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सिद्धसेन के सामने सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक
[ लेखक - पं० परमानन्द जैन शास्त्री ]
श्वे वा
ताम्बर सम्प्रदाय में सिद्धसेन गणी नामक एक प्रधान आचार्य हो गये हैं, जिनकी उक्त सम्प्रदाय में 'गंधहस्ती' नामसे भी प्रसिद्धि है, जो कि असाधारण विद्वत्ताका द्योतक एक बहुत ही गौरवपूर्ण पद है । आप आगम- साहित्यके विशेष विद्वान थे और इतर दर्शनादि विषयोंमें भी अच्छा पाण्डित्य रखते थे । आपकी कृतिरूपसे इस समय एक ही ग्रंथ उपलब्ध है और वह है उमास्वातिके तत्वार्थ सूत्रकी बृहद्वृत्ति, जो उमास्वातिके 'स्वोपज्ञ' कहे जाने वाले भाष्यको साथ में लेकर लिखी गई हैं और इसीसे उसे 'भाष्यानुसा'रिगी' विशेषण दिया गया है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इसीको‘गंधहस्तिमहाभाष्य' कहा जाता है। इसका प्रमाण प्राय: अठारह हजार श्लोक - जितना है । यह वृत्ति · दो खण्डोंमें प्रकाशित भी हो चुकी है, और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में तत्त्वार्थसूत्र पर बनी हुई अन्य सब वृत्तियोंमें प्रधान मानी जाती है । इतना सब कुछ होनेपर भी इस वृत्तिमें वह रचना-सौन्दर्य, विषयकी स्पष्टता और वस्तुओं के जँचे-तुले लक्षणोंके साथ अर्थका पृथक्करण एवं गाम्भीर्य उपलब्ध नहीं होता जो कि दिगम्बर सम्प्रदाय की पूज्यपाद - विरचित ‘सर्वार्थसिद्धि' टीका और भट्टाकलंक देव विरचित 'राजवार्तिक' नामक भाष्य में पाया जाता है । इस बातको श्वेताम्बरीय प्रमुख विद्वान्
प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी भी स्वीकार करते हैं । आपने हालमें प्रकाशित तत्रार्थसूत्र की अपनी हिंदी टीकाकी 'परिचय' नामक प्रस्तावना में लिखा है कि:
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"सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक के साथ सिद्धसेनीय वृत्तिकी तुलना करने से इतना तो स्पष्ट जान पड़ता है कि जो भाषाका प्रासाद, रचनाकी विशदत और अर्थका पृथक्करण सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिकमें है वह सिद्धसेनीय वृत्ति में नहीं ।"
सिद्धसेन गणी हरिभद्र से कुछ समय बाद हुए हैं । हरिभद्रका समय विक्रमकी ८वीं ९वीं शताब्दी निश्चित किया गया है। इससे सिद्धसेन गणीका समय प्रायः नवमी शताब्दी होता है । सर्वार्थसिद्धि की रचना विक्रमकी छठी शताब्दी के पूर्वार्द्धकी है, यह निर्विवाद है । और राजवार्तिक की रचना प्रायः विक्रमकी सातवीं शताब्दीकी मानी जाती है । ऐसी हालत में यह स्नयाल स्वभाव से ही उत्पन्न होता है कि जब सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक जैसी अतिविशद और प्रौढ टीकाएँ पहले से मौजूद थीं, तब सिद्धसेन गणी जैसे विद्वान्को टीका उनसे कहीं अधिक विशद, प्रौढ़ एवं विषयको स्पष्ट करने वाली होनी चाहिये थी । मालूम होता है यह ख़याल पं० सुखलालजी के हृदय में भी उत्पन्न हुआ है । और इस परसे उन्होंने अपनी तत्त्वार्थसूत्रकी उक्त