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________________ ६१० अनेकान्त ( १ ) उपर्युक्त 'काव्यमाला' में कही हुई 'ख' हस्त प्रतिमें विवेकात्यक्तराज्येन' इस एक ही पद्य के सिवाय अन्य २८ पद्य और 'क' हस्त प्रतिके सभी २९ पद्य संस्कृत 'आर्या' छन्दमें हैं, परन्तु 'ख' प्रति का यह एक अन्तिम पद्य हो 'अनुष्टुभ' नामका श्लोक है - यह क्यों ? नृपतुंगने अन्य २८ पद्यों को आर्या छन्दमें रचकर, आप विवेकसे राज्यभार त्यागकर पश्चात् इस कविताकी रचना करते हुए यहीं एक पद्य 'अनुष्टभ्' श्लोकमें क्यों रचा ? इतनी छोटी सी कविता में दो तरह के छन्दों की क्या जरूरत थी ? पर 'क' प्रतिके अंतिम पृष्ठों में इसका कर्ता 'बिमल' नामक श्वेताम्बर गुरु कहा है, इसी बातको कहनेवाला पद्य उस कृतिके अन्य सब पद्योंकी तरह आर्या छन्दमें रह कर, कृतिके रचना समन्वय के साथ सुसंगत है, अत एव मूल कृतिका अंतिम पद्य इस 'क' प्रतिकी अंतिम 'आर्या' ही होनी चाहिये और इस कविताका रचिता उसमें कहा हुआ 'विमल' ही होना चाहिये ऐसा मुझे मालूम पड़ता है। (२) इस कविताके पहिले दूसरे और २८ वें पद्योंमें इसका नाम 'प्रश्नोत्तररत्नमालिका' कहा है, 'क' प्रतिके अंतिम पद्यके प्रथम चरण में इसे ‘रत्नमाला' के साथ तुलना किया है, उसके द्वितीय चरणमें इसका नाम कहते वक्त 'रत्नमाला' इस प्रकार पुनरुक्ति नहीं करते हुये प्रश्नोत्तरमाला कहना समंजस है । पर 'ख' प्रतिके अंतिम 'अनुष्टुभ्' श्लोक में इसे 'रत्नमालिका' कह कर 'प्रश्नोत्तर' नामके प्रधान पूर्व पदको ही छोड़ दिया है। अतः इस काव्यके अंतके वक्तव्य तथा 'ख' प्रतिके अंतिम पद्यके वक्तव्यमें परिवर्तन दिखाई देनेसे 'ख' प्रतिका अंतिम पद्य मूल प्रतिमें नहीं [ भाद्रपद, वीर निर्वाण सं० २४६६ होगा ऐसा मालूम पड़ता है । ( ३ ) इस कविताके २रे और २८ वें पद्यों में दिखाई देने वाला 'विमल' शब्द केवल निर्मल इतना अर्थ से युक्त गुणवाचक नहीं, किन्तु कविने अपने नामके श्लेषसे उसका उपयोग किया होगा, यह बात शीघ्र मालूम पड़ जाती है । अतः कविका नाम 'विमल' ही होना चाहिये । . (४) नृपतुरंग शक सं० ७९७ ( ई० सन् ८७५) में अपने पुत्र अकालवर्षको अपनी गद्दी पर बैठा कर आप राज्यभारसे निवृत हुआ, इस प्रकार श्रीमान् पाठक महाशयका कहना है, पर ऐसे निष्कृष्ट वक्तव्य के सम्बन्ध में आपने कोई आधार नहीं दिया । यह वक्तव्य ठीक नहीं मालूम पड़ता; क्योंकि ई० स० ८७५-७६ के कुछ शासनों में नृपतुरंगके पुत्र अकालवर्ष नामक कृष्णका नाम होते हुए भी वह नरेश था यह बात नहीं, युवराज होते हुये अपने पिता नृपतुरंगके राज्यके दक्षिण भागका प्रतिनिधि था यह बात है । राजधानी मान्यखेटमें तब नृपतुरंग गद्दी पर था, यह बात स्पष्ट है । इसके सिवाय ई० स०८७७ के सोरब नं० ८५ वें शासन में भी तब नृपतुरंग गद्दी पर था ऐसा लिखा है और यह बात पहिले भी कही जा चुकी है । अतएव ई० स० ८७७ तक नृपतु गने राज्य त्याग नहीं किया, यह बात व्यक्त होती है । ( ५ ) इस प्रश्नोत्तर रत्नमालिका' के तिब्बत भाषा के अनुवाद में इसका कर्ता 'अमोघोदय' नाम का राजा कहा है; इसी बात के आधार से श्रीमान पाठक महाशय ने उसे अमोघवर्ष कहा है; परन्तु यह बात ठीक नहीं है; क्योंकि – (१) 'ख' प्रतिके † I: A., Vol. XII P. 220.
SR No.527165
Book TitleAnekant 1940 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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