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: अनेकान्त
[भाद्रपद, वीर निर्वाण सं०२४६६
गई थी। त्रिविद्य-विद्या विख्यात विशालकीति सूरिने ५० फुलचन्द्रजी शास्त्री व पं० हीरालालजी शास्त्रीके उस कृतिमें सहायता पहुँचाई और सर्वप्रथम उसका साथ किया, जिसका निष्कर्ष निम्न प्रकार पाया गया। चावसे अध्ययन किया, तथा निग्रंथाचार्यवर्य त्रैविद्य- कर्मकाण्डकी नं० ११ को गाथा में दर्शन ज्ञान व चक्रवर्ती अभयचन्द्रने उसका संशोधन करके प्रथम सम्यक्त्वका स्वरूप बतलाया गया है, और उसके पुस्तक लिखी । यथा
अनन्तर १६वीं गाथामें उन्हीं जीव गुणोंका क्रम श्रित्वा कार्णाटिकी वत्ति वणि श्रीकेशवैः कृतिः (तिम्?) निर्दिष्ट किया गया है। अब इन दोनों गाथाओं के बीच कृतेयमन्यथा किचित् विशोध्यं तद्बहुश्रतैः ॥ "मियअस्थि' आदि सप्त भंगियोंके नाम गिनाने वाली
विद्यविद्याविख्यातविशालकीर्तिसूरिणा । कर्मप्रकृतिको १६ गाथा डाल देनेसे ऐसा विषयान्तर सहायोऽस्यां कृतौ चक्रेऽधीता च प्रथमं मुदा ॥ हो जाता है जिसकी सार-ग्रंथों में गुंजायश नहीं। सूरेः श्रीधर्मचन्द्रस्या भयचन्द्रगणे शनः । परिपूर्णताकी दृष्टिसे तो यह भी कहा जा सकता है कि वणिलालादि भव्यानां कृते कर्णाटवृत्तितः ॥ नयोंके नाम गिना देने मात्रसे क्या हुआ, उनके लक्षण रचिता चित्रकूट श्रीपार्श्वनाथालयेऽमुना। भी बतलाना चाहिये था पर यहाँ प्राचार्य न्यायका साधु साङ्ग सहेसाभ्यां प्रार्थितेन मुमुक्षुणा ॥ ग्रन्थ तो रच नहीं रहे । उन्होंने ११ वी गाथामें ज्ञान निग्रंथाचार्यवर्येण त्रैविद्यचक्रवर्तिना। और दर्शनका सप्त भंगियोंसे निर्णय कर लेने मांत्रका संशोध्याभयचन्द्रेणालेखि प्रथमपुस्तकः ॥ उल्लेख कर दिया है, जो हां यथेष्ट है। वहां सप्त
जहां यह टीका रची गई थी वह सम्भवतः वही भंगियों के नाम गिनवानेको कोई आवश्यकता प्रतीत चित्रकूट था जहाँ सिद्धान्ततत्वज्ञ एलाचार्यने धवला नहीं होती। टीकाके रचयिता वीरसेनाचार्यको सिद्धान्त पढाया था। कर्मकाण्डकी २० वीं गाथामें पाठ कर्मोंको नाम ऐसी परिस्थितिमें यह संभव नहीं जान पड़ता कि उक्त निर्देश किया गया है और २१ वी गाथामें उदाहरणों टीकाके निर्माण कालमें व उससे पूर्व कर्म काण्डमें से द्वारा उन आठोंका कार्य सूचित किया गया है। इन उसकी आवश्यक अंग भूत कोई गाथायें छूट गई हों या दोनों गाथाओंके बीच जीव प्रदेशों और कर्मप्रदेशोंके जुदी पड़ गई हों।
सम्बन्ध आदि बतलाने वाली कर्म प्रकृतिको २२ से २६ २. कर्मकाण्डके 'अधूर व लंडूरेपन' के पांच विशेष तककी पांच गाथायें न रहनेसे विषयकी संगतिमें कोई स्थल विद्वान लेखकने बतलाये हैं जो प्रकृति समुत्कीर्तन त्रुटि तो नज़र नहीं आती, प्रत्युत उन गाथाओंके डाल नामक प्रथम अधिकारकी २२ वीं और ३१ वीं गाथाओं देनेसे विषय साकांक्ष रह जाता है; क्योंकि कर्मप्रकृति अर्थात् नौ गाथाओंके भीतरके हैं। इनके अतिरिक्त और की २६ वीं गाथा प्रकृति आदि बंधके चार प्रकारके भी कुछ स्थल ऐसे बतलाये गये हैं जहां कर्म प्रकृतिको नाम निर्देशके साथ समाप्त होती है । उस क्रमसे तो गाथाओंको समाविष्ट करनेकी श्रावश्यकता लेखकको फिर आगे चारों प्रकारके बन्धोंका क्रमसे विवरण दिया प्रतीत हुई है। मैंने इस महत्वपूर्ण विषयका विचार जाना चाहिये था; किन्तु वहां आठ कर्मोंके कार्योंके कर्मकाण्डकी प्रतिको सामने रखकर अपने सहयोगी उदाहरण दिये गये हैं । इस प्रकार वर्तमान रूपमें