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अनेकान्त
(७) 'कविराजमार्ग' का कर्ता नृपतुंग हो • अथवा उसके आस्थानका और कोई हो, उसमें प्रतिफलित धर्म नृपतुंगका धर्म ही होना चाहिये, कर्ता अन्य होने पर भी उसका नहीं; अतएव उसकी अवतारिकाके पद्योंमें कही हुई विष्णु स्तुतिसे नृपतुंग वैष्णव था. यह बात भली भांति व्यक्त होती है ।
(८) सोरब शि० लेख न० ८५ ( ई० स० ८७७ ) में इस नृपतुंगका ( और उसके शासनके अन्तिम वर्षका) शासन, इस राष्ट्रकूट वंशके ( इसके पहिले राज्य करने वाले ) अन्य नरेशोंके शासनके समान है । इससे भी उसने अपने पूर्वजोंका
[ भाद्रपद, वीर निर्वाण सं० २४६६
धर्म नहीं छोड़ा मालूम पड़ता है।
(९) ई० सन् ८७७ के पश्चात इसका देहाव सान हुआ हो, अथवा यह राज्य - भारसे निवृत्त हुआ हो, इस बातको निष्कृष्ट करनेके लिये योग्य साधन नहीं है। इसका पुत्र तथा इसके अनन्तर गद्दी पर आया हुआ 'अकालवर्ष' नामका दूसरा कृष्ण (कन्नर ) अपने पूर्वजों के धर्म में रहसे नृपतुंग आमरणान्त अपने पूर्वजों के भागवत वैष्णव धर्मका अवलंबी ही होना चाहिये | अपने अन्तिम समय में भी उसने जैनधर्मका अवलंबन नहीं किया ।
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शिक्षा
जो चाहो सुख जगत में राग-द्वेष दो छोड़ । बन्ध - विनाशक साधु-प्रिय, समता से हित जोड़ |
अपना अपने में लखो, अपना-अपना जोय । अपने में अपना लखे, निश्रय शिव-पद होय ॥
क्रोध बोध को क्षय करत, क्रोध करत बृष -नाश । क्षमा अमिय पीते रहो, चाहो आत्म-विकाश ॥
- ब्र० प्रेमसागर पञ्चरत्न (प्रेम) रीठी।