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उन्होंने अपनी प्रशस्तिमें अपने लिए लिखा है कि 'जिनधर्मादयार्थ यो नलकच्छपुरेऽवसत् अर्थात् जो जैनधर्मके उदय के लिए धारानगरीको छोड़कर नलकच्छपुर ( नालछा ) में आकर रहने लगा । उस समय धारानगरी विद्याका केन्द्र बनी हुई थी। वहाँ भोजदेव, विन्ध्यवर्मा, अर्जुनवर्मा जैसे विद्वान् और विद्वानोंका सन्मान करने वाले राजा एकके बाद एक हो रहे थे । महाकवि मदनकी 'पारिजात - मञ्जरी' के अनुसार उस समय विशाल धारानगरी में ८४ चौराहे थे और वहाँ नाना दिशा ओंसे आये हुए विविध विद्याओं के पण्डितों और कला - कोविदोंकी भीड़ लगी रहती थी । वहाँ 'शारदा सदन' नामका एक दूर दूर तक ख्याति पाया हुआ विद्यापीठ था । स्वयं आशाधरजीने धारा में ही व्याकरण और न्यायशास्त्रका अध्ययन किया था । ऐसी धाराको भी जिस पर हर एक विद्वानको मोह होना चाहिये पण्डित आशाधरजीने जैनधर्मके ज्ञानको लुप्त होते देखकर उसके उदय के लिए छोड़ दिया और अपना सारा जीवन इसी कार्य में लगा दिया।
वे लगभग ३५ वर्षके लम्बे समयतक नालछा में ही रहे और वहां के नेमि - चैत्यालय में एकनिष्ठता से जैन साहित्यकी सेवा और ज्ञानकी उपासना करते रहे । उनके प्रायः सभी ग्रभ्थोंकी रचना नालछा के उक्त नेमि चैत्यालय में ही हुई है और वहीं वे अध्ययन अध्यापनका कार्य करते रहे हैं । कोई
* चतुरशीतिचतुष्पथसुरसदनप्रधाने सकलदिगन्तरोपगतानेकत्रैविद्य सहृदय कला को विदरसिकसुकविसंकुले ... - पारिजातमंजरी
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[ भाद्रपद, वीर निर्वाण सं० २४६६
आश्चर्य नहीं, जो उन्हें धाराके 'शारदा सदन' के अनुकरण पर ही जैनधर्मके उदयकी कामना से श्रावक संकुल नालछेके उक्त चेस्यालयको अपना विद्यालय बनानेकी भावना उत्पन्न हुई हो। जैनधर्मके उद्धार की भावना उनमें प्रबल थी ।
अनेकान्त
ऐसा मालूम होता है कि गृहस्थ रह कर भी कमसे कम 'जिनसहस्रनाम' की रचना के समय वे संसार- देहभोगों से उदासीन हो गये थे और उनका मोहावेश शिथिल हो गया था। हो सकता है कि उन्होंने गृहस्थकी कोई उच्च प्रतिमा धारण कर ली हो, परन्तु मुनिवेश वो उन्होंने धारण नहीं किया था, यह निश्चय है । हमारी समझमें मुनि होकर वे इतना उपकार शायद ही कर सकते जितना कि गृहस्थ रह कर ही कर गये हैं ।
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अपने समय के तपोधन या मुनि नामधारी लोगोंके प्रति उनको कोई श्रद्धा नहीं थी, बल्कि एक तरह की वितृष्णा थी और उन्हें वे जिनशासनको मलिन करनेवाला समझते थे, जिसको कि उन्होंने धर्मामृत में एक पुरातन श्लोकको उद्धृत करके व्यक्त किया है
पण्डितैभृष्टचारित्रैः बठरैश्च तपोधनैः । शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥
पण्डितजी मूल में मांडलगढ़ (मेवाड़) के रहने वाले थे। शहाबुद्दीन ग़ोरीके आक्रमणोंसे त्रस्त होकर अपने चारित्रकी रक्षा के लिए वे मालवाकी
+ प्रभो भवाङ्गभोगेषु निर्विण्णो दुःखभीरुकः । एष विज्ञापयामि त्वां शरण्यं करुणार्णवम् ॥ १ ॥ मोहग्रहावेशशैथिल्यात्किञ्चिदुन्मुखः ।
- निनसहस्रनाम