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________________ (१) प्राशा ले०-श्री रघुवीरशरण अग्रवाल एम.ए. “घनश्याम"] अपि आशे ! त जगदाधार । (४) तेरे बिन सब शून्य जगत है। नई उमङ्गोंका युवकोंकी । सभी जगह तव आव-भगत है | ... ... नई कल्पनाका बालाकी ॥ पूर्व कार्यके तू आजाती। अभिलाषाका वृद्ध जनोंकी । कर्ता को है धीर बँधाती ॥ सुख-निद्राका बाल-गणोंकी ॥ बनाती क्या क्या नये विचार । हमेशा करती है विस्तार । अयि आशे ! तू जगदाधार ॥ अयि आशे ! तू जगदाधार ॥ (२) . भिन्न रूपसे सबके मनमें । भूमण्डलके हृदयस्थल में ॥ . कैसे कैसे काम कराती। भिन्न भिन्न परिणाम दिखाती ॥ ? भिन्न रखती सबसे व्यवहार । अयि आशे ! तू जगदाधार । चातककी उस तृषित तानमें । वीणाके सुरमयी गानमें ॥ वधकराजके लोभ-पाशमें । विरह-विपीड़ित नारि-श्वासमें ॥ सदा तू करती है संचार । अपि आशे ! तू जगदाधार ॥ पथिक मार्ग चलता तव बल पर । पतिव्रता रहती निज व्रत पर ।। धर्म, अर्थ औं' काम मोक्षके । सब साधन तेरे सँजोगके ॥ सभीको देती है आधार । अयि आशे ! तू जगदाधार ॥ की राज-महलोंमें रहती । कभी गरीबीके दुख सहती ॥ श्रमी कृषकके कभी खेतमें। मई-जूनकी ल गर्मीमें ॥ __सुख पाती औ' दुःख अपार । अघि प्राशे ! तू जगदाधार ॥
SR No.527165
Book TitleAnekant 1940 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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