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रचयिता द्वारा ही छोड़े जा सकते हैं
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कर्मकाण्डकी २१ से ३२ तककी गाथानों में किस संहननसे जीव किस गतिमें जाता है, इसका विवरण दिया गया है; और केवल उन्हीं बातोंको बतलाया गया है जिनके समझने के लिये बंधादि अधिकार पर्याप्त नहीं हैं। यहाँ मनुष्यों और तियंचों के किन संहननों का उदय होता है, इसके बतलाने की तो आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि उदय प्रकरणकी गाथा नं० २१४ से ३०३ तककी गाथाओं में तिर्यंचों और मनुष्योंके उदय, अनुदय और उदयव्युच्छित्तिरूप जो प्रकृतियाँ बतलाई गई हैं उसीसे किस तियंचके या मनुष्यके कितने संहनन होते हैं, इसका भी पता लग जाता है । नं० २६५ से २७२ तककी गाथाओं में जो गुणस्थानोंकी
उदयादिका कथन किया गया है, उससे किस गुणस्थान तक कितने संहनन होते हैं; इसका भी पता लग जाता है। क्षेत्र की दृष्टिसे भोगभूमि के क्षेत्रों में पहला संहनन होता है, इसका पता ३०२ और ३०३ नं० की गाथा से लग जाता है और पारिशेष न्याय से यह भी समझ में आ जाता है कि कर्म भूमिमें सभी संहनन होते हैं । इसी क्षेत्र व्यवस्थाके ऊपरसे काल-व्यवस्था भी समझ आ जाती है। अतएव कर्मप्रकृतिकी ७५ से ८२ तककी श्रठ व ८६ से ८ह तककी चार गाथाओं के यहाँ न रहनेसे कर्मकाण्ड में कोई त्रुटि नहीं रहती। संहननोंका उन गतियोंसे संबंध उपर्युक्त प्रकरणों से नहीं जाना जा सकता था, अतएव उस विशेषताको बतलाना यहाँ श्रावश्यक था ।
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अनेकान्त
[ भाद्रपद, वीर निर्वाण सं० २४६६
किन्तु कर्मप्रकृतिकी गाथा नं० ७५ में दो प्रकार की विहायोगति भी गिना दी गई हैं, जिससे वहाँ शरीरसे लगाकर स्पर्श तककी संख्या १२ हो गई है । sa यदि इन गाथाओं को हम कर्मकाण्ड में रख देते हैं, तो गाथा नं० ४७ के वचन से विरोध पड़ जाता है । इससे सुस्पष्ट है कि कर्मकाण्ड के रचयिताकी दृष्टिमें इन गाथाओं का क्रम नहीं है टीकाकारने भी विहायोगति के दो भेदोंको छोड़ कर ही पचास भेद गिनाये हैं । tara इन गाथाओं को कर्मकाण्ड में रख देना उसमें पूर्वापर विशेष उत्पन्न कर देना होगा ।
कर्मकाण्डकी गाथा नं० ३३ में श्राताप चौर उद्योत नामकी प्रकृतियोंके उदयका नियम बतलाया गया है जो अपनी विशेषता रखता है। शेष प्रकृतियों में ऐसी कोई उल्लेखनीय विशेषता नहीं है । अतएव कर्म प्रकृतिकी नं ० ८१ से १५ तककी पाँच तथा १७ से १०२ तककी छह गाथाओं के रहने न रहनेसे कोई बड़ा प्रकाश व अन्धकार नहीं उत्पन्न होता। यही बात कर्मप्रकृतिकी शेष १५३ से १५७ तककी पाँच गाथाथोंके विषय में कही जा सकती है, जिनमें केवल तीर्थंकर प्रकृतिका बंध कराने वाली षोडश भावनाओं के नाम गिनाये गये हैं और जिन्हें कर्मकाण्डकी गाथा नं. ८०८ के पश्चात् जोड़ने की तजवीज की गई है।
प्रसंगवश यहाँ कर्मप्रकृतिकी एक गाथाके पाठ व उसके अर्थका भी स्पष्टीकरण अनुपयुक्त न होगा । गाथा नं० ८७ में 'मिच्छा पुण्व दुगादिसु' के स्थान पर
कर्मव श्रागे संख्याक्रम से सामंजस्य बैठाने के लिये 'मिच्छा पुण्व - खवादिसु' ऐसा संशोधन पेश किया । किन्तु इस संशोधन के बिना ही उस गाथा का अर्थ बैठ जाता है और संशोधित पाठसे भी अच्छा बैठता है वहाँ पूर्वद्विकादिले अपूर्वादि उपशम श्रेणी
गया
एक बात और विशेष ध्यान देने योग्य है । कर्मकाण्डकी गाथा नं० ४७ में स्पष्ट कहा गया है कि देहसे लगाकर स्पर्श तक पचास कर्मप्रकृतियाँ होती हैं— 'देहादी फासंतापणासा ।