान पाठक महाशय ( क०मा भूमि- दिया जाता है:का प.६) ने कहा है; पर इसका नाम 'महावीरा- ____ मलंध्यं त्रिजगरसारं यस्यानंतचतुष्टयम् । चार्य' है, यह बात कै० वा० श्रीशंकर बालकृष्ण __ नमस्तस्मै जिनेन्द्राय महावीराय तायिने ॥१॥ दीक्षितके 'भारतीय ज्योतिः शास्त्र' मराठी ग्रंथ (पृ० श्रीमदामोघवर्षेण येन स्वेष्टहितैषिणा ॥३॥ २३० ) से, तथा अलाहाबादसे प्रकाशित 'सरस्वती' विश्वस्तैकान्तपक्षस्य स्याद्वादन्यायवादिनः । नामको हिन्दी मासिक पत्रिकाकी जुलाई (१९२७) __ देवस्य नृपतुंगस्य वर्धतां तस्य शासनम् ॥ ८ ॥ महीनकी संचिका ( पृ० ७८३ ) से मालूम पड़ती
इसमें 'वर्धताम्' ( वृद्धिगत हो ) इस प्रकार है। यह 'वराहमिहिराचार्य' ( ई० स० ५०५) + वर्तमान कालार्थ विध्याशी रूप प्रयोग करनेसे, यह
और उसके ज्योतिष ग्रन्थों के व्याख्याता 'भट्टो. ग्रन्थ बहशः अमोघवर्ष-नपतुंग नामक किसी त्पल' ( ई० स०९६७ ) के समय के बीच में हुआ नरेशके शासनकालमें लिखा हुआ मालूम पड़ता होगा, इस प्रकार श्री पाठक महाशयने कहा है पर राष्टकटवंशके उभय शाखाके नरेशोंमें (पृ० ६ ); पर कौनसे आधारसे यह बात निर्णय
त निणय 'अमोघवर्ष-नृपतुंग' उपाधियोंसे युक्त नरेश की गई सो मालूम नहीं। यह गणित ग्रन्थ होते
बहुतसे होगये हैं अतः इस अवतारिकामें कहा हुये और इस का कर्ता स्वयं गणितज्ञ होते हुये भी
हुआ नपतुंग वही है यह कैसे कहा जा सकता है ? इसका रचना-समय इस में नहीं कहा, यह बड़े
इस आचार्यने अपने पन्थ रचने का समय, स्थान आश्चर्यकी बात है।
अथवा अपने जिस राजाका नाम लिया उसके इस 'गणितसारसंग्रह' की अवतारिका-प्रश
पिताका नाम नहीं कहा, इससे इसके नृपतुंगको स्तिसे श्री पाठकने अपने उपोद्घात (पृ० ७) में
अपना नृपतुंग समझ कर कहा हुआ श्री पाठक 1 वराहमिहिरका और भट्टोत्पलका समय श्री महाशयका वक्तव्य ठीक नहीं जंचता है। महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदीजीके 'गणकतरंगिणी' अथवा इस आचार्यके नफ्तुगको अपने मामक संस्कृत ग्रन्थके आधारसे कहा है; उस ग्रन्थ में इस लेखका नपतुंग समझकर निष्प्रमाणसे स्वीकार वीराचार्य ( अथवा महावीराचार्य) का उल्लेख नहीं है। करने पर भी, इस काव्यमें कहा हुआ 'विध्वस्त'
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शब्द कोई छोटी बात नहीं। 'विध्वस्तैकान्तपक्ष' गा ? ऐसी अवस्थामें नृपतुंगने एकान्त पक्षको का अर्थ 'एकान्तपक्ष' को समूल नष्ट करने वाला निर्मूल किया, इस प्राचायक वचन पर कैम है, 'एकान्तपक्ष' याने भागवत वैष्णव धर्म *। पर विश्वास कर सकते हैं ? इतिहासको एक तरफ़ यह नगतुंपके किसी भी शासनम, उसके सम्बन्ध ढकेलकर ही इसके कहे हुए वचन पर विश्वास में उसके समकालीन और कोई लिखे हुए लेखोंसे कर सकते हैं ? यदि विश्वास नहीं कर सकते
और उसके सम्बन्धमें जिनसेन-गुणभद्रादि द्वारा हैं तो इस नपतुंगको 'स्याद्वाद-न्यायवादी' याने कहे हुए वचनोंसे, तथा उसके सम्बन्धमें अब तक 'जैनधर्मी' प्रतिपादन करने वाली बात पर कैसे उपलब्ध इतिहाससे, मुगल बादशाह औरंगजेबके विश्वास कर सकते हैं ? । हिन्दू धर्म और हिन्दु मन्दिरोंको विध्वंस करने अथवा इस आचार्यका अभिप्राय वैसा नहीं(तथा सुन्नी होकर शियाओंकी मसजिदोंको बर्बाद याने नपतुंगने एकान्त पक्षको या एकान्त पक्षकरने) के समान इस नृपतुंगने किया या करवाया सम्बन्धी धर्ममन्दिरोंको या एकान्तपक्ष वालों या प्रयत्न किया, इस बातको सिद्ध करने वाले को विध्वंस किया यह अर्थ नहीं; पर अपनेमें तब कोई प्रमाण हैं क्या? अपने 'कविराजमार्ग' काव्यमें तक रहे हुए एकान्त पक्षके विश्वास-श्रद्धाका भी किसी प्रकारका समयविरुद्ध कार्य नहीं करना निर्मूल करके, अर्थात एकान्त स्वधर्मका त्याग चाहिये (१,१०४ ) इस तरह मुक्त कंठसे कहने करके, धर्मान्तरका ग्रहण करके आप स्याद्वादन्यायवाला यह धर्म-विध्वंसके कार्यमें क्या हाथ डाले- वादी' जैन हुआ, यह अर्थ यदि उस आचार्य____ * 'एकान्तपक्ष' अथवा 'एकान्तधर्म का अर्थ वचनसे निकलता है तो उस पर विचार करें। 'महाभारत' के 'शान्तिपर्व' ( मोक्षधर्म ) के 'नारा- इस नृपतुंगने जिनसेनके उपदेशसे . जैन यणोपाख्यान' में तथा 'श्रीमद्भगवद्गीता' में कहा दीक्षा ली हो तो वह जिनसेनके मरणके पहिले
मा अहिंसाप्रधान भागवत वैष्णव धर्म है. इसे पांच- ही होनी चाहिये-हमारे विचारसे ई०सन ८४८के रात्र' नाम भी है । (Vide Bhandarkar's
. पहले होनी चाहिये, उसके पीछे नहीं। पर इसके
पह "Vaishnavism, Saivism and other
शासनकालके ५२ वें वर्ष (ई० सन् ८६६) के
शार minor religions systems"-Strassburg), पहिले दिये हुए शासन के शिरोलेखमे यह हरिहरा इसके सम्बन्धमें 'गरुडपुराण' में (अध्याय १३१) भागवतमें वैष्णव धर्मके हरिहरों में भेद नहीं यह इस प्रकार कहा है :
बात 'शांतिपर्व'. के उसी 'नारायणोपाख्यान'
( अध्या० १६८ ) में कही है। “जो शंकरकी पूजा एकान्तेनासमो विष्णुर्यस्मादेषां परायणः ।
नहीं करते हुए मुझे पूजेंगे तो उनकी हानि होगी, वे तस्मादेकान्तिनः प्रोक्तास्तद्भागवतचेतसः ॥ मेरे निग्रहके पात्र हैं;हम दोनों में भेद नहीं" ('श्रीकृष्णप्रियाणामपि सर्वेषां देवदेवस्य स प्रियः। राज वाणीविलास) नामकी महाभारतकी कर्णाटक आपत्स्वपि तदा यस्य भक्तिरव्यभिचारिणी॥ टीका; शान्ति पर्वमें 'मोषधर्म' पृ० २६८)
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वर्ष ३, किरण ११]
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भक्त मालूम पड़ता है किन्तु जैनी था यह हुआ तो किसी जैनाचार्यके उपदेशसे ही होना मालूम नहीं पड़ता; वैसे ही उसी शासनके 'गरुढ़- चाहिये, इस विषयमें उसका उपदेश गुरु जिनसेन जाइन' 'कीर्तिनारायणो' 'महाविष्णुवराज्यम्बोल' था इस प्रकार कुछ लोगोंका विश्वास है । पर इत्यादिसे यह वैष्णव था, यह बात स्पष्ट मालूम जिनसेन-द्वारा नृपतुंग जैनी हुआ, यह बात पड़ती है । इसके अन्तिम वर्षके ( ई० सन् ८७७) 'गणितसारसंग्रह' में नहीं कही गई, अथवा जिनसोरब नं ८५, (E.C.Vol.Vill., pt.ll) शासन सेनके सिवाय अन्य जैनाचार्य के उपदेशसे नृपतुंग से भी, यह जैन था इस सम्बन्धमें कोई प्रमाण जैनी हुआ यह बात नहीं कही गई; और जन्मतः नहीं मिलता। पर ई० स० ८७७ के पश्चात् नप- जैनी नहीं रहे नरेशको जैनी कहा गया। प्रशस्ति तुंग जैन क्यों नहीं बन सकता ? यह आक्षेप हो के अनेक पद्योंमें वह किसके उपदेशसे जैनधर्मी सकता है। पर यह बात हो भी सकती है और हुआ इस सम्बन्धमें भी एक दो बात लिखना उस नहीं भी; क्योंकि ई० स० ८७७ में नृपतुंगका देहा- ग्रन्थकर्ताका कर्तव्य था। वसान हुआ हो, या राज्यकारसे निवृत होकर अतएव इस गणित ग्रंथकी प्रशस्तिमें कहा उसने वानप्रस्थाश्रमका ग्रहण किया हो, इसका हुआ वक्तव्य उस आचार्य-द्वारा स्वतः जाना हुआ निष्कर्ष अब तक नहीं हुआ, अनिश्चित् ऐतिहा- सत्य नहीं किन्तु कर्णपरंपरासे सुनी हुई बातको सिक घटना परसे ऐसा ही था यह कहना ठीक लिख डाला मालूम पड़ता है। ऐतिहासिक दृष्टिमें नहीं। वह कैसी भी हो, इस आचार्यके वक्तव्य यह बात मूल्य नहीं रखती । '
पार्वाभ्युदय' के का विचार करने में कोई वाधा नहीं, क्योंकि 'देव- टीकाकारने उस काव्यमें 'भुवनमवतु देवः सर्वदास्य नृपतुंगस्य वर्धतां तस्य शासनम्' इस प्रकार मोघवर्षः' इस प्रकारके एक आशीर्वचनसे इसके वक्तव्यसे वह नपतुंग उस वक्त शासन (बहुशः आप सुनी हुई जनश्रुतिका आधार लेकर) करते हुए व्यक्तिसे भिन्न राज्यभारसे निवत्त बड़े भारी अतिशयोक्तिपूर्ण कथा-तन्तु-जालको (अर्थात् पहिले शासन किया हुआ ) नरेश, यह बुना होगा ऐसा मालूम पड़ता है । पर योगिराद् अर्थ नहीं होता; पर ई० स० ८७७ तक नृपतुंग पंडिताचार्य के समान यह (वीराचार्य) जिनसेन, जैन नहीं था यह बात हम पहिले अवगत कर नृपतुंगसे ५५०–६०० वर्षों के इधरका व्यक्ति नहीं चुके हैं।
हैं, (बहुशः) उनके समकालीन होगा, इस प्रकार उस समय जिनसेनाचार्य जैन मताप्रगण्य आक्षेप करने पर, जिनसेन और उसके खास था; नृपतुंगने एक बार भो उसे वन्दन किया होगा शिष्य और अमोघवर्षे-नृपतुंगके शासनमें भी, तो उस पर इस नरेशकी श्रद्धा हो सकती है । ऐसी उसके समयानन्तर उसके पुत्र अकालवर्षके शासन अवस्थामें इस 'गणितसारसंग्रह' में उस जिन- में भी विद्यमान गुणभद्रसे भी जो बात नहीं कही सेनका नाम क्यों नहीं ? नृपतुंग जन्मसे जन धर्मी गई उसको इस महावीराचार्य ने कहा है तो उसे नहीं था यह बात सभी जानते हैं; यदि वह जैनी ऐतिहासिक तथ्य कैसे मान सकते हैं ?
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पर इस से कहा हुआ अमोघवर्षनृपतुंग हमारे इस लेखका नायक न होकर, राष्ट्र कूट वंशका (अथवा अन्य किसी वंशका ) और कोई उसी नामका नरेश होगा तो इस आचार्य के कथन और इस नरेश के सम्बन्ध में तर्क-वितर्क करना इस लेख का उद्देश्य नहीं ।
(इ) प्रश्नोत्तर रत्नमालिका + यह एक नीतिमार्गोपदेशी छोटासा संस्कृत काव्य है । बम्बई 'निर्णयसागर ' मुद्रणालयसे प्रकटित काव्य माला के सप्तम गुच्छकमें यह मुद्रित है। इसमें २९ पद्य हैं; पर ' Indian Antiquary' (Vol. XII.) में इस कविता के सम्बन्ध में ( पृ०२१८) इसमें ३० पद्य हैं ऐसा कहा है। इसे प्रथमतः प्रकाशित करने वाले श्रीमान् के. बी. पाठक महाशय मालूम पड़ते हैं; परन्तु 'कविराजमार्ग' के उपोद्घात में इसका निर्देश करते वक्त इसमें कुल कितने पद्य हैं सो लिखा नहीं, वैसे ही उन्हें मिली हुई प्रतिके अन्तिम एक पद्यको उधृत करने के सिवाय उसमें और पद्यों को दिया भी नहीं । उस उपोद्घात में ( पृ०९) इस कविता के 'सम्बन्ध में आप कहते हैं :
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विवेकांस्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका । चितामोघवर्षेण सुधिया सदलंकृतिः ॥ Several editions of this work have since been published in Bombay. It is variously attributed to Sankara Charya, Sankarananda and a Sveta - mbara writer Viala. But the royal authorship of the 'Ratnamala is Confirmed by a Thibetan translation of it discovered by Schiefner in which the author is represented to have been a king, and his Thibetan name, as retranslated into Sanskrit by the same scholar, is Amoghodaya, which obviously stands for Amoghavarsha. This work was composed between Saka 797-99; in the former year Nripatunga abdicated in favour of his son Akalavarsha"
↑ इस मूल कविताका अंग्रेजी पद्यानुवाद-युक्त मेरा लेख Canara High School Magazine, Mangalore Vol. II प्रथम श्रंक में प्रकाशित हैं ।
इनका यह विचार कहाँ तक ठीक हैं, इस सम्बन्ध में विचार करनेके पहिले, उस विचारसम्बन्धी कुछ पद्य यहाँ देना आवश्यक है
" Nripatunga was not only a liberal patron of letters, but he is also known as a Sanskrit author. A few years ago I discovered a small Jaina 1 work entitled" 'Prasnottara-ratnamala' the Concluding verse of which owns Amoghavarsha as its author:
प्रणिपत्य वर्द्धमानं प्रश्नोत्तररत्नमालिकां वचये । नागनरामरवन्द्यं देवं देवाधिपं वीरम् ॥ १ ॥ कः खलु नालं क्रियते दृष्टादृष्टार्थसाधनपटीयान् । कंठस्थितया विमलप्रश्नोत्तररत्नमालिक्या ॥ २॥
इति कंठगता विमला प्रश्नोत्तर रत्नमालिका येषाम् । ते 'मुक्ताभरणा विभाति विद्वत्समानेषु ॥ २८ 'काव्यमाला' ( Nirnay - Sagar Press ) के संपादकने उसे प्रकट करनेके लिये संग्रहीत 'क' और 'ख' नामांकित हस्तलिखित प्रतियों में से
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वर्ष ३, किरण ११]
+ 'क' प्रतिका अन्तिम पद्य इस प्रकार दिया हैरचिता सितपटगुरुणा विमला विमलेन रत्नमालेव । प्रश्नोत्तर मालेयं कंठगता कं न भूषयति ॥ २६ ॥ इसके अलावा 'ख' प्रतिका अन्तिम पद्य और तरह है:
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विवेकात्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका । चितामोघवर्षेण सुधिया | सलंकृतिः ॥ २६ ॥
यह कृति श्रीमच्छंकराचार्य से या उसके परम्परा के शंकरानन्द यतिसे रचित होगी ऐसी भी प्रतीति है । इस कृतिकी पुरानी हस्त प्रतियों में वर्द्धमान जिन स्तुति-सम्बन्धी पद्य न होंगे, और साथ ही साथ उनमें अन्तिम पद्य ( 'विमल' श्वेताम्बर गुरु नामका पाठान्तर भी, अमोघवर्ष नामका पाठान्तर भी) नहीं होंगे । इस कृति में रचनान्तर प्रक्षेप बहुत दिखाई देते हैं अतः शंकराचार्य तथा शंकरानन्द भी इसके कर्ता नहीं होंगे; क्योंकि:
( १ ) आत्मपरमात्मका ऐक्यत्व के सम्बन्ध में इसमें चकार शब्द भी नहीं; ( २ ) अथवा नीतिबोध-सम्बन्धी हम एक छोटीसी कवितामें सिद्धान्त तथा धर्मबोधनकी हवा भी नहीं दीखती; पर शंकराचार्यकी छोटीसी कृति “द्वादशपंजरी” “चर्पट
† ‘काव्यमाला' सप्तम गुच्छ्रक ( पृ० १२१ और
१२३ )
+ श्रीमान् पाठक महाशयने 'कविराजमार्ग' के उपोद्घातमें इस श्लोकको उद्धृत किया है वहाँ पर 'सुधिया ' है, 'काव्यमाला' में प्रकटित काव्य में यहाँ 'सुधिय' है। 'सुधिया' ('सुधि' शब्दका तृतीयैक वचन) कहने के बदले 'सुधियाम् ' ( उसी शब्दकी षष्टी विभक्ति का बहुवचन) कहना ठीक मालूम पड़ता है ।
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पंजरी" दोनोंमें नीतिबोधक और धर्मबोधक तत्व प्रत्येक पद्य से टपकता है अर्थात धर्म और नीतिका पृथक्करण इनकीकृति में रहना विश्वसनीय नहीं है । ( ३ ) वैसे ही इस कविता में भक्तिबोधक वक्तव्य नहीं है। किसी धार्मिक रीति से भी उपासनासम्बन्धी बातें नहीं हैं । अत एव यह शंकराचार्यकी अथवा शंकरानन्दकी कृति होगी यह कहना ठीक नहीं । ( ४ ) साथ ही साथ इसके आरम्भ में या अन्तिम भागमें विष्णु अथवा शिवकी स्तुति भी नहीं है और उनके नाम भी नहीं । इन सब बातों से मालूम पड़ता है यह इन आचायोंकी कृति नहीं है । (५) इसके १२वें पद्य में
'नलिनीदलगतजललवतरलं किं यौवनं धनमथायुः '' इस प्रकार है, शंकराचार्यको 'द्वादशपंजरी' के १०वें पद्य में—
नलिनीदलगतसलिलं तरलं । तद्वज्जीवितमतिशयचपलम् ॥
ऐसा है । पर इससे इन दोनोंका कर्ता एक ही होगा यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि नलिनीदल में स्थित जलबिन्दुकी चंचलता का अपने जीवन, आयुष्य, घनके साथ उपमा करनेकी रूढि सनातन, बौद्ध, जैनधर्म शास्त्रों में बहुत पुरानी समय से आ रही हैइन सब बातों से यह कविता इन आचार्योंकी कृति नहीं है, यह बात निष्कृष्ठरूपसे कह सकते हैं ।
ऐसी अवस्था में इसका कर्ता नृपतुंग ही हो सकता है क्या ? श्रीमान् पाठक महाशय जैसे विद्वान भी इसे नृपतुंगकी कृति मानते हैं, पर निम्नलिखित कारणोंसे उनका अभिप्राय ठीक मालूम नहीं पड़ता:
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( १ ) उपर्युक्त 'काव्यमाला' में कही हुई 'ख' हस्त प्रतिमें विवेकात्यक्तराज्येन' इस एक ही पद्य के सिवाय अन्य २८ पद्य और 'क' हस्त प्रतिके सभी २९ पद्य संस्कृत 'आर्या' छन्दमें हैं, परन्तु 'ख' प्रति का यह एक अन्तिम पद्य हो 'अनुष्टुभ' नामका श्लोक है - यह क्यों ? नृपतुंगने अन्य २८ पद्यों को आर्या छन्दमें रचकर, आप विवेकसे राज्यभार त्यागकर पश्चात् इस कविताकी रचना करते हुए यहीं एक पद्य 'अनुष्टभ्' श्लोकमें क्यों रचा ? इतनी छोटी सी कविता में दो तरह के छन्दों की क्या जरूरत थी ? पर 'क' प्रतिके अंतिम पृष्ठों में इसका कर्ता 'बिमल' नामक श्वेताम्बर गुरु कहा है, इसी बातको कहनेवाला पद्य उस कृतिके अन्य सब पद्योंकी तरह आर्या छन्दमें रह कर, कृतिके रचना समन्वय के साथ सुसंगत है, अत एव मूल कृतिका अंतिम पद्य इस 'क' प्रतिकी अंतिम 'आर्या' ही होनी चाहिये और इस कविताका रचिता उसमें कहा हुआ 'विमल' ही होना चाहिये ऐसा मुझे मालूम पड़ता है। (२) इस कविताके पहिले दूसरे और २८ वें पद्योंमें इसका नाम 'प्रश्नोत्तररत्नमालिका' कहा है, 'क' प्रतिके अंतिम पद्यके प्रथम चरण में इसे ‘रत्नमाला' के साथ तुलना किया है, उसके द्वितीय चरणमें इसका नाम कहते वक्त 'रत्नमाला' इस प्रकार पुनरुक्ति नहीं करते हुये प्रश्नोत्तरमाला कहना समंजस है । पर 'ख' प्रतिके अंतिम 'अनुष्टुभ्' श्लोक में इसे 'रत्नमालिका' कह कर 'प्रश्नोत्तर' नामके प्रधान पूर्व पदको ही छोड़ दिया है। अतः इस काव्यके अंतके वक्तव्य तथा 'ख' प्रतिके अंतिम पद्यके वक्तव्यमें परिवर्तन दिखाई देनेसे 'ख' प्रतिका अंतिम पद्य मूल प्रतिमें नहीं
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होगा ऐसा मालूम पड़ता है ।
( ३ ) इस कविताके २रे और २८ वें पद्यों में दिखाई देने वाला 'विमल' शब्द केवल निर्मल इतना अर्थ से युक्त गुणवाचक नहीं, किन्तु कविने अपने नामके श्लेषसे उसका उपयोग किया होगा, यह बात शीघ्र मालूम पड़ जाती है । अतः कविका नाम 'विमल' ही होना चाहिये ।
.
(४) नृपतुरंग शक सं० ७९७ ( ई० सन् ८७५) में अपने पुत्र अकालवर्षको अपनी गद्दी पर बैठा कर आप राज्यभारसे निवृत हुआ, इस प्रकार श्रीमान् पाठक महाशयका कहना है, पर ऐसे निष्कृष्ट वक्तव्य के सम्बन्ध में आपने कोई आधार नहीं दिया । यह वक्तव्य ठीक नहीं मालूम पड़ता; क्योंकि ई० स० ८७५-७६ के कुछ शासनों में नृपतुरंगके पुत्र अकालवर्ष नामक कृष्णका नाम होते हुए भी वह नरेश था यह बात नहीं, युवराज होते हुये अपने पिता नृपतुरंगके राज्यके दक्षिण भागका प्रतिनिधि था यह बात है । राजधानी मान्यखेटमें तब नृपतुरंग गद्दी पर था, यह बात स्पष्ट है । इसके सिवाय ई० स०८७७ के सोरब नं० ८५ वें शासन में भी तब नृपतुरंग गद्दी पर था ऐसा लिखा है और यह बात पहिले भी कही जा चुकी है । अतएव ई० स० ८७७ तक नृपतु गने राज्य त्याग नहीं किया, यह बात व्यक्त होती है ।
( ५ ) इस प्रश्नोत्तर रत्नमालिका' के तिब्बत भाषा के अनुवाद में इसका कर्ता 'अमोघोदय' नाम का राजा कहा है; इसी बात के आधार से श्रीमान पाठक महाशय ने उसे अमोघवर्ष कहा है; परन्तु यह बात ठीक नहीं है; क्योंकि – (१) 'ख' प्रतिके † I: A., Vol. XII P. 220.
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वर्ष ३, किरण ११]
नपतंगका मत विचार
अन्तिम पद्य के अनुसार इम कविताके कर्ता लिखा होगा, उसमें यह श्लोक रहा भो होगा। अमोगवर्षने विवेकमे राज्य त्याग किया लिखा है, परन्त उसके राज्यत्यागके सम्बन्धमें ठीक आधार पर तिब्बत भाषाके अनुवादमें उसके कर्ताने राज्य प्राप्त होने तक, आगन्तुक किसी श्लोकके ऊपर त्याग किया लिखा हो सो उम बातको पाठक विश्वास रख कर उसे ऐतिहासिक तथ्य समझकर महाशयने कहा नहीं; उस अनुवादमें वैसे नहीं स्वीकार करना मुझे ठीक नहीं मालूम पड़ता। लिखा हो तो अमोघवर्ष और अमोघोदय ये दोनों 'विवेकाश्यक्तराज्येन' यह श्लोक ऐतिहासिक तथ्य एक ही व्यक्ति थे ऐसा कहना कैसे ? इन दोनोंमें को कहता है, इस प्रकार निष्प्रमाण स्वीकार करने 'अमोघ' यह पूर्व पद रहनेके कारण ये दोनों पर भी इससे नपतुंगने जैनधर्मका अवलंबन किया एक ही व्यक्ति थे इस प्रकार बिना प्रबल आधार यह अर्थ नहीं होता; विवेकसे राज्यभार त्याग के कोई कहे तो उसे स्वीकार नहीं किया जा किया लिखा है, वह विवेकोदय उसे जैनधर्मसे सकता। .
हुआ यह बात नहीं। ई० स० ८१५ से ८७७ तक _ अतः इस कविताका कर्ता श्वेताम्बर जैन करीब ६२-६३ वर्ष तक राज्यशासन किये हुए इसे गुरु विमल' के सिवाय अन्य कोई नहीं;यह नपतुं- उस वक्त ८०.८२ वर्षसे कम न हुए होंगे, उस गकी कृति नहीं है यह बात मुझे ठीक मालूम पड़ती वृद्धावस्थामें यह राज्यभारसे निवृत्त हुआ हो तो है । इस.विमलसूरिने कर्नाटक भाषामें क्या काव्य वह विवेक नैसर्गिक है । इसके पहिले इसके पितारचना की है ? 'कविराजमार्ग' में कहा हुआ मह ध्रुवराजने राज्य भारसे निवृत होना चाहा था 'विमल' ('विमलोदय, नागार्जुन......। २९) नाम यह बात पहिले कही जा चुकी है। का व्यक्ति क्या यही होगा ?-इम सम्बन्धमें विद्वान लोगोंको विचार करना चाहिये ।
__(ई) कविराजमार्ग ‘विवेकात्त्यक्तराज्येन' * यह श्लोक इस यह एक कर्नाटक अलंकार ग्रन्थ है । यह कवितामें प्रक्षिप्त किया गया होगा, इतना ही मैंने नृपतुंगकी स्वयं कृति है या उसके आस्थानक कहा है, वह नृपतुंगचित अन्य किसी संस्कृत किसी कविने उसके नामसे रचना की हो, इस ग्रन्थमें नहीं होगा, यह बात मैंने नहीं कही । पर सम्बन्धमें विद्वानोंमें भिन्नाभिप्राय हैं । यदि यह वह स्वयं या उसके सम्बन्धमें और कोई काव्य ग्रन्थ नृपतुंगकी स्वयं कृति है तो इसमें इसकी
अवतारिकाके दो कंद पद्योंमें (अपने इष्ट देवता ) * उस नृपतुंगका पितामह राज्य भारसे निवृत होना चाहता था उस वक्त उसके पुत्रने उसे स्वीकार
विष्णुकी स्तुति की है । इससे तो यह राजा स्वयं
वैष्णव सिद्ध होता है। भागवत वैष्णव धर्ममें नहीं करते हुये वैसा होने नहीं दिया था, वैसे ही नृप तुंगके राज्य त्याग करना चाहते वक्त उसके पुत्रने अपने
हरि-हर समान हैं यह बात पहिले कही जाचुकी है। पूर्वजोंकी पद्धतिका अनुकरण करते हुये उसे नहीं स्वी- इस काव्यके तृतीय परिच्छेदके ८१,१६१, १६२ कारा होगा, ऐसा मुझे मालूम पड़ता है।
१८६, ११०, ११४ नं. के पद्योंका परिशीलन करें।
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अनेकान्त
[भाद्रपद, वीर निर्वाण सं०२४५६
इस काव्यके प्रथम भागमें ही विष्णु स्तुति अपनी कवितामें जगह जगह पर क्यों नहीं बखेर स्पष्ट रहते हुए भी उस तरफ ध्यान नहीं देते हुए, दिया । श्रीमान् पाठक महाशयका इसके 1९० और III नृपतुंग राजा होनेसे कवि नहीं था यह बात १८ इन दो पद्योंके आधारसे यह कहना कि नहीं; क्योंकि भारतवर्षमें शासन करने वाले बहुत"Two verses which praise Jina,reflect से नरेश स्वयं कवि थे; यदि वैसा न हो तो the religious opinions of the author" 'राजशेखर'की (ई०स०करीब ८८०-९२८के बीचमें) (क० मा० उ० पृ० ७) ठीक नहीं है, क्योंकि 'काव्यमीमांसा' के *-"राजा कविः कविसमानं इन दोनोंमें I ६० को इस कविकी स्वतन्त्र रचना विदधीत । राजनि कवौ सर्वो लोकः कविः स्यात् ॥" कहनेकेबदले 'व्यवहित दोष' निदर्शन करने के लिये इस वाक्यका वक्तव्य स्वप्नकी बातें नहीं होगा
और किसी काव्यसे लिया हुआ द्रष्टान्त मालूम क्या ? इस बात को और स्पष्ट करनेके लिये कुछ पड़ता है, III १८वाँ पद्य इनसे ही रचा गया कन्द उदाहरण दिये जाते हैं -(१) सोड्डल देवकी पद्य हुआ होगा । सकल धर्मोको समान दृष्टिसे ( ई० स० ११ वां शतक) 'उदयसुन्दरी कथा' में । सत्कार करने वाले इस कन्द पद्यकी रचना करनेसे "कवीन्द्रैश्च विक्रमादित्य श्री हर्ष-मुंज-भोजदेवादि ही वह जैन था यह कहना असंगतहै इसके सिवाय भूपालैः" लिखा है, (२ ) श्रीहर्षवर्द्धनने (ई० स० कोई भी कवि अपने इष्टदेवताकी स्तुति ग्रन्थारम्भमें ६०६.६४७ ) संस्कृतमें 'प्रियदर्शिका', 'रत्नावली' ही करता है, बीच में या अन्य जगह जगह पर नहीं - करता है । बहुशः I ७८ वां पद्य जैन धर्म-सम्बन्धी जैनियों में भी किसी प्रकारका धर्मभेद नहीं था पद्य होना चाहिये । इससे क्या ? कविके विचारमें इस बातकी मामतुंगाचार्य कृतपवित्र भक्तामरस्तोत्र' धर्मभेद है क्या ? जिस धर्ममें अच्छी बात हो उसे नामक जिनस्तुति ही साक्षी है:- . ग्रहण करना कविका धर्म नहीं है क्या ? अच्छी "स्वामव्ययं विभुमचित्यमसंख्यमायं । बात अपने धर्ममें हो तो अच्छी, अन्य धर्म में हो ब्रह्माणमीश्यरमनंतमनंगकेतुम ॥ तो अच्छी नहीं, यह भेद कवियोंमें है क्या ? इसके योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं । सिवाय कविराज मार्गके I १०३-१०४ नं० के
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥ २४ ॥ पद्योंमें इसने ‘समयविरुद्ध' दोष सम्बन्धी प्रस्ताव में कपिल (सांख्य ), सुगत (बौद्ध), कणचर
, वुद्धस्त्वमेव विभुधाचितबुद्धिबोधात् । ( = कणाद,वैशेषिक ) लोकायतिक (नास्तिक )
त्वं शंकरोसि भुवनत्रयशंकरत्वात् ॥ इत्यादि मत-सम्बन्धी उद्गार उन उन मार्गभेदके धातासि धीर शिवमार्गविधेविधानाद् । अनगुण होने चाहिये। उन उन समयसूत्रोंके व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोसि" ॥ २५ ॥ विरुद्ध नहीं होने चाहियें, यह बात इसने नहीं कही * Gaekwad's Oriental Series, No. I P. 54. क्या ? ऐसे व्यक्तिने जिनस्तुति-सम्बन्धी पद्योंको Ibid. No. XI P. 150.
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वर्ष ३, किरण ११]
नृपतुंगका मत विचार
और 'नागानन्द' नामके ३ नाटक लिखे हैं; जैन होते हुए भी इनमें प्रतिफलित धर्म उन कवियों (३) समुद्रगुप्तके ( ई० स० ३३०-३७५ ) के पोषकों का स्वधर्म है, कवियोंका स्वधर्म नहीं अलाहाबाद-स्तम्भको प्रशस्तिसे वह 'कविराज' था, इस बातको कौन नहीं जानता ? (२) ई० स० तथा गान्धर्वविद्यामें भी विशारद मालूम पड़ता १२३० में जयसिंह सूरि नामके श्वेताम्बर कवि है। इतना ही नहीं उसके समयके बहुतमे सिक्कोंमें रचित 'हम्मीरमदमर्दन' नाटकमें * जिनस्तुति भी उसके सिंहासनमें सुखासीन होते हुये वीणा या जैनधर्म-सम्बन्धी किसी बातका जिक्र किया बजानेका चित्र है । (४) भूलोकमल्ल' उपाधि हो नहीं । उसमें उसने लिखा है:युक्त ( ई० स० ११२६-११३८ ) चालुक्य वंशके "स्तंभतीर्थनगरी गरीयो रत्नांकुरस्य त्रिभुवननरेश तृतीय सोमेश्वरने 'मानसोल्लास' अथवा विभुविनम्र मौलि मुकुटमणि किरण-धोरणी-धौत'अभिलाषितार्थ चितामणि' नामका संस्कृत ग्रंथ
चरणारविन्दस्य वृन्दारकवृन्दविक्रमचस्कृतिपरिपाकलुटा लिखा है, इत्यादि ।
कद्रष्टदनुतनुजविजयश्रीभीमस्व श्रीभीमेश्वरस्य यात्रायां . तो भी 'कविराज मार्ग' नृपतुंगकी स्वयं कृति ............श्री वस्तुपालकुलकाननकेलिसिंहेन श्रीमता नहीं है औ उनके नामसे दूसरे किसीने उसे रचा जयसिंहेन" होगा ऐसा समझा जाय तो उससे हानि क्या ? इस नाटकके अन्तमें नायकसे की गई शिव(१) कन्नड कविश्रेष्ट आदिपंप तथा रन्नकवि स्तुति साक्षात् शैव कवि द्वारा रचित मालूम पड़ती जैन थे इस बातको कौन नहीं जानता ? परन्तु है। उस प्रार्थनासे प्रसन्न होकर शिवने प्रत्यक्ष हो पंपके — विक्रमार्जुन विजय' नामक पपभारत' की कर नायकके भरत वाक्यको पूर्ति कर दिया लिखा तथा रन्न के 'गदा युद्ध' को क्या कोई जैन कविकृत
है; (३) होयसलवंशी वीरवल्लालका ( ई० स०
हो कह सकता है ? इनमें उन कवियोंने अपने
११७३-१२२०) आश्रित् कन्नड जैन कवि जन्नने पोषक नरेशोंके स्वधर्मका अनुकरण करते हुए और 'यशोधरचरित' तथा 'अनन्तनाथ पुराण' जैन उसके अनुगुणरूप विष्णुस्तुति, शिवस्तुति काव्य रचने पर भी राजाके लिये रचित चन्नरायइत्यादि से अपना ग्रन्थारम्भ करते हुये,उस धर्मकी
पट्टणके १७९ वें (ई० स० ११९१ ) ताम्रशासन धोरणामें ही उनकी आद्यन्त रचना करनसे ये की अवतारिकामें दिया हुआ संस्कृत श्लोक विष्णु समग्र वैष्णव धर्ममय हैं । आप जैन होते हुए भी स्तति सम्बन्धी है, और उत्पलमालामें विष्णुकी उन कवियोंने अपने काव्योंमें अपने धर्मकी बात बराहावतारकी स्तुति है, वैसे ही इसके द्वारा ली है क्या ? अतः इनके रचयिता कवियोंने स्वतः रचित तरिकेरेके ४५ वें (ई० स० ११९७ ) शासन $ 'Men and thought in ancient India' के आदि पद्यमें 'अमृतेश्वर' नामक शिवकी तथा
pp. 171-172, * Gaikwad's Oriental Series No. X $ Ibid, pp. 154.155. E. H. D. P.67.
पृ०२ और ५६
.
Series No. X
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अनेकान्त
[भाद्रपद, वीर निर्वाण सं०२४३६
दूसरे पद्यमें हरिहरकी स्तुति है। इत्यादि।
दुर्योधनो भीष्मयुधिष्ठरः स - अत एव इस 'कविराजमार्ग' का कर्ता नृप- पायाद्विराडुत्तरगोभिमन्युः ॥१॥ तुंग नहीं है; उसके आस्थानके किसी कवि-द्वारा
(२) आदिपंपने 'विक्रमार्जुनविजय' की अवरचित है, उसकी अवतारिकामें विष्णुस्तुतिसे,
तारिकाकी विष्णु स्तुतिमें अपने पोषक चालुक्य निर्दिष्ट धर्म नृपतुंगका स्वधर्म ही होना चाहिये
अरिकेसरिकी विष्णु के साथ तुलना की हैरचयिताका स्वधर्म नहीं होगा। 'कविराजमार्ग' के अवतारिका-पद्य विष्णु
.......... 'उदात्त ना। स्तुति-सम्बन्धी नहीं हैं, उन पद्योंमें नृपतंगने रायणनाद देवनेमगीगरिकेसरि सौख्यकोटियं ॥१॥ अपना ही वर्णन किया होगा इस प्रकार कोई
(३) रन्नने अपने 'गदायुद्ध' में अपने पोषक आक्षेप करेंगे तो, वह आक्षेप निराधार है। इस ,
चालुक्य नरेश तैलप आहवमल्लकी (ई० स० ९७३आक्षेपको निम्न लिखित कारणोंसे निवारण कर
९९७ ) विष्णु के साथ तथा शिव, ब्रह्म, सूर्य, सकते हैं,
इत्यादि देवताओं के साथ तुलना करते हुये काव्य ___ 'कविद्वारा अपने कथानायकको या अपनेको
का प्रारम्भ किया हैअपने इष्टदेवताके साथ तुलना करते हुये अथवा इष्ट देवताको अपने कथानायकके नामसे या
...."प्रादिपुरुषं पुरुषोत्तमनी चलुक्यना । अपने नामसे उल्लेख करते हुये स्तुति करने की रूढि रायण देवीनीगेमागे मंगलकारणमुरसवंगलं ॥१॥ बहुत पुराने समयसे कर्नाटक तथा संस्कृत काव्योंमें (४) श्रवणबेल्गोलकी गोमटेश्वर महामूर्तिके । है। उदाहरण:
(ई० स० ९८१) प्रतिष्ठापक चामुंडरायके गुरु नेमि१ 'भास' महाकविके 'प्रतिज्ञायौगन्धरायण' चन्द्रने अपने 'त्रिलोकसार' नामके प्राकृत ग्रंथमें नाटककी आदि की महासेन (स्कन्द) स्तुतिमें अपने इष्ट तीर्थकर ३३३ (२२वें)? 'नेमिनाथजिन' उसके मुख्य पात्रों के नाम हैं
___के नामको अपना नाम 'नेमिचन्द्र' से उल्लेख पातु वासवदत्तायो महासेनोतिवीर्यवान् । करते हुये उनकी स्तुति श्लेषसे कही हैवत्सराजस्तु नाम्ना सशक्तियोरान्धरायणः ॥ १॥
बलगोविन्दसिंहामणिकिरणकलावरुणचरणणहकिरणं । अपने 'पंचरात्र' नाटकमें नान्दीकी कृष्ण
विमलयरणेमिचंदं तिहु वण चंदं णमं सामि" ॥ स्तुतिमें नाटक पात्रोंके नाम दिये गये हैंद्रोणः पृथिव्यर्जुनभीमदूतो।
(५) आदिपंपने अपने धर्म ग्रन्थ कन्नड यः कर्णधारः शकुनीश्वरस्य ॥
'आदिपुराण' (ई०स०९४१-४२) के २रे आश्वाससे 'जन्न का शासनसंग्रह' ( 'कर्नाटककाव्यकला- 'बलगोविन्दशिखामणिकिरणकलापारुणचरणनख किरणम् निधि नं.३४ मैसूर)।
विमलतरनेमिचन्द्रं त्रिभुवनचन्द्रनमस्यामि ॥
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वर्ष ३, किरण ११ ]
अन्तिम आश्वास तक प्रत्येक आश्वासके प्रथम पद्यों में अपने जिनदेवको अपनी उपाधि 'सरस्वती 'महार' नाम से ही कहा है- इत्यादि
नृपतुंग जैन नहीं था
(१) जिनसेन तथा गुणभद्रने अपने ग्रन्थोंमें नृपतुंग जैनधर्मावलंबी हुआ यह बात कही नहीं । गुणभद्र के उत्तरपुराण के उस एक श्लोकसे भी वह अर्थ नहीं निकलता |
(२) दिगम्बर जैनियोंके 'सेन' गणको पट्टावली में कहे हुए प्रत्येक गुरुके सम्बन्ध में उससे किया गया विशेष कार्यों का उल्लेख उसके नामके साथ है। उसमें जिनसेन के सम्बन्ध में इतना ही कहा है
नृपतुंगका मत विचार
क्वल महाधवल-पुराणादि सकलग्रन्थकर्तारः श्रीजिनसेनाचार्याणाम्” (जै. सि. भा.. I. I. पृ० ३६)
( ३ ) जिनसेनने अपनी कृतियों में कहीं पर भी मैं नृपतुंगका गुरु हूँ यह नहीं कहा अथवा अपने नामके साथ नृपतुंगका नाम भी नहीं कहा।
(४) जिनसेन ई० स० ८४८ के उपरान्त नहीं होगा | नृपतुंग जिनसेनसे मतान्तर हो गया हो तो उसके पहिले ही होना चाहिये; परन्तु
+ उदा० - श्रवणवेलगुलका गोम्मटेश्वरप्रतिष्ठापक चामुंडा प्रथम गुरु 'अतितसेनाचार्य' के सम्बन्ध में इस पट्टावलीमें इस प्रकार है:——
'दक्षिण- मथुरानगरनिवासि क्षत्रिय वंशशिरोमणिदक्षिणत्र लिंगकर्नाटदेशाधिपतिचामुण्डराय - प्रतिबोधक बाहुबलिप्रतिबिम्ब गोम्मटस्वामिप्रतिष्ठाचार्य श्री अजितसेन - भट्टारकाणाम् ” ( जै०सि० भा० १.१ पृ० ३८ )
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नृपतुंग के समय के ई० सं० ८६६ के शासन से वह 'तब तक जैन नहीं हुआ इतना ही नहीं किन्तु विष्णुभक्त होना चाहिये, यह बात व्यक्त होती हैं। उसने महाविष्णुत्र राज्यबोल, (महाविष्णु राज्य के समान) राज्य शासन करता था ऐसा लिखा है । जैनधर्म के द्वादश चक्रवर्तियोंमेंसे किसीकी भी उपमा नहीं दी।
(५) अमोघवर्ष - नृपतुंग नामके बहुत से राजा हो गये हैं, 'गणितसारसंग्रह' में कहा हुआ नृपतुंग यही होगा तो उसका जन्मधर्म एकान्तपक्ष याने वैष्णव धर्म था यह बात और भी दृढ होती है । अन्यथा इस पक्ष में कहा हुआ वक्तव्य इतिहासदृष्टि से असंगत होनेसे उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता ।
(६) 'प्रश्नोत्तर रत्नमालिका' नृपतुंगकी कृति नहीं है, उसमें कहा हुआ 'विवेकात्त्यक्तराज्येन' श्लोक उसकी मूल रचना नहीं है, अर्वाचीन प्रक्षेप किया गया होगा अथवा उस श्लोक के वक्तव्य
सत्य समझने पर भी, उससे नृपतुंगने अपने विवेक से राज्य त्याग दिया अर्थ होता है न कि जैन धर्मका अवलंबन करनेसे वैसा किया या वह विवेक उसे जैनधर्मसे प्राप्त हुआ यह अर्थ सर्वथा नहीं हो सकता है ।
* विष्णु अपने अनेक अवतारोंमें चक्रवर्ति था यह बात 'श्रीमद्भागवत' इत्यादि पुराणोंसे मालूम पड़ती है। उदा० - दशरथराम, ऋषभचक्रवर्ती, प्रथचक्रवर्ती, इत्यादि) जैन धर्मके द्वादश चक्रवर्तियों के नाम रन्नने 'अजितपुराण' में कहे हैं ( कर्नाटककाव्यकलानिधि ३१ पृ० १८३ )
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अनेकान्त
(७) 'कविराजमार्ग' का कर्ता नृपतुंग हो • अथवा उसके आस्थानका और कोई हो, उसमें प्रतिफलित धर्म नृपतुंगका धर्म ही होना चाहिये, कर्ता अन्य होने पर भी उसका नहीं; अतएव उसकी अवतारिकाके पद्योंमें कही हुई विष्णु स्तुतिसे नृपतुंग वैष्णव था. यह बात भली भांति व्यक्त होती है ।
(८) सोरब शि० लेख न० ८५ ( ई० स० ८७७ ) में इस नृपतुंगका ( और उसके शासनके अन्तिम वर्षका) शासन, इस राष्ट्रकूट वंशके ( इसके पहिले राज्य करने वाले ) अन्य नरेशोंके शासनके समान है । इससे भी उसने अपने पूर्वजोंका
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धर्म नहीं छोड़ा मालूम पड़ता है।
(९) ई० सन् ८७७ के पश्चात इसका देहाव सान हुआ हो, अथवा यह राज्य - भारसे निवृत्त हुआ हो, इस बातको निष्कृष्ट करनेके लिये योग्य साधन नहीं है। इसका पुत्र तथा इसके अनन्तर गद्दी पर आया हुआ 'अकालवर्ष' नामका दूसरा कृष्ण (कन्नर ) अपने पूर्वजों के धर्म में रहसे नृपतुंग आमरणान्त अपने पूर्वजों के भागवत वैष्णव धर्मका अवलंबी ही होना चाहिये | अपने अन्तिम समय में भी उसने जैनधर्मका अवलंबन नहीं किया ।
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शिक्षा
जो चाहो सुख जगत में राग-द्वेष दो छोड़ । बन्ध - विनाशक साधु-प्रिय, समता से हित जोड़ |
अपना अपने में लखो, अपना-अपना जोय । अपने में अपना लखे, निश्रय शिव-पद होय ॥
क्रोध बोध को क्षय करत, क्रोध करत बृष -नाश । क्षमा अमिय पीते रहो, चाहो आत्म-विकाश ॥
- ब्र० प्रेमसागर पञ्चरत्न (प्रेम) रीठी।
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'जैनधर्म-परिचय' गीता-जैसा हो
- [ले.-श्री दौलतराम 'मित्र', इन्दौर]
१ता हिन्दूधर्मका एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। कौरव- बोल उठे कि-"जैनियोंके भण्डारमें गीता के समान
- पांडव-युद्ध-घटनाको लेकर गीतामें जीवन कोई ग्रन्थ हो तो दिखलाना चाहिये,नहीं तो उन्हें गीताकी प्रायः सभी समस्याओंके हल करने का प्रयत्न किया धर्मका अनुयायी होकर हिन्दूसभामें शामिल होना गया है । इस विशेषताके कारण गीता इतनी लोक- चाहिये ?" प्रिय हो गई है कि दुनियाकी प्रायः सभी भाषाओंमें जैनधर्म-ग्रन्थ-प्रचारके लिये अभीके पिछले दिनों में उसके अनुवाद मौजद हैं ।
भी बहुत कुछ प्रयत्न हुए, परन्तु वे पार नहीं पड़ पाये। ___जो सच्चे धार्मिक है,वे सभी अपने अपने धर्म ग्रन्थ- पार नहीं पड़ पानेका कारण लेखकोंकी अयोग्यता नीं का प्रभाव फैलाने-प्रचार करने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु और और कारण हैं। परन्तु प्रचार उसीका होता है जो सर्वसाधारण-जन- पहिला प्रयत्न पं०राजमल्लजीने किया, "पंचाध्यायी" सुलभ और सुबोध होता है । गीता-प्रचारकोंने इन ग्रन्थ संस्कृतमें लिखा, दो अध्याय भी परे नहीं हो दोनों बातोंका अच्छा उपयोग किया है।
पाये। अगर यह ग्रन्थ पूरा लिखा गया होता तो इसके गीताप्रचारको देखकर अाजके हम जैन लोगोंका सामने गीता फीकी दिखाई देती । फिर भी जितना भी ध्यान जैनधर्म-प्रचारके लिये श्राकर्षित होने लगा लिखा गया है उतना ही बहुत महत्व रखता है। है । परन्तु जैसा हिन्दूधर्मका सार अथवा जीवनकी दूसरा प्रयत्न पं०टोडरमलजीने किया, "मोक्षमार्गप्रायः सभी समस्याओंका हल एक जगह गीतामें इकट्ठा प्रकाशक" ग्रंथ ढूंढाड़ी-हिन्दीमें लिखा, यह भी अधव किया गया है, वैसा जैनधर्मका सार एक जगह इकट्ठा रहा। किया हुआ नहीं है। यही कारण है कि जैनधर्म-प्रचारके तीसरा प्रयत्न पं० गोपालदासजी बरैयाने किया, लिये जैनधर्मका परिचय कराने वाले एक ऐसे ग्रन्थकी “जैनसिद्धान्तदर्पण" ग्रन्थ हिन्दीमें लिखा, यह भी ज़रूरत है जो हो-“गीता जैसा"।
पूरा नहीं हुआ। बहुतसे महत्वपूर्ण ग्रन्थोंके होते हुए भी गीता-जैसा ये तीनों ही प्रयत्न सर्वसाधारण-जनोपयोगी ग्रन्थ ग्रन्थ हमारे यहाँ संग्रह किया हुअा न होनेसे आज बनानेके थे । प्रमाण ये हैंहमें समय समय पर दूसरे धार्मिकोंके कुछ आक्षेप भी पं० राजमल्लजी पंचाध्यायीमें लिखते हैंसहन करना पड़ रहे हैं । उस दिन कोल्हापुर में हिन्दू- अत्रान्तरंगहेतुर्यद्यपि भावः कवेविशुद्धतरः। धर्मपरिषदके अधिवेशन में महादेव शास्त्री दिवेकर हेतोस्तथापि हेतुः साध्वी सर्वोपकारिणी बुद्धिः॥५॥
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सर्वोपि जीवलोकः श्रोतुं कामो वृषं हिसुगमोक्त्या। दानवीर धनिकोंका भी हमारे समाजमें टोटा नहीं है । विज्ञसौ तस्य कृते तत्रायमुपक्रमः श्रेयान् ॥ ६॥ अब शेष रहे विद्वान् लोग । सो-आजका जमाना ___ अर्थ-ग्रन्थ बनानेमें यद्यपि अन्तरंग कारण कविका उपयोगितावादका है । किसी बातकी उपयोगिता (श्रावअति विशुद्ध भाव है तथापि उस कारणका भी कारण श्यकता) विज्ञानीपकरणोंके द्वारा सिद्ध कर देने पर ही सब जीवोंका उपकार करने वाली साधुस्वभाव वाली लोग उसे अधिकांशमें अपनानेको तैयार होते हैं । हमारे बुद्धि है ॥ ५॥ सम्पूर्ण जनसमूह धर्मको सरलरीतिसे समाजमें ऐसे पंडित हैं जो जिनसिद्धांत शास्त्रके जानकार सुनना चाहता है, यह बात सर्व विदित है । उसके लिए हैं.और ऐसे प्रोफेसर भी हैं जो विज्ञानोपकरणोंके जानकार यह प्रयोग (ग्रंथावतार-योजना) श्रेष्ठ है। हैं, परन्तु ये दोनों महानुभाव मिलकर ही ऐसे ग्रंथका
इसी प्रकार पं० टोडरमल जी मोक्षमार्गप्रकाशकमें निर्माण कर सकते हैं, एक एक नहीं । क्योंकि एक लिखते हैं
- दूसरेके विषयका बहुत ही कम जानकार हैं। "करि मंगल करि हों महाग्रन्थ करनको काज। इस प्रकार सामग्री सब मौजूद है । जिस दिन इस जाते मिले समाज सुख पावें निजपद राज ॥” उद्देश्यको लेकर पंडितों और प्रोफेसरोंका सम्मेलन हो
पं० गोपालदासजीने भी श्री जैनसिद्धान्त-दर्पणमें जायेगा उस दिन ग्रन्थ तैयार हुआ समझिये । ज़रूरत लिखा है
है ऐसे सम्मेलनकी शीघ्र योजना की। नवा वीरजिनेन्द्र सर्वज्ञ मुक्तिमार्गनेतारम् । यदि दस हज़ार रुपये खर्च करके भी हम ऐसा बाल-प्रबोधनार्थ जैन सिद्धान्त-दर्पणं वषये ॥" मूलग्रन्थ (हिन्दी और अंग्रेज़ीमें) तैयार करा सकें तो
अस्तु-अब हमें यह देखना है कि गीता-जैसा समझ लेना चाहिये कि वह बहुत ही सस्ता पड़ा। जिनधर्म-विषयक ग्रंथ बनाने और प्रचार करनेके लिये मेरी समझमें यह काम "वीरसेवामन्दिर, 'सरकिस किस सामग्रीको आवश्यकता है ? वह सामग्री यह है- सावा" के सिपुर्द होगा तो पार पड़ सकेगा। अन्यथा १ जिन-सिद्धान्त-शास्त्र ।
नाम भले ही हो जाय, काम होने वाला नहीं। . २ विद्वान लोग।
अर्थात्-जो कुछ भी अन्य तंत्रोंमें अच्छी अच्छी ३ पाश्चात्य विज्ञानोपकरणोंकी खरीदारी तथा ग्रंथ
उक्तियाँ दृष्टिगोचर हो रही हैं वे सब जिनागमसे उठा की लिखाई छपाई श्रादिके लिये धन ।
ली गई हैं । (राजवार्तिक) जिनसिद्धान्तशास्त्र के विषय में दावेके साथ कहा जयति जगति क्लेशावेशप्रपंच-हिमांशुमान् । जा सकता है कि यह सामग्री हमारे पास काफ़ी है IX विहत-विषमैकांत-ध्वान्त-प्रमाण-नयांशुमान् ॥ x बल्कि यहाँ तक कहा जाता है कि
यतिपतिरजो यस्याधृष्यान् मताम्बुनिधेलवान् । सुनिश्चितं नः परतंत्रयुक्तिषु, स्वमत-मतयस्तीया नाना परे समुपासते ॥ स्फुरंति याः काश्चनसूक्तिसम्पदः। ____ अर्थात्-जिनागमके एकएक विन्दुको लेकर तवैव ताः पूर्वमहार्णवोस्थिता, अनेक दार्शनिक अपना अपना मत बखानते हुए उसी जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविपुषः ॥ जिनशासनकी उपासना करते हैं।
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(१)
प्राशा ले०-श्री रघुवीरशरण अग्रवाल एम.ए. “घनश्याम"] अपि आशे ! त जगदाधार ।
(४) तेरे बिन सब शून्य जगत है।
नई उमङ्गोंका युवकोंकी । सभी जगह तव आव-भगत है | ...
... नई कल्पनाका बालाकी ॥ पूर्व कार्यके तू आजाती।
अभिलाषाका वृद्ध जनोंकी । कर्ता को है धीर बँधाती ॥
सुख-निद्राका बाल-गणोंकी ॥ बनाती क्या क्या नये विचार ।
हमेशा करती है विस्तार । अयि आशे ! तू जगदाधार ॥
अयि आशे ! तू जगदाधार ॥
(२)
.
भिन्न रूपसे सबके मनमें । भूमण्डलके हृदयस्थल में ॥ . कैसे कैसे काम कराती। भिन्न भिन्न परिणाम दिखाती ॥ ?
भिन्न रखती सबसे व्यवहार । अयि आशे ! तू जगदाधार ।
चातककी उस तृषित तानमें । वीणाके सुरमयी गानमें ॥ वधकराजके लोभ-पाशमें । विरह-विपीड़ित नारि-श्वासमें ॥
सदा तू करती है संचार । अपि आशे ! तू जगदाधार ॥
पथिक मार्ग चलता तव बल पर । पतिव्रता रहती निज व्रत पर ।। धर्म, अर्थ औं' काम मोक्षके । सब साधन तेरे सँजोगके ॥
सभीको देती है आधार । अयि आशे ! तू जगदाधार ॥
की राज-महलोंमें रहती । कभी गरीबीके दुख सहती ॥ श्रमी कृषकके कभी खेतमें। मई-जूनकी ल गर्मीमें ॥
__सुख पाती औ' दुःख अपार ।
अघि प्राशे ! तू जगदाधार ॥
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विद्यानन्द-कृत सत्यशासनपरीक्षा
[ले०-न्यायदिवाकर न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जैन शास्त्री, काशी] नहितैषी (भाग १४ अङ्क १०-११ ) में, उसके यह ग्रन्थ खंडित भी मालूम होता है; क्योंकि - तत्कालीन सम्पादक पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार- पुरुषाद्वैतकी परीक्षाके बाद क्रमानुसार इसमें 'शब्दाद्वैतद्वारा 'सत्यशासन-परीक्षा' ग्रन्थका परिचय कराया गया परक्षा' होनी चाहिए,पर शब्दाद्वैतकी परीक्षाका पूराका है । उसीमें इसे विद्यानन्द-कृत भी बतलाया है । मुझे पूरा भाग इसमें नहीं है । १० ६ पर जहाँ पुरुषाद्वैतकी वह परिचय पढ़ कर जैनतार्किक-शिरोमणि विद्यानन्दकी परीक्षा समाप्त होती है, एक पंक्तिके लायक स्थान छोड़ इस कृतिको देखने की उत्कट इच्छा हुई । मेरी इच्छाको कर 'विज्ञानाद्वैत परीक्षा' प्रारम्भ हो जाती है । मालूम मालूम करके, जैनसिद्धान्तभवन आराके अध्यक्ष होता है कि शब्दाद्वैतपरीक्षा वाला भाग छूट गया है। सुयोग्य विद्वान् ५० भुजबलीजी शास्त्रीने तुरन्त ही इस ग्रंथका मंगल श्लोक यह है'सत्यशासनपरीक्षा की वह प्रति मेरे पास भेज दी। विद्यानन्दादि (घि) पः स्वामी विद्वद्देवो जिनेश्वरः । इसका विशेष परिचय निम्न प्रकार है:- ये(यो)लोकैकहितस्तस्मै नमस्तात् सात्म(स्वात्म)लब्धये॥ प्रतिपरिचय
ग्रन्थकी विद्यानन्द-कत कताइस प्रतिमें १३४६ इंच साइज़के कुल २६ पत्र (१) यद्यपि बौद्धदर्शनमें दिग्नागकृत अालम्बन- ' हैं । एक पत्रमें एक ओर १२ पंक्तियाँ तथा एक पंक्तिमें परीक्षा, त्रिकालपरीक्षा; धर्मकीर्तिविरचितसम्बन्ध परीक्षा; करीब ५० अक्षर हैं । लिखावट नितान्त अशुद्ध है। कल्याणरक्षितकी श्रुतिपरीक्षा; धर्मोत्तरकी प्रमाणपरीक्षा ग्रन्थके मध्यमें कहीं भी ग्रन्थकर्ताका नाम नहीं है। आदि परीक्षान्त नाम वाले प्रकरणों के लिखने की प्राचीन ग्रन्थ अपूर्ण है । क्योंकि श्रारम्भमें ही "इह पुरुषाद्वैत परम्परा है, शान्तरक्षितका तत्त्वसंग्रह तो बीसों परीक्षाओं शब्दाद्वैत-विज्ञानाद्वैत-चित्राद्वैतशासनानि चार्वाक का एक विशाल संग्रह ही है । परन्तु जैनदर्शन में केवल बौद्धसेश्वर-निरीश्वर-सांख्य-नैयायिक-वैशेषिक-माप्रभा- तार्किकप्रवर विद्यानन्दने ही प्रमाणपरीक्षा, प्राप्त परीक्षा, करशासनानि तत्वोपप्लवशासनमनेकान्तशासनन्चेत्य- पत्रपरीक्षा आदि परीक्षान्त नाम वाले प्रकरणोंका रचना नेकशासनानि प्रवर्तन्ते" इस वाक्य द्वारा इसमें पुरुषा- शुरू किया है, और दि० तार्किक क्षेत्रमें उन्हीं तक द्वैत श्रादि १२ शासनोंकी परीक्षा करनेकी प्रतिज्ञा की गई इसकी परम्परा रही है । यद्यपि पीछे भी आचार्य है। परन्तु प्रभाकरकेमतके निरूपण तक ही ग्रंथ उपलब्ध अमितगति आदिने 'धर्मपरीक्षा' आदि परीक्षान्त तात्त्विक हो रहा है। प्रभाकरके मतका निरूपण भी उसमें ग्रंथ लिखे हैं पर दि० तर्कप्रधान ग्रंथों में परीक्षान्त नाम अधरा ही है । तत्वोपप्लव शासनकी परीक्षा तथा ग्रन्थका वाले ग्रंथ विद्यानन्दके ही पाए जाते हैं । श्वे० प्रा० सर्वस्व अनेकान्तशासन-परीक्षा तो इसमें है ही नहीं। उपाध्याय यशोविजय जीने 'अध्यात्ममतपरीक्षा' तथा
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वर्ष ३, किरण ११ ]
देवधर्मपरीक्षा - जैसे तर्कशैलीके तात्विक ग्रन्थ लिखे हैं । 'सत्यशासनपरीक्षा' का परीक्षान्त नाम भी अपनी विद्यानन्द-कर्तृकता की ओर संकेत कर ही रहा है ।
विद्यानन्द- कृत सत्यशासनपरीक्षा
(२) जिस प्रकार 'प्रमाणपरीक्षा' के मंगलश्लोक में 'विद्यानन्दा जिनेश्वराः' पद जिनेन्द्र के. केवलज्ञान और अनन्तसुखको तो विशेषण बन कर सूचित करता ही है तथा साथ ही साथ ग्रंथकर्ता के नामका भी स्पष्ट निर्देश कर रहा है उसी प्रकार सत्यशासन-परीक्षा के मंगलश्लोकका 'विद्यानन्दाधिपः ' पद भी उक्त दोनों कार्योंको कर रहा है । जिस प्रकार मंगलश्लोक के अनन्तर 'अथ प्रमाणपरीक्षा' लिखकर प्रमाणपरीक्षा प्रारम्भ होती है ठीक उसी प्रकार मंगलश्लोकके बाद 'अथ सत्यशासनपरीक्षा' की शुरूआत होती है । यद्यपि 'थ' शब्द से ग्रन्थ प्रारम्भ करनेकी परम्परा श्रापस्तम्ब श्रौतसूत्र, पातञ्जल-महाभाष्य तथा ब्रह्मसूत्र आदि ग्रन्थोंमें पाई जाती है परन्तु मंगलश्लोक के अनन्तर 'अथ' शब्द से ग्रंथ प्रारम्भ करना विद्यानन्द के ग्रंथों में देखा जाता है, और यही शैली प्रा० हेमचन्द्र आदि ने भी प्रमाणमीमांसा, काव्यानुशासन आदि में अपनाई हैं। इस तरह विद्यानन्दकर्तृकरूपसे सुनिश्चित प्रमाणपरीक्षाकी शैलीसे इसका प्रारम्भ आदि देखनेसे ज्ञात होता है कि यह कृति भी विद्यानन्दकी है ।
(३) उपलब्ध ग्रन्थका अान्तरिक निरीक्षण करने के बाद इसमें कोई भी ऐसा अवतरण वाक्य नहीं मिलता जिसका कर्ता निश्चितरूपसे विद्यानन्दका उत्तरकालवर्ती हो। इसकी शैली तथा विषयनिरूपण की पद्धति बिलकुल अष्टसहस्रीसे मिलती है । कहीं कहीं तो इतना शब्द साम्य है कि पढ़ते पढ़ते यह भ्रम होने लगता है कि 'अष्टसहस्री पढ़ रहे हैं या सत्यशासनपरीक्षा ?' इस तरह बहुतसे स्थलों में तो यह अष्टसहस्रके मध्यम संस्करणके समान ही प्रतीत
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होती है । ब्रह्माद्वैत आदि प्रकरणों में बृहदारण्यक भाष्यवार्तिक ( सम्बन्धवार्तिक श्लोक १७५ - ८१ ) आदि के 'ब्रह्मात्रिद्यावदिष्टं चेन्ननु दोषो महानयम्' इत्यादि वे ही श्लोक इसमें उद्धृत किए गए है जो कि अष्टसहस्री ( पृ० १६२ ) में पाए जाते है । समवायके खंडनमें आप्तपरीक्षाकी शैली शब्दतः तथा अर्थतः पूरी छाप मारती है । इन सब विद्यानन्द के अपने ही ग्रंथोंका इस तरहका तादात्म्य भी 'सत्यशासनपरीक्षा' के विद्यानन्द की कृति होने में पूरा पूरा साधक होता है ।
(४) विद्यानन्द ही अष्टसहस्री तथा प्रमाणपरीक्षा आदि ग्रंथो में तत्वोपप्लवकी समीक्षा बादको देखी जाती है । इसमें भी तत्वोपप्लवकी परीक्षा बादको करनेकी प्रतिज्ञा कीगई है ।
ग्रन्थका बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव
सत्यशासनपरीक्षा के मूल आधार स्वयं विद्यानन्द के ही प्रष्टसहस्री तथा श्राप्तपरीक्षा ग्रंथ हैं । जिनमें
सहस्रीका तो पद पद पर सादृश्य है । प्राप्त परीक्षा का भी समवाय के खण्डनमें पूरा पूरा सादृश्य है। इसका प्रतिबिम्ब प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्याय कुमुदचन्द्र, प्रमेय रत्नमाला आदि ग्रन्थों पर पूरा पूरा पड़ा है । इन ग्रंथों में इस के अनेकों वाक्य जैसे के तैसे शामिल कर लिए गए हैं।
विषयपरिचय
सबसे पहले परीक्षाका लक्षण करते हुए लिखा है कि "इयमेव परीक्षा यो यस्येदमुपपद्यते न वेति विचारः " अर्थात् 'इस वस्तुमें यह धर्म बन सकता है या नहीं, इस विचारका नाम ही परीक्षा है' ।
सत्यशासनपरीक्षाका तात्पर्य बताया है - ' शासनों के सत्यत्व की परीक्षा - कौन शासन सत्य है तथा कौन असत्य' सत्यका परिष्कृत लक्षण करते हुए लिखा है कि - " इद
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अनेकान्त :
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भाद्रपद, वीर निर्वाण सं० २४६६
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मेव हि सत्यशासनस्य सत्यवं नाम यत् दृष्टेष्टाविरुद्धस्वम्' 'यथा यत्राविसंवादः तथा तत्र प्रमाणता' यह कारिकांश अर्थात् शासनोंकी सत्यताका अर्थ है, उनका प्रत्यक्ष तथा अकलंकदेवका नाम निर्देश करके ही उद्धृत किया है। अनुमानसे बाधित नहीं होना । आचार्यमहोदयने सत्यता- अष्ट सहस्री (पृ० १५६ ) का 'नहि करोति कुम्भं की इसी सीधी-सादी कसौटी पर क्रमशः सभी दर्शनोंको कुम्भकारो दण्डादिना, भुक्ते पाणिनौदनमित्यादिकसा है। उन्होंने दर्शनोंकी परीक्षा करते समय पहले क्रियाकारकभेदप्रत्यक्ष भ्रान्तं ..' इत्यादि अंश ज्योंका सभी दर्शनोंका प्रामाणिक पूर्वपक्ष रक्खा है । फिर त्यो ग्रन्थमें शामिल है । अन्तमें ब्रह्माद्वैतपरीक्षाका पहले उसे प्रत्यक्ष-बाधित बता कर अन्तमें अनुमानसे उपसंहार करते हुए लिखा है कि- . बाधित सिद्ध करके उस उस दर्शनकी परीक्षा समाप्त की ब्रह्माविद्याप्रमापायात् सर्ववेदान्तिना(नां) वचः ।.. है । इन परीक्षाओंका कुछ परिचय निम्न प्रकार है:- भवेत्प्रलापमात्रस्वानावदे(धे)यं विपरिचताम् ॥
१ ब्रह्माद्वैतपरीक्षा-इसके पूर्वपक्षमें बृहादारण्य- ब्रह्माद्वैत मतं सत्यं न दृष्टेष्टविरोधतः । कोपनिषत् (२।३।५) 'पारमावारेऽयं दृष्टव्यः', ब्रह्मसूत्र न च तेन प्रतिक्षेपः स्याद्वादस्येति निश्चितम् ॥ (१।१२)का 'जन्मायस्य यतः', गीता (१५ । १ ) का २ शब्दाद्वैतपरीक्षा-इसका भाग प्रथमें नहीं है । 'ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुख्ययम्' इत्यादि अनेकों . ३ विज्ञानाद्वैतपरीक्षा-इसका निरूपण भी प्राचीन ग्रंथोंके अवतरण दिए गए हैं। उत्तर पक्षमें अष्टसहस्रीके सातवें परिच्छेदसे बहुत कुछ मिलता जुलता समन्तभद्रकी श्राप्तमीमांसाके दूसरे अध्यायकी अद्वैकान्त. ही
- है। इसमें अष्टशती (अष्टसहस्री पृ.०२३४ ) में उदधृत पक्षेऽपि इत्यादि ५-६ कारिकाएँ उद्धृत हैं । अकलङ्क- ।
'युक्तया यन्न घटामुपैति तदहं दृष्ट्वापि न श्रद्दधे' यह देवके न्यायविनिश्चयकी “इन्द्रजालादिषु भ्रान्ति" यह
वाक्य उद्धत है। कारिका (नं० ५१), कुमारिलके मीमांसा-श्लोकवार्तिक
विज्ञानाद्वैतका पूर्वपक्ष समाप्त करते हुए ये श्लोक (पृ० १६८) को 'अस्तिह्यालोचनाज्ञानम्' यह कारिका
लिखे हैं, जो किसी जैनतर्कग्रंथमें उद्धृत नहीं हैंभी प्रमाणरूपमें उद्धृत है । अष्टशती ( का० २७) का
नावनिर्न सलिलं न पावको न मम गगनं न चापरम् । 'अद्वैतशब्दः स्वाभिधेयप्रत्यनीकहरमार्थापेक्षः नव्पूर्वा
विश्वनाटकविलाससाक्षिणी संविधे(दे)व पतितोविज़म्भयति॥ खण्डपरत्वादहेत्वभिधानवत्' यह प्रसिद्ध अनुमान भी
''" एकसंविधि(दि)विभाति भेदधी:नीलपीतसुखदुःखरूपिणी । अद्वैतके खण्डनमें उपस्थित किया गया है।
निम्ननाभीयमुन्नतस्तनी स्त्रीति चित्रफलकेसमे इति ।। अविद्याको अनिर्वचनीय कह करके भी उसके स्व- उत्तरपक्षमें समन्तभद्र के युक्तथानुशासनकी 'अनर्थिरूपका निरूपण करनेवाले अद्वैतवादीको स्ववचनविरोध ।
कासाधनसाध्यधीश्चेद्” इत्यादि कारिका प्रामणरूपमें दूषण देते हुए उसके अनेक दृष्टान्त दिए हैं । यथा
उद्धृत कीगई है । अन्तमें उपसंहार करते हुएलिखा हैयावज्जीवमहं मौनी ब्रह्मचारी च मत्पिता।
प्रमाणाभावतः सर्व विज्ञानाद्वैतिनां वचः । माता मम भवेद्वन्ध्या स्मराभोऽनुपमो भवान् ॥ भवेत्प्रलापमात्रस्वानावधेयं विपश्चिताम् ॥
अकलंक देवके सिद्धिविनिश्चय (पृ० ६५ ) का ज्ञानाद्वैतं न सत्यं स्याद् दृष्टेष्टाभ्यां विरोधतः ।
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वर्ष ३, किरण ११]
न च तेन प्रतिक्षेपः स्याद्वादश्चे (दस्ये ) ति निश्चितम् ॥ ४ चार्वाकमतपरीक्षा -- इसके पूर्वपक्ष में सबसे पहले सुगतो यदि सर्वज्ञः कपिलो नेति का प्रमा' इस कारिकाके द्वारा सर्वज्ञ पर आक्षेप करके अन्त में तर्क और श्रागमकी निःसारता दिखाते हुए महाभारतका यह श्लोक उद्धत किया है
विद्यानन्द- कृत सत्यंशासनपरीक्षा
तदहर्जस्त नेहातो रक्षोह टेर्भवस्मृतेः । भूतानन्वयनात् सिद्धः प्रकृतिज्ञः सनातनः ॥
यह कारिका तथा समन्तभद्र के युक्त्यनुशासनकी 'मद्यगवद्भूतसमागमे ज्ञः, यद कारिका (श्लोक नं० ३५ प्रमाणरूपमें पेश कीगई है । अन्तमें उपसंहार करते हुए वैसा ही श्लोक लिखा है।
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दोपो यथा निवृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरितम् दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित्स्नेहवयात् केवलमेतिशतिम् ।
प्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नासौ मुनिर्यस्य वचः प्रमाणं। जिनस्तथा निर्वृ तिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः सपन्था ॥ दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काचिद्मोहदयात् केवलमेतिशांतिम् मोक्षके उपायोंमें सिर और दाढ़ीका मुँडाना, कषाय यह समस्त पूर्वपक्ष अष्टसहस्री ( पृ० ३६ ) के समान ही है । वस्त्रका धारण करना तथा ब्रह्मचर्य का पालन दि उल्लेखित है ।
अन्तमें अग्निहोत्रादिको बुद्धि और पुरुषार्थशून्य ब्राह्मण आजीविका का साधन कहकर विषय-भोगों को छोड़ने वालोंकी निपट मूर्खता बताते हुए लिखा है कि" यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् नास्ति मृत्योरगोचरः | भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ safoeti त्रयी वेदाः त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम् । बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः ॥” इत्यादि उत्तरपक्ष में यशस्तिलक उत्तरार्ध ( पृ० २५७ ) तथा प्रयत्नमाला ( ४ ( ४१८) में उद्धृत-
उत्तरपक्ष अष्टसहस्रीकी शैलीसे ही लिखा गया है । इसमें लधीयस्त्रयकी 'यथैकं भिन्न देशार्थान्' कारिका ( श्लोक नं०३७) उदघृत की है । अन्त में खंडन करते करते खीजकर बौद्धों को लिखा है कि ये हेयोपादेय विवेकसे रहित होकर केवल अनापशनाप चिल्लाते हैं"तथा च सौगतो हेयोपादेयरहितमह्नीकः केवलं विक्रोशति इत्युपेक्षा मर्हति " यही वाक्य अष्टसहस्रीमें लिखा है। बात यह है कि धर्मकीर्तिने दिगम्बरोंके लिये
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ह्रीक आदि शब्दों का प्रयोग करते हुए प्रमाणवार्तिक (३ । १८२ ) में लिखा है कि- 'एतेनैव यदहीका यत्कि - चिदश्लीलमा कुलम् । प्रलपन्ति ।..........' "पर्वो पंक्ति में धर्मकीर्ति के शब्द उन्हींको धन्यवाद के साथ वापिस किए गए हैं । इसमें समन्तभद्रकी श्रास मीमांसा तथा युक्त्यनुशासन के अनेकों पद्य प्रमाणरूप से उद्धृत कर खंडनको अधिक से अधिक सुगठित किया है ।
स्कंधकी सिद्धिमें सर्वार्थसिद्धिमें उद्धृत 'गिद्धस्स द्वेिण दुराधिएण' यह गाथा भी उद्धृत की है । श्रन्तमें सुगतमतको दृष्टेष्टबाधित बताकर सुगतमतपरीक्षा समाप्त की है ।
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न चार्वाकमतं सत्यं दृष्टादृष्टेष्टबाधतः ।
न च तेन प्रतिक्षेपः स्याद्वादश्चे (दस्ये ) ति निश्चितम् ॥ ५ ताथागतमत परीक्षा – इसके पूर्वपक्ष में रूपादि
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पांच स्कंधों के लक्षण, दुःखसमुदाय यदि चार आर्य
सत्योंके स्वरूप, तथा मोक्ष के सम्यक्त्व श्रादि श्राठ अंगों का बहुत सुन्दर विवेचन किया है। मोक्षके शून्यरूपका वर्णन करते हुए अश्वघोषकृत सौन्दरनन्द काव्य (१६ । २८-२६ ) के ये श्लोक उद्धत किए हैं
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अनेकान्त
[भाद्रपद, वीर निर्वाण सं०२४६६
६ सांस्यमतपरीक्षा-इसके पूर्वपक्षमें पच्चीस तत्वों- १.१० भादृ:प्रभाकरमतपरीक्षा-पूर्वपक्षमें भाटी के ज्ञानकी महत्ता बताते हुए माठरवृत्ति (१० ३८) द्वारा ग्यारह पदार्थोंका स्वीकार करनेका स्पष्ट कथन है, में दिया गया यह श्लोक उद्धृत किया है
जो किसी प्राचीन तर्कग्रन्थमें नहीं देखा जातापंचविंशतितत्त्वज्ञो यत्र कुत्राश्रमे रतः।
___ "मीमांसकेषु तावद् भाट्टा भणन्ति-पृथिव्यतेजो जटी मुंडी शिखी केशी मुच्यते नात्र संशयः॥ वायुविकालाकाशात्ममनःशब्दतमांसि इत्येकादशैव पदा
र्थाः ।" खंडन ठीक अष्टसहस्री-जैसा ही है ।
प्रभाकर नव पदार्थ ही मानते हैं-"द्रन्यं गुणः ७ वैशेषिकमतपरीक्षा-इसके पूर्वपक्षमें मोक्षके
क्रिया जातिः संख्या सादृश्यशक्तयः । समवायक्रमश्चेति साधन बताते हुए लिखा है कि-शैव पाशुपतादिदीक्षा
नव स्युः गुरुदर्शने" भट्टगुण क्रिया आदिको स्वतंत्र ग्रहण-जटाधारण-त्रिकालभस्मोद्धूलनादितपोऽनुष्ठानवि
पदार्थ नहीं मानते। शेषश्च ।”
__भाट जातिका और व्यक्तिमें सर्वथा तादात्म्य मान वैशेषिकके अवयवीका खंडन करते हुए उसे
___ कर भी जातिको नित्य और एक मानते हैं। इसका 'अमूल्यदानक्रयी'-बिना कीमत दिए खरीदने वाला
बाला- खंडन करते हुए हेतुबिन्दुकी अर्चटकृत टीकामें उद्धृत लिखा है । यह पद धर्मकीर्तिके ग्रंथोंमें पाया जाता है।
निम्न कारिकाएँ भी प्रमाणरूपमें पेश की गई हैं:इसका समवायके खंडन वाला प्रकरण 'श्राप्तपरीक्षा'
तादाम्यं चेन्मतं जातेयक्तिजन्मन्यजातता । के साथ विशेष सादृश्य रखता है। और इसीका प्रति- नाशेऽनाशश्व केनेष्टेः तच्चानन्वयो न किम् ॥ इत्यादि बिम्ब प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्र के समवाय बस सामान्यका खंडन अधरा ही है । अागेका खंडनमें स्पष्ट देखा जाता है।
ग्रंथ नहीं मिलता। ___८ नैयायिकमतपरीक्षा-वैशेषिक और नैयायिकों इसमें आगे भट्ट जयराशिसिंहकृत 'तत्त्वोपप्लवसिंह में कोई खास भेद न बताते हुए वैशेषिकमतके साथ ग्रंथमें प्ररूपित तत्वोपप्लव सिद्धान्तकी परीक्षा होगी । ही साथ इसकी भी लगे हाथ परीक्षा कीगई है । इसके अष्टसहस्री आदिकी तरह ही इसमें यह परीक्षा अत्यन्त पूर्वपक्ष में भक्तियोग, क्रियायोग तथा ज्ञानयोगका वर्णन विशद होनी चाहिए । है । भक्तियोगसे सालोक्य मुक्ति, क्रियायोगसे सारूप्य यहां तक तो ग्रंथका खंडनात्मक भाग ही है।
और सामीप्य मुक्ति, तथा ज्ञानयोगसे सायुज्य मुक्तिका आगेका 'अनेकाम्तशासनपरीक्षा' भाग, जो ग्रन्थका प्राप्त होना बहुत विस्तारसे बताया है। उत्तरपक्षमें मंडनात्मक भाग है और काफी विस्तारसे लिखा गया विपर्यय, अनध्यवसाय पदार्थों को सोलहसे अतिरिक्त मानने होगा, इसमें उपलब्ध ही नहीं है । का प्रसंग दिया है । सोलह पदार्थोंके खंडनका यही तर्कग्रन्थोंके अभ्यासी विद्यानन्दके अतुल पाण्डित्य, प्रकार प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि ग्रंथोंमें भी देखा जाता तलस्पर्शी विवेचन, सूक्ष्मता तथा गहराईके साथ किए है । अन्तमें, उपसंहार करते हुए लिखा है कि- जाने वाले पदार्थों के स्पष्टीकरण एवं प्रसन्न भाषामें गंथे "संसर्गहाने सर्वार्थहानेयॊगवचोऽखिजम् । भवेत्प्रलाप..." गए युक्ति जालसे परिचित होंगे। उनके प्रमाणपरीक्षा,
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वर्ष ३, किरण 1.1
विद्यानन्द-कृत सत्यशासनपरीक्षा
पत्रपरीक्षा और प्राप्तपरीक्षा प्रकरण अपने अपने मैं आशा करता हूँ कि जैनसिद्धान्तभवनके विषयके बेजोड़ निबन्ध हैं । ये ही निबन्ध तथा विद्यानन्द सुयोग्य अध्यक्ष इसकी मूल प्रतिका पता लगाएँगे। के अन्य ग्रंथ आगे बने हुए समस्त दि० श्वे. न्याय- . अन्य भंडारोंमें भी इस ग्रन्थरत्नकी प्रतियाँ मिलेगी। ग्रंथोंके आधार भूत हैं। इनके ही विचार तथा शन्द शास्त्ररसिकोंको इस ओर लक्ष्य अवश्य देना चाहिए। उत्तरकालीन दि० श्वे० न्यायग्रन्थों पर अपनी अमिट जब इसकी पूर्णप्रति उपलब्ध हो जाय तब इसका सुन्दर छाप लगाए हुए हैं । यदि जैनन्यायके कोशागारसे संस्करण माणिकचन्द्रग्रन्थमाला या अन्य ग्रंथमालाओं विद्यानन्दके ग्रन्थोंको अलग कर दिया जाय तो वह को अवश्य ही प्रकाशित करना चाहिए । यदि दुर्भाग्यसे एकदम निष्प्रभ-सा हो जायगा । उनकी यह सत्यशासन- यह ग्रन्थ अभ्य भण्डारोंमें अधूरा ही मिले तो समझ परीचा ऐसा एक तेजोमय रल है जिससे जैनन्यायका लेना चाहिए कि यह विद्यानन्दस्वामीकी अंतिम कृति अाकाश दमदमा उठेगा । यद्यपि इसमें आए हुए है । पर मात्र मौजदा प्रतिके भरोसे यह निष्कर्ष नहीं पदार्थ फुटकररूपसे उनके अष्टसहस्री श्रादि ग्रन्थों में निकाला जा सकता; क्योंकि इसमें बीचमें भी कई जगह खोजे जा सकते हैं पर इतना सुन्दर और पाठ छूटे हैं और सम्भव है कि अंतमें भी नकल अधूरी व्यवस्थित तथा अनेक नए प्रमेयोंका सुरुचिपूर्ण संकलन, रह गई हो । यदि पूरा ग्रंथ न मिले तब उपलब्ध भाग जिसे स्वयं विद्यानन्दने ही किया है, अन्यत्र मिलना ही प्रकाशित होना चाहिए, इससे अनेकों प्रमेयोंका असम्भव है।
खुलासा परिज्ञान किया जा सकेगा।
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प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी 'समीक्षा'
[ सम्पादकीय
कान्तके
पाठक प्रो० जगदीशचन्द्रजी जैन एम. ए.
से थोड़े-बहुत परिचित हैं - उनके कुछ लेखों को 'कान्स' में बढ़ चुके हैं। आप यू० पी० के एक दिगम्बर जैन विद्वान् है । एम० ए० के बाद रिसर्चका अभ्यास करने के लिये कुछ अर्से तक श्राप बोलपुर के शान्तिनिकेतन में एक रिसर्च स्कॉलरके रूपमें रहे हैं । इसी समय सिंघी जैमग्रन्थमाला' के संचालक मुनि जिनविजय नीकी श्रोरसे श्रापको राजधार्तिक' के सम्पादनका कार्य सौंपा गया था, जिसका श्रापने अपने पिछले लेख में उल्लेख किया है, और जो बादको स्थगित रहा है | आजकल आप बम्बईके रूइया कालिज में प्रोफेसर हैं। राजवार्तिक पर कुछ काम करते समय आपकी यह धारणा होगई है कि- १ उमास्वाति के तत्वार्थ सूत्र पर श्वेताम्बर सम्प्रदाय में जो भाष्य प्रचलित है तथा 'स्वोपज्ञ' कहा जाता है वह स्वोपज्ञ ही है अर्थात् स्वयं मूलसूत्रकार उमास्वातिकी रचना है; २ राजवार्तिक लिखते समय अकलंकदेवके सामने यही भाष्य मौजूद था, ३ अकलंकदेव इस भाष्य तथा मूल 'तत्त्वार्थसूत्र' के कर्ताको एक व्यक्ति मानते थे, और ४ उन्होंने अपने राजवार्तिक में इस भाष्यका यथेष्ट उपयोग किया है, इतना ही नहीं बल्कि इसके प्रति 'बहुमान' भी प्रदर्शित किया है । चुनाँचे अपनी इस धारणा अथवा मान्यताको दूसरे विद्वानोंके ( जो ऐसा नहीं मानते ) गले उतारने के लिये आपने 'तत्त्वार्थाधिगमभाष्य और कलंक' नामका
एक लेख लिखा, जो 'अनेकान्स' की गत ४ थी किरण में प्रकाशित हो चुका है।
इस लेख में प्रोफेसरसाहबने विद्वानोंको विशेष विचार के लिये श्रामन्त्रित किया था । सदनुसार मैंने भी अपना विचार 'सम्पादकीय - विश्वारणा' के नामसे प्रकट कर दिया था -४ पेजके लेख के अनन्तर ही ५ पेजकी अपनी 'विचारणा' को भी रख दिया था, जिसमें प्रोफेसर साहब की मान्यताकी श्राधारभूत युक्तियों को सदोष बतलाते और उनका निरसन करते हुए यह स्पष्ट किया गया था कि उन मुद्दों परसे यह बात फलित नहीं होती जिसे प्रो० साहब सुझाना चाहते हैं। साथ ही, विद्वानोंको इस विषय पर अधिक प्रकाश डालने के लिये प्रेरित भी किया था ।
अपने श्रामन्त्रणको इतना शीघ्र सफल होते देखकर, जहाँ प्रो० साहबको प्रसन्न होना चाहिये था वहाँ यह देखकर दुःख तथा खेद होता है कि इतनी अधिक संयत भाषा में लिखी हुई गवेषणा पूर्ण 'विचारणा'को पढ़कर भी आप कुछ प्रसन्न हुए हैं ! अपनी इस
प्रसन्नताको अपने उस लेख के प्रारम्भ में ही व्यक्त किया है, जो 'सम्पादकीय - विचारणाकी समीक्षा' के रूपमें लिखा गया है तथा इसी किरण में अन्यत्र प्रकाशित हो रहा है और जिसे प्रो० साहबने अपना वही पुराना " तत्त्वार्थाधिगमभाष्य और कलंक" शीर्षक दिया है । मालूम नहीं आपकी इस अप्रसन्नताका क्या कारण है ?
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वर्ष ३, किरण १]
प्रोजगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा
हो सकता है कि अपनी जिम मान्यता अथवा धारणाको प्रो० साहब सम्पादकको विचारक नहीं मानते १ या उन श्राप सहज ही दूसरे विद्वानोंके गले उतारना चाहते थे विद्वानोंमें परिगणित नहीं करते जिन्हें आपने अपने लेख उसमें उक्त 'विचारणा के कारण स्पष्ट बाधाका उप- पर विचार करने के लिये आमन्त्रित किया है १ अथवा स्थित होना आपको अँच गया हो और यही बात उसे अपने लेखका वह पाठक तक भी नहीं समझते आपकी अप्रसन्नताका कारण बन गई हो । अस्तु, जिमके विचाराऽधिकारको अपने लेखके उक्त आपके वे अप्रसन्नता-सूचक वाक्य, जिन्हें लेखके साथ वाक्यमें स्वयं स्वीकार किया है ? यदि ऐसा कुछ संगत अथवा उसका कोई विषय न होने पर मी आपको भी नहीं है तो फिर 'सम्पादकीय विचारणा' पर . अपनी चित्तवृत्ति के न रोक सकनेके कारण देने पड़े हैं उक्त आपत्ति और अप्रसन्नता कैसी ? अथवा
और साथ ही यह लिखना पड़ा है कि “यह इस लेखका सम्पादकके विचाराधिकार पर इस प्रकारका नियन्त्रण विषय नहीं है", इस प्रकार हैं:
कैसा कि वह किसीके लेख पर विचार न करके स्वतन्त्र ___ "शायद पं० जुगलकिशोरजीको यह बात न अँची, लेख लिखा करे ? और यदि इनमेंसे कोई बात प्रो०
और उन्होंने मेरे लेखके अन्त में एक लम्बी-चौड़ी टिप्पणी साहबके ध्यान में रही है तो कहना होगा कि आपके लगा दी । हमारी समझसे इस तरह के रिसर्च-सम्बन्धी उस लेखका ध्येय स्वतन्त्र विचार नहीं था-विचारका
स्पद विषय हैं, उन पर पाठकोंको कुछ समय मात्र अाडम्बर अथवा प्रदर्शन था। और इसलिये तब के लिये स्वतन्त्ररूपसे विचार करने देना चाहिये । आपकी अप्रसन्नताका कारण वही हो सकता है जिसकी सम्पादकको यदि कुछ लिखना ही इष्ट हो तो वह स्वतंत्र सम्भावनाको ऊपर कल्पना कीगई है । ऐसे कारणका लेख के रूपमें भी लिखा जासकता है । साथ ही, यह होना निःसन्देह एक विचारक तथा विचारके लिये
आवश्यकता नहीं कि लेखक सम्पादकके विचारोंसे दूमरे विद्वानोंको आमंत्रित करने वालेके लिए बड़ी सर्वथा सहमत ही हो।"
ही लजाकी बात होगी । बाकी यह बात कब किसने इन वाक्यों परसे जहाँ यह स्पष्ट है कि प्रो० साहब आवश्यक बतलाई है कि "लेखक सम्पादकके विचारोंसे को उक्त 'सम्पादकीय विचारणा' नागवार (अरुचिकर) सर्वथा सहमत ही हो" १ जिसके निषेधकी प्रो० साहबको मालुम हुई है वहाँ यह स्पष्ट नहीं है कि उससे पाठकोंके ज़रूरत पड़ी है, सो कुछ भी मालूम नहीं हो सका । स्वतन्त्ररूपसे विचार करने में कौनसी बाधा उपस्थित हो यदि ऐसी कोई बात अावश्यक हो तो सम्पादक ऐसे गई है–उसने तो पाठकोंके विचारक्षेत्रको बढ़ाया है लेखको छापे ही क्यों ? और क्यों टीका-टिप्पणी अथवा
और उनके सामने समुचित विचारमें सहायक और अधिक नोट लगानेका परिश्रम उठाए ? परन्तु बास ऐसी नहीं सामग्री रक्खी है । क्या समुचितविचारमें सहायक अधिक है । वास्तवमें जब किसी सावधान सम्पादकको यह बात सामग्रीका जुटाया जाना अथवा जानकार विद्वानोंके जंच जाती है कि लेखका अमुक अंश भ्रममूलक है द्वारा विचारका जल्दी प्रारम्भ कर दिया जाना रिसर्च और वह जनतामें किसी भारी भ्रान्ति अथवा ग़लतसम्बन्धी अथवा किसी भी विवादास्पद विषय के विचारमें फ़हमीको फैलाने वाला है तो वह अपने पाठकोंको कोई बाधा उत्पन्न करताहै ? कदापि नहीं । तब क्या उससे सावधान कर देना अपना कर्तव्य समझता है;
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अनेकान्त
[ भाद्रपद, वीर निर्वाण सं०२४६६
कारण कुएँ में गिरने के सम्मुख हो अथवा उसके गिरने की भारी सम्भावना हो तो उसे सावधान करके गिरनेसे न रोका जाय, बल्कि गिरने दिया जाय और बादको उसके उद्धारका प्रयत्न किया जाय ! मुझे तो हतोत्साह न होने देनेके खयाल से अपनाई गई यह नीति बड़ी ही विचित्र तथा बेढंगी मालूम होती है और इसमें कुछ भी नैतिकता प्रतीत नहीं होती। इस तरह तो कभी कभी उस मनुष्य के उद्धारका अवसर भी नहीं रहता जिसके उद्धारकी बात बादमें की जानेको होती है, और गिरनेसे उद्धारके वक्त तक गिरने वालेको जोहानि उठानी पड़ती है तथा बादको उद्धारकार्य में अपेक्षाकृत जो भारी परिश्रम करना पड़ता | मेरी दृष्टि में तो यह है वह सब अलग रह जाता देखते और जानते हुए कि किसी अन्धे अथवा बेखबर मनुष्य के रास्तेमें कुंद्रा या खड्ड है और यदि उसे शीघ्र सावधान न किया गया तो वह उसमें गिरने ही वाला है, समय तथा शक्ति के पासमें होते हुए भी, उसे सावधान न करके चुप बैठे रहना एक प्रकारका अपराध है, इसीलिये मैं इस नीतिको पसन्द नहीं करता । मेरे विचार से ऐसा करना सम्पादकीय कर्तव्य से च्युत होनेके बराबर है। जिन लेखकों का ध्येय वास्तव में सत्यका निर्णय है और जो इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये हृदयसे विद्वानोंको विचारके लिये श्रामन्त्रित करते हैं, उनके लिये ऐसी अनुसन्धान- प्रधान टिप्पणियाँ हतोत्साह के लिये कोई कारण नहीं हो सकतीं। वे उनका अभिनन्दन करते तथा उनसे समुचित शिक्षा ग्रहण करते हुए अपनी लेखनीको आागेके लिये और अधिक सावधान बनाते हैं, और इस तरह अपने जीवन में बहुत कुछ सफलता प्राप्त करते हैं । परन्तु जिन लेखकों का उक्त ध्येय ही नहीं है, जो यों ही अपनी मान्यताको दूसरों पर लादना चाहते हैं और विचारकका अभिनय करते हैं, उनका ऐसी मार्मिक टिप्प गियोंसे हतोत्साह होना स्वाभाविक है, और इसलिये उसकी ऐसी विशेष पर्वाह भी न की जानी चाहिये । श्रस्तु |
और यदि समय, शक्ति तथा परिस्थिति सब मिलकर उसे इजाज़त देते हैं तो वह उसी समय उस पर अपना नोट या टिप्पणी लगाकर यथेष्ट प्रकाश डाल देता है, और इस तरह अपने अनेक पाठकों को भूलभुलैयाँ के एकान्तगर्तमें न पड़कर विचारका सही मार्ग अंगीकार करने के लिये सावधान कर देता है। मैं भी शुरूसे इसी नीतिका अनुसरण करता आ रहा हूँ । लेखोंका सम्पादन करते समय मुझे जिस लेखमें जो बात स्पष्ट विरुद्ध, भ्रामक, त्रुटिपूर्ण, ग़लतफ़हमीको लिये हुए अथवा स्पष्टीकरणके योग्य प्रतिभासित होती है और मैं उस पर उसी समय यदि कुछ प्रकाश डालना उचित समझता हूँ और समयादिककी अनुकूलताके अनुसार डाल भी सकता हूँ तो उस पर यथाशक्ति संयतभाषामें अपना (सम्पादकीय ) नोट लगा देता हूँ । इससे पाठकों को सत्यके निर्णय में बहुत बड़ी सहायता मिलती है, भ्रम तथा ग़लतियाँ फैलने नहीं पातीं त्रुटियों का कितना ही निरसन हो जाता है और साथ ही पाठकों की शक्ति तथा समयका बहुतसा दुरुपयोग होने से बच जाता है । सत्यका ही सब लक्ष्य रहनेसे इन नोटोंमें किसीकी कोई रू-रिश्रायत अथवा अनुचित पक्षापक्षी नहीं की जाती और इसलिये मुझे कभी कभी अपने अनेक श्रद्धेय मित्रों तथा प्रकाण्ड विद्वानों के लेखों पर भी नोट लगाने पड़े हैं। परन्तु किसीने भी उन परसे बुरा नहीं माना; बल्कि ऐतिहासिक विद्वानोंके योग्य और सत्यप्रेमियोंको शोभा देने वाली प्रसन्नता ही व्यक्त की है । और भी कितने ही विचारक तथा निष्पक्ष विद्वान मेरी इस विचार पद्धतिका अभिनन्दन करते आ रहे हैं ।
हाँ, ऐसे भी कुछ विद्वान् हैं जो मेरी इस नोट-पद्धति को पसन्द नहीं करते । उनकी राय में नोटसे लेखक हतोत्साह होता है और इसलिये लेख के किसी अंशपर से यदि कोई भारी भ्रांति अथवा ग़लतफ़हमी भी फैलती हो तो उसे उस समय फैलने दिया जाय, नोट लगा कर उसके फैलने में रुकावट न की जाय, बादको उसका प्रतिकार किया जाय — अर्थात् कुछ दिन पीछे उस फैली हुई भ्रान्तिको दूर करनेका प्रयत्न किया जाय। इसका स्पष्ट श्राशय यह होता है कि यदि कोई मनुष्य बेखबरी के
मैं प्रो० साहबकी उस समीक्षाको परीक्षा करता हूँ जो उन्होंने उक्त 'सम्पादकीय विचारणा' पर लिखी है, और उसके द्वारा यह बतला देना चाहता हूँ कि वह कहाँ तक निःसार है | ( अगली किरण में समाप्त )
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पंडितप्रवर पाशाधर
[ले०-श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी ]
धर्मामृत'ग्रन्थके कर्ता पण्डित आशाधर एक बहुत उनका जैनधर्मका अध्ययन भी बहुत विशाल
बड़े विद्वान हो गये हैं। मेरे खयालमें दिगम्बर था। उनके ग्रन्थों से पता चलता है कि अपने समय सम्प्रदायमें उनके बाद उन-जैसा बहुश्रुत, प्रतिभा- के तमाम उपलब्ध जैनसाहित्यका उन्होंने अवशालो, प्रौढ़ ग्रन्थकर्ता और जैनधर्मका उद्योतक गाहन किया था। विविध आचार्यों और विद्वानों दुसरा नहीं हुआ। न्याय,व्याकरण, काव्य, अलंकार, के मत-भेदोंका सामंजस्य स्थापित करनेके लिए शब्दकोश, धर्मशास्त्र,योगशास्त्र,वैद्यक आदि विविध उन्होंने जो प्रयत्न किया है वह अपूर्व है । वे विषयों पर उनका असाधारण अधिकार था। इन 'आर्ष संदधीत न तु विघटयेत' के मानने वाले थे, सभी विषयों पर उनकी अस्खलित लेखनी चली है इसलिए उन्होंने अपना कोई स्वतन्त्र मत तो कहीं
और अनेक विद्वानोंने चिरकाल तक उनके निकट प्रतिपादित नहीं किया है; परन्तु तमाम मतभेदोंको अध्ययन किया है।
उपस्थित करके उनकी विशद चर्चा की है और फिर उनकी प्रतिभा और पाण्डित्य केवल जैनशास्त्रों उनके बीच किस तरह एकता स्थापित होसकती है, तक ही सीमित नहीं था, इतर शास्त्रोंमें भी उनकी सो बतलाया है। अबाध गति थी । इसीलिए उनकी रचनाओंमें पंडित आशाधर गृहस्थ थे, मुनि नहीं। पिछले यथास्थान सभी शास्त्रोंके प्रचुर उद्धरण दिखाई जीवनमें वे संसारसे उपरत अवश्य हो गये थे, पड़ते हैं और इसीकारण अष्टांगहृदय, काव्यालंकार, परन्तु उसे छोड़ा नहीं था, फिर भी पीछेके ग्रन्थअमरकोश जैसे ग्रंथों पर टीका लिखने के लिए वे कर्ताओंने उन्हें सूरि और आचार्यकल्प कह समर्थ होसके । यदि वे केवल जैनधर्मके ही विद्वान् कर स्मरण किया है और तत्कालीन भट्टारकों और होते तो मालव-नरेश अर्जुनवर्माके गुरू बालसर- मुनियोंने तो उनके निकट विद्याध्ययन करनेमें भी स्वती महाकवि मदन उनके निकट काव्यशास्त्रका कोई संकोच नहीं किया है । इतना ही नहीं मुनि अध्ययन न करते और विन्ध्यवर्माके संधिविग्रह- उदयसेनने उन्हें 'नय-विश्वचक्षु' और 'कलिकालिदास' मन्त्री कवीश विल्हण उनकी मुक्त कण्ठसे प्रशंसा और मदनकीर्ति यतिपतिने 'प्रज्ञापुंज' कहकर अभिन करते। इतना बड़ा सन्मान केवल साम्प्रदायिक नन्दित किया था। वादीन्द्र विशालकीर्तिको उन्होंने विद्वानोंको नहीं मिला करता । वे केवल अपने न्यायशास्त्र और भट्टारकदेव विनयचन्द्रको धर्मअनुयायियोंमें ही चमकते हैं, दूसरों तक उनके शास्त्र पढ़ाया था। इन सब बातोंसे स्पष्ट होता है ज्ञानका प्रकाश नहीं पहुंच पाता।
कि वे अपने समयके अद्वितीय विद्वान् थे।
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उन्होंने अपनी प्रशस्तिमें अपने लिए लिखा है कि 'जिनधर्मादयार्थ यो नलकच्छपुरेऽवसत् अर्थात् जो जैनधर्मके उदय के लिए धारानगरीको छोड़कर नलकच्छपुर ( नालछा ) में आकर रहने लगा । उस समय धारानगरी विद्याका केन्द्र बनी हुई थी। वहाँ भोजदेव, विन्ध्यवर्मा, अर्जुनवर्मा जैसे विद्वान् और विद्वानोंका सन्मान करने वाले राजा एकके बाद एक हो रहे थे । महाकवि मदनकी 'पारिजात - मञ्जरी' के अनुसार उस समय विशाल धारानगरी में ८४ चौराहे थे और वहाँ नाना दिशा ओंसे आये हुए विविध विद्याओं के पण्डितों और कला - कोविदोंकी भीड़ लगी रहती थी । वहाँ 'शारदा सदन' नामका एक दूर दूर तक ख्याति पाया हुआ विद्यापीठ था । स्वयं आशाधरजीने धारा में ही व्याकरण और न्यायशास्त्रका अध्ययन किया था । ऐसी धाराको भी जिस पर हर एक विद्वानको मोह होना चाहिये पण्डित आशाधरजीने जैनधर्मके ज्ञानको लुप्त होते देखकर उसके उदय के लिए छोड़ दिया और अपना सारा जीवन इसी कार्य में लगा दिया।
वे लगभग ३५ वर्षके लम्बे समयतक नालछा में ही रहे और वहां के नेमि - चैत्यालय में एकनिष्ठता से जैन साहित्यकी सेवा और ज्ञानकी उपासना करते रहे । उनके प्रायः सभी ग्रभ्थोंकी रचना नालछा के उक्त नेमि चैत्यालय में ही हुई है और वहीं वे अध्ययन अध्यापनका कार्य करते रहे हैं । कोई
* चतुरशीतिचतुष्पथसुरसदनप्रधाने सकलदिगन्तरोपगतानेकत्रैविद्य सहृदय कला को विदरसिकसुकविसंकुले ... - पारिजातमंजरी
...
[ भाद्रपद, वीर निर्वाण सं० २४६६
आश्चर्य नहीं, जो उन्हें धाराके 'शारदा सदन' के अनुकरण पर ही जैनधर्मके उदयकी कामना से श्रावक संकुल नालछेके उक्त चेस्यालयको अपना विद्यालय बनानेकी भावना उत्पन्न हुई हो। जैनधर्मके उद्धार की भावना उनमें प्रबल थी ।
अनेकान्त
ऐसा मालूम होता है कि गृहस्थ रह कर भी कमसे कम 'जिनसहस्रनाम' की रचना के समय वे संसार- देहभोगों से उदासीन हो गये थे और उनका मोहावेश शिथिल हो गया था। हो सकता है कि उन्होंने गृहस्थकी कोई उच्च प्रतिमा धारण कर ली हो, परन्तु मुनिवेश वो उन्होंने धारण नहीं किया था, यह निश्चय है । हमारी समझमें मुनि होकर वे इतना उपकार शायद ही कर सकते जितना कि गृहस्थ रह कर ही कर गये हैं ।
२
अपने समय के तपोधन या मुनि नामधारी लोगोंके प्रति उनको कोई श्रद्धा नहीं थी, बल्कि एक तरह की वितृष्णा थी और उन्हें वे जिनशासनको मलिन करनेवाला समझते थे, जिसको कि उन्होंने धर्मामृत में एक पुरातन श्लोकको उद्धृत करके व्यक्त किया है
पण्डितैभृष्टचारित्रैः बठरैश्च तपोधनैः । शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥
पण्डितजी मूल में मांडलगढ़ (मेवाड़) के रहने वाले थे। शहाबुद्दीन ग़ोरीके आक्रमणोंसे त्रस्त होकर अपने चारित्रकी रक्षा के लिए वे मालवाकी
+ प्रभो भवाङ्गभोगेषु निर्विण्णो दुःखभीरुकः । एष विज्ञापयामि त्वां शरण्यं करुणार्णवम् ॥ १ ॥ मोहग्रहावेशशैथिल्यात्किञ्चिदुन्मुखः ।
- निनसहस्रनाम
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वर्ष ३, किरण ११]
पण्डितप्रवर पाशाधर
राजधानी धारामें बहुत-से लोगोंके साथ आकर बना होगा । क्योंकि इसका उल्लेख सं० १३०० में बस गये थे । वे व्याघेरवाल या बघेरवाल जातिके बनी हुई अनगारधर्मामृतटीकाको प्रशस्तिमें है, थे जो राजपूतानेकी एक प्रसिद्ध वैश्यजाति है। १२९६ में बने हुए जिनयज्ञकल्पमें नहीं है। यदि यह __उनके पिताका नाम सल्लक्षण, माताका श्रीरत्नी, सही है तो मानना होगा कि आशाधरजीके पिता पत्नीका सरस्वती और पुत्रका छाहड़ था । इन १२९६ के बाद भी कुछ समय तक जीवित रहे होंगे चारके सिवाय उनके परिवार में और कौन कौन थे, और उस समय वे बहुत ही वृद्ध होंगे । सम्भव है इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता।। कि उस समय उन्होंने राज-कार्य भी छोड़ दिया हो।
मालव-नरेश अर्जुनवर्मदेवका भाद्रपद सुदी१५ पण्डित आशाधरजीने अपनी प्रशस्तिमें अपने बुधवार सं० १२७२ का एक दानपत्र मिला है, पुत्र छाहड़को एक विशेषण दिया है, "रंजितार्जुनजिसके अन्तमें लिखा है--"रचितमिदं महासन्धि भूपतिः' अर्थात् जिसने राजा अर्जुनवर्माको प्रसन्न राजा सलखणसंमतेन राजगुरुणा मदनेन । अर्थात किया । इससे हम अनुमान करते हैं कि राजा यह दानपत्र महासान्धिविग्रहिक मंत्री राजा सलख- सलखणके समान उनके पोते छाहड़को भी अर्जुनणकी सम्मतिसे राजगुरु मदनने रचा। इन्हों अर्जन- वर्मदेवने कोई राज्य-पद दिया होगा । अक्सर वर्मा के राज्यमें पं० आशाधर नालछामें जाकर रहे राजकर्मचारियोंके वंशजोंको एकके बाद एक राज्यथे और ये राजगुरू मदन भी वही हैं जिन्हें पं. कार्य मिलते रहते हैं । पं० आशाधरजी भी कोई आशाधरजीने काव्य-शास्त्रकी शिक्षा दी थी। इससे राज्य पद पा सकते थे परन्तु उन्होंने उसकी अपेक्षा अनुमान होता है कि उक्त राजा सलखण ही संभव जिनधर्मोदयके कार्य में लग जाना ज्यादा कल्याणहै कि आशाधरजीक पिता सल्लक्षण हों।
कारी समझा।
उनके पिता और पुत्रके इस सन्मानसे स्पष्ट जिस समय यह परिवार धारामें आया था
होता है कि एक सुसंस्कृत और राज्यमान्य कुलमें उस समय विन्ध्यवर्माके सन्धि-विग्रहके मंत्री (परराष्टसचिव ) विल्हण कवीश थे। उनके बाद
उनका जन्म हुआ था और इसलिए भी बालकोई आश्चर्य नहीं जो अपनी योग्यताके कारण
सरस्वती मदनोपाध्याय जैसे लोगोंने उनका शिष्यत्व
स्वीकार करने में संकोच न किया होगा। सलक्षणने भी वह पद प्राप्त कर लिया हो और
वि० सं० १२४९ के लगभग जब शहाबुद्दीन सम्मानसूचक राजाकी उपाधि भी उन्हें मिली हो ।
गोरीने पृथ्वीराजको कैद करके दिल्लीको अपनी पण्डित आशाधरजीने 'अध्यात्म-रहस्य' नामका
राजधानी बनाया था और उसी समय उसने प्रन्थ अपने पिताकी आज्ञासे निर्माण किया था ।
अजमेर पर भी अधिकार किया था, तभी पण्डित यह ग्रन्थ वि० सं० १२९६ के बाद किसी समय
आशाधर मांडलगढ़ छोड़कर धारामें आये होंगे। + अमेरिकन ओरियंटल सोसाइटीका जर्नल वा. उस समय वे किशोर होंगे, क्योंकि उन्होंने ७ और प्राचीन लेखमाला भाग १ पृ० ६-७। व्याकरण और न्यायशास्त्र वहीं आकर पढ़ा था।
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अनेकान्त
यदि उस समय उनकी उम्र १५-१६ वर्षकी रही हो तो उनका जन्म वि० सं० १२३५ के आसपास हुआ होगा । उनका अन्तिम उपलब्ध ग्रन्थ (अनगार-धर्म-टीका ) वि० सं० १३०० का है। उसके बाद वे और कब तक जीवित रहे, यह पता नहीं । फिर भी निदान ६५ वर्षकी उम्र तो उन्होंने अवश्य पाई थी और उनके पिता तो उनसे भी अधिक दीर्घजीवि रहे ।
अपने समयमें उन्होंने धाराके सिंहासन पर पाँच राजाओं को देखा -
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समकालीन राजा
१ विन्ध्यवर्मा – जिस समय में वे धारामें आये उस समय यही राजा थे । ये बड़े वीर और विद्यारसिक थे । कुछ विद्वानोंने इनका समय वि० सं० १२१७ से १२३७ तक माना है । परन्तु हमारी समझमें वे १२४६ तक अवश्य ही राज्यासीन रहे हैं जब कि शहाबुद्दीन गोरीके त्रास से पण्डित
शाघरका परिवार धारामें आया था। अपनी प्रशस्ति में इसका उन्होंने स्पष्ट उल्लेख किया है ।
२ सुभटवर्मा - यह विन्ध्य वर्माका पुत्र था और बड़ा वीर था । इसे सोहड़ भी कहते हैं । इसका राज्यकाल वि० सं १२३७ से १२६७ तक माना जाता है | परन्तु वह १२४९ के बाद १२६७ तक होना चाहिए । पण्डित आशाधरके उपलब्ध ग्रन्थ में इस राजा का कोई उल्लेख नहीं है ।
३ अर्जुनवर्मा – यह सुभटवर्माका पुत्र था और बड़ा विद्वान् कवि और गान - विद्या में निपुण था । इसकी 'अमरुशतक' पर 'रससंजीविनी' नामकी टीका बहुत प्रसिद्ध है जो इसके पांडित्य और
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काव्यमर्मज्ञताको प्रकट करती है । इसीके समय में महाकवि मदनकी 'पारिजातमंजरी' नाटिका बसन्तोत्सव के मौके पर खेली गई थी । इसीके राज्य काल में पं० आशाधर नालछा में जाकर रहे थे । इसके समय में तीन दान-पत्र मिले हैं। एक मांडू में वि०सं०१२६७ का, दूसरा भरोंच में १२७० का और तीसरा मान्धाता में १२७२ का । इसने गुजरातनरेश जयसिंहको हराया था ।
४ देवपाल-अर्जुन वर्मा के निस्संतान मरने पर यह गद्दी पर बैठा । इसकी उपाधि साहसमल्ल थी । इसके समय के सं० १२७५, १२८६ और १२८९ के तीन शिलालेख और १२८२ का एक दानपत्र मिला है। इसीके राज्यकाल में वि० सं० १२८५ में जिनयज्ञ- कल्पकी रचना हुई थी ।
५ जैतुगिदेव - ( जयसिंह द्वितीय ) यह देवपाल का पुत्र था । इसके समय के १३१२ और १३१४ के दो शिलालेल मिले हैं। पं० आशाधर ने इसीके राज्य काल में १२९२ में त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र १२९६ में सागारधर्मामृत टीका और १३०० में अनगारधर्मामृत टीका लिखी ।
ग्रन्थ-रचना
वि० सं० १३०० तक पं० आशा धरजीने जितने ग्रन्थोंकी रचना की उनका विवरण नीचे दिया जाता है
१ प्रमेयरत्नाकर – इसे स्याद्वाद विद्याका निर्मल प्रसाद बतलाया है । यह गद्य ग्रन्थ है और बीच
+ विन्ध्यवर्मा जिसकी गद्दीपर बैठा था, उस अजयवर्मा के भाई लक्ष्मीवर्मा का यह पौत्र था ।
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वर्ष ३, किरण ११]
पंडितप्रवर पाशाधर
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बीचमें इसमें सुन्दर पद्य भी प्रयुक्त हुए हैं। अभी पहले शोलापुरसे अपराजितसूरि और अमितगति तक यह कहीं प्राप्त नहीं हुआ है।
की टीकाओंके साथ प्रकाशित हो चकी है। जिस __२ भरतेश्वराभ्युदय—यह सिद्धयङ्क है । अर्थात् प्रति परसे वह प्रकाशित हुई है उसके अन्तके कुछ इसके प्रत्येक सर्गके अन्तिम वृत्तमें 'सिद्धि' शब्द पृष्ठ खो गये हैं जिनमें पूरी प्रशस्ति रही होगी। आया है । यह स्वोपज्ञ टीका सहित है । इसमें इष्टोपदेश टीका-आचार्य पूज्यपादके सुप्रसिद्ध प्रथम तीर्थकरके पुत्र भरतके अभ्युदयका वर्णन ग्रन्थकी यह टीका माणिकचन्द जैन-ग्रन्थमालाके होगा। सम्भवतः महाकाव्य है। यह भी अप्रा- तत्त्वानुशासनादि-संग्रहमें प्रकाशित हो चुकी है।
_____८ भूपालचतुर्विन्शतिका-टीका-भूपालकविके प्र३ ज्ञानदीपिका-यह धर्मामत (सागार-अन- सिद्ध स्तोत्रकी यह टीका अभी तक नहीं मिली। गार)की स्वोपज्ञ पंजिका टीका है। कोल्हापुरके जैन आराधनासार टीका-यह आचार्य देवसेनके मठमें इसकी एक कनड़ी प्रति थी, जिसका उपयोग आराधनासार नामक प्राकृत पन्थकी टीका है। स्वः पं० कल्लापा भरमाप्पा निटवेने सागारधर्मा- १० अमरकोष टीका-सुप्रसिद्ध कोषकी टीका । मृतकी मराठी टीकामें किया था और उसमें अप्राप्य । टिप्पणीके तौर पर उसका अधिकांश छपाया था। क्रियाकलाप-बम्बईके ऐ० पन्नालाल उसी के आधारसे माणिकचन्द-ग्रन्थमाला द्वारा सरस्वती-भवनमें इस ग्रंथकी एक नई लिखी हुई प्रकाशित सागारधर्मामृत सटीकमें उसकी अधि- अशुद्ध प्रति है, जिसमें ५२ पत्र हैं,और जो १९७६ काँश टिप्पणियाँ दे दी गई थीं। उसके बाद निट• श्लोक प्रमाण है । यह ग्रन्थ प्रभाचन्द्राचार्यके क्रियावेजीसे मालूम हुआ था कि उक्त कनडी प्रति जल- कलापके ढंगका है । ग्रंथमें अन्त-प्रशस्ति नहीं है। कर नष्ट हो गई ! अन्यत्र किसी भण्डारमें अभी प्रारम्भके दो पद्य ये हैंतक इस पंजिकाका पता नहीं लगा। जिनेन्द्रमुन्मूलितकर्मबन्धं प्रणम्य सन्मार्गकृतस्वरूपं । ___४ राजीमती विप्रलंभ-यह एक खण्डकाव्य है अनन्तबोधादिभवं गुणौघं क्रियाकलापं प्रकटं प्रवषये ॥१॥
और स्वोपज्ञटीकासहित है। इसमें राजमतीके योगिध्यानैकगम्यः परमविशदग्विश्वरूपः सतच्च । नेमिनाथ-वियोगका कथानक है। यह भी अप्राप्य स्वान्तस्थे मैव साध्यं तदमलमतयस्तत्पदध्यानबीनं,
चित्तस्थैर्य विधातुं तदनवगुणग्रामगाढ़ामरागं, ५ अध्यात्म-रहस्य-योगाभाष्यका आरम्भ करने तत्पूजाकर्म कर्मच्छिदुरमति यथा त्रमासूत्रयन्तु ॥ २॥ वालोंके लिये यह बहुत ही सुगमयोगशास्त्रका १२ काव्यालंकार टाका-अलंकारशास्त्रके सुप्रग्रंथ है । इसे उन्होंने अपने पिताके आदेशसे लिखा सिद्ध आचार्य रुद्रटके काव्यालंकार पर यह टीका. था। यह भी अप्राप्य है।
लिखी गई है । अप्राप्य । ६ मूलाराधना-टीका-यह शिवार्य की प्राकृत १३ सहस्रनामस्वतन-सटीक-पण्डित आशाधर भगवती आराधनाकी टीका है जो कुछ समय का सहस्रनाम स्तोत्र मवत्र सुलभ है । छप भी
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चुका है । परन्तु उसकी स्वोपज्ञ टीका अभी तक अप्राप्य है । बम्बई के सरस्वती भवनमें इस सहस्र. नामकी एक टीका है परन्तु वह श्रुतसागरसूरिकृत है।
१४जिनयज्ञकल्प- सटीक — जिनयज्ञकल्पका दूसरा नाम प्रतिष्ठासारोद्धार है । यह मूल मात्र तो पंडित मनोहरलालजी शास्त्री द्वारा सं० १९७२ में प्रका शित हो चुका है । परन्तु इसकी स्वोपज्ञ टीका अप्राप्य है । इस ग्रंथको पण्डितजीने अपने धर्मा मृतशास्त्रका एक अंग बतलाया 1
१५ त्रिषटिस्मृतिशास्त्र सटीक - यह ग्रंथ कुछ समय पूर्व माणिकचन्द्र-ग्रन्थमाला में मराठी अनु वादसहित प्रकाशित हो चुका है । संस्कृत टीकाके
टिप्पणी के तौरपर नीचे दे दिये गये हैं । नित्यमहोद्योत - यह स्नानशास्त्र या जिनाभिषेक अभी कुछ समय पहले पण्डित पन्नालालजी सोनीद्वारा संपादित “अभिषेक पाठ-संग्रह " में श्री श्रुतसागरसूरिकी संस्कृत टीकासहित प्रकाशित हो चुका हैं।
१७ रत्नत्रय-विधान– यह ग्रंथ बम्बई के ऐ० प० सरस्वती-भवन में है । छोटासा ८ पत्रोंका ग्रंथ है । इसका मंगलाचरण
श्रीवर्द्धमानमानम्य गौतमादीश्च सद्गुरून् । रत्नत्रयविधि वच्ये यथाम्नायां विमुक्तये ॥
१८ अष्टांगहृदयोद्योतिनी टीका - यह आयुर्वेदा चार्य वाग्भटके सुप्रसिद्ध ग्रंथ वाग्भट या अष्टांग हृदयकी टीका है और अप्राप्य है ।
अनेकान्त
[ भाद्रपद, वीर निर्वाण सं० २४६६
गार और अनगार दोनोंकी टीका पृथक् पृथक् दो जिल्दों में प्रकाशित हो चुकी है।
इन २० ग्रन्थों में से मूलाराधना टीका, इष्टोपदेश टीका, सहस्रनाम मूल (टीका नहीं), जिनयज्ञकल्प मूल ( टीका नहीं ), त्रिषष्टिस्मृति, धर्मामृत के सागार अनगार भागों की भव्य कुमुदचन्द्रिका टीका और नित्यमहोद्योत मूल (टीका नहीं ) ये ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं और क्रियाकलाप उपलब्ध है । भरताभ्युदय और प्रमेयरत्नाकर के नाम सोनागिरके भट्टारकजीके भण्डार की सूची में अब से लगभग २८ वर्ष पहले मैंने देखे थे । संभव है वे वहांके भण्डारोंमें हों । शेष ग्रन्थोंकी खोज होनी चाहिए। हमारे खयाल में आशाधरजीका साहित्य नष्ट नहीं हुआ है । प्रयत्न करनेसे वह मिल सकता है ।
११ – २० सागार और अनगार - धर्मामृतकी भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका - माणिकचन्द्रग्रन्थमाला में सा
रचनाका समय
पहले लिखा जा चुका है कि पण्डित आशाधरजीकी एक ही प्रशस्ति है जो कुछ पद्योंकी न्यूनाधिकता के साथ उनके तीन मुख्य ग्रंथों में मिलती है।
जिनयज्ञकल्प वि० सं० १२८५ में, सागार
'शाधरविरचित पूजापाठ' नामसे लगभग चारसौ पेजका एक ग्रन्थ श्री नेमीशा आदप्पा उपाध्ये, उद्गांव ( कोल्हापुर ) ने कोई २० वर्ष पहले प्रकाशित किया था । परन्तु उसमें प्रशाधरकी मुश्किलसे दो चार छोटी छोटी रचनायें होंगी, शेष सब दूसरोंकी हैं। और जो हैं वे उनके प्रसिद्ध ग्रंथोंसे ली गई जान पड़ती हैं ।
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वर्ष ३, किरण ११]
पण्डितप्रवर पाशाधर
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धर्मामृत-टीका १२९६ में और अनगारधर्मामृत- हैं 'मदनकीर्ति-प्रबन्ध' नामका एक प्रबन्ध है । टीका १३०० में समाप्त हुई है । जिनयज्ञकल्पकी उसका सारांश यह है कि मदनकीर्ति वादीन्द्र प्रशस्तिमें जिन दस ग्रन्थोंके नाम दिये हैं, वे विशालकीर्तिके शिष्य थे । वे बड़े भारी विद्वान थे। १२८५ के पहले के बने हुए होने चाहिएँ । उसके चारों दिशाओंके वादियोंको जीतकर उन्होंने बाद सागारधर्मामृत टीकाकी समाप्ति तक अर्थात 'महाप्रामाणिक-चूड़ामणि' पदवी प्राप्त की थी । १२९६ तक काव्यालंकार-टीका, सटीक सहस्रनाम, एक बार गुरुके निषेध करने पर भी वे दक्षिणा सटीक जिनयज्ञकल्प, सटीक त्रिषष्टिस्मृति, और पथको प्रयाण करके कर्नाटकमें पहुँचे । वहाँ विद्वनित्यमहोद्योत ये पाँच ग्रंथ बने । अन्तमें १३०० प्रिय विजयपुरनरेश कुन्तिभोज उनके पाण्डित्य तक राजीमती-विप्रलम्भ, अध्यात्मरहस्य, रत्नत्रय- पर मोहित हो गये और उन्होंने उनसे अपने विधान और अनगारधर्म-टीकाकी रचना हुई। पूर्वजोंके चरित्र पर एक ग्रन्थ निर्माण करनेको इस तरहसे मोटे तौरपर ग्रन्थ-रचनाका समय कहा । कुन्तिभोजकी कन्या मदन-मञ्जरी सुलेखिका मालूम हो जाता है।
थी। मदनकीर्ति पद्य-रचना करते जाते थे और त्रिषष्टिस्मृतिकी प्रशस्तिमे मालूम होता है कि मञ्जरी एक पर्देकी आड़में बैठकर उसे लिखती वह १२९२ में बना है। इष्टोपदेश टीकामें समय जाती थी। नहीं दिया।
____ कुछ समयमें दोनोंके बीच प्रेमका आविर्भाव सहयोगी विद्वान् हुआ और वे एक दूसरेको चाहने लगे। जब राजा १ पण्डित महावीर-ये वादिराज पदवीमे को इसका पता लगा तो उसने मदनकीर्तिको बध विभूषित पं० धरमेनके शिष्य थे । पं० आशाधरजी करने की आज्ञा दे दी । परन्तु जब उनके लिए ने धारामें आकर इनसे जैनेन्द्र व्याकरण और कन्या भी अपनी सहेलियोंके साथ मरनेके लिए जैन न्यायशास्त्र पढ़ा था ।
तैयार हो गई, तो राजा लाचार हो गया और ____.२ उदयसेन मुनि-जान पड़ता है, ये कोई उसने दोनोंको विवाह-सूत्रमें बाँध दिया । मदनवयोज्येष्ठ प्रतिष्ठित मुनि थे और कवियोंके सुहृद् कीर्ति अन्त तक गृहस्थ ही रहे और विशालकीर्ति थे। इन्होंने पं० आशाधरजीको 'कलि-कालिदास' द्वारा बार बार पत्रोंसे प्रबुद्ध किये जाने पर भी कहकर अभिनन्दित किया था।
टमम मस नहीं हुए। यह प्रबन्ध मदनकीर्तिसे मदनकीर्ति यतिपति-ये उन वादीन्द्र विशाल- कोई मौ वर्ष बाद लिखा गया है। इससे सम्भव के शिष्य थे जिन्होंने पण्डित आशाधरसे न्याय- है इसमें कुछ अतिशयोक्ति हो अथवा इसका शास्त्रका परम अस्त्र प्राप्त करके विपक्षियोंको जीता अधिकांश कल्पित ही हो परन्तु इसमें सन्देह नहीं था । मदनकीर्तिके विषयमें राजशेखरसूरिके 'चतु- कि मदनकीर्ति बड़े भारी विद्वान् और प्रतिभाशाली विन्शति-प्रबन्ध' में जो वि० सं० १४०५ में निर्मित कवि थे । और इसलिये उनके द्वारा की गई हुआ है और जिसमें प्रायः ऐतिहासिक कथायें दी आशाधरकी प्रशंसाका बहुत मूल्य है ।
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अनेकान्त
पद, वीर निर्वाण सं०२४५६
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. श्रीमदनकीर्तिकी बनाई हुई 'शासनचतुस्त्रिंश- हो गये हैं। उनमें विद्यापति बिल्हण बहुत प्रसिद्ध तिका' नामक ५ पत्रोंकी एक पोथी हमारे पास है। हैं, जिनका बनाया हुआ विक्रमांकदेव-चरित है। जिसमें मंगलाचरणके एक अनुष्टुप् श्लोकके अति- यह कवि काश्मीरनरेश कलशके राज्यकालमें वि० रिक्त ३४ शार्दूलविक्रीड़ित वृत्त हैं और प्रत्येकके सं० १११९ के लगभग काश्मीरसे चला था और अन्तमें 'दिग्वाससां शासन' पद है । यह एक जिस समय वह धारामें पहुँचा उस समय भोजदेव प्रकारका तीर्थक्षेत्रों का स्तवन है जिसमें पोदनपुर की मृत्यु हो चुकी थी। इससे वे आशाधरके प्रशंसक बाहुबलि, श्रीपुर-पार्श्वनाथ, शंख-जिनेश्वर, दक्षिण नहीं हो सकते । भोज की पांचवीं पीढ़ीके राजा गोमट्ट नागद्रह-जिन, मेदपाट ( मेवाड़) के नाग- विन्ध्यवर्माके मंत्री विल्हण उनसे बहुत पीछे हुए फणी ग्रामके जिन, मालवाके मङ्गलपुर के अभि- हैं। चौर-पंचासिका या बिल्हण-चरितका कर्ता नन्दन जिन आदिकी स्तुति है । मङ्गलपुरवाला बिल्हण भी इनसे भिन्न था । क्योंकि उसमें जिस पद्य यह है
वैरिसिंह राजाकी कन्याशशिकलाके साथ बिल्हणश्रीमन्मालवदेशमंगलपुरे म्लेच्छप्रतापागते को प्रेम सम्बन्ध वर्णित है वह वि० सं० ९०० के भग्ना मूर्तिरथोभियोजितशिराः सम्पूर्णतामायौ। लगभग हुआ है । शार्ङ्गधर पद्धति, सूक्तमुक्तावली यस्योपद्रवनाशिनः कलियुगेऽनेकप्रभावैर्युतः,
आदि सुभाषित-संग्रहोंमें बिल्हण कविके नामसे स श्रीमानभिनन्दनः स्थिरयतं दिग्वाससां शासनं ॥३४॥ बहुतसे ऐसे श्लोक मिलते हैं जो न विद्यापति
बिल्हणके विक्रमांकदेवचरित और कर्णसुन्दरी इस मेजोग्लेच्छोके प्रतापका आगमन बतलाया
नाटिकामें हैं और न चौर-पंचासिकामें । क्या है, उससे ये पं० आशाधरजीके ही समकालीन
आश्चर्य है जो वे इन्हींमंत्रिवर बिल्हण कविके हों। मालूम होते हैं । रचना इनकी प्रौढ़ है। पं० आशाधरजीकी प्रशंसा इन्हींनेकी होगी। अभी तक इनका
___ मांडूमें मिले हुए विन्ध्यवर्मा के लेखमें इन और कोई ग्रन्थ नहीं मिला है।
बिल्हणका इन शब्दोंमें उल्लेख किया है "विन्ध्यवर्म४ विल्हण कवीश-बिल्हण नामके अनेक कवि नृपतेः प्रसादभूः । सान्धिविग्रहकबिल्हण कवि।" अर्थात
बिल्हण कवि विन्ध्यवर्माका कृपापात्र और परराष्ट्र * इस प्रतिमें लिखनेका समय नहीं दिया है मनिवार परन्तु दो तीनसौ वर्षसे कम पुरानी नहीं मालूम होती। ५-६० देवचन्द्र-इन्हें पण्डित आशाधरजीने जगह जगह अक्षर उड़ गये हैं जिसमें बहुतसे पथ पूरे व्याकरण-शास्त्रमें पारंगत किया था। नहीं पढ़े जाते।
६-वादीन्द्र विशालकीर्ति - ये पूर्वोक्त मदतकीति ___xश्रीजिनप्रभसूरिके 'विविध-तीर्थकल्प' में 'अवन्ति के गुरू थे। ये बड़े भारी वादी थे और इन्हें देशस्थ अभिनन्दनदेवकल्प'नामका एक कल्प है जिसमें पण्डितजीने न्यायशास्त्र पढ़ाया था। सम्भव है, ये अभिनन्दनजिनकी भग्न मूर्तिके जुड़ जाने और अतिशय धारा या उज्जैनकी गद्दीके भट्टारक हों। प्रकट होनेकी कथा दी है।
(आगामी किरणमें समाप्त)
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क्रान्तिकारी ऐतिहासिक पुस्तकें
__[ ले० अयोध्याप्रसाद गोयलीय ] १. राजपूतानेके जैनवीर
अतीत गौरवके एक अंशका चित्र अंकित हुए बिना पढ़ने के लिये हाथ भरके कलेजेकी जरूरत
न रहेगा । ऐसा कौन अभागा भारतवासी होगा है। मर्दोकी बात जाने दीजिये भीरु और कायर
जो अयोध्याप्रसादजी गोयलीयकी लिखी भारतकी भी इसे पढ़ते पढ़ते मूंछों पर ताव न देने लगें तो करीब साढ़े बाईस सौ वर्ष पुरानी इस सारगर्भित हमारा जिम्मा। राजपूतानेमें जैनवीरोंकी तलवार
मार और सच्ची गौरव-गाथाको सुनकर उत्सहित न कैसी चमकी ? जैनवीरोंने सरसे कफन बान्धकर
होगा।' पृष्ठ १७३ मू० छह आना। आतताइयोंके घुटने क्योंकर टिकवाये । धर्म और ३. हमारा उत्थान और पतनदेशके लिये कैसे कैसे अभतपर्व बलिदान किये, “चान्द" के शब्दोंमें-"इस पुस्तकमें महाभारत यही सब रोमांचकारी ऐतिहासिक विवरण ३५२ से लेकर सन् १२०० ईस्वी तकके भारतीय इतिहास पृष्ठोंमें पढ़िये । सचित्र, मूल्य केवल दो रुपया। पर एक दृष्टि डाली गई है। भारतवासियोंके चारि- ।
त्रमें जो त्रुटियां उत्पन्न हो गई थीं और जिनके २. मौर्य-साम्राज्य के जैनवीर
कारण उनको विदेशियोंके सन्मुख पदानत होना भूमिका-लेखक साहित्याचार्य प्रो० विश्वेश्वर. पड़ा उन पर मार्मिकताके साथ विचार किया गया नाथ रेउके शब्दोंमें-"इस पुस्तककी भाषा मनको है। पस्तक पठनीय है और अत्यन्त सुलभ मूल्यमें फड़काने वाली, युक्तियाँ सप्रमाण और ग्राह्य तथा बेची जाती है ।" "विश्वामित्र" लिखता हैविचारशैली साम्प्रदायिकतासे रहित समयोपयोगी "पुस्तककी भाषा सजीव और दृष्टिकोण सुन्दर
और उच्च है । हमें पूर्ण विश्वास है कि इसे एक है। यह काफी उपयोगी पुस्तक है।", "भारत" कहता - बार आद्योपान्त पढ़ लेनेसे केवल जैनोंके ही नहीं है-“लेखककी लेखनीमें ओज और प्रवाह पर्याप्त प्रत्युत भारतवासी शात्रके हृतपटपर अपने देशके मात्रामें है।" पृ० १४४ मूल्य छह पाना ।
स्फूर्तिदायक जीवनज्योति जगाने वाली पुस्तकें ४. अहिंसा और कायरता मू•एक श्राना ७. क्या जैन समाज ज़िन्दा है ? मू०एक आना ५. हमारी कायरताके कारण , ८. गौरव-गाथा ६. विश्वप्रेम सेवाधर्म ,
६. जैन-समाजका हास क्यों ? "छह पैसा ___ यदि यह पुस्तकें आपने नहीं देखी हैं तो आज ही मंगाइये, मन्दिरों, पुस्तकालयों साधुओं को भेटस्वरूप दीजिये, उपहारमें बाटिये । जैनेतरों में बांटिये ।' व्यवस्थापक-हिन्दी विद्यामन्दिर, पो० बो० २०४८, न्यू देहली।
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________________ Registered. No. L. 4328... . श्री जैन प्राचीन साहित्योद्धार ग्रन्थावलीके जैन मन्त्र-तन्त्र और चित्रकलाके अभूतपूर्व प्रकाशन . भगवन् मल्लिषेणाचार्य विरचित 1. श्री भैरव पद्मावती कल्प. आठ तिरंगे और पचास एक रंगे चित्र और बन्धुषेण विरचित टीका, भाषा समेत साथमें 3 इकतीस परिशिष्टोंमें श्री मल्लिषेण सूरि विरचित सरस्वतीकल्प, श्री इन्द्र नंदी विरचित पद्मावती पूजन, रक्त पद्मावती कल्प, पद्मावती सहस्रनाम, पद्मावत्यष्टक, पद्मावती जयमाला, पद्मावती स्तोत्र, पद्मावती दंडक, पद्मावती पटल वगैरह मंत्रमय कृतियां और गुजरात कालेजके संस्कृत प्राकृत भाषाके अध्यापक प्रो० अभ्यंकर द्वारा सम्पादित होने पर भी मूल्य सिर्फ 15) रुपये रखा गया है। 2. श्री महापाभाविक नव स्मरण . पंचपरमेष्ठीमंत्रके चार यंत्र, श्रीभद्रबाहु स्वामी विरचित उपसर्गहर स्तोत्र, उनके अनेक मंत्र, कथा और सत्ताईस यंत्र समेत, श्रीमानतुंगाचार्य विरचित भयहर स्तोत्र उनके अनेक मंत्र तंत्र और 21 यंत्र समेत, श्रीभक्तामरजी स्तोत्र, मंत्राम्नाय, कथाएँ, तंत्र, मंत्र और हरेक काव्य पर दो दो यंत्र कुल 96 यंत्र समेत और भगवन् सिद्ध से नदिवाकर विरचित श्री कल्याणमंदिरजी स्तोत्र, उनके मंत्रा-C * म्नाय और 43 यंत्र, चित्र वगैरह मिला के कुल 412 चारसौ बारह यंत्र चित्र दिया हुआ है,एक प्रतिका पांच रतल वजन होने पर भी मूल्य 25) रु० रखा गया है। 3. श्री मंत्राधिराज चिंतामणि श्रीचिन्तामणिव ल्प, श्रीमंत्राधिराज कल्प वगैरह श्री पार्श्वनाथजी भगवानके अनेक मंत्रमय स्तोत्र और 65 यंत्र समेत मूल्य 7 // ) रु० __4. श्री जैन चित्रकल्पद्रुम् गुजरातकी जैनाश्रित चित्रकलाके ग्यारहवीं सदी से लगाकर उन्नीसवीं सदी तकके लाक्षणिक नमूनाओं का प्रतिनिधा संग्रह, जिमने 320 पूर्ण रंगी और एक रंगी चित्र हैं, साथ में जैनाश्रित * चित्रकलाके विषय में अमेरिकाके प्रोब्राउनने, बड़ोदरा राज्यके पुरातत्वखाते का मुख्याधिकारी डा० हीरा नन्द शास्त्राजीने, गुजरात के सुप्रसिद्ध चित्रकार रविशंकर रावलने, रसिकलाल परीख, श्रीयुत साराभाई है नवाब, प्रो० डॉलरराय मांकड़, प्रा० मंजुनाल मजमुदार और लेखनकलाके विषय में विद्वद्वर्य मुनिश्री B. पुण्यविजयोके विद्वतापूर्ण लेख भी दिया है / यह ग्रन्थस्वर्गस्थ बड़ोदरा नरेश सयाजीराव गायकवाड़को उनके हीरक महोत्मव पर समर्पित किया गया था मूल्य सिंफ 25) रु० .5. जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला मुनि जसवइ विरचित मूल्य 5) 6. श्री घंटाकरण-माणिभद्र-मंत्र-तंत्र कल्यादि संग्रह मूल्य 5) 7. श्रीजैन कल्पलता चित्र 65 मूल्य 8) 8. भारतीय जैन श्रमण संस्कृति और लेखन कला मूल्य 8) दूसरे प्रकाशनोंके लिये सूचीपत्र मंगवाइये / प्राप्तिस्थानः-साराभाई मणिलाल नवाब, नागजीभूदरनी पोल, अहमदाबाद वीर प्रेस आफ इण्डिया, कनॉट सर्कस, न्यू देहली / ,