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वर्ष ३, किरण ११]
पण्डितप्रवर पाशाधर
राजधानी धारामें बहुत-से लोगोंके साथ आकर बना होगा । क्योंकि इसका उल्लेख सं० १३०० में बस गये थे । वे व्याघेरवाल या बघेरवाल जातिके बनी हुई अनगारधर्मामृतटीकाको प्रशस्तिमें है, थे जो राजपूतानेकी एक प्रसिद्ध वैश्यजाति है। १२९६ में बने हुए जिनयज्ञकल्पमें नहीं है। यदि यह __उनके पिताका नाम सल्लक्षण, माताका श्रीरत्नी, सही है तो मानना होगा कि आशाधरजीके पिता पत्नीका सरस्वती और पुत्रका छाहड़ था । इन १२९६ के बाद भी कुछ समय तक जीवित रहे होंगे चारके सिवाय उनके परिवार में और कौन कौन थे, और उस समय वे बहुत ही वृद्ध होंगे । सम्भव है इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता।। कि उस समय उन्होंने राज-कार्य भी छोड़ दिया हो।
मालव-नरेश अर्जुनवर्मदेवका भाद्रपद सुदी१५ पण्डित आशाधरजीने अपनी प्रशस्तिमें अपने बुधवार सं० १२७२ का एक दानपत्र मिला है, पुत्र छाहड़को एक विशेषण दिया है, "रंजितार्जुनजिसके अन्तमें लिखा है--"रचितमिदं महासन्धि भूपतिः' अर्थात् जिसने राजा अर्जुनवर्माको प्रसन्न राजा सलखणसंमतेन राजगुरुणा मदनेन । अर्थात किया । इससे हम अनुमान करते हैं कि राजा यह दानपत्र महासान्धिविग्रहिक मंत्री राजा सलख- सलखणके समान उनके पोते छाहड़को भी अर्जुनणकी सम्मतिसे राजगुरु मदनने रचा। इन्हों अर्जन- वर्मदेवने कोई राज्य-पद दिया होगा । अक्सर वर्मा के राज्यमें पं० आशाधर नालछामें जाकर रहे राजकर्मचारियोंके वंशजोंको एकके बाद एक राज्यथे और ये राजगुरू मदन भी वही हैं जिन्हें पं. कार्य मिलते रहते हैं । पं० आशाधरजी भी कोई आशाधरजीने काव्य-शास्त्रकी शिक्षा दी थी। इससे राज्य पद पा सकते थे परन्तु उन्होंने उसकी अपेक्षा अनुमान होता है कि उक्त राजा सलखण ही संभव जिनधर्मोदयके कार्य में लग जाना ज्यादा कल्याणहै कि आशाधरजीक पिता सल्लक्षण हों।
कारी समझा।
उनके पिता और पुत्रके इस सन्मानसे स्पष्ट जिस समय यह परिवार धारामें आया था
होता है कि एक सुसंस्कृत और राज्यमान्य कुलमें उस समय विन्ध्यवर्माके सन्धि-विग्रहके मंत्री (परराष्टसचिव ) विल्हण कवीश थे। उनके बाद
उनका जन्म हुआ था और इसलिए भी बालकोई आश्चर्य नहीं जो अपनी योग्यताके कारण
सरस्वती मदनोपाध्याय जैसे लोगोंने उनका शिष्यत्व
स्वीकार करने में संकोच न किया होगा। सलक्षणने भी वह पद प्राप्त कर लिया हो और
वि० सं० १२४९ के लगभग जब शहाबुद्दीन सम्मानसूचक राजाकी उपाधि भी उन्हें मिली हो ।
गोरीने पृथ्वीराजको कैद करके दिल्लीको अपनी पण्डित आशाधरजीने 'अध्यात्म-रहस्य' नामका
राजधानी बनाया था और उसी समय उसने प्रन्थ अपने पिताकी आज्ञासे निर्माण किया था ।
अजमेर पर भी अधिकार किया था, तभी पण्डित यह ग्रन्थ वि० सं० १२९६ के बाद किसी समय
आशाधर मांडलगढ़ छोड़कर धारामें आये होंगे। + अमेरिकन ओरियंटल सोसाइटीका जर्नल वा. उस समय वे किशोर होंगे, क्योंकि उन्होंने ७ और प्राचीन लेखमाला भाग १ पृ० ६-७। व्याकरण और न्यायशास्त्र वहीं आकर पढ़ा था।