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________________ वर्ष ३, किरण ११] सिद्धपेनके सामने सर्वार्थसिद्धि और राजवातिक ६३३ विरोधिद्रव्योपनिपाताभिलषितवियोगानिष्टनिष्ठुर- प्रभवः स्कन्ध परिणामः । अनादिरपि धर्माधर्माकाशश्रवणादिबाह्यसाधनापेक्षयादसद्वेद्योदयादुत्पद्यमानःपीडा विषयः । -भाष्ववृत्ति ५, २४ पृ०३६० लक्षणः परिणामो दुःखमित्याख्यायते । प्रतिसेवनेति षत्वाभावः क्रियांतराभि संबंधात् ॥३॥ -राजवार्तिक, ६, ११ ।। ___यथा विगताः सेवकाः, अस्माद् प्रामाद्विसेवको विरोधिद्रव्यान्तरोपनिपाताभिलषितंवियोगानिष्टश्र. ग्राम इति षत्वं न भवति तथा प्रतिगता सेवना प्रतिवणादसवेद्योदयापनः पीडालवणः परिणाम प्रात्मनो ' सेवनेति क्रियांतराभिसंबंधात् पत्वं न भवति । दुःखमित्यर्थः। -राजवार्तिक ६, ४७ -भाष्यवृत्ति, ६, १२ प्रतिगता सेवना प्रतिसेवना । क्रियायोगात्यये धर्मप्रणिधानात् क्रोधादिनिवृत्तिः शांतिः । सत्यपसर्गसम्ज्ञाभावात् षस्वाभावोऽतिसिक्तवत् । -राजवार्तिक, ६,१२ -भाष्यवृत्ति ६,४६, पृ०२८६ धर्मप्रणिधाना क्रोधनिवृत्तिर्मनोवाकायैः शांतिः । इसी प्रकारके और भी बहुतसे अवतरण दिये -भाष्यवृत्ति, ६, १३ जा सकते हैं, जिन्हें लेखवृद्धिके भयसे यहाँ छोड़ा धाष्टय प्रायमसंबद्धबहुप्रलापित्वं मौखर्यम् । जाता है । हाँ, एक बात और भी यहाँ प्रकट कर , -राजवार्तिक, ७, ३२ देने की है और वह यह कि ५वें अध्यायके 'द्वयधिधाष्टय प्रायमसभ्यासम्बद्धबहुप्रतापित्वं मौखर्यम् । कादिगुणानां तु सूत्रकी व्याख्या करते हुए पूज्यपाद -भाष्यवृत्ति, ७, २७ और अकलंकने "णिद्धस्स गिद्धेण दुराधिएण" राजवातिककी लाक्षणिक पंक्तियों के अतिरिक्त इत्यादि गाथा 'उक्तं च'रुपसे उद्धृत की है । सिद्धसेन उसके कार्तिकोंकी अन्य व्याख्याको भी कहीं कहीं ने भी इसी सूत्रके भाष्यकी वृत्ति लिखते हुये उक्त पर अपनाया गया है जिसके कुछ उदाहरण निम्न गाथाको उद्धृत किया है और उसे पूर्वके तीन प्रकार है : सूत्रोंकेसाथ इस सूत्रको लेकर 'सूत्र चतुष्टयार्थक .. पाचो द्वेधा आदिमदनादिविकल्पात् ॥११॥ बतलाया है । परन्तु हरिभद्रने ऐसा न करके इससे श्राद्यो वैखसिको बंधो द्विधा भिद्यते । कुतः आदिमद- पहले सूत्रको वृत्तिमें ही उक्त गाथाको उद्धृत किया नादिमद्विकल्पात् । तत्रादिमान स्निग्धरूलगुणनिमित्त- है। इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि सिद्धसेनको विधुदुल्काजलधारा नींद्रधनुरादिविषयः । अनादिरपि इस विषय में आचार्य हरिभद्र का क्रम पसन्द नहीं वैनसिकबंधो धर्माधर्माकाशानामेकशः त्रैविध्यानव रहा किन्तु दिगम्बरीय व्याख्याओंका क्रम ठीक विधः। ___ जचा है और इसीसे उन्होंने उसका अनुकरण -राजवार्तिक, ५, २४ किया है। विस्रसः स्वभावः प्रयोगनिरपेक्षो विस्त्रसाबन्धः, ऊपरके इन सब अवतरणों तथा इसी प्रकारके स द्विधा आदिमदनादिमभेदात्,तत्रादिमान् विद्युदुल्का दूसरे अवतरणोंमें भी ध्यान खींचने वाला जो जलधराग्नीन्द्रधनुःप्रभृतिर्विषमगुणविशेषपरिणतपरमाणु भारी सादृश्य पाया जाता है उसे यों ही आकस्मिक
SR No.527165
Book TitleAnekant 1940 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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