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________________ प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी 'समीक्षा' [ सम्पादकीय कान्तके पाठक प्रो० जगदीशचन्द्रजी जैन एम. ए. से थोड़े-बहुत परिचित हैं - उनके कुछ लेखों को 'कान्स' में बढ़ चुके हैं। आप यू० पी० के एक दिगम्बर जैन विद्वान् है । एम० ए० के बाद रिसर्चका अभ्यास करने के लिये कुछ अर्से तक श्राप बोलपुर के शान्तिनिकेतन में एक रिसर्च स्कॉलरके रूपमें रहे हैं । इसी समय सिंघी जैमग्रन्थमाला' के संचालक मुनि जिनविजय नीकी श्रोरसे श्रापको राजधार्तिक' के सम्पादनका कार्य सौंपा गया था, जिसका श्रापने अपने पिछले लेख में उल्लेख किया है, और जो बादको स्थगित रहा है | आजकल आप बम्बईके रूइया कालिज में प्रोफेसर हैं। राजवार्तिक पर कुछ काम करते समय आपकी यह धारणा होगई है कि- १ उमास्वाति के तत्वार्थ सूत्र पर श्वेताम्बर सम्प्रदाय में जो भाष्य प्रचलित है तथा 'स्वोपज्ञ' कहा जाता है वह स्वोपज्ञ ही है अर्थात् स्वयं मूलसूत्रकार उमास्वातिकी रचना है; २ राजवार्तिक लिखते समय अकलंकदेवके सामने यही भाष्य मौजूद था, ३ अकलंकदेव इस भाष्य तथा मूल 'तत्त्वार्थसूत्र' के कर्ताको एक व्यक्ति मानते थे, और ४ उन्होंने अपने राजवार्तिक में इस भाष्यका यथेष्ट उपयोग किया है, इतना ही नहीं बल्कि इसके प्रति 'बहुमान' भी प्रदर्शित किया है । चुनाँचे अपनी इस धारणा अथवा मान्यताको दूसरे विद्वानोंके ( जो ऐसा नहीं मानते ) गले उतारने के लिये आपने 'तत्त्वार्थाधिगमभाष्य और कलंक' नामका एक लेख लिखा, जो 'अनेकान्स' की गत ४ थी किरण में प्रकाशित हो चुका है। इस लेख में प्रोफेसरसाहबने विद्वानोंको विशेष विचार के लिये श्रामन्त्रित किया था । सदनुसार मैंने भी अपना विचार 'सम्पादकीय - विश्वारणा' के नामसे प्रकट कर दिया था -४ पेजके लेख के अनन्तर ही ५ पेजकी अपनी 'विचारणा' को भी रख दिया था, जिसमें प्रोफेसर साहब की मान्यताकी श्राधारभूत युक्तियों को सदोष बतलाते और उनका निरसन करते हुए यह स्पष्ट किया गया था कि उन मुद्दों परसे यह बात फलित नहीं होती जिसे प्रो० साहब सुझाना चाहते हैं। साथ ही, विद्वानोंको इस विषय पर अधिक प्रकाश डालने के लिये प्रेरित भी किया था । अपने श्रामन्त्रणको इतना शीघ्र सफल होते देखकर, जहाँ प्रो० साहबको प्रसन्न होना चाहिये था वहाँ यह देखकर दुःख तथा खेद होता है कि इतनी अधिक संयत भाषा में लिखी हुई गवेषणा पूर्ण 'विचारणा'को पढ़कर भी आप कुछ प्रसन्न हुए हैं ! अपनी इस प्रसन्नताको अपने उस लेख के प्रारम्भ में ही व्यक्त किया है, जो 'सम्पादकीय - विचारणाकी समीक्षा' के रूपमें लिखा गया है तथा इसी किरण में अन्यत्र प्रकाशित हो रहा है और जिसे प्रो० साहबने अपना वही पुराना " तत्त्वार्थाधिगमभाष्य और कलंक" शीर्षक दिया है । मालूम नहीं आपकी इस अप्रसन्नताका क्या कारण है ?
SR No.527165
Book TitleAnekant 1940 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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