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वर्ष ३, किरण ११]
नपतंगका मत विचार
अन्तिम पद्य के अनुसार इम कविताके कर्ता लिखा होगा, उसमें यह श्लोक रहा भो होगा। अमोगवर्षने विवेकमे राज्य त्याग किया लिखा है, परन्त उसके राज्यत्यागके सम्बन्धमें ठीक आधार पर तिब्बत भाषाके अनुवादमें उसके कर्ताने राज्य प्राप्त होने तक, आगन्तुक किसी श्लोकके ऊपर त्याग किया लिखा हो सो उम बातको पाठक विश्वास रख कर उसे ऐतिहासिक तथ्य समझकर महाशयने कहा नहीं; उस अनुवादमें वैसे नहीं स्वीकार करना मुझे ठीक नहीं मालूम पड़ता। लिखा हो तो अमोघवर्ष और अमोघोदय ये दोनों 'विवेकाश्यक्तराज्येन' यह श्लोक ऐतिहासिक तथ्य एक ही व्यक्ति थे ऐसा कहना कैसे ? इन दोनोंमें को कहता है, इस प्रकार निष्प्रमाण स्वीकार करने 'अमोघ' यह पूर्व पद रहनेके कारण ये दोनों पर भी इससे नपतुंगने जैनधर्मका अवलंबन किया एक ही व्यक्ति थे इस प्रकार बिना प्रबल आधार यह अर्थ नहीं होता; विवेकसे राज्यभार त्याग के कोई कहे तो उसे स्वीकार नहीं किया जा किया लिखा है, वह विवेकोदय उसे जैनधर्मसे सकता। .
हुआ यह बात नहीं। ई० स० ८१५ से ८७७ तक _ अतः इस कविताका कर्ता श्वेताम्बर जैन करीब ६२-६३ वर्ष तक राज्यशासन किये हुए इसे गुरु विमल' के सिवाय अन्य कोई नहीं;यह नपतुं- उस वक्त ८०.८२ वर्षसे कम न हुए होंगे, उस गकी कृति नहीं है यह बात मुझे ठीक मालूम पड़ती वृद्धावस्थामें यह राज्यभारसे निवृत्त हुआ हो तो है । इस.विमलसूरिने कर्नाटक भाषामें क्या काव्य वह विवेक नैसर्गिक है । इसके पहिले इसके पितारचना की है ? 'कविराजमार्ग' में कहा हुआ मह ध्रुवराजने राज्य भारसे निवृत होना चाहा था 'विमल' ('विमलोदय, नागार्जुन......। २९) नाम यह बात पहिले कही जा चुकी है। का व्यक्ति क्या यही होगा ?-इम सम्बन्धमें विद्वान लोगोंको विचार करना चाहिये ।
__(ई) कविराजमार्ग ‘विवेकात्त्यक्तराज्येन' * यह श्लोक इस यह एक कर्नाटक अलंकार ग्रन्थ है । यह कवितामें प्रक्षिप्त किया गया होगा, इतना ही मैंने नृपतुंगकी स्वयं कृति है या उसके आस्थानक कहा है, वह नृपतुंगचित अन्य किसी संस्कृत किसी कविने उसके नामसे रचना की हो, इस ग्रन्थमें नहीं होगा, यह बात मैंने नहीं कही । पर सम्बन्धमें विद्वानोंमें भिन्नाभिप्राय हैं । यदि यह वह स्वयं या उसके सम्बन्धमें और कोई काव्य ग्रन्थ नृपतुंगकी स्वयं कृति है तो इसमें इसकी
अवतारिकाके दो कंद पद्योंमें (अपने इष्ट देवता ) * उस नृपतुंगका पितामह राज्य भारसे निवृत होना चाहता था उस वक्त उसके पुत्रने उसे स्वीकार
विष्णुकी स्तुति की है । इससे तो यह राजा स्वयं
वैष्णव सिद्ध होता है। भागवत वैष्णव धर्ममें नहीं करते हुये वैसा होने नहीं दिया था, वैसे ही नृप तुंगके राज्य त्याग करना चाहते वक्त उसके पुत्रने अपने
हरि-हर समान हैं यह बात पहिले कही जाचुकी है। पूर्वजोंकी पद्धतिका अनुकरण करते हुये उसे नहीं स्वी- इस काव्यके तृतीय परिच्छेदके ८१,१६१, १६२ कारा होगा, ऐसा मुझे मालूम पड़ता है।
१८६, ११०, ११४ नं. के पद्योंका परिशीलन करें।