________________
वर्ष ३, किरण ११ ]
देवधर्मपरीक्षा - जैसे तर्कशैलीके तात्विक ग्रन्थ लिखे हैं । 'सत्यशासनपरीक्षा' का परीक्षान्त नाम भी अपनी विद्यानन्द-कर्तृकता की ओर संकेत कर ही रहा है ।
विद्यानन्द- कृत सत्यशासनपरीक्षा
(२) जिस प्रकार 'प्रमाणपरीक्षा' के मंगलश्लोक में 'विद्यानन्दा जिनेश्वराः' पद जिनेन्द्र के. केवलज्ञान और अनन्तसुखको तो विशेषण बन कर सूचित करता ही है तथा साथ ही साथ ग्रंथकर्ता के नामका भी स्पष्ट निर्देश कर रहा है उसी प्रकार सत्यशासन-परीक्षा के मंगलश्लोकका 'विद्यानन्दाधिपः ' पद भी उक्त दोनों कार्योंको कर रहा है । जिस प्रकार मंगलश्लोक के अनन्तर 'अथ प्रमाणपरीक्षा' लिखकर प्रमाणपरीक्षा प्रारम्भ होती है ठीक उसी प्रकार मंगलश्लोकके बाद 'अथ सत्यशासनपरीक्षा' की शुरूआत होती है । यद्यपि 'थ' शब्द से ग्रन्थ प्रारम्भ करनेकी परम्परा श्रापस्तम्ब श्रौतसूत्र, पातञ्जल-महाभाष्य तथा ब्रह्मसूत्र आदि ग्रन्थोंमें पाई जाती है परन्तु मंगलश्लोक के अनन्तर 'अथ' शब्द से ग्रंथ प्रारम्भ करना विद्यानन्द के ग्रंथों में देखा जाता है, और यही शैली प्रा० हेमचन्द्र आदि ने भी प्रमाणमीमांसा, काव्यानुशासन आदि में अपनाई हैं। इस तरह विद्यानन्दकर्तृकरूपसे सुनिश्चित प्रमाणपरीक्षाकी शैलीसे इसका प्रारम्भ आदि देखनेसे ज्ञात होता है कि यह कृति भी विद्यानन्दकी है ।
(३) उपलब्ध ग्रन्थका अान्तरिक निरीक्षण करने के बाद इसमें कोई भी ऐसा अवतरण वाक्य नहीं मिलता जिसका कर्ता निश्चितरूपसे विद्यानन्दका उत्तरकालवर्ती हो। इसकी शैली तथा विषयनिरूपण की पद्धति बिलकुल अष्टसहस्रीसे मिलती है । कहीं कहीं तो इतना शब्द साम्य है कि पढ़ते पढ़ते यह भ्रम होने लगता है कि 'अष्टसहस्री पढ़ रहे हैं या सत्यशासनपरीक्षा ?' इस तरह बहुतसे स्थलों में तो यह अष्टसहस्रके मध्यम संस्करणके समान ही प्रतीत
६६१
होती है । ब्रह्माद्वैत आदि प्रकरणों में बृहदारण्यक भाष्यवार्तिक ( सम्बन्धवार्तिक श्लोक १७५ - ८१ ) आदि के 'ब्रह्मात्रिद्यावदिष्टं चेन्ननु दोषो महानयम्' इत्यादि वे ही श्लोक इसमें उद्धृत किए गए है जो कि अष्टसहस्री ( पृ० १६२ ) में पाए जाते है । समवायके खंडनमें आप्तपरीक्षाकी शैली शब्दतः तथा अर्थतः पूरी छाप मारती है । इन सब विद्यानन्द के अपने ही ग्रंथोंका इस तरहका तादात्म्य भी 'सत्यशासनपरीक्षा' के विद्यानन्द की कृति होने में पूरा पूरा साधक होता है ।
(४) विद्यानन्द ही अष्टसहस्री तथा प्रमाणपरीक्षा आदि ग्रंथो में तत्वोपप्लवकी समीक्षा बादको देखी जाती है । इसमें भी तत्वोपप्लवकी परीक्षा बादको करनेकी प्रतिज्ञा कीगई है ।
ग्रन्थका बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव
सत्यशासनपरीक्षा के मूल आधार स्वयं विद्यानन्द के ही प्रष्टसहस्री तथा श्राप्तपरीक्षा ग्रंथ हैं । जिनमें
सहस्रीका तो पद पद पर सादृश्य है । प्राप्त परीक्षा का भी समवाय के खण्डनमें पूरा पूरा सादृश्य है। इसका प्रतिबिम्ब प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्याय कुमुदचन्द्र, प्रमेय रत्नमाला आदि ग्रन्थों पर पूरा पूरा पड़ा है । इन ग्रंथों में इस के अनेकों वाक्य जैसे के तैसे शामिल कर लिए गए हैं।
विषयपरिचय
सबसे पहले परीक्षाका लक्षण करते हुए लिखा है कि "इयमेव परीक्षा यो यस्येदमुपपद्यते न वेति विचारः " अर्थात् 'इस वस्तुमें यह धर्म बन सकता है या नहीं, इस विचारका नाम ही परीक्षा है' ।
सत्यशासनपरीक्षाका तात्पर्य बताया है - ' शासनों के सत्यत्व की परीक्षा - कौन शासन सत्य है तथा कौन असत्य' सत्यका परिष्कृत लक्षण करते हुए लिखा है कि - " इद