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अनेकान्त
[ भाद्रपद, वीर निर्वाण सं०२४६६
कारण कुएँ में गिरने के सम्मुख हो अथवा उसके गिरने की भारी सम्भावना हो तो उसे सावधान करके गिरनेसे न रोका जाय, बल्कि गिरने दिया जाय और बादको उसके उद्धारका प्रयत्न किया जाय ! मुझे तो हतोत्साह न होने देनेके खयाल से अपनाई गई यह नीति बड़ी ही विचित्र तथा बेढंगी मालूम होती है और इसमें कुछ भी नैतिकता प्रतीत नहीं होती। इस तरह तो कभी कभी उस मनुष्य के उद्धारका अवसर भी नहीं रहता जिसके उद्धारकी बात बादमें की जानेको होती है, और गिरनेसे उद्धारके वक्त तक गिरने वालेको जोहानि उठानी पड़ती है तथा बादको उद्धारकार्य में अपेक्षाकृत जो भारी परिश्रम करना पड़ता | मेरी दृष्टि में तो यह है वह सब अलग रह जाता देखते और जानते हुए कि किसी अन्धे अथवा बेखबर मनुष्य के रास्तेमें कुंद्रा या खड्ड है और यदि उसे शीघ्र सावधान न किया गया तो वह उसमें गिरने ही वाला है, समय तथा शक्ति के पासमें होते हुए भी, उसे सावधान न करके चुप बैठे रहना एक प्रकारका अपराध है, इसीलिये मैं इस नीतिको पसन्द नहीं करता । मेरे विचार से ऐसा करना सम्पादकीय कर्तव्य से च्युत होनेके बराबर है। जिन लेखकों का ध्येय वास्तव में सत्यका निर्णय है और जो इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये हृदयसे विद्वानोंको विचारके लिये श्रामन्त्रित करते हैं, उनके लिये ऐसी अनुसन्धान- प्रधान टिप्पणियाँ हतोत्साह के लिये कोई कारण नहीं हो सकतीं। वे उनका अभिनन्दन करते तथा उनसे समुचित शिक्षा ग्रहण करते हुए अपनी लेखनीको आागेके लिये और अधिक सावधान बनाते हैं, और इस तरह अपने जीवन में बहुत कुछ सफलता प्राप्त करते हैं । परन्तु जिन लेखकों का उक्त ध्येय ही नहीं है, जो यों ही अपनी मान्यताको दूसरों पर लादना चाहते हैं और विचारकका अभिनय करते हैं, उनका ऐसी मार्मिक टिप्प गियोंसे हतोत्साह होना स्वाभाविक है, और इसलिये उसकी ऐसी विशेष पर्वाह भी न की जानी चाहिये । श्रस्तु |
और यदि समय, शक्ति तथा परिस्थिति सब मिलकर उसे इजाज़त देते हैं तो वह उसी समय उस पर अपना नोट या टिप्पणी लगाकर यथेष्ट प्रकाश डाल देता है, और इस तरह अपने अनेक पाठकों को भूलभुलैयाँ के एकान्तगर्तमें न पड़कर विचारका सही मार्ग अंगीकार करने के लिये सावधान कर देता है। मैं भी शुरूसे इसी नीतिका अनुसरण करता आ रहा हूँ । लेखोंका सम्पादन करते समय मुझे जिस लेखमें जो बात स्पष्ट विरुद्ध, भ्रामक, त्रुटिपूर्ण, ग़लतफ़हमीको लिये हुए अथवा स्पष्टीकरणके योग्य प्रतिभासित होती है और मैं उस पर उसी समय यदि कुछ प्रकाश डालना उचित समझता हूँ और समयादिककी अनुकूलताके अनुसार डाल भी सकता हूँ तो उस पर यथाशक्ति संयतभाषामें अपना (सम्पादकीय ) नोट लगा देता हूँ । इससे पाठकों को सत्यके निर्णय में बहुत बड़ी सहायता मिलती है, भ्रम तथा ग़लतियाँ फैलने नहीं पातीं त्रुटियों का कितना ही निरसन हो जाता है और साथ ही पाठकों की शक्ति तथा समयका बहुतसा दुरुपयोग होने से बच जाता है । सत्यका ही सब लक्ष्य रहनेसे इन नोटोंमें किसीकी कोई रू-रिश्रायत अथवा अनुचित पक्षापक्षी नहीं की जाती और इसलिये मुझे कभी कभी अपने अनेक श्रद्धेय मित्रों तथा प्रकाण्ड विद्वानों के लेखों पर भी नोट लगाने पड़े हैं। परन्तु किसीने भी उन परसे बुरा नहीं माना; बल्कि ऐतिहासिक विद्वानोंके योग्य और सत्यप्रेमियोंको शोभा देने वाली प्रसन्नता ही व्यक्त की है । और भी कितने ही विचारक तथा निष्पक्ष विद्वान मेरी इस विचार पद्धतिका अभिनन्दन करते आ रहे हैं ।
हाँ, ऐसे भी कुछ विद्वान् हैं जो मेरी इस नोट-पद्धति को पसन्द नहीं करते । उनकी राय में नोटसे लेखक हतोत्साह होता है और इसलिये लेख के किसी अंशपर से यदि कोई भारी भ्रांति अथवा ग़लतफ़हमी भी फैलती हो तो उसे उस समय फैलने दिया जाय, नोट लगा कर उसके फैलने में रुकावट न की जाय, बादको उसका प्रतिकार किया जाय — अर्थात् कुछ दिन पीछे उस फैली हुई भ्रान्तिको दूर करनेका प्रयत्न किया जाय। इसका स्पष्ट श्राशय यह होता है कि यदि कोई मनुष्य बेखबरी के
मैं प्रो० साहबकी उस समीक्षाको परीक्षा करता हूँ जो उन्होंने उक्त 'सम्पादकीय विचारणा' पर लिखी है, और उसके द्वारा यह बतला देना चाहता हूँ कि वह कहाँ तक निःसार है | ( अगली किरण में समाप्त )