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________________ ६३४ अनेकान्त नहीं कहा जा सकता । वह स्पष्ट बतला रहा है कि एक विद्वानके सामने दूसरे विद्वानका ग्रन्थ जरूर रहा है । सर्वार्थसिद्धिकार और राजवार्तिककार के सिद्धसेन से पूर्ववर्ती होने की हालतमें, जैसा कि ऊपर सिद्ध किया जा चुका है, यह अवश्य कहना होगा कि सिद्धसेन के सामने सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक दोनों ग्रंथ रहे हैं और उन्होंने अपनी भाष्यवृत्ति में उनका कितना ही उपयोग तथा अनुसरण किया है । और इसलिये नाम-धाम-विहान समान विरासत के किसी ऐसे टीका ग्रंथकी कल्पना करना जिस पर से पूज्यपाद, अकलंक और सिद्धसेन तीनोंने ही अपनी अपनी टोकाओं में उक्त प्रकार के कथनों को अपनाया होगा उस वक्ततक कोरी कल्पना ही कल्पना कहा जायगा जब तक कि उसका कोई स्पष्ट उल्लेख न बतलाया जावे अथवा तद्विषयक किसी पुष्ट प्रमाण और अनुसन्धान को सामने रक्खा जाय । मात्र यह कह देना कि सिद्धसेनने यदि सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिकको देखा होता तो वे इनमें वर्णित श्वेताम्बर - भिन्न दिगम्बर मान्यताओं का खंडन किये बिना, संतोष धारण नहीं कर सकते थे, इसके लिये कोई पर्याप्त नहीं है । दूसरे ग्रन्थोंको देखना और उनका यथावश्यकता अपने ग्रंथ में उपयोग करना एक बात है और दूसरे के किसी मन्तव्यका खंडन करना बिल्कुल दूसरी बात है । दूसरे ग्रंथोंको देखकर उनका उपयोग करने वाले के लिये यह कोई लाज़िमी नहीं कि वह दूसरेके मन्तव्यका खंडन भी जरूर करे, चाहे वह कैसी ही प्रकृतिका क्यों न हो। ग्रंथ अनेक पढ़ते हैं + यह कल्पना पं० सुखलालजीने तत्त्वार्थसूत्रकी अपनी हिन्दी टaarat प्रस्तावना में की है । [ भाद्रपद वीर निर्वाण सं० २४६६ परन्तु खण्डन कोई कोई ही किया करता है । खण्डन के लिये दूसरी भी अनेक बातों तथा सहायक सामग्री की आवश्यकता होती है, जिनके अभाव में अथवा अधुरेपनमें खण्डन नहीं बन सकता, और यदि खण्डन किया भी जाता है तो वह प्रायः उपहास - जनक होता है । सिद्धमेन यदि इस प्रकार के खण्डन कार्य में अधिक पड़ते और दिगम्बरों के साथ ज्यादा उलझते तो वे उस लक्ष्यसे दूर जा पड़ते और उसे वर्तमान रूपमें पूरा न कर पाते जो भाष्यको श्वेताम्बरीय आगमके साथ संगत बनानेका उनका रहा है । उस धुनमें वे सब कुछ भुला सकते हैं। फिर भी ऐसा नहीं है कि सर्वार्थसिद्धि तथा राजवार्तिककी मान्यताओं का कोई aण्डन उन्होंने किया ही न हो - यथावश्यक कुछ खण्डन तथा आलोचन जरूर किया है; चनाँचे पं० सुखलालजी भी अपनी उक्त प्रस्तावना में लिखते हैं- "सिद्धसेनीय वृत्ति दिगम्बरीय सूत्र पाठ विरुद्ध कहीं कहीं समालोचना दिखाई देती है।... तथा कहीं कहीं सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक में दृष्टिगोचर होने वाली व्याख्याओंका खंडन भी है।" ऐसी हालत में पंडित सुखलाल जीका उक्त कथन भी कोरी कल्पना ही कल्पना जान पड़ता है। ऊपरके सम्पूर्ण विवेचन परसे, मैं समझता हूँ, सहृदय पाठकों को इस विषय में कोई सन्देह नहीं रहेगा कि सिद्धसेन गणो के सामने सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक दोनों ग्रंथ मौजूद थे तथा उन्होंने अपनी भाष्यवृत्ति में इनका यथेष्ट उपयोग किया है । और इसलिये पं० सुखलालजीने इस सम्बन्ध में जो कल्पनाएँ की हैं वे समुचित नहीं हैं । वीर सेवा मन्दिर, सरसावा, ता० १० ८ - १९४०
SR No.527165
Book TitleAnekant 1940 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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