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वर्ष ३, किरण ११ ]
अन्तिम आश्वास तक प्रत्येक आश्वासके प्रथम पद्यों में अपने जिनदेवको अपनी उपाधि 'सरस्वती 'महार' नाम से ही कहा है- इत्यादि
नृपतुंग जैन नहीं था
(१) जिनसेन तथा गुणभद्रने अपने ग्रन्थोंमें नृपतुंग जैनधर्मावलंबी हुआ यह बात कही नहीं । गुणभद्र के उत्तरपुराण के उस एक श्लोकसे भी वह अर्थ नहीं निकलता |
(२) दिगम्बर जैनियोंके 'सेन' गणको पट्टावली में कहे हुए प्रत्येक गुरुके सम्बन्ध में उससे किया गया विशेष कार्यों का उल्लेख उसके नामके साथ है। उसमें जिनसेन के सम्बन्ध में इतना ही कहा है
नृपतुंगका मत विचार
क्वल महाधवल-पुराणादि सकलग्रन्थकर्तारः श्रीजिनसेनाचार्याणाम्” (जै. सि. भा.. I. I. पृ० ३६)
( ३ ) जिनसेनने अपनी कृतियों में कहीं पर भी मैं नृपतुंगका गुरु हूँ यह नहीं कहा अथवा अपने नामके साथ नृपतुंगका नाम भी नहीं कहा।
(४) जिनसेन ई० स० ८४८ के उपरान्त नहीं होगा | नृपतुंग जिनसेनसे मतान्तर हो गया हो तो उसके पहिले ही होना चाहिये; परन्तु
+ उदा० - श्रवणवेलगुलका गोम्मटेश्वरप्रतिष्ठापक चामुंडा प्रथम गुरु 'अतितसेनाचार्य' के सम्बन्ध में इस पट्टावलीमें इस प्रकार है:——
'दक्षिण- मथुरानगरनिवासि क्षत्रिय वंशशिरोमणिदक्षिणत्र लिंगकर्नाटदेशाधिपतिचामुण्डराय - प्रतिबोधक बाहुबलिप्रतिबिम्ब गोम्मटस्वामिप्रतिष्ठाचार्य श्री अजितसेन - भट्टारकाणाम् ” ( जै०सि० भा० १.१ पृ० ३८ )
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नृपतुंग के समय के ई० सं० ८६६ के शासन से वह 'तब तक जैन नहीं हुआ इतना ही नहीं किन्तु विष्णुभक्त होना चाहिये, यह बात व्यक्त होती हैं। उसने महाविष्णुत्र राज्यबोल, (महाविष्णु राज्य के समान) राज्य शासन करता था ऐसा लिखा है । जैनधर्म के द्वादश चक्रवर्तियोंमेंसे किसीकी भी उपमा नहीं दी।
(५) अमोघवर्ष - नृपतुंग नामके बहुत से राजा हो गये हैं, 'गणितसारसंग्रह' में कहा हुआ नृपतुंग यही होगा तो उसका जन्मधर्म एकान्तपक्ष याने वैष्णव धर्म था यह बात और भी दृढ होती है । अन्यथा इस पक्ष में कहा हुआ वक्तव्य इतिहासदृष्टि से असंगत होनेसे उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता ।
(६) 'प्रश्नोत्तर रत्नमालिका' नृपतुंगकी कृति नहीं है, उसमें कहा हुआ 'विवेकात्त्यक्तराज्येन' श्लोक उसकी मूल रचना नहीं है, अर्वाचीन प्रक्षेप किया गया होगा अथवा उस श्लोक के वक्तव्य
सत्य समझने पर भी, उससे नृपतुंगने अपने विवेक से राज्य त्याग दिया अर्थ होता है न कि जैन धर्मका अवलंबन करनेसे वैसा किया या वह विवेक उसे जैनधर्मसे प्राप्त हुआ यह अर्थ सर्वथा नहीं हो सकता है ।
* विष्णु अपने अनेक अवतारोंमें चक्रवर्ति था यह बात 'श्रीमद्भागवत' इत्यादि पुराणोंसे मालूम पड़ती है। उदा० - दशरथराम, ऋषभचक्रवर्ती, प्रथचक्रवर्ती, इत्यादि) जैन धर्मके द्वादश चक्रवर्तियों के नाम रन्नने 'अजितपुराण' में कहे हैं ( कर्नाटककाव्यकलानिधि ३१ पृ० १८३ )