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अनेकान्त :
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भाद्रपद, वीर निर्वाण सं० २४६६
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मेव हि सत्यशासनस्य सत्यवं नाम यत् दृष्टेष्टाविरुद्धस्वम्' 'यथा यत्राविसंवादः तथा तत्र प्रमाणता' यह कारिकांश अर्थात् शासनोंकी सत्यताका अर्थ है, उनका प्रत्यक्ष तथा अकलंकदेवका नाम निर्देश करके ही उद्धृत किया है। अनुमानसे बाधित नहीं होना । आचार्यमहोदयने सत्यता- अष्ट सहस्री (पृ० १५६ ) का 'नहि करोति कुम्भं की इसी सीधी-सादी कसौटी पर क्रमशः सभी दर्शनोंको कुम्भकारो दण्डादिना, भुक्ते पाणिनौदनमित्यादिकसा है। उन्होंने दर्शनोंकी परीक्षा करते समय पहले क्रियाकारकभेदप्रत्यक्ष भ्रान्तं ..' इत्यादि अंश ज्योंका सभी दर्शनोंका प्रामाणिक पूर्वपक्ष रक्खा है । फिर त्यो ग्रन्थमें शामिल है । अन्तमें ब्रह्माद्वैतपरीक्षाका पहले उसे प्रत्यक्ष-बाधित बता कर अन्तमें अनुमानसे उपसंहार करते हुए लिखा है कि- . बाधित सिद्ध करके उस उस दर्शनकी परीक्षा समाप्त की ब्रह्माविद्याप्रमापायात् सर्ववेदान्तिना(नां) वचः ।.. है । इन परीक्षाओंका कुछ परिचय निम्न प्रकार है:- भवेत्प्रलापमात्रस्वानावदे(धे)यं विपरिचताम् ॥
१ ब्रह्माद्वैतपरीक्षा-इसके पूर्वपक्षमें बृहादारण्य- ब्रह्माद्वैत मतं सत्यं न दृष्टेष्टविरोधतः । कोपनिषत् (२।३।५) 'पारमावारेऽयं दृष्टव्यः', ब्रह्मसूत्र न च तेन प्रतिक्षेपः स्याद्वादस्येति निश्चितम् ॥ (१।१२)का 'जन्मायस्य यतः', गीता (१५ । १ ) का २ शब्दाद्वैतपरीक्षा-इसका भाग प्रथमें नहीं है । 'ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुख्ययम्' इत्यादि अनेकों . ३ विज्ञानाद्वैतपरीक्षा-इसका निरूपण भी प्राचीन ग्रंथोंके अवतरण दिए गए हैं। उत्तर पक्षमें अष्टसहस्रीके सातवें परिच्छेदसे बहुत कुछ मिलता जुलता समन्तभद्रकी श्राप्तमीमांसाके दूसरे अध्यायकी अद्वैकान्त. ही
- है। इसमें अष्टशती (अष्टसहस्री पृ.०२३४ ) में उदधृत पक्षेऽपि इत्यादि ५-६ कारिकाएँ उद्धृत हैं । अकलङ्क- ।
'युक्तया यन्न घटामुपैति तदहं दृष्ट्वापि न श्रद्दधे' यह देवके न्यायविनिश्चयकी “इन्द्रजालादिषु भ्रान्ति" यह
वाक्य उद्धत है। कारिका (नं० ५१), कुमारिलके मीमांसा-श्लोकवार्तिक
विज्ञानाद्वैतका पूर्वपक्ष समाप्त करते हुए ये श्लोक (पृ० १६८) को 'अस्तिह्यालोचनाज्ञानम्' यह कारिका
लिखे हैं, जो किसी जैनतर्कग्रंथमें उद्धृत नहीं हैंभी प्रमाणरूपमें उद्धृत है । अष्टशती ( का० २७) का
नावनिर्न सलिलं न पावको न मम गगनं न चापरम् । 'अद्वैतशब्दः स्वाभिधेयप्रत्यनीकहरमार्थापेक्षः नव्पूर्वा
विश्वनाटकविलाससाक्षिणी संविधे(दे)व पतितोविज़म्भयति॥ खण्डपरत्वादहेत्वभिधानवत्' यह प्रसिद्ध अनुमान भी
''" एकसंविधि(दि)विभाति भेदधी:नीलपीतसुखदुःखरूपिणी । अद्वैतके खण्डनमें उपस्थित किया गया है।
निम्ननाभीयमुन्नतस्तनी स्त्रीति चित्रफलकेसमे इति ।। अविद्याको अनिर्वचनीय कह करके भी उसके स्व- उत्तरपक्षमें समन्तभद्र के युक्तथानुशासनकी 'अनर्थिरूपका निरूपण करनेवाले अद्वैतवादीको स्ववचनविरोध ।
कासाधनसाध्यधीश्चेद्” इत्यादि कारिका प्रामणरूपमें दूषण देते हुए उसके अनेक दृष्टान्त दिए हैं । यथा
उद्धृत कीगई है । अन्तमें उपसंहार करते हुएलिखा हैयावज्जीवमहं मौनी ब्रह्मचारी च मत्पिता।
प्रमाणाभावतः सर्व विज्ञानाद्वैतिनां वचः । माता मम भवेद्वन्ध्या स्मराभोऽनुपमो भवान् ॥ भवेत्प्रलापमात्रस्वानावधेयं विपश्चिताम् ॥
अकलंक देवके सिद्धिविनिश्चय (पृ० ६५ ) का ज्ञानाद्वैतं न सत्यं स्याद् दृष्टेष्टाभ्यां विरोधतः ।