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वर्ष ३, किरण 1.1
विद्यानन्द-कृत सत्यशासनपरीक्षा
पत्रपरीक्षा और प्राप्तपरीक्षा प्रकरण अपने अपने मैं आशा करता हूँ कि जैनसिद्धान्तभवनके विषयके बेजोड़ निबन्ध हैं । ये ही निबन्ध तथा विद्यानन्द सुयोग्य अध्यक्ष इसकी मूल प्रतिका पता लगाएँगे। के अन्य ग्रंथ आगे बने हुए समस्त दि० श्वे. न्याय- . अन्य भंडारोंमें भी इस ग्रन्थरत्नकी प्रतियाँ मिलेगी। ग्रंथोंके आधार भूत हैं। इनके ही विचार तथा शन्द शास्त्ररसिकोंको इस ओर लक्ष्य अवश्य देना चाहिए। उत्तरकालीन दि० श्वे० न्यायग्रन्थों पर अपनी अमिट जब इसकी पूर्णप्रति उपलब्ध हो जाय तब इसका सुन्दर छाप लगाए हुए हैं । यदि जैनन्यायके कोशागारसे संस्करण माणिकचन्द्रग्रन्थमाला या अन्य ग्रंथमालाओं विद्यानन्दके ग्रन्थोंको अलग कर दिया जाय तो वह को अवश्य ही प्रकाशित करना चाहिए । यदि दुर्भाग्यसे एकदम निष्प्रभ-सा हो जायगा । उनकी यह सत्यशासन- यह ग्रन्थ अभ्य भण्डारोंमें अधूरा ही मिले तो समझ परीचा ऐसा एक तेजोमय रल है जिससे जैनन्यायका लेना चाहिए कि यह विद्यानन्दस्वामीकी अंतिम कृति अाकाश दमदमा उठेगा । यद्यपि इसमें आए हुए है । पर मात्र मौजदा प्रतिके भरोसे यह निष्कर्ष नहीं पदार्थ फुटकररूपसे उनके अष्टसहस्री श्रादि ग्रन्थों में निकाला जा सकता; क्योंकि इसमें बीचमें भी कई जगह खोजे जा सकते हैं पर इतना सुन्दर और पाठ छूटे हैं और सम्भव है कि अंतमें भी नकल अधूरी व्यवस्थित तथा अनेक नए प्रमेयोंका सुरुचिपूर्ण संकलन, रह गई हो । यदि पूरा ग्रंथ न मिले तब उपलब्ध भाग जिसे स्वयं विद्यानन्दने ही किया है, अन्यत्र मिलना ही प्रकाशित होना चाहिए, इससे अनेकों प्रमेयोंका असम्भव है।
खुलासा परिज्ञान किया जा सकेगा।