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________________ वर्ष ३, किरण ११] + 'क' प्रतिका अन्तिम पद्य इस प्रकार दिया हैरचिता सितपटगुरुणा विमला विमलेन रत्नमालेव । प्रश्नोत्तर मालेयं कंठगता कं न भूषयति ॥ २६ ॥ इसके अलावा 'ख' प्रतिका अन्तिम पद्य और तरह है: नृपतुंगका मत विचार विवेकात्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका । चितामोघवर्षेण सुधिया | सलंकृतिः ॥ २६ ॥ यह कृति श्रीमच्छंकराचार्य से या उसके परम्परा के शंकरानन्द यतिसे रचित होगी ऐसी भी प्रतीति है । इस कृतिकी पुरानी हस्त प्रतियों में वर्द्धमान जिन स्तुति-सम्बन्धी पद्य न होंगे, और साथ ही साथ उनमें अन्तिम पद्य ( 'विमल' श्वेताम्बर गुरु नामका पाठान्तर भी, अमोघवर्ष नामका पाठान्तर भी) नहीं होंगे । इस कृति में रचनान्तर प्रक्षेप बहुत दिखाई देते हैं अतः शंकराचार्य तथा शंकरानन्द भी इसके कर्ता नहीं होंगे; क्योंकि: ( १ ) आत्मपरमात्मका ऐक्यत्व के सम्बन्ध में इसमें चकार शब्द भी नहीं; ( २ ) अथवा नीतिबोध-सम्बन्धी हम एक छोटीसी कवितामें सिद्धान्त तथा धर्मबोधनकी हवा भी नहीं दीखती; पर शंकराचार्यकी छोटीसी कृति “द्वादशपंजरी” “चर्पट † ‘काव्यमाला' सप्तम गुच्छ्रक ( पृ० १२१ और १२३ ) + श्रीमान् पाठक महाशयने 'कविराजमार्ग' के उपोद्घातमें इस श्लोकको उद्धृत किया है वहाँ पर 'सुधिया ' है, 'काव्यमाला' में प्रकटित काव्य में यहाँ 'सुधिय' है। 'सुधिया' ('सुधि' शब्दका तृतीयैक वचन) कहने के बदले 'सुधियाम् ' ( उसी शब्दकी षष्टी विभक्ति का बहुवचन) कहना ठीक मालूम पड़ता है । १४३ पंजरी" दोनोंमें नीतिबोधक और धर्मबोधक तत्व प्रत्येक पद्य से टपकता है अर्थात धर्म और नीतिका पृथक्करण इनकीकृति में रहना विश्वसनीय नहीं है । ( ३ ) वैसे ही इस कविता में भक्तिबोधक वक्तव्य नहीं है। किसी धार्मिक रीति से भी उपासनासम्बन्धी बातें नहीं हैं । अत एव यह शंकराचार्यकी अथवा शंकरानन्दकी कृति होगी यह कहना ठीक नहीं । ( ४ ) साथ ही साथ इसके आरम्भ में या अन्तिम भागमें विष्णु अथवा शिवकी स्तुति भी नहीं है और उनके नाम भी नहीं । इन सब बातों से मालूम पड़ता है यह इन आचायोंकी कृति नहीं है । (५) इसके १२वें पद्य में 'नलिनीदलगतजललवतरलं किं यौवनं धनमथायुः '' इस प्रकार है, शंकराचार्यको 'द्वादशपंजरी' के १०वें पद्य में— नलिनीदलगतसलिलं तरलं । तद्वज्जीवितमतिशयचपलम् ॥ ऐसा है । पर इससे इन दोनोंका कर्ता एक ही होगा यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि नलिनीदल में स्थित जलबिन्दुकी चंचलता का अपने जीवन, आयुष्य, घनके साथ उपमा करनेकी रूढि सनातन, बौद्ध, जैनधर्म शास्त्रों में बहुत पुरानी समय से आ रही हैइन सब बातों से यह कविता इन आचार्योंकी कृति नहीं है, यह बात निष्कृष्ठरूपसे कह सकते हैं । ऐसी अवस्था में इसका कर्ता नृपतुंग ही हो सकता है क्या ? श्रीमान् पाठक महाशय जैसे विद्वान भी इसे नृपतुंगकी कृति मानते हैं, पर निम्नलिखित कारणोंसे उनका अभिप्राय ठीक मालूम नहीं पड़ता:
SR No.527165
Book TitleAnekant 1940 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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