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वर्ष ३, किरण ११]
सिद्धसेनके सामने सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक
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मिलता है-“सिद्धसेन सैद्धान्तिक थे और आगम- किया गया है कि 'वाचक तो पूर्ववित हैं वे ऐसे शास्त्रोंका विशाल ज्ञान धारण करने के अतिरिक्त वे ( प्रमत्तगीत-जैसे) आर्षविरोधी वाक्य कैसे आगमविरुद्ध मालूम पड़ने वाली चाहे जैसी तर्क- लिख सकते है ? सूत्रसे अनभिज्ञ किसीने भ्रांतिसे सिद्ध बातोंका भी बहुत ही आवेशपूर्वक खंडन लिख दिये हैं अथवा किन्हीं दुर्विदग्धकोंने अमुक करते थे ।" और पराश्रित रचनाका अभिप्राय कथन प्रायः सर्वत्र विनष्ट कर दिया है । इसीसे भाष्यानुसार टीका लिखनेका जान पड़ता है। भाष्य-प्रतियोंमें अमुकभिन्न कथन पाया जाता है, परन्तु भाष्यके अनुसार टीका लिखनेमें भाष्य जो अनार्ष है। वाचक मुख्य सूत्रका-श्वे. आगम रचनाके प्रासाद और अर्थपृथक्करण करने में क्या का उल्लंघन करके कोई कथन नहीं कर सकते । बाधक है,यह कुछ समझमें नहीं आया ! सिद्धसेन- ऐसा करना उनके लिये असम्भव है* इत्यादि ।' ने तो भाष्यकी वृत्ति लिखते हुए भाष्यसे अथवा इन्हीं सब प्रकृतिभेद, योग्यताभेद और लक्ष्यभाष्यके शब्दों परसे उपलब्ध नहीं होने वाले कथन भेदको लिये हुये खींचातानी आदि कारणोंसे को भी खूब बढ़ाकर लिखा है, ऐसी हालतमें वह सिद्धसेनकी वृत्ति में भाषाका वह प्रासाद, रचनाकी माष्य रचनाके प्रासाद और अर्थके पृथक्करण करने वह विशदता और अर्थका वह पृथक्करण एवं में कैसे बाधक हो सकता है ? फिर भी इन दोनों स्पष्टीकरण आदि नहीं सका है जो सर्वार्थसिद्धि में से प्रकृति-भेद उसमें कुछ कारण जरूर हो और राजवार्तिकमें पाया जाता है । राजवार्तिक सकता है। अच्छा होता यदि इसके साथमें योग्यता- और सर्वार्थसिद्धिका सामने न होना इसमें कोई भेदको और जोड़ दिया जाता; क्योंकि सब कुछ कारण नहीं है। साधन-सामग्री के सामने उपस्थित होनेपर भी तद्रूप + "सातकविंशतिनियमित योग्यताके न होने मे वैसा कार्य नहीं हो सकता। नेदं पारमर्षप्रवचनानुसारिभाष्यं, किं तर्हि ? प्रमत्तगीतपरन्तु मुझे तो सिद्ध मेनीय वृत्ति के सूक्ष्म दृष्टिसे
मेतत् । वाचको हि पूर्ववित् कथमेवं विधमार्षविसंवादि अवलोकन करने पर इसका सबसे जबर्दस्त कारमा
निबध्नीयात् ? सूत्रानवबोधादुपजातभ्रान्तिना केनापि यह प्रतीत होता है कि तत्त्वार्थाधिगम भाष्यमें
रचितमेतद्वचनकम्"। कितनी ही बातें ऐसी पाई जाती हैं जो श्वेताम्बरीय
--तत्त्वा० भाष्य० वृ०६,६, पृ० २०६ आगमके विरुद्ध हैं । सिद्धसेनने अपनी वृत्ति
"एतच्चान्तरद्वीपकभाष्यं प्रायो विनाशितं लिखते समय इस बातका खास तौरसे ध्यान रक्खा सर्वत्र कैरपि दुर्विदग्धकैर्येन पण्णवतिरन्तरद्वीपका है कि जो बातें भाष्यमे आगमकेविरुद्ध पाई जाती भाष्येसु दृश्यन्ते । अनार्ष चैतदध्यवसीयते जीवाभिगहैं उन्हें किसी भी तरह आगमके साथ संगत बनाया मादिष षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपकाध्ययनात्, नापि वाचकजाय, और जहाँ किसी भी प्रकार अपने आगम मुख्याः सूत्रोल्लंघनेनाभिदधत्यसम्भाव्यमानत्वात् तस्मात् सम्प्रदायके साथ उनका मेल ठीक नहीं बैठ सका, सैद्धान्तिकपाशैविनाशितमिदमिति"। वहाँ इस प्रकारके वाक्य कह कर ही संतोष धारण
--भाष्य ०३ १६,पृ. २६७०