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________________ पंडितप्रवर पाशाधर [ले०-श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी ] धर्मामृत'ग्रन्थके कर्ता पण्डित आशाधर एक बहुत उनका जैनधर्मका अध्ययन भी बहुत विशाल बड़े विद्वान हो गये हैं। मेरे खयालमें दिगम्बर था। उनके ग्रन्थों से पता चलता है कि अपने समय सम्प्रदायमें उनके बाद उन-जैसा बहुश्रुत, प्रतिभा- के तमाम उपलब्ध जैनसाहित्यका उन्होंने अवशालो, प्रौढ़ ग्रन्थकर्ता और जैनधर्मका उद्योतक गाहन किया था। विविध आचार्यों और विद्वानों दुसरा नहीं हुआ। न्याय,व्याकरण, काव्य, अलंकार, के मत-भेदोंका सामंजस्य स्थापित करनेके लिए शब्दकोश, धर्मशास्त्र,योगशास्त्र,वैद्यक आदि विविध उन्होंने जो प्रयत्न किया है वह अपूर्व है । वे विषयों पर उनका असाधारण अधिकार था। इन 'आर्ष संदधीत न तु विघटयेत' के मानने वाले थे, सभी विषयों पर उनकी अस्खलित लेखनी चली है इसलिए उन्होंने अपना कोई स्वतन्त्र मत तो कहीं और अनेक विद्वानोंने चिरकाल तक उनके निकट प्रतिपादित नहीं किया है; परन्तु तमाम मतभेदोंको अध्ययन किया है। उपस्थित करके उनकी विशद चर्चा की है और फिर उनकी प्रतिभा और पाण्डित्य केवल जैनशास्त्रों उनके बीच किस तरह एकता स्थापित होसकती है, तक ही सीमित नहीं था, इतर शास्त्रोंमें भी उनकी सो बतलाया है। अबाध गति थी । इसीलिए उनकी रचनाओंमें पंडित आशाधर गृहस्थ थे, मुनि नहीं। पिछले यथास्थान सभी शास्त्रोंके प्रचुर उद्धरण दिखाई जीवनमें वे संसारसे उपरत अवश्य हो गये थे, पड़ते हैं और इसीकारण अष्टांगहृदय, काव्यालंकार, परन्तु उसे छोड़ा नहीं था, फिर भी पीछेके ग्रन्थअमरकोश जैसे ग्रंथों पर टीका लिखने के लिए वे कर्ताओंने उन्हें सूरि और आचार्यकल्प कह समर्थ होसके । यदि वे केवल जैनधर्मके ही विद्वान् कर स्मरण किया है और तत्कालीन भट्टारकों और होते तो मालव-नरेश अर्जुनवर्माके गुरू बालसर- मुनियोंने तो उनके निकट विद्याध्ययन करनेमें भी स्वती महाकवि मदन उनके निकट काव्यशास्त्रका कोई संकोच नहीं किया है । इतना ही नहीं मुनि अध्ययन न करते और विन्ध्यवर्माके संधिविग्रह- उदयसेनने उन्हें 'नय-विश्वचक्षु' और 'कलिकालिदास' मन्त्री कवीश विल्हण उनकी मुक्त कण्ठसे प्रशंसा और मदनकीर्ति यतिपतिने 'प्रज्ञापुंज' कहकर अभिन करते। इतना बड़ा सन्मान केवल साम्प्रदायिक नन्दित किया था। वादीन्द्र विशालकीर्तिको उन्होंने विद्वानोंको नहीं मिला करता । वे केवल अपने न्यायशास्त्र और भट्टारकदेव विनयचन्द्रको धर्मअनुयायियोंमें ही चमकते हैं, दूसरों तक उनके शास्त्र पढ़ाया था। इन सब बातोंसे स्पष्ट होता है ज्ञानका प्रकाश नहीं पहुंच पाता। कि वे अपने समयके अद्वितीय विद्वान् थे।
SR No.527165
Book TitleAnekant 1940 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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