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विद्यानन्द-कृत सत्यशासनपरीक्षा
[ले०-न्यायदिवाकर न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जैन शास्त्री, काशी] नहितैषी (भाग १४ अङ्क १०-११ ) में, उसके यह ग्रन्थ खंडित भी मालूम होता है; क्योंकि - तत्कालीन सम्पादक पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार- पुरुषाद्वैतकी परीक्षाके बाद क्रमानुसार इसमें 'शब्दाद्वैतद्वारा 'सत्यशासन-परीक्षा' ग्रन्थका परिचय कराया गया परक्षा' होनी चाहिए,पर शब्दाद्वैतकी परीक्षाका पूराका है । उसीमें इसे विद्यानन्द-कृत भी बतलाया है । मुझे पूरा भाग इसमें नहीं है । १० ६ पर जहाँ पुरुषाद्वैतकी वह परिचय पढ़ कर जैनतार्किक-शिरोमणि विद्यानन्दकी परीक्षा समाप्त होती है, एक पंक्तिके लायक स्थान छोड़ इस कृतिको देखने की उत्कट इच्छा हुई । मेरी इच्छाको कर 'विज्ञानाद्वैत परीक्षा' प्रारम्भ हो जाती है । मालूम मालूम करके, जैनसिद्धान्तभवन आराके अध्यक्ष होता है कि शब्दाद्वैतपरीक्षा वाला भाग छूट गया है। सुयोग्य विद्वान् ५० भुजबलीजी शास्त्रीने तुरन्त ही इस ग्रंथका मंगल श्लोक यह है'सत्यशासनपरीक्षा की वह प्रति मेरे पास भेज दी। विद्यानन्दादि (घि) पः स्वामी विद्वद्देवो जिनेश्वरः । इसका विशेष परिचय निम्न प्रकार है:- ये(यो)लोकैकहितस्तस्मै नमस्तात् सात्म(स्वात्म)लब्धये॥ प्रतिपरिचय
ग्रन्थकी विद्यानन्द-कत कताइस प्रतिमें १३४६ इंच साइज़के कुल २६ पत्र (१) यद्यपि बौद्धदर्शनमें दिग्नागकृत अालम्बन- ' हैं । एक पत्रमें एक ओर १२ पंक्तियाँ तथा एक पंक्तिमें परीक्षा, त्रिकालपरीक्षा; धर्मकीर्तिविरचितसम्बन्ध परीक्षा; करीब ५० अक्षर हैं । लिखावट नितान्त अशुद्ध है। कल्याणरक्षितकी श्रुतिपरीक्षा; धर्मोत्तरकी प्रमाणपरीक्षा ग्रन्थके मध्यमें कहीं भी ग्रन्थकर्ताका नाम नहीं है। आदि परीक्षान्त नाम वाले प्रकरणों के लिखने की प्राचीन ग्रन्थ अपूर्ण है । क्योंकि श्रारम्भमें ही "इह पुरुषाद्वैत परम्परा है, शान्तरक्षितका तत्त्वसंग्रह तो बीसों परीक्षाओं शब्दाद्वैत-विज्ञानाद्वैत-चित्राद्वैतशासनानि चार्वाक का एक विशाल संग्रह ही है । परन्तु जैनदर्शन में केवल बौद्धसेश्वर-निरीश्वर-सांख्य-नैयायिक-वैशेषिक-माप्रभा- तार्किकप्रवर विद्यानन्दने ही प्रमाणपरीक्षा, प्राप्त परीक्षा, करशासनानि तत्वोपप्लवशासनमनेकान्तशासनन्चेत्य- पत्रपरीक्षा आदि परीक्षान्त नाम वाले प्रकरणोंका रचना नेकशासनानि प्रवर्तन्ते" इस वाक्य द्वारा इसमें पुरुषा- शुरू किया है, और दि० तार्किक क्षेत्रमें उन्हीं तक द्वैत श्रादि १२ शासनोंकी परीक्षा करनेकी प्रतिज्ञा की गई इसकी परम्परा रही है । यद्यपि पीछे भी आचार्य है। परन्तु प्रभाकरकेमतके निरूपण तक ही ग्रंथ उपलब्ध अमितगति आदिने 'धर्मपरीक्षा' आदि परीक्षान्त तात्त्विक हो रहा है। प्रभाकरके मतका निरूपण भी उसमें ग्रंथ लिखे हैं पर दि० तर्कप्रधान ग्रंथों में परीक्षान्त नाम अधरा ही है । तत्वोपप्लव शासनकी परीक्षा तथा ग्रन्थका वाले ग्रंथ विद्यानन्दके ही पाए जाते हैं । श्वे० प्रा० सर्वस्व अनेकान्तशासन-परीक्षा तो इसमें है ही नहीं। उपाध्याय यशोविजय जीने 'अध्यात्ममतपरीक्षा' तथा