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'जैनधर्म-परिचय' गीता-जैसा हो
- [ले.-श्री दौलतराम 'मित्र', इन्दौर]
१ता हिन्दूधर्मका एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। कौरव- बोल उठे कि-"जैनियोंके भण्डारमें गीता के समान
- पांडव-युद्ध-घटनाको लेकर गीतामें जीवन कोई ग्रन्थ हो तो दिखलाना चाहिये,नहीं तो उन्हें गीताकी प्रायः सभी समस्याओंके हल करने का प्रयत्न किया धर्मका अनुयायी होकर हिन्दूसभामें शामिल होना गया है । इस विशेषताके कारण गीता इतनी लोक- चाहिये ?" प्रिय हो गई है कि दुनियाकी प्रायः सभी भाषाओंमें जैनधर्म-ग्रन्थ-प्रचारके लिये अभीके पिछले दिनों में उसके अनुवाद मौजद हैं ।
भी बहुत कुछ प्रयत्न हुए, परन्तु वे पार नहीं पड़ पाये। ___जो सच्चे धार्मिक है,वे सभी अपने अपने धर्म ग्रन्थ- पार नहीं पड़ पानेका कारण लेखकोंकी अयोग्यता नीं का प्रभाव फैलाने-प्रचार करने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु और और कारण हैं। परन्तु प्रचार उसीका होता है जो सर्वसाधारण-जन- पहिला प्रयत्न पं०राजमल्लजीने किया, "पंचाध्यायी" सुलभ और सुबोध होता है । गीता-प्रचारकोंने इन ग्रन्थ संस्कृतमें लिखा, दो अध्याय भी परे नहीं हो दोनों बातोंका अच्छा उपयोग किया है।
पाये। अगर यह ग्रन्थ पूरा लिखा गया होता तो इसके गीताप्रचारको देखकर अाजके हम जैन लोगोंका सामने गीता फीकी दिखाई देती । फिर भी जितना भी ध्यान जैनधर्म-प्रचारके लिये श्राकर्षित होने लगा लिखा गया है उतना ही बहुत महत्व रखता है। है । परन्तु जैसा हिन्दूधर्मका सार अथवा जीवनकी दूसरा प्रयत्न पं०टोडरमलजीने किया, "मोक्षमार्गप्रायः सभी समस्याओंका हल एक जगह गीतामें इकट्ठा प्रकाशक" ग्रंथ ढूंढाड़ी-हिन्दीमें लिखा, यह भी अधव किया गया है, वैसा जैनधर्मका सार एक जगह इकट्ठा रहा। किया हुआ नहीं है। यही कारण है कि जैनधर्म-प्रचारके तीसरा प्रयत्न पं० गोपालदासजी बरैयाने किया, लिये जैनधर्मका परिचय कराने वाले एक ऐसे ग्रन्थकी “जैनसिद्धान्तदर्पण" ग्रन्थ हिन्दीमें लिखा, यह भी ज़रूरत है जो हो-“गीता जैसा"।
पूरा नहीं हुआ। बहुतसे महत्वपूर्ण ग्रन्थोंके होते हुए भी गीता-जैसा ये तीनों ही प्रयत्न सर्वसाधारण-जनोपयोगी ग्रन्थ ग्रन्थ हमारे यहाँ संग्रह किया हुअा न होनेसे आज बनानेके थे । प्रमाण ये हैंहमें समय समय पर दूसरे धार्मिकोंके कुछ आक्षेप भी पं० राजमल्लजी पंचाध्यायीमें लिखते हैंसहन करना पड़ रहे हैं । उस दिन कोल्हापुर में हिन्दू- अत्रान्तरंगहेतुर्यद्यपि भावः कवेविशुद्धतरः। धर्मपरिषदके अधिवेशन में महादेव शास्त्री दिवेकर हेतोस्तथापि हेतुः साध्वी सर्वोपकारिणी बुद्धिः॥५॥