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________________ वर्ष ३, किरण ११] न च तेन प्रतिक्षेपः स्याद्वादश्चे (दस्ये ) ति निश्चितम् ॥ ४ चार्वाकमतपरीक्षा -- इसके पूर्वपक्ष में सबसे पहले सुगतो यदि सर्वज्ञः कपिलो नेति का प्रमा' इस कारिकाके द्वारा सर्वज्ञ पर आक्षेप करके अन्त में तर्क और श्रागमकी निःसारता दिखाते हुए महाभारतका यह श्लोक उद्धत किया है विद्यानन्द- कृत सत्यंशासनपरीक्षा तदहर्जस्त नेहातो रक्षोह टेर्भवस्मृतेः । भूतानन्वयनात् सिद्धः प्रकृतिज्ञः सनातनः ॥ यह कारिका तथा समन्तभद्र के युक्त्यनुशासनकी 'मद्यगवद्भूतसमागमे ज्ञः, यद कारिका (श्लोक नं० ३५ प्रमाणरूपमें पेश कीगई है । अन्तमें उपसंहार करते हुए वैसा ही श्लोक लिखा है। - दोपो यथा निवृतिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरितम् दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित्स्नेहवयात् केवलमेतिशतिम् । प्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नासौ मुनिर्यस्य वचः प्रमाणं। जिनस्तथा निर्वृ तिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः सपन्था ॥ दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काचिद्मोहदयात् केवलमेतिशांतिम् मोक्षके उपायोंमें सिर और दाढ़ीका मुँडाना, कषाय यह समस्त पूर्वपक्ष अष्टसहस्री ( पृ० ३६ ) के समान ही है । वस्त्रका धारण करना तथा ब्रह्मचर्य का पालन दि उल्लेखित है । अन्तमें अग्निहोत्रादिको बुद्धि और पुरुषार्थशून्य ब्राह्मण आजीविका का साधन कहकर विषय-भोगों को छोड़ने वालोंकी निपट मूर्खता बताते हुए लिखा है कि" यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् नास्ति मृत्योरगोचरः | भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ safoeti त्रयी वेदाः त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम् । बुद्धिपौरुषहीनानां जीविकेति बृहस्पतिः ॥” इत्यादि उत्तरपक्ष में यशस्तिलक उत्तरार्ध ( पृ० २५७ ) तथा प्रयत्नमाला ( ४ ( ४१८) में उद्धृत- उत्तरपक्ष अष्टसहस्रीकी शैलीसे ही लिखा गया है । इसमें लधीयस्त्रयकी 'यथैकं भिन्न देशार्थान्' कारिका ( श्लोक नं०३७) उदघृत की है । अन्त में खंडन करते करते खीजकर बौद्धों को लिखा है कि ये हेयोपादेय विवेकसे रहित होकर केवल अनापशनाप चिल्लाते हैं"तथा च सौगतो हेयोपादेयरहितमह्नीकः केवलं विक्रोशति इत्युपेक्षा मर्हति " यही वाक्य अष्टसहस्रीमें लिखा है। बात यह है कि धर्मकीर्तिने दिगम्बरोंके लिये - ह्रीक आदि शब्दों का प्रयोग करते हुए प्रमाणवार्तिक (३ । १८२ ) में लिखा है कि- 'एतेनैव यदहीका यत्कि - चिदश्लीलमा कुलम् । प्रलपन्ति ।..........' "पर्वो पंक्ति में धर्मकीर्ति के शब्द उन्हींको धन्यवाद के साथ वापिस किए गए हैं । इसमें समन्तभद्रकी श्रास मीमांसा तथा युक्त्यनुशासन के अनेकों पद्य प्रमाणरूप से उद्धृत कर खंडनको अधिक से अधिक सुगठित किया है । स्कंधकी सिद्धिमें सर्वार्थसिद्धिमें उद्धृत 'गिद्धस्स द्वेिण दुराधिएण' यह गाथा भी उद्धृत की है । श्रन्तमें सुगतमतको दृष्टेष्टबाधित बताकर सुगतमतपरीक्षा समाप्त की है । ६६२ न चार्वाकमतं सत्यं दृष्टादृष्टेष्टबाधतः । न च तेन प्रतिक्षेपः स्याद्वादश्चे (दस्ये ) ति निश्चितम् ॥ ५ ताथागतमत परीक्षा – इसके पूर्वपक्ष में रूपादि - पांच स्कंधों के लक्षण, दुःखसमुदाय यदि चार आर्य सत्योंके स्वरूप, तथा मोक्ष के सम्यक्त्व श्रादि श्राठ अंगों का बहुत सुन्दर विवेचन किया है। मोक्षके शून्यरूपका वर्णन करते हुए अश्वघोषकृत सौन्दरनन्द काव्य (१६ । २८-२६ ) के ये श्लोक उद्धत किए हैं
SR No.527165
Book TitleAnekant 1940 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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